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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
२. जिनशासनसूत्र | Hindi | 22 | View Detail | ||
Mool Sutra: जय वीतराग ! जगद्गुरो ! भवतु मम तव प्रभावतो भगवन् !भवनिर्वेदः मार्गानुसारिता इष्टफलसिद्धिः।।६।। Translated Sutra: हे वीतराग !, हे जगद्गुरु !, हे भगवन् ! आपके प्रभाव से मुझे संसार से विरक्ति, मोक्षमार्ग का अनुसरण तथा इष्टफल की प्राप्ति होती रहे। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 45 | View Detail | ||
Mool Sutra: अध्रुवेऽशाश्वते, संसारे दुःखप्रचुरके।
किं नाम भवेत् तत् कर्मकं, येनाहं दुर्गतिं न गच्छेयम्।।१।। Translated Sutra: अध्रुव, अशाश्वत और दुःख-बहुल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 46 | View Detail | ||
Mool Sutra: क्षणमात्रसौख्या बहुकालदुःखाः, प्रकामदुःखाः अनिकामसौख्याः।
संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः, खानिरनर्थानां तु कामभोगाः।।२।। Translated Sutra: ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुःख देनेवाले हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं, संसार-मुक्ति के विरोधी और अनर्थों की खान हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 52 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः खलु संसारस्थो, जीवस्ततस्तु भवति परिणामः।
परिणामात् कर्म, कर्मतः भवति गतिषु गतिः।।८।। Translated Sutra: संसारी जीव के (राग-द्वेषरूप) परिणाम होते हैं। परिणामों से कर्म-बंध होता है। कर्म-बंध के कारण जीव चार गतियों में गमन करता है-जन्म लेता है। जन्म से शरीर और शरीर से इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। उनसे जीव विषयों का ग्रहण (सेवन) करता है। उससे फिर राग-द्वेष पैदा होता है। इस प्रकार जीव संसारचक्र में परिभ्रमण करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 54 | View Detail | ||
Mool Sutra: जायते जीवस्यैवं, भावः संसारचक्रवाले।
इति जिनवरैर्भणितो-ऽनादिनिधनः सनिधनो वा।।१०।। Translated Sutra: कृपया देखें ५२; संदर्भ ५२-५४ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
५. संसारचक्रसूत्र | Hindi | 55 | View Detail | ||
Mool Sutra: जन्म दुःखं,जरा दुःखं रोगाश्च मरणानि च।
अहो दुःखः खलु संसारः, यत्र क्लिश्यन्ति जन्तवः।।११।। Translated Sutra: जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है, और मृत्यु दुःख है। अहो ! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | Hindi | 73 | View Detail | ||
Mool Sutra: न च संसारे सुखं, जातिजरामरणदुःखगृहीतस्य।
जीवस्यास्ति यस्मात्, तस्माद् मोक्षः उपादेयः।।३।। Translated Sutra: इस संसार में जन्म, जरा और मरण के दुःख से ग्रस्त जीव को कोई सुख नहीं है। अतः मोक्ष ही उपादेय है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | Hindi | 77 | View Detail | ||
Mool Sutra: येन विरागो जायते, तत्तत् सर्वादरेण करणीयम्।
मुच्यते एव ससंवेगः, अनन्तकः भवति असंवेगी।।७।। Translated Sutra: जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिए। विरक्त व्यक्ति संसार-बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का संसार अनन्त होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
८. राग-परिहारसूत्र | Hindi | 81 | View Detail | ||
Mool Sutra: भावे विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुःखौघपरम्परया।
न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम्।।११।। Translated Sutra: भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी अनेक दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
९. धर्मसूत्र | Hindi | 103 | View Detail | ||
Mool Sutra: निर्वेदत्रिकं भावयति, मोहं त्यक्त्वा सर्वद्रव्येषु।
यः तस्य भवति त्यागः, इति भणितं जिनवरेन्द्रैः।।२२।। Translated Sutra: सब द्रव्यों में होनेवाले मोह को त्यागकर जो त्रिविध निर्वेद (संसार देह तथा भोगों के प्रति वैराग्य) से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्यागधर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख |
१०. संयमसूत्र | Hindi | 130 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागो द्वेषः च द्वौ पापौ, पापकर्मप्रवर्तकौ।
यो भिक्षुः रुणद्धि नित्यं, स न आस्ते मण्डले।।९।। Translated Sutra: पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष ये दो पाप हैं। जो भिक्षु इनका सदा निरोध करता है वह मंडल (संसार) में नहीं रुकता-मुक्त हो जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 199 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुण्यमपि यः समिच्छति, संसारः तेन ईहितः भवति।
पुण्यं सुगतिहेतुः, पुण्यक्षयेण एव निर्वाणम्।।८।। Translated Sutra: जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु (अवश्य) है, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 200 | View Detail | ||
Mool Sutra: कर्म अशुभं कुशीलं, शुभकर्म चापि जानीहि वा सुशीलम्।
कथं तद् भवति सुशीलं, यत् संसारं प्रवेशयति।।९।। Translated Sutra: अशुभ-कर्म को कुशील और शुभ-कर्म को सुशील जानो। किन्तु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट कराता है ? | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र | Hindi | 248 | View Detail | ||
Mool Sutra: सूची यथा ससूत्रा, न नश्यति कचवरे पतिताऽपि।
जीवोऽपि तथा ससूत्रो, न नश्यति गतोऽपि संसारे।।४।। Translated Sutra: जैसे धागा पिरोयी हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रज्ञानयुक्त जीव संसार में पड़कर भी नष्ट नहीं होता। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१९. सम्यग्ज्ञानसूत्र | Hindi | 249 | View Detail | ||
Mool Sutra: सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टा, जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि।
आराधनाविरहिता, भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव।।५।। Translated Sutra: (किन्तु) सम्यक्त्वरूपी रत्न से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधनाविहीन होने से संसार में अर्थात् नरकादिक गतियों में भ्रमण करते रहते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२०. सम्यक्चारित्रसूत्र | Hindi | 286 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रद्धां नगरं कृत्वा, तपःसंवरमर्गलाम्।
क्षान्तिं निपुणप्राकारं, त्रिगुप्तं दुष्प्रधर्षकम्।।२५।। Translated Sutra: श्रद्धा को नगर, तप और संवर को अर्गला, क्षमा को (बुर्ज, खाई और शतघ्नीस्वरूप) त्रिगुप्ति (मन-वचन-काय) से सुरक्षित तथा अजेय सुदृढ़ प्राकार बनाकर तपरूप वाणी से युक्त धनुष से कर्म-कवच को भेदकर (आंतरिक) संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है। संदर्भ २८६-२८७ | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | Hindi | 307 | View Detail | ||
Mool Sutra: संवेगजनितकरणा, निःशल्या मन्दर इव निष्कम्पा।
यस्य दृढा जिनभक्तिः, तस्य भयं नास्ति संसारे।।७।। Translated Sutra: जिसके हृदय में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करनेवाली, शल्यरहित तथा मेरुवत् निष्कम्प और दृढ़ जिन-भक्ति है, उसे संसार में किसी तरह का भय नहीं है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२३. श्रावकधर्मसूत्र | Hindi | 334 | View Detail | ||
Mool Sutra: यो मुनिभुक्तविशेषं, भुङ्क्ते स भुङ्क्ते जिनोपदिष्टम्।
संसारसारसौख्यं, क्रमशो निर्वाणवरसौख्यम्।।३४।। Translated Sutra: जो गृहस्थ मुनि को भोजन कराने के पश्चात् बचा हुआ भोजन करता है, वास्तव में उसीका भोजन करना सार्थक है। वह जिनोपदिष्ट संसार का सारभूत सुख तथा क्रमशः मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२४. श्रमणधर्मसूत्र | Hindi | 338 | View Detail | ||
Mool Sutra: बहवः इमे असाधवः, लोके उच्यन्ते साधवः।
