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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-४ | Hindi | 474 | Sutra | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] [भवइ य इत्थ सिलोगो ।] Translated Sutra: देखो सूत्र ४७३ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-४ | Hindi | 475 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पेहेइ हियानुसासनं सुस्सूसइ तं च पुणो अहिट्ठए ।
न य मानमएण मज्जई विनयसमाही आययट्ठिए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४७३ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-४ | Hindi | 476 | Sutra | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चउव्विहा खलु सुयसमाही भवइ, तं जहा–
१. सुयं मे भविस्सइ त्ति अज्झाइयव्वं भवइ २. एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ ३. अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ ४. ठिओ परं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। चउत्थं पयं भवइ। Translated Sutra: श्रुतसमाधि चार प्रकार की होती है; जैसे कि – ‘मुझे श्रुत प्राप्त होगा,’ ‘मैं एकाग्रचित्त हो जाऊंगा,’ ‘मैं अपनी आत्मा को स्व – भाव में स्थापित करूँगा’, एवं ‘मैं दूसरों को स्थापित करूँगा’ इन चारों कारणो से अध्ययन करना चाहिए। इस में एक श्लोक है – प्रतिदिन शास्त्राध्ययन के द्वारा ज्ञान होता है, चित्त एकाग्र हो जाता | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-४ | Hindi | 477 | Sutra | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] [भवइ य इत्थ सिलोगो ।] Translated Sutra: देखो सूत्र ४७६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-४ | Hindi | 478 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नाणमेगग्गचित्तो य ठिओ ठावयई परं ।
सुयाणि य अहिज्जित्ता रओ सुयसमाहिए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४७६ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-४ | Hindi | 479 | Sutra | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चउव्विहा खलु तवसमाही भवइ, तं जहा–१. नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठेज्जा २. नो परलोग-ट्ठयाए तवमहिट्ठेज्जा ३. नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठेज्जा ४. नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठेज्जा। चउत्थं पयं भवइ।
[भवइ य इत्थ सिलोगो ।] Translated Sutra: तपःसमाधि चार प्रकार की होती है। यथा – इहलोक के, परलोक के, कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए, निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से, चारों कारणों से तप नहीं करना चाहिए, सदैव विविध गुणों वाले तप में (जो साधक) रत रहता है, पौद्गलिक प्रतिफल की आशा नहीं रखता; कर्मनिर्जरार्थी होता है; वह तप के द्वारा पूर्वकृत कर्मों | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-४ | Hindi | 480 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] विविहगुणतवोरए य निच्चं भवइ निरासए निज्जरट्ठिए ।
तवसा धुणइ पुराणपावगं जुत्तो सया तवसमाहिए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४७९ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-४ | Hindi | 481 | Sutra | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चउव्विहा खलु आयारसमाही भवइ, तं जहा–
१. नो इहलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठेज्जा २. नो परलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठेज्जा ३. नो कित्ति-वण्णसद्दसिलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठेज्जा ४. नन्नत्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिट्ठेज्जा। चउत्थं पयं भवइ।
[भवइ य इत्थ सिलोगो ।] Translated Sutra: आचारसमाधि चार प्रकार की है; इकलोह, परलोक, कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक, आर्हत हेतुओं के सिवाय अन्य किसी भी हेतु ईन चारों को लेकर आचार का पालन नहीं करना चाहिए, यहाँ आचारसमाधि के विषय में एक श्लोक है – ‘जो जिनवचन में रत होता है, जो क्रोध से नहीं भन्नाता, जो ज्ञान से परिपूर्ण है और जो अतिशय मोक्षार्थी है, वह मन और इन्द्रियों | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-४ | Hindi | 482 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जिनवयणरए अतिंतिणे पडिपुण्णाययमाययट्ठिए ।
आयारसमाहिसंवुडे भवइ य दंते भावसंघए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४८१ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-४ | Hindi | 483 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अभिगम चउरो समाहिओ सुविसुद्धो सुसमाहियप्पओ ।
