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Scripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 515 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं पमाणकाले?
पमाणकाले दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–दिवसप्पमाणकाले, राइप्पमाणकाले य। चउपोरिसिए दिवसे, चउपोरिसिया राई भवइ। उक्कोसिया अद्धपंचमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ।
जदा णं भंते! उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तदा णं कतिभागमुहुत्तभागेणं परिहायमाणी-परिहायमाणी जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ? जदा णं जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तदा णं कतिभाग-मुहुत्तभागेणं परिवड्ढमाणी-परिवड्ढमाणी उक्कोसिया अद्धपंचमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए Translated Sutra: भगवन् ! जब दिवस की या रात्रि की पौरुषी उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त्त की होती है, तब उस मुहूर्त्त का कितना भाग घटते – घटते जघन्य तीन मुहूर्त्त की दिवस और रात्रि की पौरुषी होती है ? और जब दिवस और रात्रि की पौरुषी जघन्य तीन मुहूर्त्त की होती है, तब मुहूर्त्त का कितना भाग बढ़ते – बढ़ते उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त्त की पौरुषी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 516 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अहाउनिव्वत्तिकाले?
अहाउनिव्वत्तिकाले–जण्णं जेणं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मनुस्सेण वा देवेण वा अहाउयं निव्वत्तियं। सेत्तं अहाउ-निव्वत्तिकाले।
से किं तं मरणकाले?
मरणकाले–जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ। सेत्तं मरणकाले।
से किं तं अद्धाकाले?
अद्धाकाले–से णं समयट्ठयाए आवलियट्ठयाए जाव उस्सप्पिणीट्ठयाए। एस णं सुदंसणा! अद्धा दोहाराछेदेणं छिज्जमाणी जाहे विभागं नो हव्वमागच्छइ, सेत्तं समए समयट्ठयाए। असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति पवु-च्चइ। संखेज्जाओ आवलियाओ उस्साओ जहा सालिउद्देसए जाव–
एएसि णं पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया Translated Sutra: भगवन् ! वह यथार्निवृत्तिकाल क्या है ? (सुदर्शन !) जिस किसी नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य अथवा देव ने स्वयं जिस गति का और जैसा भी आयुष्य बाँधा है, उसी प्रकार उसका पालन करना – भोगना, ‘यथायुर्निवृ – त्तिकाल’ कहलाता है। भगवन् ! मरणकाल क्या है ? सुदर्शन ! शरीर से जीव का अथवा जीव से शरीर का (पृथक् होने का काल) मरणकाल है, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 517 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता?
एवं ठिइपदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव अजहन्नमणुक्कोसेनं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। Translated Sutra: भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितने काल की है ? सुदर्शन ! स्थितिपद सम्पूर्ण कहना, यावत् – अजघन्य – अनुत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की स्थिति है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 518 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! एएसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थि णं एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा?
एवं खलु सुदंसणा! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। सहसंबवने उज्जाने–वण्णओ। तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था–वण्णओ। तस्स णं बलस्स रन्नो पभावई नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणी विहरइ।
तए णं सा पभावई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अब्भिंतरओ सचित्तकम्मे, बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मट्ठे विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले मणिरयणपणासियंधयारे Translated Sutra: भगवन् ! क्या इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? हाँ, सुदर्शन ! होता है। भगवन् ऐसा किस कारण से कहते हैं ? हे सुदर्शन ! उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था। वहाँ सहस्रा – म्रवन नामक उद्यान था। उस हस्तिनापुर में ‘बल’ नामक राजा था। उस बल राजा की प्रभावती नामकी देवी (पटरानी) थी। उसके हाथ – पैर सुकुमाल | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 519 | Gatha | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गय उसह सीह अभिसेय दाम ससि दिणयरं ज्झयं कुंभं ।
पउमसर सागर विमानभवन रयणुच्चय सिहिं च ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५१८ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 520 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वासुदेवमायरो वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु सत्त महा-
सुविणे पासित्ता णं पडिबु-ज्झंति। बलदेवमायरो बलदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरेसु चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति। मंडलियमायरो मंडलियंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसि णं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुज्झंति। इमे य णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए एगे महासुविणे दिट्ठे, तं ओराले णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिट्ठे जाव आरोग्ग-तुट्ठिदीहाउ कल्लाण-मंगल्लकारए णं देवानुप्पिया! पभावतीए देवीए Translated Sutra: ‘हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने इनमें से एक महास्वप्न देखा है। अतः हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने उदार स्वप्न देखा है, सचमुच प्रभावती देवी ने यावत् आरोग्य, तुष्टि यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है। हे देवानुप्रिय ! इस स्वप्न के फलरूप आपको अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ एवं राज्यलाभ होगा।’ अतः हे देवानुप्रिय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 521 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! हत्थिणापुरे नयरे चारगसोहणं करेह, करेत्ता माणुम्माणवड्ढणं करेह, करेत्ता हत्थिणापुरं नगरं सब्भिंतरबाहिरियं आसिय-संमज्जिओवलित्तं जाव गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य जूवसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा पूयामहामहिमसंजुत्तं उस्सवेह, उस्सवेत्ता ममे-तमाणत्तियं पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा बलेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति।
तए णं से बले राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं चेव जाव मज्जणघराओ पडिनिक्ख-मइ, Translated Sutra: इसके पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रियो ! हस्तिना – पुर नगर में शीघ्र ही चारक – शोधन अर्थात् – बन्दियों का विमोचन करो, और मान तथा उन्मान में वृद्धि करो। फिर हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर छिड़काव करो, सफाई करो और लीप – पोत कर शुद्धि (यावत्) करो – कराओ। तत्पश्चात् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 522 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो अन्नया कयाइ सोभणंसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त-मुहुत्तंसि ण्हायं कयबलिकम्मं कयकोउय-मंगल-पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पमक्खणग-ण्हाण-गीय-वाइय-पसाहण-अट्ठंगतिलग-कंकण-अविहवबहुउवणीयं मंगलसुजंपिएहि य वरकोउय-मंगलोवयार-कयसंतिकम्मं सरिसियाणं सरियत्ताणं सरिव्वयाणं सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वण-गुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउय-मंगलपायच्छित्ताणं सरिसएहिं रायकुलेहिंतो आणिल्लियाणं अट्ठण्हं रायवरकन्नाणं एगदिवसेनं पाणिं गिण्हाविंसु।
तए णं तस्स महाबलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं पीइदाणं दलयंति, तं जहा–अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ सुवण्णकोडीओ, Translated Sutra: तत्पश्चात् किसी समय शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त्त में महाबल कुमार ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक – मंगल प्रायश्चित्त किया। उसे समस्त अलंकारों से विभूषित किया गया। फिर सौभाग्यवती स्त्रियों के द्वारा अभ्यंगन, स्नान, गीत, वादित, मण्डन, आठ अंगों पर तिलक, लाल डोरे के रूप में कंकण तथा दही, अक्षत आदि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 523 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे नामं अनगारे जाइसंपन्ने वण्णओ जहा केसि-सामिस्स जाव पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वानुपुव्विं चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव हत्थिणापुरे नगरे, जेणेव सहसंबवने उज्जाणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु महया जणसद्दे इ वा जाव परिसा पज्जुवासइ।
