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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-४ पृथ्वी | Hindi | 579 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगे भंते! जीवत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे?
जहन्नपदे चउहिं, उक्कोसपदे सत्तहिं। एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि। केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? सत्तहिं। केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे? अनंतेहिं। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स।
एगे भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे?
एवं जहेव जीवत्थिकायस्स।
दो भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा?
गोयमा! जहन्नपदे छहिं, उक्कोसपदे बारसहिं। एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि। केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा? बारसहिं। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स।
तिन्नि Translated Sutra: भगवन् ! जीवास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों में स्पृष्ट होता है ? गौतम ! वह जघन्य पद में धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से और उत्कृष्टपद में सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। इसी प्रकार वह अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। (भगवन् !) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से वह स्पृष्ट | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-४ पृथ्वी | Hindi | 580 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जत्थ णं भंते! एगे धम्मत्थिकायपदेसे ओगाढे, तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा?
नत्थि एक्को वि। केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा? एक्को। केवतिया आगासत्थिकाय-पदेसा ओगाढा? एक्को। केवतिया केवतिया जीवत्थिकायपदेसा ओगाढा? अनंता। केवतिया पोग्गलत्थिकायपदेसा ओगाढा? अनंता। केवतिया अद्धासमय ओगाढा? सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा अनंता।
जत्थ णं भंते! एगे अधम्मत्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा?
एक्को। केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा? नत्थि एक्को वि। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स।
जत्थ णं भंते! एगे आगासत्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा Translated Sutra: भगवन् ! जहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ़ है, वहाँ धर्मास्तिकाय के दूसरे कितने प्रदेश अवगाढ़ है? गौतम ! दूसरा एक भी प्रदेश अवगाढ़ नहीं है। भगवन् ! वहाँ अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ हैं ? (गौतम !) वहाँ एक प्रदेश अववाढ़ होता है। (भगवन् ! वहाँ) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ़ होते हैं ? (गौतम !) एक प्रदेश | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-४ पृथ्वी | Hindi | 581 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एयंसि णं भंते! धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय-आगासत्थिकायंसि चक्किया केई आसइत्तए वा सइत्तए वा चिट्ठित्तए वा निसीयत्तए वा तुयट्टित्तए वा?
नो इणट्ठे समट्ठे, अनंता पुणत्थ जीवा ओगाढा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–एयंसि णं धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय-आगासत्थिकायंसि नो चक्किया केई आसइत्तए वा सइत्तए वा चिट्ठित्तए वा निसीयत्तए वा तुयट्टित्तए वा अनंता पुणत्थ जीवा ओगाढा?
गोयमा! से जहानामए कूडागारसाला सिया–दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया निवायगंभीरा। अह णं केई पुरिसे पदो-वसहस्सं गहाय कूडागारसालाए अंतो-अंतो अनुप्पविसइ, अनुप्पविसित्ता तीसे कूडागारसालाए सव्वतो Translated Sutra: भगवन् ! इन धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय पर कोई व्यक्ति बैठने, सोने, खड़ा रहने नीचे बैठने और लेटने में समर्थ हो सकता है ? (गौतम !) यह अर्थ समर्थ नहीं है। उस स्थान पर अनन्त जीव अवगाढ़ होते हैं। भगवन् ! यह किसलिए कहा जाता है कि इन धर्मास्तिकायादि पर कोई भी व्यक्ति ठहरने, सोने आदि में समर्थ नहीं हो सकता, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-४ पृथ्वी | Hindi | 582 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! लोए बहुसमे, कहि णं भंते! लोए सव्वविग्गहिए पन्नत्ते?
गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुड्डगपयरेसु, एत्थ णं लोए बहुसमे, एत्थ णं लोए सव्वविग्गहिए पन्नत्ते।
कहि णं भंते! विग्गहविग्गहिए लोए पन्नत्ते?
गोयमा! विग्गहकंडए, एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए पन्नत्ते। Translated Sutra: भगवन् ! लोक का बहु – समभाग कहाँ है ? (तथा) हे भगवन् ! लोक का सर्वसंक्षिप्त भाग कहाँ कहा गया है ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के और नीचे के क्षुद्र प्रतरों में लोक का बहुसम भाग है और यहीं लोक का सर्वसंक्षिप्त भाग कहा गया है। भगवन् ! लोक का विग्रह – विग्रहिक भाग कहाँ कहा गया है ? गौतम ! जहाँ विग्रह – कण्डक है, वहीं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-४ पृथ्वी | Hindi | 583 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किंसंठिए णं भंते! लोए पन्नत्ते?
गोयमा! सुपइट्ठियसंठिए लोए पन्नत्ते–हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं बिसाले; अहे पलियंकसंठिए, मज्झे वरवइर-विग्गहिए, उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठिए। तंसि च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि जाव उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठियंसि उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिने केवली जीवे वि जाणइ-पासइ, अजीवे वि जाणइ-पासइ, तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेति।
एयस्स णं भंते! अहेलोगस्स, तिरियलोगस्स, उड्ढलोगस्स य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवे तिरियलोए, उड्ढलोए असंखेज्जगुणे, Translated Sutra: भगवन् ! इस लोक का संस्थान किस प्रकार का है ? गौतम ! सुप्रतिष्ठक के आकार का है। यह लोक नीचे विस्तीर्ण है, मध्य में संक्षिप्त है, इत्यादि वर्णन सप्तम शतक के प्रथम उद्देशक के अनुसार कहना। भगवन् ! अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक में, कौन – सा लोक किस लोक से छोटा यावत् बहुत, सम अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे छोटा तिर्यक् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-५ आहार | Hindi | 584 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! किं सचित्ताहारा? अचित्ताहारा? मीसाहारा?
गोयमा! नो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, नो मीसाहारा। एवं असुरकुमारा, पढमो नेरइयउद्देसओ निरवसेसो भाणियव्वो।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! नैरयिक सचित्ताहारी हैं, अचित्ताहारी हैं या मिश्राहारी हैं ? गौतम ! नैरयिक न तो सचित्ताहारी हैं और न मिश्राहारी हैं। यहाँ आहारपद का समग्र प्रथम उद्देशक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। शतक – १३ – उद्देशक – ६ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-६ उपपात | Hindi | 585 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–संतरं भंते! नेरइया उववज्जंति? निरंतरं नेरइया उववज्जंति?
गोयमा! संतरं पि नेरइया उववज्जंति, निरंतरं पि नेरइया उववज्जंति। एवं असुरकुमारा वि। एवं जहा गंगेये तहेव दो दंडगा जाव संतरं पि वेमाणिया चयंति, निरंतरं पि वेमाणिया चयंति। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! नैरयिक सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं ? गौतम ! नैरयिक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी। असुरकुमार भी इसी तरह उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार जैसे नौवे शतक के बत्तीसवें गांगेय उद्देशक में उत्पाद और उद्वर्त्तना के सम्बन्ध में दो दण्डक कहे हैं, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-६ उपपात | Hindi | 586 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चमरचंचे नामं आवासे पन्नत्ते?
गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे–एवं जहा बितियसए सभाउद्देसए वत्तव्वया सच्चेव अपरिसेसा नेयव्वा। तीसे णं चमरचंचाए रायहानीए दाहिणपच्चत्थिमे णं छक्कोडिसए पणपन्नं च कोडीओ पणतीसं च सय सहस्साइं पन्नासं च सहस्साइं अरुणोदगसमुद्दं तिरियं वीइवइत्ता, एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चमरचंचे नामं आवासे पन्नत्ते–चउरासीइं जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, दो जोयणसयसहस्सा पन्नट्ठिं च सहस्साइं छच्च बत्तीसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं। Translated Sutra: भगवन् ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर क्या उस ‘चमरचंच’ आवास में निवास करके रहता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! फिर किस कारण से चमरेन्द्र का आवास ‘चमरचंच’ आवास कहलाता है ? गौतम ! यहाँ मनुष्यलोक में औपकारिक लयन, उद्यान में बनाये हुए घर, नगर – प्रदेश – गृह, अथवा नगर – निर्गम गृह – जिसमें पानी के फव्वारे लगे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-६ उपपात | Hindi | 587 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था–वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए–वण्णओ। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदाइ पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सिंधूसोवीरेसु जणवएसु वीतीभए नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं वीतीभयस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे Translated Sutra: तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर किसी अन्य दिन राजगृह नगर के गुणशील चैत्य से यावत् विहार कर देते हैं। उस काल, उस समय में चम्पा नगरी थी। पूर्णभद्र नामका चैत्य था। किसी दिन श्रमण भगवान महावीर पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए यावत् विहार करते हुए जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-६ उपपात | Hindi | 588 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स अभीयिस्स कुमारस्स अन्नदा कदाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अहं उद्दायणस्स पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए, तए णं से उद्दायने राया ममं अवहाय नियगं भाइणेज्जं केसिं कुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए– इमेणं एयारूवेणं महया अप्पत्तिएणं मनोमानसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतेउरपरियालसंपरिवुडे सभंडमत्तोवगरणमायाए वीतीभयाओ नयराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे Translated Sutra: तत्पश्चात् किसी दिन रात्रि के पीछले प्रहर में कुटुम्ब – जागरण करते हुए अभीचिकुमार के मन में इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ – ‘मैं उदायन राजा का पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज हूँ। फिर भी उदायन राजा ने मुझे छोड़कर अपने भानजे केशी कुमार को राजसिंहासन पर स्थापित करके श्रमण भगवान महावीर के पास यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-७ भाषा | Hindi | 589 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–आया भंते! भासा? अन्ना भासा?
गोयमा! नो आया भासा, अन्ना भासा।
रूविं भंते! भासा? अरूविं भासा?
गोयमा! रूविं भासा, नो अरूविं भासा।
सचित्ता भंते! भासा? अचित्ता भासा?
गोयमा! नो सचित्ता भासा, अचित्ता भासा।
जीवा भंते! भासा? अजीवा भासा?
गोयमा! नो जीवा भासा, अजीवा भासा।
जीवाणं भंते! भासा? अजीवाणं भासा?
गोयमा! जीवाणं भासा, नो अजीवाणं भासा।
पुव्विं भंते! भासा? भासिज्जमाणी भासा? भासासमयवीतिक्कंता भासा?
गोयमा! नो पुव्विं भासा, भासिज्जमाणी भासा, नो भासासमयवीतिक्कंता भासा।
पुव्विं भंते! भासा भिज्जति? भासिज्जमाणी भासा भिज्जति? भासासमयवीतिक्कंता भासा भिज्जति?
गोयमा! Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! भाषा आत्मा है या अन्य है ? गौतम ! भाषा आत्मा नहीं है, अन्य (आत्मा से भिन्न पुद्गलरूप) है। भगवन् ! भाषा रूपी है या अरूपी है ? गौतम ! भाषा रूपी है, वह अरूपी नहीं है। भगवन् ! भाषा सचित्त है या अचित्त है ? गौतम ! भाषा सचित्त नहीं है, अचित्त है। भगवन् ! भाषा जीव है, अथवा अजीव है ? गौतम ! भाषा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-७ भाषा | Hindi | 590 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आया भंते! मणे? अन्ने मणे?
गोयमा! नो आया मणे, अन्ने मणे।
रूविं भंते! मणे? अरूविं मणे?
गोयमा! रूविं मणे, नो अरूविं मणे।
सचित्ते भंते! मणे? अचित्ते मणे?
गोयमा! नो सचित्ते मणे, अचित्ते मणे।
जीवे भंते! मणे? अजीवे मणे?
गोयमा! नो जीवे मणे, अजीवे मणे।
जीवाणं भंते! मणे? अजीवाणं मणे?
गोयमा! जीवाणं मणे, नो अजीवाणं मणे।
पुव्विं भंते! मणे? मणिज्जमाणे मणे? मणसमयवीतिक्कंते मणे?
गोयमा! नो पुव्विं मणे, मणिज्जमाणे मणे, नो मणसमयवीतिक्कंते मणे।
पुव्विं भंते! मणे भिज्जति, मणिज्जमाणे मणे भिज्जति, मणसमयवीतिक्कंते मणे भिज्जति?
गोयमा! नो पुव्विं मणे भिज्जति, मणिज्जमाणे मणे भिज्जति, नो मनसमयवीतिक्कंते Translated Sutra: भगवन् ! मन आत्मा है, अथवा आत्मा से भिन्न ? गौतम ! आत्मा मन नहीं है। मन अन्य है; इत्यादि। भाषा के (प्रश्नोत्तर) समान मन के विषय में भी यावत् – अजीवों के मन नहीं होता; (यहाँ तक) कहना। भगवन् ! (मनन से) पूर्व मन कहलाता है, या मनन के समय, अथवा मनन के बाद मन कहलाता है ? गौतम ! भाषा के अनुसार कहना। भगवन् ! (मनन से) पूर्व मन का भेदन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-७ भाषा | Hindi | 591 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आया भंते! काये? अन्ने काये?
गोयमा! आया वि काये, अन्ने वि काये।
रूविं भंते! काये? अरूविं काये?
गोयमा! रूविं पि काये, अरूविं पि काये।
सचित्ते भंते! काये? अचित्ते काये?
गोयमा! सचित्ते वि काये, अचित्ते वि काये।
जीवे भंते! काये? अजीवे काये?
गोयमा! जीवे वि काये, अजीवे वि काये।
जीवाणं भंते! काये? अजीवाणं काये?
गोयमा! जीवाण वि काये, अजीवाण वि काये।
पुव्विं भंते! काये? कायिज्जमाणे काये? कायसमयवीतिक्कंते काये?
गोयमा! पुव्विं पि काये, कायिज्जमाणे वि काये, कायसमयवीतिक्कंते वि काये।
पुव्विं भंते! काये भिज्जति? कायिज्जमाणे काये भिज्जति? कायसमयवीतिक्कंते काये भिज्जति?
गोयमा! पुव्विं पि काये Translated Sutra: भगवन् ! काय आत्मा है, अथवा अन्य है ? गौतम ! काय आत्मा भी है और आत्मा से भिन्न भी है। भगवन् ! काय रूपी है अथवा अरूपी ? गौतम ! काय रूपी भी है और अरूपी भी है। इसी प्रकार काय सचित्त भी है और अचित्त भी है। इसी प्रकार एक – एक प्रश्न करना चाहिए। काय जीवरूप भी है और अजीवरूप भी है। काय जीवों के भी होता है, अजीवों के भी होता है। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-७ भाषा | Hindi | 592 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! काये पन्नत्ते?
गोयमा! सत्तविहे काये पन्नत्ते, तं जहा–ओरालिए, ओरालियमीसए, वेउव्विए, वेउव्विय-मीसए, आहारए, आहारगमीसए, कम्मए।
कतिविहे णं भंते! मरणे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे मरणे पन्नत्ते, तं जहा–आवीचियमरणे, ओहिमरणे, आतियंतियमरणे, बालमरणे, पंडियमरणे।
आवीचियमरणे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वावीचियमरणे, खेत्तावीचियमरणे, कालावीचियमरणे, भवावीचियमरणे, भावावीचियमरणे।
दव्वावीचियमरणे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा– नेरइयदव्वावीचियमरणे, तिरिक्खजोणियदव्वावीचिय-मरणे, मनुस्सदव्वावीचियमरणे, Translated Sutra: भगवन् ! मरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – आवीचिकमरण, अवधिमरण, आत्यन्तिक – मरण, बालमरण और पण्डितमरण। भगवन् ! आवीचिकमरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का। द्रव्यावीचिकमरण, क्षेत्रावीचिकमरण, कालावीचिकमरण, भवावीचिकमरण और भावावीचिकमरण। भगवन् ! द्रव्यावीचिकमरण कितने प्रकार का है ? गौतम ! | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-८ कर्मप्रकृत्ति | Hindi | 593 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ। एवं बंधट्ठिइ-उद्देसो भाणियव्वो निरवसेसो जहा पन्नवणाए।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी हैं ? गौतम ! आठ। प्रज्ञापनासूत्र के बन्धस्थिति – उद्देशक का सम्पूर्ण कथन करना। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-९ अनगारवैक्रिय | Hindi | 594 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–से जहानामए केइ पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अनगारे वि भावियप्पा केयाघडियाकिच्चहत्थगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा?
हंता उप्पएज्जा।
अनगारे णं भंते! भावियप्पा केवतियाइं पभू केयाघडियाकिच्चहत्थगयाइं रूवाइं विउव्वित्तए?
गोयमा! से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव अनगारे वि भावि-अप्पा वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ जाव पभू णं गोयमा! अनगारे णं भाविअप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थिरूवेहिं आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथडं फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए। एस णं Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! जैसे कोई पुरुष रस्सी से बंधी हुई घटिका लेकर चलता है, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी रस्सी से बंधी हुई घटिका स्वयं हाथ में लेकर ऊंचे आकाश में उड़ सकता है ? हाँ, गौतम ! उड़ सकता है। भगवन् ! भावितात्मा अनगार रस्सी से बंधी हुई घटिका हाथ में ग्रहण करने रूप कितने रूपों की विकुर्वणा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-१० समुदघात | Hindi | 595 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! छाउमत्थियसमुग्घाया पन्नत्ता?
गोयमा! छ छाउमत्थिया समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा– वेयणासमुग्घाए, एवं छाउमत्थिय-समुग्घाया नेयव्वा, जहा पन्नवणाए जाव आहारगसमुग्घायेत्ति।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! छाद्मस्थिक समुद्घात कितने प्रकार का है ? गौतम ! छह प्रकार का है। वेदनासमुद्घात इत्यादि, छाद्मस्थिक समुद्घातों के विषय में प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार यावत् आहारकसमुद्घात कहना। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-१ चरम | Hindi | 596 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] १. चर २. उम्माद ३. सरीरे, ४. पोग्गल ५. अगणी तहा ६. किमाहारे ।
७-८. संसिट्ठमंतरे खलु, ९. अनगारे १. केवली चेव ॥ Translated Sutra: चौदहवें शतक के दस उद्देशक इस प्रकार हैं – चरम, उन्माद, शरीर, पुद्गल, अग्नि तथा किमाहार, संश्लिष्ट, अन्तर, अनगार और केवली। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-१ चरम | Hindi | 597 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–अनगारे णं भंते! भावियप्पा चरमं देवावासं वीतिक्कंते, परमं देवावासमसंपत्ते, एत्थ णं अंतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते! कहिं गती? कहिं उववाए पन्नत्ते?
गोयमा! जे से तत्थ परिपस्सओ तल्लेसा देवावासा, तहिं तस्स गती, तहिं तस्स उववाए पन्नत्ते। से य तत्थ गए विराहेज्जा कम्मलेस्सामेव पडिपडति, से य तत्थ गए नो विराहेज्जा, तामेव लेस्सं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! (कोई) भावितात्मा अनगार, (जिसने) चरम देवलोक का उल्लंघन कर लिया हो, किन्तु परम को प्राप्त न हुआ हो, यदि वह इस मध्य में ही काल कर जाए तो भन्ते ! उसकी कौन – सी गति होती है, कहाँ उपपात होता है ? गौतम ! जो वहाँ परिपार्श्व में उस लेश्या वाले देवावास होते हैं, वही उसकी गति होती है और वहीं उसका | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-१ चरम | Hindi | 598 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनगारे णं भंते! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीतिक्कंते, परमं असुरकुमारावासमसंपत्ते, एत्थ णं अंतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते! कहिं गती? कहिं उववाए पन्नत्ते?
गोयमा! जे से तत्थ परिपस्सओ तल्लेसा असुरकुमारावासा, तहिं तस्स गती, तहिं तस्स उववाए पन्नत्ते। से य तत्थ गए विराहेज्जा कम्मलेस्सामेव पडिपडति, से य तत्थ गए नो विराहेज्जा, तामेव लेस्सं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। एवं जाव थणियकुमा-रावासं, जोइसियावासं, एवं वेमाणियावासं जाव विहरइ।
नेरइयाणं भंते! कहं सीहा गती? कहं सीहे गतिविसए पन्नत्ते?
गोयमा! से जहानामए–केइपुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जुवाणे अप्पातंके थिरग्गहत्थे दढपाणि-पाय-पास-पिट्ठंतरोरुपरिणते Translated Sutra: भगवन् ! (कोई) भावितात्मा अनगार, जो चरम असुरकुमारावास का उल्लंघन कर गया और परम असुर – कुमारावास को प्राप्त नहीं हुआ, यदि बीच में ही वह काल कर जाए तो उसकी कौन – सी गति होती है, उसका कहाँ उपपात होता है? गौतम ! पूर्ववत्। इसी प्रकार स्तनितकुमारावास, ज्योतिष्कावास और वैमानिकावास पर्यन्त जानना भगवन् ! नैरयिक जीवों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-१ चरम | Hindi | 599 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! किं अनंतरोववन्नगा? परंपरोववन्नगा? अनंतर-परंपरअणुववन्नगा?
गोयमा! नेरइया अनंतरोववन्नगा वि, परंपरोववन्नगा वि, अनंतर-परंपरअणुववन्नगा वि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइया अनंतरोववन्नगा वि, परंपरोववन्नगा वि, अनंतर-परंपर-अणुववन्नगा वि?
गोयमा! जे णं नेरइया पढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया अनंतरोववन्नगा, जे णं नेरइया अपढम-समयोववन्नगा ते णं नेरइया परंपरोववन्नगा, जे णं नेरइया विग्गहगइसमावन्नगा ते णं नेरइया अनंतर-परंपर-अणुववन्नगा। से तेणट्ठेणं जाव अनंतर-परंपर-अणुववन्नगा वि। एवं निरंतरं जाव वेमाणिया।
अनंतरोववन्नगा णं भंते! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति? Translated Sutra: भगवन् ! क्या नैरयिक अनन्तरोपपन्नक हैं, परम्परोपपन्नक हैं, अथवा अनन्तरपरम्परानुपपन्नक हैं ? गौतम! नैरयिक अनन्तरोपपन्नक भी हैं, परम्परोपपन्नक भी हैं और अनन्तरपरम्परानुपपन्नक भी हैं। भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा है कि नैरयिक यावत् अनन्तरपरम्परानुपपन्नक भी हैं ? गौतम ! जिन नैरयिकों को उत्पन्न हुए अभी प्रथम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-२ उन्माद | Hindi | 600 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! उम्मादे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे उम्मादे पन्नत्ते, तं जहा–जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं। तत्थ णं जे से जक्खाएसे से णं सुहवेयणतराए चेव सुहविमोयणतराए चेव। तत्थ णं जे से मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं से णं दुहवेयणतराए चेव दुहविमोयणतराए चेव।
नेरइयाणं भंते! कतिविहे उम्मादे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे उम्मादे पन्नत्ते, तं जहा–जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइयाणं दुविहे उम्मादे पन्नत्ते, तं जहा–जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं?
गोयमा! देवे वा से असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा, से णं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं Translated Sutra: भगवन् ! उन्माद कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! उन्माद दो प्रकार का कहा गया है, यथा – यक्षावेश से और मोहनीयकर्म के उदय से। इनमें से जो यक्षावेशरूप उन्माद है, उसका सुखपूर्वक वेदन किया जा सकता है और वह सुखपूर्वक छुड़ाया जा सकता है। (किन्तु) इनमें से जो मोहनीयकर्म के उदय से होने वाला उन्माद है, उसका दुःखपूर्वक वेदन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-२ उन्माद | Hindi | 601 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! पज्जण्णे कालवासी वुट्ठिकायं पकरेंति?
हंता अत्थि।
जाहे णं भंते! सक्के देविंदे देवराया वुट्ठिकायं काउकामे भवइ से कहमियाणिं पकरेति?
गोयमा! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया अब्भिंतरपरिसए देवे सद्दावेइ। तए णं ते अब्भिंतरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमपरिसए देवे सद्दावेंति। तए णं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसए देवे सद्दावेंति। तए णं ते बाहिरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे सद्दावेंति।
तए णं ते बाहिरबाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगिए देवे सद्दावेंति। तए णं ते आभिओगिया देवा सद्दाविया समाणा वुट्ठिकाइए Translated Sutra: भगवन् ! कालवर्षी मेघ वृष्टिकाय बरसाता है ? हाँ, गौतम ! वह बरसाता है। भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करने की ईच्छा करता है, तब वह किस प्रकार वृष्टि करता है ? गौतम ! वह आभ्यन्तर परीषद् के देवों को बुलाता है। वे आभ्यन्तर परीषद् के देव मध्यम परीषद् के देवों को बुलाते हैं। वे मध्यम परीषद् के देव, बाह्य | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-२ उन्माद | Hindi | 602 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जाहे णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया तमुक्कायं काउकामे भवति से कहमियाणिं पकरेति?
गोयमा! ताहे चेव णं से ईसाने देविंदे देवराया अब्भिंतरपरिसए देवे सद्दावेति। तए णं ते अब्भिंतरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमपरिसए देवे सद्दावेंति। तए णं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसए देवे सद्दावेंति।
तए णं ते बाहिरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे सद्दावेंति। तए णं ते बाहिरबाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगिए देवे सद्दावेंति। तए णं ते आभिओगिया देवा सद्दाविया समाणा तमुक्काइए देवे सद्दावेंति। तए णं ते तमुक्काइया देवा सद्दाविया समाणा तमुक्कायं Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करना चाहता है, तब किस प्रकार करता है ? गौतम ! वह आभ्यन्तर परीषद् के देवों को बुलाता है, वे आभ्यन्तर परीषद् के देव मध्यम परीषद् के देवों को बुलाते हैं, इत्यादि सब वर्णन; यावत् – ‘तब बुलाये हुए वे आभियोगिक देव तमस्कायिक देवों को बुलाते हैं, और फिर वे समाहूत तमस्कायिक देव | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-३ शरीर | Hindi | 603 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] देवे णं भंते! महाकाए महासरीरे अनगारस्स भावियप्पणो मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा?
गोयमा! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा?
गोयमा! दुविहा देवा पन्नत्ता, तं जहा–मायीमिच्छादिट्ठीउववन्नगा य, अमायीसम्मदिट्ठी-उववन्नगा य। तत्थ णं जे से मायी-मिच्छदिट्ठीउववन्नए देवे से णं अनगारं भावियप्पाणं पासइ, पासित्ता नो वंदइ, नो नमंसइ, नो सक्कारेइ, नो सम्माणेइ, नो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ।
से णं अनगारस्स भावियप्पणो मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा। तत्थ णं जे से अमायी-सम्मद्दिट्ठीउववन्नए देवे Translated Sutra: भगवन् ! क्या महाकाय और महाशरीर देव भावितात्मा अनगार के बीच में होकर – नीकल जाता है ? गौतम ! कोई नीकल जाता है, और कोई नहीं जाता है। भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! देव दो प्रकार के हैं, मायी – मिथ्यादृष्टि – उपपन्नक एवं अमायी – सम्यग्दृष्टि – उपपन्नक। इन दोनों में से जो मायी – मिथ्यादृष्टि – उपपन्नक देव होता | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-३ शरीर | Hindi | 604 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! नेरइयाणं सक्कारे इ वा? सम्माणे इ वा? किइकम्मे इ वा? अब्भुट्ठाणे इ वा? अंजलिपग्गहे इ वा? आसनाभिग्गहे इ वा? आसनानुप्पदाणे इ वा? एतस्स पच्चुग्गच्छणया? ठियस्स पज्जुवासणया? गच्छंतस्स पडिसंसाहणया?
नो इणट्ठे समट्ठे।
अत्थि णं भंते! असुरकुमाराणं सक्कारे इ वा? सम्माणे इ वा जाव गच्छंतस्स पडिसंसाहणया वा?
हंता अत्थि। एवं जाव थणियकुमाराणं। पुढविकाइयाणं जाव चउरिंदियाणं–एएसिं जहा नेरइयाणं।
अत्थि णं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सक्कारे इ वा जाव गच्छंतस्स पडिसंसाहणया वा?
हंता अत्थि। नो चेव णं आसणाभिग्गहे इ वा, आसणाणुप्पयाणे इ वा।
अत्थि णं भंते! मनुस्साणं सक्कारे Translated Sutra: भगवन् ! क्या नारकजीवों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान, कृतिकर्म, अभ्युत्थान, अंजलिप्रग्रह, आसना – भिग्रह, आसनाऽनुप्रदान, अथवा नारक के सम्मुख जाना, बैठे हुए आदरणीय व्यक्ति की सेवा करना, उठकर जाते हुए के पीछे जाना इत्यादि विनय – भक्ति है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! असुरकुमारों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-३ शरीर | Hindi | 605 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अप्पिड्ढिए णं भंते! देवे महिड्ढियस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा?
नो इणट्ठे समट्ठे।
समिड्ढिए णं भंते! देवे समिड्ढियस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा?
नो इणट्ठे समट्ठे, पमत्तं पुण वीइवएज्जा।
से णं भंते! किं सत्थेणं अक्कमित्ता पभू? अणक्कमित्ता पभू?
गोयमा! अक्कमित्ता पभू, नो अणक्कमित्ता पभू।
से णं भंते! किं पुव्विं सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीइवएज्जा? पुव्विं वीइवइत्ता पच्छा सत्थेणं अक्कमेज्जा?
गोयमा! पुव्विं सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीइवएज्जा, नो पुव्विं वीइवइत्ता पच्छा सत्थेणं अक्कमिज्जा। एवं एएणं अभिलावेणं जहा दसमसए आइड्ढीउद्देसए तहेव निरवसेसं चत्तारि Translated Sutra: भगवन् ! अल्पऋद्धि वाला देव, क्या महर्द्धिक देव के मध्य में होकर जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ शक्य नहीं है। भगवन् ! समर्द्धिक देव, सम – ऋद्धि वाले देव के मध्य में से होकर जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; किन्तु प्रमत्त हो तो जा सकता है। भगवन् ! मध्य में होकर जाने वाले देव, शस्त्र का प्रहार करके जा सकता है या | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-३ शरीर | Hindi | 606 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रयणप्पभपुढविनेरइया णं भंते! केरिसयं पोग्गलपरिणामं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति?
गोयमा! अनिट्ठं अकंतं अप्पियं असुभं अमणुन्नं अमणामं। एवं जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया।
रयणप्पभपुढविनेरइया णं भंते! केरिसयं वेदनापरिणामं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति?
गोयमा! अनिट्ठं जाव अमणामं। एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइयउद्देसए जाव–
अहेसत्तमापुढविनेरइया णं भंते! केरिसयं परिग्गहसण्णापरिणामं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति?
गोयमा! अनिट्ठं जाव अमणामं।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलपरिणामों का अनुभव करते रहते हैं ? गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमनाम का अनुभव करते रहते हैं। इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों तक कहना। इसी प्रकार वेदना – परिणाम का भी (अनुभव करते हैं)। इसी प्रकार जीवाभिगमसूत्र के नैरयिक उद्देशक समान यहाँ भी वे समग्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 607 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एस णं भंते! पोग्गले तीतमनंतं सासयं समयं लुक्खी? समयं अलुक्खी? समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा? पुव्विं च णं करणेणं अनेगवण्णं अनेगरूवं परिणाम परिणमइ? अहे से परिणामे निज्जिण्णे भवइ, तओ पच्छा एगवण्णे एगरूवे सिया?
हंता गोयमा! एस णं पोग्गले तीतमनंतं सासयं समयं तं चेव जाव एगरूवे सिया।
एस णं भंते! पोग्गले पडुप्पन्नं सासयं समयं लुक्खी? एवं चेव।
एस णं भंते! पोग्गले अनागय सासयं समयं लुक्खी? एवं चेव।
एस णं भंते! खंधे तीतमनंतं सासयं समयं लुक्खी? एवं चेव खंधे वि जहा पोग्गले। Translated Sutra: भगवन् ! क्या यह पुद्गल अनन्त, अपरिमित और शाश्वत अतीतकाल में एक समय तक रूक्ष स्पर्श वाला रहा, एक समय तक अरूक्ष स्पर्श वाला और एक समय तक रूक्ष और स्निग्ध दोनों प्रकार के स्पर्श वाला रहा ? (तथा) पहले करण के द्वारा अनेक वर्ण और अनेक रूप वाले परिणाम से परिणत हुआ और उसके बाद उस अनेक वर्णादि परिणाम के क्षीण होने पर वह | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 608 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एस णं भंते! जीवे तीतमनंतं सासयं समयं दुक्खी? समयं अदुक्खी? समयं दुक्खी वा अदुक्खी वा? पुव्विं च णं करणेणं अनेगभावं अनेगभूयं परिणामं परिणमइ? अहे से वेयणिज्जे निजिण्णे भवइ, तओ पच्छा एगभावे एगभूए सिया?
हंता गोयमा! एस णं जीवे तीतमनंतं सासयं समयं जाव एगभूए सिया। एवं पडुप्पन्नं सासयं समयं, एवं अनागयमनंतं सासयं समयं। Translated Sutra: भगवन् ! क्या यह जीव अनन्त और शाश्वत अतीत काल में, एक समय में दुःखी, एक समय में अदुःखी – तथा एक समय में दुःखी और अदुःखी था ? तथा पहले करण द्वारा अनेक भाव वाले अनेकभूत परिणाम से परिणत हुआ था ? और इसके बाद वेदनीयकर्म की निर्जरा होने पर जीव एकभाव वाला और एकरूप वाला था ? हाँ, गौतम ! यह जीव यावत् एकरूप वाला था। इसी प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 609 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] परमाणुपोग्गले णं भंते! किं सासए? असासए?
गोयमा! सिय सासए, सिय असासए।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सिय सासए, सिय असासए?
गोयमा! दव्वट्ठयाए सासए, वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासए। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–सिय सासए, सिय असासए। Translated Sutra: भगवन् ! परमाणु – पुद्गल शाश्वत हैं या अशाश्वत ? गौतम ! वह कथंचित् शाश्वत हैं और कथंचित् अशाश्वत हैं भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! द्रव्यार्थरूप से शाश्वत हैं और वर्ण यावत् स्पर्श – पर्यायों की अपेक्षा से अशाश्वत हैं। हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यावत् कथंचित् अशाश्वत हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 610 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] परमाणुपोग्गले णं भंते! किं चरिमे? अचरिमे?
गोयमा! दव्वादेसेणं नो चरिमे, अचरिमे। खेत्तादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। कालादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। भावादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। Translated Sutra: भगवन् ! परमाणु – पुद्गल चरम है, या अचरम है ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा चरम नहीं, अचरम हैं; क्षेत्र की अपेक्षा कथंचित् चरम हैं और कथंचित् अचरम हैं; काल की अपेक्षा कदाचित् चरम हैं और कदाचित् अचरम हैं तथा भावादेश से भी कथंचित् चरम हैं और कथंचित् अचरम हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 611 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! परिणामे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे परिणामे पन्नत्ते, तं जहा–जीवपरिणामे य, अजीवपरिणामे य। एवं परिणामपयं निरवसेसं भाणियव्वं।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! परिणाम कितने प्रकार का कहा है ? गौतम ! दो प्रकार का। यथा – जीवपरिणाम और अजीव – परिणाम। इस प्रकार यहाँ परिणामपद कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-५ अग्नि | Hindi | 612 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइए णं भंते! अगनिकायस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा?
गोयमा! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा?
गोयमा! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–विग्गहगतिसमावन्नगा य, अविग्गहगतिसमावन्नगा य। तत्थ णं जे से विग्गहगति-समावन्नए नेरइए से णं अगनिकायस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा।
से णं त्थ ज्झियाएज्जा?
नो इणट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ। तत्थ णं जे से अविग्गहगतिसमावन्नए नेरइए से णं अगनिकायस्स मज्झंमज्झेणं नो वीइवएज्जा। से तेणट्ठेणं जाव नो वीइवएज्जा।
असुरकुमारे णं भंते! अगनिकायस्स मज्झंमज्झेणं Translated Sutra: भगवन् ! नैरयिक जीव अग्निकाय के मध्य में होकर जा सकता है ? गौतम ! कोई नैरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा सकता। भगवन् ! यह किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के हैं यथा – विग्रह गति – समापन्नक और अविग्रहगति – समापन्नक। उनमें से जो विग्रहगति – समापन्नक नैरयिक हैं, वे अग्निकाय के मध्य में होकर जा सकते हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-५ अग्नि | Hindi | 613 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया दस ठाणाइं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा–अनिट्ठा सद्दा, अनिट्ठा रूवा, अनिट्ठा गंधा, अनिट्ठा रसा, अनिट्ठा फासा, अनिट्ठा गती, अनिट्ठा ठिती, अनिट्ठे लावण्णे, अनिट्ठे जसे कित्ती, अनिट्ठे उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमे।
असुरकुमारा दस ठाणाइं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा–इट्ठा सद्दा, इट्ठा रूवा जाव इट्ठे उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमे। एवं जाव थणियकुमारा।
पुढविक्काइया छट्ठाणाइं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा–इट्ठानिट्ठा फासा, इट्ठानिट्ठा गती, एवं जाव पुरिसक्कार-परक्कमे। एवं जाव वणस्सइकाइया।
बेइंदिया सत्तट्ठाणाइं पच्चणुब्भवमाणा Translated Sutra: नैरयिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं। यथा – अनिष्ट शब्द, अनिष्ट रूप, अनिष्ट गन्ध, अनिष्ट रस, अनिष्ट स्पर्श, अनिष्ट गति, अनिष्ट स्थिति, अनिष्ट लावण्य, अनिष्ट यशःकीर्ति और अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार – पराक्रम। असुरकुमार दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा – इष्ट शब्द, इष्ट रूप यावत् इष्ट | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-५ अग्नि | Hindi | 614 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] देवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू तिरियपव्वयं वा तिरियभित्तिं वा उल्लंघेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा?
नो इणट्ठे समट्ठे।
देवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू तिरिय पव्वयं वा तिरियभित्तिं वा उल्लंघेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा?
हंता पभू।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना तिरछे पर्वत को या तिरछी भींत को एक बार उल्लंघन करने अथवा बार – बार उल्लंघन करने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके तिरछे पर्वत को या तिरछी भींत | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-६ आहार | Hindi | 615 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–नेरइया णं भंते! किमाहारा, किंपरिणामा, किंजोणिया, किंठितीया पन्नत्ता?
गोयमा! नेरइया णं पोग्गलाहारा, पोग्गलपरिणामा, पोग्गलजोणिया, पोग्गलट्ठितीया, कम्मोवगा, कम्मनियाणा, कम्मट्ठितीया कम्मुणामेव विप्परियासमेंति। एवं जाव वेमाणिया। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! नैरयिक जीव किन द्रव्यों का आहार करते हैं ? किस तरह परिणमाते हैं? उनकी योनि क्या है ? उनकी स्थिति का क्या कारण है ? गौतम ! नैरयिक जीव पुद्गलों का आहार करते हैं और उसका पुद्गल – रूप परिणाम होता है। उनकी योनि शीतादि स्पर्शमय पुद्गलों वाली है। आयुष्य कर्म के पुद्गल उनकी स्थिति | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-६ आहार | Hindi | 616 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! किं वीचीदव्वाइं आहारेंति? अवीचीदव्वाइं आहारेंति?
गोयमा! नेरइया वीचीदव्वाइं पि आहारेंति, अवीचीदव्वाइं पि आहारेंति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइया वीची दव्वाइं पि आहारेंति, अवीचीदव्वाइं पि आहारेंति?
गोयमा! जे णं नेरइया एगपएसूणाइं पि दव्वाइं आहारेंति, ते णं नेरइया वीचीदव्वाइं आहारेंति, जे णं नेरइया पडिपुण्णाइं दव्वाइं आहारेंति, ते णं नेरइया अवीचीदव्वाइं आहारेंति।
से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–नेरइया वीचीदव्वाइं पि आहारेंति, अवीचीदव्वाइं पि आहारेंति। एवं जाव वेमाणिया। Translated Sutra: भगवन् ! नैरयिक जीव वीचिद्रव्यों का आहार करते हैं अथवा अवीचिद्रव्यों का ? गौतम ! नैरयिक जीव वीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं और अवीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि नैरयिक यावत् अवीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं ? गौतम ! जो नैरयिक एक प्रदेश न्यून द्रव्यों का आहार करते हैं, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-६ आहार | Hindi | 617 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जाहे णं भंते! सक्के देविंदे देवराया दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजिउकामे भवइ से कहमियाणिं पकरेति?
गोयमा! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया एगं महं नेमिपडिरूवगं विउव्वइ–एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिन्नि जोयणसयसहस्साइं जाव अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं। तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स उवरिं बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पन्नत्ते जाव मणीणं फासो।
तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स बहुमज्झदेसभागे, एत्थ णं महं एगं पासायवडेंसगं विउव्वइ–पंच जोयणसयाइं उड्ढं उच्चत्तेणं, अड्ढाइज्जाइं जोयणसयाइं विक्खंभेणं, अब्भुग्गय-मूसिय-पहसियमिव वण्णओ जाव पडिरूवं। तस्स णं पासायवडेंसगस्स Translated Sutra: भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र भोग्य मनोज्ञ दिव्य स्पर्शादि विषयभोगों को उपभोग करना चाहता है, तब वह किस प्रकार करता है ? गौतम ! उस समय देवेन्द्र देवराज शक्र, एक महान् चक्र के सदृश गोलाकार स्थान की विकुर्वणा करता है, जो लम्बाई – चौड़ाई में एक लाख योजन होता है। उसकी परिधि तीन लाख कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल होती | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-७ संसृष्ट | Hindi | 618 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव परिसा पडिगया। गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी चिर संसिट्ठोसि मे गोयमा! चिरसंथुओसि मे गोयमा! चिरपरिचिओसि मे गोयमा! चिरजुसिओसि मे गोयमा! चिरानुगओसि मे गोयमा! चिरानुवत्तीसि मे गोयमा! अनंतरं देवलोए अनंतरं माणुस्सए भवे, किं परं मरणा कायस्स भेदा इओ चुता दो वि तुल्ला एगट्ठा अविसेसमणाणत्ता भविस्सामो। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् परीषद् धर्मोपदेश श्रवण कर लौट गई। श्रमण भगवान महावीर ने कहा – गौतम ! तू मेरे साथ चिर – संश्लिष्ट है, हे गौतम ! तू मेरा चिर – संस्तृत है, तू मेरा चिर – परिचित भी है। गौतम ! तू मेरे साथ चिर – सेवित या चिरप्रीत है। चिरकाल से हे गौतम ! तू मेरा अनुगामी है। तू मेरे साथ चिरानुवृत्ति है, गौतम ! इससे पूर्व | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-७ संसृष्ट | Hindi | 619 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जहा णं भंते! वयं एयमट्ठं जाणामो-पासामो, तहा णं अनुत्तरोववाइया वि देवा एयमट्ठं जाणंति-पासंति?
हंता गोयमा! जहा णं वयं एयमट्ठं जाणामो-पासामो, तहा णं अनुत्तरोववाइया वि देवा एयमट्ठं जाणंति-पासंति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–वयं एयमट्ठं जाणामो-पासामो, तहा णं अनुत्तरोववाइया वि देवा एयमट्ठं जाणंति–पासंति?
गोयमा! अनुत्तरोववाइयाणं अनंताओ मनोदव्ववग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमन्ना-गयाओ भवंति। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–वयं एयमट्ठं जाणामो-पासामो, तहा णं अनुत्तरोव-वाइया वि देवा एयमट्ठं जाणंति–पासंति। Translated Sutra: भगवन् ! जिस प्रकार हम दोनों इस अर्थ को जानते – देखते हैं, क्या उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते – देखते हैं ? हाँ, गौतम ! हम दोनों के समान अनुत्तरौपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते – देखते हैं। भगवन् ! क्या कारण है कि जिस प्रकार हम दोनों इस बात को जानते – देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरौपपा – तिक देव भी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-७ संसृष्ट | Hindi | 620 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! तुल्लए पन्नत्ते?
गोयमा! छव्विहे तुल्लए पन्नत्ते, तं जहा–दव्वतुल्लए, खेत्ततुल्लए, कालतुल्लए, भवतुल्लए, भावतुल्लए, संठाणतुल्लए।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–दव्वतुल्लए-दव्वतुल्लए?
गोयमा! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दव्वओ तुल्ले, परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गल-वइरित्तस्स दव्वओ नो तुल्ले। दुपएसिए खंधे दुपएसियस्स खंधस्स दव्वओ तुल्ले, दुपएसिए खंधे दुपएसियवइरित्तस्स खंधस्स दव्वओ नो तुल्ले। एवं जाव दसपएसिए। तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपएसियस्स खंधस्स दव्वओ तुल्ले, तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपएसिय- वइरित्तस्स खंधस्स दव्वओ Translated Sutra: भगवन् ! तुल्य कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम छह प्रकार का यथा – द्रव्यतुल्य, क्षेत्रतुल्य, काल – तुल्य, भवतुल्य, भावतुल्य और संस्थानतुल्य। भगवन् ! ‘द्रव्यतुल्य’ द्रव्यतुल्य क्यों कहलाता है ? गौतम ! एक परमाणु – पुद्गल, दूसरे परमाणु – पुद्गल से द्रव्यतः तुल्य है, किन्तु परमाणु – पुद्गल से भिन्न दूसरे पदार्थों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-७ संसृष्ट | Hindi | 621 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भत्तपच्चक्खायए णं भंते! अनगारे मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने आहारमाहारेति, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति?
हंता गोयमा! भत्तपच्चक्खायए णं अनगारे मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने आहारमाहारेति, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–भत्तपच्चक्खायए णं अनगारे मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने आहारमाहारेति, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति?
गोयमा! भत्तपच्चक्खायए णं अनगारे मुच्छिए Translated Sutra: भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार क्या (पहले) मूर्च्छित यावत् अत्यन्त आसक्त होकर आहार ग्रहण करता है, इसके पश्चात् स्वाभाविक रूप से काल करता है और तदनन्तर अमूर्च्छित, अगृद्ध यावत् अनासक्त होकर आहार करता है ? हाँ, गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार पूर्वोक्त रूप से आहार करता है। भगवन् ! किस कारण | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-७ संसृष्ट | Hindi | 622 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए सालीण वा, वीहीण वा, गोधूमाण वा, जवाण वा, जवजवाण वा पक्काणं, परियाताणं, हरियाणं, हरियकंडाणं तिक्खेणं नवपज्जणएणं असिअएणं पडिसाहरिया-पडिसाहरिया पडिसंखिविया-पडिसंखिविया जाव इणामेव-इणामेव त्ति कट्टु सत्त लवे लुएज्जा, जदि णं गोयमा! तेसिं देवाणं एवतियं कालं आउए पहुप्पते तो णं ते देवा तेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झंता बुज्झंता मुच्चंता परिनिव्वायंता सव्वदुक्खाणं अंतं करेंता। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–लवसत्तमा Translated Sutra: भगवन् ! क्या लवसप्तम देव ‘लवसप्तम’ होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। भगवन् ! उन्हें ‘लवसप्तम’ देव क्यों कहते हैं ? गौतम ! जैसे कोई तरुण पुरुष यावत् शिल्पकला में निपुण एवं सिद्धहस्त हो, वह परिपक्व, काटने योग्य अवस्था को प्राप्त, पीले पड़े हुए तथा पीले जाल वाले, शालि, व्रीहि, गेहूँ, जौ, और जवजव की बिखरी हुई नालों को हाथ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-७ संसृष्ट | Hindi | 623 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! अनुत्तरोववाइया देवा, अनुत्तरोववाइया देवा?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अनुत्तरोववाइया देवा, अनुत्तरोववाइया देवा?
गोयमा! अनुत्तरोववाइयाणं देवाणं अनुत्तरा सद्दा, अनुत्तरा रूवा, अनुत्तरा गंधा, अनुत्तरा रसा, अनुत्तरा फासा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–अनुत्तरोववाइया देवा, अनुत्तरोववाइया देवा।
अनुत्तरोववाइया णं भंते! देवा केवतिएणं कम्मावसेसेनं अनुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववन्ना?
गोयमा! जावतियं छट्ठभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतिएणं कम्मावसेसेनं अनुत्तरोव-वाइयदेवत्ताए उववन्ना।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! क्या अनुत्तरौपपातिक देव, अनुत्तरौपपातिक होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। भगवन् ! वे अनुत्त – रौपपातिक देव क्यों कहलाते हैं ? गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को अनुत्तर शब्द, यावत् – अनुत्तर स्पर्श प्राप्त होते हैं, इस कारण, हे गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को अनुत्तरौपपातिक देव कहते हैं। भगवन् ! कितने कर्म | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-८ अंतर | Hindi | 624 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए सक्करप्पभाए य पुढवीए केवतिए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते?
गोयमा! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते।
सक्करप्पभाए णं भंते! पुढवीए बालुयप्पभाए य पुढवीए केवतिए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते? एवं चेव। एवं जाव तमाए अहेसत्तमाए य।
अहेसत्तमाए णं भंते! पुढवीए अलोगस्स य केवतिए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते?
गोयमा! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए जोतिसस्स य केवतिए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते?
गोयमा! सत्तनउए जोयणसए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते।
जोतिसस्स णं भंते! सोहम्मीसाणाण य कप्पाणं केवतिए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते?
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी और शर्कराप्रभा पृथ्वी का कितना अबाधा – अन्तर है ? गौतम ! असंख्यात हजार योजन का है। भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी और बालुकाप्रभापृथ्वी का कितना अबाधा – अन्तर है ? गौतम ! पूर्ववत्। इसी प्रकार तमःप्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना। भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी और अलोक का कितना अबाधा – अन्तर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-८ अंतर | Hindi | 625 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एस णं भंते! सालरुक्खे उण्हाभिहए तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति? कहिं उववज्जिहिति?
गोयमा! इहेव रायगिहे नगरे सालरुक्खत्ताए पच्चायाहिती। से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइय-सक्कारिय-सम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहिय-पाडिहेरे लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सइ।
से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गमिहिति? कहिं उववज्जिहिति?
गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति।
एस णं भंते! साललट्ठिया उण्हाभिहया तण्हाभिहया दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति? कहिं उववज्जिहिति?
गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे दीवे Translated Sutra: भगवन् ! सूर्य की गर्मी से पीड़ित, तृषा से व्याकुल, दावानल की ज्वाला से झुलसा हुआ यह शालवृक्ष काल मास में काल करके कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! यह शालवृक्ष, इसी राजगृहनगर में पुनः शालवृक्ष के रूपमें उत्पन्न होगा। वहाँ पर अर्चित, वन्दित, पूजित, सत्कृत, सम्मानित और दिव्य, सत्य, सत्यावपात, सन्निहित – प्रातिहार्य | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-८ अंतर | Hindi | 626 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एस णं भंते! उंबरलट्ठिया उण्हाभिहया तण्हाभिहया दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति? कहिं उववज्जिहिति?
गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पाडलिपुत्ते नगरे पाडलिरुक्खत्ताए पच्चायाहिति। से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइय-सक्कारिय-सम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइय-महिए यावि भविस्सइ।
से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गमिहिति? कहिं उववज्जिहिति?
गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति।
तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासिसया गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासंमि गंगाए Translated Sutra: भगवन् ! दृश्यमान सूर्य की उष्णता से संतप्त, तृषा से पीड़ित और दावानल की ज्वाला से प्रज्वलित यह उदुम्बरयष्टिका कालमास में काल करके कहाँ जाएगी ? कहाँ उत्पन्न होगी ? गौतम ! इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में पाटलिपुत्र नामक नगर में पाटली वृक्ष के रूप में पुनः उत्पन्न होगी। वह वहाँ अर्चित, वन्दित यावत् पूजनीय होगी। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-८ अंतर | Hindi | 627 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बहुजने णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ–एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ। से कहमेयं भंते?
एवं खलु गोयमा! जं णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ– एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ, सच्चे णं एसमट्ठे अहंपि णं गोयमा! एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पन्नवेमि एवं परूवेमि–एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, Translated Sutra: भगवन् ! बहुत – से लोग परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर नगर में सौ घरों में भोजन करता है तथा रहता है, (इत्यादि प्रश्न)। हाँ, गौतम ! यह सत्य है; इत्यादि औपपातिकसूत्रमें कथित अम्बड – सम्बन्धी वक्तव्यता, यावत् – महर्द्धिक दृढप्रतिज्ञ होकर सर्व दुःख | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-८ अंतर | Hindi | 628 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! अव्वाबाहा देवा, अव्वाबाहा देवा?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अव्वाबाहा देवा, अव्वाबाहा देवा?
गोयमा! पभू णं एगमेगे अव्वाबाहे देवे एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसि अच्छिपत्तंसि दिव्वं देविड्ढिं, दिव्वं देवज्जुतिं, दिव्वं देवानुभागं, दिव्वं बत्तीसतिविहं नट्ठविहिं उवदंसेत्तए, नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएइ, छविच्छेयं वा करेइ, एसुहुमं च णं उवदंसेज्जा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–अव्वाबाहा देवा, अव्वाबाहा देवा। Translated Sutra: भगवन् ! किसी को बाधा – पीड़ा नहीं पहुँचाने वाले अव्याबाध देव हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! अव्या – बाध देव, अव्याबाध देव किस कारण से कहे जाते हैं ? गौतम ! प्रत्येक अव्याबाध देव, प्रत्येक पुरुष की, प्रत्येक आँख की पलक पर दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव और बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि दिखलाने |