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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-३ अपरिग्रह | Hindi | 167 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘जुद्धारिहं खलु दुल्लहं’।
जहेत्थ कुसलेहि परिण्णा-विवेगे भासिए।
चुए हु बाले गब्भाइसु रज्जइ।
अस्सिं चेयं पव्वुच्चति, रूवंसि वा छणंसि वा।
से हु एगे संविद्धपहे मुनी, अन्नहा लोगमुवेहमाणे।
इति कम्मं परिण्णाय, सव्वसो से ण हिंसति। संजमति नोपगब्भति।
उवेहमानो पत्तेयं सायं।
वण्णाएसी नारभे कंचणं सव्वलोए।
एगप्पमुहे विदिसप्पइण्णे, निव्विन्नचारी अरए पयासु। Translated Sutra: (अन्तर – भाव) युद्ध के योग अवश्य ही दुर्लभ है। जैसे कि तीर्थंकरों ने इस (भावयुद्ध) के परिज्ञा और विवेक (ये दो शस्त्र) बताए हैं। (मोक्ष – साधना के लिए उत्थित होकर) भ्रष्ट होनेवाला अज्ञानी साधक गर्भ आदि में फँस जाता है। इस अर्हत् शासनमें यह कहा जाता है – रूप (तथा रसादि)में एवं हिंसामें (आसक्त होनेवाला उत्थित होकर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-३ अपरिग्रह | Hindi | 168 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से वसुभं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पाव कम्मं।
तं नो अन्नेसिं।
जं सम्मं ति पासहा, तं मोणं ति पासहा । जं मोणं ति पासहा, तं सम्मं ति पासहा ॥
न इमं सक्कं सिढिलेहिं अद्दिज्जमाणेहिं गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं।
मुनी मोणं समायाए, धुणे कम्म-सरीरगं।
पंतं लूहं सेवंति, वीरा समत्तदंसिणो।
एस ओहंतरे मुनी, तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए। Translated Sutra: संयमधनी मुनि के लिए सर्व समन्वागत प्रज्ञारूप अन्तःकरण से पापकर्म अकरणीय है, अतः साधक उनका अन्वेषण न करे। जिस सम्यक् को देखते हो, वह मुनित्व को देखते हो, जिस मुनित्व को देखते हो, वह सम्यक् को देखते हो। (सम्यक्त्व) का सम्यक्रूप से आचरण करना उन साधकों द्वारा शक्य नहीं है, जो शिथिल हैं, आसक्ति – मूलक स्नेह से आर्द्र | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-४ अव्यक्त | Hindi | 169 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जातं दुप्परक्कंतं भवति अवियत्तस्स भिक्खुणो। Translated Sutra: जो भिक्षु (अभी तक) अव्यक्त अवस्थामें है, उसका अकेले ग्रामानुग्राम विहार करना दुर्यात् और दुष्पराक्रम है | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-४ अव्यक्त | Hindi | 170 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वयसा वि एगे बुइया कुप्पंति माणवा।
उन्नयमाणे य नरे, महता मोहेण मुज्झति।
संबाहा बहवे भुज्जो-भुज्जो दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो।
एयं ते मा होउ। एयं कुसलस्स दंसणं।
तद्दिट्ठीए तम्मोत्तीए तप्पुरवकारे, तस्सण्णी तन्निवेसणे।
जयंविहारी चित्तणिवाती पंथणिज्झाती पलीवाहरे, पासिय पाणे गच्छेज्जा। Translated Sutra: कईं मानव थोड़े – से प्रतिकूल वचन सूनकर भी कुपित हो जाते हैं। स्वयं को उन्नत मानने वाला अभिमानी मनुष्य प्रबल मोह से मूढ़ हो जाता है। उसको एकाकी विचरण करते हुए अनेक प्रकार की उपसर्गजनित एवं रोग – आतंक आदि परीषहजनित संबाधाएं बार – बार आती हैं, तब उस अज्ञानी के लिए उन बाधाओं को पार करना अत्यंत कठिन होता है। (ऐसी अव्यक्त | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-४ अव्यक्त | Hindi | 171 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से अभिक्कममाणे पडिक्कममाणे संकुचेमाणे पसारेमाणे विणियट्टमाणे संपलिमज्जमाणे।
एगया गुणसमियस्स रीयतो कायसंफासमणुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंति।
इहलोग-वेयण वेज्जावडियं।
जं ‘आउट्टिकयं कम्मं’, तं परिण्णाए विवेगमेति।
एवं से अप्पमाएणं, विवेगं किट्टति वेयवी। Translated Sutra: वह भिक्षु जाता हुआ, वापस लौटता हुआ, अंगों को सिकोड़ता हुआ, फैलाता समस्त अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर, सम्यक् प्रकार से परिमार्जन करता हुआ समस्त क्रियाएं करे। किसी समय (यतनापूर्वक) प्रवृत्ति करते हुए गुणसमित अप्रमादी मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर प्राणी परिताप पाते हैं। कुछ प्राणी ग्लानि पाते हैं अथवा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-४ अव्यक्त | Hindi | 172 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: वह प्रभूतदर्शी, प्रभूत परिज्ञानी, उपशान्त, समिति से युक्त, सहित, सदा यतनाशील या इन्द्रियजयी अप्रमत्त मुनि (उपसर्ग करने) के लिए उद्यत स्त्रीजन को देखकर अपने आपका पर्यालोचन करता है – ‘यह स्त्रीजन मेरा क्या कर लेगा ?’ वह स्त्रियाँ परम आराम हैं। (किन्तु मैं तो सहज आत्मिक – सुख से सुखी हूँ, ये मुझे क्या सुख देंगी?) ग्रामधर्म | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-५ ह्रद उपमा | Hindi | 173 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–तं जहा।
