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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-५ पृथ्वी | Hindi | 57 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] केवइया णं भंते! पुढविक्काइयावाससयसहस्सा पन्नत्ता?
गोयमा! असंखेज्जा पुढविक्काइयावाससयसहस्सा पन्नत्ता जाव असंखिज्जा जोइसिय-विमानावास सयसहस्सा पन्नत्ता।
सोहम्मे णं भंते! कप्पे कति विमानावाससयसहस्सा पन्नत्ता?
गोयमा! बत्तीसं विमानावाससयसहस्सा पन्नत्ता। एवं– Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितने लाख आवास कहे गए हैं ? गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवास कहे गए हैं। इसी प्रकार यावत् ज्योतिष्क देवों तक के असंख्यात लाख विमानावास कहे गए हैं। भगवन् ! सौधर्मकल्प में कितने विमानावास हैं ? गौतम ! बत्तीस लाख विमानावास कहे हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-५ पृथ्वी | Hindi | 62 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं केवइया ठितिट्ठाणा पन्नत्ता?
गोयमा! असंखेज्जा ठितिट्ठाणा पन्नत्ता, तं जहा–जहन्निया ठिती, समयाहिया जहन्निया ठिती, दुसमयाहिया जहन्निया ठिती जाव असंखेज्जसमयाहिया जहन्निया ठिती। तप्पाउग्गुक्कोसिया ठिती।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि जहन्नियाए ठितीए वट्टमाणा नेरइया किं–कोहोवउत्ता? मानोवउत्ता? मायोवउत्ता? लोभोवउत्ता?
गोयमा! सव्वे वि ताव होज्जा १. कोहोवउत्ता। २. अहवा कोहोवउत्ता य, मानोवउत्ते य। ३.
अहवा कोहोवउत्ता य, मानोवउत्ता Translated Sutra: भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से एक – एक नारकावास में रहने वाले नारक जीवों के कितने स्थिति – स्थान कहे गए हैं ? गौतम ! उनके असंख्य स्थान हैं। वे इस प्रकार हैं – जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, वह एक समय अधिक, दो समय अधिक – इस प्रकार यावत् जघन्य स्थिति असंख्यात समय अधिक है, तथा उसके योग्य | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-५ पृथ्वी | Hindi | 63 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि समयाहियाए जहन्नट्ठितीए वट्ठमाणा नेरइया किं– कोहोवउत्ता? मानोवउत्ता? मायोवउत्ता? लोभोवउत्ता?
गोयमा! कोहोवउत्ते य, मानोवउत्ते य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य। कोहोवउत्ता य, मानोवउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य। अहवा कोहोवउत्ते य, मानोवउत्ते य। अहवा कोहोवउत्ते य, मानोवउत्ता य। एवं असीतिभंगा नेयव्वा।
एवं जाव संखेज्जसमयाहियाए ठितीए, असंखेज्जसमयाहियाए ठितीए तप्पाउग्गुक्को-सियाए ठितीए सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि Translated Sutra: भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से एक – एक नारकावास में रहने वाले नारकों के अवगाहना स्थान कितने हैं ? गौतम ! उनके अवगाहना स्थान असंख्यात हैं। जघन्य अवगाहना (अंगुल के असंख्यातवें भाग), (मध्यम अवगाहना) एक प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना, द्विप्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना, यावत् असंख्यात प्रदेशाधिक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-५ पृथ्वी | Hindi | 64 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव नेरइया किं सम्मदिट्ठी? मिच्छदिट्ठी? सम्मामिच्छदिट्ठी?
तिन्नि वि।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव सम्मदंसणे वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता? सत्तावीसं भंगा।
एवं मिच्छदंसणे वि।
सम्मामिच्छदंसणे असीतिभंगा।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव नेरइया किं नाणी, अन्नाणी?
गोयमा! नाणी वि, अन्नाणी वि। तिन्नि नाणाइं नियमा। तिन्नि अन्नाणाइं भयणाए।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव आभिनिबोहियनाणे वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता? सत्तावीसं भंगा।
एवं तिन्नि नाणाइं, तिन्नि अन्नाणाइं भाणियव्वाइं।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए जाव नेरइया किं मणजोगी? वइजोगी? कायजोगी?
तिन्नि Translated Sutra: भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले नारक जीव क्या सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, या सम्यग्मिथ्या – दृष्टि (मिश्रदृष्टि) हैं ? हे गौतम ! वे तीनों प्रकार के होते हैं। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में बसने वाले सम्यग्दृष्टि नारक क्या क्रोधोपयुक्त यावत् लोभोपयुक्त हैं ? गौतम ! इनके क्रोधोपयुक्त आदि | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-५ पृथ्वी | Hindi | 66 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चउसट्ठीए णं भंते! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एवमेगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं केवइया ठिति-ट्ठाणा पन्नत्ता?
गोयमा! असंखेज्जा ठितिट्ठाणा पन्नत्ता। जहन्निया ठिई जहा नेरइया तहा, नवरं–पडिलोमा भंगा भाणियव्वा।
सव्वे वि ताव होज्ज लोभोवउत्ता।
अहवा लोभोवउत्ता य, मायोवउत्ते य। अहवा लोभोवउत्ता य, मायोवउत्ता य। एएणं गमेणं नेयव्वं जाव थणियकुमारा, नवरं–नाणत्तं जाणियव्वं। Translated Sutra: भगवन् ! चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से एक – एक असुरकुमारावास में रहने वाले असुरकुमारों के कितने कितने स्थिति – स्थान कहे गए हैं ? गौतम ! उनके स्थिति – स्थान असंख्यात कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं – जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि सब वर्णन नैरयिकों के समान जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इनमें जहाँ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-५ पृथ्वी | Hindi | 67 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: असंखेज्जेसु णं भंते! पुढविक्काइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइयावासंसि पुढविक्का-इयाणं केवइया ठितिट्ठाणा पन्नत्ता?
गोयमा! असंखेज्जा ठितिट्ठाणा पन्नत्ता, तं जहा–जहन्निया ठिई जाव तप्पाउग्गुक्कोसिया ठिई
असंखेज्जेसु णं भंते! पुढविक्काइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइयावासंसि जह-न्नियाए ठितीए वट्टमाणा पुढविक्काइया किं कोहोवउत्ता? मानोवउत्ता? मायोवउत्ता? लोभोवउत्ता?
गोयमा! कोहोवउत्ता वि, मानोवउत्ता वि, मायोवउत्ता वि, लोभोवउत्ता वि।
एवं पुढविक्काइयाणं सव्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं, नवरं–तेउलेस्साए असीतिभंगा।
एवं आउक्काइया वि।
तेउक्काइय-वाउक्काइयाणं Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक – एक आवास में बसने वाले पृथ्वी – कायिकों के कितने स्थिति – स्थान कहे गए हैं ? गौतम ! उनके असंख्येय स्थिति – स्थान हैं। वे इस प्रकार हैं – उनकी जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्यस्थिति, दो समय अधिक जघन्यस्थिति, यावत् उनके योग्य उत्कृष्ट स्थिति। भगवन् ! पृथ्वीकायिक | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Hindi | 69 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जावइयाओ णं भंते! ओवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावतियाओ चेव ओवासंतराओ चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति?