विउलहियसुहावहं पुणो कुव्वइ सो पयखेममप्पणो ॥ Translated Sutra: परम – विशुद्धि और (संयम में) अपने को भलीभाँति सुसमाहित रखने वाला जो साधु है, वह चारों समाधियों को जान कर अपने लिए विपुल हितकर, सुखावह एवं कल्याण कर मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है। जन्म – मरण से मुक्त हो जाता है, नरक आदि सब पर्यायों को सर्वथा त्याग देता है। या तो शाश्वत सिद्ध हो जाता है, अथवा महर्द्धिक देव होता है। सूत्र | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-९ विनयसमाधि |
उद्देशक-४ | Hindi | 484 | Gatha | Mool-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जाइमरणाओ मुच्चई इत्थंथं च चयइ सव्वसो ।
सिद्धे वा भवइ सासए देवे वा अप्परए महिड्ढिए ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४८३ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 485 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] निक्खम्ममाणाए बुद्धवयणे निच्चं चित्तसमाहिओ हवेज्जा ।
इत्थीण वसं न यावि गच्छे वंतं नो पडियायई जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा से प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ – प्रवचन में सदा समाहितचित्त रहता है; स्त्रियों के वशीभूत नहीं होता, वमन किये हुए (विषयभोगों) को पुनः नहीं सेवन करता; वह भिक्षु होता है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 486 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुढविं न खणे न खणावए सीओदगं न पिए न पियावए ।
अगनिसत्थं जहा सुनिसियं तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो पृथ्वी को नहीं खोदता, नहीं खुदवाता, सचित्त जल नहीं पीता और न पिलाता है, अग्नि को न जलाता है और न जलवाता है, वह भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 487 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनिलेन न वीए न वीयावए हरियाणि न छिंदे न छिंदावए ।
बीयाणि सया विवज्जयंतो सच्चित्तं नाहारए जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो वायुव्यंजक से हवा नहीं करता और न करवाता है, हरित का छेदन नहीं करता और न कराता है, बीजों का सदा विवर्जन करता हुआ सचित्त का आहार नहीं करता, वह भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 488 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वहणं तसथावराण होइ पुढवितणकट्ठनिस्सियाणं ।
तम्हा उद्देसियं न भुंजे नो वि पए न पयावए जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: (भोजन बनाने में) पृथ्वी, तृण और काष्ठ में आश्रित रहे हुए त्रस और स्थावर जीवों का वध होता है। इसलिए जो औद्देशिक का उपभोग नहीं करता तथा जो स्वयं नहीं पकाता और न पकवाता है, वह भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 489 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रोइय नायपुत्तवयणे अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पि काए ।
पंच य फासे महव्वयाइं पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो ज्ञातपुत्र (महावीर) के वचनों में रुचि (श्रद्धा) रख कर षट्कायिक जीवों (सर्वजीवों) को आत्मवत् मानता है, जो पांच महाव्रतों का पालन करता है, जो पांच (हिंसादि) आस्रवों का संवरण () करता है, वह भिक्षु है | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 490 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चत्तारि वमे सया कसाए धुवजोगी य हवेज्ज बुद्धवयणे ।
अहणे निज्जायरूवरयए गिहिजोगं परिवज्जए जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो चार कषायों का वमन करता है, तीर्थंकरो के प्रवचनों में सदा ध्रुवयोगी रहता है, अधन है तथा सोने और चाँदी से स्वयं मुक्त है, गृहस्थों का योग नहीं करता, वही भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 491 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सम्मद्दिट्ठी सया अमूढे अत्थि हु नाणे तवे संजमे य ।
तवसा धुणइ पुराणपावगं मनवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जिसकी दृष्टि सम्यक् है, जो सदा अमूढ है, ज्ञान, तप और संयम में आस्थावान् है तथा तपस्या से पुराने पाप कर्मों को नष्ट करता है और मन – वचन – काया से सुसंवृत है, वही भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 492 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव असनं पानगं वा विविहं खाइमसाइमं लभित्ता ।
होही अट्ठो सुए परे वा तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: पूर्वोक्त एषणाविधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर – ‘यह कल या परसों काम आएगा,’ इस विचार से जो संचित न करता है और न कराता है, वह भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 493 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहेव असनं पानगं वा विविहं खाइमसाइमं लभित्ता ।
छंदिय साहम्मियाण भुंजे भोच्चा सज्झायरए य जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: पूर्वोक्त प्रकार से विविध अशन आदि आहार को पाकर जो अपने साधर्मिक साधुओं को निमन्त्रित करके खाता है तथा भोजन करके स्वाध्याय में रत रहता है, वही भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 494 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते ।
