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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 208 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सिया एगइओ लद्धुं विविहं पानभोयणं ।
भद्दगं भद्दगं भोच्चा विवन्नं विरसमाहरे ॥ Translated Sutra: कदाचित् विविध प्रकार के पान और भोजन प्राप्त कर अच्छा – अच्छा खा जाता है और विवर्ण एवं नीरस को ले आता है। (इस विचार से कि) ये श्रमण जानें कि यह मुनि बड़ा मोक्षार्थी है, सन्तुष्ट है, प्रान्त आहार सेवन करता है। रूक्षवृत्ति एवं जैसे – तैसे आहार से सन्तोष करने वाला है। ऐसा पूजार्थी, यश – कीर्ति पाने का अभिलाषी तथा मान | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 209 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जाणंतु ता इमे समणा आययट्ठी अयं मुनी ।
संतुट्ठो सेवई पंतं लूहवित्ती सुतोसओ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २०८ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 210 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पूयणट्ठी जसोकामी मानसम्मानकामए ।
बहुं पसवई पावं मायासल्लं च कुव्वई ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २०८ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 211 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सुरं वा मेरगं वा वि अन्नं वा मज्जगं रसं ।
ससक्खं न पिबे भिक्खू जसं सारक्खमप्पणो ॥ Translated Sutra: अपने संयम की सुरक्षा करता हुआ मिक्षु सुरा, मेरक या अन्य किसी भी प्रकार का मादक रस आत्मसाक्षी से न पीए। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 212 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पिया एगइओ तेणो न मे कोइ वियाणई ।
तस्स पस्सह दोसाइं नियडिं च सुणेह मे ॥ Translated Sutra: मुझे कोई जानता देखता नहीं है – यों विचार कर एकान्त में अकेला मद्य पीता है, उसके दोषों को देखो और मायाचार को मुझ से सुनो। उस भिक्षु की आसक्ति, माया – मृषा, अपयश, अतृप्ति और सतत असाधुता बढ़ जाती है। जैसे चोर सदा उद्विग्र रहता है, वैसे ही वह दुर्मति साधु अपने दुष्कर्मों से सदा उद्विग्न रहता है। ऐसा मद्यपायी मुनि मरणान्त | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 213 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] वड्ढई सोंडिया तस्स मायमोसं च भिक्खुणो ।
अयसो य अनिव्वाणं सययं च असाहुया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २१२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 214 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] निच्चुव्विग्गो जहा तेणो अत्तकम्मेहि दुम्मई ।
तारिसो मरणंते वि नाराहेइ संवरं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २१२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 215 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आयरिए नाराहेइ समणे यावि तारिसो ।
गिहत्था वि णं गरहंति जेण जाणंति तारिसं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २१२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
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उद्देशक-२ | Hindi | 216 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं तु अगुणप्पेही गुणाणं च विवज्जओ ।
तारिसो मरणंते वि नाराहेइ संवरं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २१२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 217 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तवं कुव्वइ मेहावी पणीयं वज्जए रसं ।
मज्जप्पमायविरओ तवस्सी अइउक्कसो ॥ Translated Sutra: जो मेघावी और तपस्वी साधु तपश्चरण करता है, प्रणीत रस से युक्त पदार्थों का त्याग करता है, जो मद्य और प्रमाद से विरत है, अहंकारातीत है उसके अनेक साधुओं द्वारा पूजित विपुल एवं अर्थसंयुक्त कल्याण को स्वयं देखो और मैं उसके गुणों का कीर्तन (गुणानुवाद) करूंगा, उसे मुझ से सुनो। इस प्रकार गुणों की प्रेक्षा करने वाला और | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 218 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तस्स पस्सह कल्लाणं अनेगसाहुपूइयं ।
विउलं अत्थसंजुत्तं कित्तइस्सं सुणेह मे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २१७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 219 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एवं तु गुणप्पेही अगुणाणं च विवज्जओ ।
तारिसो मरणंते वि आराहेइ संवरं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २१७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 220 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आयरिए आराहेइ समणे यावि तारिसो ।
