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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 162 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाने कप्पे अणिंदे अपुरोहिए या वि होत्था।
तए णं से तामली बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाइं सट्ठिं वाससहस्साइं परियागं पाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसित्ता, सवीसं भत्तसयं अनसनाए छेदित्ता कालकासे कालं किच्चा ईसाने कप्पे ईसानवडेंसए विमाने उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइ-भागमेत्तीए ओगाहणाए ईसानदेविंदविरहियकालसमयंसि ईसानदेविंदत्ताए उववन्ने।
तए णं से ईसाने देविंदे देवराया अहुणोववण्णे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, [तं जहा–आहारपज्जत्तीए जाव भासा-मणपज्जत्तीए] ।
तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया Translated Sutra: उस काल और उस समय में ईशान देवलोक इन्द्रविहीन और पुरोहितरहित भी था। उस समय ऋषि तामली बालतपस्वी, पूरे साठ हजार वर्ष तक तापस पर्याय का पालन करके, दो महीने की संलेखना से अपनी आत्मा को सेवित करके, एक सौ बीस भक्त अनशन में काटकर काल के अवसर पर काल करके ईशान देवलोक के ईशावतंसक विमान में उपपातसभा की देवदूष्य – वस्त्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 163 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते ईसानकप्पवासी बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य बलिचंचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलिज्जमाणं निंदिज्जमाणं खिंसिज्जमाणं गरहिज्जमाणं अवमण्णिज्जमाणं तज्जिज्जमाणं तालेज्जमाणं परिवहिज्जमाणं पव्वहिज्जमाणं आकड्ढ-विकड्ढिं कीरमाणं पासंति, पासित्ता आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव ईसाने देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी–
एवं खलु देवानुप्पिया! बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे Translated Sutra: तत्पश्चात् ईशानकल्पवासी बहुत – से वैमानिक देवों और देवियों ने (इस प्रकार) देखा कि बलिचंचा – निवासी बहुत – से असुरकुमार देवों और देवियों द्वारा तामली बालतपस्वी के मृत शरीर की हीलना, निन्दा और आक्रोशना की जा रही है, यावत् उस शब को मनचाहे ढंग से इधर – उधर घसीटा या खींचा जा रहा है। अतः इस प्रकार देखकर वे वैमानिक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 164 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो विमानेहिंतो ईसानस्स देविंदस्स देवरन्नो विमाना ईसिं उच्चतरा चेव ईसिं उन्नयतरा चेव? ईसानस्स वा देविंदस्स देवरन्नो विमानेहिंतो सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो विमाना ईसिं णीयतरा चेव ईसिं निन्नतरा चेव? हंता गोयमा! सक्कस्स तं चेव सव्वं नेयव्वं।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–
गोयमा! से जहानामए करयले सिया–देसे उच्चे, देसे उन्नए। देसे णीए, देसे निण्णे। से तेणट्ठेणं गोयमा! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जाव ईसिं निन्नतरा चेव। Translated Sutra: भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र के विमानों से देवेन्द्र देवराज ईशान के विमान कुछ (थोड़े – से) उच्चतर – ऊंचे हैं, कुछ उन्नततर हैं ? अथवा देवेन्द्र देवराज ईशान के विमानों से देवेन्द्र देवराज शक्र के विमान कुछ नीचे हैं, कुछ निम्नतर हैं ? हाँ, गौतम ! यह इसी प्रकार है। यहाँ ऊपर का सारा सूत्रपाठ (उत्तर के रूप में) समझ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 165 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया ईसानस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवित्तए?
हंता पभू।
से भंते! किं आढामाणे पभू? अणाढामाणे पभू?
गोयमा! आढामाणे पभू, नो अणाढामाणे पभू।
पभू णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवित्तए?
हंता पभू।
से भंते! किं आढामाणे पभू? अणाढामाणे पभू?
गोयमा! आढामाणे वि पभू, अणाढामाणे वि पभू।
पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया ईसाणं देविंदं देवरायं सपक्खिं सपडिदिसिं समभिलोइत्तए?
हंता पभू।
से भंते! किं आढामाणे पभू? अणाढामाणे पभू?
गोयमा! आढामाणे पभू, नो अणाढामाणे पभू।
पभू णं भंते! ईसाने देविंदे देवराया सक्कं देविंदं Translated Sutra: भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के पास प्रकट हो (जाने) में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम! शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र के पास जाने में समर्थ है। भगवन् ! क्या वह आदर करता हुआ जाता है, या अनादर करता हुआ जाता है ? हे गौतम ! वह ईशानेन्द्र का आदर करता हुआ जाता है, किन्तु अनादर करता हुआ नहीं। भगवन् ! देवेन्द्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 166 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं किच्चाइं करणिज्जाइं समुप्पज्जंति?
हंता अत्थि।
कहमिदानिं पकरेंति?
गोयमा! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया ईसानस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवति, ईसाने वा देविंदे देवराया सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवति इति भो! सक्का! देविंदा! देवराया! दाहिणड्ढलोगाहिवई! इति भो! ईसाणा! देविंदा! देवराया! उत्तरड्ढलोगाहिवई! इति भो! इति भो! त्ति ते अन्नमन्नस्स किच्चाइं करणिज्जाइं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति।
अत्थि णं भंते! तेसिं सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं विवादा समुप्पज्जंति?
हंता अत्थि।
से कहमिदाणिं Translated Sutra: भगवन् ! उन देवेन्द्र देवराज शक्र और देवेन्द्र देवराज ईशान के बीच में परस्पर कोई कृत्य और करणीय समुत्पन्न होते हैं ? हाँ, गौतम ! समुत्पन्न होते हैं। भगवन् ! जब इन दोनों के कोई कृत्य या करणीय होते हैं, तब वे कैसे व्यवहार (कार्य) करते हैं ? गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र को कार्य होता है, तब वह देवेन्द्र देवराज ईशान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 167 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सणंकुमारे णं भंते! देविंदे देवराया किं भवसिद्धिए? अभवसिद्धिए? सम्मद्दिट्ठी? मिच्छद्दिट्ठी? परित्त-संसारिए? अनंतसंसारिए? सुलभबोहिए? दुल्लभबोहिए? आराहए? विराहए? चरिमे? अचरिमे?
