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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1314 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मंडवियाए भवेयव्वं दुक्कर-कारि भणित्तु णं।
नवरं एयारिसं भविया, किमत्थं गोयमा एयं पुणो तं पपुच्छसी॥ Translated Sutra: फिर से तुम्हें यह पूछे गए सवाल का प्रत्युत्तर देता हूँ कि चार ज्ञान के स्वामी, देव – असुर और जगत के जीव से पूजनीय निश्चित उस भव में ही मुक्ति पानेवाले हैं। आगे दूसरा भव नहीं होगा। तो भी अपना बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम छिपाए बिना उग्र कष्टमय घोर दुष्कर तप का वो सेवन करते हैं। तो फिर चार गति स्वरूप संसार के जन्म | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1374 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो चंदनेन बाहुं आलिंपइ वासिणा व जो तच्छे।
संथुणइ जो अ निंदइ सम-भावो हुज्ज दुण्हं पि॥ Translated Sutra: जो कोइ बावन चंदन के रस से शरीर और और बाहूँ पर विलेपन करे, या किसी बाँस से शरीर छिले, कोई उसके गुण की स्तुति करे या अवगुण की नींदा करे तो दोनो पर समान भाव रखनेवाला उस प्रकार बल, वीर्य, पुरुषार्थ पराक्रम को न छिपाते हुए, तृण और मणि, ढ़ेफा और कंचन की ओर समान मनवाला, व्रत, नियम, ज्ञान, चारित्र, तप आदि समग्र भुवन में अद्वितीय, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1379 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं तं बितियं पायच्छित्तस्सणं पयं गोयमा बीयं तइयं चउत्थं पंचमं जाव णं संखाइयाइं पच्छित्तस्स णं पयाइं ताव णं एत्थं च एव पढम पच्छित्त पए अंतरोवगायाइं समनुविंदा।
से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ गोयमा जओ णं सव्वावस्सग्ग-कालाणुपेही भिक्खू णं रोद्दट्टज्झाण राग दोस कसाय गारव ममाकाराइसुं णं अनेग पमायालंबणेसु सव्व भाव भावतरंतरेहि णं अच्चंत विप्पमुक्को भवेज्जा।
केवलं तु नाण दंसण चारित्त तवोकम्म सज्झायज्झाण सद्धम्मावस्सगेसु अच्चंतं अनिगूहिय बल वीरिय परक्कमे सम्मं अभिरमेज्जा। जाव णं सद्धम्मावस्सगेसुं अभिरमेज्जा, ताव णं सुसंवुडासवदारे हवेज्जा। जाव Translated Sutra: हे भगवंत ! प्रायश्चित्त का दूसरा पद क्या है ? हे गौतम ! दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवा यावत् संख्यातीत प्रायश्चित्त पद स्थान को यहाँ प्रथम प्रायश्चित्त पद के भीतर अंतर्गत् रहे समझना। हे भगवंत ! ऐसा किस कारण से आप कहते हो ? हे गौतम ! सर्व आवश्यक के समय का सावधानी से उपयोग रखनेवाले भिक्षु रौद्र – आर्तध्यान, राग, द्वेष, | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1382 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे णं पडिक्कमणं न पडिक्कमेज्जा, से णं तस्सोट्ठावणं निद्दिसेज्जा। बइट्ठ-पडिक्कमणे खमणं। सुन्नासुन्नीए अणोवउत्तपमत्तो वा पडिक्कमणं करेज्जा, दुवालसं। पडिक्कमण-कालस्स चुक्कइ, चउत्थं। अकाले पडिक्कमणं करेज्जा, चउत्थं। कालेण वा पडिक्कमणं नो करेज्जा, चउत्थं।
संथारगओ वा संथारगोवविट्ठो वा पडिक्कमणं करेज्जा, दुवालसं। मंडलीए न पडिक्क-मेज्जा, उवट्ठावणं। कुसीलेहिं समं पडि-क्कमणं करेज्जा, उवट्ठावणं। परिब्भट्ठ बंभचेर वएहिं समं पडिक्कमेज्जा, पारंचियं। सव्वस्स समणसंघस्स तिविहं तिविहेण खमण-मरि सामणं अकाऊणं पडिक्कमणं करेज्जा, उवट्ठावणं। पयं पएणाविच्चामेलिय पडिक्कमण Translated Sutra: जो प्रतिक्रमण न करे उसे उपस्थापना का प्रायश्चित्त देना। बैठे – बैठे प्रतिक्रमण करनेवाले को खमण (उपवास), शून्याशून्यरूप से यानि कि यह सूत्र बोला गया है या नहीं वैसे उपयोगरहित अनुपयोग से प्रमत्तरूप से प्रतिक्रमण किया जाए तो पाँच उपवास, मांड़ली में प्रतिक्रमण न करे तो उपस्थापना; कुशील के साथ प्रतिक्रमण करे तो | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1383 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वज्जेंतो बीय-हरीयाइं, पाणे य दग-मट्टियं।
उववायं विसमं खाणुं रन्नो गिहवईणं च॥ Translated Sutra: ऐसे करते हुए भिक्षा का समय आ पहुँचा। हे गौतम ! इस अवसर पर पिंड़ेसणा – शास्त्र में बताए विधि से दीनता रहित मनवाला भिक्षु बीज और वनस्पतिकाय, पानी, कीचड़, पृथ्वीकाय को वर्जते, राजा और गृहस्थ की ओर से होनेवाले विषम उपद्रव – कदाग्रही को छोड़नेवाला, शंकास्थान का त्याग करनेवाला, पाँच समिति, तीन गुप्ति में उपयोगवाला, गोचरचर्या | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ प्रायश्चित् सूत्रं चूलिका-१ एकांत निर्जरा |
Hindi | 1412 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ता इहइं चेव सव्वं पि निय-दुच्चरियं जह-ट्ठियं।
