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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Auppatik | ઔપપાતિક ઉપાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
उपपात वर्णन |
Gujarati | 55 | Sutra | Upang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं भंते! तहा सजोगी सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ? नो इणट्ठे समट्ठे।
से णं पुव्वामेव सन्निस्स पंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीनं पढमं मनजोगं निरुंभइ, तयानंतरं च णं विदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नजोगिस्स हेट्ठा, असंखेज्ज-गुणपरिहीणं विइयं वइजोगं निरुंभइ, तयानंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तगस्स जहन्न-जोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं तइयं कायजोगं णिरुंभइ। से णं एएणं उवाएणं पढमं मनजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता वयजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता कायजोगं निरुंभइ, निरुंभित्ता जोगनिरोहं करेइ, करेत्ता अजोगत्तं Translated Sutra: ભગવન્ ! તે તેવા સયોગી સિદ્ધ થાય યાવત્ અંત કરે ? એ અર્થ સંગત નથી. તે પૂર્વે પર્યાપ્ત પંચેન્દ્રિય સંજ્ઞીના જઘન્ય મનોયોગના નીચલા સ્તરે અસંખ્યાતગુણ પરિહીન પહેલા મનોયોગનું રુંધન કરે છે. ત્યારપછી પર્યાપ્ત બેઇન્દ્રિયના જઘન્યયોગના નીચે અસંખ્યાતગુણ પરિહીન બીજા વચનયોગનું રુંધન કરે છે. ત્યારપછી અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-९ प्रयोगबंध | Hindi | 423 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वीससाबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–सादीयवीससाबंधे य, अनादीयवीससाबंधे य।
अनादियवीससाबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–धम्मत्थिकायअन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे, अधम्मत्थिकाय-अन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे आगासत्थिकायअन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे।
धम्मत्थिकायअन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे णं भंते! किं देसबंधे? सव्वबंधे?
गोयमा! देसबंधे, नो सव्वबंधे। एवं अधम्मत्थिकायअन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे वि, एवं आगासत्थि-कायअन्नमन्नअणा-दीयवीससाबंधे वि।
धम्मत्थिकायअन्नमन्नअनादीयवीससाबंधे णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! विस्त्रसाबंध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा – सादिक विस्त्रसाबंध और अनादिक विस्त्राबंध। भगवन् ! अनादिक – विस्त्रसाबंध कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकारकाधर्मास्तिकायका अन्योन्य – अनादिक – विस्त्रसाबंध, अधर्मास्तिकाय का अन्योन्य – अनादिक – विस्त्रसाबंध और आकाशास्तिकाय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-९ प्रयोगबंध | Hindi | 424 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं पयोगबंधे?
पयोगबंधे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अनादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए।
तत्थ णं जे से अनादीए अपज्जवसिए से णं अट्ठण्हं जीवमज्झपएसाणं, तत्थ वि णं तिण्हं-तिण्हं अनादीए अपज्जवसिए, सेसाणं सादीए। तत्थ णं जे से सादीए अपज्जवसिए से णं सिद्धाणं। तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से णं चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा–आलावणबंधे, अल्लियावणबंधे, सरीरबंधे, सरीरप्पयोगबंधे।
से किं तं आलावणबंधे?
आलावणबंधे–जण्णं तणभाराण वा, कट्ठभाराण वा, पत्तभाराण वा, पलालभाराण वा, वेत्तलता-वाग-वरत्त-रज्जु-वल्लि-कुस-दब्भमादीएहिं आलावणबंधे समुप्पज्जइ, जहन्नेणं Translated Sutra: भगवन् ! प्रयोगबंध किस प्रकार का है ? गौतम ! प्रयोगबंध तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार – अनादिअपर्यवसित, सादि – अपर्यवसित अथाव सादि सपर्यवसित। इनमें से जो अनादि – अपर्यवसित है, जह जीव के आठ मध्यप्रदेशों का होता है। उन आठ प्रदेशों में भी तीन – तीन प्रदेशों का जो बंध होता है, वह अनादि – अपर्यवसित बंध है। शेष | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-९ प्रयोगबंध | Hindi | 425 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–एगिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे य पंचेंदियवेउव्वियसरीर-प्पयोगबंधे य।
जइ एगिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे किं वाउक्काइयएगिंदियसरीरप्पयोगबंधे? अवाउक्काइय-एगिंदियसरीरप्पयो-गबंधे?
एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे वेउव्वियसरीरभेदो तहा भाणियव्वो जाव पज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअनुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमानियदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे य, अपज्जत्तासव्वट्ठसिद्ध अनुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमानियदेवपंचिंदियवेउव्वि-यसरीरप्पयोगबंधे य।
वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! Translated Sutra: भगवन् ! वैक्रियशरीर – प्रयोगबंध कितने प्रकार का है ? गौतम ! दो प्रकार का है। एकेन्द्रियवैक्रियशरीर – प्रयोगबंध और पंचेन्द्रियवैक्रियशरीर – प्रयोगबंध। भगवन् ! यदि एकेन्द्रिय – वैक्रियशरीरप्रयोगबंध है, तो क्या वह वायुकायिक एकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबंध है अथवा अवायुकायिक एकेन्द्रिय – वैक्रियशरीरप्रयोगबंध | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-८ |
उद्देशक-९ प्रयोगबंध | Hindi | 426 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–एगिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे, बेइंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे जाव पंचिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे
एगिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?
एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा ओगाहणसंठाणे जाव पज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअनुत्तरो-ववाइयकप्पातीतवेमानियदेवपंचिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे य, अपज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअनुत्तरोववा-इयकप्पातीतवेमानियदेवपंचिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे य।
तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं?
गोयमा! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए पमादपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च आउयं Translated Sutra: भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबंध कितने प्रकार का है ? गौतम ! पांच प्रकार का – एकेन्द्रिय – तैजस – शरीरप्रयोगबंध, यावत् पंचेन्द्रिय – तैजसशरीरप्रयोगबंध। भगवन् ! एकेन्द्रिय – तैजसशरीरप्रयोगबंध कितने प्रकार का है? गौतम इस प्रका जैसे – अवगाहनासंस्थापनपद में भेद कहे हैं, वैसे यहाँ भी पर्याप्त – सर्वार्थस्दिधअनुत्तरौपप | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 761 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–सिय भंते! जाव चत्तारि पंच पुढविक्काइया एगयओ साधारणसरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति?
नो इणट्ठे समट्ठे। पुढविक्काइयाणं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयं सरीरं बंधंति, बंधित्ता तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेंति वा सरीरं वा बंधंति।
तेसि णं भंते! जीवाणं कति लेस्साओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा, तेउलेस्सा।
ते णं भंते! जीवा किं सम्मदिट्ठी? मिच्छदिट्ठी? सम्मामिच्छदिट्ठी?
