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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२९. ध्यानसूत्र | Hindi | 498 | View Detail | ||
Mool Sutra: भावेज्ज अवत्थतियं, पिंडत्थ-पयत्थ-रूवरहियत्तं।
छउमत्थ-केवलित्तं, सिद्धत्तं चेव तस्सत्थो।।१५।। Translated Sutra: ध्यान करनेवाला साधक पिंडस्थ, पदस्थ और रूपातीत-इन तीनों अवस्थाओं की भावना करे। पिंडस्थध्यान का विषय है-- छद्मस्थत्व--देह-विपश्यत्व। पदस्थध्यान का विषय है केवलित्व--केवली द्वारा प्रतिपादित अर्थ का अनुचिंतन और रूपातीतध्यान का विषय है सिद्धत्व--शुद्ध आत्मा। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 604 | View Detail | ||
Mool Sutra: जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो।
निरुद्धजोगिस्स व से ण होति, अछिद्दपोतस्स व अंबुणाथे।।१७।। Translated Sutra: जैसे-जैसे योग अल्पतर होता है, वैसे-वैसे बन्ध या आस्रव भी अल्पतर होता है। योग का निरोध हो जाने पर बन्ध नहीं होता; जैसे कि छेदरहित जहाज में जल प्रवेश नहीं करता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 607 | View Detail | ||
Mool Sutra: सव्वभूयऽप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइं पासओ।
पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई।।२०।। Translated Sutra: जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है और जिसने कर्मास्रव के सारे द्वार बन्द कर दिये हैं, उस संयमी को पापकर्म का बन्ध नहीं होता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 622 | View Detail | ||
Mool Sutra: लाउअ एरण्डफले, अग्गीधूमे उसू धणुविमुक्के।
गइ पुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गती तु।।३५।। Translated Sutra: जैसे मिट्टी से लिप्त तुम्बी जल में डूब जाती है और मिट्टी का लेप दूर होते ही ऊपर तैरने लग जाती है अथवा जैसे एरण्ड का फल धूप से सूखने पर फटता है तो उसके बीज ऊपर को ही जाते हैं अथवा जैसे अग्नि या धूम की गति स्वभावतः ऊपर की ओर होती है अथवा जैसे धनुष से छूटा हुआ बाण पूर्व-प्रयोग से गतिमान् होता है, वैसे ही सिद्ध जीवों | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३७. अनेकान्तसूत्र | Hindi | 668 | View Detail | ||
Mool Sutra: तम्हा वत्थूणं चिय, जो सरसो पज्जवो स सामन्नं।
जो विसरिसो विसेसो, य मओऽणत्थंतरं तत्तो।।९।। Translated Sutra: (अतः) वस्तुओं की जो सदृश पर्याय है-दीर्घकाल तक बनी रहनेवाली समान पर्याय है, वही सामान्य है और उनकी जो विसदृश पर्याय है वह विशेष है। ये दोनों सामान्य तथा विशेष पर्यायें उस वस्तु से अभिन्न (कथंचित्) मानी गयी हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Hindi | 679 | View Detail | ||
Mool Sutra: इंदियमणोनिमित्तं, जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं।
निययतत्थुत्तिसमत्थं, तं भावसुयं मई सेसं।।६।। Translated Sutra: इन्द्रिय और मन के निमित्त से श्रुतानुसारी होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। वह अपने विषयभूत अर्थ को दूसरे से कहने में समर्थ होता है। शेष इन्द्रिय और मन के निमित्त से होनेवाला अश्रुतानुसारी अवग्रहादि ज्ञान मतिज्ञान है। (इससे स्वयं तो जाना जा सकता है, किन्तु दूसरे को नहीं समझाया जा सकता।) | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Hindi | 680 | View Detail | ||
Mool Sutra: मइपुव्वं सुयमुत्तं, न मई सुयपुव्विया विसेसोऽयं।
पुव्वं पूरणपालण-भावाओ जं मई तस्स।।७।। Translated Sutra: श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञानपूर्वक नहीं होता। यही दोनों ज्ञानों में अन्तर है। `पूर्व' शब्द `पृ' धातु से बना है, जिसका अर्थ है पालन और पूरण। श्रुत का पूरण और पालन करने से मतिज्ञान पूर्व में ही होता है। अतः मतिपूर्वक ही श्रुत कहा गया है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Hindi | 683 | View Detail | ||