अवि हरए पडिपुण्णे, चिट्ठइ समंसि भोमे ।
उवसंतरए सारक्खमाणे, से चिट्ठति सोयमज्झगए ॥
से पास पव्वतो गुत्ते, पास लोए महेसिणो, जे य पण्णाणमंता पबुद्धा आरंभोवरया।
सम्ममेयंति पासह।
कालस्स कंखाए परिव्वयंति Translated Sutra: मैं कहता हूँ – जैसे एक जलाशय जो परिपूर्ण है, समभूभाग में स्थित है, उसकी रज उपशान्त है, (अनेक जलचर जीवों का) संरक्षण करता हुआ, वह जलाशय स्रोत के मध्य में स्थित है। (ऐसा ही आचार्य होता है)। इस मनुष्यलोक में उन (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) सर्वतः गुप्त महर्षियों को तू देख, जो उत्कृष्ट ज्ञानवान् (आगमश्रुत</em> – ज्ञाता) हैं, प्रबुद्ध | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-५ ह्रद उपमा | Hindi | 174 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वितिगिच्छ-समावन्नेणं अप्पाणेणं णोलभति समाधिं।
सिया वेगे अनुगच्छंति, असिया वेगे अनुगच्छंति, अनुगच्छमाणेहिं अननुगच्छमाणे कहं न निव्विज्जे? Translated Sutra: विचिकित्सा – प्राप्त आत्मा समाधि प्राप्त नहीं कर पाता। कुछ लघुकर्मा सित (बद्ध) आचार्य का अनुगमन करते हैं, कुछ असित (अप्रतिबद्ध) भी विचिकित्सादि रहित होकर (आचार्य का) अनुगमन करते हैं। इन अनुगमन करने वालों के बीच में रहता हुआ अनुगमन न करने वाला कैसे उदासीन नहीं होगा ? | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-५ ह्रद उपमा | Hindi | 175 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं। Translated Sutra: वही सत्य है, जो तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-५ ह्रद उपमा | Hindi | 176 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: सड्ढिस्स णं समणुण्णस्स संपव्वयमाणस्स–समियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ। समियंति मण्णमा-णस्स एगया असमिया होइ। असमियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ। असमियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया होइ। समियंति मण्णमाणस्स समिया वा, असमिया वा, समिया होइ उवेहाए। असमियंति मण्णमाणस्स समिया वा, असमिया वा, असमिया होइ उवेहाए।
उवेहमानो अणुवेहमाणं बूया उवेहाहि समियाए।
इच्चेवं तत्थ संधी झोसितो भवति।
उट्ठियस्स ठियस्स गतिं समणुपासह। एत्थवि बालभावे अप्पाणं णोउवदंसेज्जा। Translated Sutra: श्रद्धावान् सम्यक् प्रकार से अनुज्ञा शील एवं प्रव्रज्या को सम्यक् स्वीकार करने या पालने वाला (१) कोई मुनि जिनोक्त तत्त्व को सम्यक् मानता है और उस समय (उत्तरकाल में) भी सम्यक् (मानता) रहता है। (२) कोई प्रव्रज्याकाल में सम्यक् मानता है, किन्तु बाद में किसी समय उसका व्यवहार असम्यक् हो जाता है। (३) कोई मुनि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-५ ह्रद उपमा | Hindi | 177 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘हंतव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘अज्जावेयव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘परितावेयव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘परिघेतव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘उद्दवेयव्वं’ ति मन्नसि।
अंजू चेय-पडिबुद्ध-जीवी, तम्हा ण हंता न विघायए।
अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जं ‘हंतव्वं’ ति नाभिपत्थए। Translated Sutra: तू वही है, जिसे तू हनन योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू दास बनाने हेतु ग्रहण करने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू मारने योग्य मानता है। ज्ञानी पुरुष ऋजु होते हैं, वह प्रतिबोध पाकर जीने वाला होता है। इसके कारण वह स्वयं | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-५ ह्रद उपमा | Hindi | 178 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। जेण विजाणति से आया।
तं पडुच्च पडिसंखाए।
एस आयावादी समियाए- परियाए वियाहिते। Translated Sutra: जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह आत्मा है। क्योंकि ज्ञानों से आत्मा जानता है, इसलिए वह आत्मा है। उस (ज्ञान की विभिन्न परिणतियों) की अपेक्षा से आत्मा की प्रतीति होती है। यह आत्म – वादी सम्यक्तता का परिगामी कहा गया है। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-६ उन्मार्गवर्जन | Hindi | 179 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे निरुवट्ठाणा।
एतं ते मा होउ।
एयं कुसलस्स दंसणं।
तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए, तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तन्निवेसणे। Translated Sutra: कुछ साधक अनाज्ञा में उद्यमी होते हैं और कुछ साधक आज्ञा में अनुद्यमी होते हैं। यह तुम्हारे जीवन में न हो। यह (अनाज्ञा में अनुद्यम और आज्ञा में उद्यम) मोक्ष मार्ग – दर्शन – कुशल तीर्थंकर का दर्शन है। साधक उसी में अपनी दृष्टि नियोजित करे, उसी मुक्ति में अपनी मुक्ति माने, सब कार्यों में उसे आगे करके प्रवृत्त हो, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-६ उन्मार्गवर्जन | Hindi | 180 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अभिभूय अदक्खू, अणभिभूते पभू निरालंबणयाए।
जे महं अबहिमणे।
पवाएणं पवायं जाणेज्जा।
सहसम्मइयाए, परवागरणेणं अन्नेसिं वा अंतिए सोच्चा। Translated Sutra: जिसने परीषह – उपसर्गों – बाधाओं तथा घातिकर्मों को पराजित कर दिया है, उसीने तत्त्व का साक्षात्कार किया है। जो ईससे अभिभूत नहीं होता, वह निरालम्बनता पाने में समर्थ होता है। जो महान् होता है उसका मन (संयम से) बाहर नहीं होता। प्रवाद (सर्वज्ञ तीर्थंकरों के वचन) से प्रवाद (विभिन्न दार्शनिकों या तीर्थिकों के बाद) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-६ उन्मार्गवर्जन | Hindi | 181 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: निद्देसं नातिवट्टेज्जा मेहावी।
सुपडिलेहिय सव्वतो सव्वयाए सम्ममेव समभिजाणिया।
इहारामं परिण्णाय, अल्लीण-गुत्तो परिव्वए। निट्ठियट्ठी वीरे, आगमेण</em> सदा परक्कमेज्जासि Translated Sutra: मेधावी निर्देश (तीर्थंकरादि के आदेश) का अतिक्रमण न करे। वह सब प्रकार से भली – भाँति विचार करके सम्पूर्ण रूप से पूर्वोक्त जाति – स्मरण आदि तीन प्रकार से साम्य को जाने। इस सत्य (साम्य) के परिशीलन में आत्म – रमण की परिज्ञा करके आत्मलीन होकर विचरण करे। मोक्षार्थी अथवा संयम – साधना द्वारा निष्ठितार्थ वीर मुनि आगम</em> | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-६ उन्मार्गवर्जन | Hindi | 182 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: उड्ढं सोता अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया, एते सोया वियक्खाया, जेहिं संगंति पासहा। Translated Sutra: ऊपर नीचे, और मध्य में स्रोत हैं। ये स्रोत कर्मों के आस्रवद्वार हैं, जिनके द्वारा समस्त प्राणियों को आसक्ति पैदा होती है, ऐसा तुम देखो। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-६ उन्मार्गवर्जन | Hindi | 183 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: ‘आवट्टं तु उवेहाए’ ‘एत्थ विरमेज्ज वेयवी’।
विणएत्तु सोयं णिक्खम्म, एस महं अकम्मा जाणति पासति।
पडिलेहाए नावकंखति, इह आगतिं गतिं परिण्णाय। Translated Sutra: (राग – द्वेषरूप) भावावर्त का निरीक्षण करके आगमविद्</em> पुरुष उससे विरत हो जाए। विषयासक्तियों के या आस्रवों के स्रोत हटाकर निष्क्रमण करनेवाला यह महान् साधक अकर्म होकर लोक को प्रत्यक्ष जानता, देखता है। (इस सत्य का) अन्तर्निरीक्षण करनेवाला साधक इस लोकमें संसार – भ्रमण और उसके कारण की परिज्ञा करके उन (विषय – सुखों) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-६ उन्मार्गवर्जन | Hindi | 184 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: अच्चेइ जाइ-मरणस्स वट्टमग्गं वक्खाय-रए।
सव्वे सरा णियट्टंति।
तक्का जत्थ न विज्जइ। मई तत्थ न गहिया।
ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेयन्ने।
से न दोहे, न हस्से, न वट्टे, न तंसे, न चउरंसे, न परिमण्डले।
न किण्हे, न णीले, न लोहिए, न हालिद्दे, न सुक्किल्ले।
न सुब्भिगंधे, न दुरभिगंधे।
न तित्ते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे।
न कक्खडे, न मउए, न गरुए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न णिद्धे, न लुक्खे।
न काऊ। न रुहे। न संगे।
न इत्थी, न पुरिसे, न अन्नहा।
परिण्णे सण्णे।
उवमा न विज्जए।
अरूवी सत्ता।
अपयस्स पयं नत्थि। Translated Sutra: इस प्रकार वह जीवों की गति – आगति के कारणों का परिज्ञान करके व्याख्यानरत मुनि जन्म – मरण के वृत्त मार्ग को पार कर जाता है। (उस मुक्तात्मा का स्वरूप या अवस्था बताने के लिए) सभी स्वर लौट जाते हैं – वहाँ कोई तर्क नहीं है। वहाँ मति भी प्रवेश नहीं कर पाती, वह (बुद्धि ग्राह्य नहीं है)। वहाँ वह समस्त कर्ममल से रहित ओजरूप | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-६ उन्मार्गवर्जन | Hindi | 185 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, न फासे, इच्चेताव। Translated Sutra: वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श है। बस इतना ही है। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 186 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ से नरे।
