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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Chandrapragnapati | ચંદ્રપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Gujarati | 37 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता केयतियं ते खेत्तं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति आहिताति वएज्जा? तत्थ खलु इमाओ चत्तारि पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ।
तत्थ एगे एवमाहंसु–ता छ छ जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति–एगे एवमाहंसु १
एगे पुण एवमाहंसु –ता पंच-पंच जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति–एगे एवमाहंसु २
एगे पुण एवमाहंसु–ता चत्तारि-चत्तारि जोयणस-हस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति–एगे एवमाहंसु ३
एगे पुण एवमाहंसु–ता छवि पंचवि चत्तारिवि जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति–एगे एवमाहंसु ४
तत्थ जेते एवमाहंसु–ता छ-छ जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं Translated Sutra: ભગવન્ ! કેટલા ક્ષેત્રમાં સૂર્ય એક એક મુહૂર્ત્તમાં ગમન કરે છે ? તેમાં આ ચાર પ્રતિપત્તિઓ કહેલી છે. ૧. તેમાં એક એ પ્રમાણે કહે છે – છ – છ હજાર યોજન સૂર્ય એક – એક મુહૂર્ત્તથી જાય છે. ૨. બીજા કોઈ કહે છે – તે પાંચ – પાંચ હજાર યોજન સૂર્ય એક – એક મુહૂર્ત્તથી જાય છે. ૩. એક કોઈ કહે છે કે – તે સૂર્ય એક – એક મુહૂર્ત્તમાં ચાર – ચાર | |||||||||
Chandrapragnapati | ચંદ્રપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Gujarati | 44 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कतिकट्ठं ते सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तेति आहितेति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ तिन्नि पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ
तत्थेगे एवमाहंसु–ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पोग्गला संतप्पंति, ते णं पोग्गला संतप्पमाणा तदणंतराइं बाहिराइं पोग्गलाइं संतावेंतीति, एस णं से समिते तावक्खेत्ते–एगे एवमाहंसु १
एगे पुण एवमाहंसु–ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पोग्गला नो संतप्पंति, ते णं पोग्गला असंतप्पमाणा तदणंतराइं बाहिराइं पोग्गलाइं नो संतावेंतीति, एस णं से समिते ताव-क्खेत्ते–एगे एवमाहंसु २
एगे पुण एवमाहंसु– ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पोग्गला Translated Sutra: સૂર્ય કેટલાં પ્રમાણયુક્ત પુરુષછાયાથી નિવર્તે છે અર્થાત પડછાયાને ઉત્પન્ન કરે છે ? તેમાં નિશ્ચે આ ત્રણ પ્રતિપત્તિઓ (અન્ય તીર્થિકોની માન્યતા) કહેલી છે – તેમાં કોઈ અન્યતીર્થિકો એમ કહે છે કે – જે પુદ્ગલો સૂર્યની લેશ્યાને સ્પર્શે છે, તે પુદ્ગલો સંતપ્ત થાય છે. તે સંતપ્યમાન પુદ્ગલો તેની પછીના બાહ્ય પુદ્ગલોને | |||||||||
Chandrapragnapati | ચંદ્રપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Gujarati | 101 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता जया णं इमे चंदे गतिसमावण्णए भवइ तया णं इयरेवि चंदे गतिसमावण्णए भवइ, जया णं इयरे चंदे गतिसमावण्णए भवइ तया णं इमेवि चंदे गतिसमावण्णए भवइ।
ता जया णं इमे सूरिए गतिसमावन्ने भवइ तया णं इयरेवि सूरिए गतिसमावन्ने भवइ, जया णं इयरे सूरिए गतिसमावन्ने भवइ तया णं इमेवि सूरिए गतिसमावन्ने भवइ। एवं गहेवि नक्खत्तेवि।
ता जया णं इमे चंदे जुत्ते जोगेणं भवइ तया णं इयरेवि चंदे जुत्ते जोगेणं भवइ, जया णं इयरे चंदे जुत्ते जोगेणं भवइ तया णं इमेवि चंदे जुत्ते जोगेणं भवइ। एवं सूरेवि गहेवि नक्खत्तेवि।
सयावि णं चंदा जुत्ता जोगेहिं सयावि णं सूरा जुत्ता जोगेहिं, सयावि णं गहा जुत्ता जोगेहिं Translated Sutra: જ્યારે આ ચંદ્ર ગતિ સમાપન્ન હોય છે(ગતિ કરે છે), ત્યારે બીજો પણ ચંદ્ર ગતિસમાપન્ન થાય છે. જ્યારે બીજો પણ ચંદ્ર ગતિ સમાપન્ન થાય છે, ત્યારે આ ચંદ્ર પણ ગતિસમાપન્ન થાય છે. જ્યારે આ સૂર્ય ગતિ સમાપન્ન થાય છે, ત્યારે બીજો પણ સૂર્ય ગતિ સમાપન્ન થાય છે. જ્યારે બીજો સૂર્ય ગતિ સમાપન્ન હોય છે ત્યારે આ સૂર્ય પણ ગતિ સમાપન્ન હોય છે. એ | |||||||||
Chandrapragnapati | ચંદ્રપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Gujarati | 116 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता जया णं चंदं गतिसमावन्नं सूरे गतिसमावन्ने भवति, से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेति? ता बावट्ठिभागे विसेसेति।
ता जया णं चंदं गतिसमावन्नं नक्खत्ते गतिसमावन्ने भवति, से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेति? ता सत्तट्ठिभागे विसेसेति।
ता जया णं सूरं गतिसमावन्नं नक्खत्ते गतिसमावन्ने भवति, से णं गतिमाताए केवतियं विसेसेति? ता पंच भागे विसेसेति।
ता जया णं चंदं गतिसमावन्नं अभीई नक्खत्ते गतिसमावन्ने पुरत्थिमाते भागाते समासादेति, समासादेत्ता नव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धिं जोयं जोएति, जोएत्ता जोयं अनुपरियट्टति, अनुपरियट्टित्ता विजहति विप्पजहति Translated Sutra: જ્યારે ચંદ્ર ગતિ સમાપન્નક હોય, ત્યારે સૂર્ય ગતિ સમાપન્નક હોય છે, તે ગતિ માત્રાથી કેટલા વિશેષ હોય ? અર્થાત ચંદ્ર કરતા સૂર્યની ગતિ કેટલી વધુ હોય છે ? પ્રત્યેક મુહુર્તે ચંદ્ર કરતા સૂર્ય બાસઠ ભાગ વધુ ચાલે છે. જ્યારે ચંદ્ર ગતિ સમાપન્નક હોય ત્યારે નક્ષત્ર ગતિ સમાપન્નક હોય છે, તે ગતિમાત્રાથી કેટલા વિશેષ હોય ? અર્થાત | |||||||||
Chandrapragnapati | ચંદ્રપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१ |
प्राभृत-प्राभृत-१ | Gujarati | 196 | Sutra | Upang-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ता अंतो मनुस्सखेत्ते जे चंदिम-सूरिय-गहगण-नक्खत्त-तारारूवा ते णं देवा किं उड्ढोववन्नगा कप्पोववन्नगा विमाणोववन्नगा चारोववन्नगा चारट्ठितिया गतिरतिया गतिसमावन्नगा? ता ते णं देवा नो उड्ढोववन्नगा नो कप्पोववन्नगा, विमाणोववन्नगा चारोववन्नगा, नो चारट्ठितिया गतिरतिया गति-समावन्नगा उड्ढीमुहकलंबुयापुप्फसंठाणसंठितेहिं जोयणसाहस्सिएहिं तावक्खेत्तेहिं साहस्सियाहिं बाहिराहिं वेउव्वियाहिं परिसाहिं महताहतनट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घन-मुइंग-पडुप्प-वाइयरवेणं महता उक्कुट्ठिसीहणाद-बोलकलकलरवेणं अच्छं पव्वतरायं पदाहिणावत्तमंडलचारं मेरुं अनुपरियट्टंति।
ता Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૭૯ | |||||||||
Chandravedyak | Ardha-Magadhi | Hindi | 9 | Gatha | Painna-07B | View Detail | |||
Mool Sutra: [गाथा] विज्जं परिभवमाणो आयरियाणं गुणेऽपयासिंतो ।
रिसिघायगाण लोयं वच्चइ मिच्छत्तसंजुत्तो ॥ Translated Sutra: विद्या का पराभव करनेवाला और विद्यादाता आचार्य के गुण को प्रकट नहीं करनेवाला प्रबल मिथ्यात्व पानेवाला दुर्विनीत जीव ऋषिघातक की गति यानि नरकादि दुर्गति का भोग बनता है। | |||||||||
Chandravedyak | Ardha-Magadhi | Hindi | 19 | Gatha | Painna-07B | View Detail | |||
Mool Sutra: [गाथा] विज्जं परिभवमाणो आयरियाणं गुणेऽपयासिंतो ।
रिसिघायगाण लोयं वच्चइ मिच्छत्तसंजुत्तो ॥ Translated Sutra: विद्या का तिरस्कार या दुरूपयोग करनेवाला और निंदा अवहेलना आदि द्वारा विद्यावान् आचार्य भगवंत आदि के गुण को नष्ट करनेवाला गहरे मिथ्यात्व से मोहित होकर भयानक दुर्गति पाता है। | |||||||||
Chandravedyak | Ardha-Magadhi | Hindi | 31 | Gatha | Painna-07B | View Detail | |||
Mool Sutra: [गाथा] धन्ना आयरियाणं निच्चं आइच्च-चंदभूयाणं ।
संसारमहण्णवतारयाण पाए पणिवयंति ३० ॥ Translated Sutra: सूरज जैसे प्रतापी, चन्द्र जैसे सौम्य – शीतल और क्रान्तिमय एवं संसारसागर से पार उतारनेवाले आचार्य भगवंत के चरणों में जो पुण्यशाली नित्य प्रणाम करते हैं, वो धन्य हैं। ऐसे आचार्य भगवंत की भक्ति के राग द्वारा इस लोक में कीर्ति, परलोक में उत्तम देवगति और धर्म में अनुत्तर – अनन्य बोधि – श्रद्धा प्राप्त होती है। सूत्र | |||||||||
Chandravedyak | Ardha-Magadhi | Hindi | 85 | Gatha | Painna-07B | View Detail | |||
Mool Sutra: [गाथा] परमत्थम्मि सुदिट्ठे अविनट्ठेसु तव-संजमगुणेसु ।
लब्भइ गई विसिट्ठा सरीरसारे विनट्ठे वि ॥ Translated Sutra: श्रुतज्ञान द्वारा परमार्थ का यथार्थ दर्शन होने से, तप और संयम गुण को जीवनभर अखंड़ रखने से मरण के वक्त शरीर संपत्ति नष्ट हो जाने से जीव को विशिष्ट गति – सद्गति और सिद्धगति प्राप्त होती है। | |||||||||
Chandravedyak | Ardha-Magadhi | Hindi | 162 | Gatha | Painna-07B | View Detail | |||
Mool Sutra: [गाथा] देवत्त मानुसत्तं तिरिक्खजोणिं तहेव नरयं च ।
पत्तो अनंतखुत्तो पुव्विं अन्नाणदोसेणं ॥ Translated Sutra: पूर्वे – भूतकालमें अज्ञान दोष द्वारा अनन्त बार देवत्व, मनुष्यत्व, तिर्यंच योनि और नरकगति पा चूका हूँ। लेकिन दुःख के कारण ऐसे अपने ही कर्म द्वारा अब तक मुझे न तो संतोष प्राप्त हुआ न सम्यक्त्व विशुद्धि पाई। सूत्र – १६२, १६३ | |||||||||
Chandravedyak | Ardha-Magadhi | Hindi | 174 | Gatha | Painna-07B | View Detail | |||
Mool Sutra: [गाथा] विनयं १ आयरियगुणे २ सीसगुणे ३ विनयनिग्गहगुणे ४ य ।
नाणगुणे ५ चरणगुणे ६ मरणगुण ७ विहिं च सोऊणं ॥ Translated Sutra: हे मुमुक्षु आत्मा ! विनय, आचार्य के गुण, शिष्य के गुण, विनयनिग्रह के गुण, ज्ञानगुण, चरणगुण और मरणगुण की विधि को सुनकर – तुम इस तरह व्यवहार करो कि जिससे गर्भवास, मरण, पुनर्भव, जन्म और दुर्गति के पतन से सर्वथा मुक्त हो सको। सूत्र – १७४, १७५ | |||||||||
Chatusharan | चतुश्शरण | Ardha-Magadhi |
मंगल आदि |
Hindi | 8 | Gatha | Painna-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गय १ वसह २ सीह ३ अभिसेय ४ दाम ५ ससि ६ दिनयरं ७ झयं ८ कुंभं ९ ।
पउमसर १० सागर ११ विमाण-भवण १२ रयणुच्चय १३ सिहिं च १४ ॥ Translated Sutra: (१) गज, (२) वृषभ, (३) सिंह, (४) अभिषेक (लक्ष्मी), (५) माला, (६) चन्द्रमा, (७) सूर्य, (८) धजा, (९) कलश, (१०) पद्मसरोवर, (११) सागर, (१२) देवगति में से आए हुए तीर्थंकर की माता विमान और (नर्क में से आए हुए तीर्थंकर की माता) भवन को देखती है, (१३) रत्न का ढेर और (१४) अग्नि, इन चौदह सपने सभी तीर्थंकर की माता वह (तीर्थंकर) गर्भ में आए तब देखती है। | |||||||||
Chatusharan | चतुश्शरण | Ardha-Magadhi |
चतुशरणं |
Hindi | 11 | Gatha | Painna-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अरिहंत १ सिद्ध २ साहू ३ केवलिकहिओ सुहावहो धम्मो ४ ।
एए चउरो चउगइहरणा सरणं लहइ धन्नो ॥ Translated Sutra: अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली भगवंतने बताया हुआ सुख देनेवाला धर्म, यह चार शरण, चार गति को नष्ट करनेवाले हैं और उसे भागशाली पुरुष पा सकता है। | |||||||||
Chatusharan | चतुश्शरण | Ardha-Magadhi |
चतुशरणं |
Hindi | 31 | Gatha | Painna-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जियलोयबंधुणो कुगइसिंधुणो पारगा महाभागा ।
नाणाइएहिं सिवसुक्खसाहगा साहुणो सरणं ॥ Translated Sutra: जीवलोक (छ जीवनिकाय) के बन्धु, कुगति समान समुद्र के पार को पानेवाले, महा भाग्यशाली और ज्ञानादिक द्वारा मोक्ष सुख को साधनेवाले साधु मुझे शरण हो। | |||||||||
Chatusharan | चतुश्शरण | Ardha-Magadhi |
चतुशरणं |
Hindi | 47 | Gatha | Painna-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नरयगइगमणरोहं गुणसंदोहं पवाइनिक्खोहं ।
निहणियवम्महजोहं धम्मं सरणं पवन्नो हं ॥ Translated Sutra: नरकगति के गमन को रोकनेवाले, गुण के समूहवाले अन्य वादी द्वारा अक्षोभ्य और काम सुभट को हणनेवाले धर्म को शरणरूप से मैं अंगीकार करता हूँ। | |||||||||
Chatusharan | चतुश्शरण | Ardha-Magadhi |
उपसंहार |
Hindi | 62 | Gatha | Painna-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चउरंगो जिनधम्मो न कओ, चउरंगसरणमवि न कयं ।
चउरंगभवच्छेओ न कओ, हा! हारिओ जम्मो ॥ Translated Sutra: जो (दान, शियल, तप और भाव समान) चार अंगवाला जिनधर्म न किया, जिसने (अरिहंत आदि) चार प्रकार से शरण भी न किया, और फिर जिसने चार गति समान संसार का छेद न किया हो, तो वाकई में मानव जन्म हार गया है। | |||||||||
Dashashrutskandha | दशाश्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
दसा-४ गणिसंपदा |
Hindi | 10 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं वायणासंपदा? वायणासंपदा चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहा–विजयं उद्दिसति, विजयं वाएति, परिनिव्वावियं वाएति, अत्थनिज्जवए यावि भवति। से तं वायणासंपदा। Translated Sutra: वो वाचना संपत्ति कौन – सी है ? वाचना संपत्ति चार प्रकार से बताई है। वो इस प्रकार – शिल्प की योग्यता को तय करनेवाली होना, सोचपूर्वक अध्यापन करवानेवाली होना, लायकात अनुसार उपयुक्त शिक्षा देनेवाली हो, अर्थ – संगतिपूर्वक नय – प्रमाण से अध्यापन करनेवाली हो। | |||||||||
Dashashrutskandha | दशाश्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
दसा-६ उपाशक प्रतिमा |
Hindi | 35 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खातं–इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कारस उवासगपडिमाओ पन्नत्ताओ।
कयरा खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कारस उवासगपडिमाओ पन्नत्ताओ?
इमाओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कारस उवासगपडिमाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–
अकिरियावादी यावि भवति–नाहियवादी नाहियपण्णे नाहियदिठ्ठी, नो सम्मावादी, नो नितियावादी, नसंति-परलोगवादी, नत्थि इहलोए नत्थि परलोए नत्थि माता नत्थि पिता नत्थि अरहंता नत्थि चक्कवट्टी नत्थि बलदेवा नत्थि वासुदेवा नत्थि सुक्कड-दुक्कडाणं फलवित्तिविसेसो, नो सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति, नो दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति, अफले कल्लाणपावए, Translated Sutra: हे आयुष्मान् ! वो निर्वाण प्राप्त भगवंत के स्वमुख से मैंने ऐसा सूना है। यह (जिन प्रवचन में) स्थविर भगवंत ने निश्चय से ग्यारह उपासक प्रतिमा बताई है। स्थविर भगवंत ने कौन – सी ग्यारह उपासक प्रतिमा बताई है? स्थविर भगवंत ने जो ११ उपासक प्रतिमा बताई है, वो इस प्रकार है – (दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषध, दिन में ब्रह्मचर्य, | |||||||||
Dashashrutskandha | दशाश्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
दसा-६ उपाशक प्रतिमा |
Hindi | 36 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: Translated Sutra: क्रियावादी कौन है ? वो क्रियावादी इस प्रकार का है जो आस्तिकवादी है, आस्तिक बुद्धि है, आस्तिक दृष्टि है। सम्यक्वादी और नित्य यानि मोक्षवादी है, परलोकवादी है। वो मानते हैं कि यह लोक, परलोक है, माता – पिता है, अरिहंत चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव है, सुकृत – दुष्कृत कर्म का फल है, सदा चरित कर्म शुभ फल और असदाचरित कर्म | |||||||||
Dashashrutskandha | दशाश्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
दशा ९ मोहनीय स्थानो |
Hindi | 90 | Gatha | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जं जाणिया इतो पुव्वं, किच्चाकिच्चं बहुं जढं ।
तं वंता ताणि सेविज्जा, तेहिं आयारवं सिया ॥ Translated Sutra: जो भिक्षु यह जानकर पूर्वकृत् कृत्य – अकृत्य का परित्याग करे, उन – उन संयम स्थानों का सेवन करे जिससे वह आचारवान बने, पंचाचार पालन से सुरक्षित रहे, अनुत्तरधर्म में स्थिर होकर अपने सर्व दोषों का परित्याग करे, जो धर्मार्थी, भिक्षु शुद्धात्मा होकर अपने कर्तव्यों का ज्ञाता होता है, उनकी इस लोक में कीर्ति होती है | |||||||||
Dashashrutskandha | दशाश्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
दशा ९ मोहनीय स्थानो |
Hindi | 92 | Gatha | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुवंतदोसे सुद्धप्पा, धम्मट्ठी विदितापरे ।
इहेव लभते कित्तिं, पेच्चा य सुगतिं वरं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ९० | |||||||||
Dashashrutskandha | दशाश्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
दशा १0 आयति स्थान |
Hindi | 95 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेणिए राया भिंभिसारे अन्नया कयाइ ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सिरसा कंठे मालकडे आवद्धमणि-सुवण्णे कप्पिय-हारद्धहार-तिसरय-पालंब-पलंबमाण-कडि-सुत्तय-सुकयसोभे पिणिद्धगेवेज्जे अंगुलेज्जगल-लियंगय-ललियकयाभरणे जाव कप्परुक्खए चेव अलंकित-विभूसिते नरिंदे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं जाव ससिव्व पियदंसणे नरवई जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासने तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सीहासनवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयति, निसीइत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–
गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! जाइं इमाइं रायगिहस्स Translated Sutra: तब उस राजा श्रेणिक – बिंबिसारने एक दिन स्नान किया, बलिकर्म किया, विघ्नशमन के लिए ललाट पर तिलक किया, दुःस्वप्न दोष निवारणार्थ प्रायश्चित्तादि विधान किये, गले में माला पहनी, मणि – रत्नजड़ित सुवर्ण के आभूषण धारण किये, हार – अर्धहार – त्रिसरोहार पहने, कटिसूत्र पहना, सुशोभित हुआ। आभूषण व मुद्रिका पहनी, यावत् कल्पवृक्ष | |||||||||
Dashashrutskandha | दशाश्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
दशा १0 आयति स्थान |
Hindi | 102 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं एगतियाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य सेणियं रायं चेल्लणं देविं पासित्ताणं इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुपज्जित्था– अहो णं सेणिए राया महिड्ढीए महज्जइए महब्बले महायसे महेसक्खे, जे णं ण्हाते कयबलिकम्मे कयकोउय मंगल पायच्छित्ते सव्वालंकार-विभूसिते चेल्लणादेवीए सद्धिं ओरालाइं मानुस्सगाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरति।
न मे दिट्ठा देवा देवलोगंसि, सक्खं खलु अयं देवे।