हंता गोयमा! जावइयाओ णं ओवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावतियाओ चेव ओवासंतराओ चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति।
जावइय णं भंते! खेत्तं उदयंते सूरिए आयवेणं सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोएइ तवेइ पभासेइ, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावइयं चेव खेत्तं आयवेणं सव्वओ समंता ओभासेइ? उज्जोएइ? तवेइ? पभासेइ?
हंता गोयमा! जावतिय णं खेत्तं उदयंते सूरिए आयवेणं सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोइए तवेइ पभासेइ, अत्थमंते वि य Translated Sutra: भगवन् ! जितने जितने अवकाशान्तर से अर्थात् – जितनी दूरी से उदय होता हुआ सूर्य आँखो से शीघ्र देखा जाता है, उतनी ही दूरी से क्या अस्त होता हुआ सूर्य भी दिखाई देता है ? हाँ, गौतम ! जितनी दूर से उदय होता हुआ सूर्य आँखो से दीखता है, उतनी ही दूरी से अस्त होता सूर्य भी आँखों से दिखाई देता है। भगवन् ! उदय होता हुआ सूर्य अपने | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Hindi | 70 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोयंते भंते! अलोयंतं फुसइ? अलोयंते वि लोयंतं फुसइ?
हंता गोयमा! लोयंते अलोयंतं फुसइ, अलोयंते वि लोयंतं फुसइ।
तं भंते! किं पुट्ठं फुसइ? अपुट्ठं फुसइ?
गोयमा! पुट्ठं फुसइ, नो अपुट्ठं जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ।
दीवंते भंते! सागरंतं फुसइ? सागरंते वि दीवंते फुसइ?
हंता गोयमा! दीवंते सागरंतं फुसइ, सागरंते वि दीवंतं फुसइ जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ।
उदयंते भंते! पोयंतं फुसइ? पोयंते वि उदयंतं फुसइ?
हंता गोयमा! उदयंते पोयंतं फुसइ, पोयंते उदयंतं फुसइ जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ।
छिद्दंते भंते! दूसंतं फुसइ? दूसंते वि छिद्दंतं फुसइ?
हंता गोयमा! छिद्दंते दूसंतं फुसइ, दूसंते वि छिद्दंतं फुसइ Translated Sutra: भगवन् ! क्या लोक का अन्त अलोक के अन्त को स्पर्श करता है ? क्या अलोक का अन्त लोक के अन्त को स्पर्श करता है ? हाँ, गौतम ! लोक का अन्त अलोक के अन्त को स्पर्श करता है, और अलोक का अन्त लोक के अन्त को स्पर्श करता है। भगवन् ! वह जो स्पर्श करता है, क्या वह स्पृष्ट है या अस्पृष्ट है ? गौतम ! यावत् नियमपूर्वक छहों दिशाओं में स्पृष्ट | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Hindi | 71 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! जीवाणं पाणाइवाए णं किरिया कज्जइ? हंता अत्थि।
सा भंते! किं पुट्ठा कज्जइ? अपुट्ठा कज्जइ?
गोयमा! पुट्ठा कज्जइ, नो अपुट्ठा कज्जइ जाव निव्वाघाएणं छद्दिसिं, वाघायं पडुच्च सिया तिदिसिं, सिया चउदिसिं, सिया पंचदिसिं।
सा भंते! किं कडा कज्जइ? अकडा कज्जइ?
गोयमा! कडा कज्जइ, नो अकडा कज्जइ।
सा भंते! किं अत्तकडा कज्जइ? परकडा कज्जइ? तदुभयकडा कज्जइ?
गोयमा! अत्तकडा कज्जइ, नो परकडा कज्जइ, नो तदुभयकडा कज्जइ।
सा भंते किं आनुपुव्विं कडा कज्जइ? अनानुपुव्विं कडा कज्जइ?
गोयमा! आनुपुव्विं कडा कज्जइ, नो अनानुपुव्विं कडा कज्जइ। जा य कडा कज्जइ, जा य कज्जिस्सइ, सव्वा सा आनुपुव्विं कडा, Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीवों द्वारा प्राणातिपातक्रिया की जाती है ? भगवन् ! की जाने वाली वह प्राणातिपातक्रिया क्या स्पृष्ट है या अस्पृष्ट है ? गौतम ! यावत् व्याघात न हो तो छहों दिशाओं को और व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को और कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। भगवन् ! क्या वह (प्राणातिपात) | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Hindi | 76 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी–
कतिविहा णं भंते! लोयट्ठिती पन्नत्ता?
गोयमा! अट्ठविहा लोयट्ठिति पन्नत्ता, तं जहा–१. आगासपइट्ठिए वाए। २. वायपइट्ठिए उदही। ३. उदहिपइट्ठिया पुढवी। ४. पुढविपइट्ठिया तसथावरा पाणा। ५. अजीवा जीवपइट्ठिया। ६. जीवा कम्मपइट्ठिया। ७. अजीवा जीवसंगहिया। ८. जीवा कम्मसंगहीया।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अट्ठविहा लोयट्ठिती जाव जीवा कम्मसंगहिया?
गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे वत्थिमाडोवेइ, वत्थिमाडोवेत्ता उप्पिं सितं बंधइ, बंधित्ता मज्झे गंठिं बंधइ, बंधित्ता उवरिल्लं गंठिं मुयइ, मुइत्ता उवरिल्लं देसं वामेइ, वामेत्ता उवरिल्लं Translated Sutra: ‘हे भगवन् !’ ऐसा कहकर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् कहा – भगवन् ! लोक की स्थिति कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! आठ प्रकार की। वह इस प्रकार है – आकाश के आधार पर वायु (तनुवात) टिका हुआ है; वायु के आधार पर उदधि है; उदधि के आधार पर पृथ्वी है, त्रस और स्थावर जीव पृथ्वी के आधार पर हैं; अजीव जीवों के आधार पर | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Hindi | 77 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! जीवा य पोग्गला य अन्नमन्नबद्धा, अन्नमन्नपुट्ठा, अन्नमन्नमोगाढा, अन्नमन्नसिनेह-पडिबद्धा, अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठंति?
हंता अत्थि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थि णं जीवा य पोग्गला य अन्नमन्नबद्धा, अन्नमन्नपुट्ठा, अन्नमन्नमोगाढा, अन्नमन्नसिनेहपडिबद्धा, अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठंति?
गोयमा! से जहानामए हरदे सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलट्टमाणे वोसट्टमाणे समभरघडत्ताए चिट्ठइ
अहे ण केइ पुरिसे तंसि हरदंसि एगं महं नावं सयासवं सयछिद्दं ओगाहेज्जा। से नूनं गोयमा! सा नावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी-आपूरमाणी पुण्णा पुन्नप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल परस्पर सम्बद्ध हैं ?, परस्पर एक दूसरे से स्पृष्ट हैं ?, परस्पर गाढ़ सम्बद्ध हैं, परस्पर स्निग्धता से प्रतिबद्ध हैं, (अथवा) परस्पर घट्टित होकर रहे हुए हैं ? हाँ, गौतम ! ये परस्पर इसी प्रकार रहे हुए हैं। भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! जैसे – एक तालाब हो, वह जल से पूर्ण हो, पानी से लबालब | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-६ यावंत | Hindi | 78 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अत्थि णं भंते! सदा समितं सुहुमे सिनेहकाए पवडइ?
