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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
9. उपगूहनत्व (अनहंकारत्व) | Hindi | 63 | View Detail | ||
Mool Sutra: विरलः अर्जयति पुण्यं, सम्यग्दृष्टिः व्रतैः संयुक्तः।
उपशमभावेनसहितः, निन्दनगर्हाभ्यां संयुक्तः ।। Translated Sutra: व्रत, संयम आदि से युक्त कोई विरला सम्यग्दृष्टि जीव ही ऐसे पुण्य का उपार्जन करता है कि उपशम भाव में स्थित रहता हुआ सदा अपने दोषों के लिए आत्म-निन्दन व आत्म-गर्हण करता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
10. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) | Hindi | 64 | View Detail | ||
Mool Sutra: न सत्कृतमिच्छति न पूजां, नोऽपि च वन्दनकं कुतः प्रशंसाम्?
सः संयतः सुव्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषकः स भिक्षुः ।। Translated Sutra: जो सत्कार तथा पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं करता, नमस्कार तथा वन्दना आदि की भावना नहीं करता, उसके लिए प्रशंसा सुनने का प्रश्न ही कहाँ? वह संयत है, सुव्रत है, तपस्वी है, आत्म-गवेषक है और वही भिक्षु है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
10. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) | Hindi | 66 | View Detail | ||
Mool Sutra: घोटकलिंडसमानस्य, तस्याभ्यन्तरे कुथितस्य।
बाह्यकरणं किं तस्य, करिष्यति वकनिभृतकरणस्य ।। Translated Sutra: बगुले की चेष्टा के समान अन्तरंग में जो कषाय से मलिन है, ऐसे साधु की बाह्य क्रिया किस काम की? वह तो घोड़े की लीद के समान है, जो ऊपर से चिकनी और भीतर से दुर्गन्धयुक्त होती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
10. उपवृंहणत्व (अदम्भित्व) | Hindi | 68 | View Detail | ||
Mool Sutra: तीर्णः खलु असि अर्णवं महान्तं, किं पुनः तिष्ठसि तीरमागतः।
अभित्वर पारं गन्तुम्, समयं गौतम! मा प्रमादये ।। Translated Sutra: तू इस विशाल संसार-सागर को तैर चुका है। (गोखुर में डूबने की भाँति) अब किनारा हाथ आ जाने पर भी (झूठी मान-प्रतिष्ठा मात्र के लिए) क्यों अटक रहा है? शीघ्र पार हो जा। हे गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर। | |||||||||
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
16. भाव-संशुद्धि | Hindi | 76 | View Detail | ||
Mool Sutra: मदमानमायलोभविवर्जितभावस्तु भावशुद्धिरिति।
परिकथितो भव्यानां, लोकालोकप्रदर्शिभिः ।। Translated Sutra: लोकालोकदर्शी सर्वज्ञ भगवान् ने, भव्यों के मद मान माया व लोभविवर्जित निर्मल भाव को भाव-शुद्धि कहा है। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
8. अध्यात्मज्ञान के लिंग | Hindi | 95 | View Detail | ||
Mool Sutra: नाशीलः न विशीलो, न स्यादतिलोलुपः।
अक्रोधनः सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते ।। Translated Sutra: अशील न हो अर्थात् सुशील हो, बार-बार आचार को बदलनेवाला विशील न हो, रसलोलुप तथा क्रोधी न हो, सत्यपरायण हो। इन गुणों से व्यक्ति शिक्षाशील कहलाता है। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
10. अनित्य व अशरण संसार | Hindi | 101 | View Detail | ||
Mool Sutra: अम्भोबुद्बुदसंनिभा तनुरियं, श्रीरिन्द्रजालोपमा।
