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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 625 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तहा सरीर-कुसीले दुविहे चेट्ठा-कुसीले विभूसा-कुसीले य। तत्थ जे भिक्खू एयं किमि-कुल-निलयं सउण-साणाइ -भत्तं सडण-पडण-विद्धंसण-धम्मं असुइं असासयं असारं सरीरगं आहरादीहिं निच्चं चेट्ठेजा, नो णं इणमो भव-सय-सुलद्ध-णाण-दंसणाइ-समण्णिएणं सरीरेणं अच्चंत-घोर-वीरुग्ग-कट्ठ-घोर-तव-संजम-मनुट्ठेज्जा, से णं चेट्ठा कुसीले।
तहा जे णं विभूसा कुसीले से वि अनेगहा, तं जहा–तेलाब्भंगण-विमद्दण संबाहण-सिणानुव्वट्टण-परिहसण-तंबोल-धूवण-वासन-दसणुग्घसन-समालहण-पुप्फोमालण-केस-समारण -सोवाहण-दुवियड्ढगइ-भणिर-हसिर-उवविट्ठुट्ठिय-सन्निवन्नेक्खिय-विभूसावत्ति-सविगार-नियंस-नुत्तरीय-पाउ-रण-दंडग-गहणमाई Translated Sutra: और शरीर कुशील दो तरह के जानना, कुशील चेष्टा और विभूषा – कुशील, उसमें जो भिक्षु इस कृमि समूह के आवास समान, पंछी और श्वान के लिए भोजन समान। सड़ना, गिरना, नष्ट होना, ऐसे स्वभाववाला, अशुचि, अशाश्वत, असार ऐसे शरीर को हंमेशा आहारादिक से पोषे और वैसे शरीर की चेष्टा करे, लेकिन सेंकड़ों भव में दुर्लभ ऐसे ज्ञान – दर्शन आदि सहित | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 841 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जत्थित्थी कर फरिसं, अंतरियं कारणे वि उप्पन्ने।
अरहा वि करेज्ज सयं, तं गच्छं मूल गुण मुक्कं॥ Translated Sutra: ‘‘जिस गच्छ में वैसी कारण पैदा हो और वस्त्र के आंतरा सहित हस्त से स्त्री के हाथ का स्पर्श करने में और अरिहंत भी खुद कर स्पर्श करे तो उस गच्छ को मुलगुण रहित समझना।’’ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 842 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ गोयमा अप्प संकिएणं चेव चिंतियं तेण सावज्जायरिएणं जहा णं– जइ इह एयं जहट्ठियं पन्नवेमि तओ जं मम वंदनगं दाउमाणीए तीए अज्जाए उत्तिमंगेण चलणग्गे पुट्ठे तं सव्वेहिं पि दिट्ठमेएहिं ति। ता जहा मम सावज्जायरियाहिहाणं कयं तहा अन्नमवि किंचि एत्थ मुद्दंकं काहिंति। अहन्नहा सुत्तत्थं पन्नवेमि ता णं महती आसायणा।
ता किं करियव्वमेत्थं ति। किं एयं गाहं पओवयामि किं वा णं अन्नहा पन्नवेमि अहवा हा हा न जुत्तमिणं उभयहा वि। अच्चंतगरहियं आयहियट्ठीणमेयं, जओ न मेस समयाभिप्पाओ जहा णं जे भिक्खू दुवालसंगस्स णं सुयनाणस्स असई चुक्कखलियपमायासंकादी सभयत्तेणं पयक्खरमत्ता बिंदुमवि Translated Sutra: तब अपनी शंकावाला उन्होंने सोचा कि यदि यहाँ मैं यथार्थ प्ररूपणा करूँगा तो उस समय वंदना करती उस आर्या ने अपने मस्तक से मेरे चरणाग्र का स्पर्श किया था, वो सब इस चैत्यवासी ने मुझे देखा था। तो जिस तरह मेरा सावद्याचार्य नाम बना है, उस प्रकार दूसरा भी वैसा कुछ अवहेलना करनेवाला नाम रख देंगे जिससे सर्व लोक में मै अपूज्य | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1369 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं चिर-चिंतियाभिमुह-मणोरहोरु संपत्ति-हरिस-समुल्लसिओ।