गोयमा! सणंकुमारे णं देविंदे देवराया भवसिद्धिए, नो अभवसिद्धिए। सम्मद्दिट्ठी, नो मिच्छद्दिट्ठी। परित्तसंसारिए, नो अनंत-संसारिए। सुलभबोहिए, नो दुल्लभबोहिए। आराहए, नो विराहए। चरिमे, नो अचरिमे।
से केणट्ठेणं भंते!
गोयमा! सणंकुमारे णं देविंदे देवराया बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं हियकामए सुहकामए पत्थकामए आणुकंपिए निस्सेससिए हिय-सुह-निस्सेसकामए। से तेणट्ठेणं गोयमा! Translated Sutra: हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं ?; सम्यग्दृष्टि हैं, या मिथ्या – दृष्टि हैं ? परित्त संसारी हैं या अनन्त संसारी ? सुलभबोधि हैं, या दुर्लभबोधि ?; आराधक है, अथवा विराधक ? चरम है अथवा अचरम ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं; इसी तरह वह सम्यग्दृष्टि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 168 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] छट्ठट्ठममासो, अद्धमासो वासाइं अट्ठ छम्मासा ।
तीसग-कुरुदत्ताणं, तव-भत्तपरिण्ण-परियाओ ॥ Translated Sutra: तिष्यक श्रमण का तप छट्ठ – छट्ठ था और उसका अनशन एक मास का था। कुरुदत्तपुत्र श्रमण का तप अट्ठम – अट्ठम का था और उसका अनशन था – अर्द्ध मासिक। तिष्यक श्रमण की दीक्षापर्याय आठ वर्ष की थी, और कुरुदत्तपुत्र श्रमण की थी – छह मास की। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 169 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उच्चत्त विमानाणं, पाउब्भव पेच्छणा य संलावे ।
किच्च विवादुप्पत्ती, सणंकुमारे य भवियत्तं ॥ Translated Sutra: इसके अतिरिक्त दो इन्द्रों के विमानो की ऊंचाई, एक इन्द्र का दूसरे के पास आगमन</em>, परस्पर प्रेक्षण, उनका आलाप – संलाप, उनका कार्य, उनमें विवादोत्पत्ति तथा उनका निपटारा, तथा सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धि – कता आदि विषयों का निरूपण इस उद्देशक में है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 170 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था जाव परिसा पज्जुवासइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहानीए, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासनंसि, चउसट्ठीए सामानियसाहसहिं जाव नट्टविहिं उवदंसेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
अत्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए, सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव अत्थि णं भंते! ईसिप्पब्भाराए पुढवीए अहे असुर-कुमारा देवा परिवसंति? नो इणट्ठे Translated Sutra: उस काल, उस समय में राजगृह नामका नगर था। यावत् भगवान वहाँ पधारे और परीषद् पर्युपासना करने लगी। उस काल, उस समय में चौंसठ हजार सामानिक देवों से परिवृत्त और चमरचंचा नामक राजधानी में, सुधर्मासभा में चमर नामक सिंहासन पर बैठे असुरेन्द्र असुरराज चमर ने (राजगृह में विराजमान भगवान को अवधिज्ञान से देखा); यावत् नाट्यविधि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 171 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] केवइयकालस्स णं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य?
गोयमा! अनंताहिं ओसप्पिणीहिं, अनंताहिं उस्सप्पिणीहिं समतिक्कंताहिं अत्थि णं एस भावे लोयच्छेरयभूए समुप्पज्जइ, जं णं असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो।
किं निस्साए णं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव साहम्मो कप्पो?
गोयमा! से जहानामए इहं सबरा इ वा बब्बरा इ वा टंकणा इ वा चुचुया इ वा पल्हा इ वा पुलिंदा इ वा एगं महं रण्णं वा गड्ढं वा दुग्गं वा दरिं वा विसमं वा पव्वयं वा नीसाए सुमहल्लमवि आसबलं वा हत्थिबलं वा जोहबलं वा धणुबलं वा आगलेंति,
एवामेव असुरकुमारा वि Translated Sutra: भगवन् ! कितने काल में असुरकुमार देव ऊर्ध्व – गमन करते हैं, तथा सौधर्मकल्प तक ऊपर गए हैं, जाते हैं और जाएंगे ? गौतम ! अनन्त उत्सर्पिणी – काल और अनन्त अवसर्पिणीकाल व्यतीत होने के पश्चात् लोक में आश्चर्यभूत यह भाव समुत्पन्न होता है कि असुरकुमार देव ऊर्ध्वगमन करते हैं, यावत् सौधर्मकल्प तक जाते हैं। भगवन् ! किसका | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 172 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चमरे णं भंते! असुरिंदेणं असुररण्णा सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लद्धे? पत्ते? अभिसमन्नागए?
एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे विंज्झगिरिपायमूले बेभेले नामं सन्निवेसे होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं बेभेले सन्निवेसे पूरणे नामं गाहावई परिवसइ–अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभूए या वि होत्था।
तए णं तस्स पूरणस्स गाहावइस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–अत्थि ता मे पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं Translated Sutra: भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि और यावत् वह सब, किस प्रकार उपलब्ध हुई, प्राप्त हुई और अभिसमन्वागत हुई ? हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारत वर्ष (क्षेत्र) में, विन्ध्याचल की तलहटी में ‘बेभेल’ नामक सन्निवेश था। वहाँ ‘पूरण’ नामक एक गृहपति रहता था। वह आढ्य और दीप्त | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 173 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–नो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु समत्थे चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो अप्पणो निस्साए उड्ढं उप्पइत्ता जाव सोहम्मो कप्पो, नन्नत्थ अरहंते वा, अरहंतचेइयाणि वा, अनगारे वा भाविअप्पाणो नीसाए उड्ढं उप्पयइ जाव सोहम्मो कप्पो, तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए त्ति कट्टु ओहिं पउंजइ, ममं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता हा! हा! अहो! हतो अहमंसि त्ति कट्टु ताए उक्किट्ठाए जाव दिव्वाए देवगईए वज्जस्स वीहिं Translated Sutra: उसी समय देवेन्द्र शक्र को इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी शक्ति वाला नहीं है, न असुरेन्द्र असुरराज चमर इतना समर्थ है, और न ही असुरेन्द्र असुरराज चमर का इतना विषय है कि वह अरिहंत भगवंतों, अर्हन्त भगवान के चैत्यों अथवा भावितात्मा अनगार का आश्रय लिए बिना | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 174 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सक्के देविंदे देवराया वज्जं पडिसाहरित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता
वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासि–एवं खलु भंते! अहं तुब्भं नीसाए चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा सयमेव अच्चासाइए। तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो बहाए वज्जे निसट्ठे।
तए णं ममं इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था– नो खलु पभू चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु समत्थे चमरे असुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो अप्पणो निस्साए उड्ढं उप्पइत्ता जाव सोहम्मो कप्पो, नन्नत्थ अरहंते वा, अरहंतचेइयाणि Translated Sutra: हे गौतम ! (जिस समय शक्रेन्द्र ने वज्र को पकड़ा, उस समय उसने अपनी मुट्ठी इतनी जोर से बन्द की कि) उस मुट्ठी की हवा से मेरे केशाग्र हिलने लगे। तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र ने वज्र को लेकर दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की और मुझे वन्दन – नमस्कार किया। वन्दन – नमस्कार करके कहा – भगवन् ! आपका ही आश्रय लेकर स्वयं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 175 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी–देवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महानुभागे पुव्वामेव पोग्गलं खिवित्ता पभू तमेवं अनुपरियट्टित्ता णं गेण्हित्तए?
हंता पभू।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–देवे णं महिड्ढीए जाव महानुभागे पुव्वामेव पोग्गलं खिवित्ता पभू तमेव अनुपरियट्टित्ता णं गेण्हित्तए?
गोयमा! पोग्गले णं खित्ते समाणे पुव्वामेव सिग्घगई भवित्ता ततो पच्छा मंदगती भवति, देवे णं महिड्ढीए जाव महानुभागे पुव्विं पि पच्छा वि सीहे सीहगती चेव तुरिए तुरियगती चेव। से तेणट्ठेणं जाव पभू गेण्हित्तए।
जइ णं भंते! देवे महिड्ढीए जाव पभू तमेव Translated Sutra: ‘हे भगवन् !’ यों कहकर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन – नमस्कार किया। वन्दन – नमस्कार करके इस प्रकार कहा (पूछा) भगवन् ! महाऋद्धिसम्पन्न, महाद्युतियुक्त यावत् महाप्रभाव – शाली देव क्या पहले पुद्गल को फैंक कर, फिर उसके पीछे जाकर उसे पकड़ लेने में समर्थ है ? हाँ, गौतम ! वह समर्थ है। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 176 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया वज्जभयविप्पमुक्के, सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा महया अवमाणेणं अवमाणिए समाणे चमरचंचाए रायहानीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि ओहयमणसंकप्पे चिंतासोयसागरसंपविट्ठे करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए भूमिगयदिट्ठीए ज्झियाति।
तए णं चमरं असुरिंदं असुररायं सामानियपरिसोववण्णया देवा ओहयमणसंकप्पं जाव ज्झियायमाणं पासंति, पासित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी– किं णं देवानुप्पिया! ओहयमणसंकप्पा चिंतासोयसागर-संपविट्ठा करयलपल्हत्थमुहा अट्टज्झाणोवगया भूमिगयदिट्ठीया Translated Sutra: इसके पश्चात् वज्र – (प्रहार) के भय से विमुक्त बना हुआ, देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा महान् अपमान से अपमानित हुआ, चिन्ता और शोक के समुद्र में प्रविष्ट असुरेन्द्र असुरराज चमर, मानसिक संकल्प नष्ट हो जाने से मुख को हथेली पर रखे, दृष्टि को भूमि में गड़ाए हुए आर्तध्यान करता हुआ, चमरचंचा नामक राजधानी में सुधर्मा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-२ चमरोत्पात | Hindi | 177 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किंपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो?
गोयमा! तेसि णं देवाणं अहुणोववण्णाण वा चरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुपज्जइ–अहो! णं अम्हेहिं दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागए, जारिसिया णं अम्हेहिं दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागए, तारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागए। जारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा जाव अभिस-मण्णागए, तारिसिया णं अम्हेहि वि जाव अभिसमन्नागए।
तं गच्छामो णं सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउब्भवामो पासामो ताव सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो Translated Sutra: भगवन् ! असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प तक ऊपर किस कारण से जाते हैं ? गौतम ! (देवलोक में) तत्काल उत्पन्न तथा चरमभवस्थ उन देवों को इस प्रकार का, इस रूप का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है – अहो ! हमने दिव्य देवऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है, अभिसमन्वागत की है। जैसी दिव्य देवऋद्धि हमने यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-३ क्रिया | Hindi | 178 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी मंडिअपुत्ते नामं अनगारे पगइभद्दए जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–कइ णं भंते! किरियाओ पन्नत्ताओ?
मंडिअपुत्ता! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा– काइया, अहिगरणिआ, पाओसिआ, पारियावणिआ, पाणाइवायकिरिया।
काइया णं भंते! किरिया कइविहा पन्नत्ता?
मंडिअपुत्ता! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–अणुवरयकायकिरिया य, दुप्पउत्तकायकिरिया य।
अहिगरणिआ णं भंते! किरिया कइविहा पन्नत्ता?
