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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 524 | View Detail | ||
Mool Sutra: बन्ध-प्रदेश-गलनं निर्जरणं इति जिनैः प्रज्ञप्तम्।
येन भवेत् संवरणं, तेन तु निर्जरणं इति जानीहि।।२०।। Translated Sutra: बँधे हुए कर्म-प्रदेशों के क्षरण को निर्जरा कहा जाता है। जिन कारणों से संवर होता है, उन्हीं कारणों से निर्जरा होती है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 546 | View Detail | ||
Mool Sutra: यैस्तु लक्ष्यन्ते, उदयादिषु सम्भवैर्भावैः।
जीवास्ते गुणसंज्ञा, निर्दिष्टाः सर्वदर्शिभिः।।१।। Translated Sutra: मोहनीय आदि कर्मों के उदय आदि (उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि) से होनेवाले जिन परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते हैं, उनको सर्वदर्शी जिनेन्द्रदेव ने `गुण' या `गुणस्थान' संज्ञा दी है। अर्थात् सम्यक्त्व आदि की अपेक्षा जीवों की अवस्थाएँ श्रेणियाँ-भूमिकाएँ गुणस्थान कहलाती हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 547 | View Detail | ||
Mool Sutra: मिथ्यात्वं सास्वादनः मिश्रः, अविरतसम्यक्त्वः च देशविरतश्च।
विरतः प्रमत्तः इतरः, अपूर्वः अनिवृत्तिः सूक्ष्मश्च।।२।। Translated Sutra: मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवलीजिन, अयोगिकेवलीजिन-ये क्रमशः चौदह जीव-समास या गुणस्थान हैं। सिद्धजीव गुणस्थानातीत होते हैं। संदर्भ ५४७-५४८ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 548 | View Detail | ||
Mool Sutra: उपशान्तः क्षीणमोहः, सयोगिकेवलिजिनः अयोगी च।
चतुर्दश गुणस्थानानि च, क्रमेण सिद्धाः च ज्ञातव्याः।।३।। Translated Sutra: कृपया देखें ५४७; संदर्भ ५४७-५४८ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 552 | View Detail | ||
Mool Sutra: नो इन्द्रियेषु विरतो, नो जीवे स्थावरे त्रसे चापि।
यः श्रद्दधाति जिनोक्तं, सम्यग्दृष्टिरविरतः सः।।७।। Translated Sutra: जो न तो इन्द्रिय-विषयों से विरत है और न त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत है, लेकिन केवल जिनेन्द्र-प्ररूपित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है, वह व्यक्ति अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 553 | View Detail | ||
Mool Sutra: यस्त्रसवधात् विरतः, नो विरतः अत्र स्थावरवधात्।
प्रतिसमयं सः जीवो, विरताविरतो जिनैकमतिः।।८।। Translated Sutra: जो त्रस जीवों की हिंसा से तो विरत हो गया है, परन्तु एकेन्द्रिय स्थावर जीवों (वनस्पति, जल, भूमि, अग्नि, वायु) की हिंसा से विरत नहीं हुआ है तथा एकमात्र जिन भगवान् में ही श्रद्धा रखता है, वह श्रावक देशविरत गुणस्थानवर्ती कहलाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 557 | View Detail | ||
Mool Sutra: तादृशपरिणामस्थितजीवाः, हि जिनैर्गलिततिमिरैः।
मोहस्यापूर्वकरणाः, क्षपणोपशमनोद्यताः भणिताः।।१२।। Translated Sutra: अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले (ज्ञानसूर्य) जिनेन्द्रदेव ने उन अपूर्व-परिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने में तत्पर कहा है। (मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम तो नौवें और दसवें गुण-स्थानों में होता है, किन्तु उसकी तैयारी इस अष्टम गुणस्थान में ही शुरू हो जाती है।) | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 558 | View Detail | ||
Mool Sutra: भवन्ति अनिवर्तिनस्ते, प्रतिसमयं येषामेकपरिणामाः।
विमलतरध्यानहुतवह-शिखाभिर्निर्दग्धकर्मवनाः।।१३।। Translated Sutra: वे जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले होते हैं, जिनके प्रतिसमय (निरन्तर) एक ही परिणाम होता है। (इनके भाव अष्टम गुणस्थानवालों की तरह विसदृश नहीं होते।) ये जीव निर्मलतर ध्यानरूपी अग्नि-शिखाओं से कर्म-वन को भस्म कर देते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 559 | View Detail | ||
Mool Sutra: कौसुम्भो यथा रागः, अभ्यन्तरतश्च सूक्ष्मरक्तश्च।
एवं सूक्ष्मसरागः, सूक्ष्मकषाय इति ज्ञातव्यः।।१४।। Translated Sutra: कुसुम्भ के हल्के रंग की तरह जिनके अन्तरंग में केवल सूक्ष्म राग शेष रह गया है, उन मुनियों को सूक्ष्म-सराग या सूक्ष्मकषाय जानना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 560 | View Detail | ||
Mool Sutra: कतकफलयुतजलं वा, शरदि सरःपानीयम् इव निर्मलकम्।
सकलोपशान्तमोहः, उपशान्तकषायतो भवति।।१५।। Translated Sutra: जैसे निर्मली-फल से युक्त जल अथवा शरदकालीन सरोवर का जल (मिट्टी के बैठ जाने से) निर्मल होता है, वैसे ही जिनका सम्पूर्ण मोह उपशान्त हो गया है, वे निर्मल परिणामी उपशान्त-कषाय[5] कहलाते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 561 | View Detail | ||