भत्ति-भर-निब्भरोणय-रोमंच-उक्कंच-पुलय-अंगो॥ Translated Sutra: इस अनुसार बड़े अरसे से चिन्तवे हुए मनोरथ के सन्मुख होनेवाला उस रूप महासंपत्ति के हर्ष से उल्लासित होनेवाले, भक्ति के अनुग्रह से निर्भर होकर नमस्कार करके, रोमांच खड़ा होने से रोम – रोम व्याप्त आनन्द अंगवाला, १८ हजार शिलांग धारण करने के लिए उत्साहपूर्वक ऊंचे किए गए खंभेवाला, छत्तीस तरह के आचार पालन करने के लिए | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1432 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तस्स किं तं विसोहि-पयं सुविसुद्धं चेव लिक्खए।
उयाहु नो समुल्लिक्खे संसयमेयं वियागरे॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १४३१ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1484 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ ते णं काले णं ते णं समएणं सुसढणामधेज्जे अनगारे हभूयवं। तेणं च एगेगस्स णं पक्खस्संतो पभूय-ट्ठाणिओ आलोयणाओ विदिन्नाओ सुमहंताइं च। अच्चंत घोर सुदुक्कराइं पायच्छित्ताइं समनुचिन्नाइं। तहा वि तेणं विरएणं विसोहिपयं न समुवलद्धं ति एतेणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ।
से भयवं केरिसा उ णं तस्स सुसढस्स वत्तव्वया गोयमा अत्थि इहं चेव भारहेवासे, अवंती नाम जनवओ। तत्थ य संबुक्के नामं खेडगे। तम्मि य जम्मदरिद्दे निम्मेरे निक्किवे किविणे निरणुकंपे अइकूरे निक्कलुणे णित्तिंसे रोद्दे चंडरोद्दे पयंडदंडे पावे अभिग्गहिय मिच्छादिट्ठी अणुच्चरिय नामधेज्जे Translated Sutra: हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहा ? उस समय में उस समय यहाँ सुसढ़ नाम का एक अनगार था। उसने एक – एक पक्ष के भीतर कईं असंयम स्थानक की आलोचना दी और काफी महान घोर दुष्कर प्रायश्चित्त का सेवन किया। तो भी उस बेचारे को विशुद्धि प्राप्त नहीं हुई। इस कारण से ऐसा कहा। हे भगवंत ! उस सुसढ़ की वक्तव्यता किस तरह की है ? हे गौतम ! इस भारत | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1498 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं पुन काऊणं एरिसा सुलहबोही जाया सा सुगहियनामधेज्जा माहणी जीए एयावइयाणं भव्व-सत्ताणं अनंत संसार घोर दुक्ख संतत्ताणं सद्धम्म देसणाईहिं तु सासय सुह पयाणपुव्वगमब्भुद्धरणं कयं ति। गोयमा जं पुव्विं सव्व भाव भावंतरंतरेहिं णं नीसल्ले आजम्मा-लोयणं दाऊणं सुद्धभावाए जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं। पायच्छित्तसमत्तीए य समाहिए य कालं काऊणं सोहम्मे कप्पे सुरिंदग्गमहिसी जाया तमनुभावेणं।
से भयवं किं से णं माहणी जीवे तब्भवंतरम्मि समणी निग्गंथी अहेसि जे णं नीसल्लमालोएत्ता णं जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं ति। गोयमा जे णं से माहणी जीवे से णं तज्जम्मे बहुलद्धिसिद्धी Translated Sutra: हे भगवंत ! उस ब्राह्मणीने ऐसा तो क्या किया कि जिससे इस प्रकार सुलभ बोधि पाकर सुबह में नाम ग्रहण करने के लायक बनी और फिर उसके उपदेश से कईं भव्य जीव नर – नारी कि जो अनन्त संसार के घोर दुःख में सड़ रहे थे उन्हें सुन्दर धर्मदेश आदि के द्वारा शाश्वत सुख देकर उद्धार किया। हे गौतम ! उसने पूर्वभव में कईं सुन्दर भावना सहित | |||||||||
Mahanishith | મહાનિશીય શ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ शल्यउद्धरण |
