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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Hindi | 44 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुणो-पुनो गुणासाए, वंकसमायारे। Translated Sutra: जो बार – बार विषयों का आस्वाद करता है, उनका भोग – उपभोग करता है, वह वक्रसमाचार अर्थात् असंयममय जीवनवाला है। वह प्रमत्त है तथा गृहत्यागी कहलाते हुए भी वास्तव में गृहवासी ही है। सूत्र – ४४, ४५ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ धर्मप्रवादी परीक्षा | Hindi | 144 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवन्नाणं संबुज्झमाणाणं विण्णाणपत्ताणं।
अट्टा वि संता अदुआ पमत्ता। अहासच्चमिणं- ति बेमि।
नानागमो मच्चुमुहस्स अत्थि, इच्छापणीया वंकाणिकेया ।
कालग्गहीआ णिचए णिविट्ठा, ‘पुढो-पुढो जाइं पकप्पयंति’ ॥ Translated Sutra: ज्ञानी पुरुष, इस विषयमें, संसारमें स्थित, सम्यक् बोध पाने को उत्सुक एवं विज्ञान – प्राप्त मनुष्यों को उपदेश करते हैं। जो आर्त अथवा प्रमत्त होते हैं, वे भी धर्म का आचरण कर सकते हैं। यह यथातथ्य – सत्य है, ऐसा मैं कहता हूँ जीवों को मृत्यु के मुख में जाना नहीं होगा, ऐसा सम्भव नहीं है। फिर भी कुछ लोग ईच्छा द्वारा प्रेरित | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-३ अपरिग्रह | Hindi | 168 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से वसुभं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पाव कम्मं।
तं नो अन्नेसिं।
जं सम्मं ति पासहा, तं मोणं ति पासहा । जं मोणं ति पासहा, तं सम्मं ति पासहा ॥
न इमं सक्कं सिढिलेहिं अद्दिज्जमाणेहिं गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं।
मुनी मोणं समायाए, धुणे कम्म-सरीरगं।
पंतं लूहं सेवंति, वीरा समत्तदंसिणो।
एस ओहंतरे मुनी, तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए। Translated Sutra: संयमधनी मुनि के लिए सर्व समन्वागत प्रज्ञारूप अन्तःकरण से पापकर्म अकरणीय है, अतः साधक उनका अन्वेषण न करे। जिस सम्यक् को देखते हो, वह मुनित्व को देखते हो, जिस मुनित्व को देखते हो, वह सम्यक् को देखते हो। (सम्यक्त्व) का सम्यक्रूप से आचरण करना उन साधकों द्वारा शक्य नहीं है, जो शिथिल हैं, आसक्ति – मूलक स्नेह से आर्द्र | |||||||||
Anuyogdwar | अनुयोगद्वारासूत्र | Ardha-Magadhi |
अनुयोगद्वारासूत्र |
Hindi | 183 | Sutra | Chulika-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एएसिं णं सत्तण्हं सराणं तओ गामा पन्नत्ता, तं जहा–सज्जगामे मज्झिमगामे गंधारगामे।
सज्जगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पन्नत्ताओ, तं जहा– Translated Sutra: इन सात स्वरों के तीन ग्राम हैं। षड्जग्राम, मध्यमग्राम, गांधारग्राम। षड्जग्राम की सात मूर्च्छनाऍं हैं। मंगी, कौरवीया, हरित, रजनी, सारकान्ता, सारसी और शुद्धषड्ज। मध्यमग्राम की सात मूर्च्छनाऍं हैं। उतरमंदा, रजनी, उत्तरा, उत्तरायता, अश्वक्रान्ता, सौवीरा, अभिरुद्गता। गांधारग्राम की सात मूर्च्छनाऍं हैं। | |||||||||
Aturpratyakhyan | आतुर प्रत्याख्यान | Ardha-Magadhi |
असमाधिमरणं |
Hindi | 37 | Gatha | Painna-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे पुण अट्ठमईया पयलियसन्ना य वक्कभावा य ।
असमाहिणा मरंति उ न हु ते आराहगा भणिया ॥ Translated Sutra: और फिर जो आठ मदवाले, नष्ट हुई हो वैसी बुद्धिवाले और वक्रपन को (माया को) धारण करनेवाले असमाधि से मरते हैं उन्हें निश्चय से आराधक नहीं कहा है। | |||||||||
Auppatik | औपपातिक उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवसरण वर्णन |
Hindi | 31 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कूणिए राया भिंभसारपुत्ते बलवाउयस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिए पीइमणे परमसोमनस्सिए हरिसवस विसप्पमाणहियए जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अट्टणसालं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता अनेगवायाम जोग्ग वग्गण वामद्दण मल्लजुद्ध-करणेहिं संते परिस्संते सयपाग सहस्सपागेहिं सुगंधतेल्लमाईहिं पीणणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं मयणिज्जेहिं विहणिज्जेहिं सव्विंदियगायपल्हायणिज्जेहिं अब्भिंगेहिं अब्भिंगिए समाणे तेल्ल-चम्मंसि पडिपुण्ण पाणि पाय सुउमाल कोमलतलेहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पत्तट्ठेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउणसिप्पोवगएहिं Translated Sutra: भंभसार के पुत्र राजा कूणिक ने सेनानायक से यह सूना। वह प्रसन्न एवं परितुष्ट हुआ। जहाँ व्यायाम – शाला थी, वहाँ आया। व्यायामशाला में प्रवेश किया। अनेक प्रकार से व्यायाम किया। अंगों को खींचना, उछलना – कूदना, अंगों को मोड़ना, कुश्ती लड़ना, व्यायाम के उपकरण आदि घुमाना – इत्यादि द्वारा अपने को श्रान्त, परि – श्रान्त | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-९ प्रयोगबंध | Hindi | 427 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! अट्ठविहे पन्नत्ते, तं जहा– नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे जाव अंतराइयकम्मा-सरीरप्पयोगबंधे।
नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं?
गोयमा! नाणपडिणीययाए, नाणणिण्हवणयाए, नाणंतराएणं, नाणप्पदोसेणं, नानच्चासात-णयाए, नाणविसंवादणाजोगेणं नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं नाणाव-रणिज्ज-कम्मासरीरप्पयोगबंधे।
दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं?
