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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
भवनपति अधिकार |
Hindi | 39 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चमरे धरणे तह वेणुदेव पुण्णे य होइ जलकंते ।
अमियगई वेलंबे घोसे य हरी य अग्गिसिहे ॥ Translated Sutra: चमरेन्द्र, धरणेन्द्र, वेणुदेव, पूर्ण, जलकान्त, अमितगति, वेलम्ब, घोष, हरि और अग्निशीख। उस भवनपति इन्द्र के मणिरत्न से जड़ित स्वर्ण – स्तम्भ और रमणीय लतामंड़प युक्त भवन दक्षिण दिशा की ओर होता है उत्तर दिशा और उसके आसपास बाकी के इन्द्र के भवन होते हैं। सूत्र – ३९, ४० | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
भवनपति अधिकार |
Hindi | 51 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएसिं देवाणं बल-विरिय-परक्कमो उ जो जस्स ।
ते सुंदरि! वण्णे हं जहक्कमं आनुपुव्वीए ॥ Translated Sutra: हे सुंदरी ! इस भवनपति देवमें जिन का बल – वीर्य पराक्रम है उस के यथाक्रम से आनुपूर्वी से वर्णन करता हूँ। असुर और असुर कन्या द्वारा जो स्वामित्व का विषय है। उसका क्षेत्र जम्बूद्वीप और चमरेन्द्र की चमरचंचा राजधानी तक है। यही स्वामित्व बलि और वैरोचन के लिए भी समझना। धरण और नागराज जम्बूद्वीप को फन द्वारा आच्छादित | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
ज्योतिष्क अधिकार |
Hindi | 81 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चंदा १ सूरा २ तारागणा ३ य नक्खत्त ४ गहगणसमग्गा ५ ।
पंचविहा जोइसिया, ठिई वियारी य ते भणिया ॥ Translated Sutra: चन्द्र, सूर्य, तारागण, नक्षत्र और ग्रहगण समूह इस पाँच तरह के ज्योतिषी देव बताए हैं। अब उसकी स्थिति और गति बताऊंगा। तिर्छालोक में ज्योतिषी के अर्धकपित्थ फल के आकारवाले स्फटिक रत्नमय, रमणीय अनगिनत विमान हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी के समभूतल हिस्से से ७९० योजन ऊंचाई पर उसका निम्न तल है और वो समभूतला पृथ्वी से सूर्य | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
ज्योतिष्क अधिकार |
Hindi | 94 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चंदेहि उ सिग्घयरा सूरा, सूरेहिं तह गहा सिग्घा ।
नक्खत्ता उ गहेहि य, नक्खत्तेहिं तु ताराओ ॥ Translated Sutra: चन्द्र – सूर्य, ग्रह – नक्षत्र और तारे एक – एक से तेज गति से चलते हैं। | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
ज्योतिष्क अधिकार |
Hindi | 95 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सव्वऽप्पगई चंदा, तारा पुन होंति सव्वसिग्घगई ।
एसो गईविसेसो जोइसियाणं तु देवाणं ॥ Translated Sutra: चन्द्र की गति सब से कम, तारों की गति सब से तेज है। इस प्रकार ज्योतिष्क देव की गति विशेष जानना | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
ज्योतिष्क अधिकार |
Hindi | 138 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रयणियर-दिणयराणं उड्ढमहे एव संकमो नत्थि ।
मंडलसंकमणं पुन अब्भिंतर बाहिरं तिरियं ॥ Translated Sutra: चन्द्र और सूर्य की गति ऊपर नीचे नहीं होती लेकिन अभ्यंतर – बाह्य तिरछी और मंडलाकार होती है। | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
ज्योतिष्क अधिकार |
Hindi | 139 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रयणियर-दिनयराणं नक्खत्ताणं च महगहाणं च ।
चारविसेसेण भवे सुह-दुक्खविही मनुस्साणं ॥ Translated Sutra: चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्क के परिभ्रमण विशेष द्वारा मानव से सुख और दुःख की गति होती है। | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
ज्योतिष्क अधिकार |
Hindi | 147 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अंतो मनुस्सखेत्ते हवंति चारोवगा य उववन्ना ।
पंचविहा जोइसिया चंदा सूरा गहगणा य ॥ Translated Sutra: मानवलोक में पैदा होनेवाले और संचरण करनेवाले चन्द्र, सूर्य, ग्रह – समूह आदि पाँच तरह के ज्योतिष्क देव होते हैं। मानवलोक बाहर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह, तारे और नक्षत्र हैं उसकी गति भी नहीं और संचरण भी नहीं होता इसलिए उसे स्थिर ज्योतिष्क जानना। सूत्र – १४७, १४८ | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
वैमानिक अधिकार |
Hindi | 221 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पंचेवऽणुत्तराइं अणुत्तरगईहिं जाइं दिट्ठाइं ।
जत्थ अनुत्तरदेवा भोगसुहं अनुवमं पत्ता ॥ Translated Sutra: पाँच तरह के अनुत्तर देव गति, जाति और दृष्टि की अपेक्षा से श्रेष्ठ है और अनुपम विषयसुख वाले हैं। | |||||||||
Gacchachar | गच्छाचार | Ardha-Magadhi |
आचार्यस्वरूपं |
Hindi | 8 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मेढी आलंवणं खंभं दिट्ठी जाणं सुउत्तमं ।
सूरी जं होइ गच्छस्स तम्हा तं तु परिक्खए ॥ Translated Sutra: आचार्य महाराज गच्छ के लिए मेढी, आलम्बन, स्तम्भ, दृष्टि, उत्तम यान समान हैं। यानि की मेथी – (जो बंध से जानवर मर्यादा में रहे वो) में बाँधे जानवर जैसे मर्यादा में रहते हैं, वैसे गच्छ भी आचार्य के बन्धन से मर्यादा में प्रवर्तते हैं। गड्ढे आदि में गिरते जैसे हस्तादिक का आलम्बन धरके रखते हैं, वैसे संसार समान गति में | |||||||||
Gacchachar | गच्छाचार | Ardha-Magadhi |
गुरुस्वरूपं |
Hindi | 43 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे अनहियपरमत्थे गोयमा! संजए भवे ।