Gujarati | 132 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ने गेण्हं, सिमिणंते वि न पत्थं मनसा वि मेहुणं।
परिग्गहं न काहामि मुलुत्तर-गुण-खलणं तहा॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૩૦ | |||||||||
Mahanishith | મહાનિશીય શ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Gujarati | 595 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) एवं स सुत्तत्थोभयत्तगं चिइ-वंदणा-विहाणं अहिज्जेत्ता णं तओ सुपसत्थे सोहणे तिहि-करण-मुहुत्त-नक्खत्त-जोग-लग्ग-ससी-बले।
(२) जहा सत्तीए जग-गुरूणं संपाइय-पूओवयारेणं पडिलाहियसाहुवग्गेण य, भत्तिब्भर-निब्भरेणं, रोमंच-कंचुपुलइज्जमाणतणू सहरिसविसट्ट वयणारविंदेणं, सद्धा-संवेग-विवेग-परम-वेरग्ग-मूलं विणिहय-घनराग-दोस-मोह-मिच्छत्त-मल-कलंकेण
(३) सुविसुद्ध-सुनिम्मल-विमल-सुभ-सुभयरऽनुसमय-समुल्लसंत-सुपसत्थज्झवसायगएणं, भुवण-गुरु-जियणंद पडिमा विणिवेसिय-नयन-मानसेणं अनन्नं-माणसेगग्ग-चित्तयाए य।
(४) धन्नो हं पुन्नो हं ति जिन-वंदणाइ-सहलीकयजम्मो त्ति इइ मन्नमानेणं, विरइय-कर-कमलंजलिणा, Translated Sutra: આ પ્રમાણે સૂત્ર, અર્થ, ઉભય સહિત ચૈત્યવંદન આદિ વિધાન ભણીને પછી શુભતિથિ, કરણ, મુહૂર્ત્ત, નક્ષત્ર, યોગ, લગ્ન તેમજ ચંદ્રબળનો યોગ થયો હોય ત્યારે યથાશક્તિ જગતગુરુ તીર્થંકર ભગવંતને પૂજવા યોગ્ય ઉપકરણો એકઠા કરીને સાધુ ભગવંતોને પ્રતિલાભીને ભક્તિપૂર્ણ હૃદયી, રોમાંચિત બની, પુલકિત થયેલા શરીરવાળો, હર્ષિત થયેલ મુખારવિંદવાળો, | |||||||||
Mahanishith | મહાનિશીય શ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Gujarati | 1369 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं चिर-चिंतियाभिमुह-मणोरहोरु संपत्ति-हरिस-समुल्लसिओ।
भत्ति-भर-निब्भरोणय-रोमंच-उक्कंच-पुलय-अंगो॥ Translated Sutra: આ પ્રમાણે લાંબા કાળથી ચિંતવેલા મનોરથો સન્મુખ થયેલો, તે રૂપ મહાસંપત્તિના હર્ષથી ઉલ્લસિત, ભક્તિ અનુગ્રહ વડે નિર્ભર બની નમસ્કાર કરતો, રોમાંચ ખડા થવાથી રોમેરોમ વ્યાપેલા આનંદ અંગવાળો, ૧૮૦૦૦ શીલાંગ ધારણ કરવા ઉત્સાહપૂર્વક ઊંચા કરેલ ખભાવાળો, ૩૬ પ્રકારે આચાર પાલન માટે ઉત્કંઠિત, નાશ કરેલ સમગ્ર મિથ્યાત્વવાળો, મદ | |||||||||
Mahanishith | મહાનિશીય શ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Gujarati | 1432 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तस्स किं तं विसोहि-पयं सुविसुद्धं चेव लिक्खए।
उयाहु नो समुल्लिक्खे संसयमेयं वियागरे॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૪૩૧ | |||||||||
Mahanishith | મહાનિશીય શ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Gujarati | 1498 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं पुन काऊणं एरिसा सुलहबोही जाया सा सुगहियनामधेज्जा माहणी जीए एयावइयाणं भव्व-सत्ताणं अनंत संसार घोर दुक्ख संतत्ताणं सद्धम्म देसणाईहिं तु सासय सुह पयाणपुव्वगमब्भुद्धरणं कयं ति। गोयमा जं पुव्विं सव्व भाव भावंतरंतरेहिं णं नीसल्ले आजम्मा-लोयणं दाऊणं सुद्धभावाए जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं। पायच्छित्तसमत्तीए य समाहिए य कालं काऊणं सोहम्मे कप्पे सुरिंदग्गमहिसी जाया तमनुभावेणं।