संजमधुवजोगजुत्ते उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो कलह उत्पन्न करने वाली कथा नहीं करता और न कोप करता है, जिसकी इन्द्रियाँ निभृत रहती हैं, प्रशान्त रहता है। संयम में ध्रुवयोगी है, उपशान्त रहता है, जो उचित कार्य का अनादर नहीं करता, वही भिक्षु है | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 495 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो सहइ हु गामकंटए अक्कोसपहारतज्जणाओ य ।
भयभेरवसद्दसंपहासे समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो कांटे के समान चुभने वाले आक्रोश – वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और अतीव भयोत्पादक अट्टहासों को तथा सुख – दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है; वही भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 496 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पडिमं पडिवज्जिया मसाणे नो भायए भयभेरवाइं दिस्सं ।
विविहगुणतवोरए य निच्चं न सरीरं चाभिकंखई जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो श्मशान में प्रतिमा अंगीकार करके (वहाँ के) अतिभयोत्पादक दृश्यों को देख कर भयभीत नहीं होता, विविध गुणों एवं तप में रत रहता है, शरीर की भी आकांक्षा नहीं करता, वही भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 497 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] असइं वोसट्ठचत्तदेहे अक्कुट्ठे व हए व लूसिए वा ।
पुढवि समे मुनी हवेज्जा अनियाणे अकोउहल्ले य जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो मुनि बार – बार देह का व्युत्सर्ग और (ममत्व) त्याग करता है, किसी के द्वारा आक्रोश किये जाने, पीटे जाने अथवा क्षत – विक्षत किये जाने पर भी पृथ्वी के समान क्षमाशील रहता है, निदान नहीं करता तथा कौतुक नहीं करता, वही भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 498 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अभिभूय काएण परीसहाइं समुद्धरे जाइपहाओ अप्पयं ।
विइत्तु जाईमरणं महब्भयं तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो अपने शरीर से परीषहों को जीत कर जातिपथ से अपना उद्धार कर लेता है, जन्ममरण को महाभय जान कर श्रमणवृत्ति के योग्य तपश्चर्या में रत रहता है, वही भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 499 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] हत्थसंजए पायसंजए वायसंजए संजइंदिए ।
अज्झप्परए सुसमाहियप्पा सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो हाथों, पैरों, वाणी और इन्द्रियों से संयत है, अध्यात्म में रत है, जिसकी आत्मा सम्यक् रूप से समाधिस्थ है और जो सूत्र तथा अर्थ को विशेष रूप से जानता है; वह भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 500 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे अण्णायउंछंपुल निप्पुलाए ।
कयविक्कयसन्निहिओ विरए सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो उपधि में मूर्च्छित नहीं है, अगृद्ध है, अज्ञात कुलों से भिक्षा की एषणा करता है, संयम को निस्सार कर देने वाले दोषों से रहित है; क्रय – विक्रय और सन्निधि से रहित है तथा सब संगों से मुक्त है, वही भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 501 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्धे उंछं चरे जीवियनाभिकंखे ।
इड्ढिं च सक्कारण पूयणं च चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो भिक्षु लोलुपता – रहित है, रसों में गृद्ध नहीं है, अज्ञात कुलों में भिक्षाचरी करता है, असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करता, ऋद्धि, सत्कार और पूजा का त्याग करता है, जो स्थितात्मा है और छल से रहित है, वही भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 502 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न परं वएज्जासि अयं कुसीले जेणन्नो कुप्पेज्ज न तं वएज्जा ।
जाणिय पत्तेयं पुण्णपावं अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: ‘प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य – पाप पृथक् – पृथक् होते हैं,’ ऐसा जानकर, जो दूसरों को (यह) नहीं कहता कि ‘यह कुशील है।’ तथा दूसरा कुपित हो, ऐसी बात भी नहीं कहता और जो अपनी आत्मा को सर्वोत्कृष्ट मानकर अहंकार नहीं करता, वह भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 503 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न जाइमत्ते न य रूवमत्ते न लाभमत्ते न सुएणमत्ते ।
मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो जाति, रूप, लाभ, श्रुत का मद नहीं करता है; उनको त्यागकर धर्मध्यान में रत रहता है, वही भिक्षु है | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 504 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पवेयए अज्जपयं महामुणी धम्मे ठिओ ठावयई परं पि ।