तए णं तस्स महब्बलस्स कुमारस्स तं महयाजणसद्दं वा जणवूहं वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा पास-माणस्स वा एवं Translated Sutra: उस काल और उस समय में तेरहवे तीर्थंकर अरहंत विमलनाथ के धर्मघोष अनगार थे। वे जातिसम्पन्न इत्यादि केशी स्वामी के समान थे, यावत् पाँच सौ अनगारों के परिवार के साथ अनुक्रम से विहार करते हुए हस्ति – नापुर नगर में सहस्राम्रवन उद्यान में पधारे और यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-११ काल | Hindi | 524 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तुमे सुदंसणा! उम्मुक्कबालभावेणं विण्णय-परिणयमेत्तेणं जोव्वणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलिपन्नत्ते धम्मे निसंते, सेवि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। तं सुट्ठु णं तुमं सुदंसणा! इदाणिं पि करेंसि। से तेणट्ठेणं सुदंसणा! एवं वुच्चइ– अत्थि णं एतेसिं पलिओवम-सागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा।
तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठं सोच्चा निसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णी पुव्वे जातीसरणे समुप्पन्ने, एयमट्ठं Translated Sutra: तत्पश्चात् हे सुदर्शन ! बालभाव से मुक्त होकर तुम विज्ञ और परिणतवय वाले हुए, यौवन अवस्था प्राप्त होने पर तुमने यथारूप स्थविरों से केवलि – प्ररूपित धर्म सूना। वह धर्म तुम्हें ईच्छित प्रतीच्छित और रुचिकर हुआ। हे सुदर्शन ! इस समय भी तुम जो कर रहे हो, अच्छा कर रहे हो। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि इन पल्योपम और सागरोपम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 525 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्था–वण्णओ। संखवने चेइए–वण्णओ। तत्थ णं आलभियाए नगरीए बहवे इसिभद्दपुत्तपामोक्खा समणोवासया परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया अभिगयजीवा-जीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति।
तए णं तेसिं समणोवासयाणं अन्नया कयाइ एगयओ समुवागयाणं सहियाणं सन्निविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था–देवलोगेसु णं अज्जो! देवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता?
तए णं से इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवट्ठिती-गहियट्ठे ते समणोवासए एवं वयासी–देवलोएसु णं अज्जो! देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं Translated Sutra: उस काल और उस समय में आलभिका नामकी नगरी थी। वहाँ शंखवन नामक उद्यान था। इस आलभिका नगरी में ऋषिभद्रपुत्र वगैरह बहुत – से श्रमणोपासक रहते थे। वे आढ्य यावत् अपरिभूत थे, जीव और अजीव (आदि तत्त्वों) के ज्ञाता थे, यावत् विचरण करते थे। उस समय एक दिन एक स्थान पर आकर एक साथ एकत्रित होकर बैठे हुए उन श्रमणोपासकों में परस्पर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 526 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ। तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा, हट्ठतुट्ठा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! समणे भगवं महावीरे जाव आलभियाए नगरीए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तं महप्फलं खलु भो देवानुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमन-वंदन-नमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणाए? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमगं पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए? तं गच्छामो णं देवानुप्पिया! समणं भगवं महावीरं Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर यावत् (आलभिका नगरी में) पधारे, यावत् परीषद् ने उनकी पर्युपासना की। तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों के समान आलभिका नगरी के वे श्रमणोपासक इस बात को सूनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए, यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगे। तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को तथा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 527 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–पभू णं भंते! इसिभ-द्दपुत्ते समणोवासए देवानुप्पियाणं अंतियं मुंडे भावित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइत्तए?
नो इणट्ठे समट्ठे गोयमा! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए बहूहिं सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूइं वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणिहिति, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसेहिति, ज्झूसेत्ता सट्ठिं भत्ताइं अनसनाए छेदेहिति, छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाने देवत्ताए Translated Sutra: तदनन्तर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार करके पूछा – भगवन् ! क्या ऋषि – भद्रपुत्र श्रमणोपासक आप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित होकर आगारवास से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ हैं? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं किन्तु यह ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक बहुत – से शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-११ |
उद्देशक-१२ आलभिका | Hindi | 528 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ आलभियाओ नगरीओ संखवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्था–वण्णओ। तत्थ णं संखवने नामं चेइए होत्था–वण्णओ। तस्स णं संखवणस्स चेइयस्स अदूरसामंते पोग्गले नामं परिव्वायए–रिउव्वेद-जजुव्वेद जाव बंभण्णएसु परिव्वायएसु य नएसु सुपरिनिट्ठिए छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ
तए णं तस्स पोग्गलस्स परिव्वायगस्स छट्ठंछट्ठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे Translated Sutra: पश्चात् किसी समय श्रमण भगवान महावीर भी आलभिका नगरी के शंखवन उद्यान से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। उस काल और उस समय में आलभिका नामकी नगरी थी। वहाँ शंखवन नामक उद्यान था। उस शंखवन उद्यान के न अति दूर और न अति निकट मुद्गल परिव्राजक रहता था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि शास्त्रों यावत् बहुत – से ब्राह्मण | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-१ शंख | Hindi | 530 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नामं नगरी होत्था–वण्णओ। कोट्ठए चेइए–वण्णओ। तत्थ णं सावत्थीए नगरीए बहवे संखप्पामोक्खा समणोवासया परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया, अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवो-कम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। तस्स णं संखस्स समणोवासगस्स उप्पला नाम भारिया होत्था–सुकुमालपाणिपाया जाव सुरूवा, समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ। तत्थ णं सावत्थीए नगरीए पोक्खली नामं समणोवासए परिवसइ–अड्ढे, अभिगयजीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तेणं कालेणं Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रावस्ती नगरी थी। कोष्ठक उद्यान था, उस श्रावस्ती नगरी में शंख आदि बहुत – से श्रमणोपासक रहते थे। (वे) आढ्य यावत् अपरिभूत थे; तथा जीव, अजीव आदि तत्त्वों के ज्ञाता थे, यावत् विचरते थे। उस ‘शंख’ श्रमणोपासक की भार्या ‘उत्पला’ थी। उसके हाथ – पैर अत्यन्त कोमल थे, यावत् वह रूपवती एवं श्रमणोपासिका | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-१ शंख | Hindi | 531 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से संखे समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी–तुब्भे णं देवानुप्पिया! विपुलं असनं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेह। तए णं अम्हे तं विपुलं असनं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणा विस्साएमाणा परिभाएमाणा परिभुंजेमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो।
तए णं ते समणोवासगा संखस्स समणोवासगस्स एयमट्ठं विनएणं पडिसुणेंति।
तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–नो खलु मे सेयं तं विपुलं असनं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणस्स विस्साएमाणस्स परिभाएमाणस्स परिभुंजेमाणस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, सेयं Translated Sutra: उस शंख श्रमणोपासक ने दूसरे श्रमणोपासकों से कहा – देवानुप्रियो ! तुम विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराओ। फिर हम उस प्रचुर अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करते हुए, विस्वादन करते हुए, एक दूसरे को देते हुए भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध का अनुपालन करते हुए अहोरात्र – यापन करेंगे। इस पर उन श्रमणोपासकों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-१ शंख | Hindi | 532 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–कतिविहा णं
भंते! जागरिया पन्नत्ता?