दुर्वाताहतवारिवाहसदृशाः, कान्तार्थपुत्रादयः ।। Translated Sutra: यह शरीर जलबुद्बुद के समान अनित्य है तथा लक्ष्मी इन्द्रजाल के समान चंचल। स्त्री, धन व पुत्रादि आँधी से आहत जल-प्रवाहवत् अति वेग से नाश की ओर दौड़े जा रहे हैं। वैषयिक सुख काम से मत्त स्त्री की भाँति तरल हैं अर्थात् विश्वास के योग्य नहीं हैं। इसलिए समस्त उपद्रवों के स्थानभूत इनके विषय में शोक करने से क्या लाभ है? | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
10. अनित्य व अशरण संसार | Hindi | 102 | View Detail | ||
Mool Sutra: सौख्यं वैषयिकं सदैव तरलं, मत्तांगनापाङ्गवत्।
तस्मादेतदुपप्लवाप्तिविषये, शोकेन किं किं मुदा ।। Translated Sutra: कृपया देखें १०१; संदर्भ १०१-१०२ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
14. लोक-स्वरूप चिन्तन | Hindi | 111 | View Detail | ||
Mool Sutra: अशुभेन निरयतिर्यंचं, शुभोपयोगेन दिविज-नर-सौख्यम्।
शुद्धेन लभते सिद्धिं एवं लोक विचिन्तनीयः ।। Translated Sutra: अशुभ उपयोग से नरक व तिर्यंच लोक की प्राप्ति होती है, शुभोपयोग से देवों व मनुष्यों के सुख मिलते हैं, और शुद्धोपयोग से मोक्षलाभ होता है। इस प्रकार लोक-भावना का चिन्तवन करना चाहिए। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
15. बोधि-दुर्लभ भावना | Hindi | 112 | View Detail | ||
Mool Sutra: मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रुतिर्धर्मस्य दुर्लभा।
यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिम् अहिंस्रताम् ।। Translated Sutra: (चतुर्गति रूप इस संसार में भ्रमण करते हुए प्राणी को मनुष्य तन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है) सौभाग्यवश मनुष्य जन्म पाकर भी श्रुत चारित्र रूप धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसको सुनकर प्राणी तप, कषाय-विजय व अहिंसादि युक्त संयम को प्राप्त कर लेते हैं। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
15. बोधि-दुर्लभ भावना | Hindi | 113 | View Detail | ||
Mool Sutra: कदाचित् श्रवणं लब्ध्वा, श्रद्धा परमदुर्लभा।
श्रुत्वा नैयायिकं मार्गं, बहवः परिभ्रश्यन्ति ।। Translated Sutra: कदाचित् धर्म-श्रवण का लाभ हो जाय तो भी धर्म में श्रद्धा होना दुर्लभ है, क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि रूप इस न्याय-मार्ग को सुनकर भी अनेक व्यक्ति (श्रद्धायुक्त चारित्र अंगीकार करने के बजाय ज्ञानाभिमानवश स्वच्छन्द व) पथ-भ्रष्ट होते देखे जाते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
15. बोधि-दुर्लभ भावना | Hindi | 114 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रुतिं च लब्ध्वा श्रद्धां च, वीर्यं पुनर्दुर्लभम्।
बहवः रोचमानाऽपि, नो च तत् प्रतिपद्यन्ते ।। Translated Sutra: और यदि बड़े भाग्य से सुनकर श्रद्धा हो जाय तो भी चारित्र पालने के लिए वीर्योल्लास का होना दुर्लभ है। क्योंकि अनेक व्यक्ति सद्धर्म का ज्ञान व रुचि होते हुए भी उसका आचरण करने में समर्थ नहीं होते हैं। | |||||||||
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग) |
6. समता-सूत्र (स्थितप्रज्ञता) | Hindi | 127 | View Detail | ||
Mool Sutra: लाभालाभे सुखे दुःखे, जीविते मरणे तथा।
समः निन्दाप्रशंसयोः, तथा मानापमानयोः ।। Translated Sutra: लाभ व अलाभ में, सुख व दुःख में, जीवन व मरण में, निन्दा व प्रशंसा में तथा मान व अपमान में भिक्षु सदा समता रखे। (यही साधु का सामायिक नामक चारित्र है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग) |
6. समता-सूत्र (स्थितप्रज्ञता) | Hindi | 128 | View Detail | ||
Mool Sutra: य इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञाः, न तेषु भावं निसृजेत् कदापि।
न चामनोज्ञेषु मनोऽपि कुर्यात्, समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी ।। Translated Sutra: समाधि का इच्छुक तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग न करे और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष भी न करे। | |||||||||
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग) |
7. वैराग्य-सूत्र (संन्यास-योग) | Hindi | 132 | View Detail | ||
Mool Sutra: भावे विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुःखौघपरम्परया।
न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ।। Translated Sutra: जो व्यक्ति भाव से विरक्त है, और दुःखों की परम्परा के द्वारा जिसके चित्त में मोह व शोक उत्पन्न नहीं होता है, वह इस संसार में रहते हुए भी, उसी प्रकार अलिप्त रहता है, जिस प्रकार जल के मध्य कमलिनी का पत्ता। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग) |
8. परीषह-जय (तितिक्षा सूत्र) | Hindi | 137 | View Detail | ||
Mool Sutra: स अपि परीषहविजयः, क्षुधादिपीडानाम् अतिरौद्राणाम्।
श्रमणानां च मुनीनां, उपसमभावेन यत् सहनम् ।। Translated Sutra: अत्यन्त दारुण क्षुधा आदि की वेदना को जो ज्ञानी मुनि शान्त भाव से सहन करता है, उसे परीषहजय कहते हैं। | |||||||||
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
1. व्यवहार-चारित्र निर्देश | Hindi | 139 | View Detail | ||
Mool Sutra: अशुभात् विनिवृत्तिः, शुभे प्रवृत्तिः च जानीहि चारित्रम्।
व्रतसमितिगुप्तिरूपं, व्यवहारनयात् तु जिनभणितम् ।। Translated Sutra: अशुभ कार्यों से निवृत्ति तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति, यह व्यवहार नय से चारित्र का लक्षण है। वह पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति, ऐसे तेरह प्रकार का है। | |||||||||
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
5. अप्रमाद-सूत्र | Hindi | 155 | View Detail | ||
Mool Sutra: वित्तेन त्राणं न लभेत् प्रमतः अस्मिन् लोके अदो वा परत्र।
दीपप्रणष्टे इव अनन्तमोहः नैयायिकं दृष्ट्वा अदृष्ट्वा एव ।। Translated Sutra: प्रमादी पुरुष इस लोक में या परलोक में धन-ऐश्वर्य आदि से संरक्षण नहीं पाता। जिसका अभ्यन्तर दीपक बुझ गया है, ऐसा अनन्त मोहवाला प्रमत्त प्राणी न्यायमार्ग को देखकर भी देख नहीं पाता है। (अर्थात् शास्त्रों से जानकर भी जीवन में उसका अनुभव कर नहीं पाता है।) | |||||||||
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
5. अप्रमाद-सूत्र | Hindi | 158 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी, न विश्वसेत् पण्डित आशुप्रज्ञः।