गोयमा! दंसणपडिनीययाए, दंसणनिण्हवणयाए, दंसणतराएणं, दंसणप्पदोसेणं, दंसणच्चा-सातणयाए, दंसणविसंवादणाजोगेणं Translated Sutra: भगवन् ! कार्मणशरीरप्रयोगबंध कितने प्रकार का है ? गौतम ! आठ प्रकार का। ज्ञानवरणीयकार्मण – शरीरप्रयोगबंध, यावत् अन्तरायकार्मणशरीरप्रयोगबंध। भगवन् ! ज्ञानवरणीयकार्मणशरीरप्रयोगबंध किस कर्म के उदय से होता है ? गौतम ! ज्ञान की प्रत्यनीकता करने से, ज्ञान का निह्नव करने से, ज्ञान मे अन्तराय देने से, ज्ञान से प्रद्वेष | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-४ जीव | Hindi | 351 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे नयरे जाव एवं वयासि– कतिविहा णं भंते! संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता?
गोयमा! छव्विहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तं जहा–पुढविकाइया जाव तसकाइया। एवं जहा जीवाभिगमे जाव एगे जीवे एगेणं समएणं एगं किरियं पकरेइ, तं जहा–सम्मत्तकिरियं वा, मिच्छत्तकिरियं वा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् भगवान महावीर से इस प्रकार पूछा – भगवन् ! संसारसमापन्नक जीव कितने प्रकार के हैं? गौतम ! छह प्रकार के – पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एवं त्रस – कायिक। इस प्रकार यह समस्त वर्णन जीवाभिगमसूत्र में कहे अनुसार सम्यक्त्वक्रिया और मिथ्यात्वक्रिया पर्यन्त कहना | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-४ जीव | Hindi | 352 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जीवा छव्विह पुढवी जीवाण ठिती भवट्ठितिकाये |
निल्लेवण अनगारे किरिया सम्मत्त मिच्छत्ता || Translated Sutra: जीव के छह भेद, पृथ्वीकायिक आदि जीवों की स्थिति, भवस्थिति, सामान्यकायस्थिति, निर्लेपन, अनगार सम्बन्धी वर्णन सम्यक्त्वक्रिया और मिथ्यात्वक्रिया। शतक – ७ – उद्देशक – ५ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१८ |
उद्देशक-५ असुरकुमार | Hindi | 739 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दो भंते! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना। तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे उज्जुयं विउव्विस्सामीति उज्जुयं विउव्वइ, वंकं विउव्विस्सामीति वंकं विउव्वइ, जं जहा इच्छइ तं जहा विउव्वइ। एगे असुरकुमारे देवे उज्जुयं विउव्विस्सामीति वंकं विउव्वइ, वंकं विउव्विस्सामीति उज्जुयं विउव्वइ, जं जहा इच्छति तं तहा विउव्वइ, से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! असुरकुमारा देवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–मायिमिच्छदिट्ठीउववन्नगा य, अमायि-सम्मदिट्ठीउववन्नगा य। तत्थ णं जे से मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नए असुरकुमारे देवे से णं उज्जुयं विउव्विस्सामीति वंकं विउव्वइ जाव Translated Sutra: भगवन् ! दो असुरकुमार, एक ही असुरकुमारावास में असुरकुमार रूप से उत्पन्न हुए, उनमें से एक असुर – कुमार देव यदि वह चाहे कि मैं ऋजु से विकुर्वणा करूँगा; तो वह ऋजु – विकुर्वणा कर सकता है और यदि वह चाहे कि मैं वक्र रूप में विकुर्वणा करूँगा, तो वह वक्र – विकुर्वणा कर सकता है। जब कि एक असुरकुमारदेव चाहता है कि मैं ऋजु – | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२५ |
उद्देशक-३ संस्थान | Hindi | 876 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! सेढीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–उज्जुआयता, एगओवंका, दुहओवंका, एगओखहा, दुहओखहा, चक्कवाला, अद्ध चक्कवाला।
परमाणुपोग्गलाणं भंते! किं अणुसेढिं गती पवत्तति? विसेढिं गती पवत्तति?
गोयमा! अणुसेढिं गती पवत्तति, नो विसेढिं गती पवत्तति।
दुपएसियाणं भंते! खंधाणं अणुसेढिं गती पवत्तति? विसेढिं गती पवत्तति? एवं चेव। एवं जाव अनंतपदेसियाणं खंधाणं।
नेरइयाणं भंते! किं अणुसेढिं गती पवत्तति? विसेढिं गती पवत्तति? एवं चेव। एवं जाव वेमाणियाणं। Translated Sutra: भगवन् ! श्रेणियाँ कितनी कही है ? गौतम ! सात यथा – ऋज्वायता, एकतोवक्रा, उभयतोवक्रा, एकतःखा, उतयतःखा, चक्रवाल और अर्द्धचक्रवाल। भगवन् ! परमाणु – पुद्गलों की गति अनुश्रेणि होती है या विश्रेणि ? गौतम ! परमाणु – पुद्गलों की गति अनुश्रेणि होती है, विश्रेणि गति नहीं होती। भन्ते ! द्विप्रदेशिक स्कन्धों की गति अनुश्रेणि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३४ एकेन्द्रिय शतक-शतक-१ |
उद्देशक-१ | Hindi | 1033 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कइविहा णं भंते! एगिंदिया पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा एगिंदिया पन्नत्ता, तं जहा–पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया। एवमेते चउक्कएणं भेदेणं भाणियव्वा जाव वणस्सइकाइया।
अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरत्थिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चत्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्ता-सुहुम-पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते! कइसमएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा?
गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–एगसमइएण वा दुसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा?
एवं खलु गोयमा! मए सत्त सेढीओ Translated Sutra: भगवन् ! एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के, यथा – पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक। इनके भी प्रत्येक के चार – चार भेद वनस्पतिकायिक – पर्यन्त कहने चाहिए। भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३४ एकेन्द्रिय शतक-शतक-१ |
उद्देशक-१ | Hindi | 1034 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अपज्जत्तासुहुमपुढविक्काइए णं भंते! अहेलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा?
गोयमा! तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा?