Mool Sutra: केवलमेगं सुद्धं, सगलमसाहारणं अणंतं च।
पायं च नाणसद्दो, नामसमाणाहिगरणोऽयं।।१०।। Translated Sutra: केवल शब्द के एक, शुद्ध, सकल, असाधारण और अनन्त आदि `अर्थ हैं। अतः केवलज्ञान एक है, इन्द्रियादि की सहायता से रहित है और उसके होने पर अन्य सब ज्ञान निवृत्त हो जाते हैं। इसीलिए केवलज्ञान एकाकी है, मलकलंक से रहित होने से शुद्ध है। सम्पूर्ण ज्ञेयों का ग्राहक होने से सकल है। इसके समान और कोई ज्ञान नहीं है, अतः असाधारण | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Hindi | 684 | View Detail | ||
Mool Sutra: संभिन्नं पासंतो, लोगमलोगं च सव्वओ सव्वं।
तं नत्थि जं न पासइ, भूयं भव्वं भविस्सं च।।११।। Translated Sutra: केवलज्ञान लोक और अलोक को सर्वतः परिपूर्ण रूप से जानता है। भूत, भविष्य और वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे केवलज्ञान नहीं जानता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Hindi | 686 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवो अक्खो अत्थव्ववण-भोयणगुणन्निओ जेणं।
तं पइ वट्टइ नाणं, जे पच्चक्खं तयं तिविहं।।१३।। Translated Sutra: जीव को `अक्ष' कहते हैं। यह शब्द `अशु व्याप्तौ' धातु से बना है। जो ज्ञानरूप में समस्त पदार्थों में व्याप्त है, वह अक्ष अर्थात् जीव है। `अक्ष' शब्द की व्युत्पत्ति भोजन के अर्थ में `अश्' धातु से भी की जा सकती है। जो तीनों लोक की समस्त समृद्धि आदि को भोगता है वह अक्ष अर्थात् जीव है। इस तरह दोनों व्युत्पत्तियों से (अर्थव्यापन | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Hindi | 687 | View Detail | ||
Mool Sutra: अक्खस्स पोग्गलकया, जं दव्विन्दियमणा परा तेणं।
तेहिं तो जं नाणं, परोक्खमिह तमणुमाणं व।।१४।। Translated Sutra: पौद्गलिक होने के कारण द्रव्येन्द्रियाँ और मन `अक्ष' अर्थात् जीव से `पर' (भिन्न) हैं। अतः उनसें होनेवाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है। जैसे अनुमान में धूम से अग्नि का ज्ञान होता है, वैसे ही परोक्षज्ञान भी `पर' के निमित्त से होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Hindi | 688 | View Detail | ||
Mool Sutra: होंति परोक्खाइं मइ-सुयाइं जीवस्स परनिमित्ताओ।
पुव्वोवलद्धसंबंध-सरणाओ वाणुमाणं व।।१५।। Translated Sutra: जीव के मति और श्रुत-ज्ञान परनिमित्तक होने के कारण परोक्ष हैं। अथवा अनुमान की तरह पहले से उपलब्ध अर्थ के स्मरण द्वारा होने के कारण भी वे परनिमित्तक हैं।[1] | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३८. प्रमाणसूत्र | Hindi | 689 | View Detail | ||
Mool Sutra: एगंतेण परोक्खं, लिंगियमोहाइयं च पच्चक्खं।
इंदियमणोभवं जं, तं संववहारपच्चक्खं।।१६।। Translated Sutra: धूम आदि लिंग से होनेवाला श्रुतज्ञान तो एकान्तरूप से परोक्ष ही है। अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीनों ज्ञान एकान्तरूप से प्रत्यक्ष ही हैं। किन्तु इन्द्रिय और मन से होनेवाला मतिज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष माना जाता है। इसलिए वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Hindi | 698 | View Detail | ||
Mool Sutra: नेगम-संगह-ववहार-उज्जुसुए चेव होई बोधव्वा।
सद्दे य समभिरूढे, एवंभूए य मूलनया।।९।। Translated Sutra: (द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के भेदरूप) मूल नय सात हैं--नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Hindi | 700 | View Detail | ||
Mool Sutra: णेगाइं माणाइं, सामन्नोभयविसेसनाणाहं।