न लपेदसाधुं साःधुः इति साधुं साधुः इति आलपेत्।।३।। Translated Sutra: (परन्तु) ऐसे भी बहुत से असाधु हैं जिन्हें संसार में साधु कहा जाता है। (लेकिन) असाधु को साधु नहीं कहना चाहिए, साधु को ही साधु कहना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२६. समिति-गुप्तिसूत्र | Hindi | 416 | View Detail | ||
Mool Sutra: एताः प्रवचनमातॄः, यः सम्यगाचरेन्मुनिः।
स क्षिप्रं सर्वसंसारात्, विप्रमुच्यते पण्डितः।।३३।। Translated Sutra: जो मुनि इन आठ प्रवचन-माताओं का सम्यक् आचरण करता है, वह ज्ञानी शीघ्र संसार से मुक्त हो जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२८. तपसूत्र | Hindi | 483 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञानमयवातसहितं, शीलोज्ज्वलितं तपो मतोऽग्निः।
संसारकरणबीजं,दहति दवाग्निरिव तृणराशिम्।।४५।। Translated Sutra: ज्ञानमयी वायुसहित तथा शील द्वारा प्रज्वलित तपोमयी अग्नि संसार के कारणभूत कर्म-बीज को वैसे ही जला डालती है, जैसे वन में लगी प्रचण्ड आग तृण-राशि को। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२९. ध्यानसूत्र | Hindi | 493 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुविदितजगत्स्वभावः, निस्संगः निर्भयः निराशश्च।
वैराग्यभावितमनाः, ध्याने सुनिश्चलो भवति।।१०।। Translated Sutra: जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है, निःसंग, निर्भय तथा आशारहित है तथा जिसका मन वैराग्यभावना से युक्त है, वही ध्यान में सुनिश्चल--भलीभाँति स्थित होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 506 | View Detail | ||
Mool Sutra: अध्रुवमशरणमेकत्व-मन्यत्वसंसार-लोकमशुचित्वं।
आस्रवसंवरनिर्जर, धर्मं बोधिं च चिन्तयेत्।।२।। Translated Sutra: अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि--इन बारह भावनाओं का चिन्तवन करना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 507 | View Detail | ||
Mool Sutra: जन्म मरणेन समं, सम्पद्यते यौवनं जरासहितम्।
लक्ष्मीः विनाशसहिता, इति सर्वं भङ्गुरं जानीत।।३।। Translated Sutra: जन्म मरण के साथ जुड़ा हुआ है और यौवन वृद्धावस्था के साथ। लक्ष्मी चंचला है। इस प्रकार (संसार में) सब-कुछ क्षण-भंगुर है - अनित्य है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 511 | View Detail | ||
Mool Sutra: धिक् संसारं यत्र, युवा परमरूपगर्वितकः।
मृत्वा जायते,कृमिस्तत्रैव कलेवरे निजके।।७।। Translated Sutra: इस संसार को धिक्कार है, जहाँ परम रूप-गर्वित युवक मृत्यु के बाद अपने उसी त्यक्त (मृत) शरीर में कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 512 | View Detail | ||
Mool Sutra: स नास्तीहावकाशो, लोके बालाग्रकोटिमात्रोऽपि।
जन्ममरणाबाधा,अनेकशो यत्र न च प्राप्ताः।।८।। Translated Sutra: इस संसार में बाल की नोक जितना भी स्थान ऐसा नहीं है जहाँ इस जीव ने अनेक बार जन्म-मरण का कष्ट न भोगा हो। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 514 | View Detail | ||
Mool Sutra: रत्नत्रयसंयुक्तः जीवः अपि भवति उत्तमं तीर्थम्।
संसारं तरति यतः, रत्नत्रयदिव्यनावा।।१०।। Translated Sutra: (वास्तव में-) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है, क्योंकि वह रत्नत्रयरूपी दिव्य नौका द्वारा संसार-सागर से पार करता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 523 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञात्वा लोकसारं, निःसारं दीर्घगमनसंसारम्।
लोकाग्रशिखरवासं, ध्याय प्रयत्नेन सुखवासम्।।१९।। Translated Sutra: लोक को निःसार तथा संसार को दीर्घ गमनरूप जानकर मुनि प्रयत्नपूर्वक लोक के सर्वोच्च अग्रभाग में स्थित मुक्तिपद का ध्यान करता है, जहाँ मुक्त (सिद्ध) जीव सुखपूर्वक सदा निवास करते है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३०. अनुप्रेक्षासूत्र | Hindi | 529 | View Detail | ||
Mool Sutra: भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिव आख्यातः।