हंता अत्थि।
से भंते! किं उड्ढे पवडइ? अहे पवडइ? तिरिए पवडइ?
गोयमा! उड्ढे वि पवडइ, अहे वि पवडइ, तिरिए वि पवडइ।
जहा से बायरे आउयाए अन्नमन्नसमाउत्ते चिरं पि दीहकालं चिट्ठइ तहा णं से वि?
नो इणट्ठे समट्ठे। से णं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छइ।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति। Translated Sutra: भगवन् ! क्या सूक्ष्म स्नेहकाय, सदा परिमित पड़ता है ? हाँ, गौतम ! पड़ता है। भगवन् ! वह सूक्ष्म स्नेह – काय ऊपर पड़ता है, नीचे पड़ता है या तीरछा पड़ता है ? गौतम ! वह ऊपर भी पड़ता है, नीचे भी पड़ता है और तीरछा भी पड़ता है। भगवन् ! क्या वह सूक्ष्म स्नेहकाय स्थूल अप्काय की भाँति परस्पर समायुक्त होकर बहुत दीर्घकाल तक रहता है ? हे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-७ नैरयिक | Hindi | 79 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइए णं भंते! नेरइएसु उववज्जमाणे, किं–१. देसेणं देसं उववज्जइ? २. देसेणं सव्वं उववज्जइ? ३. सव्वेणं देसं उववज्जइ? ४. सव्वेणं सव्वं उववज्जइ?
गोयमा! १. नो देसेणं देसं उववज्जइ। २. नो देसेणं सव्वं उववज्जइ। ३. नो सव्वेणं देसं उववज्जइ। ४. सव्वेणं सव्वं उववज्जइ।
जहा नेरइए, एवं जाव वेमाणिए। Translated Sutra: भगवन् ! नारकों में उत्पन्न होता हुआ नारक जीव एक भाग से एक भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है या एक भाग से सर्व भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है, या सर्वभाग से एक भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता अथवा सब भागों को आश्रय करके उत्पन्न होता है ? गौतम ! नारक जीव एक भाग से एक भाग को आश्रित करके उत्पन्न नहीं होता; एक भाग | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-७ नैरयिक | Hindi | 80 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेरइए णं भंते! नेरइएसु उववज्जमाणे, किं–१. देसेणं देसं आहारेइ? २. देसेणं सव्वं आहारेइ? ३. सव्वेणं देसं आहारेइ? ४. सव्वेणं सव्वं आहारेइ?
गोयमा! १. नो देसेणं देसं आहारेइ। २. नो देसेणं सव्वं आहारेइ। ३. सव्वेणं वा देसं आहारेइ। ४. सव्वेणं वा सव्वं आहारेइ।
एवं जाव वेमाणिए।
नेरइए णं भंते! नेरइएहिंतो उव्वट्टमाणे, किं–१. देसेणं देसं उव्वट्टइ? २. देसेणं सव्वं उव्वट्टइ? ३. सव्वेणं देसं उव्वट्टइ? ४. सव्वेणं सव्वं उव्वट्टइ?
गोयमा! १. नो देसेणं देसं उव्वट्टइ। २. नो देसेणं सव्वं उव्वट्टइ। ३. नो सव्वेणं देसं उव्वट्टइ। ४. सव्वेणं सव्वं उव्वट्टइ।
एवं जाव वेमाणिए।
नेरइए णं भंते! नेरइएहिंतो Translated Sutra: नारकों में उत्पन्न होता हुआ नारक जीव क्या एक भाग से एक भाग को आश्रित करके आहार करता है, एक भाग से सर्वभाग को आश्रित करके आहार करता है, सर्वभागों से एक भाग को आश्रित करके आहार करता है, अथवा सर्वभागों से सर्वभागों को आश्रित करके आहार करता है ? गौतम ! वह एक भाग से एक भाग को आश्रित करके आहार नहीं करता, एक भाग से सर्वभाग | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-७ नैरयिक | Hindi | 81 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! किं विग्गहगइसमावण्णए? अविग्गहगइसमावण्णए?
गोयमा! सिय विग्गहगइसमावण्णए, सिय अविग्गहगइसमावण्णए।
एवं जाव वेमाणिए।
जीवा णं भंते! किं विग्गहगइसमावण्णया? अविग्गहगइसमावण्णया?
गोयमा! विग्गहगइसमावन्नगा वि, अविग्गहगइसमावन्नगा वि।
नेरइया णं भंते! किं विग्गहगइसमावन्नगा? अविग्गहगइसमावन्नगा?
गोयमा! सव्वे वि ताव होज्ज अविग्गहगइसमावन्नगा। अहवा अविग्गहगइसमावन्नगा, विग्गहगइ-समावन्नगे य। अहवा अविग्गहगइसमावन्नगा य, विग्गहगइसमावन्नगा य। एवं जीव–एगिंदिय-वज्जो तियभंगो। Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव विग्रहगतिसमापन्न – विग्रहगति को प्राप्त होता है, अथवा विग्रहगतिसमापन्न – विग्रहगति को प्राप्त नहीं होता ? गौतम ! कभी (वह) विग्रहगति को प्राप्त होता है, और कभी विग्रहगति को प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त जानना चाहिए। भगवन् ! क्या बहुत से जीव विग्रहगति को प्राप्त होते हैं अथवा | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-७ नैरयिक | Hindi | 82 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] देवे णं भंते! महिड्ढिए महज्जुइए महब्बले महायसे महेसक्खे महानुभावे अविउक्कंतियं चयमाणे किंचिकालं हिरिवत्तियं दुगंछावत्तियं परीसहवत्तियं आहारं नो आहारेइ। अहे णं आहारेइ आहारि-ज्जमाणे आहारिए, परिणामिज्जमाणे परिणामिए, पहीने य आउए भवइ। जत्थ उववज्जइ तं आउयं पडिसंवेदेइ, तं जहा–तिरिक्खजोणियाउयं वा, मनुस्साउयं वा?
हंता गोयमा! देवेणं महिड्ढिए महज्जुइए महब्बले महायसे महेसक्खे महानुभावे अविउक्कंतियं चयमाणे किंचिकालं हिरिवत्तियं दुगंछावत्तियं परीसहवत्तियं आहारं नो आहारेइ। अहे णं आहारेइ आहारिज्जमाणे आहारिए, परिणामिज्जमाणे परिणामिए, पहीने य आउए भवइ। जत्थ उववज्जइ Translated Sutra: भगवन् ! महान् ऋद्धि वाला, महान् द्युति वाला, महान् बल वाला, महायशस्वी, महाप्रभावशाली, मरण काल में च्यवने वाला, महेश नामक देव लज्जा के कारण, घृणा के कारण, परीषह के कारण कुछ समय तक आहार नहीं करता, फिर आहार करता है और ग्रहण किया हुआ आहार परिणत भी होता है। अन्त में उस देव की वहाँ की आयु सर्वथा नष्ट हो जाती है। इसलिए | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-७ नैरयिक | Hindi | 83 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भं वक्कममाणे किं सइंदिए वक्कमइ? अनिंदिए वक्कमइ?
