Welcome to the Jain Elibrary: Worlds largest Free Library of JAIN Books, Manuscript, Scriptures, Aagam, Literature, Seminar, Memorabilia, Dictionary, Magazines & Articles
Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-६ |
उद्देशक-५ तमस्काय | Hindi | 291 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किमियं भंते! तमुक्काए त्ति पव्वुच्चति? किं पुढवी तमुक्काए त्ति पव्वच्चति? आऊ तमुक्काए त्ति पव्वुच्चति?
गोयमा! नो पुढवि तमुक्काए त्ति पव्वुच्चति, आऊ तमुक्काए त्ति पव्वुच्चति।
से केणट्ठेणं? गोयमा! पुढविकाए णं अत्थेगइए सुभे देसं पकासेइ, अत्थेगइए देसं नो पकासेइ। से तेणट्ठेणं।
तमुक्काए णं भंते! कहिं समुट्ठिए? कहिं संनिट्ठिए?
गोयमा! जंबूदीवस्स दीवस्स बहिया तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे वीईवइत्ता, अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुद्दं बायालीसं जोयणसहस्साणि ओगाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताओ एगपएसियाए सेढीए–एत्थ णं तमुक्काए समुट्ठिए।
सत्तरस-एक्कवीसे Translated Sutra: भगवन् ! ‘तमस्काय’ किसे कहा जाता है ? क्या ‘तमस्काय’ पृथ्वी को कहते हैं या पानी को ? गौतम ! पृथ्वी तमस्काय नहीं कहलाती, किन्तु पानी ‘तमस्काय’ कहलाता है। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा है ? गौतम ! कोई पृथ्वीकाय ऐसा शुभ है, जो देश को प्रकाशित करता है और कोई पृथ्वीकाय ऐसा है, जो देश को प्रकाशित नहीं करता इस कारण से पृथ्वी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-६ |
उद्देशक-७ शाली | Hindi | 303 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगमेगस्स णं भंते! मुहुत्तस्स केवतिया ऊसासद्धा वियाहिया?
गोयमा! असंखेज्जाणं समयाणं समुदय-समिति-समागमेणं सा एगा आवलिय त्ति पवुच्चइ, संखेज्जा आवलिया ऊसासो, संखेज्जा आवलिया निस्सासो– Translated Sutra: भगवन् ! एक – एक मुहूर्त्त के कितने उच्छ्वास कहे गये हैं ? गौतम ! असंख्येय समयों के समुदाय की समिति के समागम से अर्थात् असंख्यात समय मिलकर जितना काल होता है, उसे एक ‘आवलिका’ कहते हैं। संख्येय आवलिका का एक ‘उच्छ्वास’ होता है और संख्येय आवलिका का एक ‘निःश्वास’ होता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-६ |
उद्देशक-७ शाली | Hindi | 309 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदय-समिति-समागमेणं सा एगा उस्सण्हसण्हिया इ वा, सण्हसण्हिया इ वा, उड्ढरेणू इ वा, तसरेणू इ वा, रहरेणू इ वा, वालग्गे इ वा, लिक्खा इ वा, जूया इ वा, जवमज्झे इ वा, अंगुले इ वा।
अट्ठ उस्सण्हसण्हियाओ सा एगा सण्हसण्हिया, अट्ठ सण्हसण्हियाओ सा एगा उड्ढरेणू, अट्ठ उड्ढरेणूओ सा एगा तसरेणू, अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, अट्ठ रहरेणूओ से एगे देवकुरु-उत्तरकुरुगाणं मनुस्साणं वालग्गे; एवं हरिवास-रम्मग-हेमवय-एरन्नवयाणं, पुव्वविदेहाणं मनुस्साणं अट्ठ वालग्गा सा एगा लिक्खा, अट्ठ लिक्खाओ सा एगा जूया, अट्ठ जूयाओ से एगे जवमज्झे, अट्ठ जवमज्झा से एगे अंगुले।
एएणं अंगुलपमाणेणं Translated Sutra: ऐसे अनन्त परमाणुपुद्गलों के समुदाय की समितियों के समागम से एक उच्छ्लक्ष्णलक्ष्णिका, श्लक्ष्ण – श्लक्ष्णिका, ऊर्ध्वरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु, बालाग्र, लिक्षा, यूका, यवमध्य और अंगुल होता है। आठ उच्छ्लक्ष्ण – श्लक्ष्णिका के मिलने से एक श्लक्ष्ण – श्लक्ष्णिका होती है। आठ श्लक्ष्ण – श्लक्ष्णिका के मिलने से | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१ आहार | Hindi | 337 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! खेत्तातिक्कंतस्स, कालातिक्कंतस्स, मग्गातिक्कंतस्स, पमाणातिक्कंतस्स पान-भोयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
गोयमा! जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असन-पान-खाइम-साइमं अणुग्गए सूरिए पडिग्गाहेत्ता उग्गए सूरिए आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा! खेत्तातिक्कंते पान-भोयणे।
जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असनं-पान-खाइम-साइमं पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्ता आहारमाहारेइ एस णं गोयमा! कालातिक्कंते पान-भोयणे।
जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासु-एसणिज्जं असन-पान-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता परं अद्धजोयणमेराए वीइक्कमावेत्ता आहारमाहारेइ, Translated Sutra: भगवन् ! क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पान – भोजन का क्या अर्थ है ? गौतम ! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी, प्रासुक और एषणीय अशन – पान – खादिम – स्वादिमरूप चतुर्विध आहार को सूर्योदय से पूर्व ग्रहण करके सूर्योदय के पश्चात् उस आहार को करते हैं, तो हे गौतम ! यह क्षेत्रातिक्रान्त | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-५ पक्षी | Hindi | 353 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! कतिविहे जोणीसंगहे पन्नत्ते?
गोयमा! तिविहे जोणीसंगहे पन्नत्ते, तं जहा–अंडया, पोयया, संमुच्छिमा। एवं जहा जीवाभिगमे जाव नो चेव णं ते विमाने वीतीवएज्जा, एमहालया णं गोयमा! ते विमाना पन्नत्ता।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् भगवान महावीर स्वामी से पूछा – हे भगवन् ! खेचर पंचेन्द्रियतिर्यंच जीवों का योनिसंग्रह कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का। अण्डज, पोतज और सम्मूर्च्छिम। इस प्रकार जीवा – जीवाभिगमसूत्र में कहे अनुसार यावत् ‘उन विमानों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, हे गौतम ! वे विमान इतने महान् कहे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-६ आयु | Hindi | 360 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं भंते! समाए भरहे वासे मनुयाणं केरिसए आगारभाव-पडोयारे भविस्सइ?