गिहत्था वि णं पूयंति जेण जाणंति तारिसं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २१७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 221 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तवतेणे वयतेणे रूवतेणे य जे नरे ।
आयारभावतेणे य कुव्वइ देवकिब्बिसं ॥ Translated Sutra: (किन्तु) जो तप का, वचन का, रूप का, आचार तथा भाव का चोर है, वह किल्विषिक देवत्व के योग्य कर्म करता है। देवत्व प्राप्त करके भी किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ वह वहाँ यह नहीं जानता कि यह मेरे किस कर्म का फल है ? वहाँ से च्युत हो कर मनुष्यभव में एडमूकता अथवा नरक या तिर्यञ्चयोनि को प्राप्त करेगा जहाँ उसे बोधि अत्यन्त | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 222 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] लद्धूण वि देवत्तं उववन्नो देवकिब्बिसे ।
तत्था वि से न याणाइ किं मे किच्चा इम फलं? ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २२१ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 223 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तत्तो वि से चइत्ताणं लब्भिही एलमूययं ।
नरयं तिरिक्खजोणिं वा बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २२१ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 224 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एयं च दोसं दट्ठूणं नायपुत्तेण भासियं ।
अणुमायं पि मेहावी मायामोसं विवज्जए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २२१ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 225 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहिं सजयाण बुद्धाण सगासे ।
तत्थ भिक्खू सुप्पणिहिंदिए तिव्वलज्ज गुणवं विहरेज्जासि ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: इस प्रकार संयमी एवं प्रबुद्ध गुरुओं के पास भिक्षासम्बन्धी एषणा की विशुद्धि सीख कर इन्द्रियों को सुप्रणिहित रखते वाला, तीव्रसंयमी एवं गुणवान् होकर भिक्षु संयम में विचरण करे। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 226 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणदंसणसंपन्नं संजमे य तवे रयं ।
गणिमागमसंपन्नं उज्जाणम्मि समोसढं ॥ Translated Sutra: ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत, आगम – सम्पदा से युक्त गणिवर्य – आचार्य को उद्यान में समवसृत देखकर राजा और राजमंत्री, ब्राह्मण और क्षत्रिय निश्चलात्मा होकर पूछते हैं – हे भगवान् ! आप का आचार – गोचर कैसा है ? सूत्र – २२६, २२७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 227 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रायाणो रायमच्चा य माहणा अदुव खत्तिया ।
पुच्छंति निहुअप्पाणो कहं भे आयारगोयरो? ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २२६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 228 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेसिं सो निहुओ दंतो सव्वभूयसुहावहो ।
सिक्खाए सुसमाउत्तो आइक्खइ वियक्खणो ॥ Translated Sutra: तब वे शान्त, दान्त, सर्वप्राणियों के लिए सुखावह, ग्रहण और आसेवन, शिक्षाओं से समायुक्त और परम विचक्षण गणी उन्हें कहते हैं – कि धर्म के प्रयोजनभूत मोक्ष की कामना वाले निर्ग्रन्थों के भीम, दुरधिष्ठित और सकल आचार – गोचर मुझसे सुनो। सूत्र – २२८, २२९ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 229 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] हंदि धम्मत्थकामाणं निग्गंथाणं सुणेह मे ।
आयारगोयरं भीमं सयलं दुरहिट्ठियं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २२८ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 230 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नन्नत्थ एरिसं वुत्तं जं लोए परमदुच्चरं ।
विउलट्ठाणभाइस्स न भूयं न भविस्सई ॥ Translated Sutra: जो निर्ग्रन्थाचार लोक में अत्यन्त दुश्चर है, इस प्रकार के श्रेष्ठ आचार अन्यत्र कहीं नहीं है | सर्वोच्च स्थान के भागी साधुओं का ऐसा आचार अन्य मत में न अतीत में था, न ही भविष्य में होगा। बालक हो या वृद्ध, अस्वस्थ हो या स्वस्थ, को जिन गुणों का पालन अखण्ड और अस्फुटित रूप से करना चाहिए, वे गुण जिस प्रकार हैं, उसी प्रकार | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 231 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सखुड्डगवियत्ताणं वाहियाणं च जे गुणा ।
अखंडफुडिया कायव्वा तं सुणेह जहा तहा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २३० | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 232 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दस अट्ठ य ठाणाइं जाइं बालोऽवरज्झई ।