जस्सिमाओ जाईओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, अक्खाइ से नाणमणेलिसं।
से किट्टति तेसिं समुट्ठियाणं णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं।
एवं पेगे महावीरा विप्परक्कमंति।
पासह एगेवसीयमाणे अणत्तपण्णे।
से बेमि–से जहा वि कुम्मे हरए विनिविट्ठचित्ते, पच्छन्न-पलासे, उम्मग्गं से णोलहइ।
भंजगा इव सन्निवेसं णोचयंति, एवं पेगे – ‘अनेगरूवेहिं कुलेहिं’ जाया, ‘रूवेहिं सत्ता’ कलुणं थणंति, नियाणाओ ते न लभंति मोक्खं।
अह पास ‘तेहिं-तेहिं’ कुलेहिं आयत्ताए जाया– Translated Sutra: इस मर्त्यलोक में मनुष्यों के बीच में ज्ञाता वह पुरुष आख्यान करता है। जिसे ये जीव – जातियाँ सब प्रकार से भली – भाँति ज्ञात होती हैं, वही विशिष्ट ज्ञान का सम्यग् आख्यान करता है। वह (सम्बुद्ध पुरुष) इस लोक में उनके लिए मुक्ति – मार्ग का निरूपण करता है, जो (धर्माचरण के लिए) सम्यक् उद्यत है, मन, वाणी और काया से जिन्होंने | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 187 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गंडी अदुवा कोढी, रायंसी अवमारियं ।
काणियं झिमियं चेव, कुणियं खुज्जियं तहा ॥ Translated Sutra: गण्डमाला, कोढ़, राजयक्ष्मा, अपस्मार, काणत्व, जड़ता, कुणित्व, कुबड़ापन। उदररोग, मूकरोग, शोथरोग, भस्मकरोग, कम्पनवात, पंगुता, श्लीपदरोग और मधुमेह। ये सोलह रोग क्रमशः कहे गए हैं। इसके अनन्तर आतंक और अप्रत्याशित (दुःखों के) स्पर्श प्राप्त होते हैं। सूत्र – १८७–१८९ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 188 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उदरिं पास मूयं च, सूणिअं च गिलासिणिं ।
वेवइं पीढसप्पिं च, सिलिवयं महुमेहणिं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १८७ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 189 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सोलस एते रोगा, अक्खाया अणुपुव्वसो ।
अह णं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १८७ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 190 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मरणं तेसिं संपेहाए, उववायं चयणं च नच्चा ।
परिपागं च संपेहाए, तं सुणेह जहा तहा ॥
संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिया।
तामेव सइं असइं अतिअच्च उच्चावयफासे पडिसंवेदेंति।
बुद्धेहिं एयं पवेदितं।
संति पाणा वासगा, रसगा, उदए उदयचरा, आगासगामिणो।
पाणा पाणे किलेसंति। पास लोए महब्भयं। Translated Sutra: उन मनुष्यों की मृत्यु का पर्यालोचन कर, उपपात और च्यवन को जानकर तथा कर्मों के विपाक का भली – भाँति विचार करके उसके यथातथ्य को सूनो। (इस संसार में) ऐसे भी प्राणी बताए गए हैं, जो अंधे होते हैं और अन्धकार में ही रहते हैं। वे प्राणी उसीको एक बार या अनेक बार भोगकर तीव्र और मन्द स्पर्शों का प्रतिसंवेदन करते हैं। बुद्धों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 191 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बहुदुक्खा हु जंतवो।
सत्ता कामेहिं माणवा।
अबलेण वहं गच्छंति, सरीरेण पभंगुरेण।
अट्टे से बहुदुक्खे, इति बाले पगब्भइ।
एते रोगे बहू णाच्चा, आउरा परितावए।
नालं पास।
अलं तवेएहिं।
एयं पास मुनी! महब्भयं।
नातिवाएज्ज कंचणं। Translated Sutra: संसार में जीव बहुत दुःखी हैं। मनुष्य काम – भोगों में आसक्त हैं। इस निर्बल शरीर को सुख देने के लिए प्राणियों के वध की ईच्छा करते हैं। वेदना से पीड़ित वह मनुष्य बहुत दुःख पाता है। इसलिए वह अज्ञानी प्राणियों को कष्ट देता है। इन (पूर्वोक्त) अनेक रोगों को उत्पन्न हुए जानकर आतुर मनुष्य (चिकित्सा के लिए दूसरे प्राणियों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 192 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयाण भो! सुस्सूस भो! ‘धूयवादं पवेदइस्सामि’।
इह खलु अत्तत्ताए तेहिं-तेहिं कुलेहिं अभिसेएण अभिसंभूता, अभिसंजाता, अभिणिव्वट्टा, अभिसंवुड्ढा, अभिसंबुद्धा अभिणिक्खंता, अणुपुव्वेण महामुनी... Translated Sutra: हे मुने ! समझो, सूनने की ईच्छा करो, मैं धूतवाद का निरूपण करूँगा। (तुम) इस संसार में आत्मत्व से प्रेरित होकर उन – उन कुलों में शुक्र – शोणित के अभिषेक – से माता के गर्भ में कललरूप हुए, फिर अर्बुद और पेशी रूप बने, तदनन्तर अंगोपांग – स्नायु, नस, रोम आदि से क्रम से अभिनिष्पन्न हुए, फिर प्रसव होकर संवर्द्धित हुए, तत्पश्चात् | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 193 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं परक्कमंतं परिदेवमाणा, ‘मा णे चयाहि’ इति ते वदंति। छंदोवणीया अज्झोववन्ना, अक्कंदकारी जणगा रुवंति।
अतारिसे मुनी, नो ओहंतरए, जणगा जेण विप्पजढा।
सरणं तत्थ णोसमेति। किह नाम से तत्थ रमति?
एयं नाणं सया समणुवासिज्जासि। Translated Sutra: मोक्षमार्ग – संयम में पराक्रम करते हुए उस मुनि के माता – पिता आदि करुण विलाप करते हुए यों कहते हैं – तुम हमें मत छोड़ो, हम तुम्हारे अभिप्राय के अनुसार व्यवहार करेंगे, तुम पर हमें ममत्व है। इस प्रकार आक्रन्द करते हुए वे रुदन करते हैं। (वे रुदन करते हुए स्वजन कहते हैं) जिसने माता – पिता को छोड़ दिया है, ऐसा व्यक्ति | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-२ कर्मविधूनन | Hindi | 194 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आतुरं लोयमायाए, ‘चइत्ता पुव्वसंजोगं’ हिच्चा उवसमं वसित्ता बंभचेरम्मि वसु वा अणुवसु वा जाणित्तु धम्मं अहा तहा, ‘अहेगे तमचाइ कुसीला।’ Translated Sutra: (काम – रोग आदि से) आतुर लोक (समस्त प्राणिजगत) को भलीभाँति जानकर, पूर्व संयोग को छोड़कर, उपशम को प्राप्त कर, ब्रह्मचर्य में बास करके बसे (संयमी साधु) अथवा (सराग साधु) धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी कुछ कुशील व्यक्ति उस धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं होते। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-२ कर्मविधूनन | Hindi | 195 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं विउसिज्जा।
अणुपुव्वेण अणहियासेमाणा परीसहे दुरहियासए।
कामे ममायमाणस्स इयाणिं वा मुहुत्ते वा अपरिमाणाए भेदे।
एवं से अंतराइएहिं कामेहिं आकेवलिएहिं अवितिण्णा चेए। Translated Sutra: वे वस्त्र, पात्र, कम्बल एवं पाद – प्रोंछन को छोड़कर उत्तरोत्तर आने वाले दुःस्सह परीषहों को नहीं सह सकने के कारण (मुनि – धर्म का त्याग कर देते हैं)। विविध कामभोगों को अपनाकर गाढ़ ममत्व रखने वाले व्यक्ति का तत्काल (प्रव्रज्या – परित्याग के) अन्त – र्मुहूर्त्त में या अपरिमित समय में शरीर छूट सकता है। इस प्रकार वे अनेक | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-२ कर्मविधूनन | Hindi | 196 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘अहेगे धम्म मादाय’ ‘आयाणप्पभिइं सुपणिहिए’ चरे।
अपलीयमाणे दढे।
सव्वं गेहिं परिण्णाय, एस पणए महामुनी।
अइअच्च सव्वतो संगं ‘ण महं अत्थित्ति इति एगोहमंसि।’
जयमाणे एत्थ विरते अनगारे सव्वओ मुंडे रीयंते।
जे अचेले परिवुसिए संचिक्खति ओमोयरियाए।
से अक्कुट्ठे व हए व लूसिए वा।
पलियं पगंथे अदुवा पगंथे।
अतहेहिं सद्द-फासेहिं, इति संखाए।
एगतरे अन्नयरे अभिण्णाय, तितिक्खमाणे परिव्वए।
जे य हिरी, जे य अहिरीमणा। Translated Sutra: यहाँ कईं लोग, धर्म को ग्रहण करके निर्ममत्वभाव से धर्मोपकरणादि से युक्त होकर, अथवा धर्माचरण में इन्द्रिय और मन को समाहित करके विचरण करते हैं। वह अलिप्त/अनासक्त और सुदृढ़ रहकर (धर्माचरण करते हैं) समग्र आसक्ति को छोड़कर वह (धर्म के प्रति) प्रणत महामुनि होता है, (अथवा) वह महामुनि संयम में या कर्मों को धूनने में प्रवृत्त | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-२ कर्मविधूनन | Hindi | 197 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चिच्चा सव्वं विसोत्तियं, ‘फासे फासे’ समियदंसणे।
एते भो! नगिणा वुत्ता, जे लोगंसि अनागमणधम्मिणो।
आणाए मामगं धम्मं।
एस उत्तरवादे, इह माणवाणं वियाहिते।
एत्थोवरए तं झोसमाणे।
आयाणिज्जं परिण्णाय, परियाएण विगिंचइ।
‘इहमेगेसिं एगचरिया होति’।
तत्थियराइयरेहिं कुलेहिं सुद्धेसणाए सव्वेसणाए।
से मेहावी परिव्वए।
सुब्भिं अदुवा दुब्भिं।
अदुवा तत्थ भेरवा।
पाणा पाणे किलेसंति।
ते फासे पुट्ठो धीरो अहियासेज्जासि। Translated Sutra: सम्यग्दर्शन – सम्पन्न मुनि सब प्रकार की शंकाएं छोड़कर दुःख – स्पर्शों को समभाव से सहे। हे मानवो ! धर्म – क्षेत्र में उन्हें ही नग्न कहा गया है, जो मुनिधर्म में दीक्षित होकर पुनः गृहवास में नहीं आते। आज्ञा में मेरा धर्म है, यह उत्तर बाद इस मनुष्यलोक में मनुष्यों के लिए प्रतिपादित किया है। विषय से उपरत साधक ही | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-३ उपकरण शरीर विधूनन | Hindi | 198 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘एयं खु मुनी आयाणं सया सुअक्खायधम्मे विधूतकप्पे णिज्झोसइत्ता’।
जे अचेले परिवुसिए, तस्स णं भिक्खुस्स नो एवं भवइ–परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइ-स्सामि, सूइं जाइस्सामि, संधिस्सामि, सीवीस्सामि, उक्कसिस्सामि, वोक्कसिस्सामि, परिहिस्सामि, पाउणिस्सामि।
अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंसमसग-फासा फुसंति।
एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले।
‘लाघवं आगममाणे</em>’।
तवे से अभिसमण्णागए भवति।
जहेयं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया।
एवं तेसिं महावीराणं चिरराइं Translated Sutra: सतत सु – आख्यात धर्म वाला विधूतकल्पी (आचार का सम्यक् पालन करने वाला) वह मुनि आदान (मर्यादा से अधिक वस्त्रादि) का त्याग कर देता है। जो भिक्षु अचेलक रहता है, उस भिक्षु को ऐसी चिन्ता उत्पन्न नहीं होती कि मेरा वस्त्र सब तरह से जीर्ण हो गया है, इसलिए मैं वस्त्र की याचना करूँगा, फटे वस्त्र को सीने के लिए धागे की याचना | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-३ उपकरण शरीर विधूनन | Hindi | 199 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आगयपण्णाणाणं किसा बाहा भवंति, पयणुए य मंससोणिए।
विस्सेणिं कट्टु, परिण्णाए।
एस तिण्णे मुत्ते विरए बियाहिए Translated Sutra: प्रज्ञावान मुनियों की भुजाएं कृश होती हैं, उनके शरीर में रक्त – माँस बहुत कम हो जाते हैं। संसार – वृद्धि की राग – द्वेष – कषायरूप श्रेणी को प्रज्ञा से जानकर छिन्न – भिन्न करके वह मुनि तीर्ण, मुक्त एवं विरत कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-३ उपकरण शरीर विधूनन | Hindi | 200 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] विरयं भिक्खुं रीयंतं, चिररातोसियं, अरती तत्थ किं विधारए?