घोरा मुहूर्ता अबलं शरीरं, भारण्डपक्षीव चरेदप्रमत्तः ।। Translated Sutra: कर्तव्याकर्तव्य का शीघ्र ही निर्णय कर लेनेवाले तथा धर्म के प्रति सदा जागृत रहनेवाले पण्डित जन, आत्महित के प्रति सुप्त संसारी जीवों का कभी विश्वास नहीं करते। काल को भयंकर और शरीर को निर्बल जानकर वे सदा भेरण्ड पक्षी की भाँति सावधान रहते हैं। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
3. अहिंसा-सूत्र | Hindi | 166 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागादीनामनुत्पादः अहिंसकत्वमिति देशितं समये।
तेषां चैवोत्पत्तिः हिंसेति जिनेन निर्दिष्टा ।। Translated Sutra: रागद्वेषादि परिणामों का मन में उत्पन्न न होना ही शास्त्र में `अहिंसा' कहा गया है। और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। [प्रश्न-यदि ऐसा है तो बड़े से बड़ा हिंसक भी अपने को रागद्वेष-विहीन कह कर छुट्टी पा लेगा?] | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
4. सत्य-सूत्र | Hindi | 169 | View Detail | ||
Mool Sutra: पथ्यं हृदयानिष्टमपि, भण्यमाणस्य स्वगणवसतः।
कटुकमिवौषधं तु, मधुरविपाकं भवति तस्य ।। Translated Sutra: हे मुनियो! तुम अपने संघवालों के साथ हितकर वचन बोलो। यदि कदाचित् वे हृदय को अप्रिय भी लगें, तो भी कोई हर्ज नहीं। क्योंकि कटुक औषधि भी परिणाम में मधुर व कल्याणकर ही होती है। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
6. ब्रह्मचर्य-सूत्र | Hindi | 175 | View Detail | ||
Mool Sutra: एताश्च संगान् समतिक्रम्य, सुखोत्तराश्चैव भवन्ति शेषाः।
यथा महासागरमुत्तीर्य, नदी भवेदपि गंगासमाना ।। Translated Sutra: जिस प्रकार महासागर को तिर जाने वाले के लिए गंगा नदी का तिरना अति सुलभ है, उसी प्रकार स्त्री-संग के त्यागी महात्मा के लिए अन्य सर्व त्याग सरल हो जाते हैं। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
7. परिग्रह-त्याग-सूत्र | Hindi | 176 | View Detail | ||
Mool Sutra: न कामभोगाः समतामुपयन्ति, न चापि भोगाः विकृतिमुपयन्ति।
यः तत्प्रद्वेषी च परिग्रही च, स तेषु मोहात् विकृतिमुपैति ।। Translated Sutra: काम-भोग अपने आप न किसी में समता उत्पन्न करते हैं और न रागद्वेष रूप विषमता। मनुष्य स्वयं उनके प्रति रागद्वेष करके उनका स्वामी व भोगी बन जाता है, और मोहवश विकार-ग्रस्त हो जाता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
7. परिग्रह-त्याग-सूत्र | Hindi | 178 | View Detail | ||
Mool Sutra: सामिषं कुललं दृष्ट्वा, बाध्यमानं निरामिषम्।
आमिषं सर्वमुज्झित्वा, विहरिष्यामि निरामिषा ।। Translated Sutra: एक पक्षी के मुँह में मांस का टुकड़ा देखकर दूसरे अनेक पक्षी उस पर टूट पड़ते हैं, किन्तु मांस का टुकड़ा छोड़ देने पर वह सुखी हो जाता है। इसी प्रकार दीक्षार्थी साधु भी समस्त परिग्रह को छोड़कर निरामिष हो जाता है। (परिग्रह के कारण से उत्पन्न होने वाले अनेक विघ्न व संकट, परिग्रह का त्याग कर देने से सहज टल जाते हैं।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 191 | View Detail | ||
Mool Sutra: ईर्याभाषैणाऽऽदाने उच्चारे समितिः इति।
मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः कायगुप्तिश्च अष्टमी ।। Translated Sutra: (चलने बोलने खाने आदि में यत्नाचार पूर्वक बरतना समिति कहलाती है।) वह पाँच प्रकार की है-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उच्चार प्रतिष्ठापन। मन वचन व काय को वश में रखना ये तीन गुप्तियाँ हैं। पंच समितियाँ तो चारित्र के क्षेत्र में प्रवृत्ति परक हैं और गुप्तियाँ समस्त अशुभ व्यापारों के प्रति निवृत्तिपरक हैं। संदर्भ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 192 | View Detail | ||
Mool Sutra: एताः पंचसमितयः चरणस्य च प्रवर्त्तने।
गुप्तयः निवर्तने प्रोक्ताः अशुभार्थेषु सर्वशः ।। Translated Sutra: कृपया देखें १९१; संदर्भ १९१-१९२ | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 193 | View Detail | ||
Mool Sutra: प्रासुकमार्गेण दिवा युगन्तरप्रेक्षिणा सकार्येण।
जन्तून परिहरता ईर्यासमितिः भवेद् गमनम् ।। Translated Sutra: जिसमें जीव-जन्तुओं का आना-जाना प्रारम्भ हो गया है, ऐसे प्रासुक मार्ग से, दिन के समय अर्थात् सूर्य के प्रकाश में, चार हाथ परिमाण भूमि को आगे देखते हुए चलना, ईर्या समिति कहलाता है। (कोई क्षुद्र जीव पाँव के नीचे आकर मर न जाये ऐसा प्रयत्न रखना ईर्या समिति है)। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 194 | View Detail | ||
Mool Sutra: पैशून्यहास्यकर्कश-परनिन्दाऽऽत्मप्रशंसाविकथादीन्।
वर्जयित्वा स्वपरहितं भाषासमितिः भवेत् कथनम् ।। Translated Sutra: (किसीको मेरे वचन से कोई पीड़ा न पहुँचे, इस उद्देश्य से साधु)- पैशून्य, उपहास, कर्कश, पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा, राग-द्वेष-वर्धक चर्चाएँ, आदि स्व-पर अनिष्टकारी जितने भी वचन हो सकते हैं, उन सबका त्याग करके, प्रयत्नपूर्वक स्व-पर हितकारी ही वचन बोलता है। यही उसकी भाषा समिति है। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 196 | View Detail | ||
Mool Sutra: चक्षुषा प्रतिलेख्य, प्रमार्जयेत् यतो यतिः।
आददाति निक्षिपेद् वा, द्विधाऽपि समितः सदा ।। Translated Sutra: साधु के पास अन्य तो कोई परिग्रह होता ही नहीं। संयम व शौच के उपकरणभूत रजोहरण, कमण्डलु, पुस्तक आदि मात्र होते हैं। उन्हें उठाते-धरते समय वह स्थान को भली प्रकार झाड़ लेता है, ताकि उनके नीचे दबकर कोई क्षुद्र जीव मर न जाय। उसकी यह यतना ही आदान निक्षेपण समिति कहलाती है। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 197 | View Detail | ||
Mool Sutra: एकान्ते अचित्ते दूरे गूढे विशाले अविरोधे।
उच्चारादित्यागः प्रतिष्ठापनिका भवेत्समितिः ।। Translated Sutra: [पास-पड़ोस के किसी भी व्यक्ति को अथवा भूमि में रहने वाले क्षुद्र जीवों को कोई कष्ट न हो तथा गाँव में गन्दगी न फैले, इस उद्देश्य से] साधु अपने मल-मूत्रादि का क्षेपण किसी ऐसे स्थान में करता है, जो एकान्त में हो, जिस पर या जिसमें क्षुद्र जीव न घूम-फिर या रह रहे हों, जो दूसरों की दृष्टि से ओझल हो, विशाल हो और जहाँ कोई मना | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
11. गुप्ति (आत्म-गोपन सूत्र) | Hindi | 198 | View Detail | ||
Mool Sutra: या रागादिनिवृत्तिर्मनसो जानीहिं तां मनोगुप्तिं।
अलीकादिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वचोगुप्तिः ।। Translated Sutra: मन का राग-द्वेष से निवृत्त होकर (समताभाव में स्थित हो जाना) मनोगुप्ति है। असत्य व अनिष्टकारी वचनों की निवृत्ति अथवा मौन वचन-गुप्ति है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