तत्थ अन्नयरे ठाणे निग्गंथत्ताओ भस्सई ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २३० | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 233 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थिमं पढमं ठाणं महावीरेण देसियं ।
अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूएसु संजमो ॥ Translated Sutra: प्रथम स्थान अहिंसा का है, अहिंसा को सूक्ष्मरूप से देखी है। सर्वजीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। लोक में जितने भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी है; साधु या साध्वी, जानते या अजानते, उनका हनन न करे और न ही कराए; अनुमोदना भी न करे। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं। इसलिए निर्ग्रन्थ साधु प्राणिवध को घोर जानकर परित्याग | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 234 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जावंति लोए पाणा तसा अदुव थावरा ।
ते जाणमजाणं वा न हणे णो वि घायए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २३३ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 235 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं ।
तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २३३ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 236 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अप्पणट्ठा परट्ठा वा कोहा वा जइ वा भया ।
हिंसगं न मुसं बूया नो वि अन्नं वयावए ॥ Translated Sutra: अपने लिए या दूसरों के लिए, क्रोध से या भय से हिंसाकारक और असत्य न बोले, न ही बुलवाए और न अनुमोदन करे। लोक में समस्त साधुओं द्वारा मृषावाद गर्हित है और वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है। अतः निर्ग्रन्थ मृषावाद का पूर्णरूप से परित्याग कर दे। सूत्र – २३६, २३७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 237 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मुसावाओ य लोगम्मि सव्वसाहूहिं गरहिओ ।
अविस्सासो य भूयाणं तम्हा मोसं विवज्जए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २३६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 238 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं ।
दंतसोहणमेत्तं पि ओग्गहंसि अजाइया ॥ Translated Sutra: संयमी साधु – साध्वी, पदार्थ सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत, यहाँ तक कि दन्तशोधन मात्र भी हो, जिस गृहस्थ के अवग्रह में हो; उससे याचना किये बिना स्वयं ग्रहण नहीं करते, दूसरों से ग्रहण नहीं कराते और न ग्रहण करने वाला का अनुमोदन करते हैं। सूत्र – २३८, २३९ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 239 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तं अप्पणा न गेण्हंति नो वि गेण्हावए परं ।
अन्नं वा गेण्हमाणं पि नाणुजाणंति संजया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २३८ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 240 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं ।
नायरंति मुनी लोए भेयाययणवज्जिणो ॥ Translated Sutra: अब्रह्यचर्य लोकमें घोर, प्रमादजनक, दुराचरित है। संयमभंग करनेवाले स्थानोंसे दूर रहनेवाले मुनि उसका आचरण नहीं करते। यह अधर्म का मूल है। महादोषों का पुंज है। इसीलिए निर्ग्रन्थ मैथुन संसर्ग का त्याग करते है। सूत्र – २४०, २४१ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 241 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं ।
तम्हा मेहुणसंसग्गिं निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २४० | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 242 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विडमुब्भेइमं लोणं तेल्लं सप्पिं च फाणियं ।
न ते सन्निहिमिच्छंति नायपुत्तवओरया ॥ Translated Sutra: जो ज्ञानपुत्र के वचनों में रत हैं, वे बिडलवण, सामुद्रिक लवण, तैल, घृत, द्रव गुड़ आदि पदार्थों का संग्रह करना नहीं चाहते। यह संग्रह लोभ का ही विघ्नकारी अनुस्पर्श है, ऐसा मैं मानता हूँ। जो साधु कदाचित् पदार्थ की सन्निधि की कामना करता है, वह गृहस्थ है, प्रव्रजित नहीं है। जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण रखते हैं, | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 243 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लोभस्सेसो अनुफासो मन्ने अन्नयरामवि ।
जे सिया सन्निहीकामे गिही पव्वइए न से ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २४२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 244 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं ।
तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २४२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 245 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा ।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इइ वुत्तं महेसिणा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २४२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 246 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सव्वत्थुवहिणा बुद्धा संरक्खणपरिग्गहे ।
अवि अप्पणो वि देहम्मि नायरंति ममाइयं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २४२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 247 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अहो निच्चं तवोकम्मं सव्वबुद्धेहिं वण्णियं ।
जा य लज्जासमा वित्ती एगभत्तं च भोयणं ॥ Translated Sutra: अहो ! समस्त तीर्थंकरों ने संयम के अनुकूल वृत्ति और एक बार भोजन इस नित्य तपःकर्म का उपदेश दिया है। ये जो त्रस और स्थावर अतिसूक्ष्म प्राणी हैं, जिन्हें रात्रि में नहीं देख पाता, तब आहार की एषणा कैसे कर सकता है ? उदक से आर्द्र, बीजों से संसक्त आहार को तथा पृथ्वी पर पड़े हुए प्राणीयों को दिन में बचाया जा सकता है, तब फिर | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 248 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संतिमे सुहुमा पाणा तसा अदुव थावरा ।
जाइं राओ अपासंतो कहमेसणियं चरे? ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २४७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 249 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उदउल्लं बीयसंसत्तं पाणा निवडिया महिं ।
दिया ताइं विवज्जेज्जा राओ तत्थ कहं चरे? ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २४७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 250 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयं च दोसं दट्ठूणं नायपुत्तेण भासियं ।
सव्वाहारं न भुंजंति निग्गंथा राइभोयणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २४७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 251 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुढविकायं न हिंसंति मनसा वयसा कायसा ।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ Translated Sutra: श्रेष्ठ समाधि वाले संयमी मन, वचन और काय – योग से और कृत, कारित एवं अनुमोदन – करण से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करते। पृथ्वीकाय की हिंसा करता हुआ साधक उसके आश्रित रहे हुए विविध प्रकार के चाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर यावज्जीवन पृथ्वीकाय के समारम्भ का त्याग | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 252 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुढविकायं विहिंसंतो हिंसई उ तयस्सिए ।
तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २५१ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 253 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तम्हा एयं वियाणित्तता दोसं दुग्गइवड्ढणं ।
पुढविकायसमारंभं जावज्जीवाए वज्जए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २५१ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 254 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आउकायं न हिंसंति मनसा वयसा कायसा ।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ Translated Sutra: सुसमाधिमान् संयमी मन, वचन और काय – त्रिविध करण से अप्काय की हिंसा नहीं करते। अप्कायिक जीवों की हिंसा करता हुआ साधक उनके आश्रित रहे हुए विविध चाक्षुष और अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। इसलिए इसे दुर्गतिबर्द्धक दोष जान कर यावज्जीवन अप्काय के समारम्भ का त्याग करे। सूत्र – २५४–२५६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 255 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आउकायं विहिंसंतो हिंसई उ तयस्सिए ।
तसे य विविहे पाणे चक्खुसे य अचक्खुसे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २५४ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 256 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्ढणं ।
आउकायसमारंभं जावज्जीवाए वज्जए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २५४ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 257 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जायतेयं न इच्छंति पावगं जलइत्तए ।
तिक्खमन्नयरं सत्थं सव्वओ वि दुरासयं ॥ Translated Sutra: साधु – साध्वी – अग्नि को जलाने की इच्छा नहीं करते; क्योंकि वह दूसरे शस्त्रों की अपेक्षा तीक्ष्ण शस्त्र तथा सब ओर से दुराश्रय है। वह चारो दिक्षा, उर्ध्व तथा अधोदिशा और विदिशाओं में सभी जीवों का दहन करती है। निःसन्देह यह अग्नि प्राणियों के लिए आघातजनक है। अतः संयमी प्रकाश और ताप के लिए उस का किंचिन्मात्र भी |