गोयमा! तिविहा जागरिया पन्नत्ता, तं जहा–बुद्धजागरिया, अबुद्धजागरिया, सुदक्खुजागरिया।
के केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–तिविहा जागरिया पन्नत्ता, तं जहा–बुद्धजागरिया, अबुद्ध-जागरिया, सुदक्खुजागरिया?
गोयमा! जे इमे अरहंता भगवओ उप्पन्ननाणदंसणधरा अरहा जिने केवली तीयपच्चुप्पन्नमणागय-वियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी एए णं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति।
जे इमे अणगारा भगवंतो रियासमिया भासासमिया एसणासमिया आयाणभंडमत्तनिक्खे- वणासमिया उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिट्ठावणिया-समिया Translated Sutra: गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन – नमस्कार किया और पूछा – भगवन् ! जागरिका कितने प्रकार की है ? गौतम ! जागरिका तीन प्रकार की कही गई है, यथा – वृद्ध – जागरिका, अबुद्ध – जागरिका और सुदर्शन – जागरिका। भगवन् ! किस हेतु से कहा जाता है ? गौतम ! जो उत्पन्न हुए केवलज्ञान – केवलदर्शन के धारक अरिहंत भगवान हैं, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-१ शंख | Hindi | 533 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से संखे समणोवासए समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
कोहवसट्टे णं भंते! जीवे किं बंधइ? किं पकरेइ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ?
संखा! कोहवसट्टे णं जीवे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधनबद्धाओ धनियबंधनबद्धाओ पकरेइ, हस्सकालठिइयाओ दीहकालठिइयाओ पकरेइ, मंदानुभावाओ तिव्वानुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो-भुज्जो उवचिणाइ, अनाइयं च णं अनवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अनुपरियट्टइ।
मानवसट्टे णं भंते! जीवे किं बंधइ? किं पकरेइ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ? Translated Sutra: इसके बाद उस शंख श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार किया और पूछा – ‘भगवन्! क्रोध के वश – आर्त्त बना हुआ जीव कौन – से कर्म बाँधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? शंख ! क्रोधवश – आर्त्त बना हुआ जीव आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धन से बंधी हुई प्रकृतियों को | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-२ जयंति | Hindi | 534 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबी नामं नगरी होत्था–वण्णओ। चंदोतरणे चेइए–वण्णओ। तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रन्नो पोत्ते, सयाणीस्स रन्नो पुत्ते, चेडगस्स रन्नो नत्तुए, मिगावतीए देवीए अत्तए, जयंतीए समणोवासि-याए भत्तिज्जए उदयने नामं राया होत्था–वण्णओ। तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रन्नो सुण्हा, सयाणीस्स रन्नो भज्जा, चेडगस्स रन्नो धूया, उदयनस्स रन्नो माया, जयंतीए समणोवासियाए भाउज्जा मिगावती नामं देवी होत्था–सुकुमालपाणिपाया जाव सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणो विहरइ। तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स Translated Sutra: उस काल और उस समय में कौशाम्बी नगरी थी। चन्द्रवतरण उद्यान था। उस कौशाम्बी नगरी में सहस्त्रा – नीक राजा का पौत्र, शतानीक राजा का पुत्र, चेटक राजा का दौहित्र, मृगावती देवी का आत्मज और जयन्ती श्रमणोपासिका का भतीजा ‘उदयन’ नामक राजा था। उसी कौशाम्बी नगरी में सहस्रानीक राजा की पुत्रवधू, शतानीक राजा की पत्नी, चेटक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-२ जयंति | Hindi | 535 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ।
तए णं से उदयणे राया इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे हट्ठतुट्ठे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! कोसंबिं नगरिं सब्भिंतर-बाहिरियं आसित्त-सम्मज्जिओवलित्तं करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह एवं जहा कूणिओ तहेव सव्वं जाव पज्जुवासइ।
तए णं सा जयंती समणोवासिया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हट्ठतुट्ठा जेणेव मिगावती देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मिगावतिं देविं एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिए! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी आगा-सगएणं चक्केणं Translated Sutra: उस काल उस समय में महावीर स्वामी (कौशाम्बी) पधारे, यावत् परीषद् पर्युपासना करने लगी। उस समय उदायन राजा को जब यह पता लगा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा – ‘देवानुप्रियो ! कौशाम्बी नगरी को भीतर और बाहर से शीघ्र ही साफ करवाओ; इत्यादि सब वर्णन कोणिक राजा के समान | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-२ जयंति | Hindi | 536 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
कहन्नं भंते! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति?
जयंती! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिन्नादानेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं कोह-मान-माया-लोभ-पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाय-अरतिरति-मायामोस-मिच्छादंसणसल्लेणं–एवं खलु जयंती! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति।
कहन्नं भंते! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति?