गोयमा! नो सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, नो सम्मामिच्छदिट्ठी।
ते णं भंते! जीवा किं Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! क्या कदाचित् दो यावत् चार – पाँच पृथ्वीकायिक मिलकर साधारण शरीर बाँधते हैं, बाँधकर पीछे आहार करते हैं, फिर उस आहार का परिणमन करते हैं और फिर इसके बाद शरीर का बन्ध करते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव प्रत्येक – पृथक् – पृथक् आहार करने वाले हैं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 762 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एएसि णं भंते! पुढविकाइयाणं आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइकाइयाणं सुहुमाणं बादराणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं जहण्णुक्कोसियाए ओगाहणाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा?
गोयमा! १. सव्वत्थोवा सुहुमनिओयस्स अपज्जत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा २. सुहुमवाउ- क्काइयस्स अपज्जत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ३. सुहुमतेउकाइयस्स अपज्जत्त-गस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ४. सुहुमआउकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ५. सुहुमपुढविक्काइयस्स अपज्जत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखे-ज्जगुणा
६. बादर-वाउकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेज्जगुणा Translated Sutra: भगवन् ! इन सूक्ष्म – बादर, पर्याप्तक – अपर्याप्तक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहनाओं में से किसकी अवगाहना किसकी अवगाहना से अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक होती है ? गौतम ! सबसे अल्प, अपर्याप्तक सूक्ष्मनिगोद की जघन्य अव – गाहना है। उससे असंख्यगुणी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 763 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एयस्स णं भंते! पुढविकाइयस्स आउक्काइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स वणस्सइकाइयस्स य कयरे काये सव्व-सुहुमे? कयरे काए सव्वसुहुमतराए?
गोयमा! वणस्सइकाए सव्वसुहुमे, वणस्सइकाए सव्वसुहुमतराए।
एयस्स णं भंते! पुढविकाइयस्स आउक्काइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स य कयरे काये सव्वसुहुमे? कयरे काये सव्वसुहुमतराए?
गोयमा! वाउक्काए सव्वसुहुमे, वाउक्काए सव्वसुहुमतराए।
एयस्स णं भंते! पुढविकाइयस्स आउक्काइयस्स तेउक्काइयस्स य कयरे काये सव्वसुहुमे? कयरे काये सव्वसुहुम-तराए? गोयमा! तेउक्काए सव्वसुहुमे, तेउक्काए सव्वसुहुमतराए।
एयस्स णं भंते! पुढविक्काइयस्स आउक्काइयस्स य कयरे काये Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक, इन पाँचों में से कौन – सी काय सब से सूक्ष्म है और कौन – सी सूक्ष्मतर है ? गौतम ! वनस्पतिकाय सबसे सूक्ष्म है, सबसे सूक्ष्मतर है। भगवन् ! पृथ्वीकायिक यावत् वायु – कायिक, इन चारों में से कौन – सी काय सबसे सूक्ष्म है और कौन – सी सूक्ष्मतर है ? गौतम ! वायुकाय सब – से सूक्ष्म है, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 764 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुढविकाइयस्स णं भंते! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता?
गोयमा! से जहानामए रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स वण्णगपेसिया तरुणी बलवं जुगवं जुवाणी अप्पायंका थिरग्गहत्था दढपाणि-पाय-पास-पिट्ठंतरोरु-परिणता तलजमलजुयल-परिघनिभबाहू उरस्सबलसमण्णागया लंघण-पवण-जइण-वायाम-समत्था छेया दक्खा पत्तट्ठा कुसला मेहावी निउणा निउणसिप्पोवगया तिक्खाए वइरामईए सण्हकरणीए तिक्खेणं वइरामएणं वट्टावरएणं एगं महं पुढविकाइयं जतुगोलासमाणं गहाय पडिसाहरिय-पडिसाहरिय पडिसंखिविय-पडिसंखिविय जाव इणामेवत्ति कट्टु तिसत्तक्खुत्तो ओप्पीसेज्जा, तत्थ णं गोयमा! अत्थेगतिया पुढविक्काइया आलिद्धा अत्थेगतिया Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीकाय के शरीर की कितनी बड़ी अवगाहना कही गई है ? गौतम ! जैसे कोई तरुणी, बलवती, युगवती, युगावय – प्राप्त, रोगरहित इत्यादि वर्णन – युक्त यावत् कलाकुशल, चातुरन्त चक्रवर्ती राजा की चन्दन घिसने वाली दासी हो। विशेष यह है कि यहाँ चर्मेष्ट, द्रुघण, मौष्टिक आदि व्यायाम – साधनों से सुदृढ़ इत्यादि विशेषण नहीं | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-७ भवन | Hindi | 769 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] केवतिया णं भंते! असुरकुमारभवणावाससयसहस्सा पन्नत्ता?
गोयमा! चोयट्ठिं असुरकुमारभवणावाससयसहस्सा पन्नत्ता।
ते णं भंते! किमया पन्नत्ता?
गोयमा! सव्वरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमंति, विउक्कमंति, चयंति, उववज्जंति। सासया णं ते भवणा दव्वट्ठयाए, वण्णपज्जवेहिं जाव फासपज्जवेहिं असासया। एवं जाव थणियकुमारावासा।
केवतिया णं भंते! वाणमंतरभोमेज्जनगरावाससयसहस्सा पन्नत्ता?
गोयमा! असंखेज्जा वाणमंतरभोमेज्जनगरावाससयसहस्सा पन्नत्ता।
ते णं भंते! किमया पन्नत्ता? सेसं तं चेव।
केवतिया णं भंते! जोइसियविमानावाससयसहस्सा पन्नत्ता?
