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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Jitakalpa | जीतकल्प सूत्र | Ardha-Magadhi |
तप प्रायश्चित्तं |
Hindi | 29 | Gatha | Chheda-05A | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं चिय पत्तेयं उवबूहाईणमकरणे जइणं ।
आयामंतं निव्वीइगाइ पासत्थ-सड्ढेसु ॥ Translated Sutra: उस प्रकार प्रत्येक साधु को उपबृंहणा – संयम की वृद्धि पुष्टि आदि न करनेवाले को पुरिमड्ढ आदि उपवास पर्यन्त प्रायश्चित्त तप आता है और फिर परिवार की सहाय निमित्त से पासत्था, अवसन्न – कुशील आदि का ममत्व करनेवाले को, श्रावक आदि की परिपालना करनेवाले को या वात्सल्य रखनेवाले को निवि – पुरिमड्ढ आदि प्रायश्चित्त तप | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Hindi | 223 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! लवणसमुद्दे दो जोयणसतसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं, पन्नरस जोयणसतसहस्साइं एकासीतिं च सहस्साइं सतं च एगुणयालं किंचिविसेसूणं परिक्खेवेणं, एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, सोलस जोयणसहस्साइं उस्सेधेणं, सत्तरस जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पन्नत्ते, कम्हा णं भंते! लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो ओवीलेति? नो उप्पीलेति? नो चेव णं एक्कोदगं करेति?
गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे भरहेरवएसु वासेसु अरहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा चारणा विज्जाधरा समणा समणीओ सावया सावियाओ मनुया पगतिभद्दया पगतिविणीया पगतिउवसंता पगतिपयणुकोहमाणमायालोभा मिउमद्दवसंपन्ना अल्लीणा भद्दगा विनीता, Translated Sutra: भगवन् ! यदि लवणसमुद्र चक्रवाल – विष्कम्भ से दो लाख योजन का है, इत्यादि पूर्ववत्, तो वह जम्बूद्वीप को जल से आप्लावित, प्रबलता के साथ उत्पीड़ित और जलमग्न क्यों नहीं कर देता ? गौतम ! जम्बूद्वीप में भरत – ऐरवत क्षेत्रों में अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, जंघाचारण आदि विद्याधर मुनि, श्रमण, श्रमणियाँ, श्रावक और | |||||||||
Jivajivabhigam | जीवाभिगम उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
चतुर्विध जीव प्रतिपत्ति |
चंद्र सूर्य अने तेना द्वीप | Hindi | 287 | Sutra | Upang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मानुसुत्तरे णं भंते! पव्वते केवतियं उड्ढं उच्चत्तेणं? केवतियं उव्वेहेणं? केवतियं मूले विक्खंभेणं? केवतियं मज्झे विक्खंभेणं? केवतियं उवरिं विक्खंभेणं? केवतियं अंतो गिरिपरिरएणं? केवतियं बाहिं गिरिपरिरएणं? केवतियं मज्झे गिरि परिरएणं? केवतियं उवरिं गिरिपरिरएणं?
गोयमा! मानुसुत्तरे णं पव्वते सत्तरस एक्कवीसाइं जोयणसयाइं उड्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि तीसे जोयणसए कोसं च उव्वेहेणं, मूले दसबावीसे जोयणसते विक्खंभेणं, मज्झे सत्ततेवीसे जोयणसते विक्खंभेणं, उवरि चत्तारिचउवीसे जोयणसते विक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साइं तीसं च सहस्साइं दोन्नि य अउणापण्णे Translated Sutra: हे भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत की ऊंचाई कितनी है ? उसकी जमीन में गहराई कितनी है ? इत्यादि प्रश्न। गौतम ! मानुषोत्तरपर्वत १७२१ योजन पृथ्वी से ऊंचा है। ४३० योजन और एक कोस पृथ्वी में गहरा है। यह मूल में १०२२ योजन चौड़ा है, मध्य में ७२३ योजन चौड़ा और ऊपर ४२४ योजन चौड़ा है। पृथ्वी के भीतर की इसकी परिधि १,४२,३०,२४९ योजन है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 837 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं जे णं केई आयरिए, इ वा मयहरए, इ वा असई कहिंचि कयाई तहाविहं संविहाणगमासज्ज इणमो निग्गंथं पवयणमन्नहा पन्नवेज्जा, से णं किं पावेज्जा गोयमा जं सावज्जायरिएणं पावियं।
से भयवं कयरे णं से सावज्जयरिए किं वा तेणं पावियं ति। गोयमा णं इओ य उसभादि तित्थंकर चउवीसिगाए अनंतेणं कालेणं जा अतीता अन्ना चउवीसिगा तीए जारिसो अहयं तारिसो चेव सत्त रयणी पमाणेणं जगच्छेरय भूयो देविंद विंदवं-दिओ पवर वर धम्मसिरी नाम चरम धम्मतित्थंकरो अहेसि। तस्से य तित्थे सत्त अच्छेरगे पभूए। अहन्नया परिनिव्वुडस्स णं तस्स तित्थंकरस्स कालक्कमेणं असंजयाणं सक्कार कारवणे नाम अच्छेरगे वहिउमारद्धे।