जयंती! पाणाइवायवेरमणेणं मुसावायवेरमणेणं अदिन्नादानवेरमणेणं मेहुणवेरमणेणं परिग्गह-वेरमणेणं कोह-मान-माया-लोभ- पेज्ज-दोस- Translated Sutra: वह जयन्ती श्रमणोपासिका श्रमण भगवान महावीर से धर्मोपदेश श्रवण कर एवं अवधारण करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। फिर भगवान महावीर को वन्दन – नमस्कार करके पूछा – भगवन् ! जीव किस कारण से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? जयन्ती ! जीव प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों के सेवन से शीघ्र गुरुत्व | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 537 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–कति णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–पढमा, दोच्चा जाव सत्तमा।
पढमा णं भंते! पुढवी किंगोत्ता पन्नत्ता?
गोयमा! धम्मा नामेणं, रयणप्पभा गोत्तेणं, एवं जहा जीवाभिगमे पढमो नेरइयउद्देसओ सो चेव निरवसेसो भाणियव्वो जाव अप्पाबहुगं ति।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने वन्दन – नमस्कार करके इस प्रकार पूछा – भगवन् ! पृथ्वीयाँ (नरक – भूमियाँ) कितनी कही गई हैं ? गौतम ! पृथ्वीयाँ सात कही गई हैं, वे इस प्रकार है – प्रथमा, द्वीतिया यावत् सप्तमी। भगवन् ! प्रथमा पृथ्वी किस नाम और किस गोत्र वाली है ? गौतम ! प्रथमा पृथ्वी का नाम ‘धम्मा’ है और गोत्र ‘रत्नप्रभा’। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 538 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–दो भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, साहण्णित्ता किं भवइ?
गोयमा! दुप्पएसिए खंधे भवइ। से भिज्जमाणे दुहा कज्जइ–एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ परमाणुपोग्गले भवइ।
तिन्नि भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, साहणित्ता किं भवइ?
गोयमा! तिपएसिए खंधे भवइ। से भिज्जमाणे दुहा वि तिहा वि कज्जइ–दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ। तिहा कज्जमाणे तिन्नि परमाणुपोग्गला भवंति।
चत्तारि भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, साहणित्ता किं भवइ?
गोयमा! चउपएसिए खंधे भवइ। से भिज्जमाणे दुहा वि तिहा वि चउहा वि कज्जइ–दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, Translated Sutra: राजगृह नगर में, यावत् गौतमस्वामी ने पूछा – भगवन् ! दो परमाणु जब संयुक्त होकर एकत्र होते हैं, तब उनका क्या होता है ? गौतम ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध बन जाता है। यदि उसका भेदन हो तो दो विभाग होने पर एक ओर एक परमाणु – पुद्गल और दूसरी ओर भी एक परमाणु – पुद्गल हो जाता है। भगवन् ! जब तीन परमाणु एक रूप में इकट्ठे होते हैं, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 539 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एएसि णं भंते! परमाणुपोग्गलाणं साहणणा-भेदानुवाएणं अनंतानंता पोग्गलपरियट्टा समनुगंतव्वा भवंतीति मक्खाया?
हंता गोयमा! एएसि णं परमाणुपोग्गलाणं साहणणा भेदाणुवाएणं अनंतानंता पोग्गलपरियट्टा समनुगंतव्वा भवंतीति मक्खाया।
कइविहे णं भंते! पोग्गलपरियट्टे पन्नत्ते?
गोयमा! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पन्नत्ते, तं जहा– ओरालियपोग्गलपरियट्टे, वेउव्वियपोग्गल-परियट्टे, तेयापोग्गलपरियट्टे, कम्मापोग्गलपरियट्टे, मणपोग्गलपरियट्टे, वइपोग्गलपरियट्टे, आणापाणु-पोग्गल-परियट्टे।
नेरइयाणं भंते! कतिविहे पोग्गलपरियट्टे पन्नत्ते?
गोयमा! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पन्नत्ते, तं Translated Sutra: भगवन् ! इन परमाणु – पुद्गलों के संघात और भेद के सम्बन्ध से होने वाले अनन्तानन्त पुद्गल – परिवर्त्त जानने योग्य हैं, (क्या) इसीलिए इनका कथन किया है ? हाँ, गौतम ! ये जानने योग्य हैं, इसीलिए ये कहे गए हैं। भगवन् ! पुद्गल – परिवर्त्त कितने प्रकार का है ? गौतम ! सात प्रकार का, यथा – औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त, वैक्रिय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 540 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–ओरालियपोग्गलपरियट्टे-ओरालियपोग्गलपरियट्टे?
गोयमा! जण्णं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीरपायोग्गाइं दव्वाइं ओरालिय -सरीरत्ताए गहियाइं बद्धाइं पुट्ठाइं कडाइं पट्ठवियाइं निविट्ठाइं अभिनिविट्ठाइं अभिसमण्णागयाइं परियादियाइं परिणामियाइं निज्जिण्णाइं निसिरियाइं निसिट्ठाइं भवंति। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–ओरालियपोग्गलपरियट्टे-ओरालियपोग्गलपरियट्टे।
एवं वेउव्वियपोग्गलपरियट्टेवि, नवरं–वेउव्वियसरीरे वट्टमाणेणं वेउव्वियसरीरप्पायोग्गाइं दव्वाइं वेउव्वियसरीरत्ताए गहियाइं, सेसं तं चेव सव्वं, एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे, Translated Sutra: भगवन् ! यह औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त, औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त किसलिए कहा जाता है ? गौतम ! औदारिकशरीर में रहते हुए जीव ने औदारिकशरीर योग्य द्रव्यों को औदारिकशरीर के रूप में ग्रहण किए हैं, बद्ध किए हैं, स्पृष्ट किए हैं; उन्हें (पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तर) किया है; उन्हें प्रस्थापित किया है; स्थापित किए | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-४ पुदगल | Hindi | 541 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एएसि णं भंते! ओरालियपोग्गलपरियट्टाणं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टाण य कयरे कयरेहिंतो
अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा वेउव्वियपोग्गलपरियट्टा, वइपोग्गलपरियट्टा अनंतगुणा, मनपोग्गल-परियट्टा अनंतगुणा, आणापाणुपोग्गलपरियट्टा अनंतगुणा, ओरालियपोग्गलपरियट्टा अनंतगुणा, तेयापोग्गलपरियट्टा अनंतगुणा, कम्मगपोग्गलपरियट्टा अनंतगुणा।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं जाव विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! औदारिक – पुद्गलपरिवर्त्त (से लेकर), आन – प्राण – पुद्गलपरिवर्त्त में कौन पुद्गलपरिवर्त्त किससे अल्प यावत् विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़े वैक्रिय – पुद्गलपरिवर्त्त हैं। उनसे वचन – पुद्गलपरिवर्त्त अनन्त – गुणे होते हैं, उनसे मनः – पुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, उनसे आन – प्राण – पुद्गलपरिवर्त्त | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 542 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–अहं भंते! पाणाइवाए, मुसावाए, अदिन्नादाने, मेहुणे, परिग्गहे–एस णं कतिवण्णे, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पन्नत्ते।
अह भंते! कोहे, कोवे, रोसे, दोसे, अखमा, संजलणे, कलहे, चंडिक्के, भंडणे, विवादे–एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पन्नत्ते।
अह भंते! माने, मदे, दप्पे, थंभे, गव्वे, अत्तुक्कोसे, परपरिवाए, उक्कोसे, अवक्कोसे, उन्नते, उन्नामे, दुन्नामे– एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते?