गोयमा! सिय सइंदिए वक्कमइ। सिय अनिंदिए वक्कमइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सिय सइंदिए वक्कमइ? सिय अनिंदिए वक्कमइ?
गोयमा! दव्विंदियाइं पडुच्च अनिंदिए वक्कमइ। भाविंदियाइं पडुच्च सइंदिए वक्कमइ। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–सिय सइंदिए वक्कमइ। सिय अनिंदिए वक्कमइ।
जीवे णं भंते! गब्भं वक्कममाणे किं ससरीरी वक्कमइ, असरीरी वक्कमइ?
गोयमा! सिय ससरीरी वक्कमइ। सिय असरीरी वक्कमइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सिय ससरीरी वक्कमइ? सिय असरीरी वक्कमइ?
गोयमा! ओरालिय-वेउव्विय-आहारयाइं पडुच्च असरीरी वक्कमइ। तेया-कम्माइं Translated Sutra: भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव, क्या इन्द्रियसहित उत्पन्न होता है अथवा इन्द्रियरहित उत्पन्न होता है? गौतम ! इन्द्रियसहित भी उत्पन्न होता है, इन्द्रियरहित भी उत्पन्न होता है। भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा वह बिना इन्द्रियों का उत्पन्न होता है और भावेन्द्रियों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-७ नैरयिक | Hindi | 84 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे किं आहारमाहारेइ?
गोयमा! जं से माया नाणाविहाओ रसविगतीओ आहारमाहारेइ, तदेकदेसेणं ओयमाहारेइ।
जीवस्स णं भंते! गब्भगयस्स समाणस्स अत्थि उच्चारे इ वा पासवने इ वा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पित्ते इ वा?
नो इणट्ठे समट्ठे।
से केणट्ठेणं?
गोयमा! जीवे णं गब्भगए समाणे जमाहारेइ तं चिणाइ, तं जहा–सोइंदियत्ताए, चक्खिंदियत्ताए, घाणिंदियत्ताए, रसिंदियत्ताए फासिंदियत्ताए, अट्ठि-अट्ठिमिंज-केस-मंसु-रोम-नहत्ताए। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जीवस्स णं गब्भगयस्स समाणस्स नत्थि उच्चारे इ वा पासवने इ वा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पित्ते इ वा।
जीवे णं Translated Sutra: भगवन् ! गर्भ में रहा हुआ जीव क्या नारकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं उत्पन्न होता। भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम ! गर्भ में रहा हुआ संज्ञी पंचेन्द्रिय और समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त (परिपूर्ण) जीव, वीर्यलब्धि द्वारा, वैक्रियलब्धि द्वारा शत्रुसेना का आगमन सूनकर, अवधारण (विचार) | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 85 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगंतबाले णं भंते! मनुस्से किं नेरइयाउयं पकरेति? तिरिक्खाउयं पकरेति? मनुस्साउयं पकरेति? देवाउयं पकरेति? नेरइयाउयं किच्चा नेरइएसु उववज्जति? तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जति? मनुस्साउयं किच्चा मनुस्सेसु उववज्जति? देवाउयं किच्चा देवलोगेसु उववज्जति?
गोयमा! एगंतबाले णं मनुस्से नेरइयाउयं पि पकरेति, तिरियाउयं वि पकरेति, मनुस्साउयं पि पकरेति, देवाउयं पि पकरेति, नेरइयाउयं किच्चा नेरइएसु उववज्जति, तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जति, मनुस्साउयं किच्चा मनुस्सेसु उववज्जति, देवाउयं किच्चा देवलोगेसु उववज्जति। Translated Sutra: राजगृह नगर में समवसरण हुआ और यावत् – श्री गौतम स्वामी इस प्रकार बोले – भगवन् ! क्या एकान्त – बाल (मिथ्यादृष्टि) मनुष्य, नारक की आयु बाँधता है, तिर्यंच की आयु बाँधता है, मनुष्य की आयु बाँधता है अथवा देव की आयु बाँधता है ? तथा क्या वह नरक की आयु बाँधकर नैरयिकों में उत्पन्न होता है; तिर्यंच की आयु बाँधकर तिर्यंचों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 86 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगंतपंडिए णं भंते! मनुस्से किं नेरइयाउयं पकरेति? तिरिक्खाउयं पकरेति? मनुस्साउयं पकरेति? देवाउयं पकरेति? नेरइयाउयं किच्चा नेरइएसु उववज्जति? तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जति? मनुस्साउयं किच्चा मनुस्सेसु उववज्जति? देवाउयं किच्चा देवलोएसु उववज्जति?
गोयमा! एगंतपंडिए णं मनुस्से आउयं सिय पकरेति, सिय नो पकरेति, जइ पकरेति नो नेरइयाउयं पकरेति, नो तिरियाउयं पकरेति, नो मनुस्साउयं पकरेति, देवाउयं पकरेति, नो नेरइयाउयं किच्चा नेरइएसु उववज्जति, नो तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जति, नो मनुस्साउयं किच्चा मनुस्सेसु उववज्जति, देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जति।
से केणट्ठेणं Translated Sutra: भगवन् ! एकान्तपण्डित मनुष्य क्या नरकायु बाँधता है ? या यावत् देवायु बाँधता है ? और यावत् देवायु बाँधकर देवलोक में उत्पन्न होता है ? हे गौतम ! एकान्तपण्डित मनुष्य, कदाचित् आयु बाँधता है और कदाचित् आयु नहीं बाँधता। यदि आयु बाँधता है तो देवायु बाँधता है, किन्तु नरकायु, तिर्यंचायु और मनुष्यायु नहीं बाँधता। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 87 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा नमंसि वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पव्वयविदुग्गंसि वा वणंसि वा वणविदुग्गंसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं अन्नयरस्स मियस्स वहाए कूडपासं उद्दाति, ततो णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए?
गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सिय तिकिरिए? सिय चउकिरिए? सिय पंचकिरिए?
गोयमा! जे भविए उद्दवणयाए–नो बंधनयाए, नो मारणयाए–तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए –तिहिं किरियाहिं पुट्ठे।
जे भविए उद्दवणताए वि, बंधनताए Translated Sutra: भगवन् ! मृगों से आजीविका चलाने वाला, मृगों का शिकारी, मृगों के शिकार में तल्लीन कोई पुरुष मृगवध के लिए नीकला हुआ कच्छ में, द्रह में, जलाशय में, घास आदि के समूह में, वलय में, अन्धकारयुक्त प्रदेश में, गहन में, पर्वत के एक भागवर्ती वन में, पर्वत पर पर्वतीय दुर्गम प्रदेश में, वन में, बहुत – से वृक्षों से दुर्गम वन में, | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 88 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! कच्छंसि वा जाव वणविदुग्गंसि वा तणाइं ऊसविय-ऊसविय अगनिकायं निसिरइ–तावं च णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए?
गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सिय तिकिरिए? सिय चउकिरिए? सिय पंचकिरिए?