मंडिअपुत्ता! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–संजोयणाहिगरणकिरिया य, निवत्तणाहिगरणकिरिया य।
पाओसिआ Translated Sutra: उस काल और उस समय में ‘राजगृह’ नामक नगर था; यावत् परिषद् (धर्मकथा सून) वापस चली गई। उस काल और उस समय में भगवान के अन्तेवासी प्रकृति से भद्र मण्डितपुत्र नामक अनगार यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले – भगवन् ! क्रियाएं कितनी कही गई हैं ? हे मण्डितपुत्र ! क्रियाएं पाँच कही गई हैं। – कायिकी, आधिकर – णिकी, प्राद्वेषिकी, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-३ क्रिया | Hindi | 179 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुव्विं भंते! किरिया, पच्छा वेदना? पुव्विं वेदना, पच्छा किरिया?
मंडिअपुत्ता! पुव्विं किरिया, पच्छा वेदना। नो पुव्विं वेदना, पच्छा किरिया। Translated Sutra: भगवन् ! पहले क्रिया होती है, और पीछे वेदना होती है ? अथवा पहले वेदना होती है, पीछे क्रिया होती है? मण्डितपुत्र ! पहले क्रिया होती है, बाद में वेदना होती है; परन्तु पहले वेदना हो और पीछे क्रिया हो, ऐसा नहीं होता। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-३ क्रिया | Hindi | 180 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ?
हंता अत्थि।
कहन्नं भंते! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ?
मंडिअपुत्ता! पमायपच्चया, जोगनिमित्तं च। एवं खलु समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ। Translated Sutra: भगवन् ! क्या श्रमण – निर्ग्रन्थों के (भी) क्रिया होती (लगती) है ? हाँ, होती है। भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थों के क्रिया कैसे हो जाती है ? मण्डितपुत्र ! प्रमाद के कारण और योग के निमित्त से इन्हीं दो कारणों से श्रमण – निर्ग्रन्थों को क्रिया होती (लगती) है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-३ क्रिया | Hindi | 181 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ?
हंता मंडिअपुत्ता! जीवे णं सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ।
जावं च णं भंते! से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंत किरिया भवइ?
नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति?
मंडिअपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया समितं एयति वेयति चलति फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव सदा समित (मर्यादित) रूप में काँपता है, विविध रूप में काँपता है, चलता है, स्पन्दन क्रिया करता है, घट्टित होता (घूमता) है, क्षुब्ध होता है, उदीरित होता या करता है; और उन – उन भावों में परिणत होता है ? हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा समित – (परिमित) रूप से काँपता है, यावत् उन – उन भावों में परिणत होता है। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-३ क्रिया | Hindi | 182 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पमत्तसंजयस्स णं भंते! पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं पमत्तद्धा कालओ केवच्चिरं होइ?
मंडिअपुत्ता! एगं जीवं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। नानाजीवे पडुच्च सव्वद्धा।
अप्पमत्तसंजयस्स णं भंते! अप्पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं अप्पमत्तद्धा कालओ केवच्चिरं होइ?
मंडिअपुत्ता! एगं जीवं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी नाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धं।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं मंडिअपुत्ते अनगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति। Translated Sutra: भगवन् ! प्रमत्त – संयम में प्रवर्तमान प्रमत्तसंयत का सब मिलाकर प्रमत्तसंयमकाल कितना होता है ? मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि – होता है। अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होता है। भगवन् ! अप्रमत्तसंयम में प्रवर्तमान अप्रमत्तसंयम का सब मिलाकर अप्रमत्तसंयमकाल कितना | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-३ क्रिया | Hindi | 183 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–कम्हा णं भंते! लवणसमुद्दे चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु अतिरेगे वड्ढइ वा? हायइ वा?
लवणसमुद्दवत्तव्वया नेयव्वा जाव लोयट्ठिई, लोयाणुभावे।
सेवं भंते! सेवं भंते? त्ति जाव विहरति। Translated Sutra: गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन – नमस्कार करके पूछा – भगवन् ! लवणसमुद्र; चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पूर्णमासी; इन चार तिथियों में क्यों अधिक बढ़ता या घटता है ? हे गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में लवणसमुद्र के सम्बन्ध में जैसा कहा है, वैसा यावत् ‘लोकस्थिति’ से ‘लोकानुभाव’ शब्द तक कहना चाहिए। ‘हे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-४ यान | Hindi | 184 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनगारे णं भंते! भाविअप्पा देवं वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहयं जाणरूवेणं जामाणं जाणइ-पासइ?
गोयमा! १. अत्थेगइए देवं पासइ, नो जाणं पासइ। २. अत्थेगइए जाणं पासइ, नो देवं पासइ। ३. अत्थेगइए देवं पि पासइ, जाणं पि पासइ। ४. अत्थेगइए नो देवं पासइ, नो जाणं पासइ।
अनगारे णं भंते! भाविअप्पा देविं वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहयं जाणरूवेणं जामाणिं जाणइ-पासइ?
गोयमा! १. अत्थेगइए देविं पासइ, नो जाणं पासइ। २. अत्थेगइए जाणं पासइ, नो देविं पासइ। ३. अत्थेगइए देविं पि पासइ, जाणं पि पासइ। ४. अत्थेगइए नो देविं पासइ, नो जाणं पासइ।
अनगारे णं भंते! भाविअप्पा देवं सदेवीअं वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहयं जाणरूवेणं Translated Sutra: भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुए और यानरूप से जाते हुए देव को जानता देखता है ? गौतम ! (१) कोई (भावितात्मा अनगार) देव को तो देखता है, किन्तु यान को नहीं देखता; (२) कोई यान को देखता है, किन्तु देव को नहीं देखता; (३) कोई देव को भी देखता है और यान को भी देखता है; (४) कोई न देव को देखता है और न यान को | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-४ यान | Hindi | 185 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पभू णं भंते! वाउकाए एगं महं इत्थिरूवं वा पुरिसरूवं वा [आसरूवं वा?] हत्थिरूवं वा जाणरूवं वा जुग्गरूवं वा गिल्लिरूवं वा थिल्लिरूवं वा सीयरूवं वा संदमाणियरूवं वा विउव्वित्तए?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे। वाउकाए णं विकुव्वमाणे एगं महं पडागासंठियं रूवं विकुव्वइ।
पभू णं भंते! वाउकाए एगं महं पडागासंठियं रूवं विउव्वित्ता अनेगाइं जोयणाइं गमित्तए? हंता पभू।
से भंते! किं आइड्ढीए गच्छइ? परिड्ढीए गच्छइ?