निक्खम्म वज्जेज्ज कुसीललिंगं न यावि हस्सकुहए जे स भिक्खू ॥ Translated Sutra: जो महामुनि शुद्ध धर्म – का उपदेश करता है, स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरे को भी धर्म में स्थापित करता है, प्रव्रजित होकर कुशील को छोड़ता है तथा हास्योत्पादक कुतूहलपूर्ण चेष्टाऍं नहीं करता, वह भिक्षु है। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१० सभिक्षु |
Hindi | 505 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तं देहवासं असुइं असासयं सया चए निच्च हियट्ठियप्पा ।
छिंदित्तु जाईमरणस्स बंधणं उवेइ भिक्खू अपुणागमं गइं ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: अपनी आत्मा को सदा शाश्वत हित में सुस्थित रखने वाला पूर्वोक्त भिक्षु इस अशुचि और अशाश्वत देहवास को सदा के लिए छोड़ देता है तथा जन्म – मरण के बन्धन को छेदन कर सिद्धगति को प्राप्त कर लेता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 506 | Sutra | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु भो! पव्वइएणं, उप्पन्नदुक्खेणं, संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं, ओहानुप्पेहिणा अनो-हाइएणं चेव, हयरस्सि-गयंकुस-पोयपडागाभूयाइं इमाइं अट्ठारस ठाणाइं सम्मं संपडिलेहियव्वाइं भवंति, तं जहा–
१. हं भो! दुस्समाए दुप्पजीवी।
२. लहुस्सगा इत्तरिया गिहीणं कामभोगा।
३. भुज्जो य साइबहुला मणुस्सा।
४. इमे य मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ।
५. ओमजनपुरक्कारे।
६. वंतस्स य पडियाइयणं।
७. अहरगइवासोवसंपया।
८. दुल्लभे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहिवासमज्झे वसंताणं।
९. आयंके से वहाय होइ।
१०. संकप्पे से वहाय होइ।
११. सोवक्केसे गिहवासे। निरुवक्केसे परियाए।
१२. बंधे गिहवासे। मोक्खे परियाए।
१३. Translated Sutra: इस निर्ग्रन्थ – प्रवचन में जो प्रव्रजित हुआ है, किन्तु कदाचित् दुःख उत्पन्न हो जाने से संयम में उसका चित्त अरतियुक्त हो गया। अतः वह संयम का परित्याग कर जाना चाहता है, किन्तु संयम त्यागा नहीं है, उससे पूर्व इन अठारह स्थानों का सम्यक् प्रकार से आलोचन करना चाहिए। ये अठारह स्थान अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 507 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जया य चयई धम्मं अणज्जो भोगकारणा ।
से तत्थ मुच्छिए बाले आयइं नावबुज्झइ ॥ Translated Sutra: इस विषय में कुछ श्लोक हैं – जब अनार्य (साधु) भोगों के लिए (चारित्र – ) धर्म को छोड़ता है, तब वह भोगों में मूर्च्छित बना हुआ अज्ञ अपने भविष्य को सम्यक्तया नहीं समझता। वह सभी धर्मों में परिभ्रष्ट हो कर वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे आयु पूर्ण होने पर देवलोक के वैभव से च्युत हो कर पृथ्वी पर पड़ा हुआ इन्द्र। सूत्र – | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 508 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जया ओहाविओ होइ इंदो वा पडिओ छमं ।
सव्वधम्म परिब्भट्ठो स पच्छा परितप्पइ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५०७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 509 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जया य वंदिमो होइ पच्छा होइ अवंदिमो ।
देवया व चुया ठाणा स पच्छा परितप्पइ ॥ Translated Sutra: जब (साधु प्रव्रजित अवस्था में होता है, तब) वन्दनीय होता है, वही पश्चात् अवन्दनीय हो जाता है, तब वह उसी प्रकार पश्चात्ताप करता है, जिस प्रकार अपने स्थान से च्युत देवता। पहले पूज्य होता है, वही पश्चात् अपूज्य हो जाता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे राज्य से भ्रष्ट राजा। पहले माननीय होता है, वही पश्चात् अमाननीय | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 510 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जया य पूइमो होइ पच्छा होइ अपूइमो ।
राया व रज्जपब्भट्ठो स पच्छा परितप्पइ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५०९ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 511 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जया य माणिमो होइ पच्छा होइ अमाणिमो ।
सेट्ठि व्व कब्बडे छूढो स पच्छा परितप्पइ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५०९ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 512 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जया य थेरओ होइ समइक्कंतजोव्वणो ।
मच्छो व्व गलं गिलित्ता स पच्छा परितप्पइ ॥ Translated Sutra: उत्प्रव्रजित व्यक्ति यौवनवय के व्यतीत हो जाने पर जब वृद्ध होता है, तब वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे कांटे को निगलने के पश्चात् मत्स्य। दुष्ट कुटुम्ब की कुत्सित चिन्ताओं से प्रतिहत होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे बन्धन में बद्ध हाथी। पुत्र और स्त्री से घिरा हुआ और मोह की परम्परा से व्याप्त वह | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 513 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जया य कुकुडंबस्स कुतत्तीहिं विहम्मइ ।
हत्थी व बंधणे बद्धो स पच्छा परितप्पइ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५१२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 514 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुत्तदारपरिकिन्नो मोहसंताणसंतओ ।
पंकोसन्नो जहा नागो स पच्छा परितप्पइ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५१२ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 515 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अज्ज आहं गणी हुंतो भावियप्पा बहुस्सुओ ।
जइ हं रमंतो परियाए सामण्णे जिनदेसिए ॥ Translated Sutra: यदि मैं भावितात्मा और बहुश्रुत होकर जिनोपदिष्ट श्रामण्य – पर्याय में रमण करता तो आज मैं गणी (आचार्य) होता। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 516 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] देवलोगसमाणो उ परियाओ महेसिणं ।
रयाणं अरयाणं तु महानिरयसारिसो ॥ Translated Sutra: (संयम में) रत महर्षियों के लिए मुनि – पर्याय देवलोक समान और जो संयम में रत नहीं होते, उनके लिए महानरक समान होता है। इसलिए मुनिपर्याय में रत रहनेवालों का सुख देवों समान उत्तम जानकर तथा नहीं रहनेवालों का दुःख नरक समान तीव्र जानकर पण्डितमुनि मुनिपर्याय में ही रमण करे। सूत्र – ५१६, ५१७ | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 517 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अमरोवमं जाणिय सोक्खमुत्तमं रयाण परियाए तहारयाणं ।
निरओवमं जाणिय दुक्खमुत्तमं रमेज्ज तम्हा परियाय पंडिए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ५१६ | |||||||||
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चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 518 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्माउ भट्ठं सिरिओ ववेयं जण्णग्गि विज्झायमिवप्पतेयं ।
हीलंति णं दुव्विहियं कुसीला दाढुद्धियं घोरविसं व नागं ॥ Translated Sutra: जिसकी दाढें निकाल दी गई हों, उस घोर विषधर की साधारण अज्ञ जन भी अवहेलना करते हैं, वैसे ही धर्म से भ्रष्ट, श्रामण्य रूपी लक्ष्मी से रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि के समान निस्तेज और दुर्विहित साधु की कुशील लोग भी निन्दा करते हैं। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 519 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इहेवधम्मो अयसो अकित्ती दुन्नामधेज्जं च पिहुज्जणम्मि ।
चुयस्स धम्माउ अहम्मसेविणो संभिन्नवित्तस्स य हेट्ठओ गई ॥ Translated Sutra: धर्म से च्युत, अधर्मसेवी और चारित्र को भंग करनेवाला इसी लोक में अधर्मी कहलाता है, उसका अपयश और अपकीर्ति होती है, साधारण लोगों में भी वह दुर्नाम हो जाता है और अन्त में उसकी अधोगति होती है। | |||||||||
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चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 520 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भुंजित्तु भोगाइ पसज्झ चेयसा तहाविहं कट्टु असंजमं बहुं ।
गइं च गच्छे अणभिज्झियं दुहं बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो ॥ Translated Sutra: वह संयम – भ्रष्ट साधु आवेशपूर्ण चित्त से भोगों को भोग कर एवं तथाविध बहुत – से असंयम का सेवन करके दुःखपूर्ण अनिष्ट गति में जाता है और उसे बोधि सुलभ नहीं होती। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 521 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इमस्स ता नेरइयस्स जंतुणो दुहोवणीयस्स किलेसवत्तिणो ।
पलिओवमं ज्झिज्जइ सागरोवमं किमंग पुन मज्झ इमं मणोदुहं? ॥ Translated Sutra: दुःख से युक्त और क्लेशमय मनोवृत्ति वाले इस जीव की पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो जाती है, तो फिर हे जीव ! मेरा यह मनोदुःख तो है ही क्या ? | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 522 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई असासया भोगपिवास जंतुणो ।
न चे सरीरेण इमेणवेस्सई अविस्सई जीवियपज्जवेण मे ॥ Translated Sutra: ‘मेरा यह दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा, जीवों की भोग – पिपासा अशाश्वत है। यदि वह इस शरीर से न मिटी, तो मेरे जीवन के अन्त में तो वह अवश्य मिट जाएगी। | |||||||||
Dashvaikalik | दशवैकालिक सूत्र | Ardha-Magadhi |
चूलिका-१ रतिवाक्या |
Hindi | 523 | Gatha | Mool-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ चएज्ज देहं न उ धम्मसासणं ।
तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया उवेंतवाया व सुदंसणं गिरिं ॥ Translated Sutra: जिसकी आत्मा इस प्रकार से निश्चित होती है। वह शरीर को तो छोड़ सकता है, किन्तु धर्मशासन को छोड़ नहीं सकता। ऐसे दृढ़प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियाँ उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं, जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ वायु सुदर्शन – गिरि को। |