आलोएत्ता निंदित्ता गरहित्ता पायच्छित्तं चरित्तु णं॥ Translated Sutra: तो उसके बदले यही मेरा समग्र दुश्चरित्र का जिस प्रकार मैंने सेवन किया हो उसके अनुसार प्रकट करके गुरु के पास आलोचना करके निन्दना करके, गर्हणा करके, प्रायश्चित्त का सेवन करके, धीर – वीर – पराक्रमवाला घोर तप करके संसार के दुःख देनेवाले पापकर्म को जलाकर भस्म कर दूँ। सूत्र – १४१२, १४१३ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1484 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं केणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ ते णं काले णं ते णं समएणं सुसढणामधेज्जे अनगारे हभूयवं। तेणं च एगेगस्स णं पक्खस्संतो पभूय-ट्ठाणिओ आलोयणाओ विदिन्नाओ सुमहंताइं च। अच्चंत घोर सुदुक्कराइं पायच्छित्ताइं समनुचिन्नाइं। तहा वि तेणं विरएणं विसोहिपयं न समुवलद्धं ति एतेणं अट्ठेणं एवं वुच्चइ।
से भयवं केरिसा उ णं तस्स सुसढस्स वत्तव्वया गोयमा अत्थि इहं चेव भारहेवासे, अवंती नाम जनवओ। तत्थ य संबुक्के नामं खेडगे। तम्मि य जम्मदरिद्दे निम्मेरे निक्किवे किविणे निरणुकंपे अइकूरे निक्कलुणे णित्तिंसे रोद्दे चंडरोद्दे पयंडदंडे पावे अभिग्गहिय मिच्छादिट्ठी अणुच्चरिय नामधेज्जे Translated Sutra: हे भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहा ? उस समय में उस समय यहाँ सुसढ़ नाम का एक अनगार था। उसने एक – एक पक्ष के भीतर कईं असंयम स्थानक की आलोचना दी और काफी महान घोर दुष्कर प्रायश्चित्त का सेवन किया। तो भी उस बेचारे को विशुद्धि प्राप्त नहीं हुई। इस कारण से ऐसा कहा। हे भगवंत ! उस सुसढ़ की वक्तव्यता किस तरह की है ? हे गौतम ! इस भारत | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1498 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं पुन काऊणं एरिसा सुलहबोही जाया सा सुगहियनामधेज्जा माहणी जीए एयावइयाणं भव्व-सत्ताणं अनंत संसार घोर दुक्ख संतत्ताणं सद्धम्म देसणाईहिं तु सासय सुह पयाणपुव्वगमब्भुद्धरणं कयं ति। गोयमा जं पुव्विं सव्व भाव भावंतरंतरेहिं णं नीसल्ले आजम्मा-लोयणं दाऊणं सुद्धभावाए जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं। पायच्छित्तसमत्तीए य समाहिए य कालं काऊणं सोहम्मे कप्पे सुरिंदग्गमहिसी जाया तमनुभावेणं।
से भयवं किं से णं माहणी जीवे तब्भवंतरम्मि समणी निग्गंथी अहेसि जे णं नीसल्लमालोएत्ता णं जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं ति। गोयमा जे णं से माहणी जीवे से णं तज्जम्मे बहुलद्धिसिद्धी Translated Sutra: हे भगवंत ! उस ब्राह्मणीने ऐसा तो क्या किया कि जिससे इस प्रकार सुलभ बोधि पाकर सुबह में नाम ग्रहण करने के लायक बनी और फिर उसके उपदेश से कईं भव्य जीव नर – नारी कि जो अनन्त संसार के घोर दुःख में सड़ रहे थे उन्हें सुन्दर धर्मदेश आदि के द्वारा शाश्वत सुख देकर उद्धार किया। हे गौतम ! उसने पूर्वभव में कईं सुन्दर भावना सहित | |||||||||
Nandisutra | नन्दीसूत्र | Ardha-Magadhi |
नन्दीसूत्र |
Hindi | 36 | Gatha | Chulika-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्तो हिमवंतमहंत-विक्कमे धिइ-परक्कममनंते ।
सज्झायमनंतधरे, हिमवंते वंदिमो सिरसा ॥ Translated Sutra: हिमवंत के सदृश विस्तृत क्षेत्र में विचरण करनेवाले महान् विक्रमशाली, अनन्त धैर्यवान् और पराक्रमी, अनन्त स्वाध्याय के धारक आर्य हिमवान् को मस्तक नमाकर वन्दन करता हूँ। | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Hindi | 499 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] हत्थकप्प गिरिफुल्लिय रायगिहं खलु तहेव चंपा य ।
कडघयपुन्ने इट्टग लड्डग तह सीहकेसरए ॥ Translated Sutra: विद्या – ओम्कारादि अक्षर समूह – एवं मंत्र योगादि का प्रभाव, तप, चार – पाँच उपवास, मासक्षमण आदि का प्रभाव, राजा – राजा, प्रधान आदि अधिकारी का माननीय राजादि वल्लभ, बल – सहस्र योद्धादि जितना साधु का पराक्रम देखकर या दूसरों से मालूमात करके, गृहस्थ सोचे कि, यदि यह साधु को नहीं देंगे तो शाप देंगे, तो घर में किसी को मौत | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
एषणा |
Hindi | 671 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नामं ठवणा दवए भावे धासेसणा मुनेयव्वा ।
दव्वे मच्छाहरणं भावंमि य होइ पंचविहा ॥ Translated Sutra: ग्रास एषणा के चार निषेप हैं – १. नाम ग्रासैषणा, २. स्थापना ग्रासैषणा, ३. द्रव्य ग्रासैषणा, ४. भाव ग्रासैषणा। द्रव्य ग्रासैषणा में मत्स्य का दृष्टान्त। नाम ग्रासैषणा – ग्रासएषणा ऐसा किसी का नाम होता। स्थापना ग्रासैषणा – ग्रासएषणा की कोई आकृति बनाई हो। द्रव्य ग्रासैषणा के तीन भेद हैं – सचित्त, अचित्त या मिश्र। | |||||||||
Pragnapana | प्रज्ञापना उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
पद-२३ कर्मप्रकृति |
उद्देशक-१ | Hindi | 539 | Sutra | Upang-04 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स पुट्ठस्स बद्ध-फास-पुट्ठस्स संचियस्स चियस्स उवचियस्स आवागपत्तस्स विवागपत्तस्स फलपत्तस्स उदयपत्तस्स जीवेणं कडस्स जीवेणं निव्वत्तियस्स जीवेणं परिणामियस्स सयं वा उदिण्णस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स गतिं पप्प ठितिं पप्प भवं पप्प पोग्गलं पप्प पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अनुभावे पन्नत्ते?