गोयमा! अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइए णं अहेलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइयत्ताए एयपयरंसि अणुसेढिं उववज्जित्तए, से Translated Sutra: भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अधोलोक क्षेत्र की त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरण – समुद्घात करके ऊर्ध्वलोक की त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक – रूप से उत्पन्न होने योग्य है तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? गौतम ! तीन समय या चार समय की। | |||||||||
Chandrapragnapati | चंद्रप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Hindi | 183 | Gatha | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं वड्ढति चंदो, परिहानी एव होइ चंदस्स ।
कालो वा जोण्हो वा, एयनुभावेण चंदस्स ॥ Translated Sutra: पन्द्रह भाग से पन्द्रहवे दिन में चंद्र उस का वरण करता है और पन्द्रह भाग से पुनः उस का अवक्रम होता है। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 87 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगनामं जनवए होत्था। तत्थ णं चंपा नामं नयरी होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया।
तए णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्था–अहिगयजीवाजीवे वण्णओ।
तए णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो-कहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणियं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहित्तए ति कट्टु अन्नमन्नस्स एयमट्ठं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता Translated Sutra: उस काल और उस समय में अंग नामक जनपद था। चम्पा नगरी थी। चन्द्रच्छाय अंगराज – अंग देश का राजा था। उस चम्पा नगरी में अर्हन्नक प्रभृति बहुत – से सांयात्रिक नौवणिक रहते थे। वे ऋद्धिसम्पन्न थे और किसी से पराभूत होने वाले नहीं थे। उनके अर्हन्नक श्रमणोपासक भी था, वह जीव – अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। वे अर्हन्नक | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 111 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं मागंदिय-दारगाणं लवणसमुद्दं अनेगाइं जोयणसयाइं ओगाढाणं समाणाणं अनेगाइं उप्पाइयसयाइं पाउब्भूयाइं, तं जहा–अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले थणियसद्दे कालिय-वाए जाव समुट्ठिए।
तए णं सा नावा तेणं कालियवाएणं आहुणिज्जमाणी-आहुणिज्जमाणी संचालिज्जमाणी-संचालिज्जमाणी संखोभिज्जमाणी-संखोभिज्जमाणी सलिल-तिक्ख-वेगेहिं अइअट्टिज्जमाणी-अइअट्टिज्जमाणी कोट्टिमंसि करतलाहते विव तिंदूसए तत्थेव-तत्थेव ओवयमाणी य उप्पयमाणी य, उप्पयमाणी विव वरणीयलाओ सिद्धविज्जा विज्जाहरकन्नगा, ओवयमाणी विव गगनतलाओ भट्ठविज्जा विज्जाहरकन्नगा, विपलायमाणी विव महागरुल-वेग-वित्तासिय Translated Sutra: तत्पश्चात् उन माकन्दीपुत्रों के अनेक सैकड़ों योजन तक अवगाहन कर जाने पर सैकड़ों उत्पात उत्पन्न हुए। वे उत्पात इस प्रकार थे – अकाल में गर्जना बिजली चमकना स्तनित शब्द होने लगे। प्रतिकूल तेज हवा चलने लगी। तत्पश्चात् वह नौका प्रतिकूल तूफानी वायु से बार – बार काँपने लगी, बार – बार एक जगह से दूसरी जगह चलायमान होने | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
18. आम्नाय अधिकार |
2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन | Hindi | 413 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ।
कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोज्झो सुपालओ ।। Translated Sutra: यहाँ गौतम उत्तर देते हैं कि प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में युग का आदि होने के कारण व्यक्तियों की प्रकृति सरल परन्तु बुद्धि जड़ होती है, इसलिए उन्हें धर्म समझाना कठिन पड़ता है। चरम तीर्थ में प्रकृति वक्र हो जाने के कारण धर्म को समझ कर भी उसका पालन कठिन होता है। मध्यवर्ती तीर्थों में समझना व पालना दोनों सरल होते ह | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
11. उत्तम आर्जव (सरलता) | Hindi | 273 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः चिन्तयति न वक्रं, न करोति वक्रं न जल्पति वक्रम्।
न च गोपयति निजदोषम्, आर्जवधर्मः भवेत्तस्य ।। Translated Sutra: जो मुनि मन से कुटिल विचार नहीं करता, वचन से कुटिल बात नहीं कहता, न ही गुरु के समक्ष अपने दोष छिपाता है, तथा शरीर से भी कुटिल चेष्टा नहीं करता, उसके उत्तम आर्जव धर्म होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन | Hindi | 413 | View Detail | ||
Mool Sutra: पूर्वेषां दुर्विशोध्यस्तु, चरमाणां दुरनुपालकः।
कल्प्यो मध्यमगानां तु, सुविशोध्यः सुपालकः ।। Translated Sutra: यहाँ गौतम उत्तर देते हैं कि प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में युग का आदि होने के कारण व्यक्तियों की प्रकृति सरल परन्तु बुद्धि जड़ होती है, इसलिए उन्हें धर्म समझाना कठिन पड़ता है। चरम तीर्थ में प्रकृति वक्र हो जाने के कारण धर्म को समझ कर भी उसका पालन कठिन होता है। मध्यवर्ती तीर्थों में समझना व पालना दोनों सरल होते ह | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 49 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं, अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे, एत्थ णं दूसमदूसमणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! ।
तीसे णं भंते! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! काले भविस्सई Translated Sutra: गौतम ! पंचम आरक के २१००० वर्ष व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम – दुःषमा नामक छठ्ठा आरक प्रारंभ होगा। उसमें अनन्त वर्णपर्याय, गन्धपर्याय, समपर्याय तथा स्पर्शपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जायेगा। भगवन् ! जब वह आरक उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचा होगा, तो भरतक्षेत्र का आकार – स्वरूप कैसा होगा ? गौतम | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ४ क्षुद्र हिमवंत |
Hindi | 167 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे नामं विजए पन्नत्ते? गोयमा! सीयाए महानईए उत्तरेणं, निलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे नामं विजए पन्नत्ते–उत्तरदाहिणायए पाईणपडीण विच्छिन्नेपलियंकसंठाणसंठिए गंगासिंधूहिं महानईहिं वेयड्ढेण य पव्वएणं छब्भागपविभत्ते सोलस जोयणसहस्साइं पंच य बाणउए जोयणसए दोन्नि य एगूनवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं, दो जोयणसहस्साइं दोन्नि य तेरसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेसूने विक्खंभेणं।
कच्छस्स णं विजयस्स Translated Sutra: भगवन् ! जम्बूद्वीप के महाविदेहक्षेत्रमें कच्छविजय कहाँ है ? गौतम ! शीता महानदी के उत्तर में, नीलवान वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिममें, माल्यवान वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में है। वह उत्तर – दक्षिण लम्बी एवं पूर्व – पश्चिम चौड़ी है, पलंग के आकारमें अवस्थित है। गंगा महानदी, सिन्धु | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
मनुष्य उद्देशक | Hindi | 145 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगोरुयदीवस्स णं भंते! केरिसए आगार भावपडोयारे पन्नत्ते?
गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पन्नत्ते। से जहानामए–आलिंगपुक्खरेति वा, एवं सवणिज्जे भाणितव्वे जाव पुढविसिलापट्टगंसि तत्थ णं बहवे एगोरुयदीवया मनुस्सा य मनुस्सीओ य आसयंति जाव विहरंति एगोरुयदीवे णं दीवे तत्थतत्थ देसे तहिं तहिं बहवे उद्दालका मोद्दालका रोद्दालका कतमाला नट्टमाला सिंगमाला संखमाला दंतमाला सेलमालगा नाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंता कंदमंतो जाव बीयमंतो पत्तेहिं य पुप्फेहि य अच्छणपडिच्छन्ना सिरीए अतीवअतीव सोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठंति...
...एगोरुयदीवे णं दीवे Translated Sutra: हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप की भूमि आदि का स्वरूप किस प्रकार का है ? गौतम ! एकोरुकद्वीप का भीतरी भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय है। मुरज के चर्मपुट समान समतल वहाँ का भूमिभाग है – आदि। इस प्रकार शय्या की मृदुता भी कहना यावत् पृथ्वीशिलापट्टक का भी वर्णन करना। उस शिलापट्टक पर बहुत से एको – रुकद्वीप के मनुष्य और स्त्रियाँ | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
ज्योतिष्क उद्देशक | Hindi | 315 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चंदविमाने णं भंते कति देवसाहस्सीओ परिवहंति गोयमा चंदविमाणस्स णं पुरच्छिमेणं सेयाणं सुभ-गाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासाणं थिरलट्ठपउवट्टपीवर-सुसिलिट्ठविसिट्ठ-तिक्खदाढा-विडंबितमुहाणं रत्तुप्पलपत्त-मउयसुमालालु-जीहाणं मधुगुलियपिंग-लक्खाणं पसत्थसत्थवेरुलियभिसंतकक्कडनहाणं विसालपीवरोरुपडिपुन्नविउलखंधाणं मिउविसय पसत्थसुहुमलक्खण-विच्छिण्णकेसरसडोवसोभिताणं चंकमितललिय-पुलितथवलगव्वित-गतीणं उस्सियसुणिम्मि-यसुजायअप्फोडियणंगूलाणं वइरामयनक्खाणं वइरामयदंताणं पीतिगमाणं मनोगमाणं मनोरमाणं मनोहराणं अमीयगतीणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं Translated Sutra: भगवन् ! चन्द्रविमान को कितने हजार देव वहन करते हैं ? गौतम ! १६००० देव, उनमें से ४००० देव सिंह का रूप धारण कर पूर्वदिशा से उठाते हैं। वे सिंह श्वेत हैं, सुन्दर हैं, श्रेष्ठ कांति वाले हैं, शंख के तल के समान विमल और निर्मल तथा जमे हुए दहीं, गाय का दूध, फेन चाँदी के नीकर के समान श्वेत प्रभावाले हैं, उनकी आँखें शहद की गोली | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ शल्यउद्धरण |
Hindi | 21 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] असंजम-अहम्मं च, निस्सील-व्वतता वि य।
सकुलसत्तमसुद्धी य, सुकयनासो तहेव य॥ Translated Sutra: असंयम, अधर्म, शील और व्रत रहितता, कषाय सहितता, योग की अशुद्धि यह सभी सुकृत पुण्य को नष्ट करनेवाले और पार न पा सके वैसी दुर्गति में भ्रमण करनेवाले हो और फिर शारीरिक मानसिक दुःख पूर्ण अंत रहित संसार में अति घोर व्याकुलता भुगतनी पड़े, कुछ को रूप की बदसूरती मिले, दारिद्र्य, दुर्भगता, हाहाकार करवानेवाली वेदना, पराभाव | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 405 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) से भयवं किं पच्छित्तेणं सुज्झेज्जा
(२) गोयमा अत्थेगे जे णं सुज्झेज्जा। अत्थेगे जे णं नो सुज्झेज्जा
(३) से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ । जहा णं गोयमा अत्थेगे जे णं सुज्झेज्जा, अत्थेगे जे णं नो सुज्झेज्जा।
(४) गोयमा अत्थेगे जे णं नियडी-पहाणे सढ-सीले वंक-समायारे। से णं ससल्ले आलोइत्ताणं ससल्ले चेव पायच्छित्तमनुचरेज्जा। से णं अवि-सुद्ध-सकलुसासए नो सुज्झेज्जा
(५) अत्थेगे जे णं उज्जू पद्धर-सरल-सहावे, जहा-वत्तं नीसल्लं नीसंकं सुपरिफुडं आलोइ-त्ताणं जहोवइट्ठं चेव पायच्छित्तमनुचिट्ठेज्जा। से णं निम्मल-निक्कलुस-विसुद्धासए वि सुज्झेज्जा।
(६) एतेणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या प्रायश्चित्त से शुद्धि होती है ? हे गौतम ! कुछ लोगों की शुद्धि होती है और कुछ लोगों की नहीं होती। हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हो कि एक की होती है और एक की नहीं होती ? हे गौतम ! यदि कोई पुरुष माया, दंभ, छल, ठगाई के स्वभाववाले हो, वक्र आचारवाला हो, वह आत्मा शल्यवाले रहकर, प्रायश्चित्त का सेवन करते हैं। | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-९ | Hindi | 599 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू रन्नो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असनं वा पानं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति, तं जहा–खत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसियाण वा। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी, राजा आदि के अशन आदि आहार कि जो दूसरों के निमित्त से जैसे कि, क्षत्रिय, राजा, खंड़िया राजा, राजसेवक, राजवंशज के लिए किया हो उसे ग्रहण करे, (उसी तरह से) राजा आदि के नर्तक, कच्छुक (रज्जुनर्तक), जलनर्तक, मल्ल, भाँड़, कथाकार, कुदक, यशोगाथक, खेलक, छत्रधारक, अश्व, हस्ति, पाड़ा, बैल, शेर, बकरे, मृग, कुत्ते, शुकर, सूवर, | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 302 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सट्ठाणपरट्ठाणे दुविहं ठवियं तु होइ नायव्वं ।