गोयमा! मनुया भविस्संति दुरूवा दुवण्णा दुग्गंधा दुरसा दुफासा अनिट्ठा अकंता अप्पिया असुभा अमणुन्ना अमणामा हीनस्सरा दीनस्सरा अणिट्ठस्सरा अकंतस्सरा अप्पियस्सरा असुभस्सरा अमणुन्नस्सरा अमणामस्सरा अनादेज्जवयणपच्चायाया, निल्लज्जा, कूड-कवड-कलह-वह-बंध-वेरनिरया, मज्जायातिक्कमप्पहाणा, अकज्जनिच्चुज्जता, गुरुनियोग-विनयरहिया य, विकल-रूवा, परूढनह-केस-मंसु-रोमा, काला, खर-फरुस-ज्झामवण्णा, फुट्टसिरा, कविलपलियकेसा, बहुण्हारु- संपिणद्ध-दुद्दंसणिज्जरूवा, संकुडितवलीतरंगपरिवेढियंगमंगा, जरापरिणतव्व थेरगनरा, Translated Sutra: भगवन् ! उस समय भारतवर्ष की भूमि का आकार और भावों का आविर्भाव किस प्रकार का होगा ? गौतम ! उस समय इस भरतक्षेत्र की भूमि अंगारभूत, मुर्मूरभूत, भस्मीभूत, तपे हुए लोहे के कड़ाह के समान, तप्तप्राय अग्नि के समान, बहुत धूल वाली, बहुत रज वाली, बहुत कीचड़ वाली, बहुत शैवाल वाली, चलने जितने बहुत कीचड़ वाली होगी, जिस पर पृथ्वीस्थित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 377 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहा–कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, नम्मुदए, अन्नवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहावई।
तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निविट्ठाणं सन्निसन्नाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं। तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ गुणशीलक नामक चैत्य था यावत् (एक) पृथ्वी शिलापट्टक था। उस गुणशीलक चैत्य के पास थोड़ी दूर पर बहुत से अन्यतीर्थि रहते थे, यथा – कालोदयी, शैलोदाई शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्नपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति। किसी समय सब अन्यतीर्थिक एक स्थान पर आए, एकत्रित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-७ |
उद्देशक-१० अन्यतीर्थिक | Hindi | 378 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नगराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे, गुणसिलए चेइए। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ जाव समोसढे, परिसा जाव पडिगया।
तए णं से कालोदाई अनगारे अन्नया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
अत्थि णं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति?
कालोदाई! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं Translated Sutra: किसी समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करते हुए विचरण करने लगे। उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। गुणशीलक नामक चैत्य था। किसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी पुनः वहाँ पधारे यावत् उनका समवसरण लगा। यावत् परीषद् धर्मोपदेश सूनकर लौट गई। तदनन्तर अन्य | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-५ आजीविक | Hindi | 403 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आजीवियसमयस्स णं अयमट्ठे–अक्खीणपडिभोइणो सव्वे सत्ता; से हंता, छेत्ता, भेत्ता, लुंपित्ता, विलुंपित्ता, उद्दवइत्ता आहारमाहारेंति।
तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति, तं जहा–१. ताले २. तालपलंबे ३. उव्विहे ४. संविहे ५. अवविहे ६. उदए ७. नामुदए ८. णम्मुदए ९. अणुवालए १. संखवालए ११. अयंपुले १२. कायरए – इच्चेते दुवालस आजीविओवासगा अरहंतदेवतागा, अम्मापिउसुस्सूसगा, पंचफल-पडिक्कंता, तं जहा–उंबरेहिं, वडेहिं, बोरेहिं, सतरेहिं, पिलक्खूहिं पलंडु-ल्हसुणकंदमूलविवज्जगा, अनिल्लंछिएहिं अनक्कभिन्नेहिं गोणेहि तसपाणविवज्जिएहिं छेत्तेहिं वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति।
एए वि ताव एवं Translated Sutra: आजीविक के सिद्धान्त का यह अर्थ है कि समस्त जीव अक्षीणपरिभोजी होते हैं। इसलिए वे हनन करके, काटकर, भेदन करके, कतर कर, उतार कर और विनष्ट करके खाते हैं। ऐसी स्थिति (संसार के समस्त जीव असंयत और हिंसादिदोषपरायण हैं) में आजीविक मत में ये बारह आजीविकोपासक हैं – ताल, तालप्रलम्ब, उद्विध, संविध, अवविध, उदय, नामोदय, नर्मोदय, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-६ प्रासुक आहारादि | Hindi | 406 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए, अनुप्पविट्ठं केइ दोहिं पिंडेहिं उवनिमंतेज्जा–एगं आउसो! अप्पणा भुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि। से य तं पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से अनुगवेसियव्वा सिया। जत्थेव अनुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तत्थेव अनुप्पदायव्वे सिया, नो चेव णं अनुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अन्नेसिं दावए, एगंते अनावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमज्जित्ता परिट्ठावेयव्वे सिया।
निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अनुप्पविट्ठं केइ तिहिं पिंडेहिं उवनिमंतेज्जा–एगं आउसो! अप्पणा भुंजाहि, दो थेराणं दलयाहि। से य ते पडिग्गाहेज्जा, Translated Sutra: गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ दो पिण्ड ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे – ‘आयुष्मन् श्रमण ! इन दो पिण्डों में से एक पिण्ड आप स्वयं खाना और दूसरा पिण्ड स्थविर मुनियों को देना। वह निर्ग्रन्थ श्रमण उन दोनों पिण्डों को ग्रहण कर ले और स्थविरों की गवेषणा करे। गवेषणा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-८ प्रत्यनीक | Hindi | 421 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति? मज्झंतियमुहुत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति? अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति?
हंता गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, मज्झंतियमुहुत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति, अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति।
जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि, मज्झंतियमुहुत्तंसि य, अत्थमणमुहुत्तंसि य सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं?
हंता गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमण मुहुत्तंसि, मज्झंतियमुहुत्तंसि य, अत्थमणमुहुत्तंसि य सव्वत्थ समाउच्चत्तेणं।
जइ णं भंते! Translated Sutra: भगवन् ! जम्बूद्वीप में क्या दो सूर्य, उदय और अस्त के मुहूर्त्त में दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं, मध्याह्न के मुहूर्त्तमें निकट में होते हुए दूर दिखाई देते हैं? हाँ, गौतम ! जम्बूद्वीपमें दो सूर्य, उदय के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं, इत्यादि। भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, उदय के समय में, मध्याह्न | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३२ गांगेय | Hindi | 458 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] संतरं भंते! नेरइया उववज्जंति निरंतरं नेरइया उववज्जंति संतरं असुरकुमारा उववज्जंति निरंतरं असुरकुमारा उव-वज्जंति जाव संतरं वेमाणिया उववज्जंति निरंतरं वेमाणिया उववज्जंति?