नौरिव तीरसंपन्ना, सर्वदुःखात् त्रुट्यति।।२५।। Translated Sutra: भावना-योग से शुद्ध आत्मा को जल में नौका के समान कहा गया है। जैसे अनुकूल पवन का सहारा पाकर नौका किनारे पर पहुँच जाती है, वैसे ही शुद्ध आत्मा संसार के पार पहुँचती है, जहाँ उसके समस्त दुःखों का अन्त हो जाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 567 | View Detail | ||
Mool Sutra: शरीरमाहुर्नौरिति, जीव उच्यते नाविकः।
संसारोऽर्णव उक्तः, यं तरन्ति महर्षयः।।१।। Translated Sutra: शरीर को नाव कहा गया है और जीव को नाविक। यह संसार समुद्र है, जिसे महर्षिजन तैर जाते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 580 | View Detail | ||
Mool Sutra: मिथ्यादर्शनरक्ताः, सनिदानाः कृष्णलेश्यामवगाढाः।
इति ये म्रियन्ते जीवा-स्तेषां दुर्लभा भवेद् बोधिः।।१४।। Translated Sutra: इस संसार में जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त होकर निदानपूर्वक तथा प्रगाढ़ कृष्णलेश्यासहित मरण को प्राप्त होते हैं, उनके लिए बोधि-लाभ दुर्लभ हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३३. संलेखनासूत्र | Hindi | 586 | View Detail | ||
Mool Sutra: इहपरलोकाशंसा-प्रयोगो तथा जीवितमरणभोगेषु।
वर्जयेद् भावयेत् च अशुभं संसारपरिणामम्।।२०।। Translated Sutra: संलेखना-रत साधक को मरण-काल में इस लोक और परलोक में सुखादि के प्राप्त करने की इच्छा का तथा जीने और मरने की इच्छा का त्याग करके अन्तिम साँस तक संसार के अशुभ परिणाम का चिन्तन करना चाहिए। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 588 | View Detail | ||
Mool Sutra: यावन्तोऽविद्यापुरुषाः, सर्वे ते दुःखसम्भवाः।
लुप्यन्ते बहुशो मूढाः, संसारेऽनन्तके।।१।। Translated Sutra: समस्त अविद्यावान् (अज्ञानी पुरुष) दुःखी हैं-दुःख के उत्पादक हैं। वे विवेकमूढ़ अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३४. तत्त्वसूत्र | Hindi | 595 | View Detail | ||
Mool Sutra: नो इन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावात्, अमूर्त्तभावादपि च भवति नित्यः।
अध्यात्महेतुर्नियतः अस्य बन्धः, संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम्।।८।। Translated Sutra: आत्मा (जीव) अमूर्त है, अतः वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। तथा अमूर्त पदार्थ नित्य होता है। आत्मा के आन्तरिक रागादि भाव ही निश्चयतः बन्ध के कारण हैं और बन्ध को संसार का हेतु कहा गया है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 649 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवाः संसारस्था, निर्वाताः, चेतनात्मका द्विविधाः।
उपयोगलक्षणा अपि च, देहादेहप्रवीचाराः।।२६।। Translated Sutra: जीव दो प्रकार के हैं--संसारी और मुक्त। दोनों ही चेतना स्वभाववाले और उपयोग लक्षणवाले हैं। संसारी जीव शरीरी होते हैं और मुक्तजीव अशरीरी। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 733 | View Detail | ||
Mool Sutra: प्रज्ञापनीयाः भावाः, अनन्तभागः तु अनभिलाप्यानाम्।
प्रज्ञापनीयानां पुनः, अनन्तभागः श्रुतनिबद्धः।।१२।। Translated Sutra: संसार में ऐसे बहुत-से पदार्थ हैं जो अनभिलाप्य हैं। शब्दों द्वारा उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसे पदार्थों का अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय (कहने योग्य) होता है। इन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवाँ भाग ही शास्त्रों में निबद्ध है। [ऐसी स्थिति में कैसे कहा जा सकता है कि अमुक शास्त्र की बात या अमुक ज्ञानी की | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 734 | View Detail | ||
Mool Sutra: स्वकं स्वकं प्रशंसन्तः, गर्हयन्तः, परं वचः।
ये तु तत्र विद्वस्यन्ते, संसारं ते व्युच्छ्रिता।।१३।। Translated Sutra: इसलिए जो पुरुष केवल अपने मत की प्रशंसा करते हैं तथा दूसरे के वचनों की निन्दा करते हैं और इस तरह अपना पांडित्य-प्रदर्शन करते हैं, वे संसार में मजबूती से जकड़े हुए हैं--दृढ़ रूप में आबद्ध हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४१. समन्वयसूत्र | Hindi | 735 | View Detail | ||