खीराइ परंपरए हत्थगय धरंतरं जाव ॥ Translated Sutra: गृहस्थने अपने लिए आहार बनाया हो उसमें से साधु को देने के लिए रख दे वो तो स्थापना दोषवाला आहार कहलाता है। स्थापना के छह प्रकार – स्वस्थान स्थापना, परस्थान स्थापना, परम्पर स्थापना, अनन्तर स्थापना, चिरकाल स्थापना और इत्वरकाल स्थापना। स्वस्थान स्थापना – आहार आदि जहाँ तैयार किया हो वहीं चूल्हे पर साधु को देने | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 334 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कीयगडंपिय दुविहं दव्वे भावे य दुविहमेक्केक्कं ।
आयकियं च परकियं परदव्वं तिविहऽचित्ताइ ॥ Translated Sutra: साधु के लिए बिका हुआ लाकर देना क्रीतदोष कहलाता है। क्रीतदोष दो प्रकार से है। १. द्रव्य से और २. भाव से। द्रव्य के और भाव के दो – दो प्रकार – आत्मक्रीत और परक्रीत। परद्रव्यक्रीत तीन प्रकार से। सचित्त, अचित्त और मिश्र। आत्मद्रव्यक्रीत – साधु अपने पास के निर्माल्यतीर्थ आदि स्थान में रहे प्रभावशाली प्रतिमा की | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-१६ प्रयोग |
Hindi | 441 | Sutra | Upang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! गइप्पवाए पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–पओगगती ततगती बंधणच्छेदनगती उववायगती विहायगती।
से किं तं पओगगती? पओगगती पन्नरसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती एवं जहा पओगे भणिओ तहा एसा वि भाणियव्वा जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगती।
जीवाणं भंते! कतिविहा पओगगती पन्नत्ता? गोयमा! पन्नरसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मासरीरकायप्पओगगती।
नेरइयाणं भंते! कतिविहा पओगगती पन्नत्ता? गोयमा! एक्कारसविहा पन्नत्ता, तं जहा–सच्चमणप्पओगगती एवं उवउज्जिऊण जस्स जतिविहा तस्स ततिविहा भाणितव्वा जाव वेमानियाणं।
जीवा णं भंते! किं सच्चमनप्पओगगती Translated Sutra: भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच – प्रयोगगति, ततगति, बन्धनछेदनगति, उपपात – गति और विहायोगति। वह प्रयोगगति क्या है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार की, सत्यमनःप्रयोगगति यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगति। प्रयोग के समान प्रयोगगति भी कहना। भगवन् ! जीवों की प्रयोगगति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पन्द्रह प्रकार | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ अब्रह्म |
Hindi | 19 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण निसेवंति सुरगणा सअच्छरा मोह मोहिय मती, असुर भयग गरुल विज्जु जलण दीव उदहि दिस पवण थणिया। अणवण्णिय पणवण्णिय इसिवादिय भूयवादियकंदिय महाकंदिय कूहंड पतगदेवा, पिसाय भूय जक्ख रक्खस किन्नर किंपुरिस महोरग गंधव्व तिरिय जोइस विमाणवासि मणुयगणा, जलयर थलयर खहयराय मोहपडिबद्धचित्ता अवितण्हा कामभोग-तिसिया, तण्हाए बलवईए महईए समभिभूया गढिया य अतिमुच्छिया य, अबंभे ओसण्णा, तामसेन भावेण अणुम्मुक्का, दंसण-चरित्तमोहस्स पंजरं पिव करेंतिअन्नोन्नं सेवमाणा।
भुज्जो असुर सुर तिरिय मणुय भोगरत्ति विहार संपउत्ता य चक्कवट्टी सुरनरवतिसक्कया सुरवरव्व देवलोए भरह नग नगर नियम Translated Sutra: उस अब्रह्म नामक पापास्रव को अप्सराओं के साथ सुरगण सेवन करते हैं। कौन – से देव सेवन करते हैं ? जिनकी मति मोह के उदय से मूढ़ बन गई है तथा असुरकुमार, भुजगकुमार, गरुड़कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार तथा स्तनितकुमार, ये भवनवासी, अणपन्निक, पणपण्णिक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
संवर द्वार श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-४ ब्रह्मचर्य |
Hindi | 43 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जेण सुद्धचरिएण भवइ सुबंभणो सुसमणो सुसाहू। स इसी स मुणी स संजए स एव भिक्खू, जो सुद्धं चरति बंभचेरे।
इमं च रति राग दोस मोह पवड्ढणकरं किंमज्झ पमायदोस पासत्थसीलकरणं अब्भंगणाणि य तेल्लमज्जणाणि य अभिक्खणं कक्खसीसकरचरणवदणधोवण संबाहण गायकम्म परिमद्दण अनु-लेवण चुण्णवास धूवण सरीरपरिमंडण बाउसिक हसिय भणिय नट्टगीयवाइयनडनट्टकजल्ल-मल्लपेच्छण बेलंबक जाणि य सिंगारागाराणि य अण्णाणि य एवमादियाणि तव संजम बंभचेर घातोवघातियाइं अणुचरमाणेणं बंभचेरं वज्जेयव्वाइं सव्वकालं। भावेयव्वो भवइ य अंतरप्पा इमेहिं तव नियम सील जोगेहिं निच्चकालं, किं ते? –
अण्हाणकऽदंतधोवण सेयमलजल्लधारण Translated Sutra: ब्रह्मचर्य महाव्रत का निर्दोष परिपालन करने से सुब्राह्मण, सुश्रमण और सुसाधु कहा जाता है। जो शुद्ध ब्रह्मचर्य का आचरण करता है वही ऋषि है, वही मुनि है, वही संयत है और वही सच्चा भिक्षु है। ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाले पुरुष को रति, राग, द्वेष और मोह, निस्सार प्रमाददोष तथा शिथिलाचारी साधुओं का शील और घृतादि | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 24 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समामेव समोसरणं करेंति, करेत्ता तं चेव भाणियव्वं जाव दिव्वे देवरमणे पवत्ते यावि होत्था।
तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स आवड पच्चावड सेढि पसेढि सोत्थिय सोवत्थिय पूसमाणव वद्धमाणग मच्छंडा मगरंडा जारा मारा फुल्लावलि पउमपत्त सागरतरंग वसंतलता पउमलयभत्तिचित्तं नामं दिव्वं नट्टविहिं उवदंसेंति।
एवं च एक्किक्कियाए नट्टविहीए समोसरणादिया एसा वत्तव्वया जाव दिव्वे देवरमणे पवत्ते यावि होत्था।
तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारियाओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स ईहामिअ उसभ तुरग नर मगर विहग वालग किन्नर रुरु Translated Sutra: इसके बाद सभी देवकुमार और देवकुमारियाँ पंक्तिबद्ध होकर एक साथ मिले। सब एक साथ नीचे नमे और एक साथ ही अपना मस्तक ऊपर कर सीधे खड़े हुए। इसी क्रम से पुनः कर सीधे खड़े होकर नीचे नमे और फिर सीधे खड़े हुए। खड़े होकर एक साथ अलग – अलग फैल गए और फिर यथायोग्य नृत्य – गान आदि के उपकरणों – वाद्यों को लेकर एक साथ ही बजाने लगे, एक साथ | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 29 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेसिं णं दाराणं उभओ पासे दुहओ निसीहियाए सोलस-सोलस सालभंजिया-परिवाडीओ पन्नत्ताओ। ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्ठियाओ सुपइट्ठियाओ सुअलंकियाओ नानाविहरागवसणाओ नानामल्लपिणद्धाओ मुट्ठिगेज्झसुमज्झाओ आमेलग-जमल जुयल वट्टिय अब्भुन्नय पीण रइय संठियपओहराओ रत्तावंगाओ असियकेसीओ मिउविसय पसत्थ लक्खण संवेल्लियग्गसिरयाओ ईसिं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ वामहत्थग्गहियग्गसालाओ ईसिं अद्धच्छिकडक्खचिट्ठितेहिं लूसमाणीओ विव, चक्खुल्लोयणलेसेहिं अन्नमन्नं खिज्जमाणीओ विव, पुढविपरिणामाओ सासयभावमुवगयाओ चंदाननाओ चंदविलासिणीओ चंदद्धसमणिडालाओ चंदाहियसोमदंसणाओ उक्का विव उज्जोवेमाणाओ Translated Sutra: उन द्वारों की दोनों बाजुओं की निशीधिकाओं में सोलह – सोलह पुतलियों की पंक्तियाँ हैं। ये पुतलियाँ विविध प्रकार की लीलाएं करती हुई, सुप्रतिष्ठित सब प्रकार के आभूषणों से शृंगारित, अनेक प्रकार के रंग – बिरंगे परिधानों एवं मालाओं से शोभायमान, मुट्ठी प्रमाण काटि प्रदेश वाली, शिर पर ऊंचा अंबाडा बांधे हुए और समश्रेणि | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | English | 91 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः चिन्तयति न वक्रं, न करोति वक्रं न जल्पति वक्रम्।
न च गोपयति निजदोषम्, आर्जवधर्मः भवेत् तस्य।।१०।। Translated Sutra: He who does not think crookedly, does not act crookedly, does not speak crookedly and does not hide his own weaknesses, observes the virtue of straightforwardness. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Gujarati | 91 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः चिन्तयति न वक्रं, न करोति वक्रं न जल्पति वक्रम्।
न च गोपयति निजदोषम्, आर्जवधर्मः भवेत् तस्य।।१०।। Translated Sutra: જે કુટિલ વિચાર નથી કરતો, કુટિલ કાર્ય નથી કરતો, કુટિલ વચન નથી બોલતો, જે પોતાના દોષને છુપાવતો નથી એવો આત્મા આર્જવ (સરળતા) ધર્મને પામ્યો છે એમ સમજવું. | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 91 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः चिन्तयति न वक्रं, न करोति वक्रं न जल्पति वक्रम्।
न च गोपयति निजदोषम्, आर्जवधर्मः भवेत् तस्य।।१०।। Translated Sutra: जो कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता, कुटिल वचन नहीं बोलता और अपने दोषों को नहीं छिपाता, उसको आर्जव-धर्म होता है। | |||||||||
Sanstarak | संस्तारक | Ardha-Magadhi |
संस्तारकस्य दृष्टान्ता |
Hindi | 61 | Gatha | Painna-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दंडो त्ति विस्सुयजसो पडिमादसधारओ ठिओ पडिमं ।
जउणावंके नयरे सरेहिं विद्धो सयंगीओ ॥ Translated Sutra: दंड नाम के जानेमाने राजर्षि जो प्रतिमा को धारण करनेवालों में थे। एक अवसर पर यमुनावक्र नगर के उद्यान में वो प्रतिमा को धारण करके कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े थे, वहाँ यवन राजा ने उस महर्षि को बाणों से बींध दिया, वो उस वक्त संथारा को अपनाकर आराधक भाव में रहे – | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-७ |
Hindi | 644 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सत्तविधे कायकिलेसे पन्नत्ते, तं जहा– ठाणातिए, उक्कुडुयासणिए, पडिमठाई, वीरासणिए, नेसज्जिए, दंडायतिए, लगंडसाई। Translated Sutra: कायक्लेश सात प्रकार का कहा गया है, यथा – स्थानातिग – कायोत्सर्ग करने वाला। उत्कटुकासनिक – उकडु बैठने वाला। प्रतिमास्थायी – भिक्षु प्रतिमा का वहन करने वाला। वीरासनिक – सिंहासन पर बैठने वाले के समान बैठना। नैषधिक – पैर आदि स्थिर करके बैठना। दंडायतिक – दण्ड के समान पैर फैलाकर बैठना। लगंड – शायी – वक्र काष्ठ | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Hindi | 250 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते नाममेगे उन्नते, उन्नते नाममेगे पनते, पनते नाममेगे उन्नते, पनते नाममेगे पनते।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते नामेगे उन्नते, उन्नते नाममेगे पनते, पनते नाममेगे उन्नते, पनते नाममेगे पनते।
चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते गाममेगे उन्नतपरिणते, उन्नते नाममेगे पनतपरिणते, पनते नाममेगे उन्नतपरिणते, पनते नाममेगे पनतपरिणते।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते नाममेगे उन्नतपरिणते, उन्नते नाममेगे पनतपरिणते, पनते नाममेगे उन्नतपरिणते, पनते नाममेगे पनतपरिणते।
चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते Translated Sutra: चार प्रकार के वृक्ष कहे गए हैं, यथा – कितनेक द्रव्य से भी ऊंचे और भाव से भी ऊंचे, कितनेक द्रव्य से ऊंचे किन्तु भाव से नीचे, कितनेक द्रव्य से नीचे किन्तु भाव से ऊंचे, कितनेक द्रव्य से भी नीचे और भाव से भी नीचे। इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा – कितनेक द्रव्य से ‘जाति से’ उन्नत और गुण से भी उन्नत इस प्रकार | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Hindi | 268 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चउव्विहे सच्चे पन्नत्ते, तं जहा–काउज्जुयया, भासुज्जुयया, भावुज्जुयया, अविसंवायणाजोगे।
चउव्विहे मोसे पन्नत्ते, तं जहा– कायअनुज्जुयया, भासअनुज्जुयया, भावअनुज्जुयया, विसंवाद-णाजोगे।
चउव्विहे पणिधाणे पन्नत्ते, तं जहा–मनपणिधाणे, वइपणिधाणे, कायपणिधाणे, उवगरणपणिधाणे। एवं–नेरइयाणं पंचिंदियाणं जाव वेमाणियाणं।
चउव्विहे सुप्पणिहाणे पन्नत्ते, तं जहा– मनसुप्पणिहाणे, वइसुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे, उवगरणसुप्पणिहाणे।
एवं–संजयमनुस्साणवि।
चउव्विहे दुप्पणिहाणे पन्नत्ते, तं जहा–मनदुप्पणिहाणे, वइदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, उवकरण-दुप्पणिहाणे। एवं– पंचिंदियाणं Translated Sutra: चार प्रकार के सत्य कहे हैं, यथा – काया की सरलतारूप सत्य, भाषा की सरलतारूप सत्य, भावों की सरलतारूप सत्य, अविसंवाद योगरूप सत्य। चार प्रकार का मृषावाद कहा है, काया की वक्रतारूप मृषावाद, भाषा वक्रतारूप मृषावाद, भावों की वक्रतारूप मृषावाद, विसंवाद योगरूप मृषावाद। चार प्रकार के प्रणिधान हैं, मन – प्रणिधान, वचन – प्रणिधान, | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-२ | Hindi | 308 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–अप्पणो नाममेगे अलमंथू भवति नो परस्स, परस्स नाममेगे अलमंथू भवंति नो अप्पणो, एगे अप्पणोवि अलमंथ भवति परस्सवि, एगे नो अप्पणो अलमंथू भवति नो परस्स।
चत्तारि मग्गा पन्नत्ता, तं जहा–उज्जू नाममेगे उज्जू, उज्जू नाममेगे वंके, वंके नाममेगे उज्जू, वंके नाममेगे वंके
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–उज्जू नाममेगे उज्जू, उज्जू नाममेगे वंके, वंके नाममेगे उज्जू, वंके नाममेगे वंके।
चत्तारि मग्गा पन्नत्ता, तं जहा–खेमे नाममेगे खेमे, खेमे नाममेगे अखेमे, अखेमे नाममेगे खेमे, अखेमे नाम-मेगे अखेमे।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं Translated Sutra: पुरुष वर्ग चार प्रकार का है। एक पुरुष अपने आपको दुष्प्रवृत्तियों से बचाता है किन्तु दूसरे को नहीं बचाता। एक पुरुष दूसरों को दुष्प्रवृत्तियों से बचाता है, किन्तु स्वयं नहीं बचता। एक पुरुष स्वयं भी दुष्प्रवृत्तियों से बचता है और दूसरे को भी बचाता है। एक पुरुष न स्वयं दुष्प्रवृत्तियों से बचता है और न दूसरे | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-२ | Hindi | 312 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि केतणा पन्नत्ता, तं जहा–वंसीमूलकेतणए, मेंढविसाणकेतणए, गोमुत्तिकेतणए, अवलेहणिय-केतणए।
एवामेव चउविधा माया पन्नत्ता, तं जहा–वंसीमूलकेतणासमाणा, मेंढविसाणकेतणासमाणा, गोमुत्ति-केतणासमाणा, अवलेहणियकेतणासमाणा।
१. वंसीमूलकेतणासमाणं मायमनुपविट्ठे जीवे कालं करेति, नेरइएसु उववज्जति।
२. मेंढविसाणकेतणासमाणं मायमनुपविट्ठे जीवे कालं करेति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति।
३. गोमुत्ति केतणासमाणं मायमनुपविट्ठे जीवे कालं करेति, मनुस्सेसु उववज्जति।
४. अवलेहणिय केतणासमाणं मायमनुपविट्ठे जीवे कालं करेति, देवेसु उववज्जति।
चत्तारि थंभा पन्नत्ता, तं जहा–सेलथंभे, अट्ठिथंभे, Translated Sutra: वक्र वस्तुएं चार प्रकार की हैं। यथा – बाँस की जड़ समान वक्रता, घेटे के सींग समान वक्रता, गोमूत्रिका के समान वक्रता, बाँस की छाल समान वक्रता। इसी प्रकार माया भी चार प्रकार की है। बाँस की जड़ समान वक्रता वाली माया करनेवाला जीव मरकर नरकमें उत्पन्न होता है। घेटे के सींग समान वक्रता वाली माया करने वाला जीव मरकर तिर्यंचयोनि | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-७ |
Hindi | 681 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ, तं जहा– उज्जुआयता, एगतोवंका, दुहतोवंका, एगतोखहा, दुहतोखहा, चक्कवाला, अद्धचक्कवाला। Translated Sutra: सात प्रकार की श्रेणियाँ कही गई हैं। यथा – ऋजु आयता। एकतः वक्रा, द्विधावक्रा, एकतः खा, द्विधा खा, चक्रवाला और अर्धचक्रवाला। | |||||||||
Suryapragnapti | सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१९ |
Hindi | 175 | Gatha | Upang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] केणं वड्ढति चंदो, परिहानी केण होति चंदस्स ।
कालो वा जोण्हो वा, केणणुभावेण चंदस्स ॥ Translated Sutra: चंद्र की वृद्धि और हानि कैसे होती है ? चंद्र किस अनुभाव से कृष्ण या प्रकाशवाला होता है ? कृष्णराहु का विमान अविरहित – नित्य चंद्र के साथ होता है, वह चंद्र विमान से चार अंगुल नीचे विचरण करता है। शुक्लपक्ष में जब चंद्र की वृद्धि होती है, तब एक एक दिवस में बासठ – बासठ भाग प्रमाण से चंद्र उसका क्षय करता है। पन्द्रह | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 662 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अदुत्तरं च णं पुरिस-विजय-विभंगमाइक्खिस्सामि– इह खलु नानापण्णाणं नानाछंदानं नानासीलाणं नानादिट्ठीणं नानारुईणं नानारंभाणं नानाज्झवसाणसंजुत्ताणं ‘इहलोगपडिबद्धाणं परलोगणिप्पि-वासाणं विसयतिसियाणं इणं’ नानाविहं ‘पावसुयज्झयणं भवइ’, तं जहा–