संतरं नेरइया उव्वट्टंति निरंतरं नेरइया उव्वट्टंति जाव संतरं वाणमंतरा उव्वट्टंति निरंतरं वाणमंतरा उव्वट्टंति? संतरं जोइसिया चयंति निरंतरं जोइसिया चयंति संतरं वेमाणिया चयंति निरंतरं वेमाणिया चयंति?
गंगेया! संतरं पि नेरइया उववज्जंति निरंतरं पि नेरइया उववज्जंति जाव संतरं पि थणियकुमारा उववज्जंति निरंतरं पि थणि-यकुमारा उववज्जंति, नो संतरं पुढविक्काइया उववज्जंति निरंतरं पुढविक्काइया Translated Sutra: भगवन् ! नैरयिक सान्तर उत्पन्न होते है या निरन्तर उत्पन्न होते है ? असुरकुमार सान्तर उत्पन्न होते है अथवा निरन्तर ? यावत् वैमानिक देव सान्तर उत्पन्न होते है या निरन्तर उत्पन्न होते है ? (इसी तरह) नैरयिक का उद्वर्तन सान्तर होता है अथवा निरन्तर ? यावत् वाणव्यन्तर देवो का उद्वर्त्तन सान्तर होता है या निरन्तर ? ज्योतिष्क | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 460 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं माहणकुंडग्गामे नयरे होत्था–वण्णओ। बहुसालए चेइए–वण्णओ। तत्थ णं माहणकुंडग्गामे नयरे उसभदत्ते नामं माहणे परिवसइ–अड्ढे दित्ते वित्ते जाव वहुजणस्स अपरिभूए रिव्वेद-जजुव्वेद-सामवेद-अथव्वणवेद-इतिहासपंचमाणं निघंटुछट्ठाणं–चउण्हं वेदाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं सारए धारए पारए सडंगवी सट्ठितंतविसारए, संखाणे सिक्खा कप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोतिसामयणे, अन्नेसु य बहूसु बंभण्णएसु नयेसु सुपरिनिट्ठिए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे उवलद्धपुण्णपावे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तस्स णं उसभदत्तस्स माहणस्स देवानंदा नामं Translated Sutra: उस काल और समय में ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर था। वहाँ बहुशाल नामक चैत्य था। उस ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर में ऋषभदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था। वह आढ्य, दीप्त, प्रसिद्ध, यावत् अपरिभूत था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वणवेद में निपुण था। स्कन्दक तपास की तरह वह भी ब्राह्मणों के अन्य बहुत से नयों में निष्णात | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 462 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तस्स माहणस्स देवानंदाए माहणीए तीसे य महतिमहालियाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अनेगसयाए अनेगसयवंदाए अनेगसयवंद-परियालाए ओहबले अइबले महब्बले अपरिमिय-बल-वीरिय-तेय-माहप्प-कंति-जुत्ते सारय-नवत्थणिय-महुरगंभीर-कोंचनिग्घोस-दुंदुभिस्सरे उरे वित्थडाए कंठे वट्टियाए सिरे समाइण्णाए अगरलाए अमम्मणाए सुव्वत्तक्खर-सण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयणणीहारिणा सरेणं अद्ध-मागहाए भासाए भासइ–धम्मं परिकहेइ जाव परिसा पडिगया।
तए णं से उसभदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठे Translated Sutra: तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने ऋषभदत्तब्राह्मण और देवानन्दा तथ उस अत्यन्त बड़ी ऋषिपरिषद् को धर्मकथा कही; यावत् परिषद् वापर चली गई। इसके पश्चात वह ऋषभदत्त ब्राह्मण, श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म – श्रमण कर और उसे हृदय में धारण करके हर्षित और सन्तुष्ट होकर खड़ा हुआ। उसने श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 463 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स पच्चत्थिमे णं एत्थ णं खत्तियकुंडग्गामे नामं नयरे होत्था–वण्णओ। तत्थ णं खत्तियकुंडग्गामे नयरे जमाली नामं खत्तियकुमारे परिवसइ–अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभूते, उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं बत्तीसतिबद्धेहिं णाडएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवनच्चिज्जमाणे-उवनच्चिज्जमाणे, उवगिज्जमाणे-उवगिज्जमाणे, उव-लालिज्जमाणे-उवलालिज्जमाणे, पाउस-वासारत्त-सरद-हेमंत-वसंत-गिम्ह-पज्जंते छप्पि उऊ जहाविभवेणं माणेमाणे, कालं गाले-माणे, इट्ठे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणे विहरइ।
तए णं खत्तियकुण्डग्गामे Translated Sutra: उस ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर से पश्चिम दिशा में क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर था। (वर्णन) उस क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर में जमालि नाम का क्षत्रियकुमार रहता था। वह आढ्य, दीप्त यावत् अपरिभूत था। वह जिसमें मृदंग वाद्य की स्पष्ट ध्वनि हो रही थी, बत्तीस प्रकार के नाटको के अभिनय और नृत्य हो रहे थे, अनेक प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 464 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरेंट मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महयाभडचडगर पहकरवंदपरिक्खित्ते, जेणेव खत्तियकुंडग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्झंमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता रहं Translated Sutra: श्रमण भगवान् महावीर के पास से धमृ सुन कर और उसे हृदयंगम करके हर्षित और सन्तुष्ट क्षत्रियकुमार जमालि यावत् उठा और खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की यावत् वन्दन – नमन किया और कहा – ‘‘भगवन् ! मैं र्निग्रन्थ – प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ – प्रवचन पर प्रतीत | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३३ कुंडग्राम | Hindi | 465 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! खत्तियकुंडग्गामं नयरं सब्भिंतरबाहिरियं आसिय-सम्मज्जिओवलित्तं जहा ओववाइए जाव सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। ते वि तहेव पच्चप्पिणंति।
तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोच्चं पि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं महग्घ महरिहं विपुलं निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तहेव जाव उवट्ठवेंति।
तए Translated Sutra: तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा – शीघ्र ही क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के अन्दर और बाहर पानी का छिड़काव करो, झाड़ कर जमीन की सफाई करके उसे लिपाओ, इत्यादि औपपातिक सूत्र अनुसार यावत् कार्य करके उन कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञा वापस सौंपी। क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने दुबारा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-३ आत्मऋद्धि | Hindi | 483 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आसस्स णं भंते! धावमाणस्स किं खु-खु त्ति करेति?
गोयमा! आसस्स णं धावमाणस्स हिययस्स य जगस्स य अंतरा एत्थ णं कक्कडए नामं वाए संमुच्छइ, जेणं आसस्स धावमाणस्स खु-खु त्ति करेति। Translated Sutra: भगवान् ! दौड़ता हुआ घोड़ा ‘खु – खु’ शब्द क्यों करता है ? गौतम ! जब घोड़ा दौड़ता है तो उसके हृदय और यकृत् के बीच में कर्कट नामक वायु उत्पन्न होती है, इससे दौड़ता हुआ घोड़ा ‘खु – खु’ शब्द करता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१० |
उद्देशक-४ श्यामहस्ती | Hindi | 487 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नयरे होत्था–वण्णओ। दूतिपलासए चेइए। सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे जाव उड्ढंजाणू अहोसिरे ज्झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सामहत्थी नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे ज्झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं से सामहत्थी अनगारे जायसड्ढे जाव उट्ठाए Translated Sutra: उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था (वर्णन) वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था। वहाँ श्रमण भगवान महावीर का समवसरण हुआ यावत् परीषद् आई और वापस लौट गई। उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान महावीरस्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे। वे ऊर्ध्वजानु यावत् विचरण करते थे। उस काल और उस समय में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१ उत्पल | Hindi | 495 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उववाओ परिमाणं अवहारुच्चत्त बंध वेदे य।
उदए उदीरणाए लेसा दिट्ठी य नाणे य ॥ Translated Sutra: १. उपपात, २. परिमाण, ३. अपहार, ४. ऊंचाई (अवगाहना), ५. बन्धक, ६. वेद, ७. उदय, ८. उदीरणा, ९. लेश्या, १०. दृष्टि, ११. ज्ञान। तथा – १२. योग, १३. उपयोग, १४. वर्ण – रसादि, १५. उच्छ्वास, १६. आहार, १७. विरति, १८. क्रिया, १९. बन्धक, २०. संज्ञा, २१. कषाय, २२. स्त्रीवेदादि, २३. बन्ध। २४. संज्ञी, २५. इन्द्रिय, २६. अनुबन्ध, २७. संवेध, २८. आहार, २९. स्थिति, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१ उत्पल | Hindi | 498 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–उप्पले णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अनेगजीवे?
गोयमा! एगजीवे, नो अनेगजीवे। तेण परं जे अन्ने जीवा उववज्जंति ते णं नो एगजीवा अनेगजीवा।
ते णं भंते! जीवा कतोहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? मनुस्सेहिंतो उववज्जंति? देवेहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! नो नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति, मनुस्सेहिंतो उववज्जंति देवेहिंतो वि उववज्जंति। एवं उववाओ भाणियव्वो जहा वक्कंतीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसानेति।
ते णं भंते! जीवा एगसमए णं केवइया उववज्जंति?
गोयमा! जहन्नेणं Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! एक पत्र वाला उत्पल एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला ? गौतम ! एक जीव वाला है, अनेक जीव वाला नहीं। उसके उपरांत जब उस उत्पल में दूसरे जीव उत्पन्न होते हैं, तब वह एक जीव वाला नहीं रहकर अनेक जीव वाला बन जाता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-९ शिवराजर्षि | Hindi | 506 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं हत्थिणापुरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे, एत्थ णं सहसंबवने नामं उज्जाणे होत्था–सव्वोउय-पुप्फ-फलसमिद्धे रम्मे नंदनवनसन्निभप्पगासे सुहसीतलच्छाए मनोरमे सादुप्फले अकंटए, पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे।
तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे सिवे नामं राया होत्था–महयाहिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे–वण्णओ। तस्स णं सिवस्स रन्नो धारिणी नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया–वण्णओ। तस्स णं सिवस्स रन्नो पुत्ते धारिणीए अत्तए सिवभद्दे नामं कुमारे होत्था–सुकुमालपाणिपाए, जहा सूरियकंते जाव रज्जं Translated Sutra: उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नाम का नगर था। उस हस्तिनापुर नगर के बाहर ईशानकोण में सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। वह सभी ऋतुओं के पुष्पों और फलों से समृद्ध था। रम्य था, नन्दनवन के समान सुशोभित था। उसकी छाया सुखद और शीतल थी। वह मनोरम, स्वादिष्ट फलयुक्त, कण्टकरहित प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् प्रतिरूप | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-९ शिवराजर्षि | Hindi | 508 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिण-संकाइयगं गिण्हइ, गिण्हित्ता दाहिणगं दिसं पोक्खेइ, दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं, सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ।
तए णं से सिवे रायरिसी तच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
तए णं से सिवे रायरिसि तच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव Translated Sutra: फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु (बलिपात्र) में बलिद्रव्य लेकर बलिवैश्वदेव को अर्पण किया और तब अतिथि की पूजा की और उसके बाद शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया। तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने दूसरी बेला अंगीकार किया और दूसरे बेले के पारणे के दिन शिवराजर्षि आतापनाभूमि से नीचे ऊतरे, वल्कल के वस्त्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 514 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। दूतिपलासे चेइए–वण्णओ जाव पुढविसि-लापट्टओ। तत्थ णं वाणियग्गामे नगरे सुदंसणे नामं सेट्ठी परिवसइ–अड्ढे जाव बहुजणस्स अपरिभूए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ।
तए णं से सुदंसणे सेट्ठी इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे हट्ठतुट्ठे ण्हाए कय बलिकम्मे कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं पायविहारचारेणं महयापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते वाणियग्गामं Translated Sutra: उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था। यावत् उसमें एक पृथ्वीशिलापट्ट था। उस वाणिज्यग्राम नगर में सुदर्शन नामक श्रेष्ठी रहता था। वह आढ्य यावत् अपरिभूत था। वह जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता, श्रमणोपासक होकर यावत् विचरण करता था। महावीर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 516 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अहाउनिव्वत्तिकाले?
अहाउनिव्वत्तिकाले–जण्णं जेणं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मनुस्सेण वा देवेण वा अहाउयं निव्वत्तियं। सेत्तं अहाउ-निव्वत्तिकाले।
से किं तं मरणकाले?
मरणकाले–जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ। सेत्तं मरणकाले।
से किं तं अद्धाकाले?
अद्धाकाले–से णं समयट्ठयाए आवलियट्ठयाए जाव उस्सप्पिणीट्ठयाए। एस णं सुदंसणा! अद्धा दोहाराछेदेणं छिज्जमाणी जाहे विभागं नो हव्वमागच्छइ, सेत्तं समए समयट्ठयाए। असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति पवु-च्चइ। संखेज्जाओ आवलियाओ उस्साओ जहा सालिउद्देसए जाव–
एएसि णं पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया Translated Sutra: भगवन् ! वह यथार्निवृत्तिकाल क्या है ? (सुदर्शन !) जिस किसी नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य अथवा देव ने स्वयं जिस गति का और जैसा भी आयुष्य बाँधा है, उसी प्रकार उसका पालन करना – भोगना, ‘यथायुर्निवृ – त्तिकाल’ कहलाता है। भगवन् ! मरणकाल क्या है ? सुदर्शन ! शरीर से जीव का अथवा जीव से शरीर का (पृथक् होने का काल) मरणकाल है, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 518 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! एएसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थि णं एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
एवं खलु सुदंसणा! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। सहसंबवने उज्जाने–वण्णओ। तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था–वण्णओ। तस्स णं बलस्स रन्नो पभावई नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणी विहरइ।
तए णं सा पभावई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अब्भिंतरओ सचित्तकम्मे, बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मट्ठे विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले मणिरयणपणासियंधयारे Translated Sutra: भगवन् ! क्या इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? हाँ, सुदर्शन ! होता है। भगवन् ऐसा किस कारण से कहते हैं ? हे सुदर्शन ! उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था। वहाँ सहस्रा – म्रवन नामक उद्यान था। उस हस्तिनापुर में ‘बल’ नामक राजा था। उस बल राजा की प्रभावती नामकी देवी (पटरानी) थी। उसके हाथ – पैर सुकुमाल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 520 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वासुदेवमायरो वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु सत्त महा-
सुविणे पासित्ता णं पडिबु-ज्झंति। बलदेवमायरो बलदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति। मंडलियमायरो मंडलियंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसि णं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुज्झंति। इमे य णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए एगे महासुविणे दिट्ठे, तं ओराले णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिट्ठे जाव आरोग्ग-तुट्ठिदीहाउ कल्लाण-मंगल्लकारए णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए Translated Sutra: ‘हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने इनमें से एक महास्वप्न देखा है। अतः हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने उदार स्वप्न देखा है, सचमुच प्रभावती देवी ने यावत् आरोग्य, तुष्टि यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है। हे देवानुप्रिय ! इस स्वप्न के फलरूप आपको अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ एवं राज्यलाभ होगा।’ अतः हे देवानुप्रिय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 524 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तुमे सुदंसणा! उम्मुक्कबालभावेणं विण्णय-परिणयमेत्तेणं जोव्वणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलिपन्नत्ते धम्मे निसंते, सेवि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। तं सुट्ठु णं तुमं सुदंसणा! इदाणिं पि करेंसि। से तेणट्ठेणं सुदंसणा! एवं वुच्चइ– अत्थि णं एतेसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा।
तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठं सोच्चा निसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णी पुव्वे जातीसरणे समुप्पन्ने, एयमट्ठं Translated Sutra: तत्पश्चात् हे सुदर्शन ! बालभाव से मुक्त होकर तुम विज्ञ और परिणतवय वाले हुए, यौवन अवस्था प्राप्त होने पर तुमने यथारूप स्थविरों से केवलि – प्ररूपित धर्म सूना। वह धर्म तुम्हें ईच्छित प्रतीच्छित और रुचिकर हुआ। हे सुदर्शन ! इस समय भी तुम जो कर रहे हो, अच्छा कर रहे हो। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि इन पल्योपम और सागरोपम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 526 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ। तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा, हट्ठतुट्ठा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! समणे भगवं महावीरे जाव आलभियाए नगरीए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तं महप्फलं खलु भो देवानुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमन-वंदन-नमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणाए? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमगं पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए? तं गच्छामो णं देवानुप्पिया! समणं भगवं महावीरं Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर यावत् (आलभिका नगरी में) पधारे, यावत् परीषद् ने उनकी पर्युपासना की। तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों के समान आलभिका नगरी के वे श्रमणोपासक इस बात को सूनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए, यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगे। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को तथा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 528 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ आलभियाओ नगरीओ संखवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्था–वण्णओ। तत्थ णं संखवने नामं चेइए होत्था–वण्णओ। तस्स णं संखवणस्स चेइयस्स अदूरसामंते पोग्गले नामं परिव्वायए–रिउव्वेद-जजुव्वेद जाव बंभण्णएसु परिव्वायएसु य नएसु सुपरिनिट्ठिए छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ
तए णं तस्स पोग्गलस्स परिव्वायगस्स छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे Translated Sutra: पश्चात् किसी समय श्रमण भगवान महावीर भी आलभिका नगरी के शंखवन उद्यान से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। उस काल और उस समय में आलभिका नामकी नगरी थी। वहाँ शंखवन नामक उद्यान था। उस शंखवन उद्यान के न अति दूर और न अति निकट मुद्गल परिव्राजक रहता था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि शास्त्रों यावत् बहुत – से ब्राह्मण | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-१ शंख | Hindi | 531 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से संखे समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी–तुब्भे णं देवानुप्पिया! विपुलं असनं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेह। तए णं अम्हे तं विपुलं असनं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणा विस्साएमाणा परिभाएमाणा परिभुंजेमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो।
तए णं ते समणोवासगा संखस्स समणोवासगस्स एयमट्ठं विनएणं पडिसुणेंति।
तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–नो खलु मे सेयं तं विपुलं असनं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणस्स विस्साएमाणस्स परिभाएमाणस्स परिभुंजेमाणस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, सेयं Translated Sutra: उस शंख श्रमणोपासक ने दूसरे श्रमणोपासकों से कहा – देवानुप्रियो ! तुम विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराओ। फिर हम उस प्रचुर अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करते हुए, विस्वादन करते हुए, एक दूसरे को देते हुए भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध का अनुपालन करते हुए अहोरात्र – यापन करेंगे। इस पर उन श्रमणोपासकों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-२ जयंति | Hindi | 534 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबी नामं नगरी होत्था–वण्णओ। चंदोतरणे चेइए–वण्णओ। तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रन्नो पोत्ते, सयाणीस्स रन्नो पुत्ते, चेडगस्स रन्नो नत्तुए, मिगावतीए देवीए अत्तए, जयंतीए समणोवासि-याए भत्तिज्जए उदयने नामं राया होत्था–वण्णओ। तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रन्नो सुण्हा, सयाणीस्स रन्नो भज्जा, चेडगस्स रन्नो धूया, उदयनस्स रन्नो माया, जयंतीए समणोवासियाए भाउज्जा मिगावती नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया जाव सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणो विहरइ। तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स Translated Sutra: उस काल और उस समय में कौशाम्बी नगरी थी। चन्द्रवतरण उद्यान था। उस कौशाम्बी नगरी में सहस्त्रा – नीक राजा का पौत्र, शतानीक राजा का पुत्र, चेटक राजा का दौहित्र, मृगावती देवी का आत्मज और जयन्ती श्रमणोपासिका का भतीजा ‘उदयन’ नामक राजा था। उसी कौशाम्बी नगरी में सहस्रानीक राजा की पुत्रवधू, शतानीक राजा की पत्नी, चेटक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-२ जयंति | Hindi | 535 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ।
तए णं से उदयणे राया इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे हट्ठतुट्ठे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! कोसंबिं नगरिं सब्भिंतर-बाहिरियं आसित्त-सम्मज्जिओवलित्तं करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह एवं जहा कूणिओ तहेव सव्वं जाव पज्जुवासइ।
तए णं सा जयंती समणोवासिया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हट्ठतुट्ठा जेणेव मिगावती देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मिगावतिं देविं एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिए! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी आगा-सगएणं चक्केणं Translated Sutra: उस काल उस समय में महावीर स्वामी (कौशाम्बी) पधारे, यावत् परीषद् पर्युपासना करने लगी। उस समय उदायन राजा को जब यह पता लगा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रियो ! कौशाम्बी नगरी को भीतर और बाहर से शीघ्र ही साफ करवाओ; इत्यादि सब वर्णन कोणिक राजा के समान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-२ जयंति | Hindi | 536 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
कहन्नं भंते! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति?
जयंती! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिन्नादानेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं कोह-मान-माया-लोभ-पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाय-अरतिरति-मायामोस-मिच्छादंसणसल्लेणं–एवं खलु जयंती! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति।
कहन्नं भंते! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति?
जयंती! पाणाइवायवेरमणेणं मुसावायवेरमणेणं अदिन्नादानवेरमणेणं मेहुणवेरमणेणं परिग्गह-वेरमणेणं कोह-मान-माया-लोभ- पेज्ज-दोस- Translated Sutra: वह जयन्ती श्रमणोपासिका श्रमण भगवान महावीर से धर्मोपदेश श्रवण कर एवं अवधारण करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। फिर भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार करके पूछा – भगवन् ! जीव किस कारण से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? जयन्ती ! जीव प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों के सेवन से शीघ्र गुरुत्व | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 546 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–बहुजण णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ–एवं खलु राहू चंदं गेण्हति, एवं खलु राहू चंदं गेण्हति।
से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! जण्णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि–एवं खलु राहू देवे महिड्ढीए जाव महेसक्खे वरवत्थधरे वरमल्लधरे वरगंधधरे वराभरणधारी।
राहुस्स णं देवस्स नव नामधेज्जा पन्नत्ता, तं जहा–सिंघाडए जडिलए खत्तए खरए दद्दुरे मगरे मच्छे कच्छभे कण्हसप्पे।
राहुस्स णं देवस्स विमाना पंचवण्णा पन्नत्ता, तं जहा–किण्हा, नीला, लोहिया, हालिद्दा, सुक्किला। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने प्रश्न किया – भगवन् ! बहुत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि निश्चित ही राहु चन्द्रमा को ग्रस लेता है, तो हे भगवन् ! क्या यह ऐसा ही है? गौतम ! यह जो बहुत – से लोग परस्पर इस प्रकार कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-६ उपपात | Hindi | 587 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था–वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए–वण्णओ। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदाइ पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सिंधूसोवीरेसु जणवएसु वीतीभए नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं वीतीभयस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे Translated Sutra: तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर किसी अन्य दिन राजगृह नगर के गुणशील चैत्य से यावत् विहार कर देते हैं। उस काल, उस समय में चम्पा नगरी थी। पूर्णभद्र नामका चैत्य था। किसी दिन श्रमण भगवान महावीर पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए यावत् विहार करते हुए जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-६ उपपात | Hindi | 588 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स अभीयिस्स कुमारस्स अन्नदा कदाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अहं उद्दायणस्स पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए, तए णं से उद्दायने राया ममं अवहाय नियगं भाइणेज्जं केसिं कुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए– इमेणं एयारूवेणं महया अप्पत्तिएणं मनोमानसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतेउरपरियालसंपरिवुडे सभंडमत्तोवगरणमायाए वीतीभयाओ नयराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे Translated Sutra: तत्पश्चात् किसी दिन रात्रि के पीछले प्रहर में कुटुम्ब – जागरण करते हुए अभीचिकुमार के मन में इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ – ‘मैं उदायन राजा का पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज हूँ। फिर भी उदायन राजा ने मुझे छोड़कर अपने भानजे केशी कुमार को राजसिंहासन पर स्थापित करके श्रमण भगवान महावीर के पास यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-९ अनगारवैक्रिय | Hindi | 594 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–से जहानामए केइ पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अनगारे वि भावियप्पा केयाघडियाकिच्चहत्थगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा?
हंता उप्पएज्जा।
अनगारे णं भंते! भावियप्पा केवतियाइं पभू केयाघडियाकिच्चहत्थगयाइं रूवाइं विउव्वित्तए?
गोयमा! से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव अनगारे वि भावि-अप्पा वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ जाव पभू णं गोयमा! अनगारे णं भाविअप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थिरूवेहिं आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथडं फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए। एस णं Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! जैसे कोई पुरुष रस्सी से बंधी हुई घटिका लेकर चलता है, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी रस्सी से बंधी हुई घटिका स्वयं हाथ में लेकर ऊंचे आकाश में उड़ सकता है ? हाँ, गौतम ! उड़ सकता है। भगवन् ! भावितात्मा अनगार रस्सी से बंधी हुई घटिका हाथ में ग्रहण करने रूप कितने रूपों की विकुर्वणा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-२ उन्माद | Hindi | 600 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! उम्मादे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे उम्मादे पन्नत्ते, तं जहा–जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं। तत्थ णं जे से जक्खाएसे से णं सुहवेयणतराए चेव सुहविमोयणतराए चेव। तत्थ णं जे से मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं से णं दुहवेयणतराए चेव दुहविमोयणतराए चेव।
नेरइयाणं भंते! कतिविहे उम्मादे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे उम्मादे पन्नत्ते, तं जहा–जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइयाणं दुविहे उम्मादे पन्नत्ते, तं जहा–जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं?
गोयमा! देवे वा से असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा, से णं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं Translated Sutra: भगवन् ! उन्माद कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! उन्माद दो प्रकार का कहा गया है, यथा – यक्षावेश से और मोहनीयकर्म के उदय से। इनमें से जो यक्षावेशरूप उन्माद है, उसका सुखपूर्वक वेदन किया जा सकता है और वह सुखपूर्वक छुड़ाया जा सकता है। (किन्तु) इनमें से जो मोहनीयकर्म के उदय से होने वाला उन्माद है, उसका दुःखपूर्वक वेदन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१४ |
उद्देशक-८ अंतर | Hindi | 627 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] बहुजने णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ–एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ। से कहमेयं भंते?
एवं खलु गोयमा! जं णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ– एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ, सच्चे णं एसमट्ठे अहंपि णं गोयमा! एवमाइक्खामि एवं भासामि एवं पन्नवेमि एवं परूवेमि–एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उवेइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, Translated Sutra: भगवन् ! बहुत – से लोग परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर नगर में सौ घरों में भोजन करता है तथा रहता है, (इत्यादि प्रश्न)। हाँ, गौतम ! यह सत्य है; इत्यादि औपपातिकसूत्रमें कथित अम्बड – सम्बन्धी वक्तव्यता, यावत् – महर्द्धिक दृढप्रतिज्ञ होकर सर्व दुःख | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 639 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा! तीसं वासाइं अगारवासमज्झावसित्ता अम्मापिईहिं देवत्तगएहिं समत्तपइण्णे एवं जहा भावणाए जाव एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए।
तए णं अहं गोयमा! पढमं वासं अद्धमासं अद्धमासेनं खममाणे अट्ठियगामं निस्साए पढमं अंतरवासं वासावासं उवागए। दोच्चं वासं मासं मासेनं खममाणे पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामानुगामं दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे, जेणेव नालंदा बाहिरिया, जेणेव तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हामि, ओगिण्हित्ता तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए।
तए णं अहं गोयमा! पढमं Translated Sutra: उस काल उस समय में, हे गौतम ! मैं तीस वर्ष तक गृहवास में रहकर, माता – पिता के दिवंगत हो जाने पर भावना नामक अध्ययन के अनुसार यावत् एक देवदूष्य वस्त्र ग्रहण करके मुण्डित हुआ और गृहस्थावास को त्याग कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हुआ। हे गौतम ! मैं प्रथम वर्ष में अर्द्धमास – अर्द्धमास क्षमण करते हुए अस्थिक ग्राम की निश्रा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 641 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं अहं गोयमा! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं जेणेव कुम्मग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छामि। तए णं तस्स कुम्मग्गामस्स नगरस्स बहिया वेसियायणे नामं बालतवस्सी छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ। आइच्चतेयतवियाओ य से छप्पदीओ सव्वओ समंता अभिनिस्सवंति, पान-भूय-जीव-सत्त-दयट्ठयाए च णं पडियाओ-पडियाओ तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चोरुभेइ।
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवस्सिं पासइ, पासित्ता ममं अंतियाओ सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छइ, Translated Sutra: तदनन्तर, हे गौतम ! मैं गोशालक के साथ कूर्मग्राम नगर में आया। उस समय कूर्मग्राम नगर के बाहर वैश्यायन नामक बालतपस्वी निरन्तर छठ – छठ तपःकर्म करने के साथ – साथ दोनों भुजाएं ऊंची रखकर सूर्य के सम्मुख खड़ा होकर आतापनभूमि में आतापना ले रहा था। सूर्य की गरमी से तपी हुई जूएं चारों ओर उसके सिर से नीचे गिरती थीं और वह तपस्वी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 652 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अज्जोति! समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी–अज्जो! से जहानामए तणरासी इ वा कट्ठरासी इ वा पत्तरासी इ वा तयारासी इ वा तुसरासी इ वा भुसरासी इ वा गोमयरासी इ वा अवकररासी इ वा अगनिज्झामिए अगनिज्झूसिए अगनिपरिणामिए हयतेए गयतेए नट्ठतेए भट्ठतेए लुत्ततेए विणट्ठतेए जाए, एवामेव गोसाले मंखलिपुत्ते ममं वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरित्ता हयतेए गयतेए नट्ठतेए भट्ठतेए लुत्ततेए विणट्ठतेए जाए, तं छंदेणं अज्जो! तुब्भे गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएह, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेह, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह, अट्ठेहि य हेऊहि य पसिणेहि य वागरणेहि य Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ने कहा – ‘हे आर्यो ! जिस प्रकार तृणराशि, काष्ठराशि, पत्रराशि, त्वचा राशि, तुष – राशि, भूसे की राशि, गोमय की राशि और अवकर राशि को अग्नि से थोड़ा – सा जल जाने पर, आग में झोंक देने पर एवं अग्नि से परिणामान्तर होने पर उसका तेज हत हो जाता है, उसका तेज चला जाता है, उसका तेज नष्ट और भ्रष्ट हो जाता है, उसका तेज | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 654 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स दुवाराइं पिहेंति, पिहेत्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स बहुमज्झदेसभाए सावत्थिं नगरिं आलिहंति, आलिहित्ता गोसालस्स मंख-लिपुत्तस्स सरीरगं वामे पदे सुंबेणं बंधंति, बंधित्ता तिक्खुत्तो मुहे उट्ठुभंति, उट्ठुभित्ता सावत्थीए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर -चउम्मुह-महापह-पहेसु आकट्ट-विकट्टिं करेमाणा णीयं-णीयं सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयासी–नो खलु देवानुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिने जिनप्पलावी जाव विहरिए। एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे Translated Sutra: तदनन्तर उन आजीविक स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशालक को कालधर्म – प्राप्त हुआ जानकर हालाहला कुम्भारिन की दुकान के द्वार बन्द कर दिए। फिर हालाहला कुम्भारिन की दुकान के ठीक बीचों बीच श्रावस्ती नगरी का चित्र बनाया। फिर मंखलिपुत्र गोशालक के बाएं पैर को मूंज की रस्सी से बाँधा। तीन बार उसके मुख में थूका। फिर उक्त | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१५ गोशालक |
Hindi | 655 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढियगामे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं मेंढियगामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपु-रत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं साणकोट्ठए नामं चेइए होत्था–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं साणकोट्ठगस्स चेइयस्स अदूर-सामंते, एत्थ णं महेगे मालुयाकच्छए यावि होत्था–किण्हे किण्होभासे जाव महामेहनिकुरंबभूए पत्तिए पुप्फिए फलिए हरियगरेरि-ज्जमाणे सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणे चिट्ठति। तत्थ णं मेंढियगामे नगरे रेवती नामं गाहावइणी परिवसति–अड्ढा Translated Sutra: तदनन्तर किसी दिन भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से नीकले और उससे बाहर अन्य जनपदों में विचरण करने लगे। उस काल उस समय मेंढिकग्राम नगर था। उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में शालकोष्ठक उद्यान था। यावत् पृथ्वी – शिलापट्टक था, उस शालकोष्ठक उद्यान के निकट एक महान् मालुकाकच्छ था वह श्याम, श्यामप्रभावाला, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१६ |
उद्देशक-५ गंगदत्त | Hindi | 676 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–गंगदत्तस्स णं भंते! देवस्स सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवानुभावे कहिं गते? कहिं अनुप्पविट्ठे?
गोयमा! सरीरं गए, सरीरं अनुप्पविट्ठे, कूडागारसालादिट्ठंतो जाव सरीरं अनुप्पविट्ठे। अहो णं भंते! गंगदत्ते देवे महिड्ढिए महज्जुइए महब्बले महायसे महेसक्खे।
गंगदत्तेणं भंते! देवेणं सा दिव्वा देविड्ढी सा दिव्वा देवज्जुती से दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लद्धे? किण्णा पत्ते? किण्णा अभिसमन्नागए? पुव्वभवे के आसी? किं नामए वा? किं वा गोत्तेणं?
कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा Translated Sutra: भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् पूछा – ‘भगवन् ! गंगदत्त देव की वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति यावत् कहाँ गई, कहाँ प्रविष्ट हो गई ?’ गौतम ! यावत् उस गंगदत्त देव के शरीर में गई और शरीर में ही अनुप्रविष्ट हो गई। यहाँ कूटाकारशाला का दृष्टान्त, यावत् वह शरीर में अनुप्रविष्ट हुई, (तक समझना चाहिए।) | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१७ |
उद्देशक-१ कुंजर | Hindi | 698 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! भावे पन्नत्ते?
गोयमा! छव्विहे भावे पन्नत्ते, तं० ओदइए, ओवसमिए खइए, खओवसमिए, पारिणामिए, सन्निवाइए।
से किं तं ओदइए?
ओदइए भावे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–उदए य, उदयनिप्फन्ने य। एवं एएणं अभिलावेणं जहा अनुओगदारे छन्नामं तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव सेत्तं सन्निवाइए भावे।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! भाव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! छह प्रकार के यथा – औदयिक यावत् सान्निपातिक। भगवन् ! औदयिक भाव कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का। यथा – उदय और उदयनिष्पन्न। इस प्रकार अनुयोगद्वार – सूत्रानुसार छह नामों की समग्र वक्तव्यता कहना। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१८ |
उद्देशक-२ विशाखा | Hindi | 727 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं विसाहा नामं नगरी होत्था–वण्णओ। बहुपुत्तिए चेइए–वण्णओ। सामी समोसढे जाव पज्जुवासइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे–एवं जहा सोलसमसए बितियउद्देसए तहेव दिव्वेणं जाणविमानेणं आगओ, नवरं–एत्थं आभियोगा वि अत्थि जाव बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेत्ता जाव पडिगए।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–जहा तइयसए ईसानस्स तहेव कूडागारदिट्ठंतो, तहेव पुव्वभवपुच्छा जाव अभिसमन्नागए?
गोयमादि! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी–एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे Translated Sutra: उस काल एवं उस समय में विशाखा नामकी नगरी थी। वहाँ बहुपुत्रिक नामक चैत्य था। (वर्णन) एक बार वहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ, यावत् परीषद् पर्युपासना करने लगी। उस काल और उस समय में देवेन्द्र देवराज शक्र, वज्रपाणि, पुरन्दर इत्यादि सोलहवें शतक के द्वीतिय उद्देशक में शक्रेन्द्र का जैसा वर्णन है, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१८ |
उद्देशक-५ असुरकुमार | Hindi | 738 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइए णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! कयरं आउयं पडिसंवेदेति?
गोयमा! नेरइयाउयं पडिसंवेदेति, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाउए से पुरओ कडे चिट्ठति। एवं मनुस्सेसु वि, नवरं–मनुस्साउए से पुरओ कडे चिट्ठति।
असुरकुमारे णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! कयरं आउयं पडिसंवेदेति?
गोयमा! असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेति, पुढविकाइयाउए से पुरओ कडे चिट्ठति। एवं जो जहिं भविओ उववज्जित्तए तस्स तं पुरओ कडं चिट्ठति, जत्थ ठिओ तं पडिसंवेदेति जाव वेमाणिए, नवरं–पुढविकाइए पुढविकाइएसु उववज्जति, पुढविकाइयाउयं Translated Sutra: भगवन् ! जो नैरयिक मरकर अन्तर – रहित पंचेन्द्रियतिर्यञ्चोनिकों में उत्पन्न होने के योग्य हैं, भगवन् ! वह किस आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है ? गौतम ! वह नारक नैरयिक – आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, और पंचे – न्द्रियतिर्यञ्चयोनिक के आयुष्य के उदयाभिमुख – करके रहता है। इसी प्रकार मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१८ |
उद्देशक-७ केवली | Hindi | 744 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे। गुणसिलए चेइए–वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुण सिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहा–कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, नामुदए, नम्मुदए, अन्नवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहावई।
तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अय-मेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं जाव पोग्ग-लत्थिकायं।
तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तं जहा–धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, Translated Sutra: उस काल उस समय राजगृह नामक नगर था। (वर्णन)। वहाँ गुणशील नामक उद्यान था। (वर्णन)। यावत् वहाँ एक पृथ्वीशिलापट्टक था। उस गुणशील उद्यान के समीप बहुत – से अन्यतीर्थिक रहते थे, यथा – कालोदायी, शैलोदायी इत्यादि समग्र वर्णन सातवें शतक के अन्यतीर्थिक उद्देशक के अनुसार, यावत् – ‘यह कैसे माना जा सकता है?’ यहाँ तक समझना |