संधेमाणे समुट्ठिए।
जहा से दीवे असंदीणे, एवं से धम्मे ‘आयरिय-पदेसिए’।
‘ते अणवकंखमाणा’ अणतिवाएमाणा दइया मेहाविनो पंडिया।
एवं तेसिं भगवओ अणुट्ठाणे जहा से दिया पोए।
एवं ते सिस्सा दिया य राओ य, अणुपुव्वेण वाइय। Translated Sutra: चिरकाल से मुनिधर्म में प्रव्रजित, विरत और संयम में गतिशील भिक्षु का क्या अरति धर दबा सकती है ? (आत्मा के साथ धर्म का) संधान करने वाले तथा सम्यक् प्रकार से उत्थित मुनि को (अरति अभिभूत नहीं कर सकती) जैसे असंदीन द्वीप (यात्रियों के लिए) आश्वासन – स्थान होता है, वैसे ही आर्य द्वारा उपदिष्ट धर्म (संसार – समुद्र पार करने | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 201 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं ते सिस्सा दिया य राओ य, अणुपुव्वेण वाइया ‘तेहिं महावीरेहिं’ पण्णाणमंतेहिं।
तेसिंतिए पण्णाणमुवलब्भ हिच्चा उवसमं फारुसियं समादियंति।
वसित्ता बंभचेरंसि आणं ‘तं णो’ त्ति मण्णमाणा।
अग्घायं तु सोच्चा निसम्म समणुण्णा जीविस्सामो एगे णिक्खम्म ते–
असंभवंता विडज्झमाणा, कामेहिं गिद्धा अज्झोववण्णा ।
समाहिमाघायमझोसयता, सत्थारमेव फरुसं वदंति ॥ Translated Sutra: इस प्रकार वे शिष्य दिन और रात में उन महावीर और प्रज्ञानवान द्वारा क्रमशः प्रशिक्षित किये जाते हैं। उनसे विशुद्ध ज्ञान पाकर उपशमभाव को छोड़कर कुछ शिष्य कठोरता अपनाते हैं। वे ब्रह्मचर्य में निवास करके भी उस आज्ञा को ‘यह (तीर्थंकरकी आज्ञा) नहीं है’, ऐसा मानते हुए (गुरुजनोंके वचनोंकी अवहेलना करते हैं।) कुछ व्यक्ति | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 202 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सीलमंता उवसंता, संखाए रीयमाणा। असीला अणुवयमाणा।
[सूत्र] बितिया मंदस्स बालया। Translated Sutra: शीलवान, उपशान्त एवं संयम – पालन में पराक्रम करने वाले मुनियों को वे अशीलवान कहकर बदनाम करते हैं। यह उन मन्दबुद्धि लोगों की मूढ़ता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 203 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नियट्टमाणा वेगे आयार-गोयरमाइक्खंति नाणभट्ठा दंसणलूसिणो। Translated Sutra: कुछ संयम से निवृत्त हुए लोग आचार – विचार का बखान करते हैं, (किन्तु) जो ज्ञान से भ्रष्ट हो गए, वे सम्यग्दर्शन के विध्वंसक होकर (स्वयं चारित्र – भ्रष्ट हो जाते हैं।) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 204 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नममाणा एगे जीवितं विप्परिणामेंति।
पुट्ठा वेगे णियट्ठंति, जीवियस्सेव कारणा।
णिक्खंतं पि तेसिं दुन्निक्खंतं भवति।
बालवयणिज्जा हु ते नरा, पुणो-पुनो जातिं पकप्पेंति।
अहे संभवंता विद्दायमाणा, अहमंसी विउक्कसे।
उदासीणे फरुसं वदंति।
पलियं पगंथे अदुवा पगंथे अतहेहिं।
तं मेहावी जाणिज्जा धम्मं। Translated Sutra: कईं साधक नत (समर्पित) होते हुए भी (मोहोदयवश) संयमी जीवन को बिगाड़ देते हैं। कुछ साधक (परीषहों से) स्पृष्ट होने पर केवल जीवन जीने के निमित्त से (संयम और संयमीवेश से) निवृत्त हो जाते हैं। उनका गृहवास से निष्क्रमण भी दुर्निष्क्रमण हो जाता है, क्योंकि साधारण जनों द्वारा भी वे निन्दनीय हो जाते हैं तथा (आसक्त होने से) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 205 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अहम्मट्ठी तुमंसि नाम बाले, आरंभट्ठी, अणुवयमाणे, हणमाणे, घायमाणे, हणओ यावि समणुजाणमाणे, घोरे धम्मे उदीरिए, उवेहइ णं अणाणाए।
एस विसण्णे वितद्दे वियाहिते Translated Sutra: (धर्म से पतित को इस प्रकार अनुशासित करते हैं – ) तू अधर्मार्थी है, बाल है, आरम्भार्थी है, (आरम्भ – कर्ताओं का) अनुमोदक है, (तू इस प्रकार कहता है – ) प्राणियों का हनन करो, प्राणियों का वध करने वालों का भी अच्छी तरह अनुमोदन करता है। (भगवान ने) घोर धर्म का प्रतिपादन किया है, तू आज्ञा का अतिक्रमण कर उसकी अपेक्षा कर रहा है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-४ गौरवत्रिक विधूनन | Hindi | 206 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किमणेण भो! जणेण करिस्सामित्ति मण्णमाणा–‘एवं पेगे वइत्ता’,
मातरं पितरं हिच्चा, णातओ य परिग्गहं ।
‘वीरायमाणा समुट्ठाए, अविहिंसा सुव्वया दंता’ ॥
अहेगे पस्स दीणे उप्पइए पडिवयमाणे।
वसट्टा कायराजना लूसगा भवंति।
अहमेगेसिं सिलोए पावए भवइ, ‘से समणविब्भंते समणविब्भंते’।
पासहेगे समण्णागएहिं असमण्णागए, णममाणेहिं अणममाणे, विरतेहिं अविरते, दविएहिं अदविए।
अभिसमेच्चा पंडिए मेहावी णिट्ठियट्ठे वीरे आगमेणं</em> सया परक्कमेज्जासि। Translated Sutra: ओ (आत्मन् !) इस स्वार्थी स्वजन का मैं क्या करूँगा ? यह मानते और कहते हुए (भी) कुछ लोग माता, पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीर वृत्ति से मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से प्रव्रजित होते हैं; अहिंसक, सुव्रती और दान्त बन जाते हैं। दीन और पतित बनकर गिरते हुए साधकों को तू देख ! वे विषयों से पीड़ित कायर जन (व्रतों के) विध्वंसक | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-५ उपसर्ग सन्मान विधूनन | Hindi | 207 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से गिहेसु वा गिहंतरेसु वा, गामेसु वा गामंतरेसु वा, नगरेसु वा नगरंतरेसु वा, जणवएसु वा ‘जणवयंतरेसु वा’, संतेगइयाजना लूसगा भवति, अदुवा–फासा फुसंति ते फासे, पुट्ठो वीरोहियासए।
ओए समियदंसणे।
दयं लोगस्स जाणित्ता पाईणं पडीणं दाहिणं उदीणं, आइक्खे विभए किट्टे वेयवी।
से उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए–संतिं, विरतिं, उवसमं, णिव्वाणं, सोयवियं,
अज्जवियं, मद्दवियं, लाघवियं, अणइवत्तियं।
सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खेज्जा। Translated Sutra: वह (धूत/श्रमण) घरों में, गृहान्तरों में, ग्रामों में, ग्रामान्तरों में, नगरों में, नगरान्तरों में, जनपदों में या जन – पदान्तरों में (आहारादि के लिए विचरण करते हुए) कुछ विद्वेषी जन हिंसक हो जाते हैं। अथवा (परीषहों के) स्पर्श प्राप्त होते हैं। उनसे स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन सबको सहन करे। राग और द्वेष से रहित सम्यग्दर्शी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-५ उपसर्ग सन्मान विधूनन | Hindi | 208 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: भिक्षु विवेकपूर्वक धर्म का व्याख्यान करता हुआ अपने आपको बाधा न पहुँचाए, न दूसरे को बाधा पहुँचाए और न ही अन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को बाधा पहुँचाए। किसी भी प्राणी को बाधा न पहुँचाने वाला तथा जिससे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का वध हो, तथा आहारादि की प्राप्ति के निमित्त भी (धर्मोपदेश न करने वाला) वह महामुनि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-५ उपसर्ग सन्मान विधूनन | Hindi | 209 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कायस्स विओवाए, एस संगामसीसे वियाहिए। से हु पारंगमे मुनी, अवि हम्ममाणे फलगावयट्ठि, कालोवणीते कंखेज्ज कालं, जाव सरीरभेउ। Translated Sutra: शरीर के व्यापात को ही संग्रामशीर्ष कहा गया है। (जो मुनि उसमें हार नहीं खाता), वही (संसार का) पारगामी होता है। आहत होने पर भी मुनि उद्विग्न नहीं होता, बल्कि लकड़ी के पाटिये की भाँति रहता है। मृत्युकाल निकट आने पर (विधिवत् संलेखना से) जब तक शरीर का भेद न हो, तब तक वह मरणकाल की प्रतीक्षा करे। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 210 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–समणुण्णस्स वा असमणुण्णस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा नोपाएज्जा, नोणिमंतेज्जा, नोकुज्जा वेयावडियं–परं आढायमाणे Translated Sutra: मैं कहता हूँ – समनोज्ञ या असमनोज्ञ साधक को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल या पाद – प्रोंछन आदरपूर्वक न दे, न देने के लिए निमंत्रित करे और न उनका वैयावृत्य करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 211 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] धुवं चेयं जाणेज्जा – असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा, पायपुंछणं वा लभिय, भुंजिय णोभुंजिय, पंथं विउत्ता विउकम्म विभत्तं धम्मं झोसेमाणे समेमाणे पलेमाणे, पाएज्ज वा, निमंतेज्ज वा, कुज्जा वेयावडियं–परं अणाढायमाणे Translated Sutra: असमनोज्ञ भिक्षु कदाचित् मुनि से कहे – (मुनिवर !) तुम इस बात को निश्चित समझ लो – (हमारे मठ या आश्रम में प्रतिदिन) अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन (मिलता है)। तुम्हें ये प्राप्त हुए हों या न हुए हों तुमने भोजन कर लिया हो या न किया हो, मार्ग सीधा हो या टेढ़ा हो; हमसे भिन्न धर्म का पालन करते हुए | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 212 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इहमेगेसिं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवति, ते इह आरंभट्ठी अणुवयमाणा हणमाणा घायमाणा, हणतो यावि समणुजाणमाणा।
अदुवा अदिन्नमाइयंति।
अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा–अत्थि लोए, नत्थि लोए, धुवे लोए, अधुवे लोए, साइए लोए, अनाइए लोए, सपज्जवसिते लोए, अपज्जवसिते लोए, सुकडेत्ति वा दुक्कडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहुत्ति वा असाहुत्ति वा, सिद्धीति वा असिद्धीति वा, निरएत्ति वा अनिरएत्ति वा।
जमिणं विप्पडिवण्णा मामगं धम्मं पण्णवेमाणा।
एत्थवि जाणह अकस्मात्।