तम्हा ते विवज्जेज्जा दोग्गईपंथदायगे ॥ Translated Sutra: संयम में व्यवहार करने के बाद भी परमार्थ को न जाननेवाले और दुर्गति के मार्ग को देनेवाले ऐसे अगीतार्थ को दूर से ही त्याग करे। | |||||||||
Gacchachar | गच्छाचार | Ardha-Magadhi |
आर्यास्वरूपं |
Hindi | 114 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गच्छइ सविलासगई सयणीयं तूलियं सबिब्बोयं ।
उव्वट्टेइ सरीरं सिणाणमाईणि जा कुणइ ॥ Translated Sutra: विलासयुक्त गति से गमन करे, रूई आदि से भरी गद्दी में तकियापूर्वक बिस्तर आदि में शयन करे, तेल आदि से शरीर का उद्वर्तन करे और जिस स्नानादि से विभूषा करे – | |||||||||
Gacchachar | गच्छाचार | Ardha-Magadhi |
आर्यास्वरूपं |
Hindi | 121 | Gatha | Painna-07A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गइ-विब्भमाइएहिं आगार विगार तह पगासिंति ।
जह वुड्ढाण वि मोहो समुईरइ, किं नु तरुणाणं? ॥ Translated Sutra: गति – विभ्रम आदि द्वारा स्वाभाविक आकार का विकार इस तरह प्रकट करे कि जिससे जवान को तो क्या लेकिन बुढ़ों को भी मोहोदय हो। | |||||||||
Ganividya | गणिविद्या | Ardha-Magadhi |
षष्ठंद्वारं मुहूर्तं |
Hindi | 49 | Gatha | Painna-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रुद्दो उ मुहुत्ताणं आई छन्नवइअंगुलच्छाओ १ ।
सेओ उ हवइ सट्ठी २ बारस मित्तो हवइ जुत्तो ३ ॥ Translated Sutra: रुद्र आदि मुहूर्त्त ९६ अंगुल छाया प्रमाण हैं। ६० अंगुल छाया से श्रेय, बारह से मित्र। छ अंगुल से आरभड मुहूर्त्त, पाँच अंगुल से सौमित्र। चार से वायव्य, दो अंगुल से सुप्रतीत मुहूर्त्त होते है। मध्याह्न स्थिति परिमंड़ल मुहूर्त्त होता है। दो अंगुल से रोहण, चार अंगुल छाया से पुनबल मुहूर्त्त होता है। पाँच अंगुल | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-३ धरण आदि अग्रमहिषी ५४ अध्ययन-१ थी ५४ |
Hindi | 226 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं बिइयस्स वग्गस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, तइयस्स णं भंते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं तइयस्स वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा–पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णइमे अज्झयणे।
जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं अला देवी धरणाए Translated Sutra: तीसरे वर्ग का उपोद्घात समझ लेना। हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर यावत् मुक्तिप्राप्त ने तीसरे वर्ग के चौपन अध्याय कहे हैं। प्रथम अध्ययन यावत् चौपनवाँ अध्ययन। भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने धर्मकथा के तीसरे वर्ग के चौपन अध्ययन कहे हैं तो भगवन् ! प्रथम अध्ययन का श्रमण यावत् सिद्धि – | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 5 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं चंपाए नयरीए परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा जामेव दिसिं पाउब्भूया, तामेव दिसिं पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अनगारस्स जेट्ठे अंतेवासी अज्जजंबू नामं अनगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंस-संठाण-संठिए वइररिसह-नाराय-संघयणे कनग-पलग-निघस-पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउल-तेयलेस्से अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे ज्झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं से अज्जजंबूनामे अनगारे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले
संजायसड्ढे Translated Sutra: तत्पश्चात् चम्पा नगरी में परिषद् नीकली। कूणिक राजा भी नीकला। धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सूनकर परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ शिष्य आर्य जम्बू नामक अनगार थे, जो काश्यप गोत्रीय और सात हाथ ऊंचे शरीर वाले, यावत् आर्य सुधर्मा से न बहुत दूर, न बहुत | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 12 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी अन्नदा कदाइ तंसि तारिसगंसि–छक्कट्ठग-लट्ठमट्ठ-संठिय-खंभुग्गय-पवरवर-सालभंजिय-उज्जलमणिकनगरयणथूभियविडंकजालद्ध चंदनिज्जूहंतरकणयालिचंदसालियावि-भत्तिकलिए सरसच्छधाऊबलवण्णरइए बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मट्ठे अब्भिंतरओ पसत्त-सुविलिहिय-चित्तकम्मे नानाविह-पंचवण्ण-मणिरयण-कोट्ठिमतले पउमलया-फुल्लवल्लि-वरपुप्फजाइ-उल्लोय-चित्तिय-तले वंदन-वरकनगकलससुणिम्मिय-पडिपूजिय-सरसपउम-सोहंतदारभाए पयरग-लंबंत-मणिमुत्त-दाम-सुविरइयदारसोहे सुगंध-वरकुसुम-मउय-पम्हलसयणोवयार-मणहिययनिव्वुइयरे कप्पूर-लवंग- मलय-चंदन- कालागरु-पवर- कुंदुरुक्क-तुरुक्क- धूव-डज्झंत- सुरभि-मघमघेंत-गंधुद्धुयाभिरामे Translated Sutra: वह धारिणी देवी किसी समय अपने उत्तम भवन में शय्या पर सो रही थी। वह भवन कैसा था ? उसके बाह्य आलन्दक या द्वार पर तथा मनोज्ञ, चिकने, सुंदर आकार वाले और ऊंचे खंभों पर अतीव उत्तम पुतलियाँ बनी हुई थीं। उज्ज्वल मणियों, कनक और कर्केतन आदि रत्नों के शिखर, कपोच – पारी, गवाक्ष, अर्ध – चंद्राकार सोपान, निर्यूहक करकाली तथा चन्द्रमालिका | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 21 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से अभए कुमारे सक्कारिए सम्मानिए पडिविसज्जिए समाणे सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणामेव सए भवणेने, तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासने निसण्णे।