गोयमा! जे भविए उस्सवणयाए–णो निसिरणयाए, नो दहणयाए–तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओवसियाए–तिहिं किरियाहिं पुट्ठे।
जे भविए उस्सवणयाए वि, निसिरणयाए वि, नो दहणयाए– तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, पारितावणियाए–चउहिं किरियाहिं पुट्ठे।
जे भविए उस्सवणयाए वि, निसिरणयाए वि, दहणयाए वि, तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, Translated Sutra: भगवन् ! कच्छ में यावत् – वनविदुर्ग में कोई पुरुष घास के तिनके इकट्ठे करके उनमें अग्नि डाले तो वह पुरुष कितनी क्रिया वाला होता है ? गौतम ! वह पुरुष कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् पाँच क्रियाओं वाला होता है। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! जब तक वह पुरुष तिनके इकट्ठे | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 89 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! कच्छंसि वा जाव वणविदुग्गंसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं अन्नतरस्स मियस्स वहाए उसुं निसिरति, ततो णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए?
गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए?
गोयमा! जे भविए निसिरणयाए– नो विद्धंसणयाए, नो मारणयाए–तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए–तिहिं किरियाहिं पुट्ठे।
जे भविए निसिरणताए वि, विद्धंसणताए वि– नो मारणयाए–तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, पारितावणियाए–चउहिं किरियाहिं पुट्ठे।
जे Translated Sutra: भगवन् ! मृगों से आजीविका चलाने वाला, मृगों का शिकार करने के लिए कृतसंकल्प, मृगों के शिकार में तन्मय, मृगवध के लिए कच्छ में यावत् वनविदुर्ग में जाकर ‘ये मृग है’ ऐसा सोचकर किसी एक मृग को मारने के लिए बाण फैंकता है, तो वह पुरुष कितनी क्रिया वाला होता है ? हे गौतम ! वह पुरुष कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 90 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! कच्छंसि वा जाव वणविदुग्गंसि वा? मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं अन्नतरस्स मियस्स वहाए आयत-कण्णायतं उसुं आयामेत्ता चिट्ठेज्जा, अन्नयरे पुरिसे मग्गतो आगम्म सयपाणिणा असिणा सीसं छिंदेज्जा, से य उसू ताए चेव पुव्वायामणयाए तं मियं चिंधेज्जा, से णं भंते! पुरिसे किं मियवेरेणं पुट्ठे? पुरिसवेरेणं पुट्ठे?
गोयमा! जे मियं मारेइ, से मियवेरेणं पुट्ठे। जे पुरिसं मारेइ, से पुरिसवेरेणं पुट्ठे।
[सूत्र] से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जे मियं मारेइ, से मियवेरेणं पुट्ठे? जे पुरिसं मारेइ, से पुरिसवेरेणं पुट्ठे?
से नूनं गोयमा! कज्जमाणे Translated Sutra: भगवन् ! कोई पुरुष कच्छ में यावत् किसी मृग का वध करने के लिए कान तक ताने हुए बाण को प्रयत्न – पूर्वक खींच कर खड़ा हो और दूसरा कोई पुरुष पीछे से आकर उस खड़े हुए पुरुष का मस्तक अपने हाथ से तलवार द्वारा काट डाले। वह बाण पहले के खिंचाव से उछलकर उस मृग को बींध डाले, तो हे भगवन् ! वह पुरुष मृग के वैर से स्पृष्ट है या (उक्त) | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 91 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पुरिसे णं भंते! पुरिसं सत्तीए समभिसंधेज्जा, सयपाणिणा वा से असिणा सीसं छिंदेज्जा, ततो णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए?
गोयमा! जावं च णं से पुरिसे तं पुरिसं सत्तीए समभिधंसेति, सयपाणिणा वा से असिणा सीसं छिंदति–ताव च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, पारितावणियाए, पाणातिवात-किरियाए–पंचहिं किरियाहिं पुट्ठे।
आसन्नवधएण य अनवकंखणवत्तीए णं पुरिसवेरेणं पुट्ठे। Translated Sutra: भगवन् ! कोई पुरुष किसी पुरुष को बरछी (या भाले) से मारे अथवा अपने हाथ से तलवार द्वारा उस पुरुष का मस्तक काट डाले, तो वह पुरुष कितनी क्रिया वाला होता है ? गौतम ! जब वह पुरुष उसे बरछी द्वारा मारता है, अथवा अपने हाथ से तलवार द्वारा उस पुरुष का मस्तक काटता है, तब वह पुरुष कायिकी, आधिकर – णिकी यावत् प्राणातिपातिकी इन पाँचों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 92 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दो भंते! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिव्वया सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धिं संगामं संगामेंति तत्थ णं एगे पुरिसे पराइणति, एगे पुरिसे परायिज्जति। से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! सवीरिए परायिणति, अवीरिए परायिज्जति।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सवीरिए परायिणति? अवीरिए परायिज्जति?
गोयमा! जस्स णं वीरियवज्झाइं कम्माइं नो बद्धाइं नो पुट्ठाइं नो निहत्ताइं नो कडाइं नो पट्ठवियाइं नो अभिनिविट्ठाइं नो अभिसमन्नागयाइं नो उदिण्णाइं–उवसंताइं भवंति से णं परायिणति।
जस्स णं वीरियवज्झाइं कम्माइं बद्धाइं पुट्ठाइं निहत्ताइं कडाइं पट्ठवियाइं अभिनिविट्ठाइं अभि-समन्नागयाइं Translated Sutra: भगवन् ! एक सरीखे, एक सरीखी चमड़ी वाले, समानवयस्क, समान द्रव्य और उपकरण वाले कोई दो पुरुष परस्पर एक दूसरे के साथ संग्राम करें, तो उनमें से एक पुरुष जीतता है और एक पुरुष हारता है; भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? हे गौतम ! जो पुरुष सवीर्य होता है, वह जीतता है और जो वीर्यहीन होता है, वह हारता है ? भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-८ बाल | Hindi | 93 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीवा णं भंते! किं सवीरिया? अवीरिया?
गोयमा! सवीरिया वि, अवीरिया वि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–जीवा सवीरिया वि? अवीरिया वि?
गोयमा! जीवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–संसारसमावन्नगा य, असंसारसमावन्नगा य।
तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा। सिद्धा णं अवीरिया। तत्थ णं जे ते संसार-समावन्नगा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–सेलेसिपडिवन्नगा य, असेलेसिपडिवन्नगा य।
तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवन्नगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया।
तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवन्नगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया वि।
से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–जीवा Translated Sutra: भगवन् ! क्या जीव सवीर्य है अथवा अवीर्य है ? गौतम ! जीव सवीर्य भी है अवीर्य भी है। भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? गौतम ! जीव दो प्रकार के हैं – संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक। जो जीव असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध जीव हैं, वे अवीर्य हैं। जो जीव संसार – समापन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं, शैलेशी – प्रतिपन्न और | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 94 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कहन्नं भंते! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छति?
गोयमा! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिन्नादानेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं कोह-मान-माया-लोभ-पेज्ज -दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाय-अरति-रति-मायामोस-मिच्छादंसणसल्लेणं एवं खलु गोयमा! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छति।
कहन्नं भंते! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति?
गोयमा! पाणाइवाय-वेरमणेणं मुसावाय-वेरमणेणं अदिन्नादान-वेरमणेणं मेहुण-वेरमणेणं
परिग्गह-वेरमणेणं कोह-मान-माया-लोभ-पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुन्न-परपरिवाय-अरति रति-मायामोस-मिच्छादंसणसल्ल वेरमणेणं–एवं खलु गोयमा! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति।
कहन्नं भंते! जीवा संसारं आउलीकरेंति?