‘एवं तेसिं नो सुअक्खाए, नो सुपण्णत्ते धम्मे भवति’। Translated Sutra: इस मनुष्य लोक में कईं साधकों को आचार – गोचर सुपरिचित नहीं होता। वे इस साधु – जीवन में आरम्भ के अर्थी हो जाते हैं, आरम्भ करने वाले के वचनों का अनुमोदन करने लगते हैं। वे स्वयं प्राणीवध करते हैं, दूसरों से प्राणिवध कराते हैं और प्राणिवध करने वाले का अनुमोदन करते हैं। अथवा वे अदत्त का ग्रहण करते हैं। अथवा वे विविध | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-१ असमनोज्ञ विमोक्ष | Hindi | 213 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से जहेयं भगवया पवेदितं आसुपण्णेण जाणया पासया।
अदुवा गुत्ती वओगोयरस्स
सव्वत्थ सम्मयं पावं।
तमेव उवाइकम्म।
एस मह विवेगे वियाहिते।
गामे वा अदुवा रण्णे? नेव गामे नेव रण्णे धम्ममायाणह–पवेदितं माहणेण मईमया।
जामा तिण्णि उदाहिया, जेसु इमे आरिया संबुज्झमाणा समुट्ठिया।
जे णिव्वुया पावेहिं कम्मेहिं, अनियाणा ते वियाहिया। Translated Sutra: जिस प्रकार से आशुप्रज्ञ भगवान महावीर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, वह (मुनि) उसी प्रकार से प्ररूपणसम्यग्वाद का निरूपण करे; अथवा वाणी विषयक गुप्ति से (मौन) रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। (वह मुनि उन मतवादियों से कहे – ) (आप के दर्शनों में आरम्भ) पाप सर्वत्र सम्मत है। मैं उसी (पाप) का निकट से अति – क्रमण करके (स्थित | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 400 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–तं जहा–खंधंसि वा, मंचंसि वा, मालंसि वा, पासायंसि वा, हम्मियतलंसि वा, अन्नतरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि, नन्नत्थ आगाढाणागाढेहिं कारणेहिं ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा।
से य आहच्च चेतिते सिया णोतत्थ सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा हत्थाणि वा, पादाणि वा, अच्छीणि वा, दंताणि वा, मुहं वा उच्छोलेज्ज वा, पहोएज्ज वा। णोतत्थ ऊसढं पगरेज्जा, तं जहा–उच्चारं वा, पासवणं वा, खेलं वा, सिंघाणं वा, वंतं वा, पित्तं वा, पूतिं वा, सोणियं वा, अन्नयरं वा सरीरावयवं।
केवली बूया आयाणमेयं–से तत्थ ऊसढं पगरेमाणे पयलेज्ज Translated Sutra: वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो कि एक स्तम्भ पर है, या मचान पर है, दूसरी आदि मंजिल पर है, अथवा महल के ऊपर है, अथवा प्रासाद के तल पर बना हुआ है, अथवा ऊंचे स्थान पर स्थित है, तो किसी अत्यंत गाढ़ कारण के बिना उक्त उपाश्रय में स्थान – स्वाध्याय आदि कार्य न करे। कदाचित् किसी अनिवार्य कारणवश ऐसे उपाश्रय में | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 401 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–सइत्थियं, सखुड्डं, सपसुभत्तपाणं। तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतज्जा।
आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइ-कुलेण सद्धिं संवसमाणस्स–अलसगे वा, विसूइया वा, छड्डी वा उव्वाहेज्जा। अन्नतरे वा से दुक्खे रोगातंके समुप्पज्जेज्जा।
अस्संजए कलुण-पडियाए तं भिक्खुस्स गातं तेल्लेण वा, घएण वा, नवनीएण वा, वसाए वा, अब्भंगेज्ज वा, मक्खेज्ज वा। सिनाणेण वा, कक्केण वा, लोद्धेण वा, वण्णेण वा, चुण्णेण वा, पउमेण वा, आधंसेज्ज वा, पघंसेज्ज वा, उव्वलेज्ज वा, उव्वट्टेज्ज वा। सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा, ‘उच्छोलेज्ज Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी जिस उपाश्रय को स्त्रियों से, बालकों से, क्षुद्र प्राणियों से या पशुओं से युक्त जाने तथा पशुओं या गृहस्थ के खाने – पीने योग्य पदार्थों से जो भरा हो, तो इस प्रकार के उपाश्रय में साधु कायोत्सर्ग कार्य न करे। साधु का गृहपतिकुल के साथ निवास कर्मबन्ध का उपादान कारण है। गृहस्थ परिवार के साथ निवास | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 402 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उवस्सए संवसमाणस्स–इह खलु गाहावई वा, गाहावइणीओ वा, गाहावइ-पुत्ता वा, गाहावइ-धूयाओ वा, गाहावइ-सुण्हाओ वा, धाईओ वा, दासा वा, दासीओ वा, कम्मकरा वा, कम्मकरीओ वा अन्नमन्नं अक्कोसंति वा, बंधंति वा, रुंभंति वा, उद्दवेंति वा।
अह भिक्खू णं उच्चावयं मणं णियच्छेज्जा–एत्ते खलु अन्नमन्नं अक्कोसंतु वा मा वा अक्कोसंतु, बंधंतु वा मा वा बंधंतु, रुंभंतु वा मा वा रुंभंतु, उद्दवेंतु वा मा वा उद्दवेंतु।
अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा एस पइण्णा, एस हेऊ, एस कारणं, एस उवएसो जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: साधु के लिए गृहस्थ – संसर्गयुक्त उपाश्रय में निवास करना अनेक दोषों का कारण है क्योंकि उसमें गृहपति, उसकी पत्नी, पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, दास – दासियाँ, नौकर – नौकरानियाँ आदि रहती हैं। कदाचित् वे परस्पर एक – दूसरे को कटु वचन कहें, मारे – पीटे, बंद करे या उपद्रव करे। उन्हें ऐसा करते देख भिक्षु के मन में ऊंचे – नीचे |