तत्थ Translated Sutra: हे भगवंत ! जो कोई आचार्य जो गच्छनायक बार – बार किसी तरह से शायद उस तरह का कारण पाकर इस निर्ग्रन्थ प्रवचन को अन्यथा रूप से – विपरीत रूप से प्ररूपे तो वैसे कार्य से उसे कैसा फल मिले ? हे गौतम ! जो सावद्याचार्य ने पाया ऐसा अशुभ फल पाए, हे गौतम ! वो सावद्याचार्य कौन थे ? उसने क्या अशुभ फल पाया? हे गौतम ! यह ऋषभादिक तीर्थंकर | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 840 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहन्नया तेसिं दुरायाराणं सद्धम्म परंमुहाणं अगार धम्माणगार धम्मोभयभट्ठाणं लिंग मेत्त णाम पव्वइयाणं कालक्कमेणं संजाओ परोप्परं आगम वियारो। जहा णं सड्ढगाणमसई संजया चेव मढदेउले पडिजागरेंति खण्ड पडिए य समारावयंति। अन्नं च जाव करणिज्जं तं पइ समारंभे कज्ज-माणे जइस्सावि णं नत्थि दोस संभवं। एवं च केई भणंति संजम मोक्ख नेयारं, अन्ने भणंति जहा णं पासायवडिंसए पूया सक्कार बलि विहाणाईसु णं तित्थुच्छप्पणा चेव मोक्खगमणं।
एवं तेसिं अविइय परमत्थाणं पावकम्माणं जं जेण सिट्ठं सो तं चेवुद्दामुस्सिंखलेणं मुहेणं पलवति। ताहे समुट्ठियं वाद संघट्टं। नत्थि य कोई तत्थ आगम कुसलो Translated Sutra: अब किसी समय दुराचारी अच्छे धर्म से पराङ्मुख होनेवाले साधुधर्म और श्रावक धर्म दोनों से भ्रष्ट होनेवाला केवल भेष धारण करनेवाले हम प्रव्रज्या अंगीकार की है – ऐसा प्रलाप करनेवाले ऐसे उनको कुछ समय गुजरने के बाद भी वो आपस में आगम सम्बन्धी सोचने लगे कि – श्रावक की गैरमोजुदगी में संयत ऐसे साधु ही देवकुल मठ उपाश्रय | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 399 | Sutra | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] (८) जे य णं से विमज्झिमे, से णं तं तारिसमज्झवसायमंगीकिच्चाणं विरयाविरए दट्ठव्वे, Translated Sutra: विमध्यम पुरुष उसे कहते हैं कि जो उस तरह का अध्यवसाय अंगीकार करके श्रावक के व्रत अपनाए हो। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कर्मविपाक प्रतिपादन |
उद्देशक-३ | Hindi | 438 | Gatha | Chheda-06 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गोयमा दुविहे पहे अक्खाए सुस्समणे य सुसावए।
महव्वय-धरे पढमे, बीएऽनुव्वय-धारए॥ Translated Sutra: हे गौतम ! मोक्ष मार्ग दो तरह का बताया है। एक उत्तम श्रमण का और दूसरा उत्तम श्रावक का। प्रथम महाव्रतधारी का और दूसरा अणुव्रतधारी का। साधुओं ने त्रिविध त्रिविध से सर्व पाप व्यापार का जीवन पर्यन्त त्याग किया है। मोक्ष के साधनभूत घोर महाव्रत का श्रमण ने स्वीकार किया है। गृहस्थ ने परिमित काल के लिए द्विविध, एकविध | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 467 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अओ परं चउक्कन्नं सुमहत्थाइसयं परं।
आणाए सद्दहेयव्वं सुत्तत्थं जं जह-ट्ठियं॥ Translated Sutra: यह तीसरा अध्ययन चारों को (साधु – साध्वी, श्रावक – श्राविका को) सूना शके उस प्रकार का है। क्योंकि अति बड़े और अति श्रेष्ठ आज्ञा से श्रद्धा करने के लायक सूत्र और अर्थ हैं। उसे यथार्थ विधि से उचित शिष्य को देना चाहिए। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 515 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तेसि य तिलोग-महियाण धम्मतित्थंकराण जग-गुरूणं।
भावच्चण-दव्वच्चण-भेदेण दुहऽच्चणं भणियं॥ Translated Sutra: | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 517 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ता गोयमा णं एसेऽत्थ परमत्थे तं जहा–
भावच्चणमुग्ग-विहारया य, दव्वच्चणं तु जिन-पूया।
पढमा जतीण, दोन्नि वि गिहीन, पढम च्चिय पसत्था॥ Translated Sutra: भाव – अर्चन प्रमाद से उत्कृष्ट चारित्र पालन समान है। जब कि द्रव्य अर्चन जिनपूजा समान है। मुनि के लिए भाव अर्चन है और श्रावक के लिए दोनों अर्चन बताए हैं। उसमें भाव अर्चन प्रशंसनीय है। | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 519 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दव्वत्थवाओ भावत्थयं तु, दव्वत्थ[वा]ओ बहु गुणो भवउ तम्हा।
अबुहजने बुद्धीयं, छक्कायहियं तु गोयमाऽनुट्ठे॥ Translated Sutra: द्रव्यस्तव और भावस्तव इन दोनों में भाव – स्तव बहुत गुणवाला है। ‘‘द्रव्यस्तव’’ काफी गुणवाला है ऐसा बोलनेवाले की बुद्धि में समजदारी नहीं है। हे गौतम ! छ काय के जीव का हित – रक्षण हो ऐसा व्यवहार करना। यह द्रव्यस्तव गन्ध पुष्पादिक से प्रभुभक्ति करना उन समग्र पाप का त्याग न किया हो वैसे देश – विरतीवाले श्रावक | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 538 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तव-संजमेण बहु-भव-समज्जियं पाव-कम्म-मल-लेवं।
निद्धोविऊण अइरा अनंत-सोक्खं वए मोक्खं॥ Translated Sutra: इस प्रकार तपसंयम द्वारा कईं भव के उपार्जन किए पापकर्म के मल समान लेप को साफ करके अल्पकाल में अनंत सुखवाला मोक्ष पाता है। समग्र पृथ्वी पट्ट को जिनायतन से शोभायमान करनेवाले दानादिक चार तरह का सुन्दर धर्म सेवन करनेवाला श्रावक ज्यादा से ज्यादा अच्छी गति पाए तो भी बारहवें देवलोक से आगे नहीं नीकल सकता। लेकिन अच्युत | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 598 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१) तहा साहु-साहुणि-समणोवासग-सड्ढिगाऽसेसा-सन्न-साहम्मियजण-चउव्विहेणं पि समण-संघेणं नित्थारग-पारगो भवेज्जा धन्नो संपुन्न-सलक्खणो सि तुमं। ति उच्चारेमाणेणं गंध-मुट्ठीओ घेतव्वाओ।
(२) तओ जग-गुरूणं जिणिंदाणं पूएग-देसाओ गंधड्ढाऽमिलाण-सियमल्लदामं गहाय स-हत्थेणोभय-खं धेसुमारोवयमाणेणं गुरुणा नीसंदेहमेवं भाणियव्वं, जहा।
(३) भो भो जम्मंतर-संचिय-गुरुय-पुन्न-पब्भार सुलद्ध-सुविढत्त-सुसहल-मनुयजम्मं देवानुप्पिया ठइयं च नरय-तिरिय-गइ-दारं तुज्झं ति।
(४) अबंधगो य अयस-अकित्ती-णीया-गोत्त-कम्म-विसेसाणं तुमं ति, भवंतर-गयस्सा वि उ न दुलहो तुज्झ पंच नमोक्कारो, ।
(५) भावि-जम्मंतरेसु Translated Sutra: और फिर साधु – साध्वी श्रावक – श्राविका समग्र नजदीकी साधर्मिक भाई, चार तरह के श्रमण संघ के विघ्न उपशान्त होते हैं और धर्मकार्य में सफलता पाते हैं। और फिर उस महानुभाव को ऐसा कहना कि वाकई तुम धन्य हो, पुण्यवंत हो, ऐसा बोलते – बोलते वासक्षेप मंत्र करके ग्रहण करना चाहिए। उसके बाद जगद्गुरु जिनेन्द्र की आगे के स्थान | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ कुशील लक्षण |
Hindi | 650 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पंचेए सुमहा-पावे जे न वज्जेज्ज गोयमा।
संलावादीहिं कुसीलादी, भमिही सो सुमती जहा॥ Translated Sutra: अति विशाल ऐसे यह पाँच पाप जिसे वर्जन नहीं किया, वो हे गौतम ! जिस तरह सुमति नाम के श्रावक ने कुशील आदि के साथ संलाप आदि पाप करके भव में भ्रमण किया वैसे वो भी भ्रमण करेंगे। भवस्थिति कायस्थितिवाले संसार से घोर दुःख में पड़े बोधि, अहिंसा आदि लक्षणयुक्त दश तरह का धर्म नहीं पा सकता। ऋषि के आश्रम में और भिल्ल के घर में | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 654 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं कहं पुन तेण सुमइणा कुसील-संसग्गी कया आसी उ, जीए अ एरिसे अइदारुणे अवसाणे समक्खाए जेण भव-कायट्ठितीए अनोर-पारं भव-सायरं भमिही। से वराए दुक्ख-संतत्ते अलभंते सव्वण्णुवएसिए अहिंसा-लक्खण खंतादि-दसविहे धम्मे बोहिं ति गोयमा णं इमे, तं जहा–
अत्थि इहेव भारहे वासे मगहा नाम जनवओ। तत्थ कुसत्थलं नाम पुरं। तम्मि य उवलद्ध-पुन्न-पावे समुनिय-जीवाजीवादि-पयत्थे सुमती-नाइल नामधेज्जे दुवे सहोयरे महिड्ढीए सड्ढगे अहेसि।
अहन्नया अंतराय-कम्मोदएणं वियलियं विहवं तेसिं, न उणं सत्त-परक्कमं ति। एवं तु अचलिय-सत्त-परक्कमाणं तेसिं अच्चंतं परलोग-भीरूणं विरय-कूड-कवडालियाणं पडिवन्न-जहोवइट्ठ-दाणाइ-चउक्खंध-उवासग-धम्माणं Translated Sutra: हे भगवंत ! उस सुमति ने कुशील संसर्ग किस तरह किया था कि जिससे इस तरह के अति भयानक दुःख परीणामवाला भवस्थिति और कायस्थिति युक्त पार रहित भवसागर में दुःख संतप्त बेचारा वो भ्रमण करेगा। सर्वज्ञ – भगवंत के उपदेशीत अहिंसा लक्षणवाले क्षमा आदि दश प्रकार के धर्म को और सम्यक्त्व न पाएगा, हे गौतम ! वो बात यह है – इस भारतवर्ष | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 655 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अह अन्नया अचलंतेसुं अतिहि-सक्कारेसुं अपूरिज्जमाणेसुं पणइयण-मनोरहेसुं, विहडंतेसु य सुहि-सयणमित्त बंधव-कलत्त-पुत्त-नत्तुयगणेसुं, विसायमुवगएहिं गोयमा चिंतियं तेहिं सड्ढगेहिं तं जहा– Translated Sutra: अब किसी समय घर में महमान आते तो उसका सत्कार नहीं किया जा सकता। स्नेहीवर्ग के मनोरथ पूरे नहीं कर सकते, अपने मित्र, स्वजन, परिवार – जन, बन्धु, स्त्री, पुत्र, भतीजे, रिश्ते भूलकर दूर हट गए तब विषाद पानेवाले उस श्रावकों ने हे गौतम ! सोचा की, ‘‘पुरुष के पास वैभव होता है तो वो लोग उसकी आज्ञा स्वीकारते हैं। जल रहित मेघ को | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 677 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवमायण्णिऊण तओ भणियं सुमइणा। जहा–तुमं चेव सत्थवादी भणसु एयाइं, नवरं न जुत्तमेयं जं साहूणं अवन्नवायं भासिज्जइ।
अन्नं तु–किं न पेच्छसि तुमं एएसिं महानुभागाणं चेट्ठियं छट्ठ-ट्ठम-दसम दुवालस-मास- खमणाईहिं आहा-रग्गहणं गिम्हायावणट्ठाए वीरासण-उक्कुडुयासण-नाणाभिग्गह-धारणेणं च कट्ठ-तवोणुचरणेणं च पसुक्खं मंस-सोणियं ति महाउ-वासगो सि तुमं, महा-भासा-समिती विइया तए, जेणेरिस-गुणोवउत्ताणं पि महानुभागाणं साहूणं कुसीले त्ति नामं संकप्पियंति। तओ भणियं नाइलेणं जहा मा वच्छ तुमं एतेणं परिओसमुवयासु, जहा अहयं आसवारेणं परिमुसिओ।
अकाम-निज्जराए वि किंचि कम्मक्खयं भवइ, किं पुन Translated Sutra: ऐसा सुनकर सुमति ने कहा – तुम ही सत्यवादी हो और इस प्रकार बोल सकते हो। लेकिन साधु के अवर्णवाद बोलना जरा भी उचित नहीं है। वो महानुभाव के दूसरे व्यवहार पर नजर क्यों नहीं करते ? छट्ठ, अट्ठम, चार – पाँच उपवास मासक्षमण आदि तप करके आहार ग्रहण करनेवाले ग्रीष्म काल में आतापना लेते है। और फिर विरासन उत्कटुकासन अलग – अलग | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 682 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं ते साहुणो तस्स णं णाइल सड्ढगस्स छंदेणं कुसीले उयाहु आगम जुत्तीए गोयमा कहं सड्ढगस्स वरायस्सेरिसो सामत्थो जे णं तु सच्छंदत्ताए महानुभावाणं सुसाहूणं अवन्नवायं भासे तेणं सड्ढगेणं हरिवंस तिलय मरगयच्छ-विणो बावीसइम धम्म तित्थयर अरिट्ठनेमि नामस्स सयासे वंदन वत्तियाए गएणं आयारंगं अनंत गमपज्जवेहिं पन्नविज्जमाणं सम-वधारियं। तत्थ य छत्तीसं आयारे पन्नविज्जंति।
तेसिं च णं जे केइ साहू वा साहुणी वा अन्नयरमायारमइक्कमेज्जा, से णं गारत्थीहिं उवमेयं। अहन्नहा समनुट्ठे वाऽऽयरेज्जा वा पन्नवेज्जा वा तओ णं अनंत संसारी भवेज्जा।
ता गोयमा जे णं तु मुहनंतगं अहिगं Translated Sutra: हे भगवंत ! क्या वो पाँच साधु को कुशील रूप में नागिल श्रावक ने बताया वो अपनी स्वेच्छा से या आगम शास्त्र के उपाय से ? हे गौतम ! बेचारे श्रावक को वैसा कहने का कौन – सा सामर्थ्य होगा ? जो किसी अपनी स्वच्छन्द मति से महानुभाव सुसाधु के अवर्णवाद बोले वो श्रावक जब हरिवंश के कुलतिलक मरकत रत्न समान श्याम कान्तिवाले बाईसवें | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ कुशील संसर्ग |
Hindi | 683 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं सो उण णाइल सड्ढगो कहिं समुप्पन्नो गोयमा सिद्धीए।
से भयवं कहं गोयमा ते णं महानुभागेणं तेसिं कुसीलाणं संसग्गिं णितुट्ठेऊणं तीए चेव बहु सावय तरु संड संकुलाए घोर-कंताराडवीए सव्व पाव कलिमल कलंक विप्पमुक्कं तित्थयर वयणं परमहियं सुदुल्लहं भवसएसुं पि त्ति कलिऊणं अच्चंत विसुद्धासएणं फासुद्देसम्मि निप्पडिकम्मं निरइयारं पडिवन्नं पडिवन्नं पायवोगमणमणसणं ति।
अहन्नया तेणेव पएसेणं विहर-माणो समागओ तित्थयरो अरिट्ठनेमी। तस्स य अणुग्गहट्ठाए तेणे य अचलिय सत्तो भव्वसत्तो त्ति काऊणं उत्तिमट्ठ पसाहणी कया साइसया देसणा। तमायन्न-माणो सजल जलहर निनाय देव दुंदुही निग्घोसं Translated Sutra: हे भगवंत ! वो नागिल श्रावक कहाँ पैदा हुआ ? हे गौतम ! वो सिद्धिगति में गया। हे भगवंत ! किस तरह? हे गौतम ! महानुभाव नागिल ने उस कुशील साधु के पास से अलग होकर कईं श्रावक और पेड़ से व्याप्त घोर भयानक अटवी में सर्व पाप कलिमल के कलंक रहित चरम हितकारी सेंकड़ों भव में भी अति दुर्लभ तीर्थंकर भगवंत का वचन है ऐसा मानकर निर्जीव | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 811 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं अट्ठण्हं साहूणमसइं उस्सग्गेण वा अववाएण वा चउहिं अनगारेहिं समं गमनागमनं नियंठियं तहा दसण्हं संजईणं हेट्ठा उसग्गेणं, चउण्हं तु अभावे अववाएणं हत्थ-सयाओ उद्धं गमनं नाणुण्णायं। आणं वा अइक्कमंते साहू वा साहूणीओ वा अनंत-संसारिए समक्खाए।
ता णं से दुप्पसहे अनगारे असहाए भवेज्जा। सा वि य विण्हुसिरी अनगारी असहाया चेव भवेज्जा। एवं तु ते कहं आराहगे भवेज्जा गोयमा णं दुस्समाए परियंते ते चउरो जुगप्पहाणे खाइग सम्मत्त नाण दंसण चारित्त समण्णिए भवेज्जा।
तत्थ णं जे से महायसे महानुभागे दुप्पसहे अनगारे से णं अच्चंत विसुद्ध सम्मद्दंसण नाण चारित्त गुणेहिं उववेए सुदिट्ठ Translated Sutra: हे भगवंत ! उत्सर्ग से आँठ साधु की कमी में या अपवाद से चार साधु के साथ (साध्वी का) गमनागमन निषेध किया है। और उत्सर्ग से दस संयति से कम और अपवाद से चार संयति की कमी में एक सौ हाथ से उपर जाने के लिए भगवंत ने निषेध किया है। तो फिर पाँचवें आरे के अन्तिम समय में अकेले सहाय बिना दुप्पसह अणगार होंगे और विष्णु श्री साध्वी | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ नवनीतसार |
Hindi | 823 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं उड्ढं पुच्छा। गोयमा तओ परेण उड्ढं हायमाणे कालसमए तत्थ णं जे केई छक्काय समारंभ विवज्जी से णं धन्ने पुन्ने वंदे पूए नमंसणिज्जे। सुजीवियं जीवियं तेसिं। Translated Sutra: हे भगवंत ! उसके बाद के काल में क्या हुआ ? हे गौतम ! उसके बाद के काल समय में जो कोई आत्मा छ काय जीव के समारम्भ का त्याग करनेवाला हो, वो धन्य, पूज्य, वंदनीय, नमस्करणीय, सुंदर जीवन जीनेवाले माने जाते हैं। हे भगवंत ! सामान्य पृच्छा में इस प्रकार यावत् क्या कहना ? हे गौतम ! अपेक्षा से कैसी आत्मा उचित है। और (प्रव्रज्या के | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 875 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आलावाओ पणओ, पणयाओ रेती, रतीए वीसंभो।