Mool Sutra: नानाजीवा नानाकर्म्म, नानाविधा भवेल्लब्धिः।
तस्माद् वचनविवादं, स्वपरसमयैर्वर्जयेत्।।१४।। Translated Sutra: इस संसार में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धियाँ हैं, इसलिए कोई स्वधर्मी हो या परधर्मी, किसीके भी साथ वचन-विवाद करना उचित नहीं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
चतुर्थ खण्ड – स्याद्वाद |
४४. वीरस्तवन | Hindi | 752 | View Detail | ||
Mool Sutra: स भूतिप्रज्ञोऽनिकेतचारी, ओघन्तरो धीरोऽनन्तचक्षुः।
अनुत्तरं तपति सूर्य इव, वैरोचनेन्द्र इव तमः प्रकाशयति।।३।। Translated Sutra: वे वीरप्रभु अनन्तज्ञानी, अनियताचारी थे। संसार-सागर को पार करनेवाले थे। धीर और अनन्तदर्शी थे। सूर्य की भाँति अतिशय तेजस्वी थे। जैसे जाज्वल्यमान अग्नि अन्धकार को नष्ट कर प्रकाश फैलाती है, वैसे ही उन्होंने अज्ञानांधकार का निवारण करके पदार्थों के सत्यस्वरूप को प्रकाशित किया था। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 345 | Gatha | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अट्ठंतकडा रामा, एगो पुण बंभलोयकप्पंमि ।
एक्का से गब्भवसही, सिज्झिस्सइ आगमेस्साणं ॥ Translated Sutra: आठ राम (बलदेव) अन्तकृत् अर्थात् कर्मों का क्षय करके संसार का अन्त करने वाले हुए। एक अन्तिम बलदेव ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुए। जो आगामी भव में एक गर्भवास लेकर सिद्ध होंगे। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-१ |
Hindi | 1 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–
इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसोत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपोंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा लोगोत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोग-पज्जोयगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मनायगेणं धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा अप्पडिहयवरणाणदंसणधरेणं वियट्ट-च्छउमेणं जिणेणं जावएणं तिण्णेणं तारएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं सव्वण्णुणा सव्व-दरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तयं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउका- मेणं Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! उन भगवान ने ऐसा कहा है, मैने सूना है। [इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के अन्तिम समय में विद्यमान उन श्रमण भगवान महावीर ने द्वादशांग गणिपिटक कहा है, वे भगवान] – आचार आदि श्रुतधर्म के आदिकर हैं (अपने समय में धर्म के आदि प्रणेता हैं), तीर्थंकर हैं, (धर्मरूप तीर्थ के प्रवर्तक हैं)। स्वयं सम्यक् बोधि को | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-३० |
Hindi | 94 | Gatha | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे कहाहिगरणाइं, संपउंजे पुणो पुणो ।
सव्वतित्थाण भेयाय, महामोहं पकुव्वइ ॥ Translated Sutra: जो पुनः पुनः स्त्री – कथा, भोजन – कथा आदि विकथाएं करके मंत्र – यंत्रादि का प्रयोग करता है या कलह करता है, और संसार से पार ऊतारने वाले सम्यग्दर्शनादि सभी तीर्थों के भेदन करने के लिए प्रवृत्ति करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-३२ |
Hindi | 105 | Gatha | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धिईमई य संवेगे, पणिही सुविहि संवरे ।
अत्तदोसोवसंहारे, सव्वकामविरत्तया ॥ Translated Sutra: धृतिमति – अपनी बुद्धि में धैर्य रखे, दीनता न करे। संवेग – संसार से भयभीत रहे और निरन्तर मोक्ष की अभिलाषा रखे। प्रणिधि – हृदय में माया शल्य न रखे। सुविधि – अपने चारित्र का विधि – पूर्वक सत् – अनुष्ठान अर्थात् सम्यक् परिपालन करे। संवर – कर्मों के आने के द्वारों (कारणों) का संवरण अर्थात् निरोध करे। आत्मदोषोपसंहार | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 221 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं वियाहे?
वियाहे णं ससमया वियाहिज्जंति परसमया वियाहिज्जंति ससमयपरसमया वियाहिज्जंति जीवा वियाहिज्जंति अजीवा वियाहि-ज्जंति जीवाजीवा वियाहिज्जंति लोगे वियाहिज्जइ अलोगे वियाहिज्जइ लोगालोगे वियाहिज्जइ। वियाहे णं नाणाविह-सुर-नरिंद-राय-रिसि-विविहसंसइय-पुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं दव्व-गुण-खेत्त-काल-पज्जव-पदेस-परिणाम-जहत्थिभाव-अणुगम-निक्खेव-नय-प्पमाण-सुनिउणोवक्कम-विविहप्पगार-पागड-पयंसियाणं लोगालोग-पगा-सियाणं संसारसमुद्द-रुंद-उत्तरण-समत्थाणं सुरपति-संपूजियाणं भविय-जणपय-हिययाभिनंदियाणं तमरय-विद्धंसणाणं सुदिट्ठं दीवभूय-ईहा-मतिबुद्धि-वद्धणाणं Translated Sutra: व्याख्याप्रज्ञप्ति क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वारा स्वसमय का व्याख्यान किया जाता है, परसमय का व्याख्यान किया जाता है तथा स्वसमय – परसमय का व्याख्यान किया जाता है। जीव व्याख्यात किये जाते हैं, अजीव व्याख्यात किये जाते हैं तथा जीव और अजीव व्याख्यात किये जाते हैं। लोक व्याख्यात | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 222 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं नायाधम्मकहाओ?
नायाधम्मकहासु णं नायाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइआइं वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं परियागा संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाइं देवलोगगमणाइं सुकुलपच्चायाती पुण बोहिलाभो अंतकिरियाओ य आघविज्जंति पन्नविज्जंति परूविज्जंति दंसि-ज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति।
नायाधम्मकहासु णं पव्वइयाणं विणयकरण-जिनसामि-सासनवरे संजम-पइण्ण-पालण-धिइ-मइ-ववसाय-दुल्लभाणं, तव-नियम-तवोवहाण-रण-दुद्धरभर-भग्गा-निसहा-निसट्ठाणं, घोर परीसह-पराजिया-ऽसह-पारद्ध-रुद्ध-सिद्धालयमग्ग-निग्गयाणं, Translated Sutra: ज्ञाताधर्मकथा क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? ज्ञाताधर्मकथा में ज्ञात अर्थात् उदाहरणरूप मेघकुमार आदि पुरुषों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, माता – पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक – पारलौकिक ऋद्धि – विशेष, भोग – परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत – परिग्रह, तप – उपधान, दीक्षापर्याय, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 227 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं विवागसुए?
विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविज्जति।
ते समासओ दुविहे पन्नत्ते, तं जहा– दुहविवागे चेव, सुहविवागे चेव।
तत्थ णं दह दुहविवागाणि दह सुहविवागाणि।
से किं तं दुहविवागाणि?
दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ नगरगमणाइं संसारपबंधे दुहपरंपराओ य आघविज्जति।
सेत्तं दुहविवागाणि।
से किं तं सुहविवागाणि?
सुहविवागेसु सुहविवागाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया Translated Sutra: विपाकसूत्र क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? विपाकसूत्र में सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) कर्मों का विपाक कहा गया है। यह विपाक संक्षेप से दो प्रकार का है – दुःख विपाक और सुख – विपाक। इनमें दुःख – विपाक में दश अध्ययन हैं और सुख – विपाक में भी दश अध्ययन हैं। यह दुःख विपाक क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? दुःख – विपाक में | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 228 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं दिट्ठिवाए?
दिट्ठिवाए णं सव्वभावपरूवणया आघविज्जति। से समासओ पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–परिकम्मं सुत्ताइं पुव्वगयं अनुओगे चूलिया।
से किं तं परिकम्मे?
परिकम्मे सत्तविहे पन्नत्ते, तं जहा–१. सिद्धसेणियापरिकम्मे २. मनुस्ससेणियापरिकम्मे ३. पुट्ठसेणियापरिकम्मे ४. ओगाहणसेणियापरिकम्मे ५. उवसंपज्जसेणियापरिकम्मे ६. विप्पजहण-सेणियापरिकम्मे ७. चुयाचुयसेणियापरिकम्मे।
से किं तं सिद्धसेणियापरिकम्मे?