गोयमा! नाणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अनुभावे पन्नत्ते, तं जहा–सोयावरणे सोयाविण्णाणावरणे णेत्तावरणे णेत्तविण्णाणावरणे घाणावरणे घाणविण्णाणावरणे रसावरणे रसविण्णाणावरणे Translated Sutra: भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट, बद्ध और स्पृष्ट किये हुए, सचित्त, चित्त और अपचित्त किये हुए, किञ्चित्विपाक को प्राप्त, विपाक को प्राप्त, फल को प्राप्त तथा उदयप्राप्त, जीव के द्वारा कृत, निष्पादित और परिणामित, स्वयं के द्वारा दूसरे के द्वारा या दोनों के द्वारा उदीरणा – प्राप्त, ज्ञानावरणीयकर्म का, गति को, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ अब्रह्म |
Hindi | 19 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण निसेवंति सुरगणा सअच्छरा मोह मोहिय मती, असुर भयग गरुल विज्जु जलण दीव उदहि दिस पवण थणिया। अणवण्णिय पणवण्णिय इसिवादिय भूयवादियकंदिय महाकंदिय कूहंड पतगदेवा, पिसाय भूय जक्ख रक्खस किन्नर किंपुरिस महोरग गंधव्व तिरिय जोइस विमाणवासि मणुयगणा, जलयर थलयर खहयराय मोहपडिबद्धचित्ता अवितण्हा कामभोग-तिसिया, तण्हाए बलवईए महईए समभिभूया गढिया य अतिमुच्छिया य, अबंभे ओसण्णा, तामसेन भावेण अणुम्मुक्का, दंसण-चरित्तमोहस्स पंजरं पिव करेंतिअन्नोन्नं सेवमाणा।
भुज्जो असुर सुर तिरिय मणुय भोगरत्ति विहार संपउत्ता य चक्कवट्टी सुरनरवतिसक्कया सुरवरव्व देवलोए भरह नग नगर नियम Translated Sutra: उस अब्रह्म नामक पापास्रव को अप्सराओं के साथ सुरगण सेवन करते हैं। कौन – से देव सेवन करते हैं ? जिनकी मति मोह के उदय से मूढ़ बन गई है तथा असुरकुमार, भुजगकुमार, गरुड़कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार तथा स्तनितकुमार, ये भवनवासी, अणपन्निक, पणपण्णिक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, | |||||||||
Prashnavyakaran | प्रश्नव्यापकरणांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
आस्रवद्वार श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ अदत्त |
Hindi | 15 | Sutra | Ang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तं च पुण करेंति चोरियं तक्करा परदव्वहरा छेया कयकरण लद्धलक्खा साहसिया लहुस्सगा अतिमहिच्छ लोभगत्था, दद्दर ओवीलका य गेहिया अहिमरा अणभंजका भग्गसंधिया रायदुट्ठकारी य विसयनिच्छूढा लोकवज्झा, उद्दहक गामघाय पुरघाय पंथघायग आलीवग तित्थभेया लहुहत्थ संपउत्ता जूईकरा खंडरक्खत्थीचोर पुरिसचोर संधिच्छेया य गंथिभेदगपरधनहरणलोमावहार- अक्खेवी हडकारक निम्मद्दग गूढचोर गोचोर अस्सचोरग दासिचोरा य एकचोरा ओकड्ढक संपदायक उच्छिंपक सत्थघायक बिलकोलीकारका य निग्गाह विप्पलुंपगा बहुविहतेणिक्कहरणबुद्धी, एते अन्नेय एवमादी परस्स दव्वाहि जे अविरया।
विपुलबल-परिग्गहा य बहवे रायाणो Translated Sutra: उस चोरी को वे चोर – लोग करते हैं जो परकीय द्रव्य को हरण करने वाले हैं, हरण करने में कुशल हैं, अनेकों बार चोरी कर चूके हैं और अवसर को जानने वाले हैं, साहसी हैं, जो तुच्छ हृदय वाले, अत्यन्त महती ईच्छा वाले एवं लोभ से ग्रस्त हैं, जो वचनों के आडम्बर से अपनी असलियत को छिपाने वाले हैं – आसक्त हैं, जो सामने से सीधा प्रहार | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्याभदेव प्रकरण |
Hindi | 5 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरियाभे देवे सोहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाने सभाए सुहम्माए सूरियाभंसि सीहासनंसि चउहिं सामानियसाहस्सीहिं, चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, तिहिं परिसाहिं, सत्तहिं अनिएहिं, सत्तहिं अनियाहिवईहिं, सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं, अन्नेहिं बहूहिं सूरियाभ-विमानवासीहिं वेमानिएहिं देवेहिं देवीहिं य सद्धिं संपरिवुडे महयाहयनट्ट गीय वाइय तंती तल ताल तुडिय घन मुइंग पडुप्पवादियरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरति, इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे-आभोएमाणे पासति।
तत्थ समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे (दीवे?) भारहे Translated Sutra: उस काल उस समय में सूर्याभ नामक देव सौधर्म स्वर्ग में सूर्याभ नामक विमान की सुधर्मा सभा में सूर्याभ सिंहासन पर बैठकर चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा और बहुत से सूर्याभ विमानवासी वैमानिक देवदेवियों सहित अव्याहत निरन्तर | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२४. श्रमणधर्मसूत्र | Hindi | 337 | View Detail | ||
Mool Sutra: सीह-गय-वसह-मिय-पसु, मारुद-सूरूवहि-मंदरिंदु-मणी।
खिदि-उरगंवरसरिसा, परम-पय-विमग्गया साहू।।२।। Translated Sutra: परमपद की खोज में निरत साधु सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत-आश्रयी तथा | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | English | 372 | View Detail | ||
Mool Sutra: अतिभूमिं न गच्छेद्, गोचराग्रगतो मुनिः।
कुलस्य भूमिं ज्ञात्वा, मितां भूमिं पराक्रमेत्।।९।। Translated Sutra: A monk set out on a begging-tour should not go beyond the prescribed limit of land; thus having prior monks to beg for alms, he should wander around in a limited area of land. | |||||||||
Saman Suttam | સમણસુત્તં | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | Gujarati | 372 | View Detail | ||
Mool Sutra: अतिभूमिं न गच्छेद्, गोचराग्रगतो मुनिः।
कुलस्य भूमिं ज्ञात्वा, मितां भूमिं पराक्रमेत्।।९।। Translated Sutra: ગોચરી(ભિક્ષા-માધુકરી) માટે ગયેલા મુનિએ ઘરની અંદર બહુ ઊંડે જવું નહિ. તે તે ઘરની મર્યાદાને સમજી લઈને અમુક ભાગ સુધી જ અંદર જવું. | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२४. श्रमणधर्मसूत्र | Hindi | 337 | View Detail | ||
Mool Sutra: सिंह-गज-वृषभ-मृग-पशु, मारुत-सूर्योदधि-मन्दरेन्दु-मणयः।
क्षिति-उरगाम्बरसदृशाः, परमपद-विमार्गकाः साधवः।।२।। Translated Sutra: परमपद की खोज में निरत साधु सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत-आश्रयी तथा | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२५. व्रतसूत्र | Hindi | 372 | View Detail | ||
Mool Sutra: अतिभूमिं न गच्छेद्, गोचराग्रगतो मुनिः।
कुलस्य भूमिं ज्ञात्वा, मितां भूमिं पराक्रमेत्।।९।। Translated Sutra: गोचरी के लिए जानेवाले मुनि को वर्जित भूमि में प्रवेश नहीं करना चाहिए। कुल की भूमि को जानकर मितभूमि तक ही जाना चाहिए। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-१ |
Hindi | 1 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–
इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसोत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपोंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा लोगोत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोग-पज्जोयगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मनायगेणं धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा अप्पडिहयवरणाणदंसणधरेणं वियट्ट-च्छउमेणं जिणेणं जावएणं तिण्णेणं तारएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं सव्वण्णुणा सव्व-दरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तयं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउका- मेणं Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! उन भगवान ने ऐसा कहा है, मैने सूना है। [इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के अन्तिम समय में विद्यमान उन श्रमण भगवान महावीर ने द्वादशांग गणिपिटक कहा है, वे भगवान] – आचार आदि श्रुतधर्म के आदिकर हैं (अपने समय में धर्म के आदि प्रणेता हैं), तीर्थंकर हैं, (धर्मरूप तीर्थ के प्रवर्तक हैं)। स्वयं सम्यक् बोधि को | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 327 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जंबुद्दीवे णं दीवे भरहे वासे इमाए ओसप्पिणीए नव दसारमंडला होत्था, तं जहा–उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी छायंसी कंता सोमा सुभगा पियदंसणा सुरूवा सुहसीला सुहाभिगमा सव्वजण-नयन-कंता ओहबला अतिबला महाबला अनिहता अपराइया सत्तुमद्दणा रिपुसहस्समाण-महणा सानुक्कोसा अमच्छरा अचवला अचंडा मियमंजुल-पलाव-हसिया गंभीर-मधुर-पडिपुण्ण-सच्चवयणा अब्भुवगय-वच्छला सरण्णा लक्खण-वंजण-गुणोववेया मानुम्मान-पमाण-पडिपुण्ण-सुजात-सव्वंग-सुंदरंगा ससि-सोमागार-कंत-पिय-दंसणा अमसणा पयंडदंडप्पयार-गंभीर-दरिसणिज्जा तालद्धओ-व्विद्ध-गरुल-केऊ महाधणु-विकड्ढगा Translated Sutra: इस जम्बूद्वीप में इस भारतवर्ष के इस अवसर्पिणीकाल में नौ दशारमंडल (बलदेव और वासुदेव समुदाय) हुए हैं। सूत्रकार उनका वर्णन करते हैं – वे सभी बलदेव और वासुदेव उत्तम कुल में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ पुरुष थे, तीर्थंकरादि शलाका – पुरुषों के मध्य – वर्ती होने से मध्यम पुरुष थे, अथवा तीर्थंकरों के बल की अपेक्षा कम और सामान्य | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-१ |
Hindi | 42 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एगे उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसकार-परक्कमे देवासुरमनुयाणं तंसि तंसि समयंसि। Translated Sutra: देव, असुर और मनुष्यों के एक समय में एक ही उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पौरुष पराक्रम होता है। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-१ | Hindi | 141 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेज्जा, तं जहा–विकुव्वमाणे वा, परियारेमाणे वा, ठाणाओ वा ठाणं संकममाने–तारारूवे चलेज्जा।
तिहिं ठाणेहिं देवे विज्जुयारं करेज्जा, तं जहा–विकुव्वमाणे वा, परियारेमाणे वा, तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इड्ढिं जुतिं जसं बलं वीरियं पुरिसक्कार-परक्कमं उवदंसेमाणे– देवे विज्जुयारं करेज्जा।
तिहिं ठाणेहिं देवे थणियसद्दं करेज्जा, तं जहा– विकुव्वमाणे वा, परियारेमाने वा, तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इड्ढिं जुतिं जसं बलं वीरियं पुरिसक्कार-परक्कमं उवदंसेमाणे– देवे थणियसद्दं करेज्जा। Translated Sutra: तीन कारणों से तारे अपने स्थान से चलित होते हैं, यथा – वैक्रिय करते हुए, विषय – सेवन करते हुए, एक स्थान से दूसरे स्थान पर संक्रमण करके जाते हुए। तीन कारणों से देव विद्युत चमकाते हैं, यथा – वैक्रिय करते हुए, विषय – सेवन करते हुए तथारूप श्रमण – माहन को ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पौरुष पराक्रम बताते हुए। तीन कारणों | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-३ | Hindi | 191 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ ठाणाइं देवे पीहेज्जा, तं जहा– माणुस्सगं भवं, आरिए खेत्ते जम्मं, सुकुलपच्चायातिं।
तिहिं ठाणेहिं देवे परितप्पेज्जा, तं जहा–
१. अहो! णं मए संते बले संते वीरिए संते पुरिसक्कार-परक्कमे खेमंसि सुभिक्खंसि आयरिय-उवज्झाएहिं विज्जमानेहिं कल्लसरीरेणं नो बहुए सुते अहीते। २. अहो! णं मए इहलोगपडिबद्धेणं परलोगपरंमुहेणं विसयतिसितेणं नो दीहे सामण्णपरियाए अनुपालिते।