गोयमा! असंखेज्जा Translated Sutra: भगवन् ! असुरकुमारों के कितने लाख भवनावास कहे गए हैं ? गौतम ! चोंसठ लाख भवनावास हैं। भगवन् ! वे भवनावास किससे बने हुए हैं ? गौतम ! वे भवनावास रत्नमय हैं, स्वच्छ, श्लक्ष्ण यावत् प्रतिरूप हैं। उनमें बहुत – से जीव और पुद्गल उत्पन्न होते हैं, विनष्ट होते हैं, च्यवते हैं और पुनः उत्पन्न होते हैं। वे भवन द्रव्यार्थिक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-८ निवृत्ति | Hindi | 770 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! जीवनिव्वत्ती पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा जीवनिव्वत्ती पन्नत्ता, तं० एगिंदियजीवनिव्वत्ती जाव पंचिंदियजीव-निव्वत्ती
एगिंदियजीवनिव्वत्ती णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा– पुढविक्काइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती जाव वणस्सइकाइय-एगिंदियजीवनिव्वत्ती।
पुढविकाइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा– सुहुमपुढविकाइयएगिंदियजीवनिव्वत्ती य, बादरपुढवि-काइय-एगिंदियजीवनिव्वत्ती य। एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा वड्डगबंधो तेयगसरीरस्स जाव–सव्वट्ठ सिद्धअनुत्तरोववातियकप्पातीतवेमानियदेवपंचिंदियजीवनिव्वत्ती Translated Sutra: भगवन् ! जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की – एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति यावत् पंचेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति। भगवन् ! एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की – पृथ्वी – कायिक – एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति यावत् वनस्पतिकायिक – एकेन्द्रिय – जीवनिर्वृत्ति। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१९ |
उद्देशक-९ करण | Hindi | 774 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! करणे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे करणे पन्नत्ते, तं० दव्वकरणे, खेत्तकरणे, कालकरणे, भवकरणे, भावकरणे।
नेरइयाणं भंते! कतिविहे करणे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे करणे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वकरणे जाव भावकरणे। एवं जाव वेमाणियाणं।
कतिविहे णं भंते! सरीरकरणे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचविहे सरीरकरणे पन्नत्ते, तं जहा–ओरालियसरीरकरणे जाव कम्मासरीरकरणे। एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति सरीराणि।
कतिविहे णं भंते! इंदियकरणे पन्नत्ते।
गोयमा! पंचविहे इंदियकरणे पन्नत्ते, तं जहा–सोइंदियकरणे जाव फासिंदियकरणे। एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति इंदियाइं।
एवं एएणं कमेणं भासाकरणे चउव्विहे, Translated Sutra: भगवन् ! करण कितने प्रकार का है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – द्रव्यकरण, क्षेत्रकरण, कालकरण, भवकरण और भावकरण। भगवन् ! नैरयिकों के कितने करण हैं ? गौतम ! पाँच प्रकार के यथा – द्रव्यकरण यावत् भावकरण। वैमानिकों तक कहना। भगवन् ! शरीरकरण कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! पाँच प्रकार का – औदारिकशरीरकरण यावत् कार्मणशरीरकरण। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२६ जीव, लंश्या, पक्खियं, दृष्टि, अज्ञान |
उद्देशक-१ | Hindi | 980 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! आउयं कम्मं किं बंधी बंधइ–पुच्छा।
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी चउभंगो। सलेस्से जाव सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा। अलेस्से चरिमो भंगो।
कण्हपक्खिए णं–पुच्छा।
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ। सुक्कपक्खिए सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी चत्तारि भंगा।
सम्मामिच्छादिट्ठी–पुच्छा।
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ। नाणी जाव ओहिनाणी चत्तारि भंगा।
मनपज्जवनाणी–पुच्छा।
गोयमा! अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ। केवलनाणे चरिमो भंगो। एवं Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव ने आयुष्यकर्म बाँधा था, इत्यादि प्रश्न। गौतम ! किसी जीवने बाँधा था, इत्यादि चारों भंग हैं। सलेश्य से लेकर शुक्ललेश्यी जीवों तक में चारों भंग पाए जाते हैं। अलेश्य जीवों में एकमात्र अन्तिम भंग है। भगवन् ! कृष्णपाक्षिक जीव ने (आयुष्यकर्म) बाँधा था, इत्यादि प्रश्न। गौतम ! किसी जीव ने बाँधा था, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 132 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तुंगियाए नयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु जाव एगदिसाभिमुहा निज्जायंति।
तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा हट्ठतुट्ठ चित्तमानंदिया नंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना जाव अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
तं महाफलं खलु देवानुप्पिया! तहारूवाणं थेराणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमन-वंदन-नमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए?
एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स Translated Sutra: तदनन्तर तुंगिकानगरी के शृंगाटक मार्गमें, त्रिक रास्तोंमें, चतुष्क पथोंमें तथा अनेक मार्ग मिलते हैं, ऐसे मार्गों में, राजमार्गों में एवं सामान्य मार्गों में यह बात फैल गई। परीषद् एक ही दिशामें उन्हें वन्दन करने के लिए जाने लगी। जब यह बात तुंगिकानगरी के श्रमणोपासकों को ज्ञात हुई तो वे अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 133 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं तीसे महइमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्मं परिकहेंति, तं जहा–
सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं,
सव्वाओ अदिन्नादानाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं।
तए णं ते समणोवासया थेराणं भगवंताणं अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता एवं वयासी– संजमेणं भंते! किंफले? तवे किंफले?
तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वयासी–संजमे णं अज्जो! अणण्हयफले, तवे वोदाणफले।
तए णं ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं वयासी–जइ णं भंते! संजमे अणण्हयफले, तवे वोदाणफले। Translated Sutra: तत्पश्चात् उन स्थविर भगवंतों ने उन श्रमणोपासकों तथा उस महती परीषद् (धर्मसभा) को केशीश्रमण की तरह चातुर्याम – धर्म का उपदेश दिया। यावत् वे श्रमणोपासक अपनी श्रमणोपासकता द्वारा आज्ञा के आराधक हुए। यावत् धर्म – कथा पूर्ण हुई। तदनन्तर वे श्रमणोपासक स्थविर भगवंतों से धर्मोपदेश सूनकर एवं हृदयंगम करके बड़े | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 134 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था–सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अनगारे जाव संखित्तविपुलतेयलेस्से छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणवत्थाइं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणाइं पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाइं उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, Translated Sutra: उस काल, उस समय में राजगृह नामक नगर था। वहाँ (श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। परीषद् वन्दना करने गई यावत् धर्मोपदेश सूनकर) परीषद् वापस लौट गई। उस काल, उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार थे। यावत् वे विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में संक्षिप्त करके रखते थे। वे निरन्तर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-९ |
उद्देशक-३२ गांगेय | Hindi | 451 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नामं नयरे होत्था–वण्णओ। दूतिपलासए चेइए। सामी समोसढे। परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जे गंगेए नामं अनगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासी–
संतरं भंते! नेरइया उववज्जंति? निरंतरं नेरइया उववज्जंति?
गंगेया! संतरं पि नेरइया उववज्जंति, निरंतरं पि नेरइया उववज्जंति।
संतरं भंते! असुरकुमारा उववज्जंति? निरंतरं असुरकुमारा उववज्जंति?
गंगेया! संतरं पि असुरकुमारा उववज्जंति, निरंतरं पि असुरकुमारा Translated Sutra: उस काल, उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था। वहाँ द्युतिपलाश नाम का चैत्य था। महावीर स्वामी पधारे, समवसरण लगा। परिषद् निकली। (भगवान ने) धर्मोपदेश दिया। परिषद् वापिस लौट गई। उस काल उस समय में पार्श्वापत्य गांगेय नामक अनगार थे। जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ वे आए और श्रमण भगवान् महावीर के न अतिनिकट और न | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-२ आकाश | Hindi | 781 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! आगासे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे आगासे पन्नत्ते, तं जहा–लोयागासे य, अलोयागासे य।
लोयागासे णं भंते! किं जीवा? जीवदेसा? –एवं जहा बितियसए अत्थिउद्देसे तहेव इह वि भाणियव्वं, नवरं–अभिलावो जाव धम्मत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते।
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव ओगाहित्ता णं चिट्ठति। एवं जाव पोग्गलत्थिकाए।
अहेलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवतियं ओगाढे?