Mool Sutra: निःशेषक्षीणमोहः, स्फटिकामल-भाजनोदक-समचित्तः।
क्षीणकषायो भण्यते, निर्ग्रन्थो वीतरागैः।।१६।। Translated Sutra: सम्पूर्ण मोह पूरी तरह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाता है, उन्हें वीतरागदेव ने क्षीण-कषाय निर्ग्रन्थ कहा है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 562 | View Detail | ||
Mool Sutra: केवलज्ञानदिवाकर-किरणकलाप-प्रणाशिताज्ञानः।
नवकेवललब्ध्युद्गम-प्रापितपरमात्मव्यपदेशः।।१७।। Translated Sutra: केवलज्ञानरूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान अन्धकार सर्वथा नष्ट हो जाता है तथा नौ केवललब्धियों (सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग) के प्रकट होने से जिन्हें परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे इन्द्रियादि की सहायता की अपेक्षा न रखनेवाले ज्ञान-दर्शन | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 563 | View Detail | ||
Mool Sutra: असहायज्ञानदर्शन-सहितोऽपि हि केवली हि योगेन।
युक्त इति सयोगिजिनः, अनादिनिधन आर्षे उक्तः।।१८।। Translated Sutra: कृपया देखें ५६२; संदर्भ ५६२-५६३ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 564 | View Detail | ||
Mool Sutra: शैलेशीं संप्राप्तः, निरुद्धनिःशेषास्रवो जीवः।
कर्मरजविप्रमुक्तो, गतयोगः केवली भवति।।१९।। Translated Sutra: जो शील के स्वामी हैं, जिनके सभी नवीन कर्मों का आस्रव अवरुद्ध हो गया है, तथा जो पूर्वसंचित कर्मों से (बन्ध से) सर्वथा मुक्त हो चुके हैं, वे अयोगीकेवली कहलाते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 603 | View Detail | ||
Mool Sutra: मनसा वाचा कायेन, वापि युक्तस्य वीर्यपरिणामः।
जीवस्य प्रणियोगः, योग इति जिनैर्निर्दिष्टः।।१६।। Translated Sutra: (योग भी आस्रव-द्वार है।) मन, वचन, काय से युक्त जीव का जो वीर्य परिणाम या प्रदेश-परिस्पन्दनरूप प्रणियोग होता है, उसे योग कहते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 611 | View Detail | ||
Mool Sutra: तपसा चैव न मोक्षः, संवरहीनस्य भवति जिनवचने।
न हि स्रोतसि प्रविशति, कृत्स्नं परिशुष्यति तडागम्।।२४।। Translated Sutra: यह जिन-वचन है कि संवरविहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता; जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 624 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मोऽधर्म आकाशं, कालः पुद्गला जन्तवः।
एष लोक इति प्रज्ञप्तः, जिनैर्वरदर्शिभिः।।१।। Translated Sutra: परमदर्शी जिनवरों ने लोक को धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव इस प्रकार छह द्रव्यात्मक कहा है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 635 | View Detail | ||
Mool Sutra: चेतनारहितममूर्त्तं, अवगाहनलक्षणं च सर्वगतम्।
लोकालोकद्विभेदं, तद् नभोद्रव्यं जिनोद्दिष्टम्।।१२।। Translated Sutra: जिनेन्द्रदेव ने आकाश-द्रव्य को अचेतन, अमूर्त्त, व्यापक और अवगाह लक्षणवाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 642 | View Detail | ||
Mool Sutra: पृथिवी जलं च छाया, चतुरिन्द्रियविषय-कर्मपरमाणवः।
षड्विधभेदं भणितं, पुद्गलद्रव्यं जिनवरैः।।१९।। Translated Sutra: पृथ्वी, जल, छाया, नेत्र तथा शेष चार इन्द्रियों के विषय, कर्म तथा परमाणु--इस प्रकार जिनदेव ने स्कन्धपुद्गल के छह दृष्टान्त हैं। [पृथ्वी अतिस्थूल का, जल स्थूल का, छायाप्रकाश आदि नेत्रइन्द्रिय-विषय स्थूल-सूक्ष्म का, रस-गंध-स्पर्श-शब्द आदि इन्द्रिय-विषय सूक्ष्म-स्थूल का, कार्मण-स्कन्ध सूक्ष्म का तथा परमाणु अतिसूक्ष्म | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 643 | View Detail | ||
Mool Sutra: अन्त्यादिमध्यहीनम् अप्रदेशम् इन्द्रियैर्न खलु ग्राह्यम्।
यद् द्रव्यम् अविभक्तम् तं परमाणुं कथयन्ति जिनाः।।२०।। Translated Sutra: जो आदि मध्य और अन्त से रहित है, जो केवल एकप्रदेशी है--जिसके दो आदि प्रदेश नहीं हैं और जिसे इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता, वह विभागविहीन द्रव्य परमाणु है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 727 | View Detail | ||
Mool Sutra: परसमयैकनयमतं,तत्प्रतिपक्षनयतो निवर्तयेत्।
समये वा परिगृहीतं, परेण यद् दोषबुद्ध्या।।६।। Translated Sutra: नय-विधि के ज्ञाता को पर-समयरूप (एकान्त या आग्रहपूर्ण) अनित्यत्व आदि के प्रतिपादक ऋजुसूत्र आदि नयों के अनुसार लोक में प्रचलित मतों का निवर्तन या परिहार नित्यादि का कथन करनेवाले द्रव्यार्थिक नय से करना चाहिए। तथा स्वसमयरूप जिन-सिद्धान्त में भी अज्ञान या द्वेष आदि दोषों से युक्त किसी व्यक्ति ने दोषबुद्धि से | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 736 | View Detail | ||
