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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 253 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इंदिएहिं गिलायंते, समियं साहरे मुनी ।
तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए ॥ Translated Sutra: आहारादि का परित्यागी मुनि इन्द्रियों से ग्लान होने पर समित होकर हाथ – पैर आदि सिकोड़े। जो अचल है तथा समाहित है, वह परिमित भूमि में शरीर – चेष्टा करता हुआ भी निन्दा का पात्र नहीं होता। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 256 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ‘आसीणे णेलिसं’ मरणं, इंदियाणि समीरए ।
कोलावासं समासज्ज, वितहं पाउरेसए ॥ Translated Sutra: इस अद्वितीय मरण की साधना में लीन मुनि अपनी इन्द्रियों को सम्यक् रूप से संचालित करे। घुन – दीमक वाले काष्ठ – स्तम्भ या पट्टे का सहारा न लेकर घुन आदि रहित व निश्छिद्र काष्ठ – स्तम्भ या पट्टे का अन्वेषण करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 257 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जओ वज्जं समुप्पज्जे, ण तत्थ अवलंबए ।
ततो उक्कसे अप्पाणं, सव्वे फासेहियासए ॥ Translated Sutra: जिससे वज्रवत् कर्म उत्पन्न हो, ऐसी वस्तु का सहारा न ले। उससे या दुर्ध्यान से अपने आपको हटा ले और उपस्थित सभी दुःखस्पर्शों को सहन करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 258 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अयं चायततरे सिया, जो एवं अणुपालए ।
सव्वगायणिरोधेवि, ठाणातो ण विउब्भमे ॥ Translated Sutra: यह अनशन विशिष्टतर है, पार करने योग्य है। जो विधि से अनुपालन करता है, वह सारा शरीर अकड़ जाने पर भी अपने स्थान से चलित नहीं होता। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 259 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अयं से उत्तमे धम्मे, पुव्वट्ठाणस्स पग्गहे ।
अचिरं पडिलेहित्ता, विहरे चिट्ठ माहणे ॥ Translated Sutra: यह उत्तम धर्म है। यह पूर्व स्थानद्वय से प्रकृष्टतर ग्रह वाला है। साधक स्थण्डिलस्थान का सम्यक् निरीक्षण करके वहाँ स्थिर होकर रहे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 260 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अचित्तं तु समासज्ज, ठावए तत्थ अप्पगं ।
वोसिरे सव्वसो कायं, न मे देहे परीसहा ॥ Translated Sutra: अचित्त को प्राप्त करके वहाँ अपने आपको स्थापित कर दे। शरीर का सब प्रकार से व्युत्सर्ग कर दे। परीषह उपस्थित होने पर ऐसी भावना करे – ‘‘यह शरीर ही मेरा नहीं है, तब परीषह (जनित दुःख मुझे कैसे होंगे ?) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 261 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जावज्जीवं परीसहा, उवसग्गा ‘य संखाय’ ।
संवुडे देहभेयाए, इति पण्णेहियासए ॥ Translated Sutra: जब तक जीवन है, तब तक ही ये परीषह और उपसर्ग हैं, यह जानकर संवृत्त शरीरभेद के लिए प्राज्ञ भिक्षु उन्हें (समभाव से) सहन करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 262 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] भेउरेसु न रज्जेज्जा, कामेसु बहुतरेसु ति ।
इच्छा-लोभं ण सेवेज्जा, सुहुमं वण्णं सपेहिया ॥ Translated Sutra: शब्द आदि काम विनाशशील हैं, वे प्रचुरतर मात्रा में हो तो भी भिक्षु उनमें रक्त न हो। ध्रुव वर्ण का सम्यक् विचार करके भिक्षु ईच्छा का भी सेवन न करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 263 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सासएहिं णिमंतेज्जा, ‘दिव्वं मायं’ ण सद्दहे ।
तं पडिबुज्झ माहणे, सव्वं नूमं विधूणिया ॥ Translated Sutra: आयुपर्यन्त शाश्वत रहने वाले वैभवों या कामभोगों के लिए कोई भिक्षु को निमंत्रित करे तो वह उसे (माया – जाल) समझे। दैवी माया पर भी श्रद्धा न करे। वह साधु उस समस्त माया को भलीभाँति जानकर उसका परि – त्याग करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 264 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सव्वट्ठेहिं अमुच्छिए, आउकालस्स पारए ।
