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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
7. स्वानुभव ज्ञान | Hindi | 94 | View Detail | ||
Mool Sutra: आत्मत्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं,
नित्यं कर्मकलंकपंकविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ।। Translated Sutra: यदि कोई सुबुद्धि जीव भूत वर्तमान व भावी कर्मों के बन्ध को अपने आत्मा से तत्काल भिन्न करके तथा तज्जनित मिथ्यात्व को बलपूर्वक रोककर अन्तरंग में अभ्यास करे तो स्वानुभवगम्य महिमावाला यह आत्मा व्यक्त, निश्चल, शाश्वत, नित्य, निरंजन तथा स्वयं स्तुति करने योग्य परम देव, यह देखो, यहाँ विराजमान है ही। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका | Hindi | 99 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रमणेन श्रावकेन च, या नित्यमपि भावनीयाः।
दृढसंवेगकारिण्यो, विशेषतः उत्तमार्थे ।। Translated Sutra: श्रमण को या श्रावक को संवेग व वैराग्य के दृढ़ीकरणार्थ नित्य ही, विशेषतः सल्लेखना के काल में इन १२ भावनाओं का चिन्तवन करते रहना चाहिए। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
10. अनित्य व अशरण संसार | Hindi | 104 | View Detail | ||
Mool Sutra: संगं परिजानामि शल्यमपि चोद्धरामि त्रिविधेन।
गुप्तयः समितयः, मम त्राणं शरणं च ।। Translated Sutra: धन कुटुम्ब आदि रूप संसर्गों की अशरणता को मैं अच्छी तरह जानता हूँ, तथा माया मिथ्या व निदान (कामना) इन तीन मानसिक शल्यों का मन वचन काय से त्याग करता हूँ। तीन गुप्ति व पाँच समिति ही मेरे रक्षक व शरण हैं। इस मोक्ष-मार्ग को न जानने के कारण ही मैं अनादि काल से इस संसार-सागर में भटक रहा हूँ। एक बालाग्र प्रमाण भी क्षेत्र | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग) |
8. परीषह-जय (तितिक्षा सूत्र) | Hindi | 135 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुखस्वादकस्य श्रमणस्य, साताकुलस्य निकामशायिनः।
उत्क्षालनाप्रधाविनः, दुर्लभा सुगतिस्तादृशस्य ।। Translated Sutra: जो श्रमण केवल अपने शरीर के सुखों का ही स्वादिया है, और उन सुखों के लिए सदा आकुल-व्याकुल रहता है, खूब खा पीकर सो जाता है और सदा हाथ-पाँव आदि धोने में ही लगा रहता है, उसे सुगति दुर्लभ है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
5. अप्रमाद-सूत्र | Hindi | 151 | View Detail | ||
Mool Sutra: कथं चरेत् कथं तिष्ठेत्, कथमासीत् कथं शयीत्।
कथं भुंजानो भाषमाणः पापकर्मं न बध्नाति ।। Translated Sutra: (`अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति' यह साधनागत व्यवहार चारित्र का लक्षण कहा गया है। इसके विषय में ही शिष्य प्रश्न करता है) - कैसे चलें, कैसे बैठें, कैसे खड़े हों, कैसे सोवें, कैसे खावें और कैसे बोलें कि पापकर्म न बँधे। (गुरु उत्तर देते हैं) - यत्न से चलो, यत्न से खड़े हो, यत्न से बैठो, यत्न से सोओ, यत्न से खाओ और यत्न | |||||||||
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
5. अप्रमाद-सूत्र | Hindi | 152 | View Detail | ||
Mool Sutra: यतं चरेत् यतं तिष्ठेत् यतमासीत् यतं शयीत्।
यतं भुंजानो भाषमाणः, पापकर्मं न बध्नाति ।। Translated Sutra: कृपया देखें १५१; संदर्भ १५१-१५२ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
5. अप्रमाद-सूत्र | Hindi | 158 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी, न विश्वसेत् पण्डित आशुप्रज्ञः।