गोयमा! आइड्ढीए गच्छइ, नो परिड्ढीए गच्छइ।
से भंते! किं आयकम्मुणा गच्छइ? परकम्मुणा गच्छइ?
गोयमा! आयकम्मुणा गच्छइ, नो परकम्मुणा गच्छइ।
से भंते! किं आयप्पयोगेण गच्छइ? परप्पयोगेण गच्छइ?
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! क्या वायुकाय एक बड़ा स्त्रीरूप, पुरुषरूप, हस्तिरूप, यानरूप, तथा युग्य, गिल्ली, थिल्ली, शिविका, स्यन्दमानिका, इन सबके रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। किन्तु वायुकाय एक बड़ी पताका के आकार के रूप की विकुर्वणा कर सकता है। भगवन् ! क्या वायुकाय एक बड़ी पताका के आकार की विकुर्वणा करके | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-४ यान | Hindi | 186 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पभू णं भंते! बलाहए एगं महं इत्थिरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा परिणामेत्तए?
हंता पभू।
पभू णं भंते! बलाहए एगं महं इत्थिरूवं परिणामेत्ता अनेगाइं जोयणाइं गतित्तए।
हंता पभू।
से भंते! किं आइड्ढीए गच्छइ? परिड्ढीए गच्छइ?
गोयमा! नो आइड्ढीए गच्छइ, परिड्ढीए गच्छइ।
से भंते! किं आयकम्मुणा गच्छइ? परकम्मुणा गच्छइ?
गोयमा! नो आयकम्मुणा गच्छइ, परकम्मुणा गच्छइ।
से भंते! किं आयप्पयोगेणं गच्छइ? परप्पयोगेणं गच्छइ?
गोयमा! नो आयप्पयोगेणं गच्छइ, परप्पयोगेणं गच्छइ।
से भंते! किं ऊसिओदयं गच्छइ? पतोदयं गच्छइ?
गोयमा! ऊसिओदयं पि गच्छइ, पतोदयं पि गच्छइ।
से भंते! किं बलाहए? इत्थी?
गोयमा! बलाहए णं से, Translated Sutra: भगवन् ! क्या बलाहक (मेघ) एक बड़ा स्त्रीरूप यावत् स्यन्दमानिका (म्याने) रूप में परिणत होने में समर्थ है? हाँ, गौतम ! समर्थ है। भगवन् ! क्या बलाहक एक बड़े स्त्रीरूप में परिणत होकर अनेक योजन तक जाने में समर्थ है? हाँ, गौतम ! समर्थ है। भगवन् ! क्या वह बलाहक आत्मऋद्धि से गति करता है या परऋद्धि से ? गौतम ! वह आत्मऋद्धि से | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-४ यान | Hindi | 187 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! किंलेस्सेसु उववज्जइ?
गोयमा! जल्लेस्साइं दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेस्सेसु उववज्जइ, तं जहा–कण्हलेस्सेसु वा, नीललेस्सेसु वा, काउलेस्सेसु वा। एवं जस्स वा लेस्सा वा तस्स भाणियव्वा। जाव–
जीवे णं भंते! जे भविए जोइसिएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! किंलेस्सेसु उववज्जइ?
गोयमा! जल्लेसाइं दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेस्सेसु उववज्जइ, तं जहा–तेउलेस्सेसु।
जीवे णं भंते! जे भविए वेमाणिएसु उववज्जित्तए, से णं भंते! किंलेस्सेसु उववज्जइ?
गोयमा! जल्लेस्साइं दव्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेस्सेसु उववज्जइ, तं जहा–तेउलेस्सेसु Translated Sutra: भगवन् ! जो जीव, नैरयिकों में उत्पन्न होने वाला है, वह कौन – सी लेश्या वालों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! वह जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है, उसी लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है। यथा – कृष्णलेश्या वालों में, नीललेश्या वालों में, अथवा कापोतलेश्या वालों में। इस प्रकार जो जिसकी लेश्या हो, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-४ यान | Hindi | 188 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा? पल्लंघेत्तए वा?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
अनगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा? पल्लंघेत्तए वा?
हंता पभू।
अनगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता जावइयाइं रायगिहे नगरे रूवाइ, एवइयाइं विकुव्वित्ता वेभारं पव्वयं अंतो अनुप्पविसित्ता पभू समं वा विसमं करेत्तए? विसमं वा समं करेत्तए?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
अनगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता जावइयाइं रायगिहे नगरे रूवाइं, एवइयाइं विकुव्वित्ता वेभारं Translated Sutra: भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किए बिना वैभारगिरि को उल्लंघ सकता है, अथवा प्रलंघ सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके क्या वैभारगिरि को उल्लंघन या प्रलंघन करने में समर्थ है ? हाँ, गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ है। भगवन् ! भावितात्मा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-५ स्त्री | Hindi | 189 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा विउव्वित्तए?
नो इणट्ठे समट्ठे।
अनगारे णं भंते! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगं महं इत्थीरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा विउव्वित्तए?
हंता पभू।
अनगारे णं भंते! भाविअप्पा केवइआइं पभू इत्थिरूवाइं विउव्वित्तए?