जं तेहिं मिणइ तो, णेगमो णओ णेगमाणो त्ति।।११।। Translated Sutra: सामान्यज्ञान, विशेषज्ञान तथा उभयज्ञान रूप से जो अनेक मान लोक में प्रचलित हैं उन्हें जिसके द्वारा जाना जाता है वह नैगम नय है। इसीलिए उसे `नयिकमान' अर्थात् विविधरूप से जानना कहा गया है। રેખાંકિત શબ્દ બરાબર છે કે નહિ તેની તપાસ કરો | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Hindi | 708 | View Detail | ||
Mool Sutra: सवणं सपइ स तेणं, व सप्पए वत्थु जं तओ सद्दो।
तस्सत्थपरिग्गहओ, नओ वि सद्दो त्ति हेउ व्व।।१९।। Translated Sutra: शपन अर्थात् आह्वान शब्द है, अथवा जो `शपति' अर्थात् आह्वान करता है वह शब्द है। अथवा `शप्यते' जिसके द्वारा वस्तु को कहा जाता है वह शब्द है। उस शब्द का वाच्य जो अर्थ है, उसको ग्रहण करने से नय को भी शब्द कहा गया है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
३९. नयसूत्र | Hindi | 712 | View Detail | ||
Mool Sutra: एवं जह सद्दत्थो, संतो भूओ तदन्नहाऽभूओ।
तेणेवंभूयनओ, सद्दत्थपरो विसेसेण।।२३।। Translated Sutra: एवं अर्थात् जैसा शब्दार्थ हो उसी रूप में जो व्यवहृत होता है वह भूत अर्थात् विद्यमान है। और जो शब्दार्थ से अन्यथा है वह अभूत अर्थात् अविद्यमान है। जो ऐसा मानता है वह `एवंभूतनय' है। इसीलिए शब्दनय और समभिरूढ़नय की अपेक्षा एवंभूतनय विशेषरूप से शब्दार्थतत्पर नय है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 726 | View Detail | ||
Mool Sutra: जावंतो वयणपधा, तावंतो वा नया `वि' सद्दाओ।
ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदिया सव्वे।।५।। Translated Sutra: (वास्तव में देखा जाय तो लोक में-) जितने वचन-पन्थ हैं, उतने ही नय हैं, क्योंकि सभी वचन वक्ता के किसी न किसी अभिप्राय या अर्थ को सूचित करते हैं और ऐसे वचनों में वस्तु के किसी एक धर्म की ही मुख्यता होती है। अतः जितने नय सावधारण (हठग्राही) हैं, वे सब पर-समय हैं, मिथ्या हैं; और अवधारणरहित (सापेक्षसत्यग्राही) तथा स्यात् पद | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 727 | View Detail | ||
Mool Sutra: परसमएगनयमयं, तप्पडिवक्खनयओ निवत्तेज्जा।
समए व परिग्गहियं, परेण जं दोसबुद्धीए।।६।। Translated Sutra: नय-विधि के ज्ञाता को पर-समयरूप (एकान्त या आग्रहपूर्ण) अनित्यत्व आदि के प्रतिपादक ऋजुसूत्र आदि नयों के अनुसार लोक में प्रचलित मतों का निवर्तन या परिहार नित्यादि का कथन करनेवाले द्रव्यार्थिक नय से करना चाहिए। तथा स्वसमयरूप जिन-सिद्धान्त में भी अज्ञान या द्वेष आदि दोषों से युक्त किसी व्यक्ति ने दोषबुद्धि से | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 729 | View Detail | ||
Mool Sutra: न समेन्ति न य समेया, सम्मत्तं नेव वत्थुणो गमगा।
वत्थुविघायाय नया, विरोहओ वेरिणो चेव।।८।। Translated Sutra: निरपेक्ष नय न तो सामुदायिकता को प्राप्त होते हैं और न वे समुदायरूप कर देने पर सम्यक् होते हैं। क्योंकि प्रत्येक नय मिथ्या होने से उनका समुदाय तो महामिथ्यारूप होगा। समुदायरूप होने से भी वे वस्तु के गमक नहीं होते, क्योंकि पृथक्-पृथक् अवस्था में भी वे गमक नहीं हैं। इसका कारण यह है कि निरपेक्ष होने के कारण वैरी | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 730 | View Detail | ||
Mool Sutra: सव्वे समयंति सम्मं, चेगवसाओ नया विरुद्धा वि।
मिच्च-ववहारिणो इव, राओदासीण-वसवत्ती।।९।। Translated Sutra: जैसे नाना अभिप्रायवाले अनेक सेवक एक राजा, स्वामी या अधिकारी के वश में रहते हैं, या आपस में लड़ने-झगड़नेवाले व्यवहारी-जन किसी उदासीन (तटस्थ) व्यक्ति के वशवर्ती होकर मित्रता को प्राप्त हो जाते हैं, वैसे ही ये सभी परस्पर विरोधी नय स्याद्वाद की शरण में जाकर सम्यक्भाव को प्राप्त हो जाते हैं। अर्थात् स्याद्वाद की छत्रछाया | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 731 | View Detail | ||
Mool Sutra: जमणेगधम्मणो वत्थुणो, तदंसे च सव्वपडिवत्ती।
अंध व्व गयावयवे तो, मिच्छाद्दिट्ठिणो वीसु।।१०।। Translated Sutra: जैसे हाथी के पूँछ, पैर, सूँड़ आदि टटोलकर एक-एक अवयव को ही हाथी माननेवाले जन्मान्ध लोगों का अभिप्राय मिथ्या होता है, वैसे ही अनेक धर्मात्मक वस्तु के एक-एक अंश को ग्रहण करके `हमने पूरी वस्तु जान ली है'-ऐसी प्रतिपत्ति करनेवालों का उस वस्तुविषयक ज्ञान मिथ्या होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 732 | View Detail | ||
Mool Sutra: जं पुण समत्तपज्जाय-वत्थुगमग त्ति समुदिया तेणं।
सम्मत्तं चक्खुमओ, सव्वगयावयगहणे व्व।।११।। Translated Sutra: तथा जैसे हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को हाथी जाननेवाले चक्षुष्मान् (दृष्टिसम्पन्न) का ज्ञान सम्यक् होता है, वैसे ही समस्त नयों के समुदाय द्वारा वस्तु की समस्त पर्यायों को या उसके धर्मों को जाननेवाले का ज्ञान सम्यक् होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 733 | View Detail | ||
Mool Sutra: पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो तु अणभिलप्पाणं।
पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुदणिबद्धो।।१२।। Translated Sutra: संसार में ऐसे बहुत-से पदार्थ हैं जो अनभिलाप्य हैं। शब्दों द्वारा उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसे पदार्थों का अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय (कहने योग्य) होता है। इन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवाँ भाग ही शास्त्रों में निबद्ध है। [ऐसी स्थिति में कैसे कहा जा सकता है कि अमुक शास्त्र की बात या अमुक ज्ञानी की | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | English | 23 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्वसमय-परसमयवित्, गम्भीरः दीप्तिमान् शिवः सोमः।
गुणशतकलितः युक्तः, प्रवचनसारं परिकथयितुम्।।७।। Translated Sutra: He, who is conversant with the docrines of his own as well as that of others, is serene, illuminated, benevolent, gentle and possessed of hundreds of other virtues, is fit to expound the essence of the Scriptures. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | English | 24 | View Detail | ||
Mool Sutra: यदिच्छसि आत्मतः, यच्च नेच्छसि आत्मतः।
तदिच्छ परस्यापि च, एतावत्कं जिनशासनम्।।८।। Translated Sutra: What you desire for yourself desire for others too, what you do not desire for yourself do not desire for others too-this is the teaching of the Jina. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
३. संघसूत्र | English | 27 | View Detail | ||
Mool Sutra: आश्वासः विश्वासः, शीतगृहसमश्च भवति मा भैषीः।
अम्बापितृसमानः, संघः शरणं तु सर्वेषाम्।।३।। Translated Sutra: The Sangha grants assurance, evokes confidence and gives peace like a cool chamber. It is affectionate like the parents and affords shelter to all living beings so be not afraid of the Sangha. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
३. संघसूत्र | English | 28 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञानस्य भवति भागी, स्थिरतरको दर्शने चरित्रे च।
धन्याः गुरुकुलवासं, यावत्कथया न मुञ्चन्ति।।४।। Translated Sutra: Blessed are those who reside life-long in their preceptor’s entourage as they acquire knowledge and specially attain stability in faith and conduct. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
४. निरूपणसूत्र | English | 42 | View Detail | ||
Mool Sutra: निश्चयतः दुर्ज्ञेयं, कः भावः कस्मिन् वर्तते श्रमणः?।
व्यवहारतस्तु क्रियते, यः पूर्वस्थितश्चारित्रे।।११।। Translated Sutra: Verily, it is very difficult to know the mental states of monks; therefore the criterion of senionrity in the order of monks should be decided by practical vie-point i.e. standing monkhood. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
४. निरूपणसूत्र | English | 44 | View Detail | ||
Mool Sutra: कार्यं ज्ञानादिकं, उत्सर्गापवादतः भवेत् सत्यम्।
तत् तथा समाचरन्, तत् सफलं भवति सर्वमपि।।१३।। Translated Sutra: Conduct, knowledge atc. are right one when they satisfy general rules as well as the exceptional conditions. They should be practised in such a manner that they become fruitful. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
६. कर्मसूत्र | English | 56 | View Detail | ||
Mool Sutra: यो येन प्रकारेण, भावः नियतः तम् अन्यथा यस्तु।
मन्यते करोति वदति वा, विपर्यासो भवेद् एषः।।१।। Translated Sutra: If a thing is possessed of a certain definite form, then to consider it otherwise, to act as if it were otherwise, or to describe as otherwise is pervertion. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
६. कर्मसूत्र | English | 60 | View Detail | ||
Mool Sutra: कर्म चिन्वन्ति स्ववशाः, तस्योदये तु परवशा भवन्ति।
वृक्षमारोहति स्ववशः, विगलति स परवशः ततः।।५।। Translated Sutra: Just as a person is free while climbing a tree but once he starts falling then he has no power to check it. Smimilarly a living being is free in accumulating the Karmas but once accumulated it is beyond his power to control their fruition. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
६. कर्मसूत्र | English | 61 | View Detail | ||
Mool Sutra: कर्मवशाः खलु जीवाः, जीववशानि कुत्रचित् कर्माणि।
कुत्रचित् धनिकः बलवान्, धारणिकः कुत्रचित् बलवान्।।६।। Translated Sutra: At sometimes (i.e., at the time of fruition) the living beings are controlled by Karmans while at other times (i. e., at the time of doing) the Karmans are controlled by them, just as at the time of lending the money the creditor is in a stronger position, while at the time of returning it, a debtor is in a stronger position. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | English | 87 | View Detail | ||
Mool Sutra: यदि किञ्चित् प्रमादेन, न सुष्ठु युष्माभिः सह वर्तितं मया पूर्वम्।
तद् युष्मान् क्षमयाम्यहं, निःशल्यो निष्कषायश्च।।६।। Translated Sutra: If I have behaved towards you in the past in an improper manner due to slight inadvertance, I sincerely beg your pardon, with a pure heart (i.e. without any sting and passion). | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | English | 121 | View Detail | ||
Mool Sutra: आत्मानं जानाति आत्मा, यथास्थितो आत्मसाक्षिको धर्मः।
आत्मा करोति तं तथा, यथा आत्मसुखापको भवति।।४०।। Translated Sutra: The soul verily knows himself. Really one’s soul itself is the witness of religiousity, hence he performs religious activity in such a manner as brings satisfaction to himself. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | English | 132 | View Detail | ||
Mool Sutra: उपशमम् अप्युपनीतं, गुणमहान्तं जिनचरित्रसदृशमपि।
प्रतिपातयन्ति कषायाः, किं पुनः शेषान् सरागस्थान्।।११।। Translated Sutra: When suppressed, passion can bring about the spiritual degeneration of even the most virtuous monk, who in his conduct is akin to Jina himself, what can we say of monks who are under the sway of attachment? | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | English | 133 | View Detail | ||
Mool Sutra: इह उपशान्तकषायो, लभतेऽनन्तं पुनरपि प्रतिपातम्।
न हि युष्माभिर्विश्वसितव्यं स्तोकेऽपि कषायशेषे।।१२।। Translated Sutra: Even one who has subsided or repressed all his passions, once more experiences a terrible spiritual degeneration, hence one ought not to become complacent when some remnants of passions still continue. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | English | 134 | View Detail | ||
Mool Sutra: ऋणस्तोकं व्रणस्तोकम्, अग्निस्तोकं कषायस्तोकं च।
न हि भवद्भिर्विश्वसितव्यं, स्तोकमपि खलु तद् बहु भवति।।१३।। Translated Sutra: One should not be complacent with a small debt, slight wound, spark of fire and slight passion, because what is small (today) may become bigger (later). | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | English | 161 | View Detail | ||
Mool Sutra: सीदन्ति स्वपताम्, अर्थाः पुरुषाणां लोकसारार्थाः।
तस्माज्जागरमाणा, विधूनयत पुराणकं कर्म।।२।। Translated Sutra: He who sleeps, his many excellent things of this world are lost unknowingly. Therefore, remain awake all the while and destroy the Karmas, accumulated in the past. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | English | 162 | View Detail | ||
Mool Sutra: जागरिका धर्मिणाम्, अधर्मिणां च सुप्तता श्रेयसी।
वत्साधिपभगिन्याः, कथितवान् जिनः जयन्त्याः।।३।। Translated Sutra: It is better that the religious-minded should awake and the wicked should sleep; this is what Jina said to Jayanti, the sister of the kings of Vatsadesa. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | English | 167 | View Detail | ||
Mool Sutra: नाऽऽलस्येन समं सौख्यं, न विद्या सह निद्रया।
न वैराग्यं ममत्वेन, नारम्भेण दयालुता।।८।। Translated Sutra: An idle person can never be happy and sleepy person can never aquire knowledge. A person with attachments cannot acquire renunciationa and he who is violent cannot acquire compassion. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१३. अप्रमादसूत्र | English | 168 | View Detail | ||
Mool Sutra: जागृत नराः ! नित्यं, जागरमाणस्य वर्द्धते बुद्धिः।
यः स्वपिति न सो धन्यः, यः जागर्त्ति स सदा धन्यः।।९।। Translated Sutra: Oh: human beings; always be vigilant. He who is alert gains more and more knowledge. He who is invigilant is not blessed. Ever blessed is he who is vigilant. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१७. रत्नत्रयसूत्र | English | 212 | View Detail | ||
Mool Sutra: हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हताऽज्ञानतः क्रिया।
पश्यन् पङ्गुलः दग्धो, धावमानश्च अन्धकः।।५।। Translated Sutra: Right knowledge is of no use in the absence of right conduct, action is of no use in the absence of right knowledge. Certainly, in the case of conflagration the lame man burns down even if capable of seeing while the blind man burns down even if capable of running away. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१७. रत्नत्रयसूत्र | English | 213 | View Detail | ||
Mool Sutra: संयोगसिद्धौ फलं वदन्ति, न खल्वेकचक्रेण रथः प्रयाति।
अन्धश्च पङ्गुश्च वने समेत्थ, तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ।।६।। Translated Sutra: The desired result is attained when there is a harmony between right knowledge and right conduct, for a chariot does not move by one wheel. This is like a lame man and a blind man come together in a forest and manage to reach the town with the help of one another. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र | English | 246 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञानाऽऽज्ञप्त्या पुनः, दर्शनतपोनियमसंयमे स्थित्वा।
विहरति विशुध्यमानः, यावज्जीवमपि निष्कम्पः।।२।। Translated Sutra: Again, under the influence of his (scriptural) knowledge, he becomes firm in his faith, meditation, observance of vows and self-restraint, and lives a life of purity throughout his lifetime without any wavering. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र | English | 247 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा यथा श्रुतमवगाहते, अतिशयरसप्रसरसंयुतमपूर्वम्।
तथा तथा प्रह्लादते मुनिः, नवनवसंवेगश्रद्धाकः।।३।। Translated Sutra: As a monk continues to master the scriptures with extra-ordinary devotion and unbounded interest, he experiences supreme bliss with renewed taith accompanied by dispassion. | |||||||||
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द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | English | 303 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्त्री द्यूतं मद्यं, मृगया वचने तथा परुषता च।
दण्डपरुषत्वम् अर्थस्य दूषणं सप्त व्यसनानि।।३।। Translated Sutra: The seven vices are: (1) sexual intercourse with other than one’s own wife, (2) gambling, (3) drinking liquou (4) hunting, (5) harshness in speech, (6) harsh in punishment and (7) misappropriation of other’s property. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | English | 326 | View Detail | ||
Mool Sutra: सावद्ययोगपरिरक्षणार्थं, सामायिकं केवलिकं प्रशस्तम्।
गृहस्थधर्मात् परममिति ज्ञात्वा, कुर्याद् बुध आत्महितं परत्र।।२६।। Translated Sutra: Aimed at refrainment from sinful acts, the only auspicious religious act is samayika. Hence considering it to be something superior to a householder’s ordinary acts, an intelligent person ought to perform samayika for the sake of one’s own welfare. | |||||||||
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द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | English | 327 | View Detail | ||
Mool Sutra: सामायिके तु कृते, श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात्।
एतेन कारणेन,बहुशः सामायिकं कुर्यात्।।२७।। Translated Sutra: While observing the vow of Samayika (i. e., refraining from sinful acts and practice for mental equanimity) a householder becomes equal to a saint; for reason, he should observe it many times (in a day). | |||||||||
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२६. समिति-गुप्तिसूत्र | English | 387 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा गुप्तस्य ईर्यादि (जन्या) न भवन्ति दोषाः, तथैव समितस्य।
गुप्तिस्थितो प्रमादं, रुणद्धि समिति (स्थितः) सचेष्टस्य।।४।। Translated Sutra: Just as one who practises the gupti is not touched by defects pertaining to Samiti so also one who practises the samiti; does not have the defects of gupti. Certainly a gupti puts an act of negligence on the part of one who is undertaking an activity, to an end. |