गोयमा! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे, पन्नत्ते।
अह भंते! माया, उवही, नियडी, वलए, गहणे, Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा – भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह; ये कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और स्पर्श वाले कहे हैं ? गौतम ! (ये) पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और चार स्पर्श वाले कहे हैं। भगवन् ! क्रोध, कोप, रोष, द्वेष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, चाण्डिक्य, भण्डन और विवाद | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 543 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! पाणाइवायवेरमणे, जाव परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे–एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते?
गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे पन्नत्ते।
अह भंते! उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मया, पारिणामिया–एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पन्नत्ता?
गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पन्नत्ता।
अह भंते! ओग्गहे, ईहा, अवाए, धारणा–एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पन्नत्ता?
गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पन्नत्ता।
अह भंते! उट्ठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कार-परक्कमे–एस णं कतिवण्णे जाव कति फासे पन्नत्ते?
गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे पन्नत्ते।
सत्तमे णं भंते! ओवासंतरे कतिवण्णे Translated Sutra: भगवन् ! प्राणातिपात – विरमण यावत् परिग्रह – विरमण तथा क्रोधविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, इन सबमें कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श कहे हैं ? गौतम ! (ये सभी) वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित कहे हैं। भगवन् ! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धि कितने वर्ण, गन्ध, रस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 544 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भं वक्कममाणे कतिवण्णं, कतिगंधं, कतिरसं, कतिफासं परिणामं परिणमइ?
गोयमा! पंचवण्णं, दुगंधं, पंचरसं, अट्ठफासं परिणामं परिणमइ। Translated Sutra: भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव, कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला होता है ? गौतम ! पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श वाले परिणाम से परिणत होता है। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 545 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कम्मओ णं भंते! जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ? कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ?
हंता गोयमा! कम्मओ णं जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावंपरिणमइ।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव कर्मों से ही मनुष्य – तिर्यञ्च आदि विविध रूपों को प्राप्त होता है, कर्मों के बिना नहीं ? तथा क्या जगत् कर्मों से विविध रूपों को प्राप्त होता है, विना कर्मों के प्राप्त नहीं होता ? हाँ, गौतम ! कर्म से जीव और जगत विविध रूपों को प्राप्त होता है, किन्तु कर्म के विना प्राप्त नहीं होते। ‘हे भगवन् ! यह | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 546 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–बहुजण णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ–एवं खलु राहू चंदं गेण्हति, एवं खलु राहू चंदं गेण्हति।
से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! जण्णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि–एवं खलु राहू देवे महिड्ढीए जाव महेसक्खे वरवत्थधरे वरमल्लधरे वरगंधधरे वराभरणधारी।
राहुस्स णं देवस्स नव नामधेज्जा पन्नत्ता, तं जहा–सिंघाडए जडिलए खत्तए खरए दद्दुरे मगरे मच्छे कच्छभे कण्हसप्पे।
राहुस्स णं देवस्स विमाना पंचवण्णा पन्नत्ता, तं जहा–किण्हा, नीला, लोहिया, हालिद्दा, सुक्किला। Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने प्रश्न किया – भगवन् ! बहुत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि निश्चित ही राहु चन्द्रमा को ग्रस लेता है, तो हे भगवन् ! क्या यह ऐसा ही है? गौतम ! यह जो बहुत – से लोग परस्पर इस प्रकार कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 547 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–चंदे ससी, चंदे ससी?
गोयमा! चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरन्नो मियंके विमाने कंता देवा, कंताओ देवीओ, कंताइं आसन-सयन-खंभ-भंडम-त्तोवगरणाइं, अप्पणा वि य णं चंदे जोइसिंदे जोइसराया सोमे कंते सुभए पियदंसणे सुरूवे। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–चंदे ससी, चंदे ससी। Translated Sutra: भगवन् ! चन्द्रमा को ‘चन्द्र शशी है’, ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र का विमान मृगांक है, उसमें कान्त देव तथा कान्ता देवियाँ हैं और आसन, शयन, स्तम्भ, भाण्ड, पात्र आदि उपकरण (भी) कान्त हैं। स्वयं ज्योतिष्कों का इन्द्र, ज्योतिष्कों का राजा चन्द्र भी सौम्य, कान्त, सुभग, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 548 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सूरे आदिच्चे, सूरे आदिच्चे?
गोयमा! सूरादिया णं समया इ वा आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा उस्सप्पिणी इ वा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–सूरे आदिच्चे, सूरे आदिच्चे। Translated Sutra: देखो सूत्र ५४७ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-५ अतिपात | Hindi | 549 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चंदस्स णं भंते! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ? जहा दसमसए जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं। सूरस्स वि तहेव।
चंदिम-सूरिया णं भंते! जोइसिंदा जोइसरायाणो केरिसए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरंति?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे पढमजोव्वणुट्ठाणबलत्थे पढमजोव्वणुट्ठाणबलत्थाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्तविवाहकज्जे अत्थगवेसणयाए सोलसवासविप्पवासिए, से णं तओ लद्धट्ठे कयकज्जे अणहसमग्गे पुनरवि नियगं गिहं हव्वमागए, ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए मणुण्णं थालिपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं भोयणं भूत्ते समाणे तंसि तारिसगंसि वासघरंसि Translated Sutra: भगवन् ! ज्योतिष्कों के इन्द्र, ज्योतिष्कों के राजा चन्द्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? गौतम ! दशवें शतक अनुसार राजधानी में सिंहासन पर मैथुन – निमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है, यहाँ तक कहना। सूर्य के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहना। भगवन् ! ज्योतिष्कों के इन्द्र, ज्योतिष्कों के राजा चन्द्र और सूर्य किस प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-६ राहु;उद्देशक-७ लोक | Hindi | 550 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी–केमहालए णं भंते! लोए पन्नत्ते?
गोयमा! महतिमहालए लोए पन्नत्ते–पुरत्थिमेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ, दाहिणेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडा-कोडीओ, एवं पच्चत्थिमेण वि, एवं उत्तरेण वि, एवं उड्ढं पि, अहे असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खंभेणं।
एयंसि णं भंते! एमहालगंसि लोगंसि अत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि?
गोयमा! नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–एयंसि णं एमहालगंसि लोगंसि नत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे अया-सयस्स Translated Sutra: उस काल और उस समय में यावत् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से प्रश्न किया – भगवन् ! लोक कितना बड़ा है ? गौतम ! लोक महातिमहान है। पूर्वदिशा में असंख्येय कोटा – कोटि योजन है। इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम, उत्तर एवं ऊर्ध्व तथा अधोदिशा में भी असंख्येय कोटा – कोटि योजन – आयाम – विष्कम्भ वाला है। भगवन् ! इतने बड़े लोक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-६ राहु;उद्देशक-७ लोक | Hindi | 551 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कति णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, जहा पढमसए पंचमउद्देसए तहेव आवासा ठावेयव्वा जाव अनुत्तरविमानेत्ति जाव अप-राजिए सव्वट्ठसिद्धे।
अयन्नं भंते! जीवे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि पुढवि-काइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए, नरगत्ताए, नेरइयत्ताए उववन्नपुव्वे?
हंता गोयमा! असइं, अदुवा अनंतखुत्तो।
सव्वजीवा वि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए, नरगत्ताए, नेरइयत्ताए उववन्नपुव्वे?
हंता गोयमा! असइं, अदुवा अनंतखुत्तो।
अयन्नं Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीयाँ कितनी हैं ? गौतम ! सात हैं। प्रथम शतक के पञ्चम उद्देशक अनुसार (यहाँ भी) नरकादि के आवासों को कहना। यावत् अनुत्तर – विमान यावत् अपराजित और सर्वार्थसिद्ध तक इसी प्रकार कहना। भगवन् ! क्या यह जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पृथ्वी – कायिकरूप से यावत् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-८ नाग | Hindi | 552 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी–देवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महेसक्खे अनंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु नागेसु उववज्जेज्जा?
हंता उववज्जेज्जा।
से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइय-सक्कारिय-सम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहिय-पाडिहेरे यावि भवेज्जा?
हंता भवेज्जा।
से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता सिज्झेज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा?
हंता सिज्झेज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा।
देवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महेसक्खे अनंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु मणीसु उववज्जेज्जा?
हंता उववज्जेज्जा। एवं चेव जहा नागाणं।
देवे णं भंते! महिड्ढीए जाव महेसक्खे अनंतरं चयं चइत्ता Translated Sutra: उस काल और उस समय में गौतम स्वामी ने यावत् पूछा – भगवन् ! महर्द्धिक यावत् महासुख वाला देव च्यव कर क्या द्विशरीरी नागों में उत्पन्न होता है ? हाँ, गौतम ! होता है। भगवन् ! वह वहाँ नाग के भव में अर्चित, वन्दित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य, प्रधान, सत्य, सत्यावपातरूप अथवा सन्निहित प्रतिहारक भी होता है? हाँ, गौतम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-८ नाग | Hindi | 553 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भंते! गोनंगूलवसभे, कुक्कुडवसभे, मंडुक्कवसभे–एए णं निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा निप्पच्चक्खाण-पोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमट्ठितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जेज्जा?
समणे भगवं महावीरे वागरेइ–उववज्जमाणे उववन्ने त्ति वत्तव्वं सिया।
अह भंते! सीहे वग्घे, वगे, दीविए अच्छे, तरच्छे, परस्सरे–एए णं निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा निप्प-च्चक्खाण-पोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमट्ठितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जेज्जा?
समणे भगवं महावीरे वागरेइ–उववज्जमाणे उववन्ने त्ति Translated Sutra: भगवन् ! यदि वानरवृषभ, बड़ा मूर्गा एवं मण्डूकवृषभ, बड़ा मेंढक ये सभी निःशील, व्रतरहित, गुणरहित, मर्यादा – रहित तथा प्रत्याख्यान – पौषधोपवासरहित हों, तो मृत्यु को प्राप्त हो (क्या) इस रत्नप्रभापृथ्वी में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न होते हैं ? (हाँ, गौतम ! होते हैं;) क्योंकि उत्पन्न | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-९ देव | Hindi | 554 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! देवा पन्नत्ता?
गोयमा! पंचविहा देवा पन्नत्ता, तं जहा–भवियदव्वदेवा, नरदेवा, धम्मदेवा, देवातिदेवा, भावदेवा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–भवियदव्वदेवा-भवियदव्वदेवा?
गोयमा! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा मनुस्से वा देवेसु उववज्जित्तए। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–भवियदव्वदेवा-भवियदव्वदेवा।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नरदेवा-नरदेवा?
गोयमा! जे इमे रायाणो चाउरंतचक्कवट्टी उप्पन्नसमत्तचक्करयणप्पहाणा नवनिहिपइणो समिद्ध-कीसा बत्तीसरायवरसहस्साणु-यातमग्गा सागरवरमेहलाहिवइणो मणुस्सिंदा। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–नरदेवा-नरदेवा।
से Translated Sutra: भगवन् ! देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! देव पाँच प्रकार के कहे गए हैं, यथा – भव्यद्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव, भावदेव। भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव, ‘भव्यद्रव्यदेव’ किस कारण से कहलाते हैं ? गौतम ! जो पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक अथवा मनुष्य, देवों में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे भविष्य में भावीदेव होने के | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-९ देव | Hindi | 555 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भवियदव्वदेवा णं भंते! कओहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो उववज्जंति? तिरिक्ख-मनुस्स-देवेहिंतो उववज्जंति?
गोयमा! नेरइएहिंतो उववज्जंति, तिरिक्ख-मनुस्स-देवेहिंतो वि उववज्जंति। भेदो जहा वक्कंतीए सव्वेसु उववाएयव्वा जाव अनुत्तरोववाइय त्ति, नवरं– असंखेज्जवासाउय-अकम्मभूमगअंतर-दीवगसव्वट्ठसिद्धवज्जं जाव अपराजियदेवेहिंतो वि उववज्जंति।
नरदेवा णं भंते! कओहिंतो उववज्जंति–किं नेरइएहिंतो–पुच्छा।
गोयमा! नेरइएहिंतो उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएहिंतो, नो मनुस्सेहिंतो, देवेहिंतो वि
उववज्जंति।
जइ नेरइएहिंतो उववज्जंति–किं रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उववज्जंति जाव अहेसत्तमा-पुढवि-नेरइएहिंतो Translated Sutra: भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव किनमें से (आकर) उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में से उत्पन्न होते हैं, या तिर्यञ्च, मनुष्य अथवा देवों में से (आकर) उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे नैरयिकों में से (आकर) उत्पन्न होते हैं, तथा तिर्यञ्च, मनुष्य या देवों में से भी उत्पन्न होते हैं। व्युत्क्रान्ति पद अनुसार भेद कहना चाहिए। इन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-९ देव | Hindi | 556 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भवियदव्वदेवाणं भंते! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता?
गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं।
नरदेवाणं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं सत्त वाससयाइं, उक्कोसेणं चउरासीइं पुव्वसयसहस्साइं।
धम्मदेवाणं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी।
देवातिदेवाणं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं बावत्तरिं वासाइं, उक्कोसेणं चउरासीइं पुव्वसयसहस्साइं।
भावदेवाणं–पुच्छा।
गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। Translated Sutra: भगवन् ! भव्यद्रव्यदेवों की स्थिति कितने काल की कही है ? गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्टतः तीन पल्योपम की है। भगवन् ! नरदेवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य ७०० वर्ष, उत्कृष्ट ८४लाख पूर्व है। भगवन् ! धर्मदेवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य अन्त – मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट देशोन | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-९ देव | Hindi | 558 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भवियदव्वदेवा णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति? कहिं उवज्जंति–किं नेरइएसु उववज्जंति जाव देवेसु उववज्जंति?
गोयमा! नो नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मनुस्सेसु, देवेसु उववज्जंति।
जइ देवेसु उववज्जंति? सव्वदेवेसु उववज्जंति जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति।
नरदेवा णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता–पुच्छा।
गोयमा! नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मनुस्सेसु, नो देवेसु उववज्जंति।
जइ नेरइएसु उववज्जंति? सत्तसु वि पुढवीसु उववज्जंति।
धम्मदेवा णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता–पुच्छा।
गोयमा! नो नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मनुस्सेसु, देवेसु उववज्जंति।
जइ Translated Sutra: भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव मरकर तुरन्त कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, यावत् अथवा देवों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! न तो नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, न तिर्यञ्चों में और न मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु (एकमात्र) देवों में उत्पन्न होते हैं। यदि (वे) देवों में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-९ देव | Hindi | 559 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एएसि णं भंते! भवियदव्वदेवाणं, नरदेवाणं, धम्मदेवाणं, देवातिदेवाणं, भावदेवाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा नरदेवा, देवातिदेवा संखेज्जगुणा, धम्मदेवा संखेज्जगुणा, भवियदव्वदेवा असंखेज्जगुणा, भावदेवा असं-खेज्जगुणा।
एएसि णं भंते! भावदेवाणं भवनवासीणं, वाणमंतराणं, जोइसियाणं, वेमाणियाणं–सोहम्मगाणं जाव अच्चुयगाणं, गेवेज्जगाणं, अनुत्तरोववाइयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा अनुत्तरोववाइया भावदेवा, उवरिमगेवेज्जा भावदेवा संखेज्जगुणा, मज्झिम-गेवेज्जा संखेज्जगुणा, हेट्ठिमगेवेज्जा Translated Sutra: भगवन् ! भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, तथा वैमानिकों में भी सौधर्म, ईशान, यावत् अच्युत, ग्रैवेयक एवं अनुत्तरोपपातिक विमानों तक के भावदेवों में कौन (देव) किस (देव) से अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़े अनुत्तरोपपातिक भावदेव हैं, उनसे उपरिम ग्रैवेयक के भावदेव संख्यातगुण अधिक हैं, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-१० आत्मा | Hindi | 560 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! आया पन्नत्ता?
गोयमा! अट्ठविहा आया पन्नत्ता, तं जहा–दवियाया, कसायाया, जोगाया, उवओगाया, नाणाया, दंसणाया, चरित्ताया, वीरियाया।
जस्स णं भंते! दवियाया तस्स कसायाया? जस्स कसायाया तस्स दवियाया?
गोयमा! जस्स दवियाया तस्स कसायाया सिय अत्थि सिय नत्थि, जस्स पुण कसायाया तस्स दवियाया नियमं अत्थि।
जस्स णं भंते! दवियाया तस्स जोगाया? जस्स जोगाया तस्स दवियाया?
गोयमा! जस्स दवियाया तस्स जोगाया सिय अत्थि सिय नत्थि, जस्स पुण जोगाया तस्स दवियाया नियमं अत्थि।
जस्स णं भंते! दवियाया तस्स उवओगाया? जस्स उवओगाया तस्स दवियाया? –एवं सव्वत्थ पुच्छा भाणियव्वा।
गोयमा! जस्स दवियाया Translated Sutra: भगवन् ! आत्मा कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! आत्मा आठ प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार – द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योग – आत्मा, उपयोग – आत्मा, ज्ञान – आत्मा, दर्शन – आत्मा, चारित्र – आत्मा और वीर्यात्मा। भगवन् ! जिसके द्रव्यात्मा होती है, क्या उसके कषायात्मा होती है और जिसके कषायात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-१० आत्मा | Hindi | 561 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आया भंते! नाणे? अन्ने नाणे?
गोयमा! आया सिय नाणे सिय अन्नाणे, नाणे पुण नियमं आया।
आया भंते! नेरइयाणं नाणे? अन्ने नेरइयाणं नाणे?
गोयमा! आया नेरइयाणं सिय नाणे, सिय अन्नाणे। नाणे पुण से नियमं आया। एवं जाव थणियकुमाराणं।
आया भंते! पुढविकाइयाणं अन्नाणे? अन्ने पुढविकाइयाणं अन्नाणे?
गोयमा! आया पुढविकाइयाणं नियमं अन्नाणे, अन्नाणे वि नियमं आया। एवं जाव वणस्सइकाइयाणं। बेइंदिय-तेइंदियाणं जाव वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं।
आया भंते! दंसणे? अन्ने दंसणे?
गोयमा! आया नियमं दंसणे, दंसणे वि नियमं आया।
आया भंते! नेरइयाणं दंसणे? अन्ने नेरइयाणं दंसणे?
गोयमा! आया नेरइयाणं नियमं दंसणे, दंसणे वि Translated Sutra: भगवन् ! आत्मा ज्ञानस्वरूप है या अज्ञानस्वरूप है ? गौतम ! आत्मा कदाचित् ज्ञानरूप है, कदाचित् अज्ञानरूप है। (किन्तु) ज्ञान तो नियम से आत्मस्वरूप है। भगवन् ! नैरयिकों की आत्मा ज्ञानरूप है अथवा अज्ञानरूप है ? गौतम ! कथञ्चित् ज्ञानरूप है और कथञ्चित् अज्ञानरूप है। किन्तु उनका ज्ञान नियमतः आत्मरूप है। इसी प्रकार | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१२ |
उद्देशक-१० आत्मा | Hindi | 562 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आया भंते! रयणप्पभा पुढवी? अन्ना रयणप्पभा पुढवी?
गोयमा! रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय नोआया, सिय अवत्तव्वं–आयाति य नोआयाति य।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय नोआया, सिय अवत्तव्वं–आयाति य नोआयाति य?
गोयमा! अप्पणो आदिट्ठे आया, परस्स आदिट्ठे नोआया, तदुभयस्स आदिट्ठे अवत्तव्वं–रयणप्पभा पुढवी आयाति य नोआयाति य। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय नोआया, सिय अवत्तव्वं–आयाति य नोआयाति य।
आया भंते! सक्करप्पभा पुढवी?
जहा रयणप्पभा पुढवी तहा सक्करप्पभावि। एवं जाव अहेसत्तमा।
आया भंते! सोहम्मे कप्पे–पुच्छा।
गोयमा! सोहम्मे कप्पे Translated Sutra: भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी आत्मरूप है या वह अन्यरूप है ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी कथंचित् आत्मरूप है और कथंचित् नोआत्मरूप है तथा कथंचित् अवक्तव्य है। भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी अपने स्वरूप से व्यपदिष्ट होने पर आत्मरूप हैं, पररूप से आदिष्ट होने पर नो – आत्मरूप है और उभयरूप की | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-१ पृथ्वी | Hindi | 564 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] रायगिहे जाव एवं वयासी–कति णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता?
गोयमा! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता।
ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा? असंखेज्जवित्थडा?
गोयमा! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु १. एगसमएणं केवतिया नेरइया उववज्जंति? २. केवतिया काउलेस्सा उववज्जंति? ३. केवतिया कण्हपक्खिया उववज्जंति? ४. केवतिया सुक्कपक्खिया उववज्जंति? ५. केवतिया सण्णी उववज्जंति? Translated Sutra: राजगृह नगर में यावत् पूछा – भगवन् ! (नरक – ) पृथ्वीयाँ कितनी हैं ? गौतम ! सात, यथा – रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कितने लाख नारकावास हैं ? गौतम ! तीस लाख। भगवन् ! वे नारकावास संख्येय (योजन) विस्तृत हैं या असंख्येय (योजन) विस्तृत हैं ? गौतम ! वे संख्येय (योजन) विस्तृत भी हैं और असंख्येय | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-१ पृथ्वी | Hindi | 565 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु किं सम्मद्दिट्ठी नेरइया उववज्जंति? मिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जंति? सम्मामिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जंति?
गोयमा! सम्मदिट्ठी वि नेरइया उववज्जंति, मिच्छदिट्ठी वि नेरइया उववज्जंति, नो सम्मामिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जंति।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु किं सम्मदिट्ठी नेरइया उव्वट्टंति? एवं चेव।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडा नरगा किं सम्मद्दिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिया? मिच्छदिट्ठीहिं Translated Sutra: भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नारकावासों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं, अथवा सम्यग्मिथ्या (मिश्र) दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि नैरयिक भी उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-१ पृथ्वी | Hindi | 566 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! कण्हलेस्से, नीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति?
हंता गोयमा! कण्हलेस्से जाव उववज्जंति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–कण्हलेस्से जाव उववज्जंति?
गोयमा! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु-संकिलिस्समाणेसु कण्हलेसं परिणमइ, परिणमित्ता कण्हलेसेसु नेरइएसु उववज्जंति। से तेणट्ठेणं जाव उववज्जंति।
से नूनं भंते! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति?
हंता गोयमा! जाव उववज्जंति।
से केणट्ठेणं जाव उववज्जंति?
गोयमा! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा नीललेस्सं परिणमइ, परिणमित्ता नीललेस्सेसु Translated Sutra: भगवन् ! क्या वास्तव में कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी, यावत् शुक्ललेश्यी बनकर (जीव पुनः) कृष्णलेश्यी नैरयिकों में उत्पन्न हो जाता है ? हाँ, गौतम ! हो जाता है। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! उसके लेश्यास्थान संक्लेश को प्राप्त होते – होते कृष्णलेश्या के रूप में परिणत हो जाते हैं और कृष्णलेश्या के रूप में परिणत | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१३ |
उद्देशक-२ देव | Hindi | 567 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कतिविहा णं भंते! देवा पन्नत्ता?
गोयमा! चउव्विहा देवा पन्नत्ता, तं जहा–भवनवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया।
भवनवासी णं भंते! देवा कतिविहा पन्नत्ता?
गोयमा! दसविहा पन्नत्ता, तं जहा–असुरकुमारा–एवं भेओ जहा बितियसए देवुद्देसए जाव अपराजिया, सव्वट्ठसिद्धगा।
केवतिया णं भंते! असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता?
गोयमा! चोयट्ठिं असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता।
ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा? असंखेज्जवित्थडा?
गोयमा! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि।
चोयट्ठीए णं भंते! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु एग-समएणं केवतिया असुर-कुमारा उववज्जंति Translated Sutra: भगवन् ! देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! देव चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा – भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। भगवन् ! भवनवासी देव कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! दस प्रकार के यथा – असुरकुमार यावत् स्तनित कुमार। इस प्रकार भवनवासी आदि देवों के भेदों का वर्णन द्वीतिय शतक के सप्तम देवोद्देशक के अनुसार |