गोयमा! सातिरेगं अद्धं ओगाढे। एवं एएणं अभिलावेणं जहा बितियसए जाव–
ईसिपब्भारा णं भंते! पुढवी लोयागासस्स किं संखेज्जइभागं ओगाढा–पुच्छा।
गोयमा! नो संखेज्जइभागं ओगाढा, असंखेज्जइभागं Translated Sutra: भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! दो प्रकार का – लोकाकाश और अलोकाकाश। भगवन् ! क्या लोकाकाश जीवरूप है, अथवा जीवदेश – रूप है ? गौतम ! द्वीतिय शतक के अस्ति – उद्देशक अनुसार कहना चाहिए। विशेष में धर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय तक यहाँ कहना चाहिए – भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा है ? गौतम ! धर्मास्तिकाय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२० |
उद्देशक-२ आकाश | Hindi | 782 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] धम्मत्थिकायस्स णं भंते! केवतिया अभिवयणा पन्नत्ता?
गोयमा! अनेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तं जहा–धम्मे इ वा, धम्मत्थिकाये इ वा, पाणाइवाय-वेरमणे इ वा, मुसावायवेरमणे इ वा, एवं जाव परिग्गहवेरमणे इ वा, कोहविवेगे इ वा जाव मिच्छादंसण-सल्लविवेगे इ वा, रियासमिती इ वा, भासासमिती इ वा, एसणासमिती इ वा, आयाणभंडमत्तनिक्खेव समिती इ वा, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिती इ वा, मणगुत्ती इ वा, वइगुत्ती इ वा, कायगुत्ती इ वा, जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते धम्मत्थिकायस्स अभिवयणा।
अधम्मत्थिकायस्स णं भंते! केवतिया अभिवयणा पन्नत्ता?
गोयमा! अनेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तं जहा–अधम्मे इ वा, Translated Sutra: भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं ? गौतम ! अनेक। यथा – धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपात – विरमण, यावत् परिग्रहविरमण, अथवा क्रोध – विवेक, यावत् – मिथ्यादर्शन – शल्य – विवेक, अथवा ईर्यासमिति, यावत् उच्चार – प्रस्रवण – खेल – जल्ल – सिंघाण – परिष्ठापनिकासमिति, अथवा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति या कायगुप्ति; ये | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
Hindi | 5 | Sutra | Ang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे गुणसिलए नामं चेइए होत्था।
सेणिए राया, चिल्लणा देवी। Translated Sutra: उस काल (अवसर्पिणी काल के) और उस समय (चौथे आरे – भगवान महावीर के युग में) राजगृह नामक नगर था। (उसका वर्णन औपपातिक सूत्र में अंकित चम्पानगरी के वर्णन के समान समझ लेना चाहिए) उस रागजृह नगर के बाहर ईशानकोण में गुणशीलक नामक चैत्य था। वहाँ श्रेणिक राजा था और चिल्लणादेवी रानी थी। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१ चलन | Hindi | 21 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं ठिई आहारो य भाणियव्वो। ठिती जहा–
ठितिपदे तहा भाणियव्वा सव्वजीवाणं। आहारो वि जहा पन्नवणाए पढमे आहारुद्देसए तहा भाणियव्वो, एत्तो आढत्तो–नेरइया णं भंते! आहारट्ठी? जाव दुक्खत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति।
असुरकुमारा णं भंते! केवइकालस्स आणमंति वा ४? गोयमा! जहन्नेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं साइरेगस्स पक्खस्स आणमंति वा ४ |
असुरकुमारा णं भंते! आहारट्ठी? हंता, आहारट्ठी । [असुरकुमारा णं भंते! केवइकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ? गोयमा! असुरकुमाराणं दुविहे
आहारे पन्नत्ते। तंजहा-आभोगनिव्वत्तिए य, अनाभोगनिव्वत्तिए य।
तत्थ णं जे से अनाभोग निव्वत्तिए Translated Sutra: इसी तरह स्थिति और आहार के विषय में भी समझ लेना। जिस तरह स्थिति पद में कहा गया है उसी तरह स्थिति विषय में कहना चाहिए। सर्व जीव संबंधी आहार भी पन्नवणा सूत्र के प्रथम उद्देशक में कहा गया है उसी तरह कहना चाहिए। भगवन् ! असुरकुमारों की स्थिति कितने काल की है ? हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम से | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-२ दुःख | Hindi | 27 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइया णं भंते! सव्वे समाहारा? सव्वे समसरीरा? सव्वे समुस्सासनीसासा?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइया नो सव्वे समाहारा? नो सव्वे समसरीरा? नो सव्वे समुस्ससानीसासा?
गोयमा! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–महासरीरा य, अप्पसरीरा य। तत्थ णं जे ते महासरीरा ते बहुत्तराए पोग्गले आहारेंति, बहुतराए पोग्गले परिणामेंति, बहुतराए पोग्गले उस्ससंति, बहुतराए पोग्गले नीससंति; अभिक्खणं आहारेंति, अभिक्खणं परिणामेंति, अभिक्खणं उस्ससंति, अभिक्खणं नीससंति।
तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोग्गले आहारेंति, अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति, अप्पतराए Translated Sutra: भगवन् ! क्या सभी नारक समान आहार वाले, समान शरीर वाले, तथा समान उच्छ्वास – निःश्वास वाले होते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं; जैसे कि – महाशरीरी और अल्पशरीरी। इनमें जो बड़े शरीर वाले हैं, वे बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, बहुत पुद्गलों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-५ पृथ्वी | Hindi | 67 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: असंखेज्जेसु णं भंते! पुढविक्काइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइयावासंसि पुढविक्का-इयाणं केवइया ठितिट्ठाणा पन्नत्ता?
गोयमा! असंखेज्जा ठितिट्ठाणा पन्नत्ता, तं जहा–जहन्निया ठिई जाव तप्पाउग्गुक्कोसिया ठिई
असंखेज्जेसु णं भंते! पुढविक्काइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइयावासंसि जह-न्नियाए ठितीए वट्टमाणा पुढविक्काइया किं कोहोवउत्ता? मानोवउत्ता? मायोवउत्ता? लोभोवउत्ता?