१. भोमं २. उप्पायं ३. सुविणं ४. अंतलिक्खं ५. अंगं ६. सरं ७. लक्खणं ८. वंजणं ९. इत्थिलक्खणं १. पुरिसलक्खणं ११. हय-लक्खणं १२. गय-लक्खणं १३. गोण-लक्खणं १४. मेंढ-लक्खणं १५. कुक्कुड-लक्खणं १६. तित्तिरलक्खणं १७. वट्टगलक्खणं १२. लावगलक्खणं
१९. चक्कलक्खणं २. छत्तलक्खणं २१. चम्म-लक्खणं २२. दंड-लक्खणं २३. असि-लक्खणं २४. मणिलक्खणं २५. कागणिलक्खणं Translated Sutra: इसके पश्चात् पुरुषविजय अथवा पुरुषविचय के विभंग का प्रतिपादन करूँगा। इस मनुष्यक्षेत्र में या प्रवचन में नाना प्रकार की प्रज्ञा, नाना अभिप्राय, नाना प्रकार के शील, विविध दृष्टियों, अनेक रुचियों, नाना प्रकार के आरम्भ तथा नाना प्रकार के अध्यवसायों से युक्त मनुष्यों द्वारा अनेकविध पापशास्त्रों का अध्ययन किया | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Hindi | 26 | Sutra | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे उत्ताणए वा पासिल्लए वा अंबखुज्जए वा अच्छेज्ज वा चिट्ठेज्ज वा निसीएज्ज वा तुयट्टेज्ज वा आसएज्ज वा सएज्ज वा माऊए सुयमाणीए सुयइ जागरमाणीए जागरइ सुहिआए सुहिओ भवइ दुहिआए दुहिओ भवइ?
हंता गोयमा! जीवे णं गब्भगए समाणे उत्ताणए वा जाव दुक्खिआए दुक्खिओ भवइ। Translated Sutra: हे भगवन् ! गर्भमें रहा जीव उल्टा सोता है, बगलमें सोता है या वक्राकार ? खड़ा होता है या बैठा ? सोता है या जागता है ? माता सोए तब सोता है और जगे तब जगता है ? माता के सुख से सुखी और दुःख से दुःखी रहता है ? हे गौतम ! गर्भस्थ जीव उल्टा सोता है – यावत् माता के दुःख से दुःखी होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२३ केशी गौतम |
Hindi | 872 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुरिमा उज्जुजडा उ वंकजडा य पच्छिमा ।
मज्झिमा उज्जुपण्णा य तेन धम्मे दुहा कए ॥ Translated Sutra: प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं। अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ होते हैं। बीच के तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं। अतः धर्म दो प्रकार से कहा है। प्रथम तीर्थंकर के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है। अन्तिम तीर्थंकर के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण करना और | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३४ लेश्या |
Hindi | 1407 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वंके वंकसमायारे नियडिल्ले अणुज्जुए ।
पलिउंचग ओवहिए मिच्छदिट्ठी अणारिए ॥ Translated Sutra: जो मनुष्य वक्र है, आचार से टेढ़ा है, कपट करता है, सरलता से रहित है, प्रति – कुञ्चक है – अपने दोषों को छुपाता है, औपधिक है – सर्वत्र छद्म का प्रयोग करता है। मिथ्यादृष्टि है, अनार्य है – उत्प्रासक है – दुष्ट वचन बोलता है, चोर है, मत्सरी है, इन सभी योगों से युक्त वह कापोत लेश्या में परिणत होता है। सूत्र – १४०७, १४०८ | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-९ देवदत्त |
Hindi | 33 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं अट्ठमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, नवमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
तए णं से सुहम्मे अनगारे जंबू–अनगारं एवं वयासी–
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रोहीडए नामं नयरे होत्था–रिद्धत्थिमियसमिद्धे। पुढवीवडेंसए उज्जाने। धरणो जक्खो।
वेसमणदत्ते राया। सिरी देवी। पूसनंदी कुमारे जुवराया।
तत्थ णं रोहीडए नयरे दत्ते नामं गाहावई परिवसइ–अड्ढे। कण्हसिरी भारिया।
तस्स णं दत्तस्स धूया कण्हसिरीए अत्तया देवदत्ता नामं दारिया होत्था–अहीनपडिपुण्ण–पंचिंदियसरीरा।
तेणं Translated Sutra: यदि भगवन् ! यावत् नवम अध्ययन का उत्क्षेप जान लेना चाहिए। जम्बू ! उस काल तथा उस समय में रोहीतक नाम का नगर था। वह ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध था। पृथिवी – अवतंसक नामक उद्यान था। उसमें धारण नामक यक्ष का यक्षायतन था। वहाँ वैश्रमणदत्त नाम का राजा था। श्रीदेवी नामक रानी थी। युवराज पद से अलंकृत पुष्पनंदी कुमार था। | |||||||||
Vipakasutra | विपाकश्रुतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ दुःख विपाक अध्ययन-१० अंजूश्री |
Hindi | 34 | Sutra | Ang-11 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं नवमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, दसमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
तए णं से सुहम्मे अनगारे जंबू–अनगारं एवं वयासी एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वड्ढमाणपुरे नामं नयरे होत्था । विजयवड्ढमाणे उज्जाने। माणिभद्दे जक्खे। विजयमित्ते राया।
तत्थ णं घनदेवे नामं सत्थवाहे होत्था अड्ढे। पियंगू नामं भारिया। अंज दारिया जाव उक्किट्ठसरीरा। समोसरणं परिसा जाव गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी जाव अडमाणे विजयमत्तिस्स रन्नो गिहस्स असोगवणियाए Translated Sutra: अहो भगवन् ! इत्यादि, उत्क्षेप पूर्ववत्। हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में वर्द्धमानपुर नगर था। वहाँ विजयवर्द्धमान नामक उद्यान था। उसमें मणिभद्र यक्ष का यक्षायतन था। वहाँ विजयमित्र राजा था। धनदेव नामक एक सार्थवाह – रहता था जो धनाढ्य और प्रतिष्ठित था। उसकी प्रियङ्गु नाम की भार्या थी। उनकी उत्कृष्ट शरीर |