से भयवं किं से णं माहणी जीवे तब्भवंतरम्मि समणी निग्गंथी अहेसि जे णं नीसल्लमालोएत्ता णं जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं ति। गोयमा जे णं से माहणी जीवे से णं तज्जम्मे बहुलद्धिसिद्धी Translated Sutra: હે ભગવન્ ! તે બ્રાહ્મણીએ એવું શું કર્યું હતું કે જેથી આ પ્રમાણે સુલભબોધિ પામીને સવારના પહોરમાં નામ ગ્રહણ કરવા લાયક બની ? તેમજ તેના ઉપદેશથી અનેક ભવ્યજીવો, નર અને નારીના સમુદાય કે જેઓ અનંત સંસારના ઘોર દુઃખમાં સબડી રહેલા હતા તેમને સુંદર ધર્મદેશના વગેરે દ્વારા શાશ્વત સુખ આપીને તેણીએ તેમનો ઉદ્ધાર કર્યો ? હે ગૌતમ | |||||||||
Mahanishith | મહાનિશીય શ્રુતસ્કંધ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Gujarati | 1514 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं तीए मयहरीए तेहिं से तंदुलमल्लगे पयच्छिए किं वा णं सा वि य मयहरी तत्थेव तेसिं समं असेस कम्मक्खयं काऊणं परिणिव्वुडा हवेज्ज त्ति।
गोयमा तीए मयहरिए तस्स णं तंदुल मल्लगस्सट्ठाए तीए माहणीए धूय त्ति काऊणं गच्छमाणी अवंतराले चेव अवहरिया सा सुज्जसिरी, जहा णं मज्झं गोरसं परिभोत्तूणं कहिं गच्छसि संपयं त्ति। आह वच्चामो गोउलं। अन्नं च–जइ तुमं मज्झं विनीया हवेज्जा, ता अहयं तुज्झं जहिच्छाए ते कालियं बहु गुल घएणं अणुदियहं पायसं पयच्छिहामि।
जाव णं एयं भणिया ताव णं गया सा सुज्जसिरि तीए मयहरीए सद्धिं ति। तेहिं पि परलोगाणुट्ठाणेक्क सुहज्झवसायाखित्तमाणसेहिं न Translated Sutra: હે ભગવન્ ! તે મહીયારી – ગોકુળપતિની પત્નીને તેઓએ ડાંગરનું ભોજન આપ્યું કે નહીં ? અથવા તો તે મહીયારી તેઓની સાથે સમગ્ર કર્મનો ક્ષય કરીને નિર્વાણ પામેલી હતી ? હે ગૌતમ ! તે મહીયારીને તંદુલ ભોજન આપવા માટે શોધ કરવા જતી હતી ત્યારે આ બ્રાહ્મણની પુત્રી છે, એમ ધારેલું. તેથી જતી હતી ત્યારે વચ્ચેથી જ સુજ્ઞશ્રીનું અપહરણ કર્યું. પછી | |||||||||
Maransamahim | Ardha-Magadhi |
मरणसमाहि |
Hindi | 643 | Gatha | Painna-10A | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] जह नाम पट्टणगओ संते मुलम्मि मूढभावेणं ।
न लहंति नरा लाहं मानुसभावं तहा पत्ता ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Maransamahim | Ardha-Magadhi |
मरणसमाहि |
Gujarati | 643 | Gatha | Painna-10A | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] जह नाम पट्टणगओ संते मुलम्मि मूढभावेणं ।
न लहंति नरा लाहं मानुसभावं तहा पत्ता ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Nandisutra | नन्दीसूत्र | Ardha-Magadhi |
नन्दीसूत्र |
Hindi | 137 | Sutra | Chulika-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं गमियं? (से किं तं अगमियं?)
गमियं दिट्ठिवाओ। अगमियं कालियं सुयं। से त्तं गमियं। से त्तं अगमियं
तं समासओ दुविहं पन्नत्तं, तं जहा–अंगपविट्ठं, अंगबाहिरं च।
से किं तं अंगबाहिरं?
अंगबाहिरं दुविहं पन्नत्तं, तं जहा–आवस्सयं च, आवस्सयवइरित्तं च।
से किं तं आवस्सयं?
आवस्सयं छव्विहं पन्नत्तं, तं जहा–
सामाइयं, चउवीसत्थओ, वंदनयं, पडिक्कमणं, काउस्सग्गो, पच्चक्खाणं।
से त्तं आवस्सयं।
से किं तं आवस्सयवइरित्तं?