गोयमा! कोहोवउत्ता वि, मानोवउत्ता वि, मायोवउत्ता वि, लोभोवउत्ता वि।
एवं पुढविक्काइयाणं सव्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं, नवरं–तेउलेस्साए असीतिभंगा।
एवं आउक्काइया वि।
तेउक्काइय-वाउक्काइयाणं Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक – एक आवास में बसने वाले पृथ्वी – कायिकों के कितने स्थिति – स्थान कहे गए हैं ? गौतम ! उनके असंख्येय स्थिति – स्थान हैं। वे इस प्रकार हैं – उनकी जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्यस्थिति, दो समय अधिक जघन्यस्थिति, यावत् उनके योग्य उत्कृष्ट स्थिति। भगवन् ! पृथ्वीकायिक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Hindi | 73 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ओवास-वात-घनउदहि-पुढवि-दीवा य सागरा वासा ।
नेरइयादि अत्थिय, समया कम्माइ लेस्साओ ॥ Translated Sutra: अवकाशान्तर, वात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर, वर्ष (क्षेत्र), नारक आदि जीव (चौबीस दण्डक के प्राणी), अस्तिकाय, समय, कर्म, लेश्या। तथा दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, संज्ञा, शरीर, योग, उपयोग, द्रव्य, प्रदेश, पर्याय और काल। सूत्र – ७३, ७४ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Hindi | 76 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी–
कतिविहा णं भंते! लोयट्ठिती पन्नत्ता?
गोयमा! अट्ठविहा लोयट्ठिति पन्नत्ता, तं जहा–१. आगासपइट्ठिए वाए। २. वायपइट्ठिए उदही। ३. उदहिपइट्ठिया पुढवी। ४. पुढविपइट्ठिया तसथावरा पाणा। ५. अजीवा जीवपइट्ठिया। ६. जीवा कम्मपइट्ठिया। ७. अजीवा जीवसंगहिया। ८. जीवा कम्मसंगहीया।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अट्ठविहा लोयट्ठिती जाव जीवा कम्मसंगहिया?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे वत्थिमाडोवेइ, वत्थिमाडोवेत्ता उप्पिं सितं बंधइ, बंधित्ता मज्झे गंठिं बंधइ, बंधित्ता उवरिल्लं गंठिं मुयइ, मुइत्ता उवरिल्लं देसं वामेइ, वामेत्ता उवरिल्लं Translated Sutra: ‘हे भगवन् !’ ऐसा कहकर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् कहा – भगवन् ! लोक की स्थिति कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! आठ प्रकार की। वह इस प्रकार है – आकाश के आधार पर वायु (तनुवात) टिका हुआ है; वायु के आधार पर उदधि है; उदधि के आधार पर पृथ्वी है, त्रस और स्थावर जीव पृथ्वी के आधार पर हैं; अजीव जीवों के आधार पर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 86 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगंतपंडिए णं भंते! मनुस्से किं नेरइयाउयं पकरेति? तिरिक्खाउयं पकरेति? मनुस्साउयं पकरेति? देवाउयं पकरेति? नेरइयाउयं किच्चा नेरइएसु उववज्जति? तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जति? मनुस्साउयं किच्चा मनुस्सेसु उववज्जति? देवाउयं किच्चा देवलोएसु उववज्जति?
गोयमा! एगंतपंडिए णं मनुस्से आउयं सिय पकरेति, सिय नो पकरेति, जइ पकरेति नो नेरइयाउयं पकरेति, नो तिरियाउयं पकरेति, नो मनुस्साउयं पकरेति, देवाउयं पकरेति, नो नेरइयाउयं किच्चा नेरइएसु उववज्जति, नो तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जति, नो मनुस्साउयं किच्चा मनुस्सेसु उववज्जति, देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जति।
से केणट्ठेणं Translated Sutra: भगवन् ! एकान्तपण्डित मनुष्य क्या नरकायु बाँधता है ? या यावत् देवायु बाँधता है ? और यावत् देवायु बाँधकर देवलोक में उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! एकान्तपण्डित मनुष्य, कदाचित् आयु बाँधता है और कदाचित् आयु नहीं बाँधता। यदि आयु बाँधता है तो देवायु बाँधता है, किन्तु नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायु नहीं बाँधता। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 94 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहन्नं भंते! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छति?
गोयमा! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिन्नादानेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं कोह-मान-माया-लोभ-पेज्ज -दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाय-अरति-रति-मायामोस-मिच्छादंसणसल्लेणं एवं खलु गोयमा! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छति।
कहन्नं भंते! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति?
गोयमा! पाणाइवाय-वेरमणेणं मुसावाय-वेरमणेणं अदिन्नादान-वेरमणेणं मेहुण-वेरमणेणं
परिग्गह-वेरमणेणं कोह-मान-माया-लोभ-पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाय-अरति रति-मायामोस-मिच्छादंसणसल्ल वेरमणेणं–एवं खलु गोयमा! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति।
कहन्नं भंते! जीवा संसारं आउलीकरेंति?
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! जीव किस प्रकार शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात से, मृषावाद से, अदत्ता – दान से, मैथुन से, परिग्रह से, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, राग से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, रति – अरति से, परपरिवाद से, मायामृषा से और मिथ्यादर्शनशल्य से; इस प्रकार हे गौतम ! (इन अठारह ही पापस्थानों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 95 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सत्तमे णं भंते! ओवासंतरे किं गरुए? लहुए? गरुयलहुए? अगरुयलहुए?
गोयमा! नो गरुए, नो लहुए, नो गरुयलहुए, अगरुयलहुए।
सत्तमे णं भंते! तनुवाए किं गरुए? लहुए? गरुयलहुए? अगरुयलहुए?
गोयमा! नो गरुए, नो लहुए, गरुयलहुए, नो अगरुयलहुए।
एवं सत्तमे घनवाए, सत्तमे घनोदही, सत्तमा पुढवी।
ओवासंतराइं सव्वाइं जहा सत्तमे ओवासंतरे।
जहा तनुवाए एवं–ओवास-वाय-घनउदही, पुढवी दीवा य सागरा वासा।
नेरइया णं भंते! किं गरुया? लहुया? गरुयलहुया? अगरुयलहुया?
गोयमा! नो गरुया, नो लहुया, गरुयलहुया वि, अगरुयलहुया वि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइया नो गरुया? नो लहुया? गरुयलहुया वि? अगरुयलहुया वि?
गोयमा! विउव्विय-तेयाइं Translated Sutra: भगवन् ! क्या सातवाँ अवकाशान्तर गुरु है, अथवा वह लघु है, या गुरुलघु है, अथवा अगुरुलघु है ? गौतम! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरु – लघु नहीं है, किन्तु अगुरुलघु है। भगवन् ! सप्तम तनुवात क्या गुरु है, लघु है या गुरुलघु है अथवा अगुरुलघु है ? गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किन्तु गुरु – लघु है; अगुरुलघु नहीं है। इस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 105 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] १ ऊसास खंदए वि य, २ समुग्घाय ३,४ पुढविंदिय ५ अन्नउत्थि ६ भासा य ।
७ देवा य ८ चमरचंचा, ९, समयक्खित्तत्थिकाय बीयसए ॥ Translated Sutra: द्वीतिय शतक में दस उद्देशक हैं। उनमें क्रमशः इस प्रकार विषय हैं – श्वासोच्छ्वास, समुद्घात, पृथ्वी, इन्द्रियाँ, निर्ग्रन्थ, भाषा, देव, (चमरेन्द्र) सभा, द्वीप (समयक्षेत्र का स्वरूप) और अस्तिकाय (का विवेचन)। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 106 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। भगवान महावीर स्वामी (वहाँ) पधारे। उनका धर्मोपदेश सूनने के लिए परीषद् नीकली। भगवान ने धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश सूनकर परीषद् वापिस लौट गई। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) श्री इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत् – भगवान की पर्युपासना | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 112 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइआओ पडिनिक्खमइ,
पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं कयंगला नामं नगरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए छत्तपलासए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तए णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिने केवली जेणेव कयंगला नगरी जेणेव छत्तपलासए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ जाव समोसरणं। परिसा निग्गच्छइ।
तीसे णं कयंगलाए नयरीए अदूरसामंते सावत्थी नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तत्थ Translated Sutra: उस काल उस समय में कृतंगला नामकी नगरी थी। उस कृतंगला नगरी के बाहर ईशानकोण में छत्रपला – शक नामका चैत्य था। वहाँ किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान – केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। यावत् – भगवान का समवसरण हुआ। परीषद् धर्मोपदेश सूनने के लिए नीकली। उस कृतंगला नगरी के निकट श्रावस्ती नगरी थी। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-२ समुदघात | Hindi | 118 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! समुग्घाया पन्नत्ता?
गोयमा! सत्त समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा–१. समुग्घाए २. कसायसमुग्घाए ३. मारणंतिय-समुग्घाए ४. वेउव्वियसमुग्घाए ५. तेजससमुग्घाए ६. आहारगसमुग्घाए ७. केवलियसमुग्घाए। छाउमत्थियसमुग्घायवज्जं समुग्घायपदं नेयव्वं। Translated Sutra: भगवन् ! कितने समुद्घात कहे गए हैं ? गौतम ! समुद्घात सात कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं – वेदना – समुद्घात, कषाय – समुद्घात, मारणान्तिक – समुद्घात, वैक्रिय – समुद्घात, तैजस – समुद्घात, आहारक – समुद्घात और केवली – समुद्घात। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का छत्तीसवा समुद्घातपद कहना चाहिए, किन्तु उसमें प्रतिपादित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 128 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगजीवस्स णं भंते! एगभवग्गहणेणं केवइया जीवा पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति?
गोयमा! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति?
गोयमा! इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए मेहुणवत्तिए नामं संजोए समुप्पज्जइ। ते दुहओ सिणेहं चिणंति, चिणित्ता तत्थ णं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जहन्नेणं एक्को वा दो Translated Sutra: भगवन् ! एक जनीव के एक भव में कितने जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं ? गौतम ! जघन्य एक, दो अथवा तीन जीव और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? हे गौतम ! कर्मकृत योनि में स्त्री और पुरुष का जब मैथुनवृत्तिक संयोग निष्पन्न होता है, तब उन दोनों के स्नेह | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 130 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि-क्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं तुंगिया नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे पुप्फवतिए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं तुंगियाए नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति– अड्ढा दित्ता वित्थिण्णविपुलभवन-सयनासन-जानवाहणाइण्णा बहुधन-बहुजायरूव-रयया आयोगपयोगसंपउत्ता विच्छड्डियविपुल-भत्तपाना बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलयप्पभूया बहुजणस्स अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा उवलद्ध-पुण्ण-पावा-आसव-संवर-निज्जर-किरियाहिकरणबंधपमोक्खकुसला असहेज्जा Translated Sutra: इसके पश्चात् (एकदा) श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशील उद्यान से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। उस काल उस समय में तुंगिका नामकी नगरी थी। उस तुंगिका नगरी के बाहर ईशान कोण में पुष्पवतिक नामका चैत्य था। उस तुंगिकानगरी में बहुत – से श्रमणोपासक रहते थे। वे आढ्य और दीप्त थे। उनके विस्तीर्ण निपुल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 131 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विनयसंपन्ना नाणसंपन्ना दंसणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लाघवसंपन्ना ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियनिद्दा जिइंदिया जियपरीसहा जीवियासमरणभयविप्पमुक्का तवप्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा निग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा मद्दवप्पहाणा अज्जवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विज्जा-प्पहाणा मंतप्पहाणा वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोयप्पहाणा चारुपण्णा सोही अणियाणा Translated Sutra: उस काल और उस समय में पार्श्वापत्यीय स्थविर भगवान पाँच सौ अनगारों के साथ यथाक्रम से चर्या करते हुए, ग्रामानुग्राम जाते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए तुंगिका नगरी के पुष्पवतिकचैत्य पधारे। यथारूप अवग्रह लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए वहाँ विहरण करने लगे। वे स्थविर भगवंत जाति – सम्पन्न, कुलसम्पन्न, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 142 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! अत्थिकाया पन्नत्ता?
गोयमा! पंच अत्थिकाया पन्नत्ता, तं जहा–धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए।
धम्मत्थिकाए णं भंते! कतिवण्णे? कतिगंधे? कतिरसे? कतिफासे?
गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे;
अरूवी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए लोगदव्वे।
से समासओ पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुणओ।
दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे,
खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते,
कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ–भविंसु य, भवति य, भविस्सइ य–धुवे, नियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए निच्चे।
भावओ अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे।
गुणओ गमणगुणे।
अधम्मत्थिकाए Translated Sutra: भगवन् ! अस्तिकाय कितने कहे गए हैं ? गौतम ! पाँच हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्ति – काय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय। भगवन् ! धर्मास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? गौतम ! धर्मास्ति – काय वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित है, अर्थात् – धर्मास्तिकाय अरूपी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 143 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगे भंते! धम्मत्थिकायपदेसे धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
एवं दोण्णि, तिन्नि, चत्तारि, पंच, छ, सत्त, अट्ठ, नव, दस, संखेज्जा, असंखेज्जा। भंते! धम्मत्थि-कायपदेसा धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
एगपदेसूणे वि य णं भंते! धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ– एगे धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया जाव एगपदेसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया?
से नूनं गोयमा! खंडे चक्के? सगले चक्के?
