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Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-११

उद्देशक-११ काल Hindi 518 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! एएसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा? हंता अत्थि। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थि णं एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा? एवं खलु सुदंसणा! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। सहसंबवने उज्जाने–वण्णओ। तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था–वण्णओ। तस्स णं बलस्स रन्नो पभावई नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणी विहरइ। तए णं सा पभावई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अब्भिंतरओ सचित्तकम्मे, बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मट्ठे विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले मणिरयणपणासियंधयारे

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? हाँ, सुदर्शन ! होता है। भगवन्‌ ऐसा किस कारण से कहते हैं ? हे सुदर्शन ! उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था। वहाँ सहस्रा – म्रवन नामक उद्यान था। उस हस्तिनापुर में ‘बल’ नामक राजा था। उस बल राजा की प्रभावती नामकी देवी (पटरानी) थी। उसके हाथ – पैर सुकुमाल
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-११

उद्देशक-११ काल Hindi 520 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] वासुदेवमायरो वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु सत्त महा- सुविणे पासित्ता णं पडिबु-ज्झंति। बलदेवमायरो बलदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति। मंडलियमायरो मंडलियंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसि णं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुज्झंति। इमे य णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए एगे महासुविणे दिट्ठे, तं ओराले णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिट्ठे जाव आरोग्ग-तुट्ठिदीहाउ कल्लाण-मंगल्लकारए णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए

Translated Sutra: ‘हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने इनमें से एक महास्वप्न देखा है। अतः हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने उदार स्वप्न देखा है, सचमुच प्रभावती देवी ने यावत्‌ आरोग्य, तुष्टि यावत्‌ मंगलकारक स्वप्न देखा है। हे देवानुप्रिय ! इस स्वप्न के फलरूप आपको अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ एवं राज्यलाभ होगा।’ अतः हे देवानुप्रिय
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-११

उद्देशक-११ काल Hindi 521 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! हत्थिणापुरे नयरे चारगसोहणं करेह, करेत्ता माणुम्माणवड्ढणं करेह, करेत्ता हत्थिणापुरं नगरं सब्भिंतरबाहिरियं आसिय-संमज्जिओवलित्तं जाव गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य जूवसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा पूयामहामहिमसंजुत्तं उस्सवेह, उस्सवेत्ता ममे-तमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा बलेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति। तए णं से बले राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं चेव जाव मज्जणघराओ पडिनिक्ख-मइ,

Translated Sutra: इसके पश्चात्‌ बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रियो ! हस्तिना – पुर नगर में शीघ्र ही चारक – शोधन अर्थात्‌ – बन्दियों का विमोचन करो, और मान तथा उन्मान में वृद्धि करो। फिर हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर छिड़काव करो, सफाई करो और लीप – पोत कर शुद्धि (यावत्‌) करो – कराओ। तत्पश्चात्‌
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-११

उद्देशक-११ काल Hindi 522 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो अन्नया कयाइ सोभणंसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त-मुहुत्तंसि ण्हायं कयबलिकम्मं कयकोउय-मंगल-पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पमक्खणग-ण्हाण-गीय-वाइय-पसाहण-अट्ठंगतिलग-कंकण-अविहवबहुउवणीयं मंगलसुजंपिएहि य वरकोउय-मंगलोवयार-कयसंतिकम्मं सरिसियाणं सरियत्ताणं सरिव्वयाणं सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वण-गुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउय-मंगलपायच्छित्ताणं सरिसएहिं रायकुलेहिंतो आणिल्लियाणं अट्ठण्हं रायवरकन्नाणं एगदिवसेनं पाणिं गिण्हाविंसु। तए णं तस्स महाबलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं पीइदाणं दलयंति, तं जहा–अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ सुवण्णकोडीओ,

Translated Sutra: तत्पश्चात्‌ किसी समय शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त्त में महाबल कुमार ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक – मंगल प्रायश्चित्त किया। उसे समस्त अलंकारों से विभूषित किया गया। फिर सौभाग्यवती स्त्रियों के द्वारा अभ्यंगन, स्नान, गीत, वादित, मण्डन, आठ अंगों पर तिलक, लाल डोरे के रूप में कंकण तथा दही, अक्षत आदि
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१२

उद्देशक-२ जयंति Hindi 536 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी– कहन्नं भंते! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति? जयंती! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिन्नादानेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं कोह-मान-माया-लोभ-पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाय-अरतिरति-मायामोस-मिच्छादंसणसल्लेणं–एवं खलु जयंती! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति। कहन्नं भंते! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति? जयंती! पाणाइवायवेरमणेणं मुसावायवेरमणेणं अदिन्नादानवेरमणेणं मेहुणवेरमणेणं परिग्गह-वेरमणेणं कोह-मान-माया-लोभ- पेज्ज-दोस-

Translated Sutra: वह जयन्ती श्रमणोपासिका श्रमण भगवान महावीर से धर्मोपदेश श्रवण कर एवं अवधारण करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। फिर भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार करके पूछा – भगवन्‌ ! जीव किस कारण से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? जयन्ती ! जीव प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों के सेवन से शीघ्र गुरुत्व
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१२

उद्देशक-४ पुदगल Hindi 540 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–ओरालियपोग्गलपरियट्टे-ओरालियपोग्गलपरियट्टे? गोयमा! जण्णं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीरपायोग्गाइं दव्वाइं ओरालिय -सरीरत्ताए गहियाइं बद्धाइं पुट्ठाइं कडाइं पट्ठवियाइं निविट्ठाइं अभिनिविट्ठाइं अभिसमण्णागयाइं परियादियाइं परिणामियाइं निज्जिण्णाइं निसिरियाइं निसिट्ठाइं भवंति। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–ओरालियपोग्गलपरियट्टे-ओरालियपोग्गलपरियट्टे। एवं वेउव्वियपोग्गलपरियट्टेवि, नवरं–वेउव्वियसरीरे वट्टमाणेणं वेउव्वियसरीरप्पायोग्गाइं दव्वाइं वेउव्वियसरीरत्ताए गहियाइं, सेसं तं चेव सव्वं, एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे,

Translated Sutra: भगवन्‌ ! यह औदारिक – पुद्‌गलपरिवर्त्त, औदारिक – पुद्‌गलपरिवर्त्त किसलिए कहा जाता है ? गौतम ! औदारिकशरीर में रहते हुए जीव ने औदारिकशरीर योग्य द्रव्यों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण किए हैं, बद्ध किए हैं, स्पृष्ट किए हैं; उन्हें (पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तर) किया है; उन्हें प्रस्थापित किया है; स्थापित किए
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१२

उद्देशक-५ अतिपात Hindi 543 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! पाणाइवायवेरमणे, जाव परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे–एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते? गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे पन्नत्ते। अह भंते! उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मया, पारिणामिया–एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पन्नत्ता? गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पन्नत्ता। अह भंते! ओग्गहे, ईहा, अवाए, धारणा–एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पन्नत्ता? गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पन्नत्ता। अह भंते! उट्ठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कार-परक्कमे–एस णं कतिवण्णे जाव कति फासे पन्नत्ते? गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे पन्नत्ते। सत्तमे णं भंते! ओवासंतरे कतिवण्णे

Translated Sutra: भगवन्‌ ! प्राणातिपात – विरमण यावत्‌ परिग्रह – विरमण तथा क्रोधविवेक यावत्‌ मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, इन सबमें कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श कहे हैं ? गौतम ! (ये सभी) वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित कहे हैं। भगवन्‌ ! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धि कितने वर्ण, गन्ध, रस
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१२

उद्देशक-६ राहु;उद्देशक-७ लोक Hindi 551 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ? गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, जहा पढमसए पंचमउद्देसए तहेव आवासा ठावेयव्वा जाव अनुत्तरविमानेत्ति जाव अप-राजिए सव्वट्ठसिद्धे। अयन्नं भंते! जीवे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि पुढवि-काइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए, नरगत्ताए, नेरइयत्ताए उववन्नपुव्वे? हंता गोयमा! असइं, अदुवा अनंतखुत्तो। सव्वजीवा वि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए, नरगत्ताए, नेरइयत्ताए उववन्नपुव्वे? हंता गोयमा! असइं, अदुवा अनंतखुत्तो। अयन्नं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! पृथ्वीयाँ कितनी हैं ? गौतम ! सात हैं। प्रथम शतक के पञ्चम उद्देशक अनुसार (यहाँ भी) नरकादि के आवासों को कहना। यावत्‌ अनुत्तर – विमान यावत्‌ अपराजित और सर्वार्थसिद्ध तक इसी प्रकार कहना। भगवन्‌ ! क्या यह जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पृथ्वी – कायिकरूप से यावत्‌
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१२

उद्देशक-९ देव Hindi 555 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] भवियदव्वदेवा णं भंते! कओहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्ख-मनुस्स-देवेहिंतो उववज्जंति? गोयमा! नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्ख-मनुस्स-देवेहिंतो वि उववज्जंति। भेदो जहा वक्कंतीए सव्वेसु उववाएयव्वा जाव अनुत्तरोववाइय त्ति, नवरं– असंखेज्जवासाउय-अकम्मभूमगअंतर-दीवगसव्वट्ठसिद्धवज्जं जाव अपराजियदेवेहिंतो वि उववज्जंति। नरदेवा णं भंते! कओहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो–पुच्छा। गोयमा! नेरइएहिंतो उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएहिंतो, नो मनुस्सेहिंतो, देवेहिंतो वि उववज्जंति। जइ नेरइएहिंतो उववज्जंति–किं रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उववज्जंति जाव अहेसत्तमा-पुढवि-नेरइएहिंतो

Translated Sutra: भगवन्‌ ! भव्यद्रव्यदेव किनमें से (आकर) उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से उत्पन्न होते हैं, या तिर्यञ्च, मनुष्य अथवा देवों में से (आकर) उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे नैरयिकों में से (आकर) उत्पन्न होते हैं, तथा तिर्यञ्च, मनुष्य या देवों में से भी उत्पन्न होते हैं। व्युत्क्रान्ति पद अनुसार भेद कहना चाहिए। इन
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१२

उद्देशक-९ देव Hindi 558 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] भवियदव्वदेवा णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति? कहिं उवज्जंति–किं नेरइएसु उववज्जंति जाव देवेसु उववज्जंति? गोयमा! नो नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मनुस्सेसु, देवेसु उववज्जंति। जइ देवेसु उववज्जंति? सव्वदेवेसु उववज्जंति जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति। नरदेवा णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता–पुच्छा। गोयमा! नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मनुस्सेसु, नो देवेसु उववज्जंति। जइ नेरइएसु उववज्जंति? सत्तसु वि पुढवीसु उववज्जंति। धम्मदेवा णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता–पुच्छा। गोयमा! नो नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मनुस्सेसु, देवेसु उववज्जंति। जइ

Translated Sutra: भगवन्‌ ! भव्यद्रव्यदेव मरकर तुरन्त कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, यावत्‌ अथवा देवों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! न तो नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, न तिर्यञ्चों में और न मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु (एकमात्र) देवों में उत्पन्न होते हैं। यदि (वे) देवों में
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१२

उद्देशक-९ देव Hindi 559 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एएसि णं भंते! भवियदव्वदेवाणं, नरदेवाणं, धम्मदेवाणं, देवातिदेवाणं, भावदेवाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा नरदेवा, देवातिदेवा संखेज्जगुणा, धम्मदेवा संखेज्जगुणा, भवियदव्वदेवा असंखेज्जगुणा, भावदेवा असं-खेज्जगुणा। एएसि णं भंते! भावदेवाणं भवनवासीणं, वाणमंतराणं, जोइसियाणं, वेमाणियाणं–सोहम्मगाणं जाव अच्चुयगाणं, गेवेज्जगाणं, अनुत्तरोववाइयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा अनुत्तरोववाइया भावदेवा, उवरिमगेवेज्जा भावदेवा संखेज्जगुणा, मज्झिम-गेवेज्जा संखेज्जगुणा, हेट्ठिमगेवेज्जा

Translated Sutra: भगवन्‌ ! भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, तथा वैमानिकों में भी सौधर्म, ईशान, यावत्‌ अच्युत, ग्रैवेयक एवं अनुत्तरोपपातिक विमानों तक के भावदेवों में कौन (देव) किस (देव) से अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़े अनुत्तरोपपातिक भावदेव हैं, उनसे उपरिम ग्रैवेयक के भावदेव संख्यातगुण अधिक हैं,
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१२

उद्देशक-१० आत्मा Hindi 561 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] आया भंते! नाणे? अन्ने नाणे? गोयमा! आया सिय नाणे सिय अन्नाणे, नाणे पुण नियमं आया। आया भंते! नेरइयाणं नाणे? अन्ने नेरइयाणं नाणे? गोयमा! आया नेरइयाणं सिय नाणे, सिय अन्नाणे। नाणे पुण से नियमं आया। एवं जाव थणियकुमाराणं। आया भंते! पुढविकाइयाणं अन्नाणे? अन्ने पुढविकाइयाणं अन्नाणे? गोयमा! आया पुढविकाइयाणं नियमं अन्नाणे, अन्नाणे वि नियमं आया। एवं जाव वणस्सइकाइयाणं। बेइंदिय-तेइंदियाणं जाव वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं। आया भंते! दंसणे? अन्ने दंसणे? गोयमा! आया नियमं दंसणे, दंसणे वि नियमं आया। आया भंते! नेरइयाणं दंसणे? अन्ने नेरइयाणं दंसणे? गोयमा! आया नेरइयाणं नियमं दंसणे, दंसणे वि

Translated Sutra: भगवन्‌ ! आत्मा ज्ञानस्वरूप है या अज्ञानस्वरूप है ? गौतम ! आत्मा कदाचित्‌ ज्ञानरूप है, कदाचित्‌ अज्ञानरूप है। (किन्तु) ज्ञान तो नियम से आत्मस्वरूप है। भगवन्‌ ! नैरयिकों की आत्मा ज्ञानरूप है अथवा अज्ञानरूप है ? गौतम ! कथञ्चित्‌ ज्ञानरूप है और कथञ्चित्‌ अज्ञानरूप है। किन्तु उनका ज्ञान नियमतः आत्मरूप है। इसी प्रकार
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१३