आवस्सयवइरित्तं दुविहं पन्नत्तं, तं जहा–कालियं च, उक्कालियं च।
से किं तं उक्कालियं?
उक्कालियं अनेगविहं पन्नत्तं, तं जहा–
१ दसवेयालियं २ कप्पियाकप्पियं ३ चुल्लकप्पसुयं Translated Sutra: – गमिक – श्रुत क्या है ? आदि, मध्य या अवसान में कुछ शब्द – भेद के साथ उसी सूत्र को बार – बार कहना गमिक – श्रुत है। दृष्टिवाद गमिक – श्रुत है। गमिक से भिन्न आचाराङ्ग आदि कालिकश्रुत अगमिक – श्रुत हैं। अथवा श्रुत संक्षेप में दो प्रकार का है – अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य। अङ्गबाह्य दो प्रकार का है – आवश्यक, आवश्यक से | |||||||||
Nirayavalika | निरयावलिकादि सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ काल |
Hindi | 18 | Sutra | Upang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कूणिए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते कालादीए दस कुमारे सद्दावेइ, सद्दा-वेत्ता एवं वयासी– एवं खलु देवानुप्पिया! वेहल्ले कुमारे ममं असंविदिते णं सेयनगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं हारं अंतेउरं सभंडं च गहाय चंपाओ निक्खमइ, निक्खमित्ता वेसालिं अज्जगं चेडयं रायं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। तए णं मए सेयनगस्स गंधहत्थिस्स अट्ठारसवंकस्स हारस्स अट्ठाए दूया पेसिया। ते य चेडएण रन्ना इमेणं कारणेणं पडिसेहित्ता अदुत्तरं च णं ममं तच्चे दूए असक्कारिए असम्माणिए अवद्दारेणं निच्छुहाविए, तं सेयं खलु देवानुप्पिया! अम्हं चेडगस्स रन्नो जुत्तं गिण्हित्तए।
तए Translated Sutra: तब कूणिक राजा ने उस दूत द्वारा चेटक के इस उत्तर को सूनकर और उसे अधिगत कर के क्रोधाभिभूत हो यावत् दाँतों को मिसमिसाते हुए पुनः तीसरी बार दूत को बुलाया। उस से तुम वैशाली नगरी जाओ और बायें पैर से पादपीठ को ठोकर मारकर चेटक राजा को भाले की नोक से यह पत्र देना। पत्र दे कर क्रोधित यावत् मिसमिसाते हुए भृकुटि तानकर | |||||||||
Nirayavalika | નિરયાવલિકાદિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ काल |
Gujarati | 18 | Sutra | Upang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कूणिए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते कालादीए दस कुमारे सद्दावेइ, सद्दा-वेत्ता एवं वयासी– एवं खलु देवानुप्पिया! वेहल्ले कुमारे ममं असंविदिते णं सेयनगं गंधहत्थिं अट्ठारसवंकं हारं अंतेउरं सभंडं च गहाय चंपाओ निक्खमइ, निक्खमित्ता वेसालिं अज्जगं चेडयं रायं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। तए णं मए सेयनगस्स गंधहत्थिस्स अट्ठारसवंकस्स हारस्स अट्ठाए दूया पेसिया। ते य चेडएण रन्ना इमेणं कारणेणं पडिसेहित्ता अदुत्तरं च णं ममं तच्चे दूए असक्कारिए असम्माणिए अवद्दारेणं निच्छुहाविए, तं सेयं खलु देवानुप्पिया! अम्हं चेडगस्स रन्नो जुत्तं गिण्हित्तए।
तए Translated Sutra: ત્યારે તે કોણિક રાજાએ તે દૂત પાસે આ અર્થને સાંભળી, સમજી, ક્રોધિત થઈ કાલાદિ દશ કુમારોને બોલાવીને કહ્યું – દેવાનુપ્રિય ! નિશ્ચે વેહલ્લકુમાર મને કહ્યા વિના સેચનક હાથી અને અઢારસરો હાર લઈ પૂર્વવત્ ચાલ્યો ગયો છે. મેં દૂતો મોકલ્યા ઇત્યાદિ પૂર્વવત્ બધું કથન કર્યું. હે દેવાનુપ્રિયો ! આપણે ચેટક રાજાની સાથે યુદ્ધ | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Hindi | 1231 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] जह मुल्लअनाभागी आरामी सो तहिं तु संवुत्तो ।
तह निज्जरअणभागी आयरिओ होति एवं तु ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Hindi | 1232 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] जेण पुन पुव्वदिट्ठा तउसा आरामिएण होंति तहिं ।
सो देति लहुं तउसे मुल्लस्स य होति आभागी ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Hindi | 1543 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] पढमाए वामकडगं देति तहिं सतसहस्समुल्लं तु ।
बितियाए कुंडलं तू ततियाए वि कुंडलं बितियं ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Gujarati | 1231 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] जह मुल्लअनाभागी आरामी सो तहिं तु संवुत्तो ।
तह निज्जरअणभागी आयरिओ होति एवं तु ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Gujarati | 1232 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] जेण पुन पुव्वदिट्ठा तउसा आरामिएण होंति तहिं ।
सो देति लहुं तउसे मुल्लस्स य होति आभागी ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Panchkappo Bhaasam | Ardha-Magadhi |
मपंचकप्प.भासं |
Gujarati | 1543 | Gatha | Chheda-05B | View Detail | ||
Mool Sutra: [गाथा] पढमाए वामकडगं देति तहिं सतसहस्समुल्लं तु ।
बितियाए कुंडलं तू ततियाए वि कुंडलं बितियं ॥ Translated Sutra: Not Available | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 117 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संजमठाणाणं कंडगाण लेसाठिईविसेसाणं ।
भावं अहे करेई तम्हा तं भावऽहेकम्मं ॥ Translated Sutra: संयमस्थान – कंड़क संयमश्रेणी, लेश्या एवं शाता वेदनीय आदि के समान शुभ प्रकृति में विशुद्ध विशुद्ध स्थान में रहे साधु को आधाकर्मी आहार जिस प्रकार से नीचे के स्थान पर ले जाता है, उस कारण से वो अधःकर्म कहलाता है। संयम स्थान का स्वरूप देशविरति समान पाँचवे गुण – स्थान में रहे सर्व उत्कृष्ट विशुद्ध स्थानवाले जीव | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Hindi | 533 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परिपिंडणमुल्लावो अइपंतो भिक्खुवासओ दावे ।
जह इच्छइ अनुजाणह घयगुलवत्थाणि दावेमि ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५३२ | |||||||||
Pindniryukti | પિંડ – નિર્યુક્તિ | Ardha-Magadhi |
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Gujarati | 533 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परिपिंडणमुल्लावो अइपंतो भिक्खुवासओ दावे ।
जह इच्छइ अनुजाणह घयगुलवत्थाणि दावेमि ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૫૩૨ | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ अब्रह्म |
Hindi | 19 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण निसेवंति सुरगणा सअच्छरा मोह मोहिय मती, असुर भयग गरुल विज्जु जलण दीव उदहि दिस पवण थणिया। अणवण्णिय पणवण्णिय इसिवादिय भूयवादियकंदिय महाकंदिय कूहंड पतगदेवा, पिसाय भूय जक्ख रक्खस किन्नर किंपुरिस महोरग गंधव्व तिरिय जोइस विमाणवासि मणुयगणा, जलयर थलयर खहयराय मोहपडिबद्धचित्ता अवितण्हा कामभोग-तिसिया, तण्हाए बलवईए महईए समभिभूया गढिया य अतिमुच्छिया य, अबंभे ओसण्णा, तामसेन भावेण अणुम्मुक्का, दंसण-चरित्तमोहस्स पंजरं पिव करेंतिअन्नोन्नं सेवमाणा।
भुज्जो असुर सुर तिरिय मणुय भोगरत्ति विहार संपउत्ता य चक्कवट्टी सुरनरवतिसक्कया सुरवरव्व देवलोए भरह नग नगर नियम Translated Sutra: उस अब्रह्म नामक पापास्रव को अप्सराओं के साथ सुरगण सेवन करते हैं। कौन – से देव सेवन करते हैं ? जिनकी मति मोह के उदय से मूढ़ बन गई है तथा असुरकुमार, भुजगकुमार, गरुड़कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार तथा स्तनितकुमार, ये भवनवासी, अणपन्निक, पणपण्णिक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, | |||||||||
Pushpika | पूष्पिका | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ बहुपुत्रिका |
Hindi | 8 | Sutra | Upang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पुप्फियाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चउत्थस्स णं भंते! अज्झयणस्स पुप्फियाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसढे। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तिए विमाने सभाए सुहम्माए बहुपुत्तियंसि सोहासणंसि चउहिं सामानियसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं जहा सूरियाभे जाव भुंजमाणी विहरइ।
इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी-आभोएमाणी Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है तो भदन्त ! चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था। गुणशिलक चैत्य था। राजा श्रेणिक था। स्वामी का पदार्पण हुआ। परिषद् नीकली। उस काल और उस समय में सौधर्मकल्प | |||||||||
Pushpika | પૂષ્પિકા | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ बहुपुत्रिका |
Gujarati | 8 | Sutra | Upang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पुप्फियाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चउत्थस्स णं भंते! अज्झयणस्स पुप्फियाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसढे। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तिए विमाने सभाए सुहम्माए बहुपुत्तियंसि सोहासणंसि चउहिं सामानियसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं जहा सूरियाभे जाव भुंजमाणी विहरइ।
इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी-आभोएमाणी Translated Sutra: ભગવન્ ! જો નિર્વાણ પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવંત મહાવીરે પુષ્પિકા ઉપાંગના ત્રીજા અધ્યયનનો આ અર્થ કહ્યો છે તો, ભગવંત મહાવીરે ચોથા અધ્યયનનો શો અર્થ કહ્યો છે ? નિશ્ચે હે જંબૂ! તે કાળે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતુ, ગુણશીલ નામે ચૈત્ય હતુ, શ્રેણિક નામે રાજા હતો. ભગવંત મહાવીર સ્વામી સમોસર્યા, પર્ષદા દર્શનાર્થે નીકળી. તે કાળે | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 44 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स चत्तारि सामानियसाहस्सीओ जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने य बहवे सूरियाभविमानवासिणो वेमाणिया देवा य देवीओ य अप्पेगतिया उप्पलहत्थगया जाव सहस्सपत्तहत्थगया सूरियाभं देवं पिट्ठतो-पिट्ठतो समनुगच्छंति।
तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स आभिओगिया देवा य देवीओ य अप्पेगतिया वंदनकलस-हत्थगया जाव अप्पेगतिया धूवकडुच्छुयहत्थगया हट्ठतुट्ठचित्तमानंदिया पीइमणा परमसोमनस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया सूरियाभं देवं पिट्ठतो-पिट्ठतो समनुगच्छंति।