भगवं! नो खंडे चक्के, सगले चक्के।
खंडे छत्ते? Translated Sutra: भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को ‘धर्मास्तिकाय’ कहा जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों, तीन प्रदेशों, चार प्रदेशों, पाँच प्रदेशों, छह प्रदेशों, सात प्रदेशों, आठ प्रदेशों, नौ प्रदेशों, दस प्रदेशों, संख्यात प्रदेशों तथा असंख्येय प्रदेशों को ‘धर्मास्तिकाय’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 145 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहे णं भंते! आगासे पन्नत्ते?
गोयमा! दुविहे आगासे पन्नत्ते, तं जहा– लोयागासे य अलोयागासे य।
लोयागासे णं भंते! किं जीवा? जीवदेसा? जीवप्पदेसा? अजीवा? अजीवदेसा? अजीवप्पदेसा?
गोयमा! जीवा वि, जीवदेसा वि, जीवप्पदेसा वि; अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवप्पदेसा वि।
जे जीवा ते नियमा एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया, अनिंदिया।
जे जीवदेसा ते नियमा एगिंदियदेसा, बेइंदियदेसा, तेइंदियदेसा, चउरिंदियदेसा, पंचिंदियदेसा, अनिंदियदेसा।
जे जीवप्पदेसा ते नियमा एगिंदियपदेसा, बेइंदियपदेसा, तेइंदियपदेसा, चउरिंदियपदेसा, पंचिंदिय पदेसा, अनिंदियपदेसा।
जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, Translated Sutra: भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! आकाश दो प्रकार का कहा गया है। यथा – लोकाकाश और अलोकाकाश। भगवन् ! क्या लोकाकाश में जीव हैं ? जीव के देश हैं ? जीव के प्रदेश हैं ? क्या अजीव हैं ? अजीव के देश हैं? अजीव के प्रदेश हैं ? गौतम ! लोकाकाश में जीव भी हैं, जीव के देश भी हैं, जीव के प्रदेश भी हैं; अजीव भी हैं, अजीव के देश | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 147 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] धम्मत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
अधम्मत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
लोयाकासे णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
जीवत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ।
पोग्गलत्थिकाए णं भंते! केमहालए पन्नत्ते?
गोयमा! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ। Translated Sutra: भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा कहा गया है ? गौतम ! धर्मास्तिकाय लोकरूप है, लोकमात्र है, लोक – प्रमाण है, लोकस्पृष्ट है, लोकको ही स्पर्श करके कहा हुआ है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्ति – काय और पुद्गलास्तिकाय के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। इन पाँचों के सम्बन्ध में एक समान अभिलाप है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 148 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अहोलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति?
गोयमा! सातिरेगं अद्धं फुसति।
तिरियलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति?
गोयमा! असंखेज्जइभागं फुसति।
उड्ढलोए णं भंते! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति?
गोयमा! देसूणं अद्धं फुसति। Translated Sutra: भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को अधोलोक स्पर्श करता है ? गौतम ! अधोलोक धर्मास्तिकाय के आधे से कुछ अधिक भाग को स्पर्श करता है। भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को तिर्यग्लोक स्पर्श करता है? पृच्छा०। गौतम ! तिर्यग्लोक धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करता है। भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 149 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमा णं भंते! रयणप्पभापुढवी धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति? संखेज्जे भागे फुसति? असंखेज्जे भागे फुसति? सव्वं फुसति?
गोयमा! नो संखेज्जइभागं फुसति, असंखेज्जइभागं फुसति, नो संखेज्जे भागे फुसति, नो असंखेज्जे भागे फुसति, नो सव्वं फुसति।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घनोदही धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति? संखेज्जे भागे फुसति? असंखेज्जे भागे फुसति? सव्वं फुसति?
जहा रयणप्पभा तहा घनोदहि-घनवाय-तणुवाया वि।
इमी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए ओवासंतरे धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति? Translated Sutra: भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी, क्या धर्मास्तिकाय के संख्यातभाग को स्पर्श करती है या असंख्यातभाग को स्पर्श करती है, अथवा संख्यातभागों को स्पर्श करती है या असंख्यात भागों को स्पर्श करती है अथवा समग्र को स्पर्श करती है? गौतम! यह रत्नप्रभापृथ्वी, धर्मास्तिकाय के संख्यातभाग को स्पर्श नहीं करती, अपितु असंख्यात भाग | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१० अस्तिकाय | Hindi | 150 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पुढवोदही घण-तणू, कप्पा गेवेज्जणुत्तरा सिद्धी ।
संखेज्जइभागं अंतरेसु सेसा असंखेज्जा ॥ Translated Sutra: पृथ्वी, घनोदधि, घनवात, तनुवात, कल्प, ग्रैवेयक, अनुत्तर, सिद्धि (ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी) तथा सात अव – काशान्तर, इनमें से अवकाशान्तर तो धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग का स्पर्श करते हैं और शेष सब धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग का स्पर्श करते हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-१ चमर विकुर्वणा | Hindi | 163 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते ईसानकप्पवासी बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य बलिचंचारायहाणिवत्थव्वएहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलिज्जमाणं निंदिज्जमाणं खिंसिज्जमाणं गरहिज्जमाणं अवमण्णिज्जमाणं तज्जिज्जमाणं तालेज्जमाणं परिवहिज्जमाणं पव्वहिज्जमाणं आकड्ढ-विकड्ढिं कीरमाणं पासंति, पासित्ता आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव ईसाने देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी–
एवं खलु देवानुप्पिया! बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे Translated Sutra: तत्पश्चात् ईशानकल्पवासी बहुत – से वैमानिक देवों और देवियों ने (इस प्रकार) देखा कि बलिचंचा – निवासी बहुत – से असुरकुमार देवों और देवियों द्वारा तामली बालतपस्वी के मृत शरीर की हीलना, निन्दा और आक्रोशना की जा रही है, यावत् उस शब को मनचाहे ढंग से इधर – उधर घसीटा या खींचा जा रहा है। अतः इस प्रकार देखकर वे वैमानिक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-३ |
उद्देशक-८ देवाधिपति | Hindi | 202 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] काले य महाकाले, सुरूव-पडिरूव-पुण्णभद्दे य ।
अमरवई माणिभद्दे, भीमे य तहा महाभीमे ॥ Translated Sutra: (१) काल और महाकाल, (२) सुरूप और प्रतिरूप, (३) पूर्णभद्र और मणिभद्र, (४) भीम और महाभीम। तथा – (५) किन्नर और किम्पुरुष, (६) सत्पुरुष और महापुरुष, (७) अतिकाय और महाकाय, तथा (८) गीतरति और गीतयश। ये सब वाणव्यन्तर देवों के अधिपति – इन्द्र हैं। सूत्र – २०२, २०३ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-४ |
उद्देशक-१ थी ८ लोकपाल विमान अने राजधानी | Hindi | 208 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी–ईसानस्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो कइ लोगपाला पन्नत्ता?
गोयमा! चत्तारि लोगपाला पन्नत्ता, तं जहा–सोमे, जमे, वेसमणे, वरुणे।
एएसि णं भंते! लोगपालाणं कइ विमाना पन्नत्ता?
गोयमा! चत्तारि विमाना पन्नत्ता, तं जहा–सुमणे, सव्वओभद्दे, वग्गू, सुवग्गू।
कहि णं भंते! ईसानस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो सुमणे नामं महाविमाने पन्नत्ते?
गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव ईसाने नामं कप्पे पन्नत्ते।
तत्थ णं जाव पंच वडेंसया पन्नत्ता, तं जहा– अंकवडेंसए, फलिहवडेंसए, रयणवडेंसए, जायरूव-वडेंसए, मज्झे ईसानवडेंसए।
तस्स Translated Sutra: राजगृह नगर में, यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहा – भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के कितने लोकपाल कहे गए हैं ? हे गौतम ! उसके चार लोकपाल कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं – सोम, यम, वैश्रमण और वरुण। भगवन् ! इन लोकपालों के कितने विमान कहे गए हैं ? गौतम ! इनके चार विमान हैं; वे इस प्रकार हैं – सुमन, सर्वतोभद्र, वल्गु और सुवल्गु। भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-५ |
उद्देशक-४ शब्द | Hindi | 236 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पभू णं भंते! अनुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा, संलावं वा करेत्तए? हंता पभू।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–पभू णं अनुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा, संलावं वा करेत्तए?
गोयमा! जण्णं अनुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा अट्ठं वा हेउं वा पसिणं वा कारणं वा वागरणं वा पुच्छंति, तण्णं इहगए केवली अट्ठे वा हेउं वा पसिणं वा कारणं वा वागरणं वा वागरेइ। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–पभू णं अनुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा, संलावं वा करेत्तए।
जण्णं भंते! इहगए केवली Translated Sutra: भगवन् ! क्या अनुत्तरोपपातिक देव अपने स्थान पर रहे हुए ही, यहाँ रहे हुए केवली के साथ आलाप और संलाप करने में समर्थ हैं ? गौतम ! हाँ, हैं। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? हे गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देव अपने स्थान पर रहे हुए ही, जो अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण अथवा व्याकरण (व्याख्या) पूछते हैं, उसका उत्तर यहाँ रहे हुए केवली | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-५ |
उद्देशक-४ शब्द | Hindi | 237 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अनुत्तरोववाइया णं भंते! देवा किं उदिण्णमोहा? उवसंतमोहा? खीणमोहा? गोयमा! नो उदिण्ण-मोहा, उवसंतमोहा, नो खीणमोहा। Translated Sutra: भगवन् ! क्या अनुत्तरौपपातिक देव उदीर्णमोह हैं, उपशान्त – मोह हैं, अथवा क्षीणमोह हैं ? गौतम ! वे उदीर्ण – मोह नहीं हैं, उपशान्तमोह हैं, क्षीणमोह नहीं हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-५ |
उद्देशक-६ आयु | Hindi | 244 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहन्नं भंते! जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति?
गोयमा! पाणे अइवाएत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अनेस-णिज्जेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता–एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति?
कहन्नं भंते! जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति?
गोयमा! नो पाणे अइवाएत्ता, नो मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं एसणिज्जेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता–एवं खलु जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति।
कहन्नं भंते! जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति?
गोयमा! पाणे अइवाएत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा हीलित्ता निंदित्ता खिसित्ता गरहित्ता अवमन्नित्ता Translated Sutra: भगवन् ! जीव अल्पायु के कारणभूत कर्म किस कारण से बाँधते हैं ? गौतम ! तीन कारणों से जीव अल्पायु के कारणभूत कर्म बाँधते हैं – (१) प्राणियों की हिंसा करके, (२) असत्य भाषण करके और (३) तथारूप श्रमण या माहन को अप्रासुक, अनेषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम – दे कर। जीव अल्पायुष्कफल वाला कर्म बाँधते हैं भगवन् ! जीव दीर्घायु | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-५ |
उद्देशक-७ पुदगल कंपन | Hindi | 257 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] परमाणुपोग्गले णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं। एवं जाव अनंतपएसिओ।
एगपएसोगाढे णं भंते! पोग्गले सेए तम्मि वा ठाणे वा, अन्नम्मि वा ठाणे कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं। एवं जाव असंखेज्ज-पएसोगाढे।
एगपएसोगाढे णं भंते! पोग्गले निरेए कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं। एवं जाव असंखेज्जपएसोगाढे।
एगगुणकालए णं भंते! पोग्गले कालओ केवच्चिरं होइ?
गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं। एवं जाव अनंतगुणकालए। एवं
वण्ण-गंध-रस-फास जाव Translated Sutra: भगवन् ! परमाणुपुद्गल काल की अपेक्षा कब तक रहता है ? गौतम ! परमाणुपुद्गल (परमाणुपुद्गल के रूप में) जघन्य एक समय तक रहता है, और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक रहता है। इसी प्रकार यावत् अनन्त – प्रदेशीस्कन्ध तक कहना चाहिए। भगवन् ! एक आकाश – प्रदेशावगाढ़ पुद्गल उस (स्व) स्थान में या अन्य स्थान में काल की अपेक्षा से | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-५ |
उद्देशक-८ निर्ग्रंथी पुत्र | Hindi | 263 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेत्ति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–जीवा णं भंते! किं वड्ढंति? हायंति? अवट्ठिया?
गोयमा! जीवा नो वड्ढंति, नो हायंति, अवट्ठिया।
नेरइया णं भंते! किं वड्ढंति? हायंति? अवट्ठिया?
गोयमा! नेरइया वड्ढंति वि, हायंति वि, अवट्ठिया वि।
जहा नेरइया एवं जाव वेमाणिया।
सिद्धा णं भंते! पुच्छा।
गोयमा! सिद्धा वड्ढंति, नो हायंति, अवट्ठिया वि।
जीवा णं भंते! केवतियं कालं अवट्ठिया?
गोयमा! सव्वद्धं।
नेरइया णं भंते! केवतियं कालं वड्ढंति?
गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं।
एवं हायंति वि।
नेरइया णं भंते! केवतियं कालं अवट्ठिया?
गोयमा! Translated Sutra: ‘भगवन् !’ यों कहकर भगवान गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी से यावत् इस प्रकार पूछा – भगवन् ! क्या जीव बढ़ते हैं, घटते हैं या अवस्थित रहते हैं ? गौतम ! जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं, पर अवस्थित रहते हैं भगवन् ! क्या नैरयिक बढ़ते हैं, अथवा अवस्थित रहते हैं ? गौतम ! नैरयिक बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते |