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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1279 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव रूवम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इस प्रकार रूप के प्रति द्वेष करने वाला भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1280 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रूवे विरत्तो मनुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पए भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ Translated Sutra: रूप में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल से। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1281 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सोयस्स सद्दं गहणं वयंति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ Translated Sutra: श्रोत्र का ग्रहण शब्द है। जो शब्द राग में कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं। जो शब्द द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। श्रोत्र शब्द का ग्राहक है, शब्द श्रोत्र का ग्राह्य है। जो राग का कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र – १२८१, १२८२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1283 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चुं ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ शब्दों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह रागातुर अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे शब्द में अतृप्त मुग्ध हरिण मृत्यु को प्राप्त होता है, जो अमनोज्ञ शब्द के प्रति तीव्र द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें शब्द का कोई अपराध नहीं है। सूत्र – १२८३, १२८४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1285 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगंतरत्ते रुइरंसि सद्दे अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुनी विरागो ॥ Translated Sutra: जो प्रिय शब्द में एकान्त आसक्त होता है और अप्रिय शब्द में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1286 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्दाणुगासानुगए य जीवे चराचरे हिंसइनेगरूवे ।
चित्तेहि ते परियावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ Translated Sutra: शब्द की आशा का अनुगामी अनेकरूप चराचर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1287 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्दानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: शब्द में अनुराग और ममत्व के कारण शब्द के उत्पादन में, संरक्षण में, सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में, उसको सुख कहाँ है ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1289 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ Translated Sutra: शब्द और परिग्रह में अतृप्त, तृष्णा से पराजित व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है। कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1290 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्ताणि समाययंतो सद्दे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखमय है। इस प्रकार शब्द में अतृप्त व्यक्ति चोरी करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1291 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्दानुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? ।
तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ Translated Sutra: इस प्रकार शब्द में अनुरक्त व्यक्ति को कहाँ, कब और कितना सुख होगा ? जिस उपभोग के लिए व्यक्ति दुःख उठाता है, उस उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1292 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव सद्दम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार जो अमनोज्ञ शब्द के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष – युक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1293 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्दे विरत्तो मनुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पए भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ Translated Sutra: शब्द में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे – जलाशय में कमल का पत्ता जल से। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1294 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] घाणस्स गंधं गहणं वयंति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ Translated Sutra: घ्राण का विषय गन्ध है। जो गन्ध राग में कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो गन्ध द्वेष में कारण होती है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। घ्राण गन्ध का ग्राहक है। गन्ध घ्राण का ग्राह्य है। जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र – १२९४, १२९५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1296 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ गन्ध में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में विनाश को प्राप्त होता है। जैसे औषधि की गन्ध में आसक्त रागानुरक्त सर्प बिल से निकलकर विनाश को प्राप्त होता है। जो अमनोज्ञ गन्ध के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह जीव उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें गन्ध का कोई अपराध नहीं है। सूत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1298 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगंतरत्ते रुइरंसि गंधे अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुनी विरागो ॥ Translated Sutra: जो सुरभि गन्ध में एकान्त आसक्त होता है, और दुर्गन्ध में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1299 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधानुगासानुगए य जीवे चराचरे हिंसइनेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ Translated Sutra: गन्ध की आशा का अनुगामी अनेकरूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, अपने प्रयोजन को ही मुख्य माननेवाला अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परीताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1300 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: गन्ध में अनुराग और परिग्रह में ममत्त्व के कारण गन्ध के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1301 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठिं ।
अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ Translated Sutra: गन्ध में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त तथा उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता है। वह असंतोष के दोष से दुःखी, लोभग्रस्त व्यक्ति दूसरों की वस्तुऍं चुराता है। दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है। कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता है। सूत्र – १३०१, १३०२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1303 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो गंधे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखमय है। इस प्रकार गन्ध से अतृप्त होकर वह चोरी करनेवाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1304 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधानुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? ।
तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ Translated Sutra: इस प्रकार गन्ध में अनुरक्त व्यक्ति को कहाँ, कब, कितना सुख होगा ? जिसके उपभोग के लिए दुःख उठाता है, उसके उपभोग में भी दुःख और क्लेश ही होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1305 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव गंधम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार जो गन्ध के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर दुःख की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1306 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधे विरत्तो मनुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ Translated Sutra: गन्ध में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे – जलाशय में कमल का पत्ता जल से। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1307 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जिहाए रसं गहणं वयंति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ Translated Sutra: जिह्वा का विषय रस है। जो रस राग में कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो रस द्वेष का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। जिह्वा रस की ग्राहक है। रस जिह्वा का ग्राह्य है। जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र – १३०७, १३०८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1309 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे बडिसविभिन्नकाए मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ रसों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे मांस खाने में आसक्त रागातुर मत्स्य काँटे से बींधा जाता है। जो अमनोज्ञ रस के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इस में रस का कोई अपराध नहीं है। सूत्र – १३०९, १३१० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1311 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगंतरत्ते रुइरे रसम्मि अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुनी विरागो ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ रस में एकान्त आसक्त होता है और अमनोज्ञ रस में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1312 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसानुगासानुगए य जीवे चराचरे हिंसइनेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेई अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ Translated Sutra: रस की आशा का अनुगामी अनेक रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य माननेवाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1313 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: रस में अनुरक्ति और ममत्त्व के कारण रस के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग – काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। वह संतोष को प्राप्त नहीं होता। असन्तोष के दोष से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल दूसरों की वस्तुऍं चुराता है। रस और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से पराजित | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1316 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो रसे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप है। इस प्रकार रस में अतृप्त होकर चोरी करने वाला वह दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1317 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसानुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? ।
तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कए न दुक्खं? ॥ Translated Sutra: इस प्रकार रस में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब, कितना सुख होगा ? जिसे पाने के लिए व्यक्ति दुःख उठाता है, उस के उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1318 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव रसम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार जो रस के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर दुःख की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1319 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसे विरत्तो मनुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ Translated Sutra: रस में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे – जलाशय में कमल का पत्ता जल से। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1320 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कायस्स फासं गहणं वयंति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ Translated Sutra: काय का विषय स्पर्श है। जो स्पर्श राग में कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं। जो स्पर्श द्वेष का कारण होता है उसे अमनोज्ञ कहते हैं। काय स्पर्श का ग्राहक है, स्पर्श काय का ग्राह्य है। जो राग का कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र – १३२०, १३२१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1322 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे सीयजलावसन्ने गाहग्गहीए महिसे वरन्ने ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ स्पर्श में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे – वन में जलाशय के शीतल स्पर्श में आसक्त रागातुर भेंसा मगर के द्वारा पकड़ा जाता है। जो अमनोज्ञ स्पर्श के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह जीव उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें स्पर्श का कोई अपराध नहीं | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1324 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगंतरत्ते रुइरंसि फासे अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुनी विरागो ॥ Translated Sutra: जो मनोहर स्पर्श में अत्यधिक आसक्त होता है और अमनोहर स्पर्श में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1325 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासानुगासानुगए य जीवे चराचरे हिंसइनेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ Translated Sutra: स्पर्श की आशा का अनुगामी अनेकरूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य माननेवाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। स्पर्श में अनुरक्ति और ममत्व के कारण स्पर्श के उत्पादन में, संरक्षण में, संनियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1327 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेई तुट्ठिं ।
अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ Translated Sutra: स्पर्श में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता है। वह असंतोष के दोष से दुःखी और लोभ से व्याकुल होकर दूसरों की वस्तुऍं चुराता है। दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है। कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता। सूत्र – १३२७, १३२८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1329 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो फासे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय में भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःख रूप है। इस प्रकार रूप में अतृप्त होकर वह चोरी करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1330 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासानुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? ।
तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ Translated Sutra: इस प्रकार स्पर्श में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब, कितना सुख होगा ? जिसे पाने के लिए दुःख उठाये जाता है, उसके उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1331 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव फासंमि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठिचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार जो स्पर्श के प्रति द्वेष करता है, वह भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1333 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मनस्स भावं गहणं वयंति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ Translated Sutra: मन का विषय भाव है। जो भाव राग में कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो भाव द्वेष का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। मन भाव का ग्राहक है। भाव मन का ग्राह्य है। जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र – १३३३, १३३४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1335 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे करेणुमग्गावहिए व नागे ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ भावों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में विनाश को प्राप्त होता है। जैसे हथिनी के प्रति आकृष्ट, काम गुणों में आसक्त रागातुर हाथी विनाश को प्राप्त होता है। जो अमनोज्ञ भाव के प्रति तीव्ररूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें भाव का कोई अपराध नहीं है। सूत्र – | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1337 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगंतरत्ते रुइरंसि भावे अतालिसे से कुणइ पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुनी विरागो ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ भाव में एकान्त आसक्त होता है, और अमनोज्ञ में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1338 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावानुगासानुगए य जीवे चराचरे हिंसइनेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ Translated Sutra: भाव की आशा का अनुगामी व्यक्ति अनेक रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला क्लिष्ट अज्ञानी जीव विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। भाव में अनुरक्त और ममत्व के कारण भाव के उत्पादन में, संरक्षण में, सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ? उसे | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1340 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठिं ।
अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ Translated Sutra: भाव में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता। वह असंतोष के दोष से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल होकर दूसरों की वस्तु चुराता है। दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ाता है। कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता है। सूत्र – १३४०, १३४१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1342 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो भावे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद, और बोलने के समय वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप है। इस प्रकार भाव में अतृप्त होकर वह चोरी करता है, दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1343 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावानुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? ।
तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ Translated Sutra: इस प्रकार भाव में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब और कितना सुख होगा ? जिसे पाने के लिए दुःख उठाता है। उसके उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1344 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव भावम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार जो भाव के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष – युक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1345 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावे विरत्तो मनुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ Translated Sutra: भाव में विरक्त मनुष्य शोक – रहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल से। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1346 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एविंदियत्था य मनस्स अत्था दुक्खस्स हेउं मनुयस्स रागिणो ।
ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं न वीयरागस्स करेंति किंचि ॥ Translated Sutra: इस प्रकार रागी मनुष्य के लिए इन्द्रिय और मन के जो विषय दुःख के हेतु हैं, वे ही वीतराग के लिए कभी भी किंचित् मात्र भी दुःख के कारण नहीं होते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1347 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न कामभोगा समयं उवेंति न यावि भोगा विगइं उवेंति ।
जे तप्पओसी य परिग्गही य सो तेसु मोहा विगइं उवेइ ॥ Translated Sutra: काम – भोग न समता – समभाव लाते हैं, और न विकृति लाते हैं। जो उनके प्रति द्वेष और ममत्व रखता है, वह उनमें मोह के कारण विकृति को प्राप्त होता है। |