३. अहो! णं मए इड्ढि-रस-साय-गरुएणं भोगासंसगिद्धेणं नो विसुद्धे चरित्ते फासिते।
इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं देवे परितप्पेज्जा। Translated Sutra: तीन स्थानों की देवता भी अभिलाषा करते हैं, यथा – मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र में जन्म और उत्तम कुल में उत्पत्ति। तीन कारणों से देव पश्चात्ताप करते हैं, यथा – अहो ! मैंने बल होते हुए, शक्ति होते हुए, पौरुष – पराक्रम होते हुए भी निरुपद्रवता और सुभिक्ष होने पर भी आचार्य और उपाध्याय के विद्यमान होने पर और नीरोगी शरीर होने | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-४ | Hindi | 212 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तिहिं ठाणेहिं देसे पुढवीए चलेज्जा, तं जहा–
१. अहे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उराला पोग्गला नीवतेज्जा। तते णं उराला पोग्गला नीवतमाणा देसं पुढवीए चालेज्जा।
२. महोरगे वा महिड्ढीए जाव महेसक्खे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे उम्मज्ज-नीमज्जियं करेमाणेदेसं पुढवीए चालेज्जा।
३. नागसुवण्णाण वा संगामंसि वट्टमाणंसि देसं [देसे?] पुढवीए चलेज्जा।
इच्चेतेहिं तिहिं ठाणेहिं देसे पुढवीए चलेज्जा।
तिहिं ठाणेहिं केवलकप्पा पुढवी चलेज्जा, तं जहा–
१. अधे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घनवाते गुप्पेज्जा। तए णं से घनवाते गुविते समाने घनोदहिमेएज्जा। तए णं से घनोदही एइए समाने केवलकप्पं पुढविं Translated Sutra: तीन कारणों से पृथ्वी का थोड़ा भाग चलायमान होता है, यथा – रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे बादर पुद्गल आकर लगे या वहाँ से अलग होवे तो वे लगने या अलग होने वाले बादर पुद्गल पृथ्वी के कुछ भाग को चलायमान करते हैं, महा ऋद्धि वाला यावत् महेश कहा जाने वाला महोरग देव इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे आवागमन करे तो पृथ्वी चलायमान | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Hindi | 250 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते नाममेगे उन्नते, उन्नते नाममेगे पनते, पनते नाममेगे उन्नते, पनते नाममेगे पनते।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते नामेगे उन्नते, उन्नते नाममेगे पनते, पनते नाममेगे उन्नते, पनते नाममेगे पनते।
चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते गाममेगे उन्नतपरिणते, उन्नते नाममेगे पनतपरिणते, पनते नाममेगे उन्नतपरिणते, पनते नाममेगे पनतपरिणते।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते नाममेगे उन्नतपरिणते, उन्नते नाममेगे पनतपरिणते, पनते नाममेगे उन्नतपरिणते, पनते नाममेगे पनतपरिणते।
चत्तारि रुक्खा पन्नत्ता, तं जहा–उन्नते Translated Sutra: चार प्रकार के वृक्ष कहे गए हैं, यथा – कितनेक द्रव्य से भी ऊंचे और भाव से भी ऊंचे, कितनेक द्रव्य से ऊंचे किन्तु भाव से नीचे, कितनेक द्रव्य से नीचे किन्तु भाव से ऊंचे, कितनेक द्रव्य से भी नीचे और भाव से भी नीचे। इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा – कितनेक द्रव्य से ‘जाति से’ उन्नत और गुण से भी उन्नत इस प्रकार | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Hindi | 253 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तं जहा– सुद्धे नामं एगे सुद्धे, सुद्धे नामं एगे असुद्धे, असुद्धे नामं एगे सुद्धे, असुद्धे नामं एगे असुद्धे।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा– सुद्धे नामं एगे सुद्धे, सुद्धे नामं एगे असुद्धे, असुद्धे नामं एगे सुद्धे, असुद्धे नामं एगे असुद्धे।
चत्तारि वत्था पन्नत्ता, तं जहा– सुद्धे नामं एगे सुद्धपरिणाए, सुद्धे नामं एगे असुद्धपरिणए, असुद्धे नामं एगे सुद्धपरिणए, असुद्धे नामं एगे असुद्धपरिणए।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा– सुद्धे नामं एगे सुद्धपरिणए, सुद्धे नामं एगे असुद्धपरिणए, असुद्धे नामं एगे सुद्धपरिणए, असुद्धे Translated Sutra: चार प्रकार के वस्त्र कहे गए हैं, यथा – शुद्ध तन्तु आदि से बुना हुआ भी है और बाह्य मेल से रहित भी है। शुद्ध बुना हुआ तो है परन्तु मलिन है, शुद्ध बुना हुआ नहीं परन्तु स्वच्छ है। शुद्ध बुना हुआ भी नहीं है और स्वच्छ भी नहीं है इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा – जाति आदि से शुद्ध और ज्ञानादी गुण से भी शुद्ध। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Hindi | 255 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–सच्चे नामं एगे सच्चे, सच्चे नामं एगे असच्चे, असच्चे नामं एगे सच्चे, असच्चे नामं एगे असच्चे।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–सच्चे नामं एगे सच्चपरिणते, सच्चे नामं एगे असच्चपरिणते, असच्चे नामं एगे सच्चपरिणते, असच्चे नामं एगे असच्चपरिणते।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–सच्चे नामं एगे सच्चरूवे, सच्चे नामं एगे असच्चरूवे, असच्चे नामं एगे सच्चरूवे, असच्चे नामं एगे असच्चरूवे।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–सच्चे नामं एगे सच्चमने, सच्चे नामं एगे असच्चमने, असच्चे नामं एगे सच्चमने, असच्चे नामं एगे असच्चमने।