Mool Sutra: भद्रं मिथ्यादर्शनसमूहमयस्य अमृतसारस्य।
जिनवचनस्य भगवतः संविग्नसुखाधिगम्यस्य।।१५।। Translated Sutra: मिथ्यादर्शनों के समूहरूप, अमृतरस-प्रदायी और अनायास मुमुक्षुओं की समझ में आनेवाले वन्दनीय जिनवचन का कल्याण हो। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४३. समापनसूत्र | Hindi | 749 | View Detail | ||
Mool Sutra: लब्धमलब्धपूर्वं, जिनवचन-सुभाषितं अमृतभूतम्।
गृहीतः सुगतिमार्गो, नाहं मरणाद् बिभेमि।।५।। Translated Sutra: जो मुझे पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ, वह अमृतमय सुभाषितरूप जिनवचन आज मुझे उपलब्ध हुआ है और तदनुसार सुगति का मार्ग मैंने स्वीकार किया है। अतः अब मुझे मरण का कोई भय नहीं है। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 346 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे णं दीवे एरवए वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा होत्था, तं जहा– Translated Sutra: इसी जम्बूद्वीप के ऐरवत वर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकर हुए – १. चन्द्र के समान मुख वाले सुचन्द्र, २. अग्निसेन, ३. नन्दिसेन, ४. व्रतधारी ऋषिदत्त और ५. सोमचन्द्र की मैं वन्दना करता हूँ। ६. युक्तिसेन, ७. अजितसेन, ८. शिवसेन, ९. बुद्ध, १०. देवशर्म, ११. निक्षिप्तशस्त्र (श्रेयांस) की मैं सदा वन्दना करता हूँ। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 349 | Gatha | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] असंजलं जिनवसहं, वंदे य अनंतयं अमियनाणिं ।
उवसंतं च धुयरयं, वंदे खलु गुत्तिसेनं च ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३४६ | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-१ |
Hindi | 1 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–
इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसोत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपोंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा लोगोत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोग-पज्जोयगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मनायगेणं धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा अप्पडिहयवरणाणदंसणधरेणं वियट्ट-च्छउमेणं जिणेणं जावएणं तिण्णेणं तारएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं सव्वण्णुणा सव्व-दरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तयं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउका- मेणं Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! उन भगवान ने ऐसा कहा है, मैने सूना है। [इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के अन्तिम समय में विद्यमान उन श्रमण भगवान महावीर ने द्वादशांग गणिपिटक कहा है, वे भगवान] – आचार आदि श्रुतधर्म के आदिकर हैं (अपने समय में धर्म के आदि प्रणेता हैं), तीर्थंकर हैं, (धर्मरूप तीर्थ के प्रवर्तक हैं)। स्वयं सम्यक् बोधि को | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-८ |
Hindi | 8 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अट्ठ भयट्ठाणा पन्नत्ता, तं० जातिमए कुलमए बलमए रूवमए तवमए सुयमए लाभमए इस्सरियमए।
अट्ठ पवयणमायाओ पन्नत्ताओ, तं जहा– इरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्त-निक्खेवणासमिई उच्चारपासवणखेलसिंधाणजल्लपारिट्ठावणियासमिई मणगुत्ती वइगुत्ती कायगुत्ती
वाणमंतराणं देवाणं चेइयरुक्खा अट्ठ जोयणाइं उड्ढं उच्चत्तेणं पन्नत्ता।
जंबू णं सुदंसणा अट्ठ जोयणाइं उड्ढं उच्चत्तेणं पन्नत्ता।
कूडसामली णं गरुलावासे अट्ठ जोयणाइं उड्ढं उच्चत्तेणं पन्नत्ते।
जंबुद्दीवस्स णं जगई अट्ठ जोयणाइं उड्ढं उच्चत्तेणं पन्नत्ता।
अट्ठसामइए केवलिसमुग्घाए पन्नत्ते, तं जहा–पढमे समए दंडं Translated Sutra: आठ मदस्थान कहे गए हैं। जैसे – जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपोमद, श्रुतमद, लाभमद और ऐश्वर्यमद। आठ प्रवचन – माताएं कही गई हैं। जैसे – ईयासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान – भाण्ड – मात्र निक्षेपणासमिति, उच्चार – प्रस्रवण – खेल सिंधारण – परिष्ठापनासमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति। वाणव्यन्तर देवों के | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-९ |
Hindi | 13 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पासे णं अरहा नव रयणीओ उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था।
अभीजिनक्खत्ते साइरेगे नव मुहुत्ते चंदेणं सद्धिं जोगं जोएइ।
अभीजियाइया नव नक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, तं जहा– अभीजि सवणो धणिट्ठा सयभिसया पुव्वाभद्दवया उत्तरापोट्ठवया रेवई अस्सिणी भरणी।
इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ नव जोयणसए उड्ढं अबाहाए उवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ।
जंबुद्दीवे णं दीवे नवजोयणिया मच्छा पविसिंसु वा पविसंति वा पविसिस्संति वा।
विजयस्स णं दारस्स एगमेगाए बाहाए नव-नव भोमा पन्नत्ता।
वाणमंतराणं देवाणं सभाओ सुधम्माओ नव जोयणाइं उड्ढं उच्चत्तेणं पन्नत्ताओ।
दंसणावरणिज्जस्स Translated Sutra: पुरुषादानीय पार्श्वनाथ तीर्थंकर नौ रत्नी (हाथ) ऊंचे थे। अभिजित् नक्षत्र कुछ अधिक नौ मुहूर्त्त तक चन्द्रमा के साथ योग करता है। अभिजित् आदि नौ नक्षत्र चन्द्रमा का उत्तर दिशा की ओर से योग करते हैं। वे नौ नक्षत्र अभिजित् से लगाकर भरणी तक जानना चाहिए। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से नौ सौ योजन | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-२३ |
Hindi | 53 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेवीसं सूयगडज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा– समए वेतालिए उवसग्गपरिण्णा थीपरिण्णा नरयविभत्ती महावीरथुई कुसीलपरिभासिए विरिए धम्मे समाही मग्गे समोसरणे आहत्तहिए गंथे जमईए गाहा पुंडरीए किरियठाणा आहारपरिण्णा अपच्चक्खाणकिरिया अनगारसुयं अद्दइज्जं णालंदइज्जं।
जंबुद्दीवेणं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसाए जिणाणं सूरुग्गमनमुहुत्तंसि केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे
जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थकरा पुव्वभवे एक्कारसंगिणो होत्था, तं जहा–अजिए संभवे अभिनंदने सुमती पउमप्पभे सुपासे चंदप्पहे सुविही सीतले सेज्जंसे वासुपुज्जे विमले अनंते धम्मे Translated Sutra: सूत्रकृताङ्ग के तेईस अध्ययन हैं। समय, वैतालिक, उपसर्गपरिज्ञा, स्त्रीपरिज्ञा, नरकविभक्ति, महावीर – स्तुति, कुशीलपरिभाषित, वीर्य, धर्म, समाधि, मार्ग, समवसरण, याथातथ्य ग्रन्थ, यमतीत, गाथा, पुण्डरीक, क्रिया – स्थान, आहारपरिज्ञा, अप्रत्याख्यानक्रिया, अनगारश्रुत, आर्द्रीय, नालन्दीय। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में, | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-३० |
Hindi | 86 | Gatha | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहेवाणंतणाणीणं, जिणाणं वरदंसिणं ।
तेसिं अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ Translated Sutra: जो अज्ञानी पुरुष अनन्तज्ञानी अनन्तदर्शी जिनेन्द्रों का अवर्णवाद करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-३० |
Hindi | 88 | Gatha | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आयरियउवज्झाएहिं, सुयं विणयं च गाहिए ।
ते चेव खिंसई बाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ Translated Sutra: जो अज्ञानी पुरुष, जिन – जिन आचार्यों और उपाध्यायों से श्रुत और विनय धर्म को प्राप्त करता है, उन्हीं की यदि निन्दा करता है, अर्थात् ये कुछ नहीं जानते, ये स्वयं चारित्र से भ्रष्ट हैं, इत्यादि रूप से उनकी बदनामी करता है, तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-३० |
Hindi | 98 | Gatha | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अपस्समाणो पस्सामि, देवे जक्खे य गुज्झगे ।
अन्नाणि जिणपूयट्ठी, महामोहं पकुव्वइ ॥ Translated Sutra: जो देवों, यक्षों और गृह्यकों (व्यन्तरों) को नहीं देखता हुआ भी ‘मैं उनकों देखता हूँ‘ ऐसा कहता है, वह जिनदेव के समान अपनी पूजा का अभिलाषी अज्ञानी पुरुष महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-३२ |
Hindi | 108 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] बत्तीसं देविंदा पन्नत्ता, तं जहा–
चमरे बली धरणे भूयाणंदे वेणुदेवे वेणुदाली हरि हरिस्सहे अग्गिसहे अग्गिमानवे पुन्ने विसिट्ठे जलकंते जलप्पभे अमियगती अमितवाहणे वेलंबे पभंजणे घोसे महाघोसे चंद सूरे सक्के ईसाणे सणंकुमारे माहिंदे बंभे लंतए महासुक्के सहस्सारे पाणए अच्चुए।
कुंथुस्स णं अरहओ बत्तीसहिया बत्तीसं जिणसया होत्था।
सोहम्मे कप्पे बत्तीसं विमानावाससयसहस्सा पन्नत्ता।
रेवइनक्खत्ते बत्तीसइतारे पन्नत्ते।
बत्तीसतिविहे नट्टे पन्नत्ते।
इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता।
अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं Translated Sutra: बत्तीस देवेन्द्र कहे गए हैं। जैसे – १. चमर, २. बली, ३. धरण, ४. भूतानन्द, यावत् (५. वेणुदेव, ६. वेणुदाली ७. हरिकान्त, ८. हरिस्सह, ९. अग्निशिख, १०. अग्निमाणव, ११. पूर्ण, १२. वशिष्ठ, १३. जलकान्त, १४. जलप्रभ, १५. अमितगति, १६. अमितवाहन, १७. वैलम्ब, १८. प्रभंजन) १९. घोष, २०. महाघोष, २१. चन्द्र, २२. सूर्य, २३. शक्र, २४. ईशान, २५. सनत्कुमार, यावत् | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-३५ |
Hindi | 111 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पन्नत्ता।
कुंथू णं अरहा पणतीसं धनूइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था।
दत्ते णं वासुदेवे पणतीसं धनूइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था।
नंदने णं बलदेवे पणतीसं धनूइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था।
सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे हेट्ठा उवरिं च अद्धतेरस-अद्धतेरस जोयणाणि वज्जेत्ता मज्झे पणतीस जोयणेसु वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिन-सकहाओ पन्नत्ताओ।
बिंतियचउत्थीसु–दोसु पुढवीसु पणतीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता। Translated Sutra: पैंतीस सत्यवचन के अतिशय कहे गए हैं। कुन्थु अर्हन् पैंतीस धनुष ऊंचे थे। दत्त वासुदेव पैंतीस धनुष ऊंचे थे। नन्दन बलदेव पैंतीस धनुष ऊंचे थे। सौधर्म कल्प में सुधर्मासभा के माणवक चैत्यस्तम्भ में नीचे और ऊपर साढ़े बारह – साढ़े बारह योजन छोड़ कर मध्यवर्ती पैंतीस योजनों में, वज्रमय, गोल, वर्तुलाकार पेटियों में जिनों | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-४४ |
Hindi | 120 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चोयालीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुयाभासिया पन्नत्ता।
विमलस्स णं अरहतो चोयालीसं पुरिसजुगाइं अणुपट्ठिं सिद्धाइं बुद्धाइं मुत्ताइं अंतगडाइं परिणिव्वुयाइं सव्वदुक्ख प्पहीणाइं।
धरणस्स णं नागिंदस्स नागरण्णो चोयालीसं भवणावाससयसहस्सा पन्नत्ता।
महालियाए णं विमानपविभत्तीए चउत्थे वग्गे चोयालीसं उद्देसनकाला पन्नत्ता। Translated Sutra: चवालीस ऋषिभाषित अध्ययन कहे गए हैं, जिन्हें देवलोक से च्युत हुए ऋषियों ने कहा है। विमल अर्हत् के बाद चवालीस पुरुषयुग (पीढ़ी) अनुक्रम से एक के पीछे एक सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। नागेन्द्र, नागराज धरण के चवालीस लाख भवनावास कहे गए हैं। महालिका विमान प्रविभक्ति | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-५४ |
Hindi | 132 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भरहेरवएसु णं वासेसु एगमेगाए ओसप्पिणीए एगमेगाए उस्सप्पिणीए चउप्पन्नं-चउप्पन्नं उत्तमपुरिसा उप्पज्जिंसु वा उप्पज्जंति वा उप्पज्जिस्संति वा, तं जहा–चउवीसं तित्थकरा, बारस चक्कवट्टी, नव बलदेवा, नव वासुदेवा।
अरहा णं अरिट्ठनेमी चउप्पन्नं राइंदियाइं छउमत्थपरियागं पाउणित्ता जिणे जाए केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी।
समणे भगवं महावीरे एगदिवसेणं एगनिसेज्जाए चउप्पण्णाइं वागरणाइं वागरित्था।
अणंतस्स णं अरहओ चउप्पन्नं गणा चउप्पन्नं गणहरा होत्था। Translated Sutra: भरत और ऐरवत क्षेत्रों में एक एक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में चौपन चौपन उत्तम पुरुष उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। जैसे – चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव और नौ वासुदेव। अरिष्टनेमि अर्हन् चौपन रात – दिन छद्मस्थ श्रमणपर्याय पालकर केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी जिन हुए। श्रमण | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 215 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] दुवालसंगे गणिपिडगे पन्नत्ते, तं जहा–आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विआहपन्नत्ती नायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अनुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणाइं विवागसुए दिट्ठिवाए।
से किं तं आयारे?
आयारे णं समणाणं निग्गंगाणं आयार-गोयर-विनय-वेनइय-ट्ठाण-गमन-चंकमण-पमाण-जोगजुंजण-भासा-समिति-गुत्ती-सेज्जोवहि-भत्तपाण-उग्गम-उप्पायणएसणाविसोहि-सुद्धासुद्धग्ग-हण-वय-नियम-तवोवहाण-सुप्पसत्थमाहिज्जइ।
से समासओ पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–नाणायारे दंसणायारे चरित्तायारे तवायारे वीरियायारे।
आयारस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अनुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा Translated Sutra: गणिपिटक द्वादश अंग स्वरूप है। वे अंग इस प्रकार हैं – आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृत्दशा, अनुत्तरोपपातिक दशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। यह आचारांग क्या है ? इसमें क्या वर्णन किया गया है ? आचारांग में श्रमण निर्ग्रन्थों के आचार, गौचरी, विनय, | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 216 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं सूयगडे?