11. गुप्ति (आत्म-गोपन सूत्र) | Hindi | 199 | View Detail | ||
Mool Sutra: कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः।
हिंसादिनिवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिर्भवति एषा ।। Translated Sutra: समस्त कायिकी क्रियाओं की निवृत्ति अथवा कायोत्सर्ग निश्चय काय-गुप्ति है और हिंसा-असत्य आदि पाप-क्रियाओं की निवृत्ति व्यवहार काय-गुप्ति है। | |||||||||
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
1. तपोग्नि-सूत्र | Hindi | 207 | View Detail | ||
Mool Sutra: तस्माद्वीर्य समुद्रेकादिच्छारोधस्तपो विदुः।
बाह्य वाक्कायसम्भूतमान्तरं मानसं स्मृतम् ।। Translated Sutra: आत्म-बल का उद्रेक हो जाने के कारण योगी की समस्त इच्छाएँ निरुद्ध हो जाती हैं। उसे ही परमार्थतः तप जानना चाहिए। वह दो प्रकार का होता है- बाह्य व आभ्यन्तर। कायिक व वाचसिक तप बाह्य है और मानसिक आभ्यन्तर। | |||||||||
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
3. विविक्त देश-सेवित्व | Hindi | 210 | View Detail | ||
Mool Sutra: लौकिकजनसंसर्गात्, भवति मतिमुखर-कुटिलदुर्भावः।
लौकिकसंसर्गं तस्मात्, योगी अपि त्रिविधेन मुंचेत् ।। Translated Sutra: लौकिक मनुष्यों की संगति से मनुष्य अधिक बोलने वाला वतक्कड़, कुटिल परिणाम और दुष्ट भावों से प्रायः अत्यन्त क्रूर हो जाते हैं। इसलिए, मुमुक्षु जनों को मन वचन काय से लौकिक संगति का त्याग कर देना चाहिए। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
3. विविक्त देश-सेवित्व | Hindi | 211 | View Detail | ||
Mool Sutra: एकान्तेऽनपाते, स्त्रीपशुविवर्जिते।
शयनासनसेवनया, विविक्तशयनासनम् ।। Translated Sutra: जहाँ किसी का आना-जाना न हो, विशेषतः स्त्री व पशु के संसर्ग से वर्जित हो, ऐसे शून्य व निर्जन स्थान में रहना अथवा सोना-बैठना आदि विविक्त शय्यासन नाम का पंचम तप है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
4. कायक्लेश तप (हठ-योग) | Hindi | 212 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्थानानि वीरासनादानि, जीवस्य तु सुखावहानि।
उग्राणि यथा धारयन्ते, कायक्लेशः स आख्यातः ।। Translated Sutra: [आत्मबल की वृद्धि के तथा शरीर पर से ममत्व भाव का त्याग करने के अर्थ] योगीजन वीरासन, कुक्कुट आसन, शवासन आदि विविध प्रकार के उत्कट व उग्र आसनों को धारण करके धूप शीत या वर्षा में निर्भय व निश्चल बैठे या खड़े रहते हैं। यही कायक्लेश नामक छठा बाह्य तप है। (अब क्रम से प्रायश्चित आदि आभ्यन्तर या मानसिक तपों का कथन किया जाता | |||||||||
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
5. प्रायश्चित्त तप | Hindi | 214 | View Detail | ||
Mool Sutra: आलोचनार्हादिकं प्रायश्चित्तं तु दशविधम्।
यद् भिक्षुर्वहति सम्यक्, प्रायश्चित्तं तदाख्यातम् ।। Translated Sutra: अपने दोषों के शोधनार्थ जो भिक्षु गुरु के समक्ष दोषों की निष्कपट आलोचना करता है, और गुरुप्रदत्त दण्ड को सविनय अंगीकार करता है, अथवा प्रायश्चित्त के शास्त्रोक्त दश भेदों का सम्यक्रीत्या पालन करता है, उसको प्रायश्चित्त नामक तप होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
5. प्रायश्चित्त तप | Hindi | 215 | View Detail | ||
Mool Sutra: कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि,
तनू भवन्त्यात्मविगर्हणेन।
प्रकाशनात्संवरणाच्च तेषा-
मत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि ।। Translated Sutra: अपनी निन्दा व गर्हा करने से तथा गुरु के समक्ष दोषों का प्रकाशन करने मात्र से किये गये अति दारुण कर्म भी कृश हो जाते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
6. विनय तप | Hindi | 216 | View Detail | ||
Mool Sutra: अभ्युत्थानमंजलिकरणं, तथैवासनादानम्।
गुरुभक्तिभावसुश्रुषा, विनय एष व्याख्यातः ।। Translated Sutra: गुरुजनों के आने पर खड़े हो जाना, हाथ जोड़ना, उन्हें बैठने के लिए उच्चासन देना, उनकी भक्ति तथा भावसहित सेवा-सुश्रूषा करना, ये सब विनय नामक आभ्यन्तर तप के लिंग हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
7. वैयावृत्त्य तप (सेवा योग) | Hindi | 219 | View Detail | ||
Mool Sutra: शय्यावकाशनिषद्योपधि-प्रतिलेखनोपग्रहः।
आहारौषध बाचनाकिंचनोद्वर्तनादिषु ।। Translated Sutra: (इन दो गाथाओं में गुरु-सेवा के विविध लिंगों का कथन है।) वृद्ध व ग्लान गुरु या अन्य साधुओं के लिए सोने व बैठने का स्थान ठीक करना, उनके उपकरणों का शोधन करना, निर्दोष आहार व औषध आदि देकर उनका उपकार करना, उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें शास्त्र पढ़कर सुनाना, अशक्त हों तो उनका मैला उठाना, उन्हें करवट दिलाना, सहारा देकर बैठाना | |||||||||
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
7. वैयावृत्त्य तप (सेवा योग) | Hindi | 220 | View Detail | ||
Mool Sutra: अध्वानस्तेन-श्वापद-राज-नदी रोधकाशिवे दुर्भिक्षे।
वैय्यावृत्त्ययुक्तं संग्रहणारक्षणोपेतम् ।। Translated Sutra: कृपया देखें २१९; संदर्भ २१९-२२० | |||||||||
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
1. आदर्श मरण | Hindi | 234 | View Detail | ||
Mool Sutra: चरेत् पदानि परिशंकमानः, यत्किंचित्पाशं इह मन्यमानः।
लाभान्तरे जीवितं बृंहयिता, पश्चात् परिज्ञाय मलावध्वंसी ।। Translated Sutra: योगी को चाहिए कि वह चारित्र में दोष लगने के प्रति सतत् शंकित रहे, और लोक के थोड़े से भी परिचय को बन्धन मानकर स्वतंत्र विचरे। जब तक रत्नत्रय के लाभ की किंचिन्मात्र भी सम्भावना हो तब तक जीने की बुद्धि रखे अर्थात् शरीर की सावधानी से रक्षा करे, और जब ऐसी आशा न रह जाय, तब इस शरीर को ज्ञान व विवेकपूर्वक त्याग दे। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
1. धर्मसूत्र | Hindi | 242 | View Detail | ||
Mool Sutra: (क) धर्मः वस्तुस्वभावः, क्षमादिभावः च दशविधः धर्मः।
रत्नत्रयं च धर्मः, जीवानां रक्षणं धर्मः ।। Translated Sutra: वस्तु का स्वभाव धर्म है। (प्रकृत में समता आत्मा का स्वभाव होने से वह उसका धर्म है।) उत्तम क्षमा आदि दश, सम्यग्दर्शनादि तीन तथा जीवों की रक्षा (उपलक्षण से अहिंसा आदि पाँच तथा अन्य भी पूर्वोक्त संयम के अंग) ये सब धर्म हैं अर्थात् उस समतामयी स्वभाव के विविध अंग या लिंग हैं। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
1. धर्मसूत्र | Hindi | 244 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रद्धां नगरं कृत्वा, तपः संवरमर्गलम्।