गोयमा! से जहानामए–जुवइं जुवाणे हत्थेणं हत्थंसि गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव अणवारे वि भाविअप्पा वेउव्वियससमुग्घाएणं समोहण्णइ जाव पभू णं गोयमा! अनगारे णं भाविअप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थि-रूवेहिं आइण्णं वितिकिण्णं Translated Sutra: भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किए बिना एक बड़े स्त्रीरूप यावत् स्यन्द – मानिका रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके क्या एक बड़े स्त्रीरूप की यावत् स्यन्दमानिका रूप की विकुर्वणा कर सकता है ? हाँ, गौतम ! वह वैसा कर सकता है। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-५ स्त्री | Hindi | 190 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इत्थी असी पडागा, जण्णोवइए य होइ बोद्धव्वे ।
पल्हत्थिय पलियंके, अभिओग विकुव्वणा मायी ॥ Translated Sutra: स्त्री, तलवार, पताका, यज्ञोपवित, पल्हथी, पर्यंकासन इन सब रूपों के अभियोग और विकुर्वणा – सम्बन्धी वर्णन इस उद्देशक में हैं। तथा ऐसा कार्य मायी करता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-६ नगर | Hindi | 191 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनगारे णं भंते! भावियप्पा मायी मिच्छदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए विभंगनाणलद्धीए वाणारसिं नगरिं समोहए, समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूवाइं जाणइ-पासइ?
हंता जाणइ-पासइ।
से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? अन्नहाभावं जाणइ-पासइ?
गोयमा! नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अन्नहाभावं जाणइ-पासइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– तहाभावं जाणइ-पासइ? अन्नहाभावं जाणइ-पासइ?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ–एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नगरीए रूवाइं जाणामि-पासामि सेसं दंसण-विवच्चासे भवइ। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अन्नहाभावं जाणइ-पासइ।
अनगारे णं भंते! भावियप्पा Translated Sutra: भगवन् ! राजगृह नगर में रहा हुआ मिथ्यादृष्टि और मायी भावितात्मा अनगार वीर्यलब्धि से, वैक्रियलब्धि से और विभंगज्ञानलब्धि से वाराणसी नगरी की विकुर्वणा करके क्या तद्गत रूपों को जानता – देखता है ? हाँ, गौतम ! वह जानता और देखता है। भगवन् ! क्या वह (उन रूपों को) यथार्थरूप से जानता – देखता है, अथवा अन्यथाभाव से जानता | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-६ नगर | Hindi | 192 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनगारे णं भंते! भाविअप्पा अमायी सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए ओहिनाणलद्धीए रायगिहं नगरं समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाइं जाणइ-पासइ?
हंता जाणइ-पासइ।
से भंते! किं तहाभावं जाणइ-पासइ? अन्नहाभावं जाणइ-पासइ?
गोयमा! तहाभावं जाणइ-पासइ, नो अन्नहाभावं जाणइ-पासइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–तहाभावं जाणइ-पासइ, नो अन्नहाभावं जाणइ-पासइ?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ–एवं खलु अहं रायगिहे नयरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाइं जाणामि-पासामि सेस दंसण-अविवच्चासे भवति। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–तहाभावं जाणइ-पासइ, नो अन्नहाभावं जाणइ-पासइ।
अनगारे णं भंते! Translated Sutra: भगवन् ! अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार, अपनी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धि से, राजगृहनगर और वाराणसी नगरी के बीच में एक बड़े जनपदवर्ग को जानता – देखता है ? हाँ (गौतम ! उस जनपदवर्ग को) जानता – देखता है। भगवन् ! क्या वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से जानता और देखता है, अथवा अन्यथाभाव से ? गौतम! वह उस जनपदवर्ग | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-६ नगर | Hindi | 193 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो कइ आयरक्खदेवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! चत्तारि चउसट्ठीओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ। ते णं आयरक्खा–वण्णओ।
एवं सव्वेसिं इंदाणं जस्स जत्तिया आयरक्खा ते भाणियव्वा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: MISSING_TEXT_IN_ORIGINAL | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 194 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो कति लोगपाला पन्नत्ता?
गोयमा! चत्तारि लोगपाला पन्नत्ता, तं जहा–सोमे जमे वरुणे वेसमणे।
एएसि णं भंते! चउण्हं लोगपालाणं कति विमाना पन्नत्ता?
गोयमा! चत्तारि विमाना पन्नत्ता, तं जहा– संज्झप्पभे वरसिट्ठे सयंजले वग्गू।
कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो संज्झप्पभे नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढं चंदिम-सूरिय-गहगण-नक्खत्त तारारूवाणं बहूइं जोयणाइं जाव पंच वडेंसया पन्नत्ता, Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने (पूछा – ) भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के कितने लोकपाल कहे गए हैं ? गौतम ! चार। सोम, यम, वरुण और वैश्रमण। भगवन् ! इन चारों लोकपालों के कितने विमान हैं ? गौतम ! चार। सन्ध्याप्रभ, वरशिष्ट, स्वयंज्वल और वल्गु। भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल सोम नामक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 195 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो वरसिट्ठे नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! सोहम्मवडेंसयस्स महाविमानस्स दाहिणे णं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाइं जोयण-सहस्साइं वीईवइत्ता, एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो वरसिट्ठे नामं महाविमाने पन्नत्ते–अद्धतेरसजोयणसयसहस्साइं–जहा सोमस्स विमाणं तहा जाव अभिसेओ। रायहानी तहेव जाव पासायपंतीओ।
सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो इमे देवा आणा उववाय-वयण-निद्देसे चिट्ठंति, तं जहा–जमकाइया इ वा, जमदेवयकाइया इ वा, पेतकाइया इ वा, पेतदेवयकाइया इ वा, असुरकुमारा, असुरकुमारीओ, कंदप्पा, निरयपाला, Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल – यम महाराज का वरशिष्ट नामक महाविमान कहाँ है ? गौतम ! सौधर्मावतंसक नाम के महाविमान से दक्षिण में, सौधर्मकल्प से असंख्य हजार योजन आगे चलने पर, देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल यम महाराज का वरशिष्ट नामक महाविमान बताया गया है, जो साढ़े बारह लाख योजन लम्बा – चौड़ा है, इत्यादि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 196 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अंबे अंबरिसे चेव, सामे सबले त्ति यावरे ।