चत्तारि पुरिसजाया Translated Sutra: चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा – कितने द्रव्य से भी सत्य और भाव से भी सत्य होते हैं। कितने द्रव्य से सत्य और भाव से असत्य होते हैं। इत्यादि चार भंग। इसी तरह परिणत यावत् – पराक्रम से चार भंग जानने चाहिए। चार प्रकार के वस्त्र कहे गए हैं, यथा – कितनेक स्वभाव से भी पवित्र और संस्कार से भी पवित्र, कितनेक स्वभाव | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-२ | Hindi | 293 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–दीने नाममेगे दीने, दीने नाममेगे अदीने, अदीने नाममेगे दीने, अदीने नाममेगे अदीने।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–दीने नाममेगे दीनपरिणते, दीने नाममेगे अदीनपरिणते, अदीने नाममेगे दीनपरिणते, अदीने नाममेगे अदीनपरिणते।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–दीने नाममेगे दीनरूवे, दीने नाममेगे अदीनरूवे, अदीने नाममेगे दीनरूवे, अदीने नाममेगे अदीनरूवे।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–दीने नाममेगे दीनमने, दीने नाममेगे अदीनमने, अदीने नाममेगे दीनमने, अदीने नाममेगे अदीनमने।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा– दीने नाममेगे दीनसंकप्पे, Translated Sutra: पुरुष वर्ग चार प्रकार का है। एक पुरुष दीन है (धनहीन है) और दीन है (हीनमना है)। एक पुरुष दीन है (धनहीन है) किन्तु अदीन है (महामना है)। एक पुरुष अदीन है (धनी है) किन्तु दीन है (हीनमना है)। एक पुरुष अदीन है (धनी है) और अदीन (महामना भी है)। पुरुष वर्ग चार प्रकार का है। पुरुष दीन है (प्रारम्भिक जीवन में भी निर्धन है) और दीन है | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-२ | Hindi | 294 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–अज्जे नाममेगे अज्जे, अज्जे नाममेगे अणज्जे, अणज्जे नाममेगे अज्जे, अणज्जे नाममेगे अणज्जे।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–अज्जे नाममेगे अज्जपरिणए, अज्जे नाममेगे अणज्ज-परिणए, अणज्जे नाममेगे अज्जपरिणए, अणज्जे नाममेगे अणज्जपरिणए।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–अज्जे नाममेगे अज्जरूवे, अज्जे नाममेगे अणज्जरूवे, अणज्जे अज्जरूवे, अणज्जे नाममेगे अणज्जरूवे।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–अज्जे नाममेगे अज्जमणे, अज्जे नाममेगे अणज्जमणे, अणज्जे नाममेगे अज्जमणे, अणज्जे नाममेगे अणज्जमणे।
चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं Translated Sutra: पुरुष वर्ग चार प्रकार का है। एक पुरुष आर्य है (क्षेत्र से आर्य) और आर्य है (आचरण से भी आर्य है)। एक पुरुष आर्य है (क्षेत्र से आर्य है) किन्तु अनार्य भी है (पापाचरण से अनार्य है)। एक पुरुष अनार्य है (क्षेत्र से अनार्य है) किन्तु आर्य भी है (आचरण से आर्य है), एक पुरुष अनार्य है (क्षेत्र से अनार्य है) और अनार्य है (आचरण से | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-५ |
उद्देशक-१ | Hindi | 438 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो पंच संगामिया अनिया, पंच संगामिया अनियाधिवती पन्नत्ता, तं जहा – पायत्ताणिए, पीढाणिए, कुंजराणिए, महिसाणिए, रहाणिए।
दुमे पायत्तानियाधिवती, सोदामे आसराया पीढानियाधिवती, कुंथू हत्थिराया कुंजराणिया-धिवती, लोहितक्खे महिसानियाधिवती, किन्नरे रधानियाधिवती।
बलिस्स णं वइरोणिंदस्स वइरोयणरण्णो पंच संगामियाणिया, पंच संगामियानियाधिवती पन्नत्ता, तं जहा–पायत्ताणिए, पीढाणिए, कुंजराणिए, महिसाणिए, रधाणिए।
महद्दुमे पायत्तानियाधिवती, महासोदामे आसराया पीढानियाधिवती, मालंकारे हत्थिराया कुंजरानियाधिवती, महालोहिअक्खे महिसानियाधिवती, Translated Sutra: चमर असुरेन्द्र की पाँच सेनाएं हैं और उनके पाँच सेनापति हैं। यथा – पैदल सेना, अश्व सेना, हस्ति सेना, महिष सेना, रथ सेना। पाँच सेनापति है। द्रुम – पैदल सेना का सेनापति। सौदामी अश्वराज – अश्व सेना का सेनापति। कुंथु हस्ती राज – हस्तिसेना का सेनापति। लोहिताक्षमहिषराज – महिष सेना का सेनापति। किन्नर – रथ सेना का | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-५ |
उद्देशक-१ | Hindi | 440 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंचविहा पडिहा पन्नत्ता, तं जहा–गतिपडिहा, ठितिपडिहा, बंधणपडिहा, भोगपडिहा, बल-वीरिय-पुरिसयारपरक्कमपडिहा। Translated Sutra: पाँच प्रकार के प्रतिघात कहे गए हैं। यथा – गतिप्रतिघात – देवादि गतियों का प्राप्त न होना। स्थिति प्रतिघात – देवादि की स्थितियों का प्राप्त न होना। बंधन प्रतिघात – प्रशस्त औदारिकादि बंधनों का प्राप्त न होना। भोग प्रतिघात – प्रशस्त भोग – सुख का प्राप्त न होना। बल, वीर्य, पुरुषाकार पराक्रम प्रतिघात – बल आदि | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-६ |
Hindi | 522 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] छहिं ठाणेहिं सव्वजीवाणं नत्थि इड्ढीति वा जुतीति वा जसेति वा बलेति वा वीरिएति वा पुरिसक्कार-परक्कमेति वा, तं जहा–१. जीवं वा अजीवं करणताए। २. अजीवं वा जीवं करणताए। ३. एगसमए णं वा दो भासाओ भासित्तए। ४. सयं कडं वा कम्मं वेदेमि वा मा वा वेदेमि। ५. परमाणुपोग्गलं वा छिंदित्तए वा भिंदित्तए वा अगनिकाएणं वा समोदहित्तए। ६. बहिता वा लोगंता गमनताए। Translated Sutra: छः कारणों से जीवों को ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पराक्रम प्राप्त नहीं होता है। यथा – जीव को अजीव करना चाहे तो, अजीव को जीव करना चाहे तो, सच और झूठ एक साथ बोले तो, स्वकृत कर्म भोगे या न भोगे – ऐसा माने तो, परमाणु को छेदन – भेदन करना चाहे अथवा अग्नि से जलाना चाहे तो, लोक से बाहर जाने तो। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-८ |
Hindi | 786 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अट्ठहिं ठाणेहिं सम्मं घडितव्वं जतितव्वं परक्कमितव्वं अस्सिं च णं अट्ठे नो पमाएतव्वं भवति–
१. असुयाणं धम्माणं सम्मं सुणणताए अब्भुट्ठेतव्वं भवति।
२. सुताणं धम्माणं ओगिण्हणयाए उवधारणयाए अब्भुट्ठेतव्वं भवति।
३. नवाणं कम्माणं संजमेणमकरणताए अब्भुट्ठेयव्वं भवति।
४. पोराणाणं कम्माणं तवसा विगिंचणताए विसोहणताए अब्भुट्ठेतव्वं भवति।
५. असंगिहीतपरिजणस्स संगिण्हणताए अब्भुट्ठेयव्वं भवति।
६. सेहं आयारगोयरं गाहणताए अब्भुट्ठेयव्वं भवति।
७. गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणताए अब्भुट्ठेयव्वं भवति।
८. साहम्मियाणमधिकरणंसि उप्पन्नंसि तत्थ अनिस्सितोवस्सितो अपक्खग्गाही Translated Sutra: आठ आवश्यक कार्यों के लिए सम्यक् प्रकार के उद्यम, प्रयत्न और पराक्रम करना चाहिए किन्तु इनके लिए प्रमाद नहीं करना चाहिए, यथा – अश्रुत धर्म को सम्यक् प्रकार से सूनने के लिए तत्पर रहना चाहिए। श्रुत धर्म को ग्रहण करने और धारण करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। संयम स्वीकार करने के पश्चात् पापकर्म न करने के लिए तत्पर | |||||||||
Suryapragnapti | सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-२० |
Hindi | 194 | Sutra | Upang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ता कहं ते अनुभावे आहितेति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पन्नत्ताओ।
तत्थेगे एवमाहंसु–ता चंदिमसूरिया णं नो जीवा अजीवा, नो घणा झुसिरा, नो वरबोंदिधरा कलेवरा, नत्थि णं तेसिं उट्ठानेति वा कम्मेति वा बलेति वा वीरिएति वा पुरिसक्कारपरक्कमेति वा, ते नो विज्जुं लवंति नो असणिं लवंति नो थणितं लवंति। अहे णं बादरे वाउकाए संमुच्छति, संमुच्छित्ता विज्जुंपि लवंति असिणंपि लवंति थणितंपि लवंति–एगे एवमाहंसु १
एगे पुण एवमाहंसु–ता चंदिमसूरिया णं जीवा नो अजीवा, घणा नो झुसिरा, वरबोंदिधरा नो कलेवरा, अत्थि णं तेसिं उट्ठाणेति वा कम्मेति वा बलेति वा वीरिएति वा पुरिसक्कारपरक्कमेति Translated Sutra: हे भगवंत ! चंद्रादि का अनुभाव किस प्रकार से है ? इस विषय में दो प्रतिपत्तियाँ है। एक कहता है कि चंद्र – सूर्य जीवरूप नहीं है, अजीवरूप है; घनरूप नहीं है, सुषिररूप है, श्रेष्ठ शरीरधारी नहीं, किन्तु कलेवररूप है, उनको उत्थान – कर्म – बल – वीर्य या पुरिषकार पराक्रम नहीं है, उनमें विद्युत, अशनिपात ध्वनि नहीं है, लेकिन | |||||||||
Suryapragnapti | सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
सूर्य प्रज्ञप्तिन पात्रता |
Hindi | 210 | Gatha | Upang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्धा-धिति-उट्ठाणुच्छाह-कम्म-बल वीरिय-पुरिसकारेहिं ।
जो सिक्खिओवि संतो, अभायणे पक्खिवेज्जाहि ॥ Translated Sutra: श्रद्धा – धृति – धैर्य – उत्साह – उत्थान – बल – वीर्य – पराक्रम से युक्त होकर इसकी शिक्षा प्राप्त करनेवाले भी अयोग्य हो तो उनको इस प्रज्ञप्ति की प्ररूपणा नहीं करनी चाहिए। यथा – | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-१ | Hindi | 99 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जययं विहराहि जोगवं ‘अणुपाणा पंथा’ दुरुत्तरा ।
अणुसासणमेव पक्कमे वीरेहिं सम्मं पवेइयं ॥ Translated Sutra: हे योगी ! तू यतना करता हुआ विचरण कर। मार्ग सूक्ष्म – प्राणियों से अनुप्राणित है। तू महावीर द्वारा सम्यक् प्ररूपित अनुशासन में पराक्रम कर। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-२ | Hindi | 140 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अणिहे सहिए सुसंवुडे धम्मट्ठी उवहाणवीरिए ।
विहरेज्ज समाहितिंदिए ‘आतहितं दुक्खेन लब्भते’ ॥ Translated Sutra: मुनि अनासक्त, स्वहित, सुसंवृत, धर्मार्थी, उपधानवीर्य/तप – पराक्रमी एवं जितेन्द्रिय होकर विचरण करे, क्योंकि आत्महित दुःख से प्राप्त होता है, दुःसाध्य है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-३ | Hindi | 157 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सव्वं नच्चा अहिट्ठए धम्मट्ठी उवहाणवीरिए ।
गुत्ते जुत्ते सया जए आयपरे परमायतट्ठिए ॥ Translated Sutra: धर्मार्थी वीर्य – उपधान/पराक्रम को सर्वविध जानकर धारण करे। सदा गुप्तियुक्त यत्न करे। इसी से परम आत्मा में स्थिति होती है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-३ उपसर्ग परिज्ञा |
उद्देशक-४ यथावस्थित अर्थ प्ररुपण | Hindi | 239 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जेहिं काले परक्कंतं ‘न पच्छा परितप्पए’ ।
ते धीरा बंधणुम्मुक्का नावकंखंति जीवियं ॥ Translated Sutra: जिन्होंने समय रहते (धर्म) पराक्रम किया है, वे बाद में परितप्त नहीं होते। वे बन्धन – मुक्त धीर – पुरुष जीवन की आकांक्षा नहीं करते। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-४ स्त्री परिज्ञा |
उद्देशक-१ | Hindi | 248 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सुहुमेणं तं परक्कम्म छन्नपएण इत्थीओ मंदा ।
‘उवायं पि ताओ जाणंति’ जह लिस्संति भिक्खुणो एगे ॥ Translated Sutra: मन्द स्त्रियाँ सूक्ष्म एवं स्वच्छन्द पराक्रम कर उस उपाय को भी जानती हैं जिससे कुछ भिक्षु श्लिष्ट होते हैं | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 766 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिणायगाणं तु दुवे सहस्से जे भोयए नितिए भिक्खुयाणं ।