तितिक्खं परमं नच्चा, विमोहण्णतरं हितं ॥ Translated Sutra: सभी प्रकार के विषयों में अनासक्त और मृत्युकाल का पारगामी वह मुनि तितिक्षा को सर्वश्रेष्ठ जानकर हितकर विमोक्ष त्रिविध विमोक्ष में से किसी एक विमोक्ष का आश्रय ले। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 265 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अहासुयं वदिस्सामि, जहा से समणे भगवं उट्ठाय ।
संखाए तंसि हेमंते, अहुणा पव्वइए रीयत्था ॥ Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ने दीक्षा लेकर जैसे विहारचर्या की, उस विषय में जैसा मैंने सूना है, वैसा मैं तुम्हें बताऊंगा। भगवान ने दीक्षा का अवसर जानकर हेमन्त ऋतु में प्रव्रजित हुए और तत्काल विहार कर गए। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 266 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नो चेविमेण वत्थेण, पिहिस्सामि तंसि हेमंते ।
से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स ॥ Translated Sutra: ‘मैं हेमन्त ऋतु में वस्त्र से शरीर को नहीं ढकूँगा।’ वे इस प्रतिज्ञा का जीवनपर्यन्त पालन करने वाले और संसार या परीषहों के पारगामी बन गए थे। यह उनकी अनुधर्मिता ही थी। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 267 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाण-जाइया आगम्म ।
अभिरुज्झ कायं विहरिंसु, आरुसियाणं तत्थ हिंसिंसु ॥ Translated Sutra: भौंरे आदि बहुत – से प्राणिगत आकर उनके शरीर पर चढ़ जाते और मँडराते रहते। वे रुष्ट होकर नाचने लगते यह क्रम चार मास से अधिक समय तक चलता रहा। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 269 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अदु पोरिसिं तिरियं भित्तिं, चक्खुमासज्ज अंतसो झाइ ।
अह चक्खु-भीया सहिया, तं ‘हंता हंता’ बहवे कंदिंसु ॥ Translated Sutra: भगवान एक – एक प्रहर तक तिरछी भीत पर आँखें गड़ा कर अन्तरात्मा में ध्यान करते थे। अतः उनकी आँखें देखकर भयभीत बनी बच्चों की मण्डली ‘मारो – मारो’ कहकर चिल्लाती, बहुत से अन्य बच्चों को बुला लेती। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 270 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सयणेहिं वितिमिस्सेहिं, इत्थीओ तत्थ से परिण्णाय ।
सागारियं न सेवे, इति से सयं पवेसिया झाति ॥ Translated Sutra: गृहस्थ और अन्यतीर्थिक साधु से संकुल स्थान में ठहरे हुए भगवान को देखकर, कामाकुल स्त्रियाँ वहाँ आकर प्रार्थना करती, किन्तु कर्मबन्ध का कारण जानकर सागारिक सेवन नहीं करते थे। अपनी अन्तरात्मा में प्रवेश कर ध्यान में लीन रहते। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 271 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जे के इमे अगारत्था, मीसीभावं पहाय से झाति ।
पुट्ठो वि नाभिभासिंसु, गच्छति नाइवत्तई अंजू ॥ Translated Sutra: कभी गृहस्थोंसे युक्त स्थानमें भी वे उनमें घुलते – मिलते नहीं थे। वे उनका संसर्ग त्याग करके धर्मध्यानमें मग्न रहते। वे किसी के पूछने पर भी नहीं बोलते थे। अन्यत्र चले जाते, किन्तु अपने ध्यान का अतिक्रमण नहीं करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 272 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नो सुगरमेतमेगेसिं, नाभिभासे अभिवायमाणे ।
हयपुव्वो तत्थ दंडेहिं, लूसियपुव्वो अप्पपुण्णेहिं ॥ Translated Sutra: वे अभिवादन करने वालों को आशीर्वचन नहीं कहते थे, और उन अनार्य देश आदि में डंडों से पीटने, फिर उनके बाल खींचने या अंग – भंग करने वाले अभागे अनार्य लोगों को वे शाप नहीं देते थे। भगवान की यह साधना अन्य साधकों के लिए सुगम नहीं थी। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 274 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गढिए मिहो-कहासु, समयंमि नायसुए विसोगे अदक्खू ।
एताइं सो उरालाइं, गच्छइ नायपुत्ते असरणाए ॥ Translated Sutra: परस्पर कामोत्तेजक बातों में आसक्त लोगों को ज्ञातपुत्र भगवान महावीर हर्षशोक से रहित होकर देखते थे। वे इन दुर्दमनीय को स्मरण न करते हुए विचरते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 275 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अविसाहिए दुवे वासे, सीतोदं अभोच्चा णिक्खंते ।
एगत्तगए पिहियच्चे, से अहिण्णायदंसणे संते ॥ Translated Sutra: (माता – पिता के स्वर्गवास के बाद) भगवान ने दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक गृहवास में रहते हुए भी सचित्त जल का उपभोग नहीं किया। वे एकत्वभावना से ओतप्रोत रहते थे, उन्होंने क्रोध – ज्वाला को शान्त कर लिया था, वे सम्यग्ज्ञान – दर्शन को हस्तगत कर चूके थे और शान्तचित्त हो गए थे। फिर अभिनिष्क्रमण किया। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 276 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पुढविं च आउकायं, तेउकायं च वाउकायं च ।
पणगाइं बीय-हरियाइं, तसकायं च सव्वसो नच्चा ॥ Translated Sutra: पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, निगोद – शैवाल आदि, बीज और नाना प्रकार की हरी वनस्पति एवं त्रसकाय – इन्हें सब प्रकार से जानकर। ‘ये अस्तित्ववान् है’ यह देखकर ‘ये चेतनावान् है’ यह जानकर उनके स्वरूप को भलीभाँति अवगत करके वे उनके आरम्भ का परित्याग करके विहार करते थे। सूत्र – २७६, २७७ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 277 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एयाइं संति पडिलेहे, चित्तमंताइं से अभिण्णाय ।
परिवज्जिया न विहरित्था, इति संखाए से महावीरे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २७६ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 278 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अदु थावरा तसत्ताए, तसजीवा य थावरत्ताए ।
अदु सव्वजोणिया सत्ता, कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला ॥ Translated Sutra: स्थावर जीव त्रस के रूपमें उत्पन्न हो जाते हैं और त्रस जीव स्थावर के रूपमें उत्पन्न हो जाते हैं अथवा संसारी जीव सभी योनियों में उत्पन्न हो सकते हैं। अज्ञानी जीव अपने – अपने कर्मों से पृथक् – पृथक् रूप से संसार में स्थित हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 279 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] भगवं च ‘एवं मन्नेसिं’, सोवहिए हु लुप्पती बाले ।
कम्मं च सव्वसो नच्चा, तं पडियाइक्खे पावगं भगवं ॥ Translated Sutra: भगवान ने यह भलीभाँति जान – मान लिया था कि द्रव्य – भाव – उपधि से युक्त अज्ञानी जीव अवश्य ही क्लेश का अनुभव करता है। अतः कर्मबन्धन सर्वांग रूप से जानकर कर्म के उपादानरूप पाप का प्रत्याख्यान कर दिया था | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 280 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] दुविहं समिच्च मेहावी, किरियमक्खायणेलिसिं नाणी ।
आयाण-सोयमतिवाय-सोयं, जोगं च सव्वसो नच्चा ॥ Translated Sutra: ज्ञानी और मेधावी भगवान ने दो प्रकार के कर्मों को भलीभाँति जानकर तथा आदान स्रोत, अतिपात स्रोत और योग को सब प्रकार से समझकर दूसरों से विलक्षण (निर्दोष) क्रिया का प्रतिपादन किया है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 281 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अइवातियं अणाउट्टे, सयमण्णेसिं अकरणयाए ।
जस्सित्थिओ परिण्णाया, सव्वकम्मावहाओ से अदक्खू ॥ Translated Sutra: भगवान ने स्वयं पाप – दोष रहित निर्दोष अनाकुट्टि का आश्रय लेकर दूसरों को हिंसा न करने की (प्रेरणा दी)। जिन्हें स्त्रियाँ परिज्ञात हैं, उन भगवान महावीर ने देख लिया था कि ’ कामभोग समस्त पापकर्मों के उपादान कारण हैं’ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 282 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अहाकडं न से सेवे, सव्वसो कम्मुणा ‘य अदक्खू’ ।
जं किंचि पावगं भगवं, तं अकुव्वं वियडं भुंजित्था ॥ Translated Sutra: भगवान ने देखा कि आधाकर्म आदि दोषयुक्त आहार ग्रहण सब तरह से कर्मबन्ध का कारण है, इसलिए उन्होंने आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार का सेवन नहीं किया। वे प्रासुक आहार ग्रहण करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 283 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नो सेवती य परवत्थं, परपाए वि से ण भुंजित्था ।
परिवज्जियाण ओमाणं, गच्छति संखडिं असरणाए ॥ Translated Sutra: दूसरे के वस्त्र का सेवन नहीं करते थे, दूसरे के पात्र में भी भोजन नहीं करते थे। वे अपमान की परवाह न करके किसी की शरण लिए बिना पाकशाला में भिक्षा के लिए जाते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 284 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] मायण्णे असण-पाणस्स, नाणुगिद्धे रसेसु अपडिण्णे ।
अच्छिंपि नो पमज्जिया, नो वि य कंडूयये मुनी गायं ॥ Translated Sutra: भगवान अशन – पान की मात्रा को जानते थे, वे रसों में आसक्त नहीं थे, वे (भोजन – सम्बन्धी) प्रतिज्ञा भी नहीं करते थे, मुनिन्द्र महावीर आँखमें रजकण आदि पड़ जाने पर भी उसका प्रमार्जन नहीं करते थे और न शरीर को खुजलाते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 288 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] चरियासणाइं सेज्जाओ, एगतियाओ जाओ बुइयाओ ।
आइक्ख ताइं सयणासणाइं, जाइं सेवित्था से महावीरो ॥ Translated Sutra: ‘भन्ते ! चर्या के साथ – साथ आपने कुछ आसन और वासस्थान बताए थे, अतः मुझे आप उन शयनासन को बताएं, जिनका सेवन भगवान ने किया था।’ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 291 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एतेहिं मुनी सयणेहिं, समणे आसी पत्तेरस वासे ।
राइं दिवं पि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए झाति ॥ Translated Sutra: त्रिजगत्वेत्ता मुनीश्वर इन वासस्थानोंमें साधना काल के बारह वर्ष, छह महीने, पन्द्रह दिनों में शान्त और सम्यक्त्वयुक्त मन से रहे। वे रात – दिन प्रत्येक प्रवृत्ति में यतनाशील रहते थे तथा अप्रमत्त और समाहित अवस्था में ध्यान करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 292 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ‘णिद्दं पि णोपगामाए, सेवइ भगवं उट्ठाए’ ।
जग्गावती य अप्पाणं, ईसिं ‘साई या’ सी अपडिण्णे ॥ Translated Sutra: भगवान निद्रा भी बहुत नहीं लेते थे। वे खड़े होकर अपने आपको जगा लेते थे। (कभी जरा – सी नींद ले लेते किन्तु सोने के अभिप्राय से नहीं सोते थे।) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 298 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] स जणेहिं तत्थ पुच्छिंसु, एगचरा वि एगदा राओ ।
अव्वाहिए कसाइत्था, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ॥ Translated Sutra: कुछ लोग आकर पूछते – ‘तुम कौन हो ? यहाँ क्यों खड़े हो ?’ कभी अकेले घूमने वाले लोग रात में आकर पूछते – तब भगवान कुछ नहीं बोलते, इससे रुष्ट होकर दुर्व्यवहार करते, फिर भी भगवान समाधि में लीन रहते, परन्तु प्रतिशोध लेने का विचार भी नहीं उठता। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 299 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अयमंतरंसि को एत्थ, अहमंसि त्ति भिक्खू आहट्टु ।
अयमुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए स कसाइए झाति ॥ Translated Sutra: अन्तर में स्थित भगवान से पूछा – ‘अन्दर कौन है ?’ भगवान ने कहा – ‘मैं भिक्षु हूँ।’ यदि वे क्रोधान्ध होते तब भगवान वहाँ से चले जाते। यह उनका उत्तम धर्म है। वे मौन रहकर ध्यान में लीन रहते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 302 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तंसि भगवं अपडिण्णे, अहे वियडे अहियासए दविए ।
निक्खम्म एगदा राओ, चाएइ भगवं समियाए ॥ Translated Sutra: किन्तु उस शिशिर ऋतु में भी भगवान ऐसा संकल्प नहीं करते। कभी – कभी रात्रि में भगवान उस मंडप से बाहर चले जाते, मुहूर्त्तभर ठहर फिर मंडप में आते। उस प्रकार भगवान शीतादि परीषह समभाव से सहन करने में समर्थ थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 304 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तणफासे सीयफासे य, तेउफासे य दंस-मसगे य ।
अहियासए सया समिए, फासाइं विरूवरूवाइं ॥ Translated Sutra: भगवान घास का कठोर स्पर्श, शीत स्पर्श, गर्मी का स्पर्श, डाँस और मच्छरों का दंश; इन नाना प्रकार के दुःखद स्पर्शों को सदा सम्यक् प्रकार से सहते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 305 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अह दुच्चर-लाढमचारी, वज्जभूमिं च सुब्भ भूमिं च ।
पंतं सेज्जं सेविंसु, आसणगाणि चेव पंताइं ॥ Translated Sutra: दुर्गम लाढ़ देश के वज्रभूमि और सुम्ह भूमि नामक प्रदेश में उन्होंने बहुत ही तुच्छ वासस्थानों और कठिन आसनों का सेवन किया था। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 306 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] लोढेहिं तस्सुवसग्गा, बहवे जाणवया लूसिंसु ।
अह लूहदेसिए भत्ते, कुक्कुरा तत्थ हिंसिंसु णिवतिंसु ॥ Translated Sutra: लाढ़ देश के क्षेत्र में भगवान ने अनेक उपसर्ग सहे। वहाँ के बहुत से अनार्य लोग भगवान पर डण्डों आदि से प्रहार करते थे; भोजन भी प्रायः रूखा – सूखा ही मिलता था। वहाँ के शिकारी कुत्ते उन पर टूट पड़ते और काट खाते थे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 307 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अप्पे जणे णिवारेइ, लूसणए सुणए दसमाणे ।
छुछुकारंति आहंसु, समणं कुक्कुरा डसंतुत्ति ॥ Translated Sutra: कुत्ते काटने लगते या भौंकते तो बहुत से लोग इस श्रमण को कुत्ते काँटे, उस नीयत से कुत्तों को बुलाते और छुछकार कर उनके पीछे लगा देते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 311 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नाओ संगामसीसे वा, पारए तत्थ से महावीरे ।
एवं पि तत्थ लाढेहिं, अलद्धपुव्वो वि एगया गामो ॥ Translated Sutra: हाथी जैसे युद्ध के मोर्चे पर (विद्ध होने पर भी पीछे नहीं हटता) युद्ध का पार पा जाता है, वैसे ही भगवान महावीर उस लाढ़ देशमें परीषह – सेना को जीतकर पारगामी हुए। कभी – कभी लाढ़ देशमें उन्हें अरण्यमें भी रहना पड़ा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 312 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उवसंकमंतमपडिण्णं, गामंतियं पि अप्पत्तं ।
पडिणिक्खमित्तु लूसिंसु, एत्तो परं पलेहित्ति ॥ Translated Sutra: आवश्यकतावश निवास या आहार के लिए वे ग्राम की ओर जाते थे। वे ग्राम के निकट पहुँचते, न पहुँचते, तब तक तो कुछ लोग उस गाँव से नीकलकर भगवान को रोक लेते, उन पर प्रहार करते और कहते – ‘यहाँ से आगे कहीं दूर चले जाओ।’ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 313 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] हयपुव्वो तत्थ दंडेण, अदुवा मुट्ठिणा अदु कुंताइ-फलेणं ।
अदु लेलुणा कवालेणं, हंता हंता बहवे कंदिंसु ॥ Translated Sutra: उस लाढ़ देश में बहुत से लोग डण्डे, मुक्के अथवा भाले आदि से या फिर मिट्टी के ढेले या खप्पर से मारते, फिर ‘मारो – मारो’ कहकर होहल्ला मचाते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 314 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] मंसाणि छिन्नपुव्वाइं, उट्ठुभंति एगया कायं ।
परीसहाइं लुंचिंसु, अहवा पसुणा अवकिरिंसु ॥ Translated Sutra: उन अनार्यों ने पहले एक बार ध्यानस्थ खड़े भगवान के शरीर को पकड़कर माँस काट लिया था। उन्हें परीषहों से पीड़ित करते थे, कभी – कभी उन पर धूल फेंकते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 315 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उच्चालइय णिहणिंसु, अदुवा आसणाओ खलइंसु ।
वोसट्ठकाए पणयासी, दुक्खसहे भगवं अपडिण्णे ॥ Translated Sutra: कुछ दुष्ट लोग ध्यानस्थ भगवान को ऊंचा उठाकर नीचे गिरा देते थे, कुछ लोग आसन से दूर धकेल देते थे, किन्तु भगवान शरीर का व्युत्सर्ग किये हुए प्रणबद्ध, कष्टसहिष्णु प्रतिज्ञा से युक्त थे। अतएव वे इन परीषहों से विचलित नहीं होते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 316 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सूरो संगामसीसे वा, संवुडे तत्थ से महावीरे ।
पडिसेवमाणे फरुसाइं, अचले भगवं रीइत्था ॥ Translated Sutra: जैसे कवच पहना हुआ योद्धा युद्ध के मोर्चे पर शस्त्रों से विद्ध होने पर भी विचलित नहीं होता, वैसे ही संवर का कवच पहने हुए भगवान महावीर लाढ़ादि देश में परीषहसेना से पीड़ित होने पर भी कठोरतम कष्टों का सामना करते हुए मेरुपर्वत की तरह ध्यान में निश्चल रहकर मोक्षपथ में पराक्रम करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 317 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एस विही अणुक्कंतो, माहणेण मईमया ।
‘अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा’ ॥ Translated Sutra: (स्थान और आसन के सम्बन्ध में) प्रतिज्ञा से मुक्त मतिमान, महामाहन भगवान महावीर ने इस विधि का अनेक बार आचरण किया; उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट विधि का अन्य साधक भी इसी प्रकार आचरण करते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 318 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ओमोदरियं चाएत्ति, अपुट्ठे वि भगवं रोगेहिं ।
पुट्ठे वा से अपुट्ठे वा, नो से सातिज्जति तेइच्छं ॥ Translated Sutra: भगवान रोगों से आक्रान्त न होने पर भी अवमौदर्य तप करते थे। वे रोग से स्पृष्ट हों या अस्पृष्ट, चिकित्सा में रुचि नहीं रखते थे। वे शरीर को आत्मा से अन्य जानकर विरेचन, वमन, तैलमर्दन, स्नान और मर्दन आदि परिकर्म नहीं करते थे, तथा दन्तप्रक्षालन भी नहीं करते थे। सूत्र – ३१८, ३१९ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 319 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] संसोहणं च वमणं च, गायब्भंगणं सिणाणं च ।
संबाहणं ण से कप्पे, दंतपक्खालणं परिण्णाए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३१८ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 321 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आयावई य गिम्हाणं, अच्छइ उक्कुडुए अभिवाते ।
अदु जावइत्थं लूहेणं, ओयण-मंथु-कुम्मासेणं ॥ Translated Sutra: भगवान ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेते थे। उकडू आसन से सूर्य के ताप के सामने मुख करके बैठते थे। और वे प्रायः रूखे आहार को दो – कोद्रव व बेर आदि का चूर्ण, तथा उड़द आदि से शरीर – निर्वाह करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 322 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एयाणि तिण्णि पडिसेवे, अट्ठ मासे य जावए भगवं ।
अपिइत्थ एगया भगवं, अद्धमासं अदुवा मासं पि ॥ Translated Sutra: भगवान ने इन तीनों का सेवन करके आठ मास तक जीवन यापन किया। कभी – कभी भगवान ने अर्ध मास या मासभर तक पानी नहीं पिया। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 323 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अवि साहिए दुवे मासे, छप्पि मासे अदुवा अपिवित्ता ।
रायोवरायं अपडिण्णे, अन्नगिलायमेगया भुंजे ॥ Translated Sutra: उन्होंने कभी – कभी दो महीने से अधिक तथा छह महीने तक भी पानी नहीं पिया। वे रातभर जागृत रहते, किन्तु मन में नींद लेने का संकल्प नहीं होता था। कभी – कभी वे वासी भोजन भी करते थे। |