तए णं से सूरियाभे देवे चउहिं सामानियसाहस्सीहिं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं बहूहि य सूरियाभविमानवासीहिं Translated Sutra: तब उस सूर्याभदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा कितने ही अन्य बहुत से सूर्याभविमान वासी देव और देवी भी हाथों में उत्पल यावत् शतपथ – सहस्रपत्र कमलों कोल कर सूर्याभदेव के पीछे – पीछे चले। तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव के बहुत – से अभियोगिक देव और देवियाँ हाथों में कलश यावत् धूप – दानों | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 50 | View Detail | ||
Mool Sutra: भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे।
बाले य मन्दिए मूढे, बज्झई मच्छिया व खेलम्मि।।६।। Translated Sutra: He who is immersed in carnal pleasures becomes perverted in knowing what is beneficial and conducive to spiritual welfare, becomes ignorant, dull and infatuated and entangles himself in his own Karamas like a fly cought in phlegm. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 55 | View Detail | ||
Mool Sutra: जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतवो।।११।। Translated Sutra: Birth is painful, old age is painful, disease and death are painful. Oh: painful, indeed, is worldly existence, where living beings suffer afflictions. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | English | 21 | View Detail | ||
Mool Sutra: जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेण।
अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्तसंसारी।।५।। Translated Sutra: Those who are fully devoted to the preachings of the Worthy Souls and practise them with sincerity shall attain purity and freedom from miseries and shortly get emancipation from the cycle of birth and death. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 45 | View Detail | ||
Mool Sutra: अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्खपउराए।
किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाऽहं दुग्गइं न गच्छेज्जा ?।।१।। Translated Sutra: In this world which is unstable, impermanent and full of misery, is there any thing by the performance of which I can be saved from taking birth in undesirable conditions. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | English | 46 | View Detail | ||
Mool Sutra: खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा।
संसारमोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्था णउ कामभोगा।।२।। Translated Sutra: Sensuous enjoyments give momentary pleasure, but prolonged misery, more of misery and less of pleasure and they are the obstructions to salvationa and a veritable mine of misfortunes. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
६. कर्मसूत्र | English | 58 | View Detail | ||
Mool Sutra: कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इत्थिसु।
दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व्व मट्टियं।।३।। Translated Sutra: Whoever is careless about his physical activities and speech and covetous of wealth and woman. accumulates Karmic dirt of attachment and aversion just as an earth-worm accumulates mud by both way (i. e., internally and externally). | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
६. कर्मसूत्र | English | 59 | View Detail | ||
Mool Sutra: न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा।
एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्म।।४।। Translated Sutra: As Karmas pursue the doer, the doer must suffer misery all alone and neither his castemen, nor friends, nor sons, nor brothers can share his misery. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
६. कर्मसूत्र | English | 64 | View Detail | ||
Mool Sutra: नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणं तहा।
वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य।।९।। Translated Sutra: In brief, the Karmas are of eight kinds: (1) jnanavaraniya (knowledge obscuring), (2) Darsanavaraniaya (Apprehension obscuring), (3) Vedaniya (feeling producing), (4) Mohaniya (causing delusion), Ayu (determining the life-span), (6) Nama (physique-determining), (7) Gotra 9status determining) and (8) Antaraya (obscuring the power of self). Refers 64-65 | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
६. कर्मसूत्र | English | 65 | View Detail | ||
Mool Sutra: नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य।