जति इमस्स सुचरियस्स तव नियम बंभचेर-वासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि तं वयमवि आगमेस्साइं इमाइं एयारूवाइं ओरालाइं मानुस्सगाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरामो– सेत्तं Translated Sutra: उस वक्त राजा श्रेणिक एवं चेल्लणा देवी को देखकर कितनेक निर्ग्रन्थ एवं निर्ग्रन्थी के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि अरे ! यह श्रेणिक राजा महती ऋद्धिवाला यावत् परमसुखी है, वह स्नान, बलिकर्म, तिलक, मांगलिक, प्रायश्चित्त करके सर्वालंकार से विभूषित होकर चेल्लणा देवी के साथ मनुष्य सम्बन्धी | |||||||||
Dashashrutskandha | दशाश्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
दशा १0 आयति स्थान |
Hindi | 112 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पन्नत्ते– सव्वकामविरत्ते सव्वरागविरत्ते सव्वसंगातीते सव्वसिनेहा-तिक्कंते सव्वचारित्तपरिवुडे, तस्स णं भगवंतस्स अनुत्तरेणं नाणेणं अनुत्तरेणं दंसणेणं अनुत्तरेणं चरित्तेणं अनुत्तरेणं आलएणं अनुत्तरेणं विहारेणं अनुत्तरेणं वीरिएणं अनुत्तरेणं अज्जवेणं अनुत्तरेणं मद्दवेणं अनुत्तरेणं लाघवेणं अनुत्तराए खंतीए अनुत्तराए मुत्तीए अनुत्तराए गुत्तीए अनुत्तराए तुट्ठीए अनुत्तरेणं सच्चसंजमतवसुचरियसोवचियफल० परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स अनंते अनुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडि पुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जेज्जा।
तते Translated Sutra: हे आयुष्मान् श्रमणों ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् तप संयम की साधना करते हुए, वह निर्ग्रन्थ सर्व काम, राग, संग, स्नेह से विरक्त हो जाए, सर्व चारित्र परिवृद्ध हो, तब अनुत्तर ज्ञान, अनुत्तर दर्शन यावत् परिनिर्वाण मार्ग में आत्मा को भावित करके अनंत, अनुत्तर आवरण रहित, सम्पूर्ण | |||||||||
Dashashrutskandha | દશાશ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
दशा ९ मोहनीय स्थानो |
Gujarati | 92 | Gatha | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुवंतदोसे सुद्धप्पा, धम्मट्ठी विदितापरे ।
इहेव लभते कित्तिं, पेच्चा य सुगतिं वरं ॥ Translated Sutra: એ પ્રમાણે દોષોનો ત્યાગ કરીને, તે શુદ્ધાત્મા, ધર્માર્થી એવો સાધુ મોક્ષના સ્વરૂપને જાણીને આ લોકમાં કીર્તિ પામીને અને પરલોકમાં સુગતિને પ્રાપ્ત કરે છે. | |||||||||
Dashashrutskandha | દશાશ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
दशा १0 आयति स्थान |
Gujarati | 102 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं एगतियाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य सेणियं रायं चेल्लणं देविं पासित्ताणं इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुपज्जित्था– अहो णं सेणिए राया महिड्ढीए महज्जइए महब्बले महायसे महेसक्खे, जे णं ण्हाते कयबलिकम्मे कयकोउय मंगल पायच्छित्ते सव्वालंकार-विभूसिते चेल्लणादेवीए सद्धिं ओरालाइं मानुस्सगाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरति।
न मे दिट्ठा देवा देवलोगंसि, सक्खं खलु अयं देवे।
जति इमस्स सुचरियस्स तव नियम बंभचेर-वासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि तं वयमवि आगमेस्साइं इमाइं एयारूवाइं ओरालाइं मानुस्सगाइं भोगभोगाइं भुंजमाणा विहरामो– सेत्तं Translated Sutra: ત્યાં ગુણશીલ ચૈત્યમાં શ્રેણિક રાજા અને ચેલ્લણા દેવીને જોઈને કેટલાક સાધુ અને સાધ્વીઓના મનમાં આવા પ્રકારનો અધ્યવસાય, ચિંતન, અભિલાષા અને મનોગત સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયો. તે આ પ્રમાણે – અહો ! આ શ્રેણિક રાજા મોટી ઋદ્ધિવાળો યાવત્ ઘણો સુખી છે. તે સ્નાન, બલિકર્મ, તિલક, માંગલિક, પ્રાયશ્ચિત્ત કરીને સર્વાલંકારથી વિભૂષિત | |||||||||
Dashashrutskandha | દશાશ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
दशा १0 आयति स्थान |
Gujarati | 112 | Sutra | Chheda-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पन्नत्ते– सव्वकामविरत्ते सव्वरागविरत्ते सव्वसंगातीते सव्वसिनेहा-तिक्कंते सव्वचारित्तपरिवुडे, तस्स णं भगवंतस्स अनुत्तरेणं नाणेणं अनुत्तरेणं दंसणेणं अनुत्तरेणं चरित्तेणं अनुत्तरेणं आलएणं अनुत्तरेणं विहारेणं अनुत्तरेणं वीरिएणं अनुत्तरेणं अज्जवेणं अनुत्तरेणं मद्दवेणं अनुत्तरेणं लाघवेणं अनुत्तराए खंतीए अनुत्तराए मुत्तीए अनुत्तराए गुत्तीए अनुत्तराए तुट्ठीए अनुत्तरेणं सच्चसंजमतवसुचरियसोवचियफल० परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स अनंते अनुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडि पुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जेज्जा।
तते Translated Sutra: હે આયુષ્યમાન્ શ્રમણો ! મેં ધર્મનું પ્રતિપાદન કરેલ છે. આ નિર્ગ્રન્થ પ્રવચન સત્ય છે – યાવત્ – તપ, સંયમની ઉગ્ર સાધના કરતી વેળાએ તે નિર્ગ્રન્થ સર્વે કામ, રાગ, સંગ, સ્નેહથી વિરક્ત થઈ જાય. સર્વ ચારિત્ર પરિવૃદ્ધ થાય ત્યારે – અનુત્તર જ્ઞાન, અનુત્તર દર્શન, યાવત પરિનિર્વાણ માર્ગમાં આત્માને ભાવિત કરીને તે શ્રમણ – અનંત, | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ छ जीवनिकाय |
Hindi | 32 | Sutra | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं– इह खलु छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता। सेयं मे अहिज्जिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती।
कयरा खलु सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता? सेयं मे अहिज्जिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती।
इमा खलु सा छज्जीवणिया नामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुयक्खाया सुपन्नत्ता। सेयं मे अहिज्जिउं धम्मपन्नत्ती, तं जहा–पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया।
पुढवी चित्तमंतमक्खाया अनेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं।
आऊ Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! मैंने सुना हैं, उन भगवान् ने कहा – इस निर्ग्रन्थ – प्रवचन में निश्चित ही षड्जीवनिकाय नामक अध्ययन प्रवेदित, सुआख्यात और सुप्रज्ञप्त है। (इस) धर्मप्रज्ञप्ति (जिसमें धर्म की प्ररूपणा है) अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेयस्कर है ? वह ’षड्जीवनिकाय’ है – पृथ्वीकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ छ जीवनिकाय |
Hindi | 59 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो जीवे वि वियाणाइ अजीवे वि वियाणई ।
जीवाजीवे वियाणंतो सो हु नाहिइ संजमं ॥ Translated Sutra: जो जीवों को, अजीवों को और दोनों को विशेषरूप से जानने वाला हो तो संयम को जानेगा। समस्त जीवों की बहुविध गतियों को जानता है। तब पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष को भी जानता है। तब दिव्य और मानवीय भोग से विरक्त होता है। विरक्त होकर आभ्यन्तर और बाह्य संयोग का परित्याग कर देता है। त्याग करता है तब वह मुण्ड हो कर अनगारधर्म | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ छ जीवनिकाय |
Hindi | 72 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुहसायगस्स समणस्स सायाउलगस्स निगामसाइस्स ।
उच्छोलणापहोइस्स दुलहा सुग्गइ तारिसगस्स ॥ Translated Sutra: जो श्रमण सुख का रसिक है, साता के लिए आकुल रहता है, अत्यन्त सोने वाला है, प्रचुर जल से बार – बार हाथ – पैर आदि को धोनेवाला है, ऐसे श्रमण को सुगति दुर्लभ है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ छ जीवनिकाय |
Hindi | 73 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तवोगुणपहाणस्स उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स ।
परीसहे जिणंतस्स सुलहा सुग्गइ तारिसगस्स ॥ Translated Sutra: जो श्रमण तपोगुण में प्रधान है,ऋजुमति है, क्षान्ति एवं संयम में रत है, तथा परीषहों को जीतने वाला है; ऐसे श्रमण को सुगति सुलभ है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 86 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दुग्गइवड्ढणं ।
वज्जए वेससामंतं मुनी एगंतमस्सिए ॥ Translated Sutra: इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर एकान्त के आश्रव में रहने वाला मुनि वेश्यावाड़ के पास न जाए। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 175 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] दुल्लहा उ मुहादाई मुहाजीवी वि दुल्लहा ।
मुहादाई मुहाजीवी दो वि गच्छंति सोग्गइं ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: मुधादायी दुर्लभ हैं और मुधाजीवी भी दुर्लभ हैं। मुधादायी और मुधाजीवी, दोनों सुगति को प्राप्त होते हैं। – ऐसा कहता हूँ। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 251 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुढविकायं न हिंसंति मनसा वयसा कायसा ।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ Translated Sutra: श्रेष्ठ समाधि वाले संयमी मन, वचन और काय – योग से और कृत, कारित एवं अनुमोदन – करण से पृथ्वीकाय की हिंसा नहीं करते। पृथ्वीकाय की हिंसा करता हुआ साधक उसके आश्रित रहे हुए विविध प्रकार के चाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर यावज्जीवन पृथ्वीकाय के समारम्भ का त्याग | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 254 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आउकायं न हिंसंति मनसा वयसा कायसा ।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ Translated Sutra: सुसमाधिमान् संयमी मन, वचन और काय – त्रिविध करण से अप्काय की हिंसा नहीं करते। अप्कायिक जीवों की हिंसा करता हुआ साधक उनके आश्रित रहे हुए विविध चाक्षुष और अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। इसलिए इसे दुर्गतिबर्द्धक दोष जान कर यावज्जीवन अप्काय के समारम्भ का त्याग करे। सूत्र – २५४–२५६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 257 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जायतेयं न इच्छंति पावगं जलइत्तए ।
तिक्खमन्नयरं सत्थं सव्वओ वि दुरासयं ॥ Translated Sutra: साधु – साध्वी – अग्नि को जलाने की इच्छा नहीं करते; क्योंकि वह दूसरे शस्त्रों की अपेक्षा तीक्ष्ण शस्त्र तथा सब ओर से दुराश्रय है। वह चारो दिक्षा, उर्ध्व तथा अधोदिशा और विदिशाओं में सभी जीवों का दहन करती है। निःसन्देह यह अग्नि प्राणियों के लिए आघातजनक है। अतः संयमी प्रकाश और ताप के लिए उस का किंचिन्मात्र भी | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 261 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनिलस्स समारंभं बुद्धा मन्नंति तारिसं ।
सावज्जबहुलं चेयं नेयं ताईहिं सेवियं ॥ Translated Sutra: तीर्थंकरदेव वायु के समारम्भ को अग्निसमारम्भ के सदृश ही मानते हैं। यह सावद्य – बहुल है। अतः यह षट्काय के त्राता साधुओं के द्वारा आसेवित नहीं है। ताड़ के पंखे से, पत्र से, वृक्ष की शाखा से, स्वयं हवा करना तथा दूसरों से करवाना नहीं चाहते और अनुमोदन भी नहीं करते हैं। जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल या रजोहरण हैं, उनके | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 265 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वणस्सइं न हिंसंति मनसा वयसा कायसा ।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ Translated Sutra: सुसमाहित संयमी मन, वचन और काय तथा त्रिविध करण से वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते। वनस्पतिकाय की हिंसा करता हुआ साधु उसके आश्रित विविध चाक्षुष और अचाक्षुष त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है। इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर (साधुवर्ग) जीवन भर वनस्पतिकाय के समारम्भ का त्याग करे सूत्र – २६५–२६७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ महाचारकथा |
Hindi | 268 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तसकायं न हिंसंति मनसा वयसा कायसा ।
तिविहेण करणजोएण संजया सुसमाहिया ॥ Translated Sutra: सुसमाधियुक्त संयमी मन, वचन, काया तथा त्रिविध करण से त्रसकायिक जीवों की हिंसा नहीं करते। त्रसकाय की हिंसा करता हुआ उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष और अचाक्षुष प्राणियों की हिंसा करता है। इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर जीवनपर्यन्त त्रसकाय के समारम्भ का त्याग करे। सूत्र – २६८–२७० | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ आचारप्रणिधि |
Hindi | 394 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इहलोगपारत्तहियं जेणं गच्छइ सोग्गइं ।
बहुस्सुयं पज्जुवासेज्जा पुच्छेज्जत्थ विनिच्छयं ॥ Translated Sutra: जिस के द्वारा इहलोक और परलोक में हित होता है, सुगति होती है। वह बहुश्रुत (मुनि) की पर्युपासना करे और अर्थ के विनिश्चय के लिए पृच्छा करे। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 448 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नीयं सेज्जं गइं ठाणं नीयं च आसनानि य ।
नीयं च पाए वंदेज्जा नीयं कुज्जा य अंजलिं ॥ Translated Sutra: (साधु आचार्य से) नीची शय्या करे, नीची गति करे, नीचे स्थान में खड़ा रहे, नीचा आसन करे तथा नीचा होकर आचार्यश्री के चरणों में वन्दन और अंजलि करे। कदाचित् आचार्य के शरीर का अथवा उपकरणों का भी स्पर्श हो जाए तो कहे – मेरा अपराध क्षमा करें, फिर ऐसा नहीं होगा। सूत्र – ४४८, ४४९ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-२ | Hindi | 455 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] निद्देसवत्ती पुन जे गुरूणं सुयत्थधम्मा विनयम्मि कोविया ।
तरित्तु ते ओहमिणं दुरुत्तरं खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गय ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: किन्तु जो गुरुओं की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं, जो गीतार्थ हैं तथा विनय में कोविद हैं; वे इस दुस्तर संसार – सागर को तैर कर कर्मों का क्षय करके सर्वोत्कृष्ट गति में गए हैं। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-३ | Hindi | 470 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गुरुमिह सययं पडियरिय मुनी जिणमयनिउणे अभिगमकुसले ।
धुणिय रयमलं पुरेकडं भासुरमउलं गइं गय ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: जिन – (प्ररूपित) सिद्धान्त में निपुण, अभिगम में कुशल मुनि इस लोक में सतत गुरु की परिचर्या करके पूर्वकृत कर्म को क्षय कर भास्वर अतुल सिद्धि गति को प्राप्त करता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 505 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तं देहवासं असुइं असासयं सया चए निच्च हियट्ठियप्पा ।
छिंदित्तु जाईमरणस्स बंधणं उवेइ भिक्खू अपुणागमं गइं ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: अपनी आत्मा को सदा शाश्वत हित में सुस्थित रखने वाला पूर्वोक्त भिक्षु इस अशुचि और अशाश्वत देहवास को सदा के लिए छोड़ देता है तथा जन्म – मरण के बन्धन को छेदन कर सिद्धगति को प्राप्त कर लेता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 506 | Sutra | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु भो! पव्वइएणं, उप्पन्नदुक्खेणं, संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं, ओहानुप्पेहिणा अनो-हाइएणं चेव, हयरस्सि-गयंकुस-पोयपडागाभूयाइं इमाइं अट्ठारस ठाणाइं सम्मं संपडिलेहियव्वाइं भवंति, तं जहा–
१. हं भो! दुस्समाए दुप्पजीवी।
२. लहुस्सगा इत्तरिया गिहीणं कामभोगा।
३. भुज्जो य साइबहुला मणुस्सा।
४. इमे य मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ।
५. ओमजनपुरक्कारे।
६. वंतस्स य पडियाइयणं।
७. अहरगइवासोवसंपया।
८. दुल्लभे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहिवासमज्झे वसंताणं।
९. आयंके से वहाय होइ।
१०. संकप्पे से वहाय होइ।
११. सोवक्केसे गिहवासे। निरुवक्केसे परियाए।
१२. बंधे गिहवासे। मोक्खे परियाए।
१३. Translated Sutra: इस निर्ग्रन्थ – प्रवचन में जो प्रव्रजित हुआ है, किन्तु कदाचित् दुःख उत्पन्न हो जाने से संयम में उसका चित्त अरतियुक्त हो गया। अतः वह संयम का परित्याग कर जाना चाहता है, किन्तु संयम त्यागा नहीं है, उससे पूर्व इन अठारह स्थानों का सम्यक् प्रकार से आलोचन करना चाहिए। ये अठारह स्थान अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 519 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इहेवधम्मो अयसो अकित्ती दुन्नामधेज्जं च पिहुज्जणम्मि ।
चुयस्स धम्माउ अहम्मसेविणो संभिन्नवित्तस्स य हेट्ठओ गई ॥ Translated Sutra: धर्म से च्युत, अधर्मसेवी और चारित्र को भंग करनेवाला इसी लोक में अधर्मी कहलाता है, उसका अपयश और अपकीर्ति होती है, साधारण लोगों में भी वह दुर्नाम हो जाता है और अन्त में उसकी अधोगति होती है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 520 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भुंजित्तु भोगाइ पसज्झ चेयसा तहाविहं कट्टु असंजमं बहुं ।
गइं च गच्छे अणभिज्झियं दुहं बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो ॥ Translated Sutra: वह संयम – भ्रष्ट साधु आवेशपूर्ण चित्त से भोगों को भोग कर एवं तथाविध बहुत – से असंयम का सेवन करके दुःखपूर्ण अनिष्ट गति में जाता है और उसे बोधि सुलभ नहीं होती। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 523 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं ।
तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया उवेंतवाया व सुदंसणं गिरिं ॥ Translated Sutra: जिसकी आत्मा इस प्रकार से निश्चित होती है। वह शरीर को तो छोड़ सकता है, किन्तु धर्मशासन को छोड़ नहीं सकता। ऐसे दृढ़प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियाँ उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं, जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ वायु सुदर्शन – गिरि को। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-२ विविक्तचर्या |
Hindi | 526 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनुसोयपट्ठिए बहुजनम्मि पडिसोयलद्धलक्खेणं ।
पडिसोयमेव अप्पा दायव्वो होउकामेणं ॥ Translated Sutra: (नदी के जलप्रवाह में गिर कर समुद्र की ओर बहते हुए काष्ठ के समान) बहुत – से लोग अनुस्रोत संसार – समुद्र की ओर प्रस्थान कर रहे हैं, किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे प्रतिस्रोत होकर संयम के प्रवाह में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, उसे अपनी आत्मा को प्रतिस्रोत की ओर ले जाना चाहिए। अनुस्रोत संसार है और प्रतिस्रोत | |||||||||
Devendrastava | देवेन्द्रस्तव | Ardha-Magadhi |
भवनपति अधिकार |
Hindi | 14 | Gatha | Painna-09 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रयणप्पभापुढवीनिकुडवासी सुतणु! तेउलेसागा ।
वीसं विकसियनयणा भवनवई मे निसामेह ॥ Translated Sutra: हे विशाल नैनवाली सुंदरी ! रत्नप्रभा पृथ्वी में रहनेवाले तेजोलेश्या सहित बीस भवनपति देव के नाम मुझसे सुनो। असुर के दो भवनपति इन्द्र हैं। चमरेन्द्र और असुरेन्द्र। नागकुमार के दो इन्द्र हैं, धरणेन्द्र और भूतानन्द। सुपर्ण के दो इन्द्र हैं, वेणुदेव और वेणुदाली। उदधिकुमार के दो इन्द्र हैं, जलकान्त और जलप्रभ। |