तए णं तस्स अभयस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–नो खलु सक्का मानुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालदोहलमनोरहसंपत्तिं करित्तए, नन्नत्थ दिव्वेणं उवाएणं। अत्थि णं मज्झ सोहम्मकप्पवासी पुव्वसंगइए देवे महिड्ढीए महज्जुइए महापरक्कमे महाजसे महब्बले महानुभावे महासोक्खे।
तं सेयं खलु ममं पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणिसुवण्णस्स Translated Sutra: तब (श्रेणिक राजा द्वारा) सत्कारित एवं सन्मानित होकर बिदा किया हुआ अभयकुमार श्रेणिक राजा के पास से नीकलता है। नीकल कर जहाँ अपना भवन है, वहाँ आता है। आकर वह सिंहासन पर बैठ गया। तत्पश्चात् अभयकुमार को इस प्रकार यह आध्यात्मिक विचार, चिन्तन, प्रार्थित या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ – दिव्य अर्थात् दैवी संबंधी उपाय | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 33 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति मेहं कुमारं बहूहिं विसयानुलोमाहिं आघवणाहिं य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभउव्वेयकारियाहिं पन्नवणाहिं पन्नवेमाणा एवं वयासी–एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अनुत्तरे केवलिए पडिपुण्णे नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, अहीव एगंतदिट्ठिए, खुरो इव गंतधाराए, लोहमया इव जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव निरस्साए, गंगा इव महानई पडिसोयगमणाए, महासमुद्दो Translated Sutra: मेघकुमार के माता – पिता जब मेघकुमार को विषयों के अनुकूल आख्यापना से, प्रज्ञापना से, संज्ञापना से, विज्ञापना से समझाने, बुझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हुए, तब विषयों के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाली प्रज्ञापना से कहने लगे – हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, अनुत्तर | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 40 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से मेहे अनगारे तेणं ओरालेणं विपुलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारेणं उत्तमेणं महानुभावेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे किडि-किडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्था–जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलाइ। से जहानामए इंगालसगडिया इ वा कट्ठसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा तिलंडासगडिया इ वा एरंडसगडिया इ वा उण्हे दिन्ना सुक्का समाणी ससद्दं गच्छइ, ससद्दं चिट्ठइ, एवामेव मेहे अनगारे ससद्दं गच्छइ, ससद्दं चिट्ठइ, उवचिए Translated Sutra: तत्पश्चात् मेघ अनगार उस उराल, विपुल, सश्रीक – प्रयत्नसाध्य, बहुमानपूर्वक गृहीत, कल्याणकारी – शिव – धन्य, मांगल्य – उदग्र, उदार, उत्तम महान प्रभाव वाले तपःकर्म से शुष्क – नीरस शरीर वाले, भूखे, रूक्ष, मांसरहित और रुधिररहित हो गए। उठते – उठते उनके हाड़ कड़कड़ाने लगे। उनकी हड्डियाँ केवल चमड़े से मढ़ी रह गई। शरीर कृश | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 41 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी मेहे नामं अनगारे से णं भंते! मेहे अनगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववन्ने?
गोयमा! इ समणे भगवं महावीरे गोयमं एवं वयासी–एवं खलु गोयमा! मम अंतेवासी मेहे नामं अनगारे पगइभद्दए जाव विनीए, से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाइं अहिज्जित्ता, बारस भिक्खुपडिमाओ गुण-रयण-संवच्छरं तवोकम्मं काएणं फासेत्ता जाव किट्टेत्ता, मए अब्भणुण्णाए समाणे गोयमाइ थेरे खामेत्ता, तहारूवेहिं कडादीहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहित्ता, Translated Sutra: ‘भगवन् !’ इस प्रकार कहकर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दन – नमस्कार करके इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रिय के अन्तेवासी मेघ अनगार थे। भगवन् ! यह मेघ अनगार काल – मास में काल करके किस गति में गए ? और किस जगह उत्पन्न हुए ? ‘हे गौतम !’ इस प्रकार कहकर श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Hindi | 52 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा भद्दा सत्थवाही पंथगस्स दासचेडगस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसि मिसेमाणी धनस्स सत्थवाहस्स पओसमावज्जइ।
तए णं से धने सत्थवाहे अन्नया कयाइं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सएण य अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं मोयावेइ, मोयावेत्ता चारगसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अलंकारियकम्मं कारवेइ जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहधोयमट्टियं गेण्हइ, गेण्हित्ता पोक्ख-रिणीं ओगाहइ, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, करेत्ता ण्हाए कयबलिकम्मे कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए Translated Sutra: तब भद्रा सार्थवाही दास चेटक पंथक के मुख से यह अर्थ सूनकर तत्काल लाल हो गई, रुष्ट हुई यावत् मिसमिसाती हुई धन्य सार्थवाह पर प्रद्वेष करने लगी। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को किसी समय मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिवार के लोगों ने अपने साभूत अर्थ से – राजदण्ड से मुक्त कराया। मुक्त होकर वह कारागार से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अंड |