वीसंभाओ नेहो, पंचविहं वड्ढए पेम्मं॥ Translated Sutra: आलाप – बातचीत करने से प्रणय पैदा हो, प्रणय से रति हो, रति से भरोसा पैदा हो। भरोसे से स्नेह इस तरह पाँच तरह का प्रेम होता है। इस प्रकार वो नंदिषेण प्रेमपाश से बँधा होने के बाद भी शास्त्र में बताया श्रावकपन पालन करे और हररोज दश या उससे ज्यादा प्रतिबोध करके गुरु के पास दीक्षा लेने को भेजते थे। सूत्र – ८७५–८७७ | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1044 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जम्हा तीसु वि एएसु, अवरज्झंतो हु गोयमा ।
उम्मग्गमेव वद्धारे, मग्गं निट्ठवइ सव्वहा॥ Translated Sutra: इस तीन में अपराध करनेवाला हे गौतम ! उन्मार्ग का व्यवहार करते थे और सर्वथा मार्ग का विनाश करनेवाला होता है। हे भगवंत ! इस दृष्टांत से जो गृहस्थ उत्कट मदवाले होते हैं। और रात या दिन में स्त्री का त्याग नहीं करते उसकी क्या गति होगी ? वो अपने शरीर के अपने ही हस्त से छेदन करके तल जितने छोटे टुकड़े करके अग्नि में होम करे | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1050 | Gatha | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सावग-धम्मं जहुत्तं जो पाले पर-दारं चए।
जावज्जीवं तिविहेणं तमनुभावेण सा गई॥ Translated Sutra: यदि किसी आत्मा कहा गया श्रावक धर्म पालन करता है और परस्त्री का जीवन पर्यन्त त्रिविध से त्याग करत हैं। उसके प्रभाव से वो मध्यम गति पाता है। यहाँ खास बात तो यह ध्यान में रखनी कि नियम रहित हो, परदारा गमन करनेवाला हो, उनको कर्मबंध होता है। और जो उसकी निवृत्ति करता है, पच्चक्खाण करता है, उन्हें महाफल की प्राप्ति होती | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ गीतार्थ विहार |
Hindi | 1143 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] (१३) चिंतमाणीए चेव उप्पन्नं केवलं णाणं कया य देवेहिं केवलिमहिमा।
(१४) केवलिणा वि नर सुरासुराणं पणासियं संसय तम पडलं अज्जियाणं च।
(१५) तओ भत्तिब्भरनिब्भराए पणामपुव्वं पुट्ठो केवली रज्जाए जहा भयवं किमट्ठमहं एमहंताणं महा वाहि वेयणाणं भायणं संवुत्ता
(१६) ताहे गोयमा सजल जलहर सुरदुंदुहि निग्घोस मणोहारि गंभीर सरेणं भणियं केव-लिणा जहा–सुणसु दुक्करकारिए। जं तुज्झ सरीर विहडण कारणं ति।
(१७) तए रत्त पित्त दूसिए अब्भंतरओ सरीरगे सिणिद्धाहारमाकंठाए कोलियग मीसं परिभुत्तं
(१८) अन्नं च एत्थ गच्छे एत्तिए सए साहु साहुणीणं, तहा वि जावइएणं अच्छीणि पक्खालि-ज्जंति तावइयं पि बाहिर Translated Sutra: ऐसा सोचते हुए उस साध्वीजी को केवलज्ञान पैदा हुआ। उस वक्त देव ने केवलज्ञान का महोत्सव किया। वो केवली साध्वीजी ने मानव, देव, असुर के और साध्वी के संशयरूप अंधकार के पड़ल को दूर किया। उसके बाद भक्ति से भरपूर हृदयवाली रज्जा आर्या ने प्रणाम करके सवाल पूछा कि – हे भगवंत ! किस वजह से मुझे इतनी बड़ी महावेदनावाला व्याधि | |||||||||
Mahanishith | महानिशीय श्रुतस्कंध सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-८ चूलिका-२ सुषाढ अनगारकथा |
Hindi | 1498 | Sutra | Chheda-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भयवं किं पुन काऊणं एरिसा सुलहबोही जाया सा सुगहियनामधेज्जा माहणी जीए एयावइयाणं भव्व-सत्ताणं अनंत संसार घोर दुक्ख संतत्ताणं सद्धम्म देसणाईहिं तु सासय सुह पयाणपुव्वगमब्भुद्धरणं कयं ति। गोयमा जं पुव्विं सव्व भाव भावंतरंतरेहिं णं नीसल्ले आजम्मा-लोयणं दाऊणं सुद्धभावाए जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं। पायच्छित्तसमत्तीए य समाहिए य कालं काऊणं सोहम्मे कप्पे सुरिंदग्गमहिसी जाया तमनुभावेणं।
से भयवं किं से णं माहणी जीवे तब्भवंतरम्मि समणी निग्गंथी अहेसि जे णं नीसल्लमालोएत्ता णं जहोवइट्ठं पायच्छित्तं कयं ति। गोयमा जे णं से माहणी जीवे से णं तज्जम्मे बहुलद्धिसिद्धी Translated Sutra: हे भगवंत ! उस ब्राह्मणीने ऐसा तो क्या किया कि जिससे इस प्रकार सुलभ बोधि पाकर सुबह में नाम ग्रहण करने के लायक बनी और फिर उसके उपदेश से कईं भव्य जीव नर – नारी कि जो अनन्त संसार के घोर दुःख में सड़ रहे थे उन्हें सुन्दर धर्मदेश आदि के द्वारा शाश्वत सुख देकर उद्धार किया। हे गौतम ! उसने पूर्वभव में कईं सुन्दर भावना सहित | |||||||||
Nandisutra | नन्दीसूत्र | Ardha-Magadhi |
नन्दीसूत्र |
Hindi | 12 | Gatha | Chulika-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सम्मद्दंसण-वइर-दढ-रूढ-गाढावगाढ-पेढस्स ।
धम्मवर-रयण-मंडिय-चामीयर-मेहलागस्स ॥ Translated Sutra: संघमेरु की भूपीठिका सम्यग्दर्शन रूप श्रेष्ठ वज्रमयी है। सम्यक् – दर्शन सुदृढ आधार – शिला है। वह शंकादि दूषण रूप विवरों से रहित है। विशुद्ध अध्यवसायों से चिरंतन है। तत्त्व अभिरुचि से ठोस है, जीव आदि नव तत्त्वों में निमग्न होने के कारण गहरा है। उसमें उत्तर गुण रूप रत्न और मूल गुण स्वर्ण मेखला है। उसमें संघ | |||||||||
Nandisutra | नन्दीसूत्र | Ardha-Magadhi |
नन्दीसूत्र |
Hindi | 74 | Sutra | Chulika-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं हायमाणयं ओहिनाणं?
हायमाणयं ओहिनाणं अप्पसत्थेहिं अज्झवसाणट्ठाणेहिं वट्टमाणस्स वट्टमाणचरित्तस्स, संकिलिस्समाणस्स संकिलिस्समाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओही परिहायइ।
से त्तं हायमाणयं ओहिनाणं। Translated Sutra: भगवन् ! हीयमान अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? अप्रशस्त – विचारों में वर्तने वाले अविरति सम्यक्दृष्टि जीव तथा अप्रशस्त अध्यवसाय में वर्तमान देशविरति और सर्वविरति – चारित्र वाला श्रावक या साधु जब अशुभ विचारों से संक्लेश को प्राप्त होता है तथा उसके चारित्र में संक्लेश होता है तब सब ओर से तथा सब प्रकार से अवधिज्ञान | |||||||||
Nandisutra | नन्दीसूत्र | Ardha-Magadhi |
नन्दीसूत्र |
Hindi | 107 | Gatha | Chulika-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अभए सिट्ठि-कुमारे, देवी उदिओदए हवइ राया ।
साहू य नंदिसेने, धनदत्ते सावग-अमच्चे ॥ Translated Sutra: अभयकुमार, सेठ, कुमार, देवी, उदितोदय, साधु, नन्दिघोष, धनदत्त, श्रावक, अमात्य, क्षपक, अमात्यपुत्र, चाणक्य, स्थूलभद्र, नासिक का सुन्दरीनन्द, वज्रस्वामी, चरणाहत, आंबला, मणि, सर्प, गेंडा, स्तूपभेदन – यह सब पारिणामिक बुद्धि के दृष्टान्त हैं। सूत्र – १०७–१०९ | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-५ | Hindi | 325 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू अप्पणो संघाडिं अन्नउत्थिएण वा गारत्थिएण वा सिव्वावेति, सिव्वावेंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी अपनी संघाटिका यानि की ओढ़ने का वस्त्र, जिसे कपड़ा कहते हैं वो – परतीर्थिक, गृहस्थ या श्रावक के पास सीलाई करवाए, उस कपड़े को दीर्घसूत्री करे, मतलब शोभा आदि के लिए लम्बा धागा डलवाए, दूसरों को वैसा करने के लिए प्रेरित करे या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। सूत्र – ३२५, ३२६ | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-२ | Hindi | 85 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू नियग-गवेसियं पडिग्गहगं धरेति, धरेंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी भाई – बहन आदि स्वजन से, स्वजन के सिवा पराये, परजन से, वसति, श्रावकसंघ आदि की मुखिया व्यक्ति से, शरीर आदि से बलवान से, वाचाल, दान का फल आदि दिखाकर कुछ पा सके वैसी व्यक्ति से गवेषित मतलब प्राप्त किया पात्र ग्रहण करे, रखे, धारण करे, अन्य से करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। (स्वयं गवेषणा | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-२ | Hindi | 107 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू सागारिय-नीसाए असनं वा पानं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय-ओभासिय जायति, जायंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी श्रावक के परिचय रूप निश्रा का सहारा लेकर असन, पान, खादिम समान चार तरह के आहार में से किसी तरह का आहार, विशिष्ट वचन बोलकर याचना करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। यहाँ निश्रा यानि परिचय अर्थ किया। जिसमें पूर्व का या किसी रिश्ते का इस्तमाल करके स्वजन की पहचान करवाके उसके द्वारा कुछ भी | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-२ | Hindi | 111 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जा-संथारयं दोच्चं अननुन्नवेत्ता बाहिं नीणेति, नीणेंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी प्रातिहारिक यानि कि श्रावक से वापस देने का कहकर लाया गया, सागारिक यानि कि शय्यातर आदि गृहस्थ के पास से लाया हुआ शय्या – संथारा या दोनों तरह से शय्यादि दूसरी बार परवानगी लिए बिना, दूसरी जगह, उस वसति के बाहर खुद ले जाए, दूसरों को ले जाने के लिए प्रेरित करे या ले जानेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। सूत्र | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-८ | Hindi | 572 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू नायगं वा अनायगं वा उवासयं वा अनुवासयं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं वा रातिं कसिणं वा रातिं संवसावेति, संवसावेंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु स्व परिचित या अपरिचित श्रावक या अन्य मतावलम्बी के साथ वसति में (उपाश्रय में) आधी या पूरी रात संवास करे यानि रहे, यह यहाँ है ऐसा मानकर बाहर जाए या बाहर से आए, या उसे रहने की मना न करे (तब वो गृहस्थ रात्रि भोजन, सचित्त संघट्टन, आरम्भ – समारम्भ करे वैसी संभावना होने से) प्रायश्चित्त। (उसी तरह से साध्वीजी श्राविका | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-११ | Hindi | 738 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू नायगं वा अनायगं वा उवासगं वा अनुवासगं वा अनलं पव्वावेति, पव्वावेंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी पहचानवाले (स्वजन आदि) और अनजान (स्वजन के सिवा) ऐसे अनुचित – दीक्षा की योग्यता न हो ऐसे उपासक (श्रावक) या अनुपासक (श्रावक से अन्य) को प्रव्रज्या – दीक्षा दे, उपस्थापना (वर्तमान काल में बड़ी दीक्षा) दे, दिलाए, देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। सूत्र – ७३८, ७३९ | |||||||||
Nishithasutra | निशीथसूत्र | Ardha-Magadhi | उद्देशक-१४ | Hindi | 900 | Sutra | Chheda-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू नायगं वा अनायगं वा उवासगं वा अनुवासगं वा–गामंतरंसि वा गामपहंतरंसि वा पडिग्गहगं ओभासिय-ओभासिय जायति, जायंतं वा सातिज्जति। Translated Sutra: जो साधु – साध्वी जानेमाने या अनजान श्रावक या इस श्रावक के पास गाँव में या गाँव के रास्ते में, सभा में से खड़ा करके जोर – जोर से पात्र की याचना करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। सूत्र – ९००, ९०१ | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
पिण्ड |
Hindi | 1 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पिंडे उग्गम उप्पायणेसणा जोयणा पमाणे य ।
इंगाल धूम कारण अट्ठविहा पिंडनिज्जुत्ती ॥ Translated Sutra: पिंड़ यानि समूह। वो चार प्रकार के – नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। यहाँ संयम आदि भावपिंड़ उपकारक द्रव्यपिंड़ है। द्रव्यपिंड़ के द्वारा भावपिंड़ की साधना की जाती है। द्रव्यपिंड़ तीन प्रकार के हैं। आहार, शय्या, उपधि। इस ग्रंथ में मुख्यतया आहारपिंड़ के बारे में सोचना है। पिंड़ शुद्धि आठ प्रकार से सोचनी है। उद्गम, उत्पादना, | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 117 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संजमठाणाणं कंडगाण लेसाठिईविसेसाणं ।
भावं अहे करेई तम्हा तं भावऽहेकम्मं ॥ Translated Sutra: संयमस्थान – कंड़क संयमश्रेणी, लेश्या एवं शाता वेदनीय आदि के समान शुभ प्रकृति में विशुद्ध विशुद्ध स्थान में रहे साधु को आधाकर्मी आहार जिस प्रकार से नीचे के स्थान पर ले जाता है, उस कारण से वो अधःकर्म कहलाता है। संयम स्थान का स्वरूप देशविरति समान पाँचवे गुण – स्थान में रहे सर्व उत्कृष्ट विशुद्ध स्थानवाले जीव | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उद्गम् |
Hindi | 311 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पाहुडियावि हु दुविहा बायर सुहुमा य होइ नायव्वा ।
ओसक्कणमुस्सक्कण कब्बट्टीए समोसरणो ॥ Translated Sutra: साधु को वहोराने की भावना से आहार आदि जल्द या देर से बनाना प्राभृतिका कहते हैं। यह प्राभृतिका दो प्रकार की है। बादर और सूक्ष्म। उन दोनों के दो – दो भेद हैं। अवसर्पण यानि जल्दी करना और उत्सर्पण यानि देर से करना। वो साधु समुदाय आया हो या आनेवाले हो उस कारण से अपने यहाँ लिए गए ग्लान आदि अवसर देर से आता हो तो जल्द | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Hindi | 481 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] समणे महाण किवणे अतिही साणे य होइ पंचमए ।
वणि जायणत्ति वणिओ पायप्पाणं वणेइत्ति ॥ Translated Sutra: आहारादि के लिए साधु, श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि, श्वान आदि के भक्त के आगे – यानि जो जिसका भक्त हो उसके आगे उसकी प्रशंसा करके खुद आहारादि पाए तो उसे वनीपक पिंड़ कहते हैं। श्रमण के पाँच भेद हैं। निर्ग्रन्थ, बौद्ध, तापस, परिव्राजक और गौशाला के मत का अनुसरण करनेवाला। कृपण से दरिद्र, अंध, ठूंठे, लगड़े, बीमार, जुंगित आदि | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Hindi | 519 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] लब्भंतंपि न गिण्हइ अन्नं अमुगंति अज्ज पेच्छामि ।
भद्दरसंति व काउं गिण्हइ खद्धं सिणिद्धाई ॥ Translated Sutra: रस की आसक्ति से सिंह केसरिया लड्डू, घेबर आदि आज मैं ग्रहण करूँगा। ऐसा सोचकर गोचरी के लिए जाए, दूसरा कुछ मिलता हो तो ग्रहण न करे लेकिन अपनी ईच्छित चीज पाने के लिए घूमे और ईच्छित चीज चाहिए उतनी पाए उसे लोभपिंड़ कहते हैं। साधु को ऐसी लोभपिंड़ दोषवाली भिक्षा लेना न कल्पे। चंपा नाम की नगरी में सुव्रत नाम के साधु आए | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
उत्पादन |
Hindi | 538 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चुन्ने अंतद्धाणे चाणक्के पायलेवणे समिए ।
मूल विवाहे दो दंडिणी उ आयाणपरिसाडे ॥ Translated Sutra: चूर्णपिंड़ – अदृश्य होना या वशीकरण करना, आँख में लगाने का अंजन या माथे पर तिलक करने आदि की सामग्री चूर्ण कहलाती है। भिक्षा पाने के लिए इस प्रकार के चूर्ण का उपयोग करना, चूर्णपिंड़ कहलाता है। योगपिंड़ – सौभाग्य और दौर्भाग्य को करनेवाले पानी के साथ घिसकर पीया जाए ऐसे चंदन आदि, धूप देनेवाले, द्रव्य विशेष, एवं आकाशगमन, | |||||||||
Pindniryukti | पिंड – निर्युक्ति | Ardha-Magadhi |
एषणा |
Hindi | 614 | Gatha | Mool-02B | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] बाले वुड्ढे मत्ते उम्मत्ते वेविए य जरिए य ।
अंधिल्लए पगलिए आरूढे पाउयाहिं च ॥ Translated Sutra: नीचे बताए गए चालीस प्रकार के दाता के पास से उत्सर्ग मार्ग से साधु को भिक्षा लेना न कल्पे। बच्चा – आठ साल से कम उम्र का हो उससे भिक्षा लेना न कल्पे। बुजुर्ग हाजिर न हो तो भिक्षा आदि लेने में कईं प्रकार के दोष रहे हैं। एक स्त्री नई – नई श्राविका बनी थी। एक दिन खेत में जाने से उस स्त्री ने अपनी छोटी बेटी को कहा कि, | |||||||||
Pushpika | पूष्पिका | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ शुक्र |
Hindi | 5 | Sutra | Upang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पुप्फियाणं दोच्चस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, तच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स पुप्फियाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसढे। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सुक्के महग्गहे सुक्कवडिंसए विमाने सुक्कंसि सीहासनंसि चउहिं सामानियसाहस्सीहिं जहेव चंदो तहेव आगओ, नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगओ।
भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं पुच्छा। कूडागारसाला दिट्ठंतो।
एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने पुष्पिका के द्वितीय अध्ययन का यह आशय प्ररूपित किया है तो तृतीय अध्ययन का क्या भाव बताया है ? आयुष्मन् जम्बू ! राजगृह नगर था। गुणशिलक चैत्य था। राजा श्रेणिक था। स्वामी का पदार्पण हुआ। परिषद् नीकली। उस काल और उस समय में शुक्र महाग्रह शुक्रावतंसक विमान में शुक्र सिंहासन पर | |||||||||
Pushpika | पूष्पिका | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३ शुक्र |
Hindi | 7 | Sutra | Upang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गिं हुणइ, चरुं साहेइ, साहेत्ता बलिं वइस्सदेवं करेइ, करेत्ता अतिहिपूयं करेइ, करेत्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारं आहारेइ।
तए णं से सोमिले माहणरिसी दोच्चं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ।
तए णं से सोमिले माहणरिसी दोच्चछट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं गेण्हइ, गेण्हित्ता दाहिणं दिसिं पोक्खेइ, दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सानिलमाहणरिसिंअभिरक्खउ सोमिलमाहणरिसिं, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि Translated Sutra: तत्पश्चात् उन सोमिल ब्रह्मर्षी ने दूसरा षष्ठक्षपण अंगीकार किया। पारणे के दिन भी आतापनाभूमि से नीचे ऊतरे, वल्कल वस्त्र पहने यावत् आहार किया, इतना विशेष है कि इस बार वे दक्षिण दिशा में गए और कहा – ‘हे दक्षिण दिशा के यम महाराज ! प्रस्थान के लिए प्रवृत्त सोमिल ब्रह्मर्षी की रक्षा करें और यहाँ जो कन्द, मूल आदि | |||||||||
Pushpika | पूष्पिका | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ बहुपुत्रिका |
Hindi | 8 | Sutra | Upang-10 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पुप्फियाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चउत्थस्स णं भंते! अज्झयणस्स पुप्फियाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे। गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसढे। परिसा निग्गया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तिए विमाने सभाए सुहम्माए बहुपुत्तियंसि सोहासणंसि चउहिं सामानियसाहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं जहा सूरियाभे जाव भुंजमाणी विहरइ।
इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी-आभोएमाणी Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है तो भदन्त ! चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था। गुणशिलक चैत्य था। राजा श्रेणिक था। स्वामी का पदार्पण हुआ। परिषद् नीकली। उस काल और उस समय में सौधर्मकल्प | |||||||||
Rajprashniya | राजप्रश्नीय उपांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्रदेशीराजान प्रकरण |
Hindi | 54 | Sutra | Upang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग तिय चउक्क चच्चर चउम्मुह महापहपहेसु महया जनसद्दे इ वा जनवूहे इ वा जनबोले इ वा जनकलकले इ वा जनउम्मी इ वा जनसन्निवाए इ वा बहुजनो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ–
एवं खलु देवानुप्पिया! पासावच्चिज्जे केसी नामं कुमारसमणे जातिसंपन्ने पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इहेव सावत्थीए नगरीए बहिया कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तं महप्फलं खलु भो! देवानुप्पिया! तहारूवाणं थेराणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमन Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रावस्ती नगरी के शृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में लोग आपस में चर्चा करने लगे, लोगों के झुंड इकट्ठे होने लगे, लोगों के बोलने की घोंघाट सूनाई पड़ने लगी, जन – कोलाहल होने लगा, भीड़ के कारण लोग आपस में टकराने लगे, एक के बाद एक लोगों के टोले आते दिखाई देने लगे, इधर | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | English | 565 | View Detail | ||
Mool Sutra: सो तम्मि चेव समये, लोयग्गे उड्ढगमणसब्भाओ।
संचिट्ठइ असरीरो, पवरट्ठ गुणप्पओ णिच्चं।।२०।। Translated Sutra: The moment, the pure soul reaches this stage, it goes upward straight to the top of the universe according to its natural attribute, remains there forever in a disembodied form and endowed with the eight supreme attributes. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | English | 301 | View Detail | ||
Mool Sutra: संपत्तदंसणाई, पइदियहं जइजणा सुणेई य।
सामायारिं परमं जो, खलु तं सावगं बिंति।।१।। Translated Sutra: He is called a Sravaka (householder) who, being endowed with right faith, listens every day to the preachings of the monks about right conduct. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | English | 302 | View Detail | ||
Mool Sutra: पंचुंवरसहियाइं, सत्त वि विसणाई जो विवज्जेइ।
सम्मत्तविसुद्धमई, सो दंसणसावओ भणिओ।।२।। Translated Sutra: A pious householder is one who has given up (eating) five udumbar-fruits (like banyan, Pipala, fig (Anjeer), kathumara and pakar), is free from seven vices and is called Darsana Sravaka, a man whose intellect is purified by right faith. |