रुद्दोवरुद्दे काले य, महाकाले त्ति यावरे ॥ Translated Sutra: ‘अम्ब, अम्बरिष, श्याम, शबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल। तथा – असिपत्र, धनुष, कुम्भ, वालू, वैतरणी, खरस्वर और महाघोष ये पन्द्रह विख्यात हैं। सूत्र – १९६, १९७ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 197 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] असिपत्ते धनू कुंभे, वालुए वेतरणी त्ति य ।
खरस्सरे महाघोसे, एते पन्नरसाहिया ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १९६ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 198 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो सतिभागं पलिअ ठिई पन्नत्ता, अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता। एमहिड्ढीए जाव महानुभागे जमे महाराया। Translated Sutra: देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल – यम महाराज की स्थिति तीन भाग सहित एक पल्योपम की है और उसके अपत्यरूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम है। ऐसी महाऋद्धि वाला यावत् यममहाराज है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 199 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वरुणस्स महारन्नो सयंजले नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमानस्स पच्चत्थिमे णं जहा सोमस्स तहा विमान-रायधानीओ भाणियव्वा जाव पासादवडेंसया, नवरं–नामनाणत्तं।
सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वरुणस्स महारन्नो इमे देवा आणाउववाय-वयण-निद्देसे चिट्ठंति, तं जहा–वरुणकाइया इ वा, वरुणदेवयकाइया इ वा, नागकुमारा, नागकुमारीओ, उदहि-कुमारा, उदहिकुमारीओ, थणियकुमारा, थणियकुमारीओ–जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया, तप्पक्खिया, तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वरुणस्स महारन्नो आणा-उववाय-वयण-निद्देसे Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल – वरुण महाराज का स्वयंज्वल नामक महाविमान कहाँ है? गौतम ! उस सौधर्मावतंसक महाविमान से पश्चिम में सौधर्मकल्प से असंख्येय हजार योजन पार करने के बाद, स्वयंज्वल नाम का महाविमान आता है; इसका सारा वर्णन सोममहाराज के महाविमान की तरह जान लेना, राजधानी यावत् प्रासादावतंसकों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-७ लोकपाल | Hindi | 200 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहि णं भंते! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो वग्गू नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! तस्स णं सोहम्मवडेंसयस्स महाविमानस्स उत्तरे णं जहा सोमस्स विमान-रायहाणि-वत्तव्वया तहा नेयव्वा जाव पासादवडेंसया।
सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो इमे देवा आणा-उववाय-वयण-निद्देसे चिट्ठंति, तं जहा–वेसमणकाइया इ वा, वेसमणदेवयकाइया इ वा, सुवण्णकुमारा, सुवण्णकुमारीओ, दीवकुमारा, दीवकुमारीओ, दिसाकुमारा, दिसाकुमारीओ, वाणमंतरा, वाणमंतरीओ–जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते तब्भत्तिया तप्पक्खिया तब्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो आणा-उववाय-वयण-निद्देसे Translated Sutra: भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के (चतुर्थ) लोकपाल – वैश्रमण महाराज का वल्गु नामक महाविमान कहाँ है? गौतम ! सौधर्मावतंसक नामक महाविमान के उत्तरमें है। इस सम्बन्ध में सारा वर्णन सोम महाराज के महा – विमान की तरह जानना चाहिए; और वह यावत् राजधानी यावत् प्रासादावतंसक तक का वर्णन भी उसी तरह जान लेना चाहिए देवेन्द्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-८ देवाधिपति | Hindi | 201 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी–असुरकुमाराणं भंते! देवाणं कइ देवा आहेवच्चं जाव विहरंति?
गोयमा! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा–चमरे असुरिंदे असुरराया, सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे, बली वइरोयणिंदे वइरोयणराया, सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे।
नागकुमाराणं भंते! देवाणं कइ देवा आहेवच्चं जाव विहरंति?
गोयमा! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा–धरणे णं नागकुमारिंदे नागकुमारराया, कालवाले, कोलवाले, सेलवाले, संखवाले, भूयानंदे नागकुमारिंदे नागकुमारराया, कालवाले, कोलवाले, संखवाले, सेलवाले।
जहा नागकुमारिंदाणं एताए वत्तव्वयाए नीयं एवं इमाणं नेयव्वं –
सुवण्णकुमाराणं – Translated Sutra: राजगृह नगर में, यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा – ‘भगवन् ! असुरकुमार देवों पर कितने देव आधिपत्य करते रहते हैं ?’ गौतम ! असुरकुमार देवों पर दस देव आधिपत्य करते हुए यावत् रहते हैं। असुरेन्द्र असुरराज चमर, सोम, यम, वरुण, वैश्रमण तथा वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि, सोम, यम, वरुण और वैश्रमण भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-८ देवाधिपति | Hindi | 202 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] काले य महाकाले, सुरूव-पडिरूव-पुण्णभद्दे य ।
अमरवई माणिभद्दे, भीमे य तहा महाभीमे ॥ Translated Sutra: (१) काल और महाकाल, (२) सुरूप और प्रतिरूप, (३) पूर्णभद्र और मणिभद्र, (४) भीम और महाभीम। तथा – (५) किन्नर और किम्पुरुष, (६) सत्पुरुष और महापुरुष, (७) अतिकाय और महाकाय, तथा (८) गीतरति और गीतयश। ये सब वाणव्यन्तर देवों के अधिपति – इन्द्र हैं। सूत्र – २०२, २०३ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-८ देवाधिपति | Hindi | 203 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] किन्नर-किंपुरिसे खलु, सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे ।
अइकाय-महाकाए, गीयरई चेव गीयजसे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २०२ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-८ देवाधिपति | Hindi | 204 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एते वाणमंतराणं देवाणं।
जोइसियाणं देवाणं दो देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा–चंदे य, सूरे य।
सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु कइ देवा आहेवच्चं जाव विहरंति?