उद्देशक-१ पृथ्वी Hindi 563 Gatha Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [गाथा] १. पुढवी २. देव ३. मणंतर, ४. पुढवी ५. आहारमेव ६. उववाए । ७. भासा ८,९. कम्मणगारे, केयाघडिया १. समुग्घाए ॥

Translated Sutra: तेरहवें शतक के दस उद्देशक इस प्रकार हैं – पृथ्वी, देव, अनन्तर, पृथ्वी, आहार, उपपात, भाषा, कर्म, अनगार में केयाघटिका और समुद्‌घात।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१३

उद्देशक-२ देव Hindi 567 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! देवा पन्नत्ता? गोयमा! चउव्विहा देवा पन्नत्ता, तं जहा–भवनवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया। भवनवासी णं भंते! देवा कतिविहा पन्नत्ता? गोयमा! दसविहा पन्नत्ता, तं जहा–असुरकुमारा–एवं भेओ जहा बितियसए देवुद्देसए जाव अपराजिया, सव्वट्ठसिद्धगा। केवतिया णं भंते! असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता? गोयमा! चोयट्ठिं असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता। ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा? असंखेज्जवित्थडा? गोयमा! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि। चोयट्ठीए णं भंते! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु एग-समएणं केवतिया असुर-कुमारा उववज्जंति

Translated Sutra: भगवन्‌ ! देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! देव चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा – भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। भगवन्‌ ! भवनवासी देव कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! दस प्रकार के यथा – असुरकुमार यावत्‌ स्तनित कुमार। इस प्रकार भवनवासी आदि देवों के भेदों का वर्णन द्वीतिय शतक के सप्तम देवोद्देशक के अनुसार
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१३

उद्देशक-४ पृथ्वी Hindi 570 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते! केरिसयं पुढविफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति? गोयमा! अनिट्ठं जाव अमणामं। एवं जाव अहेसत्तमपुढविनेरइया। एवं आउफासं, एवं जाव वणस्सइफासं।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! रत्नप्रभा के नैरयिक (वहाँ की) पृथ्वी के स्पर्श का कैसा अनुभव करते रहते हैं ? गौतम ! अनिष्ट यावत्‌ मन के प्रतिकूल स्पर्श का अनुभव करते रहते हैं। इसी प्रकार यावत्‌ अधःसप्तमी पृथ्वी के नैरयिकों द्वारा पृथ्वीकाय के स्पर्शानुभव के विषय में कहना। इसी प्रकार अप्कायिक के स्पर्श का (अनुभव करते हुए रहते हैं।)
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१३

उद्देशक-४ पृथ्वी Hindi 572 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु जे पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया तेणं जीवा महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महासवतरा चेव, महावेदनतरा चेव? हंता गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु तं चेव जाव महावेदनतरा चेव। एवं जाव अहेसत्तमा।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नारकावासों के परिपार्श्व में जो पृथ्वीकायिक (यावत्‌ वनस्पतिकायिक जीव हैं, क्या वे महाकर्म, महाक्रिया, महा – आश्रव और महावेदना वाले हैं ?) इत्यादि प्रश्न। (हाँ, गौतम !) हैं, (इत्यादि पूर्ववत्‌)
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१३

उद्देशक-४ पृथ्वी Hindi 575 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] किमियं भंते! लोएत्ति पवुच्चइ? गोयमा! पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोएत्ति पवुच्चइ, तं जहा–धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए। धम्मत्थिकाएणं भंते! जीवाणं किं पवत्तति? गोयमा! धम्मत्थिकाएणं जीवाणं आगमन-गमन-भासुम्मेस-मनजोग-वइजोग-कायजोगा, जे यावण्णे तहप्पगारा चला भावा सव्वे ते धम्मत्थिकाए पवत्तंति। गइलक्खणे णं धम्मत्थिकाए। अधम्मत्थिकाएणं भंते! जीवाणं किं पवत्तति? गोयमा! अधम्मत्थिकाएणं जीवाणं ठाण-निसीयण-तुयट्टण, मणस्स य एगत्तीभावकरणता, जे यावण्णे तहप्पगारा थिरा भावा सव्वे ते अधम्मत्थिकाए पवत्तंति। ठाणलक्खणे णं अधम्मत्थिकाए। आगासत्थिकाएणं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! यह लोक क्या कहलाता है – लोक का स्वरूप क्या है ? गौतम ! पंचास्तिकायों का समूहरूप ही यह लोक कहलाता है। वे पंचास्तिकाय इस प्रकार है – धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत्‌ पुद्‌गलास्तिकाय। भगवन्‌ ! धर्मास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? गौतम ! धर्मास्तिकाय से जीवों के आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग,
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१३

उद्देशक-४ पृथ्वी Hindi 577 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अवगाहणालक्खणे णं आगासत्थिकाए। जीवत्थिकाए णं भंते! जीवाणं किं पवत्तति? गोयमा! जीवत्थिकाएणं जीवे अनंताणं आभिनिबोहियनाणपज्जवाणं, अनंताणं सुयनाण-पज्जवाणं अनंताणं ओहिनाणपज्जवाणं, अनंताणं मनपज्जवनाणपज्जवाणं, अनंताणं केवलनाण -पज्जवाणं, अनंताणं मइअन्नाणपज्जवाणं, अनंताणं सुयअन्नाणपज्जवाणं, अनंताणं विभंगनाण- पज्जवाणं, अनंताणं चक्खुदंसणपज्जवाणं, अनंताणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं, अनंताणं ओहि-दंसणपज्जवाणं, अनंताणं केवलदंसणपज्जवाणं उवयोगं गच्छति। उवयोगलक्खणे णं जीवे। पोग्गलत्थिकाए णं भंते! जीवाणं किं पवत्तति? गोयमा! पोग्गलत्थिकाएणं जीवाणं ओरालिय-वेउव्विय-आहारा-तेया

Translated Sutra: आकाशास्तिकाय का लक्षण ‘अवगाहना’ रूप है। भगवन्‌ ! जीवास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? गौतम ! जीवास्तिकाय के द्वारा जीव अनन्त आभिनिबोधिकज्ञान की पर्यायों को, अनन्त श्रुतज्ञान की पर्यायों को प्राप्त करता है; (इत्यादि सब कथन) द्वीतिय शतक के दसवें अस्तिकाय उद्देशक के अनुसार; यावत्‌ वह उपयोग को प्राप्त
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शतक-१३

उद्देशक-४ पृथ्वी Hindi 578 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एगे भंते! धम्मत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? गोयमा! जहन्नपदे तिहिं, उक्कोसपदे छहिं। केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? जहन्नपदे चउहिं, उक्कोसपदे सत्तहिं। केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? सत्तहिं। केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? अनंतेहिं। केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायप-देसेहिं पुट्ठे? अनंतेहिं। केवतिएहिं अद्धासमएहिं पुट्ठे? सिय पुट्ठे सिय नो पुट्ठे, जइ पुट्ठे नियमं अनंतेहिं। एगे भंते! अधम्मत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? गोयमा! जहन्नपदे चउहिं, उक्कोसपदे सतहिं। केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं

Translated Sutra: भगवन्‌ ! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, कितने धर्मास्तिकाय के प्रदेशों द्वारा स्पृष्ट होता है ? गौतम ! वह जघन्य पद में तीन प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? (गौतम ! वह) जघन्य पद में चार प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में सात अधर्मास्तिकाय
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१३

उद्देशक-४ पृथ्वी Hindi 579 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एगे भंते! जीवत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? जहन्नपदे चउहिं, उक्कोसपदे सत्तहिं। एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि। केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? सत्तहिं। केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? अनंतेहिं। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। एगे भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? एवं जहेव जीवत्थिकायस्स। दो भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा? गोयमा! जहन्नपदे छहिं, उक्कोसपदे बारसहिं। एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि। केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा? बारसहिं। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। तिन्नि

Translated Sutra: भगवन्‌ ! जीवास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों में स्पृष्ट होता है ? गौतम ! वह जघन्य पद में धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से और उत्कृष्टपद में सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। इसी प्रकार वह अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। (भगवन्‌ !) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से वह स्पृष्ट
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१३

उद्देशक-४ पृथ्वी Hindi 580 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जत्थ णं भंते! एगे धम्मत्थिकायपदेसे ओगाढे, तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा? नत्थि एक्को वि। केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा? एक्को। केवतिया आगासत्थिकाय-पदेसा ओगाढा? एक्को। केवतिया केवतिया जीवत्थिकायपदेसा ओगाढा? अनंता। केवतिया पोग्गलत्थिकायपदेसा ओगाढा? अनंता। केवतिया अद्धासमय ओगाढा? सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा अनंता। जत्थ णं भंते! एगे अधम्मत्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा? एक्को। केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा? नत्थि एक्को वि। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। जत्थ णं भंते! एगे आगासत्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा

Translated Sutra: भगवन्‌ ! जहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ़ है, वहाँ धर्मास्तिकाय के दूसरे कितने प्रदेश अवगाढ़ है? गौतम ! दूसरा एक भी प्रदेश अवगाढ़ नहीं है। भगवन्‌ ! वहाँ अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ हैं ? (गौतम !) वहाँ एक प्रदेश अववाढ़ होता है। (भगवन्‌ ! वहाँ) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? (गौतम !) एक प्रदेश
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शतक-१३

उद्देशक-४ पृथ्वी Hindi 581 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एयंसि णं भंते! धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय-आगासत्थिकायंसि चक्किया केई आसइत्तए वा सइत्तए वा चिट्ठित्तए वा निसीयत्तए वा तुयट्टित्तए वा? नो इणट्ठे समट्ठे, अनंता पुणत्थ जीवा ओगाढा। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–एयंसि णं धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय-आगासत्थिकायंसि नो चक्किया केई आसइत्तए वा सइत्तए वा चिट्ठित्तए वा निसीयत्तए वा तुयट्टित्तए वा अनंता पुणत्थ जीवा ओगाढा? गोयमा! से जहानामए कूडागारसाला सिया–दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया निवायगंभीरा। अह णं केई पुरिसे पदो-वसहस्सं गहाय कूडागारसालाए अंतो-अंतो अनुप्पविसइ, अनुप्पविसित्ता तीसे कूडागारसालाए सव्वतो

Translated Sutra: भगवन्‌ ! इन धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय पर कोई व्यक्ति बैठने, सोने, खड़ा रहने नीचे बैठने और लेटने में समर्थ हो सकता है ? (गौतम !) यह अर्थ समर्थ नहीं है। उस स्थान पर अनन्त जीव अवगाढ़ होते हैं। भगवन्‌ ! यह किसलिए कहा जाता है कि इन धर्मास्तिकायादि पर कोई भी व्यक्ति ठहरने, सोने आदि में समर्थ नहीं हो सकता,
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शतक-१३

उद्देशक-६ उपपात Hindi 587 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था–वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए–वण्णओ। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदाइ पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सिंधूसोवीरेसु जणवएसु वीतीभए नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं वीतीभयस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे

Translated Sutra: तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर किसी अन्य दिन राजगृह नगर के गुणशील चैत्य से यावत्‌ विहार कर देते हैं। उस काल, उस समय में चम्पा नगरी थी। पूर्णभद्र नामका चैत्य था। किसी दिन श्रमण भगवान महावीर पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए यावत्‌ विहार करते हुए जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे यावत्‌
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शतक-१३

उद्देशक-७ भाषा Hindi 592 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! काये पन्नत्ते? गोयमा! सत्तविहे काये पन्नत्ते, तं जहा–ओरालिए, ओरालियमीसए, वेउव्विए, वेउव्विय-मीसए, आहारए, आहारगमीसए, कम्मए। कतिविहे णं भंते! मरणे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे मरणे पन्नत्ते, तं जहा–आवीचियमरणे, ओहिमरणे, आतियंतियमरणे, बालमरणे, पंडियमरणे। आवीचियमरणे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वावीचियमरणे, खेत्तावीचियमरणे, कालावीचियमरणे, भवावीचियमरणे, भावावीचियमरणे। दव्वावीचियमरणे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते? गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा– नेरइयदव्वावीचियमरणे, तिरिक्खजोणियदव्वावीचिय-मरणे, मनुस्सदव्वावीचियमरणे,

Translated Sutra: भगवन्‌ ! मरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – आवीचिकमरण, अवधिमरण, आत्यन्तिक – मरण, बालमरण और पण्डितमरण। भगवन्‌ ! आवीचिकमरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का। द्रव्यावीचिकमरण, क्षेत्रावीचिकमरण, कालावीचिकमरण, भवावीचिकमरण और भावावीचिकमरण। भगवन्‌ ! द्रव्यावीचिकमरण कितने प्रकार का है ? गौतम !
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शतक-१३

उद्देशक-९ अनगारवैक्रिय Hindi 594 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–से जहानामए केइ पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अनगारे वि भावियप्पा केयाघडियाकिच्चहत्थगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? हंता उप्पएज्जा। अनगारे णं भंते! भावियप्पा केवतियाइं पभू केयाघडियाकिच्चहत्थगयाइं रूवाइं विउव्वित्तए? गोयमा! से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव अनगारे वि भावि-अप्पा वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ जाव पभू णं गोयमा! अनगारे णं भाविअप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थिरूवेहिं आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथडं फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए। एस णं

Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत्‌ पूछा – भगवन्‌ ! जैसे कोई पुरुष रस्सी से बंधी हुई घटिका लेकर चलता है, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी रस्सी से बंधी हुई घटिका स्वयं हाथ में लेकर ऊंचे आकाश में उड़ सकता है ? हाँ, गौतम ! उड़ सकता है। भगवन्‌ ! भावितात्मा अनगार रस्सी से बंधी हुई घटिका हाथ में ग्रहण करने रूप कितने रूपों की विकुर्वणा
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शतक-१४

उद्देशक-२ उन्माद Hindi 601 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! पज्जण्णे कालवासी वुट्ठिकायं पकरेंति? हंता अत्थि। जाहे णं भंते! सक्के देविंदे देवराया वुट्ठिकायं काउकामे भवइ से कहमियाणिं पकरेति? गोयमा! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया अब्भिंतरपरिसए देवे सद्दावेइ। तए णं ते अब्भिंतरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमपरिसए देवे सद्दावेंति। तए णं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसए देवे सद्दावेंति। तए णं ते बाहिरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे सद्दावेंति। तए णं ते बाहिरबाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगिए देवे सद्दावेंति। तए णं ते आभिओगिया देवा सद्दाविया समाणा वुट्ठिकाइए

Translated Sutra: भगवन्‌ ! कालवर्षी मेघ वृष्टिकाय बरसाता है ? हाँ, गौतम ! वह बरसाता है। भगवन्‌ ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करने की ईच्छा करता है, तब वह किस प्रकार वृष्टि करता है ? गौतम ! वह आभ्यन्तर परीषद्‌ के देवों को बुलाता है। वे आभ्यन्तर परीषद्‌ के देव मध्यम परीषद्‌ के देवों को बुलाते हैं। वे मध्यम परीषद्‌ के देव, बाह्य
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१४

उद्देशक-३ शरीर Hindi 604 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! नेरइयाणं सक्कारे इ वा? सम्माणे इ वा? किइकम्मे इ वा? अब्भुट्ठाणे इ वा? अंजलिपग्गहे इ वा? आसनाभिग्गहे इ वा? आसनानुप्पदाणे इ वा? एतस्स पच्चुग्गच्छणया? ठियस्स पज्जुवासणया? गच्छंतस्स पडिसंसाहणया? नो इणट्ठे समट्ठे। अत्थि णं भंते! असुरकुमाराणं सक्कारे इ वा? सम्माणे इ वा जाव गच्छंतस्स पडिसंसाहणया वा? हंता अत्थि। एवं जाव थणियकुमाराणं। पुढविकाइयाणं जाव चउरिंदियाणं–एएसिं जहा नेरइयाणं। अत्थि णं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सक्कारे इ वा जाव गच्छंतस्स पडिसंसाहणया वा? हंता अत्थि। नो चेव णं आसणाभिग्गहे इ वा, आसणाणुप्पयाणे इ वा। अत्थि णं भंते! मनुस्साणं सक्कारे

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या नारकजीवों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान, कृतिकर्म, अभ्युत्थान, अंजलिप्रग्रह, आसना – भिग्रह, आसनाऽनुप्रदान, अथवा नारक के सम्मुख जाना, बैठे हुए आदरणीय व्यक्ति की सेवा करना, उठकर जाते हुए के पीछे जाना इत्यादि विनय – भक्ति है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन्‌ ! असुरकुमारों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१४

उद्देशक-५ अग्नि Hindi 613 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया दस ठाणाइं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा–अनिट्ठा सद्दा, अनिट्ठा रूवा, अनिट्ठा गंधा, अनिट्ठा रसा, अनिट्ठा फासा, अनिट्ठा गती, अनिट्ठा ठिती, अनिट्ठे लावण्णे, अनिट्ठे जसे कित्ती, अनिट्ठे उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमे। असुरकुमारा दस ठाणाइं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा–इट्ठा सद्दा, इट्ठा रूवा जाव इट्ठे उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमे। एवं जाव थणियकुमारा। पुढविक्काइया छट्ठाणाइं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा–इट्ठानिट्ठा फासा, इट्ठानिट्ठा गती, एवं जाव पुरिसक्कार-परक्कमे। एवं जाव वणस्सइकाइया। बेइंदिया सत्तट्ठाणाइं पच्चणुब्भवमाणा

Translated Sutra: नैरयिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं। यथा – अनिष्ट शब्द, अनिष्ट रूप, अनिष्ट गन्ध, अनिष्ट रस, अनिष्ट स्पर्श, अनिष्ट गति, अनिष्ट स्थिति, अनिष्ट लावण्य, अनिष्ट यशःकीर्ति और अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार – पराक्रम। असुरकुमार दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा – इष्ट शब्द, इष्ट रूप यावत्‌ इष्ट
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१४

उद्देशक-७ संसृष्ट Hindi 619 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जहा णं भंते! वयं एयमट्ठं जाणामो-पासामो, तहा णं अनुत्तरोववाइया वि देवा एयमट्ठं जाणंति-पासंति? हंता गोयमा! जहा णं वयं एयमट्ठं जाणामो-पासामो, तहा णं अनुत्तरोववाइया वि देवा एयमट्ठं जाणंति-पासंति। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–वयं एयमट्ठं जाणामो-पासामो, तहा णं अनुत्तरोववाइया वि देवा एयमट्ठं जाणंति–पासंति? गोयमा! अनुत्तरोववाइयाणं अनंताओ मनोदव्ववग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमन्ना-गयाओ भवंति। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–वयं एयमट्ठं जाणामो-पासामो, तहा णं अनुत्तरोव-वाइया वि देवा एयमट्ठं जाणंति–पासंति।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! जिस प्रकार हम दोनों इस अर्थ को जानते – देखते हैं, क्या उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते – देखते हैं ? हाँ, गौतम ! हम दोनों के समान अनुत्तरौपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते – देखते हैं। भगवन्‌ ! क्या कारण है कि जिस प्रकार हम दोनों इस बात को जानते – देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरौपपा – तिक देव भी
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१४

उद्देशक-७ संसृष्ट Hindi 620 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! तुल्लए पन्नत्ते? गोयमा! छव्विहे तुल्लए पन्नत्ते, तं जहा–दव्वतुल्लए, खेत्ततुल्लए, कालतुल्लए, भवतुल्लए, भावतुल्लए, संठाणतुल्लए। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–दव्वतुल्लए-दव्वतुल्लए? गोयमा! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दव्वओ तुल्ले, परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गल-वइरित्तस्स दव्वओ नो तुल्ले। दुपएसिए खंधे दुपएसियस्स खंधस्स दव्वओ तुल्ले, दुपएसिए खंधे दुपएसियवइरित्तस्स खंधस्स दव्वओ नो तुल्ले। एवं जाव दसपएसिए। तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपएसियस्स खंधस्स दव्वओ तुल्ले, तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपएसिय- वइरित्तस्स खंधस्स दव्वओ

Translated Sutra: भगवन्‌ ! तुल्य कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम छह प्रकार का यथा – द्रव्यतुल्य, क्षेत्रतुल्य, काल – तुल्य, भवतुल्य, भावतुल्य और संस्थानतुल्य। भगवन्‌ ! ‘द्रव्यतुल्य’ द्रव्यतुल्य क्यों कहलाता है ? गौतम ! एक परमाणु – पुद्‌गल, दूसरे परमाणु – पुद्‌गल से द्रव्यतः तुल्य है, किन्तु परमाणु – पुद्‌गल से भिन्न दूसरे पदार्थों
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१४

उद्देशक-७ संसृष्ट Hindi 623 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! अनुत्तरोववाइया देवा, अनुत्तरोववाइया देवा? हंता अत्थि। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अनुत्तरोववाइया देवा, अनुत्तरोववाइया देवा? गोयमा! अनुत्तरोववाइयाणं देवाणं अनुत्तरा सद्दा, अनुत्तरा रूवा, अनुत्तरा गंधा, अनुत्तरा रसा, अनुत्तरा फासा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–अनुत्तरोववाइया देवा, अनुत्तरोववाइया देवा। अनुत्तरोववाइया णं भंते! देवा केवतिएणं कम्मावसेसेनं अनुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववन्ना? गोयमा! जावतियं छट्ठभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतिएणं कम्मावसेसेनं अनुत्तरोव-वाइयदेवत्ताए उववन्ना। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! क्या अनुत्तरौपपातिक देव, अनुत्तरौपपातिक होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। भगवन्‌ ! वे अनुत्त – रौपपातिक देव क्यों कहलाते हैं ? गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को अनुत्तर शब्द, यावत्‌ – अनुत्तर स्पर्श प्राप्त होते हैं, इस कारण, हे गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को अनुत्तरौपपातिक देव कहते हैं। भगवन्‌ ! कितने कर्म
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१४

उद्देशक-८ अंतर Hindi 625 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एस णं भंते! सालरुक्खे उण्हाभिहए तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति? कहिं उववज्जिहिति? गोयमा! इहेव रायगिहे नगरे सालरुक्खत्ताए पच्चायाहिती। से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइय-सक्कारिय-सम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहिय-पाडिहेरे लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सइ। से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गमिहिति? कहिं उववज्जिहिति? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति। एस णं भंते! साललट्ठिया उण्हाभिहया तण्हाभिहया दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति? कहिं उववज्जिहिति? गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे दीवे

Translated Sutra: भगवन्‌ ! सूर्य की गर्मी से पीड़ित, तृषा से व्याकुल, दावानल की ज्वाला से झुलसा हुआ यह शालवृक्ष काल मास में काल करके कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! यह शालवृक्ष, इसी राजगृहनगर में पुनः शालवृक्ष के रूपमें उत्पन्न होगा। वहाँ पर अर्चित, वन्दित, पूजित, सत्कृत, सम्मानित और दिव्य, सत्य, सत्यावपात, सन्निहित – प्रातिहार्य
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१४

उद्देशक-८ अंतर Hindi 626 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] एस णं भंते! उंबरलट्ठिया उण्हाभिहया तण्हाभिहया दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति? कहिं उववज्जिहिति? गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पाडलिपुत्ते नगरे पाडलिरुक्खत्ताए पच्चायाहिति। से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइय-सक्कारिय-सम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइय-महिए यावि भविस्सइ। से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गमिहिति? कहिं उववज्जिहिति? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति। तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासिसया गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासंमि गंगाए

Translated Sutra: भगवन्‌ ! दृश्यमान सूर्य की उष्णता से संतप्त, तृषा से पीड़ित और दावानल की ज्वाला से प्रज्वलित यह उदुम्बरयष्टिका कालमास में काल करके कहाँ जाएगी ? कहाँ उत्पन्न होगी ? गौतम ! इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में पाटलिपुत्र नामक नगर में पाटली वृक्ष के रूप में पुनः उत्पन्न होगी। वह वहाँ अर्चित, वन्दित यावत्‌ पूजनीय होगी।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१४

उद्देशक-८ अंतर Hindi 627 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] बहुजने णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ–एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ। से कहमेयं भंते? एवं खलु गोयमा! जं णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ– एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ, सच्चे णं एसमट्ठे अहंपि णं गोयमा! एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पन्नवेमि एवं परूवेमि–एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ। से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ,

Translated Sutra: भगवन्‌ ! बहुत – से लोग परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हैं यावत्‌ प्ररूपणा करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर नगर में सौ घरों में भोजन करता है तथा रहता है, (इत्यादि प्रश्न)। हाँ, गौतम ! यह सत्य है; इत्यादि औपपातिकसूत्रमें कथित अम्बड – सम्बन्धी वक्तव्यता, यावत्‌ – महर्द्धिक दृढप्रतिज्ञ होकर सर्व दुःख
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१४

उद्देशक-९ अनगार Hindi 635 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] जे इमे भंते! अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति, ते णं कस्स तेयलेस्सं वीईवयंति? गोयमा! मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। दुमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरिंदवज्जियाणं भवनवासीणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। एवं एएणं अभिलावेणं–तिमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरकुमाराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। चउम्मासपरियाए समणे निग्गंथे गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयई। पंचमासपरियाए समणे निग्गंथे चदिम-सूरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसराईणं तेयलेस्सं वीईवयइ। छम्मासपरियाए समणे निग्गंथे सोहम्मीसाणाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। सत्तमासपरियाए

Translated Sutra: भगवन्‌ ! जो ये श्रमण निर्ग्रन्थ आर्यत्वयुक्त होकर विचरण करते हैं, वे किसकी तेजोलेश्या का अतिक्रमण करते हैं ? गौतम ! एक मास के दीक्षापर्याय वाला श्रमण – निर्ग्रन्थ वाणव्यन्तर देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है; दो मास के दीक्षापर्याय वाला श्रमण – निर्ग्रन्थ असुरेन्द्र के सिवाय (समस्त) भवनवासी देवों की
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 639 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा! तीसं वासाइं अगारवासमज्झावसित्ता अम्मापिईहिं देवत्तगएहिं समत्तपइण्णे एवं जहा भावणाए जाव एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए। तए णं अहं गोयमा! पढमं वासं अद्धमासं अद्धमासेनं खममाणे अट्ठियगामं निस्साए पढमं अंतरवासं वासावासं उवागए। दोच्चं वासं मासं मासेनं खममाणे पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे, जेणेव नालंदा बाहिरिया, जेणेव तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हामि, ओगिण्हित्ता तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए। तए णं अहं गोयमा! पढमं

Translated Sutra: उस काल उस समय में, हे गौतम ! मैं तीस वर्ष तक गृहवास में रहकर, माता – पिता के दिवंगत हो जाने पर भावना नामक अध्ययन के अनुसार यावत्‌ एक देवदूष्य वस्त्र ग्रहण करके मुण्डित हुआ और गृहस्थावास को त्याग कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हुआ। हे गौतम ! मैं प्रथम वर्ष में अर्द्धमास – अर्द्धमास क्षमण करते हुए अस्थिक ग्राम की निश्रा
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 642 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं अहं गोयमा! अन्नदा कदायि गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं कुम्मगामाओ नगराओ सिद्धत्थग्गामं नगरं संपट्ठिए विहाराए। जाहे य मो तं देसं हव्वमागया जत्थ णं से तिलथंभए। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयासी–तुब्भे णं भंते! तदा ममं एवमाइक्खह जाव परूवेह–गोसाला! एस णं तिलथंभए निप्फज्जिस्सइ, नो न निप्फज्जिस्सइ। एते य सत्त तिलपु-प्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाइस्संति, तण्णं मिच्छा। इमं च णं पच्चक्खमेव दीसइ–एस णं से तिलथंभए नो निप्फन्ने, अन्निप्फन्नमेव। ते य सत्त तिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता नो एयस्स

Translated Sutra: हे गौतम ! इसके पश्चात्‌ किसी एक दिन मंखलिपुत्र गोशालक के साथ मैंने कूर्मग्रामनगर से सिद्धार्थग्राम – नगर की ओर विहार के लिए प्रस्थान किया। जब हम उस स्थान के निकट आए, जहाँ वह तिल का पौधा था, तब गोशालक मंखलिपुत्र ने मुझसे कहा – ‘भगवन्‌ ! आपने मुझे उस समय कहा था, यावत्‌ प्ररूपणा की थी की हे गोशालक ! यह तिल का पौधा निष्पन्न
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 645 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आनंदे नामं थेरे पगइभद्दए जाव विनीए छट्ठं-छट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं से आनंदे थेरे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, तहेव जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंते वीइ-वयइ। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आनंदं थेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकरावणस्स अदूर-सामंतेणं वीइवयमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी–एहि ताव आनंदा! इओ एगं महं उवमियं निसामेहि। तए णं से आनंदे थेरे

Translated Sutra: उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर का अन्तेवासी आनन्द नामक स्थविर था। वह प्रकृति से भद्र यावत्‌ विनीत था और निरन्तर छठ – छठ का तपश्चरण करता हुआ और संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरता था। उस दिन आनन्द स्थविर ने अपने छठक्षमण के पारणे के दिन प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय किया, यावत्‌ – गौतमस्वामी
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 651 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वानुभूती नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए धम्मायरियाणुरागेणं एयमट्ठं असद्दहमाणे उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसाले मंखलिपुत्ते एवं वयासी– जे वि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं निसामेति, से वि ताव वंदति नमंसति सक्कारेति सम्माणेति कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासति, किमंग पुण तुमं गोसाला! भगवया चेव पव्वाविए, भगवया चेव मुंडाविए, भगवया

Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के पूर्व देश में जन्मे हुए सर्वानुभूति नामक अनगार थे, जो प्रकृति से भद्र यावत्‌ विनीत थे। वह अपने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश गोशालक के प्रलाप के प्रति अश्रद्धा करते हुए उठे और मंखलिपुत्र गोशालक के पास आकर कहने लगे – हे गोशालक ! जो मनुष्य तथारूप श्रमण या माहन से एक भी
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 653 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सत्तरत्तंसि परिणममाणंसि पडिलद्धसम्मत्तस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–नो खलु अहं जिने जिनप्पलावी, अरहा अरहप्पलावी, केवली केवलिप्पलावी, सव्वण्णू सव्वण्णुप्पलावी, जिने जिनसद्दं पगासेमाणे विहरिते अहण्णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए समणमारए समणपडिनीए आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए अकित्तिकारए बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहिं य अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा वुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे विहरित्ता सएणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे

Translated Sutra: इसके पश्चात्‌ जब सातवीं रात्रि व्यतीत हो रही थी, तब मंखलिपुत्र गोशालक को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ। उसके साथ ही उसे इस प्रकार का अध्यवसाय यावत्‌ मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ – ‘मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, तथापि मैं जिन – प्रलापी यावत्‌ जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरा हूँ। मैं मंखलिपुत्र गोशालक श्रमणों
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 655 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढियगामे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं मेंढियगामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपु-रत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं साणकोट्ठए नामं चेइए होत्था–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं साणकोट्ठगस्स चेइयस्स अदूर-सामंते, एत्थ णं महेगे मालुयाकच्छए यावि होत्था–किण्हे किण्होभासे जाव महामेहनिकुरंबभूए पत्तिए पुप्फिए फलिए हरियगरेरि-ज्जमाणे सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणे चिट्ठति। तत्थ णं मेंढियगामे नगरे रेवती नामं गाहावइणी परिवसति–अड्ढा

Translated Sutra: तदनन्तर किसी दिन भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से नीकले और उससे बाहर अन्य जनपदों में विचरण करने लगे। उस काल उस समय मेंढिकग्राम नगर था। उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में शालकोष्ठक उद्यान था। यावत्‌ पृथ्वी – शिलापट्टक था, उस शालकोष्ठक उद्यान के निकट एक महान्‌ मालुकाकच्छ था वह श्याम, श्यामप्रभावाला,
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१५ गोशालक

Hindi 659 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विंज्झगिरिपायमूले बेभेले सन्निवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पच्चायाहिति। तए णं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कवालभावं जोव्वणगमणुप्पत्तं पडिरूवएणं सुक्केणं, पडिरूवएणं विनएणं, पडिरूवयस्स भत्तारस्स भारियत्ताए दलइस्सति। सा णं तस्स भारिया भविस्सति–इट्ठा कंता जाव अणुमया, भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया, चेलपेडा इव सुसंपरिग्गहिया, रयणकरंडओ विव सुसारक्खिया, सुसंगोविया, मा णं सीयं, मा णं उण्हं जाव परिसहो-वसग्गा फुसंतु। तए णं सा दारिया अन्नदा कदायि गुव्विणी ससुरकुलाओ कुलघरं निज्जमाणी अंतरा दवग्गिजालाभिहया काल-मासे कालं

Translated Sutra: वहाँ भी शस्त्र से वध होने पर यावत्‌ काल करके इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विन्ध्य – पर्वत के पादमूल में बेभेल सन्निवेश में ब्राह्मणकुल में बालिका के रूप में उत्पन्न होगा। वह कन्या जब बाल्यावस्था का त्याग करके यौवनवय को प्राप्त होगी, तब उसके माता – पिता उचित शुल्क और उचित विनय द्वारा पति को भार्या के रूप
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१६

उद्देशक-२ जरा Hindi 667 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे जाव दिव्वाइ भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ। इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विपुलेणं ओहिणा आभोएमाणे-आभोएमाणे पासति, एत्थ णं समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे। एवं जहा ईसाने तइयसए तहेव सक्के वि, नवरं–आभिओगे ण सद्दावेति, हरी पायत्ताणियाहिवई, सुघोसा घंटा, पालओ विमानकारी, पालगं विमाणं, उत्तरिल्ले निज्जाणमग्गे, दाहिणपुरत्थिमिल्ले रतिकरपव्वए, सेसं तं चेव जाव नामगं सावेत्ता पज्जुवासति। धम्मकहा जाव परिसा पडिगया। तए णं से सक्के देविंदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठे समणं

Translated Sutra: उस काल एवं उस समय में शक्र देवेन्द्र देवराज, वज्रपाणि, पुरन्दर यावत्‌ उपभोग करता हुआ विचरता था। वह इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की ओर अपने विपुल अवधिज्ञान का उपयोग लगा – लगाकर जम्बूद्वीप में श्रमण भगवान महावीर को देख रहा था। यहाँ तृतीय शतक में कथित ईशानेन्द्र की वक्तव्यता के समान शक्रेन्द्र कहना। विशेषता यह है
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१६

उद्देशक-५ गंगदत्त Hindi 676 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–गंगदत्तस्स णं भंते! देवस्स सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवानुभावे कहिं गते? कहिं अनुप्पविट्ठे? गोयमा! सरीरं गए, सरीरं अनुप्पविट्ठे, कूडागारसालादिट्ठंतो जाव सरीरं अनुप्पविट्ठे। अहो णं भंते! गंगदत्ते देवे महिड्ढिए महज्जुइए महब्बले महायसे महेसक्खे। गंगदत्तेणं भंते! देवेणं सा दिव्वा देविड्ढी सा दिव्वा देवज्जुती से दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लद्धे? किण्णा पत्ते? किण्णा अभिसमन्नागए? पुव्वभवे के आसी? किं नामए वा? किं वा गोत्तेणं? कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा

Translated Sutra: भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से यावत्‌ पूछा – ‘भगवन्‌ ! गंगदत्त देव की वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति यावत्‌ कहाँ गई, कहाँ प्रविष्ट हो गई ?’ गौतम ! यावत्‌ उस गंगदत्त देव के शरीर में गई और शरीर में ही अनुप्रविष्ट हो गई। यहाँ कूटाकारशाला का दृष्टान्त, यावत्‌ वह शरीर में अनुप्रविष्ट हुई, (तक समझना चाहिए।)
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१७

उद्देशक-१ कुंजर Hindi 698 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! भावे पन्नत्ते? गोयमा! छव्विहे भावे पन्नत्ते, तं० ओदइए, ओवसमिए खइए, खओवसमिए, पारिणामिए, सन्निवाइए। से किं तं ओदइए? ओदइए भावे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–उदए य, उदयनिप्फन्ने य। एवं एएणं अभिलावेणं जहा अनुओगदारे छन्नामं तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव सेत्तं सन्निवाइए भावे। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! भाव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! छह प्रकार के यथा – औदयिक यावत्‌ सान्निपातिक। भगवन्‌ ! औदयिक भाव कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का। यथा – उदय और उदयनिष्पन्न। इस प्रकार अनुयोगद्वार – सूत्रानुसार छह नामों की समग्र वक्तव्यता कहना। हे भगवन्‌ ! यह इसी प्रकार है।
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१७

उद्देशक-३ शैलेषी Hindi 705 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! संवेगे, निव्वेए, गुरुसाहम्मियसुस्सूसणया, आलोयणया, निंदणया, गरहणया, खमावणया, विउसमणया, सुयसहायता भावे अप्पडिबद्धया, विणिवट्टणया, विवित्तसयनासनसेवणया, सोइंदियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे, जोगपच्चक्खाणे, सरीरपच्चक्खाणे, कसायपच्चक्खाणे, संभोगपच्चक्खाणे, उवहिपच्चक्खाणे, भत्तपच्चक्खाणे, खमा, विरागया, भावसच्चे, जोगसच्चे, करणसच्चे, मणसमन्नाहरणया, वइसमन्नाहरणया, कायसमन्नाहरणया, कोहविवेगे जाव मिच्छा-दंसणसल्लविवेगे, नाणसंपन्नया, दंसणसंपन्नया, चरित्तसंपन्नया वेदणअहियासणया, मारणंतिय-अहियासणया– एए णं किंपज्जवसाणफला पन्नत्ता समणाउसो! गोयमा! संवेगे, निव्वेए

Translated Sutra: भगवन्‌ ! संवेग, निर्वेद, गुरु – साधर्मिक – शुश्रूषा, आलोचना, निन्दना, गर्हणा, क्षमापना, श्रुत – सहायता, व्युपशमना, भाव में अप्रतिबद्धता, विनिवर्त्तना, विविक्तशयनासनसेवनता, श्रोत्रेन्द्रिय – संवर यावत्‌ स्पर्शेन्द्रिय – संवर, योग – प्रत्याख्यान, शरीर – प्रत्याख्यान, कषायप्रत्याख्यान, सम्भोग – प्रत्याख्यान,
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१७

उद्देशक-६ पृथ्वीकायिक Hindi 709 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] पुढविक्काइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते! किं पुव्विं उववज्जित्ता पच्छा संपाउणेज्जा? पुव्विं संपाउणित्ता पच्छा उववज्जेज्जा? गोयमा! पुव्विं वा उववज्जित्ता पच्छा संपाउणेज्जा, पुव्विं वा संपाउणित्ता पच्छा उववज्जेज्जा। से केणट्ठेणं जाव पच्छा उववज्जेज्जा? गोयमा! पुढविक्काइयाणं तओ समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा–वेदनासमुग्घाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए। मारणंति-यसमुग्घाएणं समोहण्णमाणे देसेण वा समोहण्णति, सव्वेण वा समोहण्णति, देसेण वा समोहण्णमाणे पुव्विं संपाउणित्ता

Translated Sutra: भगवन्‌ ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी में मरण – समुद्‌घात करके सौधर्मकल्प में पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे आहार ग्रहण करते हैं, अथवा पहले आहार ग्रहण करते हैं और पीछे उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे पुद्‌गल ग्रहण करते हैं; अथवा
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१७

उद्देशक-१० ११ वायुकायिक Hindi 713 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] वाउक्काइए णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए जाव जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते? जहा पुढविक्काइओ तहा वाउक्काइओ वि, नवरं–वाउक्काइयाणं चत्तारि समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा–वेदनासमुग्घाए जाव वेउव्वियसमुग्घाए। मारणंतियसमुग्घाए णं समोहण्णमाणे देसेण वा समोहण्णइ, सेसं तं चेव जाव अहेसत्तमाए समोहओ ईसिंपब्भाराए उववाएयव्वो। सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।

Translated Sutra: भगवन्‌ ! जो वायुकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी में मरण – समुद्‌घात करके सौधर्मकल्प में वायुकायिक रूप में उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न। गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के समान वायुकायिक जीवों का भी कथन करना चाहिए। विशेषता यह है कि वायुकायिक जीवों में चार समुद्‌घात कहे गए हैं, यथा – वेदनासमुद्‌घात यावत्‌
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१८

उद्देशक-२ विशाखा Hindi 727 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं विसाहा नामं नगरी होत्था–वण्णओ। बहुपुत्तिए चेइए–वण्णओ। सामी समोसढे जाव पज्जुवासइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे–एवं जहा सोलसमसए बितियउद्देसए तहेव दिव्वेणं जाणविमानेणं आगओ, नवरं–एत्थं आभियोगा वि अत्थि जाव बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेत्ता जाव पडिगए। भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–जहा तइयसए ईसानस्स तहेव कूडागारदिट्ठंतो, तहेव पुव्वभवपुच्छा जाव अभिसमन्नागए? गोयमादि! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी–एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे

Translated Sutra: उस काल एवं उस समय में विशाखा नामकी नगरी थी। वहाँ बहुपुत्रिक नामक चैत्य था। (वर्णन) एक बार वहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ, यावत्‌ परीषद्‌ पर्युपासना करने लगी। उस काल और उस समय में देवेन्द्र देवराज शक्र, वज्रपाणि, पुरन्दर इत्यादि सोलहवें शतक के द्वीतिय उद्देशक में शक्रेन्द्र का जैसा वर्णन है,
Bhagavati भगवती सूत्र Ardha-Magadhi

शतक-१८

उद्देशक-३ माकंदी पुत्र Hindi 728 Sutra Ang-05 View Detail
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे होत्था–वण्णओ। गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी मागंदियपुत्ते नामं अनगारे पगइभद्दए–जहा मंडियपुत्ते जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी– से नूनं भंते! काउलेस्से पुढविकाइए काउलेस्सेहिंतो, पुढविकाइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता माणुसं विग्गहं लभति, लभित्ता केवलं बोहिं बुज्झति, बुज्झित्ता तओ पच्छा सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति? हंता मागंदियपुत्ता! काउलेस्से पुढविकाइए जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति। से नूनं भंते! काउलेस्से आउकाइए काउलेस्सेहिंतो आउकाइएहिंतो अनंतरं

Translated Sutra: उस काल उस समयमें राजगृह नगर था। वहाँ गुणशील नामक चैत्य था। यावत्‌ परीषद्‌ वन्दना करके वापिस लौट गई। उस काल एवं उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी यावत्‌ प्रकृतिभद्र माकन्दिपुत्र नामक अनगार ने, मण्डितपुत्र अनगार के समान यावत्‌ पर्युपासना करते हुए पूछा – भगवन्‌ ! क्या कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव,
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