क्षान्ति निपुणप्राकारं, त्रिगुप्तयं दुष्प्रघर्षिकम् ।। Translated Sutra: श्रद्धा या सम्यक्त्व रूपी नगर में क्षमादि दश धर्म रूप किला बनाकर, उसमें तप व संयम रूपी अर्गला लगायें और तीन गुप्ति रूप शस्त्रों द्वारा दुर्जय कर्म-शत्रुओं को जीतें। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
3. अनगरासूत्र (संन्यास योग) | Hindi | 251 | View Detail | ||
Mool Sutra: न बलायुः स्वादार्थं, न शरीरस्योपचयार्थं तेजोऽर्थं।
ज्ञानार्थं संयमार्थं, ध्यानार्थं चेव भुंजीत ।। Translated Sutra: साधुजन बल के लिए अथवा आयु बढ़ाने के लिए, अथवा स्वाद के लिए अथवा शरीर को पुष्ट करने के लिए, अथवा शरीर का तेज बढ़ाने के लिए भोजन नहीं करते हैं, किन्तु ध्यानाध्ययन व संयम की सिद्धि के लिए करते हैं। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
5. गुरु-उपासना | Hindi | 260 | View Detail | ||
Mool Sutra: ये केचिदपि उपदेशाः, इह-परलोके सुखावहाः सन्ति।
विनयेन गुरुजनेभ्यः, सर्वान् प्राप्नुवन्ति ते पुरुषाः ।। Translated Sutra: इस लोक में अथवा परलोक में जीवों को जो कोई भी सुखकारी उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सब गुरुजनों की विनय से ही होते हैं। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
8. यज्ञ-सूत्र | Hindi | 266 | View Detail | ||
Mool Sutra: तपो ज्योतिर्जीवो ज्योतिस्थानं,
योगाः स्रुवः शरीरं करीषांगम्।
कर्मैधाः संयमयोगाः शान्तिः,
होमेन जुहोम्यृषीणां प्रशस्तेन ।। Translated Sutra: तप अग्नि है, जीव यज्ञ-कुण्ड है, मन वचन व काय ये तीनों योग स्रुवा है, शरीर करीषांग है, कर्म समिधा है, संयम का व्यापार शान्तिपाठ है। इस प्रकार के पारमार्थिक होम से मैं अग्नि (आत्मा) को प्रसन्न करता हूँ। ऐसे ही यज्ञ को ऋषियों ने प्रशस्त माना है। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
9. उत्तम क्षमा (अक्रोध) | Hindi | 268 | View Detail | ||
Mool Sutra: क्रोधेन यः न तप्यते, सुरनरतिर्यग्भिः क्रियमाणे अपि।
उपसर्गेऽपि रौद्रे, तस्य क्षमा निर्मला भवति ।। Translated Sutra: देव मनुष्य और तिर्यंचों के द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर भी जो मुनि क्रोध से संतप्त नहीं होता, उसके निर्मल क्षमा होती है। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
10. उत्तम मार्दव (अमानित्व) | Hindi | 270 | View Detail | ||
Mool Sutra: कुलरूपजातिबुद्धिषु, तपश्रुतशीलेषु गर्वं किंचित्।
यः नैव करोति श्रमणः, मार्दवधर्मं भवेत् तस्य ।। Translated Sutra: आठ प्रकार के मद लोक में प्रसिद्ध हैं-कुल रूप व जाति का मद, ज्ञान तप व चारित्र का मद, धन व बल का मद। जो श्रमण आठों ही प्रकार का किंचित् भी मद नहीं करता है, उसके उत्तम मार्दव धर्म होता है। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
11. उत्तम आर्जव (सरलता) | Hindi | 273 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः चिन्तयति न वक्रं, न करोति वक्रं न जल्पति वक्रम्।
न च गोपयति निजदोषम्, आर्जवधर्मः भवेत्तस्य ।। Translated Sutra: जो मुनि मन से कुटिल विचार नहीं करता, वचन से कुटिल बात नहीं कहता, न ही गुरु के समक्ष अपने दोष छिपाता है, तथा शरीर से भी कुटिल चेष्टा नहीं करता, उसके उत्तम आर्जव धर्म होता है। |