सिद्धसेणियापरिकम्मे चोद्दसविहे पन्नत्ते, तं जहा–१. माउयापयाणि २. एगट्ठियपयाणि ३. अट्ठपयाणि ४. पाढो ५. आगासपयाणि ६. केउभूयं ७. रासिबद्धं ८. एगगुणं ९. दुगुणं १०. तिगुणं Translated Sutra: यह दृष्टिवाद अंग क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? दृष्टिवाद अंग में सर्व भावों की प्ररूपणा की जाती है। वह संक्षेप से पाँच प्रकार का कहा गया है। जैसे – परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका। परिकर्म क्या है ? परिकर्म सात प्रकार का कहा गया है। जैसे – सिद्धश्रेणीका परिकर्म, मनुष्यश्रेणिका परि – कर्म, पृष्टश्रेणिका | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 233 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीते काले अनंता जीवा आणाए विराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टिंसु।
इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णे काले परित्ता जीवा आणाए विराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टंति।
इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अनंता जीवा आणाए विराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टिस्संति।
इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीते काले अनंता जीवा आणाए आराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं विइवइंसु।
इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पन्ने काले परित्ता जीवा आणाए आराहेत्ता चाउरंतं संसारकंतारं विइवयंति।
इच्चेतं दुवालसंगं गणिपिडगं अनागए काले Translated Sutra: इस द्वादशाङ्ग गणि – पिटक की सूत्र रूप, अर्थरूप और उभयरूप आज्ञा का विराधन करके अर्थात् दुराग्रह के वशीभूत होकर अन्यथा सूत्रपाठ करके, अन्यथा अर्थकथन करके और अन्यथा सूत्रार्थ – उभय की प्ररूपणा करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में चतुर्गतिरूप संसार – कान्तार (गहन वन) में परिभ्रमण किया है, इस द्वादशाङ्ग गणि – पिटक की | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 234 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] दुवे रासी पन्नत्ता, तं जहा–जीवरासी अजीवरासी य।
अजीवरासी दुविहे पन्नत्ते, तं जहा– रूविअजीवरासी अरूविअजीवरासी य।
से किं तं अरूविअजीवरासी?
अरूविअजीवरासी दसविहे पन्नत्ते, तं जहा–धम्मत्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पदेसा, अधम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थिकायस्स पदेसा, आगासत्थिकाए, आगासत्थिकायस्स देसे, आगासत्थिकायस्स पदेसा, अद्धासमए। जाव–
से किं तं अनुत्तरोववाइआ?
अनुत्तरोववाइओ पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा–विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजित-सव्वट्ठसिद्धिया। सेत्तं अनुत्तरोववाइया। सेत्तं पंचिंदियसंसारसमावण्णजीवरासी।
दुविहा णेरइया पन्नत्ता, Translated Sutra: दो राशियाँ कही गई हैं – जीवराशि और अजीवराशि। अजीवराशि दो प्रकार की कही गई है – रूपी अजीव – राशि और अरूपी अजीवराशि। अरूपी अजीवराशि क्या है ? अरूपी अजीवराशि दश प्रकार की कही गई है। जैसे – धर्मास्तिकाय यावत् (धर्मास्तिकाय देश, धर्मास्तिकाय प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय देश, अधर्मास्तिकाय प्रदेश, आकाशा | |||||||||
Samavayang | સમવયાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Gujarati | 221 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं वियाहे?
वियाहे णं ससमया वियाहिज्जंति परसमया वियाहिज्जंति ससमयपरसमया वियाहिज्जंति जीवा वियाहिज्जंति अजीवा वियाहि-ज्जंति जीवाजीवा वियाहिज्जंति लोगे वियाहिज्जइ अलोगे वियाहिज्जइ लोगालोगे वियाहिज्जइ। वियाहे णं नाणाविह-सुर-नरिंद-राय-रिसि-विविहसंसइय-पुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं दव्व-गुण-खेत्त-काल-पज्जव-पदेस-परिणाम-जहत्थिभाव-अणुगम-निक्खेव-नय-प्पमाण-सुनिउणोवक्कम-विविहप्पगार-पागड-पयंसियाणं लोगालोग-पगा-सियाणं संसारसमुद्द-रुंद-उत्तरण-समत्थाणं सुरपति-संपूजियाणं भविय-जणपय-हिययाभिनंदियाणं तमरय-विद्धंसणाणं सुदिट्ठं दीवभूय-ईहा-मतिबुद्धि-वद्धणाणं Translated Sutra: તે વ્યાખ્યા (વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ – ભગવતી) શું છે ? વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ અર્થાત ભગવતી સૂત્રમાં સ્વસમય કહેવાય છે, પરસમય કહેવાય છે, સ્વસમય – પરસમય કહે છે. એ રીતે જીવ – અજીવ – જીવાજીવ કહેવાય છે. લોક – અલોક – લોકાલોક કહેવાય છે. વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ અર્થાત ભગવતી સૂત્રમાં વડે વિવિધ દેવ, નરેન્દ્ર, રાજર્ષિઓના પૂછેલા વિવિધ |