ते पुण्णखंधं सुमहऽज्जणित्ता भवंति आरोप्प महंतसत्ता ॥ Translated Sutra: जो पुरुष दो हजार स्नातक भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है, वह महान पुण्यराशि का उपार्जन करके महापराक्रमी आरोप्य नामक देव होता है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-८ वीर्य |
Hindi | 432 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे याऽबुद्धा महाभागा वीरा ऽसम्मत्तदंसिणो ।
असुद्धं तेसिं परक्कंतं सफलं होइ सव्वसो ॥ Translated Sutra: जो अबुद्ध महानुभाव वीर एवं असम्यक्त्वदर्शी हैं, उनका पराक्रम अशुद्ध एवं सर्वतः कर्मफल युक्त होता है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-८ वीर्य |
Hindi | 433 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे उ बुद्धा महाभागा वीरा सम्मत्तदंसिणो ।
सुद्धं तेसिं परक्कंतं अफलं होइ सव्वसो ॥ Translated Sutra: जो बुद्ध, महाभाग, वीर और सम्यक्त्वदर्शी हैं, उनका पराक्रम शुद्ध और सर्वतः कर्मफल रहित होता है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-११ मार्ग |
Hindi | 529 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] विरते गामधम्मेहिं जे केई जगई जगा ।
तेसिं अत्तुवमायाए थामं कुव्वं परिव्वए ॥ Translated Sutra: वह ग्राम्यधर्मों से विरत होकर जगत में जितने भी प्राणी हैं उन्हें आत्मतुल्य जानकर पराक्रम करता हुआ परिव्रजन करे। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१४ ग्रंथ |
Hindi | 584 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे ठाणओ या सयणासणे या परक्कमे यावि सुसाहुजुत्ते ।
समितीसु गुत्तीसु य आयपण्णे वियागरेते य पुढो वएज्जा ॥ Translated Sutra: स्थान, शयन, आसन और पराक्रम में जो सुसाधुयुक्त हैं, वह समितियों एवं गुप्तियों में आत्मप्रज्ञ होता है। वह अच्छी रीति से (उपदेश) दे। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 634 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह पुरिसे पुरत्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरणिं, तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासंति तं महं एगं पउमवर-पोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
तए णं से पुरिसे एवं वयासी–अहमंसि पुरिसे ‘देसकालण्णे खेत्तण्णे कुसले पंडिते विअत्ते मेधावी अबाले मग्गण्णे मग्गविदू मग्गस्स गति-आगतिण्णे परक्कमण्णू। अहमेतं पउमवरपोंडरीयं ‘उण्णिक्खिस्सामि त्ति वच्चा’ से पुरिसे अभिक्कमे तं पुक्खरणिं। जाव-जावं च णं अभिक्कमेइ ताव-तावं च णं महंते उदए महंते सेए पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए ‘णो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए Translated Sutra: अब कोई पुरुष पूर्वदिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर उस पुष्करिणी के तीर पर खड़ा होकर उस महान उत्तम एक पुण्डरीक को देखता है, जो क्रमशः सुन्दर रचना से युक्त यावत् बड़ा ही मनोहर है। इसके पश्चात् उस श्वेतकमल को देखकर उस पुरुष ने इस प्रकार कहा – ‘‘मैं पुरुष हूँ, खेदज्ञ हूँ, कुशल हूँ, पण्डित, व्यक्त, मेघावी तथा अबाल हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 635 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे दोच्चे पुरिसजाते–अह पुरिसे दक्खिणाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरणिं, तीसे पुक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति तं महं एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
तं च एत्थ एगं पुरिसजाय पासइ पहीणतीरं, अपत्तपउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए ‘नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णं’।
तए णं से पुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसे ‘अदेसकालण्णे अखेत्तण्णे अकुसले अपंडिए अविअत्ते अमेधावी बाले नो मग्गण्णे नो मग्गविदू नो मग्गस्स गति-आगतिण्णे नो परक्क-मण्णू’, जण्णं एस पुरिसे ‘अहं देसकालण्णे खेत्तण्णे Translated Sutra: अब दूसरे पुरुष का वृत्तान्त बताया जाता है। दूसरा पुरुष दक्षिण दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर दक्षिण किनारे पर ठहर कर उस श्रेष्ठ पुण्डरीक को देखता है, जो विशिष्ट क्रमबद्ध रचना से युक्त है, यावत् अत्यन्त सुन्दर है। वहाँ वह उस पुरुष को देखता है, जो किनारे से बहुत दूर हट चूका है, और उस प्रधान श्वेत – कमल तक पहुँच | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 637 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे चउत्थे पुरिसजाते–अह पुरिसे उत्तराओ दिसाओ आगम्म तं पोक्खरणिं, तीसे पोक्खरणीए तीरे ठिच्चा पासति ‘तं महं’ एगं पउमवरपोंडरीयं अणुपुव्वट्ठियं ऊसियं रुइलं वण्णमंतं गंधमंतं रसमंतं फासमंतं पासादियं दरिसणीयं अभिरूवं पडिरूवं।
ते तत्थ तिण्णि पुरिसजाते पासति पहीणे तीरं, अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, नो हव्वाए नो पाराए, अंतरा पोक्खरणीए सेयंसि विसण्णे।
तए णं से पुरिसे एवं वयासी–अहो! णं इमे पुरिसा अदेसकालण्णा अखेत्तण्णा अकुसला अपंडिया अविअत्ता अमेधावी बाला नो मग्गण्णा नो मग्गविदू नो मग्गस्स गति-आगतिण्णा नो परक्कमण्णू, जण्णं एते पुरिसा एवं मण्णे–’अम्हे एतं पउमवरपोंड-रीयं Translated Sutra: तीसरे पुरुष के पश्चात् चौथा पुरुष उत्तर दिशा से उस पुष्करिणी के पास आकर, किनारे खड़ा होकर उस एक महान श्वेत कमल को देखता है, जो विशिष्ट रचना से युक्त यावत् मनोहर है। तथा वह वहाँ उन तीनों पुरुषों को भी देखता है, जो तीर से बहुत दूर हट चूके हैं और श्वेत कमल तक भी नहीं पहुँच सके हैं अपितु पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ |