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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 103 | View Detail | ||
Mool Sutra: णिव्वेदतियं भावइ, मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु।
जो तस्स हवे चागो, इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं।।२२।। Translated Sutra: सब द्रव्यों में होनेवाले मोह को त्यागकर जो त्रिविध निर्वेद (संसार देह तथा भोगों के प्रति वैराग्य) से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्यागधर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 107 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुहं वसामो जीवामो, जेसिं णो नत्थि किंचण।
मिहिलाए डज्झमाणीए, न मे डज्झइ किंचण।।२६।। Translated Sutra: हम लोग, जिनके पास अपना कुछ भी नहीं है, सुखपूर्वक रहते और सुख से जीते हैं। मिथिला जल रही है उसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है, क्योंकि पुत्र और स्त्रियों से मुक्त तथा व्यवसाय से निवृत्त भिक्षु के लिए कोई वस्तु प्रिय भी नहीं होती और अप्रिय भी नहीं होती। (यह बात राज्य त्यागकर साधु हो जानेवाले राजर्षि नमि के दृढ़ वैराग्य | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 116 | View Detail | ||
Mool Sutra: किं पुण गुणसहिदाओ, इत्थीओ अत्थि वित्थडजसाओ।
णरलोगदेवदाओ, देवेहिं वि वंदणिज्जाओ।।३५।। Translated Sutra: किन्तु ऐसी भी शीलगुणसम्पन्न स्त्रियाँ हैं, जिनका यश सर्वत्र व्याप्त है। वे मनुष्य-लोक की देवता हैं और देवों के द्वारा वन्दनीय हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 132 | View Detail | ||
Mool Sutra: उवसामं पुवणीता, गुणमहता जिणचरित्तसरिसं पि।
पडिवातेंति कसाया, किं पुण सेसे सरागत्थे।।११।। Translated Sutra: महागुणी मुनि के द्वारा उपशान्त किये हुए कषाय जिनेश्वरदेव के समान चरित्रवाले उस (उपशमक वीतराग) मुनि को भी गिरा देते हैं, तब सराग मुनियों का तो कहना ही क्या ? | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१२. अहिंसासूत्र | Hindi | 153 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागादीणमणुप्पाओ, अहिंसकत्तं त्ति देसियं समए।
तेसिं चे उप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहि णिद्दिट्ठा।।७।। Translated Sutra: जिनेश्वरदेव ने कहा है -- राग आदि की अनुत्पत्ति अहिंसा है और उनकी उत्पत्ति हिंसा है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 192 | View Detail | ||
Mool Sutra: मग्गो मग्गफलं ति य, दुविहं जिणसासणे समक्खादं।
मग्गो खलु सम्मत्तं मग्गफलं होइ णिव्वाणं।।१।। Translated Sutra: जिनशासन में `मार्ग' तथा `मार्गफल' इन दो प्रकारों से कथन किया गया है। `मार्ग' अर्थात् सम्यक्त्व`मोक्ष' का उपाय है। उसका `फल' `निर्वाण' या `मोक्ष' है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 193 | View Detail | ||
Mool Sutra: दंसणणाणचरित्ताणि, मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि।
साधूहि इदं भणिदं, तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा।।२।। Translated Sutra: जिनेन्द्रदेव ने कहा है कि (सम्यक्) दर्शन, ज्ञान, चारित्र मोक्ष का मार्ग है। साधुओं को इनका आचरण करना चाहिए। यदि वे स्वाश्रित होते हैं तो इनसे मोक्ष होता है और पराश्रित होने से बन्ध होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 195 | View Detail | ||
Mool Sutra: वदसमिदीगुत्तीओ, सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं।
कुव्वंतो वि अभव्वो, अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु।।४।। Translated Sutra: जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप का आचरण करते हुए भी अभव्य जीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 196 | View Detail | ||
Mool Sutra: णिच्छयववहारसरूवं, जो रयणत्तयं ण जाणइ सो।
जे कीरइ तं मिच्छा-रूवं सव्वं जिणुद्दिट्ठं।।५।। Translated Sutra: जो निश्चय और व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय (दर्शन, ज्ञान, चारित्र) को नहीं जानता, उसका सब-कुछ करना मिथ्यारूप है, यह जिनदेव का उपदेश है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१८. सम्यग्दर्शनसूत्र | Hindi | 220 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवादी सद्दहणं, सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं।
ववहारा णिच्छयदो, अप्पा णं हवइ सम्मत्तं।।२।। Translated Sutra: व्यवहारनय से जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान को जिनदेव ने सम्यक्त्व कहा है। निश्चय से तो आत्मा ही सम्यग्दर्शन है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र | Hindi | 252 | View Detail | ||
Mool Sutra: जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, तेण चित्तं णिरुज्झदि।
जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।८।। Translated Sutra: जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसीको जिनशासन में ज्ञान कहा गया है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र | Hindi | 253 | View Detail | ||
Mool Sutra: जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि।
जेण मित्ती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।९।। Translated Sutra: जिससे जीव राग-विमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है और जिससे मैत्रीभाव प्रभावित होता (बढ़ता) है, उसीको जिनशासन में ज्ञान कहा गया है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र | Hindi | 254 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुट्ठं, अणन्नमविसेसं।
अपदेससुत्तमज्झं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं।।१०।। Translated Sutra: जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट (देहकर्मातीत) अनन्य (अन्य से रहित), अविशेष (विशेष से रहित) तथा आदि-मध्य और अन्तविहीन (निर्विकल्प) देखता है, वही समग्र जिनशासन को देखता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२०. सम्यक्चारित्रसूत्र | Hindi | 263 | View Detail | ||
Mool Sutra: असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं।
वदसमिदिगुत्तिरूवं, ववहारणया दु जिणभणियं।।२।। Translated Sutra: अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति ही व्यवहारचारित्र है, जो पाँच व्रत, पाँच समिति व तीन गुप्ति के रूप में जिनदेव द्वारा प्ररूपित है। [इस तेरह प्रकार के चारित्र का कथन आगे यथास्थान किया गया है।] | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२१. साधनासूत्र | Hindi | 288 | View Detail | ||
Mool Sutra: आहारासण-णिद्दाजयं, च काऊण जिणवरमएण।
झायव्वो णियअप्पा, णाऊणं गुरुपसाएण।।१।। Translated Sutra: जिनदेव के मतानुसार आहार, आसन तथा निद्रा पर विजय प्राप्त करके गुरुप्रसाद से ज्ञान प्राप्त कर निजात्मा का ध्यान करना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२२. द्विविध धर्मसूत्र | Hindi | 296 | View Detail | ||
Mool Sutra: दो चेव जिणवरेहिं, जाइजरामरणविप्पमुक्केहिं।
लोगम्मि पहा भणिया, सुस्समण सुसावगो वा वि।।१।। Translated Sutra: जन्म-जरा-मरण से मुक्त जिनेन्द्रदेव ने इस लोक में दो ही मार्ग बतलाये हैं--एक है उत्तम श्रमणों का और दूसरा है उत्तम श्रावकों का। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२२. द्विविध धर्मसूत्र | Hindi | 297 | View Detail | ||
Mool Sutra: दाणं पूया मुक्खं, सावयधम्मे ण सावया तेण विणा।
झाणाज्झयणं मुक्खं, जइधम्मे तं विणा तहा सो वि।।२।। Translated Sutra: श्रावक-धर्म में दान और पूजा मुख्य हैं जिनके बिना श्रावक नहीं होता तथा श्रमण-धर्म में ध्यान व अध्ययन मुख्य हैं, जिनके बिना श्रमण नहीं होता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२२. द्विविध धर्मसूत्र | Hindi | 299 | View Detail | ||
Mool Sutra: नो खलु अहं तहा, संचाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए।
अहं णं देवाणुप्पियाणं, अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइय।दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिस्सामि।।४।। Translated Sutra: मैं मुण्डित (प्रव्रजित) होकर अनगारधर्म स्वीकार करने में असमर्थ हूँ, अतः मैं जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित द्वादशव्रतयुक्त श्रावकधर्म कों अंगीकार करुुंगा। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | Hindi | 307 | View Detail | ||
Mool Sutra: संवेगजणिदकरणा, णिस्सल्ला मंदरो व्व णिक्कंपा।
जस्स दढा जिणभत्ती, तस्स भयं णत्थि संसारे।।७।। Translated Sutra: जिसके हृदय में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करनेवाली, शल्यरहित तथा मेरुवत् निष्कम्प और दृढ़ जिन-भक्ति है, उसे संसार में किसी तरह का भय नहीं है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | Hindi | 334 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो मुणिभुत्तविसेसं, भुंजइ सो भुंजए जिणुवदिट्ठं।
संसारसारसोक्खं, कमसो णिव्वाणवरसोक्खं।।३४।। Translated Sutra: जो गृहस्थ मुनि को भोजन कराने के पश्चात् बचा हुआ भोजन करता है, वास्तव में उसीका भोजन करना सार्थक है। वह जिनोपदिष्ट संसार का सारभूत सुख तथा क्रमशः मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२४. श्रमणधर्मसूत्र | Hindi | 338 | View Detail | ||
Mool Sutra: बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो।
न लवे असाहुं साहु त्ति, साहुं साहु त्ति आलवे।।३।। Translated Sutra: (परन्तु) ऐसे भी बहुत से असाधु हैं जिन्हें संसार में साधु कहा जाता है। (लेकिन) असाधु को साधु नहीं कहना चाहिए, साधु को ही साधु कहना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 389 | View Detail | ||
Mool Sutra: आहच्च हिंसा समितस्स जा तू, सा दव्वतो होति ण भावतो उ।
भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति।।६।। Translated Sutra: (इसका कारण यह है कि) समिति का पालन करते हुए साधु से जो आकस्मिक हिंसा हो जाती है, वह केवल द्रव्य-हिंसा है, भावहिंसा नहीं। भावहिंसा तो असंयमी या अयतनाचारी से होती है--ये जिन जीवों को कभी मारते नहीं, उनकी हिंसा का दोष भी इन्हें लगता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२७. आवश्यकसूत्र | Hindi | 422 | View Detail | ||
Mool Sutra: सामाइयं चउवीसत्थओ वंदणयं।
पडिक्कमणं काउस्सग्गो पच्चक्खाणं।।६।। Translated Sutra: सामायिक, चतुर्विंशति जिन-स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान--ये छह आवश्यक है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२७. आवश्यकसूत्र | Hindi | 434 | View Detail | ||
Mool Sutra: देवस्सियणियमादिसु, जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि।
जिणगुणचिंतणजुत्तो, काउसग्गो तणुविसग्गो।।१८।। Translated Sutra: दिन, रात, पक्ष, मास, चातुर्मास आदि में किये जानेवाले प्रतिक्रमण आदि शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार सत्ताईस श्वासोच्छ्वास तक अथवा उपयुक्त काल तक जिनेन्द्रभगवान् के गुणों का चिन्तवन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना कायोत्सर्ग नामक आवश्यक है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२८. तपसूत्र | Hindi | 439 | View Detail | ||
Mool Sutra: जत्थ कसायणिरोहो, बंभं जिणपूयणं अणसणं च।
सो सव्वो चेव तवो, विसेसओ मुद्धलोयंमि।।१।। Translated Sutra: जहाँ कषायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजन तथा अनशन (आत्मलाभ के लिए) किया जाता है, वह सब तप है। विशेषकर मुग्ध अर्थात् भक्तजन यही तप करते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२८. तपसूत्र | Hindi | 465 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो पस्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्तु परिणामं।
आलोयणमिदि जाणह, परमजिणंदस्स उवएसं।।२७।। Translated Sutra: अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है। ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२८. तपसूत्र | Hindi | 469 | View Detail | ||
Mool Sutra: विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे।
विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो ?।।३१।। Translated Sutra: विनय जिनशासन का मूल है। विनीत संयमी बनता है। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप ? | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२८. तपसूत्र | Hindi | 476 | View Detail | ||
Mool Sutra: पूयादिसु णिरवेक्खो, जिण-सत्थं जो पढेइ भत्तीए।
कम्ममल-सोहणट्ठं, सुयलाहो सुहयरो तस्स।।३८।। Translated Sutra: आदर-सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर जो कर्मरूपी मल को धोने के लिए भक्तिपूर्वक जिनशास्त्रों को पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ स्व-पर सुखकारी होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२९. ध्यानसूत्र | Hindi | 491 | View Detail | ||
Mool Sutra: थिरकयजोगाणं पुण, मुणीण झाणे सुनिच्चलमणाणं।
गामम्मि जणाइण्णे, सुण्णे रण्णे व ण विसेसो।।८।। Translated Sutra: जिन्होंने अपने योग अर्थात् मन-वचन-काय को स्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों के ध्यान के लिए धनी आबादी के ग्राम अथवा शून्य अरण्य में कोई अन्तर नहीं रह जाता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 524 | View Detail | ||
Mool Sutra: बंधप्पदेस-ग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणे हि पणत्तं।
जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरण मिदि जाण।।२०।। Translated Sutra: बँधे हुए कर्म-प्रदेशों के क्षरण को निर्जरा कहा जाता है। जिन कारणों से संवर होता है, उन्हीं कारणों से निर्जरा होती है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 552 | View Detail | ||
Mool Sutra: णो इंदिएसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे चावि।
जो सद्दहइ जिणत्तुं, सम्माइट्ठी अविरदो सो।।७।। Translated Sutra: जो न तो इन्द्रिय-विषयों से विरत है और न त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत है, लेकिन केवल जिनेन्द्र-प्ररूपित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है, वह व्यक्ति अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 553 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो तसवहाउ विरदो, णो विरओ एत्थ-थावरवहाओ।
पडिसमयं सो जीवो, विरयाविरओ जिणेक्कमई।।८।। Translated Sutra: जो त्रस जीवों की हिंसा से तो विरत हो गया है, परन्तु एकेन्द्रिय स्थावर जीवों (वनस्पति, जल, भूमि, अग्नि, वायु) की हिंसा से विरत नहीं हुआ है तथा एकमात्र जिन भगवान् में ही श्रद्धा रखता है, वह श्रावक देशविरत गुणस्थानवर्ती कहलाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 557 | View Detail | ||
Mool Sutra: तारिसपरिणामट्ठियजीवा, हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं।
मोहस्सऽपुव्वकरणा, खवणुवसमणुज्जया भणिया।।१२।। Translated Sutra: अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले (ज्ञानसूर्य) जिनेन्द्रदेव ने उन अपूर्व-परिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने में तत्पर कहा है। (मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम तो नौवें और दसवें गुण-स्थानों में होता है, किन्तु उसकी तैयारी इस अष्टम गुणस्थान में ही शुरू हो जाती है।) | |||||||||
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द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 558 | View Detail | ||
Mool Sutra: होंति अणियट्टिणो ते, पडिसमयं जेसिमेक्कपरिणामा।
विमलयरझाणहुयवह-सिहाहिं णिद्दड्ढकम्मवणा।।१३।। Translated Sutra: वे जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले होते हैं, जिनके प्रतिसमय (निरन्तर) एक ही परिणाम होता है। (इनके भाव अष्टम गुणस्थानवालों की तरह विसदृश नहीं होते।) ये जीव निर्मलतर ध्यानरूपी अग्नि-शिखाओं से कर्म-वन को भस्म कर देते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 559 | View Detail | ||
Mool Sutra: कोसुंभो जिह राओ, अब्भंतरदो य सुहुमरत्तो य।
एवं सुहुमसराओ, सुहुमकसाओ त्ति णायव्वो।।१४।। Translated Sutra: कुसुम्भ के हल्के रंग की तरह जिनके अन्तरंग में केवल सूक्ष्म राग शेष रह गया है, उन मुनियों को सूक्ष्म-सराग या सूक्ष्मकषाय जानना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 560 | View Detail | ||
Mool Sutra: सकदकफलजलं वा, सरए सरवाणियं व णिम्मलयं।
सयलोवसंतमोहो, उवसंतकसायओ होदि।।१५।। Translated Sutra: जैसे निर्मली-फल से युक्त जल अथवा शरदकालीन सरोवर का जल (मिट्टी के बैठ जाने से) निर्मल होता है, वैसे ही जिनका सम्पूर्ण मोह उपशान्त हो गया है, वे निर्मल परिणामी उपशान्त-कषाय[5] कहलाते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 561 | View Detail | ||
Mool Sutra: णिस्सेसखीणमोहो, फलिहामलभायणुदय-समचित्तो।
खीणकसाओ भण्णइ, णिग्गंथो वीयराएहिं।।१६।। Translated Sutra: सम्पूर्ण मोह पूरी तरह नष्ट हो जाने से जिनका चित्त स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की तरह निर्मल हो जाता है, उन्हें वीतरागदेव ने क्षीण-कषाय निर्ग्रन्थ कहा है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 562 | View Detail | ||
Mool Sutra: केवलणाणदिवायर-किरणकलाव-प्पणासिअण्णाणो।
णवकेवललद्धुग्गम-पावियपरमप्पववएसो।।१७।। Translated Sutra: केवलज्ञानरूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान अन्धकार सर्वथा नष्ट हो जाता है तथा नौ केवललब्धियों (सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग) के प्रकट होने से जिन्हें परमात्मा की संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वे इन्द्रियादि की सहायता की अपेक्षा न रखनेवाले ज्ञान-दर्शन | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 564 | View Detail | ||
Mool Sutra: सेलेसिं संपत्तो, णिरुद्धणिस्सेस-आसओ जीवो।
कम्मरयविप्पमुवको, गयजोगो केवली होइ।।१९।। Translated Sutra: जो शील के स्वामी हैं, जिनके सभी नवीन कर्मों का आस्रव अवरुद्ध हो गया है, तथा जो पूर्वसंचित कर्मों से (बन्ध से) सर्वथा मुक्त हो चुके हैं, वे अयोगीकेवली कहलाते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 611 | View Detail | ||
Mool Sutra: तवसा चेव ण मोक्खो, संवरहीणस्स होइ जिणवयणे।
ण हु सोत्ते पविसंते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं।।२४।। Translated Sutra: यह जिन-वचन है कि संवरविहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता; जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 624 | View Detail | ||
Mool Sutra: धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जन्तवो।
एस लोगो त्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं।।१।। Translated Sutra: परमदर्शी जिनवरों ने लोक को धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव इस प्रकार छह द्रव्यात्मक कहा है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 635 | View Detail | ||
Mool Sutra: चेयणरहियममुत्तं, अवगाहणलक्खणं च सव्वगयं।
लोयालोयविभेयं, तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठं।।१२।। Translated Sutra: जिनेन्द्रदेव ने आकाश-द्रव्य को अचेतन, अमूर्त्त, व्यापक और अवगाह लक्षणवाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 642 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुढवी जलं च छाया, चउरिंदियविसय-कम्मपरमाणू।
छव्विहभेयं भणियं, पोग्गलदव्वं जिणवरेहिं।।१९।। Translated Sutra: पृथ्वी, जल, छाया, नेत्र तथा शेष चार इन्द्रियों के विषय, कर्म तथा परमाणु--इस प्रकार जिनदेव ने स्कन्धपुद्गल के छह दृष्टान्त हैं। [पृथ्वी अतिस्थूल का, जल स्थूल का, छायाप्रकाश आदि नेत्रइन्द्रिय-विषय स्थूल-सूक्ष्म का, रस-गंध-स्पर्श-शब्द आदि इन्द्रिय-विषय सूक्ष्म-स्थूल का, कार्मण-स्कन्ध सूक्ष्म का तथा परमाणु अतिसूक्ष्म | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 727 | View Detail | ||
Mool Sutra: परसमएगनयमयं, तप्पडिवक्खनयओ निवत्तेज्जा।
समए व परिग्गहियं, परेण जं दोसबुद्धीए।।६।। Translated Sutra: नय-विधि के ज्ञाता को पर-समयरूप (एकान्त या आग्रहपूर्ण) अनित्यत्व आदि के प्रतिपादक ऋजुसूत्र आदि नयों के अनुसार लोक में प्रचलित मतों का निवर्तन या परिहार नित्यादि का कथन करनेवाले द्रव्यार्थिक नय से करना चाहिए। तथा स्वसमयरूप जिन-सिद्धान्त में भी अज्ञान या द्वेष आदि दोषों से युक्त किसी व्यक्ति ने दोषबुद्धि से | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 736 | View Detail | ||
Mool Sutra: भद्दं मिच्छादंसण-समूहमइयस्स अमयसारस्स।
जिणवयणस्स भगवओ, संविग्गसुहाहिगम्मस्स।।१५।। Translated Sutra: मिथ्यादर्शनों के समूहरूप, अमृतरस-प्रदायी और अनायास मुमुक्षुओं की समझ में आनेवाले वन्दनीय जिनवचन का कल्याण हो। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Prakrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४३. समापनसूत्र | Hindi | 749 | View Detail | ||
Mool Sutra: लद्धं अलद्धपुव्वं, जिणवयण-सुभासिदं अमिदभूदं।
गहिदो सुग्गइमग्गो, णाहं मरणस्स बीहेमि।।५।। Translated Sutra: जो मुझे पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ, वह अमृतमय सुभाषितरूप जिनवचन आज मुझे उपलब्ध हुआ है और तदनुसार सुगति का मार्ग मैंने स्वीकार किया है। अतः अब मुझे मरण का कोई भय नहीं है। | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१. मङ्गलसूत्र | English | 13 | View Detail | ||
Mool Sutra: ऋषभमजितं च वन्दे, संभवमभिनन्दनं च सुमतिं च।
पद्मप्रभं सुपार्श्वं, जिनं च चन्द्रप्रभं वन्दे।।१३।। Translated Sutra: I bow to the Jinas: Rsbha, Ajita, Sambhava, Abhinandna, Sumati, Padmaprabha, Suparsva and Candraprabha. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१. मङ्गलसूत्र | English | 15 | View Detail | ||
Mool Sutra: कुन्थुं च जिनवरेन्द्रम्, अरं च मल्लिं च सुव्रतं च नमिम्।
वन्दे अरिष्टनेमिं, तथा पार्श्वं वर्धमानं च।।१५।। Translated Sutra: I bow to the Jinas: Kunthu, Ara, Malli, Munisuvrata, Nami, Aristanemi, Parsva and Vardhamana. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | English | 17 | View Detail | ||
Mool Sutra: यद् आलीना जीवाः, तरन्ति संसारसागरमनन्तम्।
तत् सर्वजीवशरणं, नन्दतु जिनशासनं सुचिरम्।।१।। Translated Sutra: May the teachings of Jina which enable all souls to cross over the endless ocean of mundane existence and which afford protection to all living beings, flourish for ever. | |||||||||
Saman Suttam | Saman Suttam | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | English | 18 | View Detail | ||
Mool Sutra: जिनवचनमौषधमिदं, विषयसुखविरेचनम्-अमृतभूतम्।
जरामरणव्याधिहरणं, क्षयकरणं सर्वदुःखानाम्।।२।। Translated Sutra: The teachings of Jina are nectar-like medicine for weaning away people from all mudane pleasures, for relief from all miseries. |