घोरा मुहूर्ता अबलं शरीरं, भारण्डपक्षीव चरेदप्रमत्तः ।। Translated Sutra: कर्तव्याकर्तव्य का शीघ्र ही निर्णय कर लेनेवाले तथा धर्म के प्रति सदा जागृत रहनेवाले पण्डित जन, आत्महित के प्रति सुप्त संसारी जीवों का कभी विश्वास नहीं करते। काल को भयंकर और शरीर को निर्बल जानकर वे सदा भेरण्ड पक्षी की भाँति सावधान रहते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
5. अस्तेय (अचौर्य)-सूत्र | Hindi | 170 | View Detail | ||
Mool Sutra: चित्तवद् अचित्तं वा, अल्पं वा यदि वा बहुं।
दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहे अयाचित्वा ।। Translated Sutra: सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत, यहाँ तक कि दाँत कुरेदने की सींक भी क्यों न हो, महाव्रती साधु गृहस्थ की आज्ञा के बिना ग्रहण न करे। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 184 | View Detail | ||
Mool Sutra: अर्थेन तन्न बध्नाति यदनर्थेन स्तोकबहुभावात्।
अर्थे कालादयो नियामकाः न त्वनर्थे ।। Translated Sutra: जीव को सप्रयोजन कर्म करने से उतना बन्ध नहीं होता जितना कि निष्प्रयोजन से होता है। क्योंकि सप्रयोजन कार्य में जिस प्रकार देश काल भाव आदि नियामक होते हैं, उस प्रकार निष्प्रयोजन में नहीं होते। श्रावक ऐसे अनर्थदण्ड का त्याग करता है। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
9. सामायिक-सूत्र | Hindi | 188 | View Detail | ||
Mool Sutra: सावद्ययोगपरिरक्षणार्थं सामायिकं केवलिकं प्रशस्तम्।
गृहस्थधर्मान् परमिति ज्ञात्वा, कुर्याद् बुध आत्महितं परार्थम् ।। Translated Sutra: सावद्य योग से अर्थात् पापकार्यों से अपनी रक्षा करने के लिए पूर्णकालिक सामायिक या समता ही प्रशस्त है (परन्तु वह प्रायः साधुओं को ही सम्भव है)। गृहस्थों के लिए भी वह परम धर्म है, ऐसा जानकर स्व-पर के हितार्थ बुधजन सामायिक अवश्य करें। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 195 | View Detail | ||
Mool Sutra: औद्देशिकं क्रीतकृतं पूतिकर्म च आहृतम्।
अध्यवपूरकं प्रामित्यं मिश्रजातं विवर्जयेत् ।। Translated Sutra: (दातार पर किसी प्रकार का भार न पड़े इस उद्देश्य से) साधु जन निम्न प्रकार के आहार अथवा वसतिका आदि का ग्रहण नहीं करते हैं-जो गृहस्थ ने साधु के उद्देश्य से तैयार किये हों, अथवा उसके उद्देश्य से ही मोल या उधार लिये गये हों, अथवा निर्दोष आहारादि में कुछ भाग उपरोक्त दोष युक्त मिला दिया गया हो, अथवा साधु के निमित्त उसके | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
13. युक्ताहार विहार | Hindi | 202 | View Detail | ||
Mool Sutra: इहलोकनिरपेक्षः अप्रतिबद्धः परस्मिन् लोके।
युक्ताहारविहारो रहितकषायो भवेत् श्रमणः ।। Translated Sutra: जो योगी इस लोक के सुख व ख्याति प्रतिष्ठा आदि से निरपेक्ष है, और परलोक विषयक सुख-दुःख आदि की कामना से रहित (अप्रतिबद्ध) है, रागद्वेषादि कषायों से रहित है और युक्ताहार विहारी है, वह श्रमण है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
6. विनय तप | Hindi | 217 | View Detail | ||
Mool Sutra: विनयो मोक्षद्वारं, विनयात् संयमः तपः ज्ञानम्।
विनयेनाराध्यते, आचार्यः सर्वसंघश्च ।। Translated Sutra: विनय मोक्ष का द्वार है, क्योंकि इससे संयम, तप व ज्ञान की सिद्धि होती है और आचार्य व संघ की सेवा होती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
3. अन्त मति सो गति | Hindi | 239 | View Detail | ||
Mool Sutra: यो यया परिनिमित्तात्, लेश्यया संयुक्तः करोति कालम्।
तल्लेश्यः उपजायते, तल्लेश्ये चैव सः स्वर्गे ।। Translated Sutra: जो व्यक्ति जिस लेश्या या परिणाम से युक्त होकर मरण को प्राप्त होता है, वह अगले भव में उस लेश्या के साथ उसी लेश्यावाले स्वर्ग में उत्पन्न होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 250 | View Detail | ||
Mool Sutra: सिंह-गज-वृषभ-मृग-पशु, मारुत-सूर्योदधि-मन्दरेन्दु-मणिः।
क्षिति-उरगाम्बर सदा, परमपद-विमार्गणा साधुः ।। Translated Sutra: सदा काल परमपद का अन्वेषण करनेवाले अनगार साधु ऐसे होते हैं-१. सिंहवत् पराक्रमी, २. गजवत् रणविजयी-कर्म विजयी, ३. वृषभवत् संयम-वाहक, ४. मृगवत् यथालाभ सन्तुष्ट, ५. पशुवत् निरीह भिक्षाचारी, ६. पवनवत् निर्लेप, ७. सूर्यवत् तपस्वी, ८. सागरवत् गम्भीर, ९. मेरुवत् अकम्प, १०. चन्द्रवत् सौम्य, ११. मणिवत् प्रभापुँज, १२. क्षितिवत् | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 252 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा द्रुमस्य पुष्पेषु, भ्रमरः आपिबति रसम्।
न च पुष्पं क्लामयति, स च प्रीणाति आत्मानम् ।। Translated Sutra: जैसे भ्रमर फूलों से रस ग्रहण करके अपना निर्वाह करता है, किन्तु फूल को किसी प्रकार की भी क्षति पहुँचने नहीं देता, उसी प्रकार साधु भिक्षा-वृत्ति से इस प्रकार अपना निर्वाह करता है जिससे गृहस्थों पर किसी प्रकार का भी भार न पड़े। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
5. गुरु-उपासना | Hindi | 261 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्यात् खलु स पावको न दहेत्,
आशीविषो वा कुपितो न भक्षेत्।
स्यात् विषं हलाहलं न मारयेत्,
न चापि मोक्षो गुरुहीलनया ।। Translated Sutra: यह कदाचित् सम्भव है कि अग्नि जलाना छोड़ दे, अथवा कुपित दृष्टिविष सर्प भी डंक न मारे, अथवा हलाहल विष खा लेने पर भी वह व्यक्ति को न मारे, परन्तु यह कदापि सम्भव नहीं कि गुरु-निन्दक को मोक्ष प्राप्त हो जाय। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
13. उत्तम त्याग | Hindi | 282 | View Detail | ||
Mool Sutra: यश्च कान्तान् प्रियान् भोगान्, लब्धानपि पृष्ठीकरोति।
स्वाधीनान्स्त्यजति भोगान्, स खलु त्यागीत्युच्यते ।। Translated Sutra: अपने को प्रिय लगनेवाले भोग प्राप्त हो जाने पर भी जो उनके प्रति हर प्रकार पीठ दिखाकर चलता है, और स्वतंत्र रूप से उनका त्याग कर देता है, (अर्थात् उन पदार्थों की आवश्यकता ही उसे अपने जीवन में प्रतीत नहीं होती है) वही सच्चा त्यागी है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
1. लोक सूत्र | Hindi | 287 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मः अधर्मः आकाशः, कालः पुद्गलाः जन्तवः।
एष लोक इति प्रज्ञप्तो, जिनैर्वरदर्शिभिः ।। Translated Sutra: धर्म, अधर्म आकाश, काल, अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव, ये छह प्रकार के स्वतः सिद्ध द्रव्य हैं। उत्तम दृष्टि सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने इनके समुदाय को ही लोक कहा है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
1. लोक सूत्र | Hindi | 288 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवाः पुद्गलकायाः, आकाशमस्तिकायौ शेषौ।
अमया अस्तित्वमयाः, कारणभूता हि लोकस्य ।। Translated Sutra: इन छह द्रव्यों में से जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म व अधर्म इन पाँच को सिद्धान्त में `अस्तिकाय' संज्ञा प्रदान की गयी है। काल द्रव्य अस्तित्व स्वरूप तो है, पर अणु-परिमाण होने से कायवान नहीं है। ये सब अस्तित्वमयी हैं, अर्थात् स्वतः सिद्ध हैं। इसलिए इस लोक के मूल उपादान कारण हैं। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
2. जीव द्रव्य (आत्मा) | Hindi | 292 | View Detail | ||
Mool Sutra: आत्मा ज्ञानप्रमाणं, ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम्।
ज्ञेयं लोकालोकं, तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम् ।। Translated Sutra: आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है, और ज्ञेय लोकालोक प्रमाण है। इसलिए ज्ञान सर्वगत है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
4. आकाश द्रव्य | Hindi | 301 | View Detail | ||
Mool Sutra: चेतनरहितममूर्त्तंमवगाहनलक्षणं च सर्वगतम्।
लोकालोकद्विभेदं, तन्नभोद्रव्यं जिनोद्दिष्टम् ।। Translated Sutra: आकाश द्रव्य अचेतन है, अमूर्तीक है, सर्वगत अर्थात् विभु है। सर्व द्रव्यों को अवगाह या अवकाश देना इसका लक्षण है। वह दो भागों में विभक्त है - लोकाकाश और अलोकाकाश। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
4. आकाश द्रव्य | Hindi | 302 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्माधर्मौ कालः, पुद्गलजीवाः च सन्ति यावतिके।
आकाशे सः लोकः, ततः परतः अलोकः उक्तः ।। Translated Sutra: (यद्यपि आकाश विभु है, परन्तु षट्द्रव्यमयी यह अखिल सृष्टि उसके मध्यवर्ती मात्र अति तुच्छ क्षेत्र में स्थित है) धर्म अधर्म काल पुद्गल व जीव ये पाँच द्रव्य उस आकाश के जितने भाग में अवस्थित हैं, वह `लोक' है और शेष अनन्त आकाश `अलोक' कहलाता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
6. काल द्रव्य | Hindi | 307 | View Detail | ||
Mool Sutra: सद्भावस्वभावानां, जीवानां तथा च पुद्गलानां च।
परिवर्तनसम्भूतः, कालो नियमेन प्रज्ञप्तः ।। Translated Sutra: सत्तास्वभावी जीव व पुद्गलों की वर्तना व परिवर्तना में जो धर्म-द्रव्य की भाँति ही उदासीन निमित्त है, उसे ही निश्चय से काल द्रव्य कहा गया है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
6. काल द्रव्य | Hindi | 308 | View Detail | ||
Mool Sutra: लोकाकाशप्रदेशो, एकैकस्मिन् ये स्थिताः हि एकैकाः।
रत्नानां राशिः इव, ते कालाणवः असंख्यद्रव्याणि ।। Translated Sutra: जैन दर्शन काल-द्रव्य को अणु-परिमाण मानता है। संख्या में ये लोक के प्रदेशों प्रमाण असंख्यात हैं। रत्नों की राशि की भाँति लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक, इस प्रकार उसके असंख्यात प्रदेशों पर असंख्यात कालाणु स्थित हैं। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
5. पुण्य-पाप तत्त्व (दो बेड़ियाँ) | Hindi | 325 | View Detail | ||
Mool Sutra: सौवर्णिकमपि निगलं बध्नाति कालायसमपि च यथा पुरुषं।
बध्नात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म ।। Translated Sutra: जिस प्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, उसी प्रकार सोने की बेड़ी भी बाँधती है। इसलिए परमार्थतः शुभ व अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म जीव के लिए बन्धनकारी हैं। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
7. निर्जरा तत्त्व (कर्म-संहार) | Hindi | 334 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा महातडागस्य सन्निरुद्धे जलागमे।
उत्सिंचनेन, क्रमेण शोषणा भवेत् ।। Translated Sutra: जिस प्रकार किसी बड़े भारी तालाब में जलागमन के द्वार को रोक कर उसका जल निकाल देने पर वह सूर्य ताप से शीघ्र ही सूख जाता है। उसी प्रकार संयमी साधु पाप-कर्मों के द्वार को अर्थात् राग-द्वेष को रोक कर तपस्या के द्वारा करोड़ों भवों के संचित कर्मों को नष्ट कर देता है। -[अज्ञानी जितने कर्म करोड़ों भवों में खपाता है, ज्ञानी | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) | Hindi | 341 | View Detail | ||
Mool Sutra: चक्रिकुरफणिसुरेन्द्रेषु, अहमिन्द्रे यत् सुखं त्रिकालभवं।
ततो अणंतगुणितं, सिद्धानां क्षणसुखं भवति ।। Translated Sutra: (अतीन्द्रिय होने के कारण यद्यपि सिद्धों के अद्वितीय सुख की व्याख्या नहीं की जा सकती, तथापि उत्प्रेक्षा द्वारा उसका कुछ अनुमान कराया जाता है।) चक्रवर्ती, भोगभूमिया-मनुष्य, धरणेन्द्र, देवेन्द्र व अहमिन्द्र इन सबका सुख पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा अनन्त अनन्त गुना माना गया है। इन सबके त्रिकालवर्ती सुख को यदि कदाचित् | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
9. परमात्म तत्त्व | Hindi | 342 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः परमात्मा स एवाऽहं, योऽहं स परमस्ततः।
अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।। Translated Sutra: (कर्म आदि की उपाधियों से अतीत त्रिकाल शुद्ध आत्मा को ग्रहण करने वाली शुद्ध तात्त्विक दृष्टि से देखने पर) जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्मा है। इस तरह मैं ही स्वयं अपना उपास्य हूँ। अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है। ऐसी तात्त्विक स्थिति है। | |||||||||
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13. तत्त्वार्थ अधिकार |
9. परमात्म तत्त्व | Hindi | 343 | View Detail | ||
Mool Sutra: देहदेवालये यः वसति, देवः अनाद्यनन्तः।
केवलज्ञानस्फुरत्तनुः, स परमात्मा निर्भ्रान्तः ।। Translated Sutra: जो व्यवहार दृष्टि से देह रूपी देवालय में बसता है, और परमार्थतः देह से भिन्न है, वह मेरा उपास्य देव अनाद्यनन्त अर्थात् त्रिकाल शाश्वत है। वह केवलज्ञान-स्वभावी है। निस्सन्देह वही अचलित स्वरूप कारण-परमात्मा है। | |||||||||
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14. सृष्टि-व्यवस्था |
1. स्वभाव कारणवाद (सत्कार्यवाद) | Hindi | 346 | View Detail | ||
Mool Sutra: भावस्य नास्ति नाशो, नास्ति अभावस्य चैव उत्पादः।
गुणपर्यायेषु भावा, उत्पादव्ययान् प्रकुर्वन्ति ।। Translated Sutra: सत् का नाश और असत् का उत्पाद किसी काल में भी सम्भव नहीं। सत्ताभूत पूर्वोक्त जीवादि षट् विध पदार्थ अपने गुणों व पर्यायों में स्वयं उत्पन्न होते रहते हैं और विनष्ट होते रहते हैं। | |||||||||
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14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 352 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवानां कर्म अनादीनि जीव जनितं कर्म न तेन।
कर्मणा जोवोऽपि जनितो नापि, द्वयोरपि आदिः न येन ।। Translated Sutra: हे आत्मन्! जीवों के कर्म अनादि काल से हैं। न तो जीव ने कर्म उत्पन्न किये हैं और न ही कर्मों ने जीव को उत्पन्न किया है। क्योंकि जीव व कर्म दोनों की ही कोई आदि नहीं है। | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
1. द्रव्य-स्वरूप | Hindi | 361 | View Detail | ||
Mool Sutra: तत् परिजानीहि द्रव्यं त्वं, यत् गुणपर्याययुक्तम्।
सहभुवः जानीहि तेषां गुणाः, क्रमभुवः पर्यायाः उक्ताः ।। Translated Sutra: जो गुण और पर्यायों से युक्त होता है, उसे तू द्रव्य जान। जो द्रव्य के साथ सदा काल रहें वे गुण होते हैं। (जैसे जीव का ज्ञान गुण)। तथा द्रव्य व गुण के वे भाव पर्याय कहलाते हैं जो उनमें एक के पश्चात् एक क्रम से उत्पन्न हों (जैसे ज्ञान के विविध विकल्प)। (तात्पर्य यह कि द्रव्य में गुण तो नित्य होते हैं और पर्याय अनित्य | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
1. द्रव्य-स्वरूप | Hindi | 364 | View Detail | ||
Mool Sutra: एकद्रव्ये येऽर्थपर्यायाः, व्यंजनपर्यायाः वापि।
अतीतानागतभूताः, तावत्कं तत् भवति द्रव्यम् ।। Translated Sutra: एक द्रव्य में जो अतीत वर्तमान व भावी ऐसी त्रिकालवर्ती गुण पर्याय तथा द्रव्य पर्याय होती हैं, उतना मात्र ही वह द्रव्य होता है। | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
1. द्रव्य-स्वरूप | Hindi | 365 | View Detail | ||
Mool Sutra: द्रव्यं पर्ययवियुक्तं, द्रव्यवियुक्ताश्च पर्ययाः न सन्ति।
उत्पादस्थितिभंगाः, भवति द्रव्यलक्षणमेतत् ।। Translated Sutra: उत्पन्नध्वंसी पर्यायों से विहीन द्रव्य तथा त्रिकाल ध्रुवद्रव्य से विहीन पर्याय कभी नहीं होती। इसलिए उत्पाद व्यय व ध्रौव्य इन तीनों का समुदित रूप ही द्रव्य या सत् का लक्षण है। | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
3. वस्तु की जटिलता | Hindi | 369 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुरुषे पुरुषशब्दो, जन्मादि-मरणकालपर्यन्तः।
तस्य तु बालादिकाः, पर्यययोग्या बहुविकल्पाः ।। Translated Sutra: जन्म से लेकर मरणकाल पर्यन्त पुरुष में `पुरुष' ऐसा व्यपदेश होता है। बाल युवा आदि उसीकी अनेक विध पर्यायें या विशेष हैं। | |||||||||
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
2. पक्षपात-निरसन | Hindi | 387 | View Detail | ||
Mool Sutra: कालो स्वभावो नियतिः, पूर्वकृतं पुरुषः कारणैकान्ताः।
मिथ्यात्वं ते चैव, समासतो भवन्ति सम्यक्त्वम् ।। Translated Sutra: काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत अर्थात् कर्म दैव या अदृष्ट, और पुरुषार्थ ये पाँचों ही कारण हर कार्य के प्रति लागू होते हैं। अन्य कारणों का निषेध करके पृथक् पृथक् एक एक का पक्ष पकड़ने पर ये पाँचों ही मिथ्या हैं और सापेक्षरूप से परस्पर मिल जाने पर ये पाँचों ही सम्यक् हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
4. नय की हेयोपादेयता | Hindi | 394 | View Detail | ||
Mool Sutra: तत्त्वान्वेषणकाले, समयं बुध्यस्व युक्तिमार्गेण।
नो आराधनसमये, तत्प्रत्यक्षोऽनुभवो यस्मात् ।। Translated Sutra: परन्तु तत्त्वान्वेषण के काल में ही मुक्ति मार्ग से तत्त्व को जानना योग्य है, आराधना के काल में नहीं, क्योंकि उस समय तो वह स्वयं प्रत्यक्ष ही होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
1. जैनधर्म की शाश्वतता | Hindi | 410 | View Detail | ||
Mool Sutra: अभवन् पुरापि भिक्षवः, आगामिनश्च भविष्यन्ति सुव्रताः।
एतान् गुणानाहुस्ते, काश्यपस्य धर्मानुचारिणः ।। Translated Sutra: हे मुनियो! भूतकाल में जितने भी तीर्थंकर हुए हैं और भविष्यत् में होंग, वे सभी व्रती, संयमी तथा महापुरुष होते हैं। इनका उपदेश नया नहीं होता, बल्कि काश्यप अर्थात् ऋषभदेव के धर्म का ही अनुसरण करने वाला होता है। (तीर्थंकर किसी नये धर्म के प्रवर्तक नहीं होते, बल्कि पूर्ववर्त्ती धर्म के अनुवर्तक होते हैं।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन | Hindi | 412 | View Detail | ||
Mool Sutra: एककार्यप्रपन्नयोः, विशेषे किन्नु कारणम्।
धर्मे द्विविधे मेधाविन्! कथं विप्रत्ययो न ते ।। Translated Sutra: (भगवान् महावीर ने पंचव्रतों का उपदेश किया और उनके पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्व ने चार व्रतों का। इस विषय में केशी ऋषि गौतम गणधर से शंका करते हैं, कि) हे मेधाविन्! एक ही कार्य में प्रवृत्त होने वाले दो तीर्थंकरों के धर्मों में यह विशेष भेद होने का कारण क्या है? तथा धर्म के दो भेद हो जाने पर भी आपको संशय क्यों नहीं होता | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन | Hindi | 413 | View Detail | ||
Mool Sutra: पूर्वेषां दुर्विशोध्यस्तु, चरमाणां दुरनुपालकः।
कल्प्यो मध्यमगानां तु, सुविशोध्यः सुपालकः ।। Translated Sutra: यहाँ गौतम उत्तर देते हैं कि प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में युग का आदि होने के कारण व्यक्तियों की प्रकृति सरल परन्तु बुद्धि जड़ होती है, इसलिए उन्हें धर्म समझाना कठिन पड़ता है। चरम तीर्थ में प्रकृति वक्र हो जाने के कारण धर्म को समझ कर भी उसका पालन कठिन होता है। मध्यवर्ती तीर्थों में समझना व पालना दोनों सरल होते ह | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन | Hindi | 414 | View Detail | ||
Mool Sutra: चातुर्यामश्च यो धर्मः, योऽयं पंचशिक्षितः।
देशितो वर्द्धमानेन, पार्श्वेन च महामुनिना ।। Translated Sutra: यही कारण है कि भगवान् पार्श्व के आम्नाय में जो चातुर्याम मार्ग प्रचलित था, उसी को भगवान् महावीर ने पंचशिक्षा रूप कर दिया। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन | Hindi | 415 | View Detail | ||
Mool Sutra: द्वाविंशतितीर्थकराः, सामायिकसंयमं उपदिशंति।
छेदोपस्थापनं पुनः, भगवान् ऋषभश्च वीरश्च ।। Translated Sutra: दिगम्बर आम्नाय के अनुसार मध्यवर्ती २२ तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश दिया है। परन्तु प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर ऋषभ व महावीर ने छेदोपस्थापना संयम पर जोर दिया है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
4. श्वेताम्बर सूत्र | Hindi | 426 | View Detail | ||
Mool Sutra: यदपि वस्त्रं च पात्रं च, कम्बलं पादप्रोंछनम्।
तदपि संयमलज्जार्थं, धारयन्ति परिहरन्ति च ।। Translated Sutra: साधुजन ये जो वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पादप्रोंछन आदि उपकरण धारण करते हैं, वे केवल संयम व लज्जा की रक्षा करने के लिए, अनासक्ति भाव से ही इनका उपयोग करते हैं, और किसी प्रयोजन से नहीं। समय आने पर अर्थात् हेमन्त आदि के बीत जाने पर इनका यथाशक्ति पूर्ण या एकदेश त्याग भी कर देते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
4. श्वेताम्बर सूत्र | Hindi | 427 | View Detail | ||
Mool Sutra: नाऽसौ परिग्रहः उक्तः, ज्ञातपुत्रेण त्रायिना।
मूर्क्छा परिग्रहः उक्तः, इत्युक्तं महर्षिणा ।। Translated Sutra: परन्तु इतने मात्र से साधु परिग्रहवान् नहीं हो जाते हैं, क्योंकि ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने पदार्थों की मूर्च्छा या आसक्ति भाव को परिग्रह कहा है, पदार्थों या उपकरणों को नहीं। यही बात महर्षि सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्यों से कही है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
18. आम्नाय अधिकार |
4. श्वेताम्बर सूत्र | Hindi | 428 | View Detail | ||
Mool Sutra: सर्वत्रोपधिना बुद्धाः, संरक्षणपरिग्रहे।
अप्यात्मनोऽपि देहे, नाचरन्ति ममत्वम् ।। Translated Sutra: समता-भोगी जिन वीतरागियों को अपनी देह के प्रति भी कोई ममत्व नहीं रह गया है, वे इन वस्त्र पात्र आदि के प्रति ममत्व रखते होंगे, यह आशंका कैसे की जा सकती है? | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 49 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कंते अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं, अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमपज्जवेहिं अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे, एत्थ णं दूसमदूसमणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! ।
तीसे णं भंते! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! काले भविस्सई Translated Sutra: गौतम ! पंचम आरक के २१००० वर्ष व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम – दुःषमा नामक छठ्ठा आरक प्रारंभ होगा। उसमें अनन्त वर्णपर्याय, गन्धपर्याय, समपर्याय तथा स्पर्शपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जायेगा। भगवन् ! जब वह आरक उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचा होगा, तो भरतक्षेत्र का आकार – स्वरूप कैसा होगा ? गौतम | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 50 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कंते आगमेस्साए उस्सप्पिणीए सावणबहुलपडिवए बालवकरणंसि अभीइनक्खत्ते चोद्ददसपढमसमये अनंतेहिं वण्णपज्जवेहिं अनंतेहिं गंधपज्जवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अनंतेहिं संघयणपज्जवेहिं अनंतेहिं संठाणपज्जवेहिं अनंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहिं अनंतेहिं आउपज्जवेहिं अनंतेहिं गरुयलहुय-पज्जवेहिं अनंतेहिं अगरुयलहुयपज्जवेहिं अनंतेहिं उट्ठाण कम्म बल वीरिय पुरिसक्कार परक्कम-पज्जवेहिं अनंतगुणपरिवड्ढीए परिवड्ढेमाणे-परिवड्ढेमाणे, एत्थ णं दूसमदूसमाणामं समा काले पडि-वज्जिस्सइ समणाउसो!।
तीसे णं भंते! Translated Sutra: गौतम ! अवसर्पिणी काल के छठे आरक के २१००० वर्ष व्यतीत हो जाने पर आनेवाले उत्सर्पिणी – काल का श्रावण मास, कृष्ण पक्ष प्रतिपदा के दिन बालव नामक करण में चन्द्रमा के साथ अभिजित् नक्षत्र का योग होने पर चतुर्दशविध काल के प्रथम समय में दुषम – दुषमा आरक प्रारम्भ होगा। उसमें अनन्त वर्णपर्याय आदि अनन्त – गुण – क्रम से | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 51 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं पुक्खलसंवट्टए नामं महामेहे पाउब्भविस्सइ–भरहप्पमाणमेत्ते आयामेणं, तदणुरूवं च णं विक्खंभ-बाहल्लेणं। तए णं से पुक्खलसंवट्टए महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ, पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविज्जुयाइस्सइ, पविज्जयाइत्ता खिप्पामेव जुग मुसल मुट्ठिप्पमाण-मेत्ताहिं धाराहिं ओघमेघं सत्तरत्तं वासं वासिस्सइ, जेणं भरहस्स वासस्स भूमिभागं इंगालभूयं मुम्मुरभूयं छारियभूयं तत्तकवेल्लुगभूयं तत्तसमजोइभूयं निव्वाविस्सति।
तंसिं च णं पुक्खलसंवट्टगंसि महामेहंसि सत्तरत्तं निवतितंसि समाणंसि, एत्थ णं खीरमेहे नामं महामेहे पाउब्भविस्सइ–भरप्पमाणमेत्ते Translated Sutra: उस उत्सर्पिणी – काल के दुःषमा नामक द्वितीय आरक के प्रथम समय में भरतक्षेत्र की अशुभ अनुभावमय रूक्षता, दाहकता आदि का अपने प्रशान्त जल द्वारा शमन करनेवाला पुष्कर – संवर्तक नामक महामेघ प्रकट होगा। वह महामेघ लम्बाई, चौड़ाई तथा विस्तार में भरतक्षेत्र प्रमाण होगा। वह पुष्कर – संवर्तक महामेघ शीघ्र ही गर्जन कर शीघ्र | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार २ काळ |
Hindi | 53 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! बहुसम-रमणिज्जे भूमिभागे भविस्सइ, से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव नानाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं तणेहि य उवसोभिए, तं जहा–कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव।
तीसे णं भंते! समाए मनुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा! तेसिं णं मनुयाणं छव्विहे संघयणे, छव्विहे संठाणे, बहूईओ रयणीओ उड्ढं उच्चत्तेणं, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं आउयं पालेहिंति, पालेत्ता अप्पेगइया निरयगामी, अप्पेगइया तिरिय-गामी, अप्पेगइया मनुयगामी, अप्पेगइया देवगामी, न सिज्झंति।
तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं Translated Sutra: उत्सर्पिणी काल के दुःषमा नामक द्वितीय आरक में भरतक्षेत्र का आकार – स्वरूप कैसा होगा ? गौतम ! उनका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय होगा। उस समय मनुष्यों का आकार – प्रकार कैसा होगा ? गौतम ! उस मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एवं संस्थान होंगे। उनकी ऊंचाई सात हाथ की होगी। उनका जघन्य अन्त – मुहूर्त्त का तथा उत्कृष्ट कुछ |