एवमेयाइं कम्माइं, अट्ठेवउ समासओ।।१०।। Translated Sutra: Please see 64; Refers 64-65 | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | English | 71 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागो य दोसो वि य कम्मवीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति।
कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति।।१।। Translated Sutra: Attachment and aversion and seeds of karma; karma orginates from infatuation; karma is the root- cause of birth and death. Birth and death are said to be sources of misery. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | English | 76 | View Detail | ||
Mool Sutra: कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स।
जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो।।६।। Translated Sutra: Bodily and mental misery of all human beings and of gods is to some extent born of their constant sensual desire; he who is free from desire can put an end to this misery. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | English | 78 | View Detail | ||
Mool Sutra: एवं ससंकप्पविकप्पणासुं, संजायई समयमुवट्ठियस्स।
अत्थे य संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा।।८।। Translated Sutra: He, who endeavours to recognise that the cause of his misery lies in desires and not in the objects of senses, acquires the equanimity of mind. When he ceases to desire the objects (of the senses), his thirst for sensual pleasure will become extinct. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | English | 81 | View Detail | ||
Mool Sutra: भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।।११।। Translated Sutra: A person who is free from worldly attachments becomes free from sorrow. Just as the petals of lotus growing in the midst of a lake remain untouched by water, even so, a person who is detached from all passions will remain unaffected by sorrows in this world. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | English | 93 | View Detail | ||
Mool Sutra: मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते।
एवं अदत्ताणि समाययंतो, रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।।१२।। Translated Sutra: A person suffers misery after telling a lie, before telling a lie and while telling a lie; thus suffers endless misery, similarly a person who steels or a person who is lustful also suffers misery and finds himself without support. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | English | 97 | View Detail | ||
Mool Sutra: जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई।
दोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं।।१६।। Translated Sutra: Greed grows with every gain, every gain increases greed. A work which could be done by two grams of gold, could not be done even by crores of grams. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | English | 98 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया।
नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया।।१७।। Translated Sutra: Even if a greedy person comes to accumulate a numberless Kailasa-like mountains of gold and silver they mean nothing to him, for this desire is as endless as is the sky. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | English | 109 | View Detail | ||
Mool Sutra: जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा।
एवं अलित्तं कामेहिं, तं वयं बूम माहणं।।२८।। Translated Sutra: We call him a Brahmin who remains unaffected by objects of sensual pleasures like a lotus which remains untouched by water though born in it. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | English | 110 | View Detail | ||
Mool Sutra: दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा।
तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाइं।।२९।। Translated Sutra: He who has got rid of delusion has his misery destroyed, he who has got rid of craving has his delusion destroyed. He who has got rid of greed has his craving destroyed, he who owns nothing has his greed destroyed. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | English | 118 | View Detail | ||
Mool Sutra: जा जा वज्जई रयणी, न सा पडिनियत्तई।
अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ।।३७।। Translated Sutra: The nights that pass away cannot return back. The night of a person engaged in sinful activities, go waste. |