Hindi | 57 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया परिवसइ–अड्ढा दित्ता वित्ता वित्थिण्ण-विउल-भवन-सयनासन-जाण-वाहणा बहुधन-जायरूव-रयया आओग-पओग-संपउत्ता विच्छिड्डिय-पउर-भत्तपाणा चउसट्ठिकलापंडिया चउसट्ठिगणियागुणोववेया अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एक्कवीस-रइगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसला नवंगसुत्तपडिबोहिया अट्ठारसदेसीभासाविसारया सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय- हसिय-भणिय- चेट्ठिय-विलाससंलावुल्लाव- निउण-जुत्तोवयार-कुसला ऊसियज्झया सहस्सलंभा विदिण्णछत्त-चामर-बालवीयणिया कण्णीरहप्पयाया वि होत्था।
बहूणं गणियासहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं Translated Sutra: उस चम्पा नगरी में देवदत्ता नामक गणिका निवास करती थी। वह समृद्ध थी, वह बहुत भोजन – पान वाली थी। चौंसठ कलाओं में पंडिता थीं। गणिका के चौंसठ गुणों से युक्त थीं। उनतीस प्रकार की विशेष क्रिडाएं करने वाली थी। कामक्रीड़ा के इक्कीस गुणों में कुशल थी। बत्तीस प्रकार के पुरुष के उपचार करने में कुशल थी। उसके सोते हुए | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ काचबो |
Hindi | 62 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं तच्चस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चउत्थस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं वाणारसीए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए गंगाए महानईए मयंगतीरद्दहे नामं दहे होत्था–अनुपुव्वसुजाय-वप्प-गंभीरसीयलजले अच्छ-विमल-सलिल-पलिच्छण्णे संछण्ण-पत्त-पुप्फ -पलासे बहुउप्पल-पउम-कुमुय-नलिण-सुभग-सोगं-धिय-पुंडरीय-महापुंडरीय-सयपत्त-सहस्सपत्त केसरपुप्फोवचिए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे।
तत्थ णं बहूणं मच्छाण य कच्छभाण य गाहाण य मगराण य सुंसुमाराण य सयाणि Translated Sutra: ‘भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात अंग के चौथे ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ?’ हे जम्बू! उस काल और उस समय में वाराणसी नामक नगरी थी। उस वाराणसी नगरी के बाहर गंगा नामक महानदी के ईशान कोण में मृतगंगातीर द्रह नामक एक द्रह था। उसके अनुक्रम से सुन्दर सुशोभित तट थे। जल गहरा और शीतल था। स्वच्छ एवं निर्मल जल | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 73 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेलए रायरिसी पंथगपामोक्खा पंच अनगारसया जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवाग-च्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहंति, दुरुहित्ता मेघघनसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहंति, पडिलेहित्ता जाव संलेहणा-ज्झूसणा-ज्झूसिया भत्तपाण-पडियाइक्खिया पाओवगमणंणुवन्ना।
तए णं से सेलए रायरिसी पंथगपामोक्खा पंच अनगारसया बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसित्ता, सट्ठिं भत्ताइं अनसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धा बुद्धा मुत्ता अंतगडा परिनिव्वुडा सव्व-दुक्खप्पहीणा।
एवामेव Translated Sutra: इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी इस तरह विचरेगा वह इस लोक में बहुसंख्यक साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमनीय, पूजनीय, सत्कारणीय और सम्माननीय होगा। कल्याण, मंगल, देव और चैत्य स्वरूप होगा। विनयपूर्वक उपासनीय होगा। परलोक में उसे हाथ, कान एवं नासिका के | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 81 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं महब्बलवज्जाणं छण्हं देवाणं देसूणाइं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई। महब्बलस्स देवस्स य पडिपुण्णाइं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई।
तए णं ते महब्बलवज्जा छप्पि देवा जयंताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं अनंतरं च यं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विसुद्धपिइमाइवंसेसु रायकुलेसु पत्तेयं-पत्तेयं कुमारत्ताए पच्चायाया, तं जहा–
पडिबुद्धी इक्खागराया,
चंदच्छाए अंगराया,
संखे कासिराया,
रुप्पी कुणालाहिवई,
अदीनसत्तू कुरुराया,
जियसत्तू पंचालाहिवई।
तए णं से महब्बले देवे तिहिं नाणेहिं समग्गे उच्चट्ठाणगएसुं Translated Sutra: उस जयन्त विमान में कितनेक देवों की बत्तीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। उनमें से महाबल को छोड़कर दूसरे छह देवों की कुछ कम बत्तीस सागरोपम की स्थिति और महाबल देव की पूर बत्तीस सागरोपम की स्थिति हुई। तत्पश्चात् महाबल देव के सिवाय छहों देव जयन्त देवलोक से, देव सम्बन्धी आयु का क्षय होने से, स्थिति का क्षय होने से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 87 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगनामं जनवए होत्था। तत्थ णं चंपा नामं नयरी होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया।
तए णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्था–अहिगयजीवाजीवे वण्णओ।
तए णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो-कहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणियं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहित्तए ति कट्टु अन्नमन्नस्स एयमट्ठं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता Translated Sutra: उस काल और उस समय में अंग नामक जनपद था। चम्पा नगरी थी। चन्द्रच्छाय अंगराज – अंग देश का राजा था। उस चम्पा नगरी में अर्हन्नक प्रभृति बहुत – से सांयात्रिक नौवणिक रहते थे। वे ऋद्धिसम्पन्न थे और किसी से पराभूत होने वाले नहीं थे। उनके अर्हन्नक श्रमणोपासक भी था, वह जीव – अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। वे अर्हन्नक | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 98 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता वेसमणं देवं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहि-लाए रायहाणीए कुंभगस्स रयणी धूया पभावईए देवीए अत्तया मल्ली अरहा निक्खमिस्सामित्ति मणं पहारेइ जाव इंदा दलयंति अरहाणं। तं गच्छह णं देवानुप्पिया! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणिं कुंभगस्स रन्नो भवणंसि इमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहराहि, साहरित्ता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि।
तए णं से वेसमणे देवे सक्केणं देविंदेणं देवरन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे करयल परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं देवो! तहत्ति Translated Sutra: शक्रेन्द्र ने ऐसा विचार किया। विचार करके उसने वैश्रमण देव को बुलाकर कहा – ‘देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, यावत् तीन सौ अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मोहरें देना उचित है। सो हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में कुम्भ राजा के भवन में इतने द्रव्य का संहरण करो – इतना | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 101 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिट्ठे विमाणपत्थडे सएहिं-सएहिं विमाणेहिं सएहिं-सएहिं पासायवडिंसएहिं पत्तेयं-पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं सोल-सहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं य बहूहिं लोगतिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिवुडा महयाऽहय-नट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-धन-मुइंग-पडुप्पवाइय रवेण विउलाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरंति, तं जहा– Translated Sutra: उस काल और उस समय में लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक नामक पाँचवे देवलोक में, अरिष्ट नामक विमान के प्रस्तट में, अपने – अपने विमान से, अपने – अपने उत्तम प्रासादों से, प्रत्येक – प्रत्येक चार – चार हजार सामानिक देवों से, तीन – तीन परिषदों से सात – सात अनीकों से, सात – सात अनीकाधिपतियों से, सोलह – सोलह हजार आत्मरक्षक देवों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 113 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा रयणदीवदेवया सक्कवयण-संदेसेण सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अनुपरियट्टेयव्वे त्ति जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कट्ठं वा कयवरं वा असुइ पूइयं दुरभिगंधमचोक्खं, तं सव्वं आहुणिय-आहुणिय तिसत्तखुत्तो एगंते एडेयव्वं ति कट्टु निउत्ता।
तए णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय-दारए एवं वयासी–एवं खलु अहं देवानुप्पिया! सक्कवयण-संदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा तं चेव जाव निउत्ता। तं जाव अहं देवानुप्पिया! लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अनुपरियट्टित्ता जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कट्ठं वा कयवरं वा असुइ पूइयं दुरभिगंधमचोक्खं, तं सव्वं आहुणिय-आहुणिय तिसत्तखुत्तो Translated Sutra: तत्पश्चात् उस रत्नद्वीप की देवी ने उस माकन्दीपुत्रों को अवधिज्ञान से देखा। उसने हाथ में ढाल और तलवार ली। सात – आठ ताड़ जितनी ऊंचाई पर आकाश में उड़ी। उत्कृष्ट यावत् देवगति से चलती – चलती जहाँ माकन्दीपुत्र थे, वहाँ आई। आकर एकदम कुपित हुई और माकन्दीपुत्रों को तीखे, कठोर और निष्ठुर वचनों से कहने लगी – ‘अरे माकन्दी | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 122 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं बहूसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु य बहूसु आलीधरएसु य मालीधरएसु य जाव कुसुमधरएसु य सुहंसुहेणं अभिरममाणा-अभिरममाणा विहरेज्जाह। जइ णं तुब्भे देवानुप्पिया! तत्थ वि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाहं तओ तुब्भे जेणेव पासायवडेंसए तेणेव उवागच्छेज्जाह ममं पडिवालेमाणा-पडिवालेमाणा चिट्ठेज्जाह, मा णं तुब्भे दक्खिणिल्लं वनसंडं गच्छेज्जाह। तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे अइकाए महाकाए मसि-महिस-मूसा-कालए नयणविसरोसपुण्णे अंजप-पुंज-नियरप्पगासे रत्तच्छे जमल-जुयल-चंचल-चलंतजीहे धरणितल-वेणिभूए उक्कड-फुड-कुडिल-जडुल-कक्खड-वियड-फडाडोव-करणदच्छे Translated Sutra: देवानुप्रियो ! यदि तुम वहाँ भी ऊब जाओ या उत्सुक हो जाओ तो उस उत्तम प्रासाद में ही आ जाना। मेरी प्रतीक्षा करते – करते यहीं ठहरना। दक्षिण दिशा के वनखण्ड की तरफ मत चले जाना। दक्षिण दिशा के वनखण्ड में एक बड़ा सर्प रहता है। उसका विष उग्र है, प्रचंड है, घोर है, अन्य सब सर्पों से उसका शरीर बड़ा है। इस सर्प के अन्य विशेषण | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 124 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते मागंदिय-दारगा तस्स सूलाइगस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म बलियतरं भीया तत्था तसिया उव्विग्गा संजायभया सूलाइयं पुरिसं एवं वयासी–कहण्णं देवानुप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थिं नित्थरेज्जामो?