गोयमा! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा–सक्के देविंदे देवराया, सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे। ईसाने देविंदे देव-राया, सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे।
एसा वत्तव्वया सव्वेसु वि कप्पेसु एए चेव भाणियव्वा। जे य इंदा ते य भाणियव्वा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: ज्योतिष्क देवों पर आधिपत्य करते हुए दो देव यावत् विचरण करते हैं। यथा – चन्द्र और सूर्य। भगवन् ! सौधर्म और ईशानकल्प में आधिपत्य करते हुए कितने देव विचरण करते हैं ? गौतम ! उन पर आधिपत्य करते हुए यावत् दस देव विचरण करते हैं। यथा – देवेन्द्र देवराज शक्र, सोम, यम, वरुण और वैश्रमण, देवेन्द्र देवराज ईशान, सोम, यम, वरुण | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-९ ईन्द्रिय | Hindi | 205 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–कइविहे णं भंते! इंदियविसए पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे इंदियविसए पन्नत्ते, तं जहा–सोतिंदियविसए चक्खिंदियविसए घाणिंदिय-विसए रसिंदियविसए फासिंदियविसए। जीवाभिगमे जोइसियउद्देसओ नेयव्वो अपरिसेसो। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् श्रीगौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा – भगवन् ! इन्द्रियों के विषय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! इन्द्रियों के विषय पाँच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं – श्रोत्रेन्द्रिय – विषय इत्यादि। इस सम्बन्ध में जीवाभिगमसूत्र में कहा हुआ ज्योतिष्क उद्देशक सम्पूर्ण कहना चाहिए। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१० परिषद् | Hindi | 206 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो कइ पारिसाओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! तओ परिसाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–समिया, चंडा, जाया। एवं जहाणुपुव्वीए जाव अच्चुओ कप्पो।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् श्री गौतम ने इस प्रकार पूछा – भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की कितनी परिषदाएं कही गई हैं ? हे गौतम ! उसकी तीन परिषदाएं कही गई हैं। यथा – शमिता, चण्डा और जाता। इसी प्रकार क्रमपूर्वक यावत् अच्युतकल्प तक कहना चाहिए। ‘हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४ |
Hindi | 207 | Gatha | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चत्तारि विमानेहिं, चत्तारि य होंति रायहानीहिं ।
नेरइए लेस्साहि य, दस उद्देसा चउत्थसए ॥ Translated Sutra: इस चौथे शतक में दस उद्देशक हैं। इनमें से प्रथम चार उद्देशकों में विमान – सम्बन्धी कथन किया गया है। पाँचवे से लेकर आठवें उद्देशक तक राजधानीयों का वर्णन है। नौवें उद्देशक में नैरयिकों का और दसवें उद्देशक में लेश्या के सम्बन्ध में निरूपण है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४ |
उद्देशक-१ थी ८ लोकपाल विमान अने राजधानी | Hindi | 208 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी–ईसानस्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो कइ लोगपाला पन्नत्ता?
गोयमा! चत्तारि लोगपाला पन्नत्ता, तं जहा–सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे।
एएसि णं भंते! लोगपालाणं कइ विमाना पन्नत्ता?
गोयमा! चत्तारि विमाना पन्नत्ता, तं जहा–सुमणे, सव्वओभद्दे, वग्गू, सुवग्गू।
कहि णं भंते! ईसानस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो सुमणे नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव ईसाने नामं कप्पे पन्नत्ते।
तत्थ णं जाव पंच वडेंसया पन्नत्ता, तं जहा– अंकवडेंसए, फलिहवडेंसए, रयणवडेंसए, जायरूव-वडेंसए, मज्झे ईसानवडेंसए।
तस्स Translated Sutra: राजगृह नगर में, यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहा – भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के कितने लोकपाल कहे गए हैं ? हे गौतम ! उसके चार लोकपाल कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं – सोम, यम, वैश्रमण और वरुण। भगवन् ! इन लोकपालों के कितने विमान कहे गए हैं ? गौतम ! इनके चार विमान हैं; वे इस प्रकार हैं – सुमन, सर्वतोभद्र, वल्गु और सुवल्गु। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४ |
उद्देशक-१ थी ८ लोकपाल विमान अने राजधानी | Hindi | 209 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आदि दुय तिभागूणा, पलिया धणयस्स होंति दो चेव ।
दो सतिभागा वरुणे, पलियमहावच्चदेवाणं ॥ Translated Sutra: आदि के दो – सोम और यम लोकपाल की स्थिति (आयु) त्रिभागन्यून दो – दो पल्योपम की है, वैश्रमण की स्थिति दो पल्योपम की है और वरुण की स्थिति त्रिभागसहित दो पल्योपम की है। अपत्यरूप देवों की स्थिति एक पल्योपम की है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४ |
उद्देशक-१ थी ८ लोकपाल विमान अने राजधानी | Hindi | 210 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायहानीसु वि चत्तारि उद्देसा भाणियव्वा जाव एमहिड्ढीए जाव वरुणे महाराया। Translated Sutra: चारों लोकपालों की राजधानीयोंके चार उद्देशक कहने चाहिए यावत् वरुण महाराज इतनी महाऋद्धि वाले हैं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४ |
उद्देशक-९ नैरयिक | Hindi | 211 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइए णं भंते! नेरइएसु उववज्जइ? अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ?
ए लेस्सापए तइओ उद्देसओ भाणियव्वो जाव नाणाइं। Translated Sutra: भगवन् ! जो नैरयिक है, क्या वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है, या जो अनैरयिक है, वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? (हे गौतम !) प्रज्ञापनासूत्र में कथित लेश्यापद का तृतीय उद्देशक यहाँ कहना चाहिए, और वह यावत् ज्ञानों के वर्णन तक कहना चाहिए। |