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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1483 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासओ परिणया जे उ अट्ठहा ते पकित्तिया ।
कक्खडा मउया चेव गरुया लहुया तहा ॥ Translated Sutra: जो पुद्गल स्पर्श से परिणत हैं, वे आठ प्रकार के हैं – कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष। इस प्रकार ये स्पर्श से परिणत पुद्गल कहे गये हैं। सूत्र – १४८३, १४८४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1485 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संठाणपरिणया जे उ पंचहा ते पकित्तिया ।
परिमंडला य वट्टा तंसा चउरंसमायया ॥ Translated Sutra: जो पुद्गल संस्थान से परिणत हैं, वे पाँच प्रकार के हैं – परिमण्डल, वृत्त, त्रिकोण, चौकोर और दीर्घ। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1486 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वण्णओ जे भवे किण्हे भइए से उ गंधओ ।
रसओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य ॥ Translated Sutra: जो पुद्गल वर्ण से कृष्ण हैं, या वर्ण से नील है, या रक्त है, या पीत है, या वर्ण से शुक्ल हैं वह गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य है। सूत्र – १४८६–१४९० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1491 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधओ जे भवे सुब्भी भइए से उ वण्णओ ।
रसओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य ॥ Translated Sutra: जो पुद्गल गन्ध से सुगन्धित है, या दुर्गन्धित है, वह वर्ण, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य है। सूत्र – १४९१, १४९२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1493 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसओ तित्तए जे उ भइए से उ वण्णओ ।
गंधओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य ॥ Translated Sutra: जो पुद्गल रस से तिक्त है, कटु है, कसैला है, खट्टा है या मधुर है वह वर्ण, गन्ध, स्पर्श और संस्थान से भाज्य है। सूत्र – १४९३–१४९७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1498 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासओ कक्खडे जे उ भइए से उ उण्णओ ।
गंधओ रसओ चेव भइए संठाणओ वि य ॥ Translated Sutra: जो पुद्गल स्पर्श से कर्कश है – मृदु है – गुरु है – लघु है – शीत है – उष्ण है – स्निग्ध है या रूक्ष है वह वर्ण, गन्ध, रस और संस्थान से भाज्य है। सूत्र – १४९८–१५०५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1506 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] परिमंडलसंठाणे भइए से उ वण्णओ ।
गंधओ रसओ चेव भइए फासओ वि य ॥ Translated Sutra: जो पुद्गल संस्थान से परिमण्डल है – वृत्त है – त्रिकोण है – चतुष्कोण है या आयत है वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भाज्य है। सूत्र – १५०६–१५१० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1512 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संसारत्था य सिद्धा य दुविहा जीवा वियाहिया ।
सिद्धा णेगविहा वुत्ता तं मे कित्तयओ सुण ॥ Translated Sutra: जीव के दो भेद हैं – संसारी और सिद्ध। सिद्ध अनेक प्रकार के हैं। उनका कथन करता हूँ, सुनो। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1513 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इत्थी पुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसगा ।
सलिंगे अन्नलिंगे य गिहिलिंगे तहेव य ॥ Translated Sutra: स्त्रीलिंग सिद्ध, पुरुषलिंग सिद्ध, नपुंसकलिंग सिद्ध और स्वलिंग सिद्ध, अन्यलिंग सिद्ध तथा गृहलिंग सिद्ध | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1514 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उक्कोसोगाहणाए य जहन्नमज्झिमाइ य ।
उड्ढं अहे य तिरियं य समुद्दम्मि जलम्मि य ॥ Translated Sutra: उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम अवगाहना में तथा ऊर्ध्व लोक में, तिर्यक् लोक में एवं समुद्र और अन्य जलाशय में जीव सिद्ध होते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1515 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दस चेव नपुंसेसुं वीसं इत्थियासु य ।
पुरिसेसु य अट्ठसयं समएणेगेण सिज्झई ॥ Translated Sutra: एक समय में दस नपुंसक, बीस स्त्रियाँ और एक – सौ आठ पुरुष एवं गृहस्थलिंग में चार, अन्यलिंग में दस, स्वलिंग में एक – सौ आठ एवं उत्कृष्ट अवगाहना में दो, जघन्य अवगाहना में चार और मध्यम अवगाहना में एक – सौ आठ एवं ऊर्ध्व लोक में चार, समुद्र में दो, जलाशय में तीन, अधो लोक में वीस, तिर्यक् लोक में एक – सौ आठ जीव सिद्ध हो सकते | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1519 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कहिं पडिहया सिद्धा? कहिं सिद्धा पइट्ठिया? ।
कहिं बोंदिं चइत्ताणं? कत्थ गंतूण सिज्झई? ॥ Translated Sutra: सिद्ध कहाँ रुकते हैं ? कहाँ प्रतिष्ठित हैं ? शरीर को कहाँ छोड़कर, कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? सिद्ध अलोक में रुकते हैं। लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हैं। मनुष्यलोक में शरीर को छोड़कर लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध होते हैं। सूत्र – १५१९, १५२० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1524 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अज्जुणसुवण्णगमई सा पुढवी निम्मला सहावेणं ।
उत्ताणगछत्तगसंठिया य भणिया जिणवरेहिं ॥ Translated Sutra: जिनवरों ने कहा है – वह पृथ्वी अर्जुन स्वर्णमयी है, स्वभाव से निर्मल है और उत्तान छत्राकार है। शंख, अंकरत्न और कुन्द पुष्प के समान श्वेत है, निर्मल और शुभ है। इस सीता नाम की ईषत् – प्राग्भारा पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त है। सूत्र – १५२४, १५२५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1526 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जोयणस्स उ जो तस्स कोसो उवरिमो भवे ।
तस्स कोसस्स छब्भाए सिद्धाणोगाहणा भवे ॥ Translated Sutra: उस योजन के ऊपर का जो कोस है, उस कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना होती है। भवप्रपंच से मुक्त, महाभाग, परम गति ‘सिद्धि’ को प्राप्त सिद्ध वहाँ अग्रभाग में स्थित हैं। सूत्र – १५२६, १५२७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1528 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उस्सेहो जस्स जो होइ भवम्मि चरिमम्मि उ ।
तिभागहीणा तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे ॥ Translated Sutra: अन्तिम भव में जिसकी जितनी ऊंचाई होती है, उससे त्रिभागहीन सिद्धों की अवगाहना होती है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1529 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगत्तेण साईया अपज्जवसिया वि य ।
पुहुत्तण अणाईया अपज्जवसिया वि य ॥ Translated Sutra: एक की अपेक्षा से सिद्ध सादि अनन्त है। और बहुत्व की अपेक्षा से सिद्ध अनादि, अनन्त हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1530 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अरूविणो जीवघणा नाणदंसणसण्णिया ।
अउलं सुहं संपत्ता उवमा जस्स नत्थि उ ॥ Translated Sutra: वे अरूप हैं, सघन हैं, ज्ञान – दर्शन से संपन्न हैं। जिसकी कोई उपमा नहीं है, ऐसा अतुल सुख उन्हें प्राप्त है | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1531 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लोएगदेसे ते सव्वे नाणदंसणसण्णिया ।
संसारपारनिच्छिन्ना सिद्धिं वरगइं गया ॥ Translated Sutra: ज्ञान – दर्शन से युक्त, संसार के पार पहुँचे हुए, परम गति सिद्धि को प्राप्त वे सभी सिद्ध लोक के एक देश में स्थित हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1533 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुढवी आउजीवा य तहेव य वणस्सई ।
इच्चेए थावरा तिविहा तेसिं भेए सुणेह मे ॥ Translated Sutra: पृथ्वी, जल और वनस्पति – ये तीन प्रकार के स्थावर हैं। अब उनके भेदों को मुझसे सुनो। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1534 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुविहा पुढवीजीवा उ सुहुमा बायरा तहा ।
पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो ॥ Translated Sutra: पृथ्वीकाय जीव के दो भेद हैं – सूक्ष्म और बादर। पुनः दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो – दो भेद हैं। बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय जीव के दो भेद हैं – श्लक्षण और खर। मृदु के सात भेद हैं – कृष्ण, नील, रक्त, पीत, श्वेत, पाण्डु और पनक। कठोर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं – सूत्र – १५३४–१५३६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1537 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुढवी य सक्करा वालुया य उवले सिला य लोणूसे ।
अयतंब-तउय सीसग रुप्पसुवन्ने य वइरे य ॥ Translated Sutra: शुद्ध पृथ्वी, शर्करा, बालू, उपल – पत्थर, शिला, लवण, क्षाररूप नौनी मिट्टी, लोहा, ताम्बा, त्रपुक, शीशा, चाँदी, सोना, वज्र, हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, सस्यक, अंजन, प्रवाल, अभ्र – पटल, अभ्रबालुक – अभ्रक की पड़तों से मिश्रित बालू। और विविध मणि भी बादर पृथ्वीकाय के अन्तर्गत हैं – गोमेदक, रुचक, अंक, स्फटिक, लोहिताक्ष, मरकत, मसारगल्ल, | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1541 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एए खरपुढवीए भेया छत्तीसमाहिया ।
एगविहमणाणत्ता सुहुमा तत्थ वियाहिया ॥ Translated Sutra: ये कठोर पृथ्वीकाय के छत्तीस भेद हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव एक ही प्रकार के हैं, अतः वे अनानात्व हैं | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1543 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संतइं पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य ।
ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य ॥ Translated Sutra: पृथ्वीकायिक जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं। उनकी २२०० वर्ष की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त्त की जघन्य स्थिति है। उनकी असंख्यात कालकी उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त्त की जघन्य काय – स्थिति है। पृथ्वी के शरीर को न छोड़कर निरन्तर पृथ्वीकाय में ही पैदा होते रहना, काय | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1547 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ ।
संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो ॥ Translated Sutra: वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के आदेश से तो पृथ्वी के हजारों भेद होते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1548 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुविहा आउजीवा उ सुहुमा बायरा तहा ।
पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो ॥ Translated Sutra: अप् काय जीव के दो भेद हैं – सूक्ष्म और बादर। पुनः दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो – दो भेद हैं। बादर पर्याप्त अप्काय जीवों के पाँच भेद हैं – शुद्धोदक, ओस, हरतनु, महिका और हिम। सूक्ष्म अप्काय के जीव एक प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं। सूक्ष्म अप्काय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर अप्काय के जीवलोक के एक भाग | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1551 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संतइं पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य ।
ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य ॥ Translated Sutra: अप्कायिक जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि – अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि – सान्त हैं। उनकी ७००० वर्ष की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त्त की जघन्य आयुस्थिति है। उनकी असंख्यात काल की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त्त की जघन्य कायस्थिति है। अप्काय को छोड़कर निरन्तर अप्काय में ही पैदा होना, काय स्थिति है। अप्काय | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1555 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ ।
संठाणादेसओ वावि विहणाइं सहस्ससो ॥ Translated Sutra: वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से अप्काय के हजारों भेद हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1556 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुविहा वणस्सईजीवा सुहुमा बायरा तहा ।
पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो ॥ Translated Sutra: वनस्पति काय के जीवों के दो भेद हैं – सूक्ष्म और बादर। पुनः दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो – दो भेद हैं। बादर पर्याप्त वनस्पतिकाय के जीवों के दो भेद हैं – साधारण – शरीर और प्रत्येक – शरीर। सूत्र – १५५६, १५५७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1558 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पत्तेगसरीरा उ णेगहा ते पकित्तिया ।
रुक्खा गुच्छा य गुम्मा य लया वल्ली तणा तहा ॥ Translated Sutra: प्रत्येक – शरीर वनस्पति काय के जीवों के अनेक प्रकार हैं। जैसे – वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली और तृण। लता – वलय, पर्वज, कुहण, जलरुह, औषधि, धान्य, तृण और हरितकाय – ये समी प्रत्येक शरीरी हैं। सूत्र – १५५८, १५५९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1560 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] साहारणसरीरा उ णेगहा ते पकित्तिया ।
आलुए मूलए चेव सिंगबेरे तहेव य ॥ Translated Sutra: साधारणशरीरी अनेक प्रकार के हैं – आलुक, मूल, शृंगवेर, हिरिलीकन्द, सिरिलीकन्द, सिस्सिरिलीकन्द, जावईकन्द, केद – कंदलीकन्द, प्याज, लहसुन, कन्दली, कुस्तुम्बक, लोही, स्निहु, कुहक, कृष्ण, वज्रकन्द और सूरण – कन्द, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, मुसुंढी और हरिद्रा इत्यादि। सूत्र – १५६०–१५६३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1564 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगविहमणाणत्ता सुहुमा तत्थ वियाहिया ।
सुहुमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा ॥ Translated Sutra: सूक्ष्म वनस्पति काय के जीव एक ही प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं। सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर वनस्पति काय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं। उनकी दस हजार वर्ष की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त्त की जघन्य आयु | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1569 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ ।
संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो ॥ Translated Sutra: वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से वनस्पतिकाय के हजारों भेद हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1571 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेऊ वाऊ य बोद्धव्वा उराला य तसा तहा ।
इच्चेए तसा तिविहा तेसिं भेए सुणेह मे ॥ Translated Sutra: तेजस्, वायु और उदार त्रस – ये तीन त्रसकाय के भेद हैं, उनके भेदों को मुझसे सुनो। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1572 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुविहा तेउजीवा उ सुहुमा बायरा तहा ।
पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो ॥ Translated Sutra: तेजस् काय जीवों के दो भेद हैं – सूक्ष्म और बादर। पुनः दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो – दो भेद हैं। बादर पर्याप्त तेजस् काय जीवों के अनेक प्रकार हैं – अंगार, मुर्मुर, अग्नि, अर्चि – ज्वाला, उल्का, विद्युत इत्यादि। सूक्ष्म तेजस्काय के जीव एक प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं। सूत्र – १५७२–१५७४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1575 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुहुमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा ।
इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउव्विहं ॥ Translated Sutra: सूक्ष्म तेजस्काय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर तेजस्काय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। इस निरूपण के बाद चार प्रकार से तेजस्काय जीवों के काल – विभाग का कथन करूँगा। वे प्रवाही की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं। तेजस्काय की आयु – स्थिति उत्कृष्ट तीन अहोरात्र की है और | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1580 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ ।
संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो ॥ Translated Sutra: वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से तेजस् के हजारों भेद हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1581 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दुविहा वाउजीवा उ सुहुमा बायरा तहा ।
पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो ॥ Translated Sutra: वायुकाय जीवों के दो भेद हैं – सूक्ष्म और बादर। पुनः उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो – दो भेद हैं। बादर पर्याप्त वायुकाय जीवों के पाँच भेद हैं – उत्कलिका, मण्डलिका, धनवात, गुंजावात और शुद्धवात। संवर्तक – वात आदि और भी अनेक भेद हैं। सूक्ष्म वायुकाय के जीव एक प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं। सूत्र – १५८१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1584 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुहुमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा ।
इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउव्विहं ॥ Translated Sutra: सूक्ष्म वायुकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर वायुकाय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। इस निरूपण के बाद चार प्रकार से वायुकायिक जीवों के काल – विभाग का कथन करूँगा। वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से आदि सान्त हैं। उनकी आयु – स्थिति उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1589 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ ।
संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो ॥ Translated Sutra: वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से वायुकाय के हजारों भेद होते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1590 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ओराला तसा जे उ चउहा ते पकित्तिया ।
बेइंदियतेइंदिय चउरोपंचिंदिया चेव ॥ Translated Sutra: उदार त्रसों के चार भेद हैं – द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1591 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बेइंदिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया ।
पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेह मे ॥ Translated Sutra: द्वीन्द्रिय जीव के दो भेद हैं – पर्याप्त और अपर्याप्त। उनके भेदों को मुझसे सुनो। कृमि, सौमंगल, अलस, मातृवाहक, वासीमुख, सीप, शंक, शंखनक – पल्लोय, अणुल्लक, वराटक, जौक, जालक और चन्दनिया – इत्यादि अनेक प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव हैं। वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। सूत्र – १५९१–१५९४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1595 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संतइं पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य ।
ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य ॥ Translated Sutra: प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं। उनकी आयु – स्थिति उत्कृष्ट बारह वर्ष की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है। उनकी काय – स्थिति उत्कृष्ट संख्यात काल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है। द्वीन्द्रिय के शरीर को न छोड़कर निरंतर द्वीन्द्रिय शरीर में ही पैदा होना, | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1599 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ ।
संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो ॥ Translated Sutra: वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद होते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1600 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेइंदिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया ।
पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेह मे ॥ Translated Sutra: त्रीन्द्रिय जीवों के दो भेद हैं – पर्याप्त और अपर्याप्त। उनके भेदों को मुझसे सुनो। कुंथु, चींटी, खटमल, मकड़ी, दीमक, तृणाहारक, घुम, मालुक, पत्राहारक – मिंजक, तिन्दुक, त्रपुषमिंजक, शतावरी, कान – खजूरा, इन्द्रकायिक – इन्द्रगोपक इत्यादि त्रीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के हैं। वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण | |||||||||
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अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1604 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संतइं पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य ।
ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य ॥ Translated Sutra: प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं। उनकी आयु – स्थिति उत्कृष्ट उन पचास दिनों की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है। उनकी काय – स्थिति उत्कृष्ट संख्यात काल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है। त्रीन्द्रिय शरीर को न छोड़कर, निरंतर त्रीन्द्रिय शरीर में ही पैदा होना कायस्थिति | |||||||||
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अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1608 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ ।
संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो ॥ Translated Sutra: वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। | |||||||||
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अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1609 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चउरिंदिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया ।
पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेह मे ॥ Translated Sutra: चतुरिन्द्रिय जीव के दो भेद हैं – पर्याप्त और अपर्याप्त। उनके भेद तुम मुझसे सुनो। अन्धिका, पोतिका, मक्षिका, मशक मच्छर, भ्रमर, कीट, पतंग, ढिंकुण, कुंकुण – कुक्कुड, शृंगिरीटी, नन्दावर्त, बिच्छू, डोल, भृंगरीटक, विरली, अक्षिवेधक – अक्षिल, मागध, अक्षिरोडक, विचित्र, चित्र – पत्रक, ओहिंजलिया, जलकारी, नीचक, तन्तवक – इत्यादि | |||||||||
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अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1614 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संतइं पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य ।
ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य ॥ Translated Sutra: प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि – अनंत और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं। उनकी आयु – स्थिति उत्कृष्ट छह मास की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है। उनकी काय – स्थिति उत्कृष्ट संख्यातकाल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है। चतु – रिन्द्रिय के शरीर को न छोड़कर निरंतर चतुरिन्द्रिय के शरीर में ही पैदा होते रहना, काय | |||||||||
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अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1618 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ ।
संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो ॥ Translated Sutra: वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। | |||||||||
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अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1619 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पंचिंदिया उ जे जीवा चउव्विहा ते वियाहिया ।
नेरइयतिरिक्खा य मनुया देवा य आहिया ॥ Translated Sutra: पंचेन्द्रिय जीव के चार भेद हैं – नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। |