तए णं से सूलाइए पुरिसे ते मागंदिय-दारगे एवं वयासी–एस णं देवानुप्पिया! पुरत्थिमिल्ले वनसंडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नामं आसरूवधारी जक्खे परिवसइ। तए णं से सेलए जक्खे चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु आगय-समए पत्तसमए महया-महया सद्देण एवं वदइ–कं तारयामि? कं पालयामि? तं गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! पुरत्थिमिल्लं वण-संडं सेलगस्स जक्खस्स महरिहं Translated Sutra: तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े उस पुरुष से यह अर्थ सूनकर और हृदय में धारण करके और अधिक भयभीत हो गए। तब उन्होंने शूली पर चढ़े पुरुष से इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रिय ! हम लोग रत्नद्वीप के देवता के हाथ से छूटकारा पा सकते हैं ?’ तब शूली पर चढ़े पुरुष ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा – ‘देवानुप्रियो ! इस पूर्व दिशा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 125 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा रयणदीवदेवया लवणसमुद्दं तिसत्तखुत्तो अनुपरियट्टइ, जं तत्थ तणं वा जाव एगंते एडेइ, जेणेव पासा-यवडेंसए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते मागंदिय-दारए पासायवडेंसए अपासमाणी जेणेव पुरत्थिमिल्ले वनसंडे तेणेव उवाग-च्छइ जाव सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ, करेत्ता तेसिं मागंदिय-दारगाणं कत्थइ सुइं वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले, एवं चेव पच्चत्थिमिल्ले वि जाव अपासमाणी ओहिं पउंजइ, ते मागंदिय-दारए सेलएणं सद्धिं लवणसमुद्दं मज्झं-मज्झेणं वीईवयमाणे पासइ, पासित्ता आसुरुत्ता असिखेडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सत्तट्ठ तलप्पमाणमेत्ताइं उड्ढं वेहासं उप्पयइ, Translated Sutra: तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने लवणसमुद्र के चारों तरफ इक्कीस चक्कर लगाकर, उसमें जो कुछ भी तृण आदि कचरा था, वह सब यावत् दूर किया। दूर करके अपने उत्तम प्रासाद में आई। आकर माकन्दीपुत्रों को उत्तम प्रासाद में न देखकर पूर्व दिशा के वनखण्ड में गई। वहाँ सब जगह उसने मार्गणा की। पर उन माकन्दीपुत्रों की कहीं भी | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 134 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जिनरक्खिए चलमणे तेणेव भूसणरवेणं कण्णसुहमणहरेणं तेहि य सप्पणय-सरल-महुर-भणिएहिं संजाय-विउणराए रयणदीवस्स देवयाए तीसे सुंदरथण-जहण-वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण-रूव-जोवण्णसिरिं च दिव्वं सरभस-उवगूहियाइं विब्बोय-विलसियाणि य विहसिय-सकडक्खदिट्ठि-निस्ससिय-मलिय-उवललिय-थिय-गमण-पणयखिज्जिय-पसाइयाणि य सरमाणे रागमोहियमती अवसे कम्मवसगए अवयक्खइ मग्गतो सविलियं।
तए णं जिनरक्खियं समुप्पन्नकलुणभावं मच्चु-गलत्थल्लणोल्लियमइं अवयक्खंतं तहेव जक्खे उ सेलए जाणिऊण सणियं-सणियं उव्विहइ नियगपट्ठाहि विगयसद्धे।
तए णं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुणं जिनरक्खियं सकलुसा सेलगपट्ठाहि Translated Sutra: कानों को सुख देने वाले और मन को हरण करने वाले आभूषणों के शब्द से तथा उन पूर्वोक्त प्रणययुक्त, सरल और मधुर वचनों से जिनरक्षित का मन चलायमान हो गया। उसे उस पर दुगुना राग उत्पन्न हो गया। वह रत्नद्वीप की देवी के सुन्दर स्तन, जघन मुख, हाथ, पैर और नेत्र के लावण्य की, रूप की और यौवन की लक्ष्मी को स्मरण करने लगा। उसके द्वारा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१३ मंडुक |
Hindi | 147 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से नंदे मणियारसेट्ठी सोलसहिं रोयायंकेहिं अभिभूए समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयह–एवं खलु देवानुप्पिया! नंदस्स मणियारस्स सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउब्भूया। [तं जहा–सासे जाव कोढे] । तं जो णं इच्छइ देवानुप्पिया! विज्जो वा विज्जपुत्तो वा जाणओ वा जाणुयपुत्तो वा कुसलो वा कुसलपुत्तो वा नंदस्स मणियारस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, तस्स णं नंदे मणियारसेट्ठी विउलं अत्थसंपयाणं Translated Sutra: नन्द मणिकार इन सोलह रोगांतकों से पीड़ित हुआ। तब उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा – देवानुप्रियो ! तुम जाओ और राजगृह नगर में शृंगाटक यावत् छोटे – छोटे मार्गों में ऊंची आवाज से घोषणा करते हुए कहो – ‘हे देवानुप्रियो ! नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीरमें सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए हैं, यथा – श्वास से कोढ़। तो हे | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र |
Hindi | 148 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तेरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चोद्दसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरं नाम नयरं। पमयवणे उज्जाणे। कनगरहे राया। तस्स णं कनगरहस्स पउमावई देवी।
तस्स णं कनगरहस्स तेयलिपुत्ते नामं अमच्चे–साम-दंड-भेय-उवप्पयाण-नीति-सुपउत्त-नयविहण्णू विहरइ।
तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नामं मूसियारदारए होत्था–अड्ढे जाव अपरिभूए।
तस्स णं भद्दा नामं भारिया।
तस्स णं कलावस्स मूसियारदारगस्स धूया भद्दाए अत्तया पोट्टिला नामं दारिया होत्था–रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा Translated Sutra: ‘भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने तेरहवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो चौदहवें ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?’ हे जम्बू ! उस काल और उस समय में तेतलिपुर नगर था। उस से बाहर ईशान – दिशा में प्रमदवन उद्यान था। उस नगर में कनकरथ राजा था। कनकरथ राजा की पद्मावती देवी थी। कथकरथ राजा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१५ नंदीफळ |
Hindi | 157 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं चोद्दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, पन्नरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया।
तत्थ णं चंपाए नयरीए धने नामं सत्थवाहे होत्था–अड्ढे जाव अपरिभूए।
तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नामं नयरी होत्था–रिद्धत्थिमिय-समिद्धा वण्णओ।
तत्थ णं अहिच्छत्ताए नयरीए कनगकेऊ नामं राया होत्था–महया वण्णओ।
तए णं तस्स धनस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे Translated Sutra: ‘भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने चौदहवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो पन्द्रहवें ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?’ उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था। जितशत्रु राजा था। धन्य सार्थवाह था, जो सम्पन्न था यावत् किसी से पराभूत होनेवाला नहीं था। उस | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 159 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नामं थेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नयरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। परिसा निग्गया धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया।
तए णं तेसिं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्मरुई नामं अनगारे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउलं-तेयलेस्से मासंमासेणं खममाणे विहरइ।
तए णं से धम्मरुई अनगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, एवं जहा गोयमसामी तहेव भायणाइं ओगाहेइ, तहेव धम्मघोसं Translated Sutra: उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर यावत् बहुत बड़े परिवार के साथ चम्पा नामक नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे। साधु के योग्य उपाश्रय की याचना करके, यावत् विचरने लगे। उन्हें वन्दना करने के लिए परीषद् नीकली। स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। परीषद् वापस चली गई। धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 175 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स कच्छुल्लनारयस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अहो णं दोवई देवी रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य पंचहिं पंडवेहिं अवत्थद्धा समाणी ममं नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुट्ठेइ नो पज्जुवासइ। तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करेत्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता पंडुरायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता उप्पयणिं विज्जं आवाहेइ, आवाहेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्घाए उद्धुयाए जइणाए छेयाए विज्जाहरगईए लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं पुरत्थाभिमुहे वीईवइउं पयत्ते यावि होत्था।
तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्ध-दाहिणड्ढ-भरहवासे Translated Sutra: तब कच्छुल्ल नारद को इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तित प्रार्थित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि – ‘अहो! यह द्रौपदी अपने रूप, यौवन, लावण्य और पाँच पाण्डवों के कारण अभिमानिनी हो गई है, अत एव मेरा आदर नहीं करती यावत् मेरी उपासना नहीं करती। अत एव द्रौपदी देवी का अनिष्ट करना मेरे लिए उचित है।’ इस प्रकार नारद ने विचार करके | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Hindi | 176 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जुहिट्ठिल्ले राया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवइं देविं पासे अपासमाणे सयणिज्जाओ उट्ठेइ, उट्ठेत्ता दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करेत्ता दोवईए देवीए कत्थइ सुइं वा खुइं वा पवत्तिं वा अलभमाणे जेणेव पंडू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुं रायं एवं वयासी–एवं खलु ताओ! ममं आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न नज्जइ केणइ देवेन वा दानवेन वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा निया वा अवक्खित्ता वा। तं इच्छामि णं ताओ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए।
तए णं से पंडू राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, Translated Sutra: इधर द्रौपदी का हरण हो जाने के पश्चात् थोड़ी देर में युधिष्ठिर राजा जागे। वे द्रौपदी देवी को अपने पास न देखते हुए शय्या से उठे। सब तरफ द्रौपदी देवी की मार्गणा करने लगे। किन्तु द्रौपदी देवी की कहीं भी श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति न पाकर जहाँ पाण्डु राजा थे वहाँ पहुँचे। वहाँ पहुँचकर पाण्डु राजा से इस प्रकार बोले | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 185 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ते संजत्ता-नावावाणियगे एवं वयासी–तुब्भे णं देवानुप्पिया! गामागर-नगर-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंब-पट्टण-आसम-निगम-संबाह-सण्णिवेसाइं० आहिंडह, लवणसमुद्दं च अभिक्खणं-अभिक्खणं पोयवहणेणं ओगाहेह। तं अत्थियाइं च केइ भे कहिंचि अच्छेरए दिट्ठपुव्वे?
तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा कनगकेऊ एवं वयासी–एवं खलु अम्हे देवानुप्पिया! इहेव हत्थिसीसे नयरे परिवसामो तं चेव जाव कालियदीवंतेणं संछूढा। तत्थ णं बहवे हिरन्नागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरागरे य, बहवे तत्थ आसे पासामो।
किं ते? हरिरेणु जाव अम्हं गंधं आघायंति, आघाइत्ता भीया तत्था उव्विग्गा उव्विग्गमणा तओ अनेगाइं जोयणाइं उब्भमंति। Translated Sutra: फिर राजा ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों से कहा – ‘देवानुप्रिय ! तुम लोग ग्रामों में यावत् आकरों में घूमते हो और बार – बार पोतवहन द्वारा लवणसमुद्र में अवगाहन करते हो, तुमने कहीं कोई आश्चर्यजनक – अद्भुत – अनोखी वस्तु देखी है ?’ तब सांयात्रिक नौकावणिकों ने राजा कनककेतु से कहा – ‘देवानुप्रिय ! हम लोग इसी हस्तिशीर्ष | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 186 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं अत्थेगइया आसा जेणेव उक्किट्ठा सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा तेणेव उवागच्छंति। तेसु उक्किट्ठेसु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु मुच्छिया गढिया गिद्धा अज्झोववण्णा पयत्ता यावि होत्था।
तए णं ते आसा ते उक्किट्ठे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे आसेवमाणा तेहिं बहूहिं कूडेहि य पासेहि य गलएसु य पाएसु य बज्झंति।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा ते आसे गिण्हंति, गिण्हित्ता एगट्ठियाहिं पोयवहणे संचारेंति, कट्ठस्स य तणस्स य पाणियस्स य तंदुलाण य समियस्स य गोरसस्स य जाव अन्नेसिं च बहूणं पोयवहण-पाउग्गाणं पोयवहणं भरेंति।
तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव Translated Sutra: उन घोड़ों में से कितनेक घोड़े जहाँ वे उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध थे, वहाँ पहुँचे। वे उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूर्च्छित हुए, अति आसक्त हो गए और उनका सेवन करने में प्रवृत्त हो गए। उस उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का सेवन करने वाले वे अश्व कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बहुत से कूट पाशों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 187 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कल-रिभिय-महुर-तंती-तल-ताल-वंस-कउहाभिरामेसु ।
सद्देसु रज्जमाणा, रमंति सोइंदिय–वसट्टा ॥ Translated Sutra: श्रुतिसुखद स्वरघोलना के प्रकारवाले, मधुर वीणा, तलताल, बाँसूरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में अनुरक्त होने और श्रोत्रेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी आनन्द मानते हैं। किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष होता है, जैसे पारधि के पिंजरे में रहे हुए शब्द को सहन न करता हुआ तीतुर पक्षी | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 197 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कल-रिभिय-महुर-तंती-तल-ताल-वंस-कउहाभिरामेसु ।
सद्देसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए ॥ Translated Sutra: कल, रिभित एवं मधुर तंत्री, तलताल तथा बाँसुरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में जो आसक्त नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते। स्त्रियों के स्तन, जघन, मुख, हाथ, पैर, नयन तथा गर्वयुक्त विलास वाली गति आदि समस्त रूपों में जो आसक्त नहीं होते, वे वशार्त्तमरण नहीं मरते। उत्तम अगर, श्रेष्ठ धूप, विविध ऋतुओं में वृद्धि | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१८ सुंसमा |
Hindi | 212 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए समोसढे।
तए णं धने सत्थवाहे सुपुत्ते धम्मं सोच्चा पव्वइए। एक्कारसंगवी। मासियाए संलेहणाए सोहम्मे कप्पे उववन्ने। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ।
जहा वि य णं जंबू! धनेणं सत्थवाहेणं नो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेउं वा नो विसयहेउं वा सुंसुमाए दारियाए मंससोणिए आहारिए, नन्नत्थ एगाए रायगिह-संपावणट्ठयाए।
एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स खेलासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासवस्स Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारे। उस समय धन्य सार्थवाह वन्दना करने के लिए भगवान के निकट पहुँचा। धर्मोपदेश सूनकर दीक्षित हो गया। क्रमशः ग्यारह अंगों का वेत्ता मुनि हो गया। अन्तिम समय आने पर एक मास की संलेखना करके सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवन करके महाविदेह | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१९ पुंडरीक |
Hindi | 218 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पुंडरीए अनगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चंपि चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाण ज्झियाइ, तइयाए पोरिसीए जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदानस्स भिक्खायरियं अडमाणे सीयलुक्ख पाण भोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहेत्ता अहापज्जत्तमिति कट्टु पडिनियत्तेइ, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपानं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववण्णे बिलमिव पन्नगभूएणं Translated Sutra: पुंडरिकीणी नगरी से रवाना होने के पश्चात् पुंडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान थे। उन्होंने स्थविर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया। स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया), तीसरे प्रहर में यावत् | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ संघाट |
Gujarati | 52 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा भद्दा सत्थवाही पंथगस्स दासचेडगस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसि मिसेमाणी धनस्स सत्थवाहस्स पओसमावज्जइ।
तए णं से धने सत्थवाहे अन्नया कयाइं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सएण य अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पाणं मोयावेइ, मोयावेत्ता चारगसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अलंकारियकम्मं कारवेइ जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहधोयमट्टियं गेण्हइ, गेण्हित्ता पोक्ख-रिणीं ओगाहइ, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, करेत्ता ण्हाए कयबलिकम्मे कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए Translated Sutra: ત્યારે તે ભદ્રા સાર્થવાહી, પંથક દાસચેટકની પાસે આ વાત સાંભળી ક્રોધિત થઇ, રોષાયમાન બની યાવત્ ધુંવાફુંવા થતી ધન્ય સાર્થવાહ પ્રત્યે પ્રદ્વેષ કરવા લાગી. ત્યારે તે ધન્ય સાર્થવાહ અન્ય કોઈ દિવસે મિત્ર – જ્ઞાતિજન – નિજક – સ્વજન – સંબંધી – પરિજન સાથે પોતાના સારભૂત દ્રવ્યથી રાજદંડથી પોતાને છોડાવ્યો, છોડાવીને કેદખાના | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Gujarati | 101 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिट्ठे विमाणपत्थडे सएहिं-सएहिं विमाणेहिं सएहिं-सएहिं पासायवडिंसएहिं पत्तेयं-पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं सोल-सहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं य बहूहिं लोगतिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिवुडा महयाऽहय-नट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-धन-मुइंग-पडुप्पवाइय रवेण विउलाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरंति, तं जहा– Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૯૬ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र |
Gujarati | 148 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तेरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चोद्दसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरं नाम नयरं। पमयवणे उज्जाणे। कनगरहे राया। तस्स णं कनगरहस्स पउमावई देवी।
तस्स णं कनगरहस्स तेयलिपुत्ते नामं अमच्चे–साम-दंड-भेय-उवप्पयाण-नीति-सुपउत्त-नयविहण्णू विहरइ।
तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नामं मूसियारदारए होत्था–अड्ढे जाव अपरिभूए।
तस्स णं भद्दा नामं भारिया।
तस्स णं कलावस्स मूसियारदारगस्स धूया भद्दाए अत्तया पोट्टिला नामं दारिया होत्था–रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा Translated Sutra: સૂત્ર– ૧૪૮. ભગવન્ ! જો શ્રમણ યાવત્ નિર્વાણ પ્રાપ્ત ભગવંત મહાવીરે તેરમા જ્ઞાત અધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો છે, તો ભગવન્ ! શ્રમણ ભગવંતે ચૌદમા અધ્યયનનો શો અર્થ કહ્યો છે ? હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે તેતલિપુર નામે નગર હતું. પ્રમદવન નામે ઉદ્યાન હતું, ત્યાં કનકરથ નામે રાજા હતો, તેની પદ્માવતી રાણી હતી, તે કનકરથ રાજાનો તેતલિપુત્ર | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-३ धरण आदि अग्रमहिषी ५४ अध्ययन-१ थी ५४ |
Gujarati | 226 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं बिइयस्स वग्गस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, तइयस्स णं भंते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं तइयस्स वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा–पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णइमे अज्झयणे।
जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं अला देवी धरणाए Translated Sutra: ત્રીજા વર્ગનો ઉત્ક્ષેપો કહેવો. હે જંબૂ ! શ્રમણ ભગવંત મહાવીરે યાવત્ ત્રીજા વર્ગના ૫૪ – અધ્યયનો કહ્યા છે – પહેલું યાવત્ ચોપનમું. ભગવન્ ! શ્રમણ ભગવંતે યાવત્ ‘ધર્મકથા’ના ત્રીજા વર્ગના ૫૪ – અધ્યયનના પહેલા અધ્યયનનો શ્રમણ ભગવંતે શો અર્થ કહ્યો છે? હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે રાજગૃહનગરે, ગુણશીલ ચૈત્યે સ્વામી પધાર્યા, |