गोयमा! Translated Sutra: भगवन् ! जीव किस प्रकार शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात से, मृषावाद से, अदत्ता – दान से, मैथुन से, परिग्रह से, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, राग से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, रति – अरति से, परपरिवाद से, मायामृषा से और मिथ्यादर्शनशल्य से; इस प्रकार हे गौतम ! (इन अठारह ही पापस्थानों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 95 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सत्तमे णं भंते! ओवासंतरे किं गरुए? लहुए? गरुयलहुए? अगरुयलहुए?
गोयमा! नो गरुए, नो लहुए, नो गरुयलहुए, अगरुयलहुए।
सत्तमे णं भंते! तनुवाए किं गरुए? लहुए? गरुयलहुए? अगरुयलहुए?
गोयमा! नो गरुए, नो लहुए, गरुयलहुए, नो अगरुयलहुए।
एवं सत्तमे घनवाए, सत्तमे घनोदही, सत्तमा पुढवी।
ओवासंतराइं सव्वाइं जहा सत्तमे ओवासंतरे।
जहा तनुवाए एवं–ओवास-वाय-घनउदही, पुढवी दीवा य सागरा वासा।
नेरइया णं भंते! किं गरुया? लहुया? गरुयलहुया? अगरुयलहुया?
गोयमा! नो गरुया, नो लहुया, गरुयलहुया वि, अगरुयलहुया वि।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–नेरइया नो गरुया? नो लहुया? गरुयलहुया वि? अगरुयलहुया वि?
गोयमा! विउव्विय-तेयाइं Translated Sutra: भगवन् ! क्या सातवाँ अवकाशान्तर गुरु है, अथवा वह लघु है, या गुरुलघु है, अथवा अगुरुलघु है ? गौतम! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरु – लघु नहीं है, किन्तु अगुरुलघु है। भगवन् ! सप्तम तनुवात क्या गुरु है, लघु है या गुरुलघु है अथवा अगुरुलघु है ? गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किन्तु गुरु – लघु है; अगुरुलघु नहीं है। इस | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 96 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! लाघवियं अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही अपडिबद्धया समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं?
हंता गोयमा! लाघवियं अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही अपडिबद्धया समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं।
से नूनं भंते! अकोहत्तं अमानत्तं अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं?
हंता गोयमा! अकोहत्तं अमानत्तं अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं।
से नूनं भंते! कंखापदोसे खीणे समणे निग्गंथे अंतकरे भवति, अंतिमसरीरिए वा?
बहुमोहे वि य णं पुव्विं विहरित्ता अह पच्छा संवुडे कालं करेइ ततो पच्छा सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिनिव्वाति सव्वदुक्खाणं अंतं करेति?
हंता गोयमा! कंखापदोसे खीणे समणे निग्गंथे Translated Sutra: भगवन् ! क्या लाघव, अल्पईच्छा, अमूर्च्छा, अनासक्ति और अप्रतिबद्धता, ये श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं? हाँ, गौतम! लाघव यावत् अप्रतिबद्धता प्रशस्त हैं। भगवन् ! क्रोधरहितता, मानरहितता, मायारहितता, अलोभत्व, क्या ये श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं ? हाँ, क्रोधरहितता यावत् अलोभत्व, ये सब श्रमणनिर्ग्रन्थों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 97 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवेंति, एवं परूवेंति–एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउयाइं पकरेति, तं जहा–इहभवियाउयं च, परभवियाउयं च।
जं समयं इहभवियाउयं पकरेति, तं समयं परभवियाउयं पकरेति।
जं समयं परभवियाउयं पकरेति, तं समयं इहभवियाउयं पकरेति।
इहभवियाउयस्स पकरणयाए परभवियाउयं पकरेति,
परभवियाउयस्स पकरणयाए इहभवियाउयं पकरेति।
एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउयाइं पकरेति, तं जहा–इहभवियाउयं च, परभवियाउयं च।
से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! जण्णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउयाइं पकरेति, तं जहा–इहभ-वियाउयं च, परभवियाउयं Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार विशेषरूप से कहते हैं, इस प्रकार बताते हैं, और इस प्रकार की प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव एक समय में दो आयुष्य करता (बाँधता) है। वह इस प्रकार – इस भव का आयुष्य और परभव का आयुष्य। जिस समय इस भव का आयुष्य करता है, उस समय परभव का आयुष्य करता है और जिस समय परभव का आयुष्य करता | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 99 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भंते ति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासी–से नूनं भंते! सेट्ठियस्स य तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ?
हंता गोयमा! सेट्ठियस्स य तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सेट्ठियस्स य तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ?
गोयमा! अविरतिं पडुच्च। से तेणट्ठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ–सेट्ठियस्स य तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ। Translated Sutra: भगवन् ! ऐसा कहकर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन – नमस्कार किया। तत्पश्चात् वे इस प्रकार बोले – भगवन् ! क्या श्रेष्ठी और दरिद्र को, रंक को और क्षत्रिय को अप्रत्याख्यान क्रिया समान होती है ? हाँ, गौतम ! श्रेष्ठी यावत् क्षत्रिय राजा के द्वारा अप्रत्याख्यान क्रिया समान की जाती है; भगवन् ! आप | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 100 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आहाकम्मं णं भुंजमाणे समणे निग्गंथे किं बंधइ? किं पकरेइ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ?
गोयमा! आहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ सिढिलबंधनबद्धाओ धनियबंधनबद्धाओ पकरेइ, हस्स कालठिइयाओ दीहकालठिइयाओ पकरेइ, मंदानुभावाओ तिव्वा-नुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो-भुज्जो उवचिणाइ, अनाइयं च णं अनवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अनुपरियट्टइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–आहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ सिढिलबंधनबद्धाओ धनियबंधनबद्धाओ पकरेइ जाव चाउरंतं Translated Sutra: भगवन् ! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमणनिर्ग्रन्थ क्या बाँधता है ? क्या करता है? किसका चय (वृद्धि) करता है, और किसका उपचय करता है ? गौतम ! आधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमणनिर्ग्रन्थ आयुकर्म को छोड़कर शिथिलबन्धन से बंधी हुई सात कर्मप्रकृतियों को दृढ़ – बन्धन से बंधी हुई बना लेता | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-९ गुरुत्त्व | Hindi | 101 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से नूनं भंते! अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ? अथिरे भज्जइ, नो थिरे भज्जइ? सासए बालए, बालियत्तं असासयं? सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं?
हंता गोयमा! अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ। अथिरे भज्जइ, नो थिरे भज्जइ। सासए बालए, बालियत्तं असासयं। सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं।
सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ। Translated Sutra: | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१० चलन | Hindi | 102 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवेंति, एवं परूवेंति –
एवं खलु चलमाणे अचलिए। उदीरिज्जमाणे अनुदीरिए। वेदिज्जमाणे अवेदिए। पहिज्जमाणे अपहीने। छिज्जमाणे अच्छिन्ने भिज्जमाणे अभिन्ने। दज्झमाणे अदड्ढे। भिज्जमाणे अमए। निज्जरिज्जमाणे अनिज्जिण्णे।
दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति,
कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति?
दोण्हं परमाणुपोग्गलाणं नत्थि सिनेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति।
तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति,
कम्हा तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति?
तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिनेहकाए, तम्हा तिन्नि Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि – जो चल रहा है, वह अचलित है – चला नहीं कहलाता और यावत् – जो निर्जीर्ण हो रहा है, वह निर्जीर्ण नहीं कहलाता। दो परमाणुपुद्गल एक साथ नहीं चिपकते। दो परमाणुपुद्गल एक साथ क्यों नहीं चिपकते ? इसका कारण यह है कि दो परमाणु – पुद्गलों में | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१० चलन | Hindi | 103 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवेंति, एवं परूवेंति–एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा–इरियावहियं च, संपराइयं च।
जं समयं इरियावहियं पकरेइ, तं समयं संपराइयं पकरेइ।
जं समयं संपराइयं पकरेइ, तं समयं इरियावहियं पकरेइ।
इरियावहियाए पकरणयाए संपराइयं पकरेइ।
संपराइयाए पकरणयाए इरियावहियं पकरेइ।
एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा–इरियावहियं च, संपराइयं च।
से कहमेयं भंते! एवं?
गोयमा! जण्णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पन्नवेंति, एवं परूवेंति–एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, जाव इरियावहियं Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं – यावत् प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएं करता है। वह इस प्रकार – ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी। जस समय (जीव) एर्यापथिकी क्रिया करता है, उस समय साम्परायिकी क्रिया करता है और जिस समय साम्परायिकी क्रिया करता है, उस समय ऐर्यापथिकी क्रिया करता है। ऐर्यापथिकी | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-१ |
उद्देशक-१० चलन | Hindi | 104 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] निरयगई णं भंते! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता?
गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता।
एवं वक्कंतीपयं भाणियव्वं निरवसेसं।
सेवं भंते! सेवं भंते त्ति जाव विहरइ। Translated Sutra: भगवन् ! नरकगति कितने समय तक उपपात से विरहित रहती है ? गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त तक नरकगति उपपात से रहित रहती है। इसी प्रकार यहाँ ‘व्युत्क्रान्तिपद’ कहना चाहिए। ‘हे भगवन् ! यह ऐसा ही है।’ | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 106 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। भगवान महावीर स्वामी (वहाँ) पधारे। उनका धर्मोपदेश सूनने के लिए परीषद् नीकली। भगवान ने धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश सूनकर परीषद् वापिस लौट गई। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) श्री इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत् – भगवान की पर्युपासना | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 107 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किण्णं भंते! एते जीवा आणमंति वा? पाणमंति वा? ऊससंति वा? नीससंति वा?
गोयमा! दव्वओ अनंतपएसियाइं दव्वाइं, खेत्तओ असंखेज्जपएसोगाढाइं, कालओ अन्नयर-ठितियाइं, भावओ वण्णमंताइं गंधमंताइं रसमंताइं फासमंताइं आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा।
जाइं भावओ वण्णमंताइं आणमंति वा, पाणमंति वा ऊससंति वा, नीससंति वा ताइं किं एगवण्णाइं जाव किं पंच-वण्णाइं आणमंति वा? पाणमंति वा? ऊससंति वा? नीससंति वा?
गोयमा! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाइं पि जाव पंचवण्णाइं पि आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा। विहाणमग्गणं पडुच्च कालवण्णाइं पि जाव सुक्किलाइं पि आणमंति वा, पणमंति वा, ऊससंति Translated Sutra: भगवन् ! ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव, किस प्रकार के द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं, तथा निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा अनन्तप्रदेश वाले द्रव्यों को, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्येयप्रदेशों में रहे हुए द्रव्यों को, काल की अपेक्षा किसी भी प्रकार की स्थिति | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 108 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] वाउयाए णं भंते! वाउयाए चेव आणमंति वा? पाणमंति वा? ऊससंति वा? नीससंति वा?
हंता गोयमा! वाउयाए णं वाउयाए चेव आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा।
वाउयाए णं भंते! वाउयाए चेव अनेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाति?
हंता गोयमा! वाउयाए णं वाएयाए चेव अनेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाति।
से भंते! किं पुट्ठे उद्दाति? अपुट्ठे उद्दाति?
गोयमा! पुट्ठे उद्दाति, नो अपुट्ठे उद्दाति।
से भंते! किं ससरीरी निक्खमइ? असरीरी निक्खमइ?
गोयमा! सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय असरीरी निक्खमइ।
से केणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ–सिय Translated Sutra: हे भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकायों की ही बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? हाँ, गौतम ! वायुकाय, वायुकायों को ही बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है। भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाख बार मरकर पुनः पुनः (वायुकाय में ही) उत्पन्न | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 109 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मडाई णं भंते! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवपवंचे, नो पहीणसंसारे, नो पहीणसंसारवेयणिज्जे, नो वोच्छिन्नसंसारे, नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे, नो निट्ठियट्ठे, नो निट्ठियट्ठकरणिज्जे पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ?
हंता गोयमा! मडाई णं नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवपवंचे, नो पहीणसंसारे, नो पहीण-संसारवेयणिज्जे, नो वोच्छिन्नसंसारे, नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे, नो निट्ठियट्ठे, नो निट्ठियट्ठ-करणिज्जे पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ। Translated Sutra: भगवन् ! जिसने संसार का निरोध नहीं किया, संसार के प्रपंचों का निरोध नहीं किया, जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार – वेदनीय कर्म क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जिसका संसार – वेदनीय कर्म व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जो निष्ठितार्थ नहीं हुआ, जिसका कार्य समाप्त नहीं हुआ; ऐसा मृतादी (अचित्त, निर्दोष | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 110 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से णं भंते! किं ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! पाणे त्ति वत्तव्वं सिया। भूए त्ति वत्तव्वं सिया। जीवे त्ति वत्तव्वं सिया। सत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। विण्णु त्ति वत्तव्वं सिया। वेदे त्ति वत्तव्वं सिया। पाणे भूए जीवे सत्ते विण्णू वेदे त्ति वत्तव्वं सिया।
से केणट्ठेणं पाणे त्ति वत्तव्वं सिया जाव वेदे त्ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा, उस्ससइ वा, नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव्वं सिया।
जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए त्ति वत्तव्वं सिया।
जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तव्वं सिया।
जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहिं तम्हा Translated Sutra: भगवन् ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए ? गौतम ! उसे कदाचित् ‘प्राण’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘भूत’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘जीव’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘सत्य’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘विज्ञ’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘वेद’ कहना चाहिए, कदाचित् ‘प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, विज्ञ और वेद’ कहना चाहिए। हे भगवन् | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 111 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मडाई णं भंते! नियंठे निरुद्धभवे, निरुद्धभवपवंचे, पहीणसंसारे, पहीणसंसारवेयणिज्जे, वोच्छिन्न-संसारे, वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे, निट्ठियट्ठे, निट्ठियट्ठकरणिज्जे नो पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ?
हंता गोयमा! मडाई णं नियंठे निरुद्धभवे, निरुद्धभवपवंचे, पहीणसंसारे, पहीणसंसार-वेयणिज्जे, वोच्छिन्न-संसारे, वोच्छिन्न-संसारवेयणिज्जे, निट्ठियट्ठे, निट्ठियट्ठ-करणिज्जे नो पुनरवि इत्थत्थं हव्वमागच्छइ।
से णं भंते! किं ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! सिद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। बुद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। मुत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। पारगए त्ति वत्तव्वं सिया। परंपरगए त्ति वत्तव्वं Translated Sutra: भगवन् ! जिसने संसार का निरोध किया है, जिसने संसार के प्रपंच का निरोध किया है, यावत् जिसने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है, ऐसा प्रासुकभोजी अनगार क्या फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता ? हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला निर्ग्रन्थ अनगार फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता। हे भगवन् ! पूर्वोक्त स्वरूपवाले | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 112 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइआओ पडिनिक्खमइ,
पडिनिक्खमित्ता बहिया जनवयविहारं विहरइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं कयंगला नामं नगरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए छत्तपलासए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तए णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिने केवली जेणेव कयंगला नगरी जेणेव छत्तपलासए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ जाव समोसरणं। परिसा निग्गच्छइ।
तीसे णं कयंगलाए नयरीए अदूरसामंते सावत्थी नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तत्थ Translated Sutra: उस काल उस समय में कृतंगला नामकी नगरी थी। उस कृतंगला नगरी के बाहर ईशानकोण में छत्रपला – शक नामका चैत्य था। वहाँ किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान – केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। यावत् – भगवान का समवसरण हुआ। परीषद् धर्मोपदेश सूनने के लिए नीकली। उस कृतंगला नगरी के निकट श्रावस्ती नगरी थी। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-१ उच्छवास अने स्कंदक | Hindi | 117 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं अनगारं कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउसग्गं करेंति, करेत्ता पत्तचीवराणि गेण्हंति, गेण्हित्ता विपुलाओ पव्वयाओ सणियं-सणियं पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति नमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
एवं खलु देवानुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नामं अनगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विनीए।
से णं देवानुप्पिएहिं अब्भ णुण्णाए समाणे सयमेव पंच महव्वयाणि आरुहेत्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, अम्हेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं Translated Sutra: तत्पश्चात् उन स्थविर भगवंतों ने स्कन्दक अनगार को कालधर्म प्राप्त हुआ जानकर उनके परिनिर्वाण सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया। फिर उनके पात्र, वस्त्र आदि उपकरणों को लेकर वे विपुलगिरि से शनैः शनैः नीचे ऊतरे। ऊतरकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए। भगवान को वन्दना – नमस्कार करके उन स्थविर मुनियों | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-२ समुदघात | Hindi | 118 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! समुग्घाया पन्नत्ता?
गोयमा! सत्त समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा–१. समुग्घाए २. कसायसमुग्घाए ३. मारणंतिय-समुग्घाए ४. वेउव्वियसमुग्घाए ५. तेजससमुग्घाए ६. आहारगसमुग्घाए ७. केवलियसमुग्घाए। छाउमत्थियसमुग्घायवज्जं समुग्घायपदं नेयव्वं। Translated Sutra: भगवन् ! कितने समुद्घात कहे गए हैं ? गौतम ! समुद्घात सात कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं – वेदना – समुद्घात, कषाय – समुद्घात, मारणान्तिक – समुद्घात, वैक्रिय – समुद्घात, तैजस – समुद्घात, आहारक – समुद्घात और केवली – समुद्घात। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का छत्तीसवा समुद्घातपद कहना चाहिए, किन्तु उसमें प्रतिपादित | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 119 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ?
गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–१. रयणप्पभा २. सक्करप्पभा ३. बालुयप्पभा ४. पंकप्पभा ५. धूमप्पभा ६. तमप्पभा ७. तमतमा।
जीवाभिगमे नेरइयाणं जो बितिओ उद्देसो सो नेयव्वो जाव– Translated Sutra: भगवन् ! पृथ्वीयाँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में नैरयिक उद्देशक में पृथ्वीसम्बन्धी जो वर्णन है, वह सब यहाँ जान लेना चाहिए। वहाँ उनके संस्थान, मोटाई आदि का तथा यावत् – अन्य जो भी वर्णन है, वह सब यहाँ कहना। पृथ्वी, नरकावास का अंतर, संस्थान, बाहल्य, विष्कम्भ, परिक्षेप, वर्ण, गंध और स्पर्श (यह सब कहना चाहिए)। सूत्र | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-३ पृथ्वी | Hindi | 121 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] किं सव्वे पाणा उववन्नपुव्वा?
हंता गोयमा! असइं अदुवा अनंतखुत्तो। Translated Sutra: भगवन् ! क्या सब जीव उत्पन्नपूर्व हैं ? हाँ, गौतम ! सभी जीव रत्नप्रभा आदि नरकपृथ्वीयों में अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चूके हैं। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-४ ईन्द्रिय | Hindi | 122 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कइ णं भंते! इंदिया पन्नत्ता?
गोयमा! पंच इंदिया पन्नत्ता, तं जहा–१. सोइंदिए २. चक्खिंदिए ३. घाणिंदिए ४. रसिंदिए ५. फासिंदिए। पढमिल्लो इंदियउद्देसओ नेयव्वो जाव–
अलोगे णं भंते! किणा फुडे? कतिहिं वा काएहिं फुडे?
गोयमा! नो धमत्थिकाएणं फुडे जाव नो आगासत्थिकाएणं फुडे, आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे आगासत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे, नो पुढविकाइएणं फुडे जाव नो अद्धासमएणं फुडे, एगे अजीवदव्वदेसे अगुरुलहुए अनंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वगासे अनंतभागूणे। Translated Sutra: भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! पाँच। श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के, इन्द्रियपद का प्रथम उद्देशक कहना। उसमें कहे अनुसार इन्द्रियों का संस्थान, बाहल्य, चौड़ाई, यावत् अलोक तक समग्र इन्द्रिय – उद्देशक कहना चाहिए। | |||||||||
Bhagavati | भगवती सूत्र | Ardha-Magadhi |
शतक-२ |
उद्देशक-५ अन्यतीर्थिक | Hindi | 123 | Sutra | Ang-05 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति भासंति पण्णवंति परूवेंति–
१. एवं खलु नियंठे कालगए समाणे देवब्भूएणं अप्पाणेणं से णं तत्थ नो अन्ने देवे, नो अन्नेसिं देवाणं देवीओ आभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, नो अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ, अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउ-व्विय परियारेइ।
२. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा–इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च।
जं समयं इत्थिवेयं वेएइ तं समयं पुरिसवेयं वेएइ।
इत्थिवेयस्स वेयणाए पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स वेयणाए इत्थिवेयं वेएइ।
एवं खलु एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा– इत्थिवेदं च, Translated Sutra: भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बताते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि कोई भी निर्ग्रन्थ मरने पर देव होता है और वह देव, वहाँ दूसरे देवों के साथ, या दूसरे देवों की देवियों के साथ, उन्हें वश में करके या उनका आलिंगन करके, परिचारणा नहीं करता, तथा अपनी देवियों को वशमें करके या आलिंगन करके उनके साथ भी |