सूयगडे णं ससमया सूइज्जंति परसमया सूइज्जंति ससमयपरसमया सूइज्जंति जीवा सूइज्जंति अजीवा सूइज्जंति जीवाजीवा सूइ ज्जंति लोगे सूइज्जति अलोगे सूइज्जति लोगालोगे सूइज्जति।
सूयगडे णं जीवाजीव-पुण्ण-पावासव-संवर-निज्जर-बंध-मोक्खावसाणा पयत्था सूइज्जंति, समणाणं अचिरकालपव्वइयाणं कुसमय-मोह-मोह-मइमोहियाणं संदेहजाय-सहजबुद्धि-परिणाम-संसइयाणं पावकर-मइलमइ-गुण-विसोहणत्थं आसीतस्स किरिया वादिसतस्स चउरासीए वेनइय-वाईणं–तिण्हं तेसट्ठाणं अकिरियवाईणं, सत्तट्ठीए अन्नाणियवाईणं, बत्तीसाए वेनइयवाईणं–तिण्हं तेसट्ठाणं अन्नदिट्ठियसयाणं वूहं किच्चा ससमए ठाविज्जति। Translated Sutra: सूत्रकृत क्या है – उसमें क्या वर्णन है ? सूत्रकृत के द्वारा स्वसमय सूचित किये जाते हैं, पर – समय सूचित किये जाते हैं, स्वसमय और परसमय सूचित किये जाते हैं, जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किये जाते हैं, जीव और अजीव सूचित किये जाते हैं, लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोकअलोक सूचित किया जाता है। सूत्रकृत | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 219 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: एक्कविहवत्तव्वयं दुविहवत्तव्वयं जाव दसविहवत्तव्वयं जीवाण पोग्गलाण य लोगट्ठाइणं च परूवणया आघविज्जति।
ठाणस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अनुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जु-त्तीओ संखेज्जाओ संगहणीओ।
से णं अंगट्ठयाए तइए अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा एक्कवीसं उद्देसनकाला एक्कवीसं समुद्देसनकाला बावत्तरिं पयसह-स्साइं पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अनंता गमा अनंता पज्जवा परित्ता तसा अनंता थावरा सासया कडा निबद्धा निकाइया जिनपन्नत्ता भावा आघविज्जंति पन्नविज्जंति परूविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति।
से एवं Translated Sutra: तथा एक – एक प्रकार के पदार्थों का, दो – दो प्रकार के पदार्थों का यावत् दश – दश प्रकार के पदार्थों का कथन किया गया है। जीवों का, पुद्गलों का तथा लोक में अवस्थित धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का भी प्ररूपण किया गया है। स्थानाङ्ग की वाचनाएं परीत (सीमित) हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियाँ | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 220 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं समवाए?
समवाए णं ससमया सूइज्जंति परसमया सूइज्जंति ससमयपरसमया सूइज्जंति जीवा सूइज्जंति अजीवा सूइज्जंति जीवाजीवा सूइज्जंति लोगे सूइज्जति अलोगे सूइज्जति लोगालोगे सूइज्जति।
समवाए णं एकादियाणं एगत्थाणं एगुत्तरियपरिवुड्ढीय, दुवालसंगस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समणुगाइज्जइ, ठाणगसयस्स बारसविहवित्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स भगवओ समासेणं समायारे आहिज्जति, तत्थ य नानाविहप्पगारा जीवाजीवा य वण्णिया वित्थरेण अवरे वि य बहुविहा विसेसा नरग-तिरिय-मणुय-सुरगणाणं अहारुस्सास-लेस-आवास-संख-आययप्पमाण उववाय-चयन-ओगाहणोहि-वेयण-विहाण-उवओग-जोग-इंदिय-कसाय, विविहा य Translated Sutra: समवायाङ्ग क्या है ? इसमें क्या वर्णन है ? समवायाङ्ग में स्वसमय सूचित किये जाते हैं, परसमय सूचित किये जाते हैं और स्वसमय – परसमय सूचित किये जाते हैं। जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किये जाते हैं और जीव – अजीव सूचित किये जाते हैं। लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोक – अलोक सूचित किया जाता है। समवायाङ्ग | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 221 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं वियाहे?
वियाहे णं ससमया वियाहिज्जंति परसमया वियाहिज्जंति ससमयपरसमया वियाहिज्जंति जीवा वियाहिज्जंति अजीवा वियाहि-ज्जंति जीवाजीवा वियाहिज्जंति लोगे वियाहिज्जइ अलोगे वियाहिज्जइ लोगालोगे वियाहिज्जइ। वियाहे णं नाणाविह-सुर-नरिंद-राय-रिसि-विविहसंसइय-पुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं दव्व-गुण-खेत्त-काल-पज्जव-पदेस-परिणाम-जहत्थिभाव-अणुगम-निक्खेव-नय-प्पमाण-सुनिउणोवक्कम-विविहप्पगार-पागड-पयंसियाणं लोगालोग-पगा-सियाणं संसारसमुद्द-रुंद-उत्तरण-समत्थाणं सुरपति-संपूजियाणं भविय-जणपय-हिययाभिनंदियाणं तमरय-विद्धंसणाणं सुदिट्ठं दीवभूय-ईहा-मतिबुद्धि-वद्धणाणं Translated Sutra: व्याख्याप्रज्ञप्ति क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वारा स्वसमय का व्याख्यान किया जाता है, परसमय का व्याख्यान किया जाता है तथा स्वसमय – परसमय का व्याख्यान किया जाता है। जीव व्याख्यात किये जाते हैं, अजीव व्याख्यात किये जाते हैं तथा जीव और अजीव व्याख्यात किये जाते हैं। लोक व्याख्यात | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-७५ |
Hindi | 153 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स अरहओ पन्नत्तरिं जिनसया होत्था।
सीतले णं अरहा पन्नत्तरिं पुव्वसहस्साइं अगारमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अनगारिअं पव्वइए।
संती णं अरहा पन्नत्तरिं वाससहस्साइं अगारवासमज्जावसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए। Translated Sutra: सुविधि पुष्पदन्त अर्हन् के संघ में पचहत्तर सौ केवलि जिन थे। शीतल अर्हन् पचहत्तर हजार पूर्व वर्ष अगारवास में रहकर मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए शान्ति अर्हन् पचहत्तर हजार वर्ष अगारवास में रहकर मुंडित हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-८३ |
Hindi | 162 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणे भगवं महावीरे बासीइराइंदिएहिं वीइक्कंतेहिं तेयासीइमे राइंदिए वट्टमाणे गब्भाओ गब्भं साहरिए।
सीयलस्स णं अरहओ तेसीति गणा तेसीति गणहरा होत्था।
थेरे णं मंडियपुत्ते तेसीइं वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्व-दुक्खप्पहीणे।
उसभे णं अरहा कोसलिए तेसीइं पुव्वसयसहस्साइं अगारवासमज्झावसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अनगारिअं पव्वइए।
भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी तेसीइं पुव्वसयसहस्साइं अनगारमज्झावसित्ता जिने जाए केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी। Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ब्यासी रात – दिनों के बीत जाने पर तियासीवे रात – दिन के वर्तमान होने पर देवानन्दा के गर्भ से त्रिशला के गर्भ में संहृत हुए। शीतल अर्हत् के संघ में तियासी गण और तियासी गणधर थे। स्थविर मंडितपुत्र तियासी वर्ष की सर्व आयु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो सर्व | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-९० |
Hindi | 169 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सीयले णं अरहा नउइं धनूइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था।
अजियस्स णं अरहओ नउइं गणा नउइं गणहरा होत्था।
संतिस्स णं अरहओ नउइं गणा नउइं गणहरा होत्था।
सयंभुस्स णं वासुदेवस्स नउइवासाइं विजए होत्था।
सव्वेसि णं वट्टवेयड्ढपव्वयाणं उवरिल्लाओ सिहरतलाओ सोगंधियकंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते, एस णं नउइं जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते। Translated Sutra: शीतल अर्हत् नब्बे धनुष ऊंचे थे। अजित अर्हत् के नब्बे गण और नब्बे गणधर थे। इसी प्रकार शान्ति जिन के नब्बे गण और नब्बे गणधर थे। स्वयम्भू वासुदेव ने नब्बे वर्ष में पृथ्वी को विजय किया था। सभी वृत्त वैताढ्य पर्वतों के ऊपरी शिखर से सौगन्धिककाण्ड का नीचे का चरमान्त भाग ९००० योजन अन्तर वाला है। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 189 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] बंभ-लंतएसु कप्पेसु विमाणा सत्त-सत्त जोयणसयाइं उड्ढं उच्चत्तेणं पन्नत्ता।
समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त जिनसया होत्था।
समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्त वेउव्वियसया होत्था।
अरिट्ठनेमी णं अरहा सत्त वाससयाइं देसूणाइं केवलपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे।
महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लाओ चरिमंताओ महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स समे धरणितले, एस णं सत्त जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते।
एवं रुप्पिकूडस्सवि। Translated Sutra: ब्रह्म और लान्तक इन दो कल्पों में विमान सात – सात सौ योजन ऊंचे हैं। श्रमण भगवान महावीर के संघ में सात सौ वैक्रिय लब्धिधारी साधु थे। अरिष्टनेमि अर्हत् कुछ कम सात सौ वर्ष केवलिपर्याय में रहकर सिद्ध, बुद्ध, कर्ममुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। महाहिमवन्त कूट के ऊपरी चरमान्त भाग से महाहिमवन्त | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 222 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं नायाधम्मकहाओ?
नायाधम्मकहासु णं नायाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइआइं वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं परियागा संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाइं देवलोगगमणाइं सुकुलपच्चायाती पुण बोहिलाभो अंतकिरियाओ य आघविज्जंति पन्नविज्जंति परूविज्जंति दंसि-ज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति।
नायाधम्मकहासु णं पव्वइयाणं विणयकरण-जिनसामि-सासनवरे संजम-पइण्ण-पालण-धिइ-मइ-ववसाय-दुल्लभाणं, तव-नियम-तवोवहाण-रण-दुद्धरभर-भग्गा-निसहा-निसट्ठाणं, घोर परीसह-पराजिया-ऽसह-पारद्ध-रुद्ध-सिद्धालयमग्ग-निग्गयाणं, Translated Sutra: ज्ञाताधर्मकथा क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? ज्ञाताधर्मकथा में ज्ञात अर्थात् उदाहरणरूप मेघकुमार आदि पुरुषों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, माता – पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक – पारलौकिक ऋद्धि – विशेष, भोग – परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत – परिग्रह, तप – उपधान, दीक्षापर्याय, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 223 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं उवासगदसाओ?
उवासगदसासु णं उवासयाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइआइं वनसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इड्ढिविसेसा, उवासयाणं च सीलव्वय-वेरमण-गुण-पच्चक्खाण-पोसहोववास-पडिवज्जणयाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाइं देवलोगगमणाइं सुकुलपच्चायाई पुण बोहिलाभो अंतकिरियाओ य आघविज्जंति।
उवासगदसासु णं उवासयाणं रिद्धिविसेसा परिसा वित्थर-धम्मसवणाणि बोहिलाभ-अभिगम-सम्मत्तविसुद्धया थिरत्तं मूलगुण-उत्तरगुणाइयारा ठिइविसेसा य बहुविसेसा पडिमा-भिग्गहग्गहणं-पालणा उवसग्गाहियासणा Translated Sutra: उपासकदशा क्या है – उसमें क्या वर्णन है ? उपासकदशा में उपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, माता – पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, इहलौकिक – पारलौकिक ऋद्धि – विशेष, उपासकों के शीलव्रत, पाप – विरमण, गुण, प्रत्याख्यान, पोषधो – पवास – प्रतिपत्ति, श्रुत – परिग्रह, तप – उपधान, ग्यारह प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 224 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अंतगडदसाओ?
अंतगडदसासु णं अंतगडाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं पडिमाओ बहुविहाओ, खमा अज्जवं मद्दवं च, सोअं च सच्चसहियं, सत्तरसविहो य संजमो उत्तमं च बंभं, आकिंचणया तवो चियाओ समिइगुत्तीओ चेव, तहं अप्पमायजोगो, सज्झायज्झाणाण य उत्तमाणं दोण्हंपि लक्खणाइं।
पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउव्विहकम्मक्खयम्मि जह केवलस्स लंभो, परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ मुणिहिं, पायोवगओ य जो जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेयइत्ता अंतगडो मुणिवरो Translated Sutra: अन्तकृद्दशा क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? अन्तकृत्दशाओं में कर्मों का अन्त करने वाले महापुरुषों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, माता – पिता समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक – पारलौकिक ऋद्धि – विशेष, भोग – परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत – परिग्रह, तप – उपधान, अनेक प्रकार की प्रतिमाएं, क्षमा, आर्जव, मार्दव, | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 225 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं अनुत्तरोववाइयदसाओ?
अनुत्तरोववाइयदसासु णं अनुत्तरोववाइयाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं परियागा संलेहणाओ भत्त पच्चक्खाणाइं पाओवगमणाइं अणुत्तरोववत्ति सुकुल-पच्चायाती पुण बोहिलाभो अंतकिरियाओ य आघविज्जंति।
अनुत्तरोववातियदसासु णं तित्थकरसमोसरणाइं परममंगल्लजगहियाणि जिनातिसेसा य बहुविसेसा जिनसीसाणं चेव समणगणपवरगंधहत्थीणं थिरजसाणं परिसहसेण्ण-रिउ-बल-पमद्दणाणं तव-दित्त-चरित्त-नाण-सम्मत्तसार-विविह-प्पगार-वित्थर-पसत्थगुण-संजुयाणं Translated Sutra: अनुत्तरोपपातिकदशा क्या है ? इसमें क्या वर्णन है ? अनुत्तरोपपातिकदशा में अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले महा अनगारों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजगण, माता – पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, इहलौकिक पारलौकिक विशिष्ट ऋद्धियाँ, भोग – परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत का परिग्रहण, तप – उपधान, पर्याय, प्रतिमा, | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 226 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं पण्हावागरणाणि?
पण्हावागरणेसु अट्ठुत्तरं पसिणसयं अट्ठुत्तरं अपसिणसयं अट्ठुत्तरं पसिणापसिणसयं विज्जाइसया, नागसुवण्णेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया आघविज्जंति।
पण्हावागरणदसासु णं ससमय-परसमय-पन्नवय-पत्तेयबुद्ध-विविहत्थ-भासा-भासियाणं अतिसय-गुण-उवसम-नाणप्पगार-आयरिय-भासियाणं वित्थरेणं वीरमहेसीहिं विविहवित्थर-भासियाणं च जगहियाणं अद्दागंगुट्ठ-बाहु-असि-मणि-खीम-आतिच्चमातियाणं विविहमहापसिण-विज्जा-मनपसिणविज्जा-देवय-पओगपहाण-गुणप्पगासियाणं सब्भूयविगुणप्पभाव-नरगणमइ-विम्हयकारीणं अतिसयमतीतकालसमए दमतित्थकरुत्तमस्स ठितिकरण-कारणाणं दुरहिगमदुर- वगाहस्स Translated Sutra: प्रश्नव्याकरण अंग क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? प्रश्नव्याकरण अंग में एक सौ आठ प्रश्नों, एक सौ आठ अप्रश्नों और एक सौ आठ प्रश्ना – प्रश्नों को, विद्याओं को, अतिशयों को तथा नागों – सुपर्णों के साथ दिव्य संवादों को कहा गया है। प्रश्नव्याकरणदशा में स्वसमय – परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येकबुद्धों के विविध अर्थों |