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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 88 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से अरहन्नए निरुवसग्गमिति कट्टु पडिमं पारेइ।
तए णं ते अरहन्नगपामोक्खा संजत्ता-नावावाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयं लंबेंति, लंबेत्ता सगडि-सागडं सज्जंति, तं गणिमं धरिमं मेज्जं परिच्छेज्जं च सगडि-सागडं संकामेंति संकामेत्ता सगडि-सागडं जोविंति जोवित्ता जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुज्जाणंसि सगडि-सागडं मोएंति, मोएत्ता महत्थं महग्घं महरिहं विउलं रायारिहं पाहुडं दिव्वं कुंडलजुयलं च गेण्हंति, गेण्हित्ता मिहिलाए रायहाणीए अनुप्पविसंति, अनुप्पविसित्ता Translated Sutra: तत्पश्चात् अर्हन्नक ने उपसर्ग टल गया जानकर प्रतिमा पारी तदनन्तकर वे अर्हन्नक आदि यावत् नौका – वणिक् दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन के कारण जहाँ गम्भीर नामक पोतपट्टन था, वहाँ आए। आकर उस पोत को रोका। गाड़ी – गाड़े तैयार करके वह गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड को गाड़ी – गाड़ों में भरा। जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 89 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं कुणाला नाम जनवए होत्था। तत्थ णं सावत्थी नाम नयरी होत्था। तत्थ णं रुप्पी कुणालाहिवई नाम राया होत्था। तस्स णं रुप्पिस्स धूया धारिणीए देवीए अत्तया सुबाहू नाम दारिया होत्था–सुकुमालपाणिपाया रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था।
तीसे णं सुबाहूए दारियाए अन्नया चाउम्मासिय-मज्जणए जाए यावि होत्था।
तए णं ते रुप्पी कुणालाहिवई सुबाहूए दारियाए चाउम्मासिय-मज्जणयं उवट्ठियं जाणइ, जाणित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! सुबाहूए दारियाए कल्लं चाउम्मासिय-मज्जणए भविस्सइ, Translated Sutra: उस काल और उस समय में कुणाल नामक जनपद था। उस जनपद में श्रावस्ती नामक नगरी थी। उसमें कुणाल देश का अधिपति रुक्मि नामक राजा था। रुक्मि राजा की पुत्री और धारिणी – देवी की कूंख से जन्मी सुबाहु नामक कन्या थी। उसके हाथ – पैर आदि सब अवयव सुन्दर थे। वय, रूप, यौवन में और लावण्य में उत्कृष्ट थी और उत्कृष्ट शरीर वाली थी। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 90 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं कासी नामं जनवए होत्था। तत्थ णं वाणारसी नामं नयरी होत्था। तत्थ णं संखे नामं कासीराया होत्था।
तए णं तीसे मल्लीए विदेहवररायकन्नाए अन्नया कयाइं तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए यावि होत्था।
तए णं से कुंभए राया सुवण्णगारसेणिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–तुब्भे णं देवानुप्पिया! इमस्स दिव्वस्स कुंडजुयलस्स संधिं संघाडेह, [संघाडेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह?] ।
तए णं सा सुवण्णगारसेणी एयमट्ठं तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सुवण्णगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवण्णगारभिसियासु Translated Sutra: उस काल और उस समय में काशी नामक जनपद था। उस जनपद में वाराणसी नामक नगरी थी। उसमें काशीराज शंख नामक राजा था। एक बार किसी समय विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली के उस दिव्य कुण्डल – युगल का जोड़ खुल गया। तब कुम्भ राजा ने सुवर्णकार की श्रेणी को बुलाया और कहा – ‘देवानुप्रियो ! इस दिव्य कुण्डलयुगल के जोड़ को साँध दो।’ तत्पश्चात् | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 91 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं कुरु नामं जनवए होत्था। तत्थ णं हत्थिणाउरे नामं नयरे होत्था। तत्थ णं अदीनसत्तू नामं राया होत्था जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ।
तत्थ णं मिहिलाए तस्स णं कुंभगस्स रन्नो पुत्ते पभावईए देवीए अत्तए मल्लीए अनुमग्गजायए मल्लदिन्ने नामं कुमारे सुकुमालपाणिपाए जाव जुवराया यावि होत्था।
तए णं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कयाइ कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे मम पमदवणंसि एगं महं चित्तसभं करेह–अनेगखंभसयसन्निविट्ठं एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तेवि तहेव पच्चप्पिणंति।
तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे चित्तगर-सेणिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता Translated Sutra: उस काल और उस समय में कुरु नामक जनपद था। उसमें हस्तिनापुर नगर था। अदीनशत्रु नामक वहाँ राजा था। यावत् वह विचरता था। उस मिथिला नगरी में कुम्भ राजा का पुत्र, प्रभावती महारानी का आत्मज और मल्ली कुमारी का अनुज मल्लदिन्न नामक कुमार था। वह युवराज था। किसी समय एक बार मल्लदिन्न कुमार ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 92 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं पंचाले जनवए। कंपिल्लपुरे नयरे। जियसत्तू नामं राया पंचालाहिवई। तस्स णं जियसत्तुस्स धारिणीपामोक्खं देवीसहस्सं ओरोहे होत्था।
तत्थ णं मिहिलाए चोक्खा नामं परिव्वाइया–रिउव्वेय-यज्जुव्वेद-सामवेद-अहव्वणवेद-इतिहास-पंचमाणं निघंटुछट्ठाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेदाणं सारगा जाव बंभण्णएसु य सत्थेसु सुपरिणिट्ठिया यावि होत्था।
तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया मिहिलाए बहूणं राईसर जाव सत्थवाहपभिईणं पुरओ दानधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेमाणी परूवेमाणी उवदंसेमाणी विहरइ।
तए णं सा चोक्खा अन्नया कयाइं तिदंडं च कुंडियं च Translated Sutra: उस काल और उस समय में पंचाल नामक जनपद में काम्पिल्यपुर नामक नगर था। वहाँ जितशत्रु नामक राजा था, वही पंचाल देश का अधिपति था। उस जितशत्रु राजा के अन्तःपुर में एक हजार रानियाँ थीं। मिथिला नगरी में चोक्खा नामक परिव्राजिका रहती थी। मिथिला नगरी में बहुत – से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के सामने दानधर्म, शौचधर्म, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 93 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
तए णं छप्पि दूयगा जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुज्जाणंसि पत्तेयं-पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति, करेत्ता मिहिलं रायहाणिं अनुप्पविसंति, अनुप्पविसित्ता जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पत्तेयं करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु साणं-साणं राईणं वयणाइं निवेदेंति।
तए णं से कुंभए तेसिं दूयाणं अंतियं एयमट्ठं सोच्चा आसुरुत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहट्टु एवं वयासी–न देमि णं अहं तुब्भं Translated Sutra: इस प्रकार उन जितशत्रु प्रभृति छहों राजाओं के दूत, जहाँ मिथिला नगरी थी वहाँ जाने के लिए रवाना हो गए। छहों दूत जहाँ मिथिला थी, वहाँ आए। मिथिला के प्रधान उद्यान में सब ने अलग – अलग पड़ाव डाले। फिर मिथिला राजधानी में प्रवेश करके कुम्भ राजा के पास आए। प्रत्येक – प्रत्येक ने दोनों हाथ जोड़े और अपने – अपने राजाओं के | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 94 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] किंथ तयं पम्हुट्ठं, जंथ तया भो! जयंतपवरम्मि ।
वुत्था समय-णिबद्धा, देवा तं संभरह जाइं ॥ Translated Sutra: ‘क्या तुम वह भूल गए ? जिस समय हे देवानुप्रिय ! तुम जयन्त नामक अनुत्तर विमान में वास करते थे ? वहाँ रहते हुए ‘हमें एक दूसरे को प्रतिबोध देना चाहिए’ ऐसा परस्पर में संकेत किया था। तो तुम देवभव का स्मरण करो।’ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१९ पुंडरीक |
Hindi | 219 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एयस्स सुयखंधस्स एगूणवीसं अज्झयणाणि एक्कासरगाणि एगूणवीसाए दिवसेसु समप्पंति। Translated Sutra: इस प्रथम श्रुतस्कंध के उन्नीस अध्ययन हैं, एक – एक अध्ययन एक – एक दिन में पढ़ने से उन्नीस दिनों में यह अध्ययन पूर्ण होता है। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-१ चमरेन्द्र अग्रमहिषी अध्ययन-१ काली |
Hindi | 220 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं गुणसिलए नामं चेइए होत्था–वण्णओ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मा नामं थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा कुलसंपण्णा जाव चोद्दसपुव्वी चउनाणोवगया पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडा पुव्वाणुपुव्विं चरमाणा गामाणुगामं दूइज्ज-माणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे नयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। परिसा निग्गया। धम्मो Translated Sutra: उस काल और उस समय में राजगृह नगर था। (वर्णन) उस राजगृह के बाहर ईशान कोण में गुणशील नामक चैत्य था। (वर्णन समझ लेना) उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी आर्य सुधर्मा नामक स्थविर उच्चजाति से सम्पन्न, कुल से सम्पन्न यावत् चौदह पूर्वों के वेत्ता और चार ज्ञानों से युक्त थे। वे पाँच सौ अनगारों से परिवृत्त | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-१ चमरेन्द्र अग्रमहिषी अध्ययन-२ थी ५ |
Hindi | 221 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स पढम-ज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, बिइयस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए। सामी समोसढे। परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं राई देवी चमरचंचाए रायहाणीए एवं जहा काली तहेव आगया, नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगया।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पुव्वभवपुच्छा।
गोयमाति! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी–एवं खलु गोयमा! तेणं Translated Sutra: ‘भगवन् ! यदि यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?’ हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था तथा गुणशील नामक चैत्य था। स्वामी पधारे। वन्दन करने के लिए परीषद् | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-१ चमरेन्द्र अग्रमहिषी अध्ययन-२ थी ५ |
Hindi | 222 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स बिइयज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, तइयस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। सामी समोसढे।
तेणं कालेणं तेणं समएणं रयणी देवी चमरचंचाए रायहाणीए आगया।
भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पुव्वभवपुच्छा।
गोयमाति! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी–एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं आमलकप्पा नयरी। अंबसालवने चेइए। जियसत्तू राया। रयणे गाहावई। रयणसिरी भारिया। रयणी दारिया। सेसं तहेव जाव अंतं Translated Sutra: तीसरे अध्ययन का उत्क्षेप इस प्रकार है – ‘भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के प्रथम वर्ग के द्वीतिय अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है तो, भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने तीसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! राजगृह नगर था, गुणशील चैत्य था इत्यादि राजी के समान रजनी के विषय में भी नाट्यविधि दिखलाने | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-१ चमरेन्द्र अग्रमहिषी अध्ययन-२ थी ५ |
Hindi | 223 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं विज्जू वि–आमलकप्पा नयरी। विज्जू गाहावई। विज्जूसिरी भारिया। विज्जू दारिया। सेसं तहेव। Translated Sutra: इसी प्रकार विद्युत देवी का कथानक समझना चाहिए। विशेष यह कि आमलकल्पा नगरी थी। उसमें विद्युत नामक गाथापति निवास करता था। उसकी पत्नी विद्युत्श्री थी। विद्युत् नामक उसकी पुत्री थी। शेष पूर्ववत्। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-१ चमरेन्द्र अग्रमहिषी अध्ययन-२ थी ५ |
Hindi | 224 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं मेहा वि–आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावई। मेहसिरी भारिया। मेहा दारिया। सेसं तहेव।
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स अयमट्ठे पन्नत्ते।
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयखंधस्स अयमट्ठे पन्नत्ते। Translated Sutra: मेघा देवी का कथानक भी ऐसा ही जान लेना। विशेषता यह है – आमलकल्पा नगरी थी। मेघ गाथापति था। मेघश्री भार्या थी। पुत्री मेघा थी। शेष पूर्ववत्। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-२ बलीन्द्र अग्रमहिषी अध्ययन-१ थी ५ |
Hindi | 225 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं दोच्चस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा–सुंभा, निसुंभा, रंभा, निरंभा, मदणा।
जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं दोच्चस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पन्नत्ता, दोच्चस्स णं भंते! वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। सामी समोसढे। परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं सुंभा देवी बलिचंचाए रायहाणीए Translated Sutra: भगवन् ! यावत् मुक्तिप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग का यह अर्थ कहा है तो दूसरे वर्ग का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान महावीर ने दूसरे वर्ग के पाँच अध्ययन कहे हैं। शुंभा, निशुंभा, रंभा, निरंभा और मदना। भगवन् ! यदि श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने धर्मकथा के द्वीतिय | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-३ धरण आदि अग्रमहिषी ५४ अध्ययन-१ थी ५४ |
Hindi | 226 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं बिइयस्स वग्गस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, तइयस्स णं भंते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं तइयस्स वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा–पढमे अज्झयणे जाव चउपण्णइमे अज्झयणे।
जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं अला देवी धरणाए Translated Sutra: तीसरे वर्ग का उपोद्घात समझ लेना। हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर यावत् मुक्तिप्राप्त ने तीसरे वर्ग के चौपन अध्याय कहे हैं। प्रथम अध्ययन यावत् चौपनवाँ अध्ययन। भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने धर्मकथा के तीसरे वर्ग के चौपन अध्ययन कहे हैं तो भगवन् ! प्रथम अध्ययन का श्रमण यावत् सिद्धि – | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-४ भूतानंद आदि अग्रमहिषी ५४ अध्ययन-१ थी ५४ |
Hindi | 227 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चउत्थस्स णं भंते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं चउत्थस्स वग्गस्स चउप्पण्णं अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा –पढमे अज्झयणे जाव चउप्पन्नइमे अज्झयणे।
जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं चउत्थस्स वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं रूया देवी भूयाणंदा Translated Sutra: प्रारम्भ में चौथे वर्ग का उपोद्घात कह लेना चाहिए, जम्बू ! यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के चौथे वर्ग के चौपन अध्ययन कहे हैं। प्रथम अध्ययन यावत् चौपनवा अध्ययन। यहाँ प्रथम अध्ययन का उपोद्घात कह लेना। हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर में भगवान पधारे। नगर में परीषद् नीकली यावत् | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध २ वर्ग-५ पिशाच आदि अग्रमहिषी ३२ अध्यन १ थी ५४ |
Hindi | 228 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं चउत्थस्स वग्गस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, पंचमस्स णं भंते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स वग्गस्स बत्तीसं अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा– Translated Sutra: पंचम वर्ग का उपोद्घात पूर्ववत् कहना चाहिए। जम्बू ! पाँचवे वर्ग में बत्तीस अध्ययन हैं। यथा – कमला, कमलप्रभा, उत्पला, सुदर्शना, रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा, सुभगा। पूर्णा, बहुपुत्रिका, उत्तमा, भारिका, पद्मा, वसुमती, कनका, कनकप्रभा। अवतंसा, केतुमती, वज्रसेना, रतिप्रिया, रोहिणी, नवमिका, ह्री, पुष्पवती। भुजगा, भुजगवती, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 1 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था–वण्णओ। Translated Sutra: सर्वज्ञ भगवंतों को नमस्कार। उस काल में उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। वर्णन उववाईसूत्र अनुसार जानना। उस चम्पा नगरी के बाहर, ईशानभाग में, पूर्णभद्र नामक चैत्य था। (वर्णनo)। चम्पा नगरी में कूणिका नामक राजा था। (वर्णनo)। सूत्र – १–३ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 2 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए पुण्णभद्दे नामं चेइए होत्था–वण्णओ। Translated Sutra: देखो सूत्र १ | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 3 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं चंपाए नयरीए कोणिए नामं राया होत्था–वण्णओ। Translated Sutra: देखो सूत्र १ | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 4 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे नामं थेरे जातिसंपण्णे कुलसंपण्णे बल-रूव-विनय-नाण-दंसण-चरित्त-लाघव-संपण्णे ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोहे जिइंदिए जियनद्दे जियपरीसहे जीविसाय-मरणभयविप्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे एवं–करण-चरण-निग्गह-निच्छय-अज्जव-मद्दव-लाघव -खंति-गुत्ति-मुत्ति-विज्जा-मंत-बंभ-वेय-नय-नियम-सच्च-सोय-नाण-दंसण-चरित्तप्पहाणे ओराले घोरे घोरव्वए घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउल-तेयलेस्से चोद्दसपुव्वी चउ-नाणोवगए पंचहिं अनगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मानामक स्थविर थे। वे जाति – सम्पन्न, बल से युक्त, विनयवान, ज्ञानवान, सम्यक्त्ववान, लाघववान, ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी, यशस्वी, क्रोध को जीतने वाले, मान को जीतने वाले, माया को जीतने वाले, लोभ को जीतने वाले, इन्द्रियों को जीतने वाले, निद्रा को जीतने वाले, परीषहों | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 5 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं चंपाए नयरीए परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा जामेव दिसिं पाउब्भूया, तामेव दिसिं पडिगया।
तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अनगारस्स जेट्ठे अंतेवासी अज्जजंबू नामं अनगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंस-संठाण-संठिए वइररिसह-नाराय-संघयणे कनग-पलग-निघस-पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउल-तेयलेस्से अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरे ज्झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
तए णं से अज्जजंबूनामे अनगारे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले
संजायसड्ढे Translated Sutra: तत्पश्चात् चम्पा नगरी में परिषद् नीकली। कूणिक राजा भी नीकला। धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सूनकर परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ शिष्य आर्य जम्बू नामक अनगार थे, जो काश्यप गोत्रीय और सात हाथ ऊंचे शरीर वाले, यावत् आर्य सुधर्मा से न बहुत दूर, न बहुत | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 6 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] १. उक्खित्तणाए २. संघाडे, ३. अंडे ४. कुम्भे य ५. सेलगे ।
६. तुंबे य ७. रोहिणी ८. मल्ली, ९. मायंदी १०. चंदिमा इ य ॥ Translated Sutra: उत्क्षिप्तज्ञात, संघाट, अंडक, कूर्म, शैलक, रोहिणी, मल्ली, माकंदी, चन्द्र, दावद्रववृक्ष, तुम्ब, उदक, मंडूक, तेतलीपुत्र, नन्दीफल, अमरकंका, आकीर्ण, सुषमा, पुण्डरीक – यह उन्नीस ज्ञात अध्ययनों के नाम हैं। सूत्र – ६–८ | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 7 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ११. दावद्दवे १२. उदगणाए, १३. मंडुक्के १४. तेयली वि य ।
१५. नंदीफले १६. अवरकंका १७. आइण्णे १८. सुंसुमा इ य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६ | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 8 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] १९. अवरे य पुंडरीए, नाए एगूणवीसमे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६ | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 9 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं नायाणं एगूणवीसं अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा–उक्खित्तणाए जाव पुंडरीए त्ति य। पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्ढभरहे रायगिहे नामं नयरे होत्था –वण्णओ।
गुणसिलए चेतिए–वण्णओ।
तत्थ णं रायगिहे नयरे सेणिए नामं राया होत्था–महताहिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे वण्णओ। Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण यावत् सिद्धिस्थान को प्राप्त महावीर ने ज्ञात – श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन कहे हैं, तो भगवन् ! प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में, इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, दक्षिणार्ध भरत में राजगृह नामक नगर था। राजगृह के ईशान कोण में गुणशील नामक चैत्य था। उस राजगृह | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 10 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं सेणियस्स रन्नो नदा नामं देवी होत्था–सूमालपाणिपाया वण्णओ।
तस्स णं सेणियस्स पुत्ते नंदाए देवीए अत्तए अभए नामं कुमारे होत्था–अहीन-पडिपुण्ण-पंचिंदिय-सरीरे लक्खण-वंजण-गुणोववेए मानुम्मानप्पमाण-पडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंगसुंदरंगे ससि-सोमाकारे कंते पियदंसणे० सुरूवे, साम-दंड-भेय-उवप्पयाणनीति-सुप्पउत्त-नय-विहण्णू, ईहा-वूह-मग्गण-गवेसण-अत्थसत्थ-मइविसारए, उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मयाए पारिणामियाए–चउव्विहाए बुद्धीए उववेए, सेणियस्स रन्नो बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य कुडुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, मेढी पमाणं आहारे Translated Sutra: श्रेणिक राजा का पुत्र और नन्दा देवी का आत्मज अभय नामक कुमार था। वह शुभलक्षणों से युक्त तथा स्वरूप से परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियों से युक्त शरीर वाला था। यावत् साम, दंड, भेद एवं उपप्रदान नीति में निष्णात तथा व्यापार नीति की विधि का ज्ञाता था। ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा तथा अर्थशास्त्र में कुशल था। ओत्पत्तिकी, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 11 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं सेणियस्स रन्नो धारिणी नामं देवी होत्था–सुकुमाल-पाणिपाया अहीन-पंचेंदियसरीरा लक्खण-वंजण-गुणोववेया मानुम्मान-प्पमाण-सुजाय-सव्वंगसुंदरंगी ससिसोमाकार-कंत-पियदंसणा सुरूवा करयल-परिमित-तिवलियं बलियमज्झा कोमुइ-रयणियर-विमल-पडिपुण्ण-सोमवयणा कुंडलुल्लिहिय-गंडलेहा सिंगारागार-चारुवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलास-सललिय-संलाव-निउण-जुत्तोवयारकुसला पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, सेणियस्स रन्नो इट्ठा कंता पिया मणुण्णा नामधेज्जा वेसासिया सम्मया बहुमया मणुमया भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया चेलपेडा इव सुसंपरिगि-हीया रयणकरंडगो विव सुसारक्खिया, Translated Sutra: उस श्रेणिक राजा की धारिणी नाम देवी (रानी) थी। उसके हाथ और पैर बहुत सुकुमार थे। उसके शरीर में पाँचों इन्द्रियों अहीन, शुभ लक्षणों से सम्पन्न और प्रमाणयुक्त थी। कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अतीव मनोहर, धैर्य का स्थान, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत आभूषणों तथा वस्त्रों के पिटारे के समान, सावधानी से सार – सँभाल की जाती | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 12 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी अन्नदा कदाइ तंसि तारिसगंसि–छक्कट्ठग-लट्ठमट्ठ-संठिय-खंभुग्गय-पवरवर-सालभंजिय-उज्जलमणिकनगरयणथूभियविडंकजालद्ध चंदनिज्जूहंतरकणयालिचंदसालियावि-भत्तिकलिए सरसच्छधाऊबलवण्णरइए बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मट्ठे अब्भिंतरओ पसत्त-सुविलिहिय-चित्तकम्मे नानाविह-पंचवण्ण-मणिरयण-कोट्ठिमतले पउमलया-फुल्लवल्लि-वरपुप्फजाइ-उल्लोय-चित्तिय-तले वंदन-वरकनगकलससुणिम्मिय-पडिपूजिय-सरसपउम-सोहंतदारभाए पयरग-लंबंत-मणिमुत्त-दाम-सुविरइयदारसोहे सुगंध-वरकुसुम-मउय-पम्हलसयणोवयार-मणहिययनिव्वुइयरे कप्पूर-लवंग- मलय-चंदन- कालागरु-पवर- कुंदुरुक्क-तुरुक्क- धूव-डज्झंत- सुरभि-मघमघेंत-गंधुद्धुयाभिरामे Translated Sutra: वह धारिणी देवी किसी समय अपने उत्तम भवन में शय्या पर सो रही थी। वह भवन कैसा था ? उसके बाह्य आलन्दक या द्वार पर तथा मनोज्ञ, चिकने, सुंदर आकार वाले और ऊंचे खंभों पर अतीव उत्तम पुतलियाँ बनी हुई थीं। उज्ज्वल मणियों, कनक और कर्केतन आदि रत्नों के शिखर, कपोच – पारी, गवाक्ष, अर्ध – चंद्राकार सोपान, निर्यूहक करकाली तथा चन्द्रमालिका | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 13 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमानंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस-विसप्पमाण-हियए धाराहयनीवसुरभिकुसुम-चुंचुमालइयतणू ऊसविय-रोमकूवे तं सुमिणं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता ईहं पविसइ, पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविण्णाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेइ, करेत्ता धारिणिं देविं ताहिं जाव हिययपल्हायणिज्जाहिं मिय-महुर-रिभिय-गंभीर-सस्सिरीयाहिं वग्गूहिं अनुवूहमाणे-अनुवूहमाणे एवं वयासी–उराले णं तुमे देवानुप्पिए! सुमिणे दिट्ठे। कल्लाणे णं तुमे देवानुप्पिए! सुमिणे दिट्ठे। सिवे धन्ने मंगल्ले सस्सिरीए Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रेणिक राजा धारिणी देवी से इस अर्थ को सूनकर तथा हृदय में धारण करके हर्षित हुआ, मेघ की धाराओं से आहत कदम्बवृक्ष के सुगंधित पुष्प के समान उसका शरीर पुलकित हो उठा – उसने स्वप्न का अवग्रहण किया। विशेष अर्थ के विचार रूप ईहा में प्रवेश किया। अपने स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धिविज्ञान से उस स्वप्न के फल | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 14 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिया जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियया करयल-परिग्गहियं-सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी– एवमेयं देवानुप्पिया! तहमेयं देवानुप्पिया! अवितहमेयं देवानुप्पिया! असंदिद्धमेयं देवानुप्पिया! इच्छियमेयं देवानुप्पिया! पडिच्छियमेयं देवानुप्पिया! इच्छियपडिच्छियमेयं देवानुप्पिया! सच्चे णं एसमट्ठे जं तुब्भे वयह त्ति कट्टु तं सुमिणं सम्मं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सेणिएणं रन्ना अब्भणुण्णाया समाणी नाना-मणिकनगरयण-भत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुट्ठेइ, अब्भुट्ठेत्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, Translated Sutra: तत्पश्चात् वह धारिणी देवी श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। उसका हृदय आनन्दित हो गया। वह दोनों हाथ जोड़कर आवर्त करके और मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोली – देवानु – प्रिय ! आपने जो कहा है सो ऐसा ही है। आपका कथन सत्य है। संशय रहित है। देवानुप्रिय ! मुझे इष्ट है, अत्यन्त इष्ट है, और इष्ट | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 15 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेणिए राया पच्चूसकालसमयंसि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–खिप्पामेव भो देवानुप्पिया! बाहिरियं उवट्ठाणसालं अज्ज सविसेसं परमरम्मं गंधोदगसित्त-सुइय-सम्मज्जिओवलित्तं पंचवण्ण-सरससुरभि-मुक्क-पुप्फपुं-जोवयारकलियं कालागरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डज्झंत-सुरभि-मघमघेंत-गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवर गंधियं गंधवट्टिभूयं करेह, कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरि-सवस-विसप्पमाणहियया तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति।
तए णं से सेणिए राया कल्लं Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने प्रभात काल के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा – हे देवानुप्रिय ! आज बाहर की उपस्थानशाला को शीघ्र ही विशेष रूप से परम रमणीय, गंधोदक से सिंचित, साफ – सूथरी, लीपी हुई, पाँच वर्णों के सरस सुगंधित एवं बिखरे हुए फूलों के समूह रूप उपचार से युक्त, कालागुरु, कुंदुरुक्क, तुरुष्क | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 16 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] १. गय २. वसहं ३. सीह ४. अभिसेय ५. दाम ६. ससि ७. दिनयरं ८. ज्झयं ९. कुंभं ।
१०. पउमसर ११. सागर १२. विमाणभवन १३. रयणुच्चय १४. सिहिं च ॥ Translated Sutra: हाथी, वृषभ, सिंह, अभिषेक, पुष्पों की माला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, पूर्ण कुँभ, पद्मयुक्त सरोवर, क्षीरसागर, विमान, रत्नों की राशि और अग्नि। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 17 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरे सत्त महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति। बलदेवमायरो वा बलदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति। मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अन्नयरं महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुज्झंति।
इमे य सामी! धारिणीए देवीए एगे महासुमिणे दिट्ठे, तं उराले णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिट्ठे जाव आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल्लकारए णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिट्ठे। अत्थलाभो सामी! Translated Sutra: जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तो वासुदेव की माता इन चौदह महास्वप्नों में किन्हीं भी सात महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं। जब बलदेव गर्भ में आते हैं तो बलदेव की माता इन चौदह महास्वप्नों में से किन्हीं चार महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं। जब मांडलिक राजा गर्भ में आता है तो मांडलिक राजा की माता इन चौदह महास्वप्नों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 18 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तीसे धारिणीए देवीए दोसु मासेसु वीइक्कंतेसु तइए मासे वट्टमाणे तस्स गब्भस्स दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउब्भवित्था– धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं तासिं मानुस्सए जम्मजीवियफले, जाओ णं मेहेसु अब्भुग्गएसु अब्भुज्जएसु अब्भुण्णएसु अब्भुट्ठिएसु सगज्जिएसु सविज्जएसु सफुसिएसु सथणिएसु धंतधोय-रुप्पपट्ट-अंक-संख-चंद-कुंद-सालिपिट्ठरासिसमप्पभेसु चिकुर-हरियाल-भेय-चंपग-सण-कोरंट-सरिसव-पउमरयसमप्पभेसु लक्खा-रस-सरस- रत्त-किंसुय- Translated Sutra: तत्पश्चात् दो मास व्यतीत हो जाने पर जब तीसरा मास चल रहा था तब उस गर्भ के दोहदकाल के अवसर पर धारिणी देवी को इस प्रकार का अकाल – मेघ का दोहद उत्पन्न हुआ – जो माताएं अपने अकाल – मेघ के दोहद को पूर्ण करती हैं, वे माताएं धन्य हैं, वे पुण्यवती हैं, वे कृतार्थ हैं। उन्होंने पूर्वजन्म में पुण्य का उपार्जन किया है, वे कृतलक्षण | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 19 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि असंपत्तदोहला असंपुण्णदोहला असम्मानियदोहला सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा पमइलदुब्बला किलंता ओमंथियवयण-नयनकमला पंडुइयमुही करयलमलिय व्व चंपगमाला नित्तेया दोणविवण्णवयणा जहोचिय-पुप्फ-गंध-मल्लालंकार-हारं अनभिलसमाणी किड्डारमणकिरियं परिहावेमाणी दीना दुम्मणा निरानंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमनसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियाइ।
तए णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडिचारियाओ अब्भिंतरियाओ दासचेडियाओ धारिणिं देविं ओलुग्ग ज्झियायमाणिं पासंति, पासित्ता एवं वयासी– किण्णं तुमे देवानुप्पिए! Translated Sutra: तत्पश्चात् वह धारिणी देवी उस दोहद के पूर्ण न होने के कारण, दोहद के सम्पन्न न होने के कारण, दोहद के सम्पूर्ण न होने के कारण, मेघ आदि का अनुभव न होने से दोहद सम्मानित न होने के कारण, मानसिक संताप द्वारा रक्त का शोषण हो जाने से शुष्क हो गई। भूख से व्याप्त हो गई। मांस रहित हो गई। जीर्ण एवं शीर्ण शरीर वाली, स्नान का | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 20 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेणिए राया तासिं अंगपडिचारियाणं अंतिए एयमट्ठं सोच्चा निसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्घं तुरियं चवलं वेइयं जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धारिणिं देविं ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अट्टज्झाणोवगयं ज्झि-यायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी–किण्णं तुमं देवानुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया ज्झियायसि?
तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी नो आढाइ नो परियाणइ जाव तुसिणीया संचिट्ठइ।
तए णं से सेणिए राया धारिणिं देविं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी–किण्णं तुमं देवानुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्ग-सरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया ज्झियायसि?
तए Translated Sutra: तब श्रेणिक राजा उन अंगपरिचारिकाओं से यह सूनकर, मन में धारण करके, उसी प्रकार व्याकुल होता हुआ, त्वरा के साथ एवं अत्यन्त शीघ्रता से जहाँ धारिणी देवी थी, वहाँ आता है। आकर धारिणी देवी को जीर्ण – जैसी, जीर्ण शरीर वाली यावत् आर्त्तध्यान से युक्त – देखता है। इस प्रकार कहता है – ‘देवानुप्रिय ! तुम जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 21 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से अभए कुमारे सक्कारिए सम्मानिए पडिविसज्जिए समाणे सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणामेव सए भवणेने, तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासने निसण्णे।
तए णं तस्स अभयस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–नो खलु सक्का मानुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालदोहलमनोरहसंपत्तिं करित्तए, नन्नत्थ दिव्वेणं उवाएणं। अत्थि णं मज्झ सोहम्मकप्पवासी पुव्वसंगइए देवे महिड्ढीए महज्जुइए महापरक्कमे महाजसे महब्बले महानुभावे महासोक्खे।
तं सेयं खलु ममं पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणिसुवण्णस्स Translated Sutra: तब (श्रेणिक राजा द्वारा) सत्कारित एवं सन्मानित होकर बिदा किया हुआ अभयकुमार श्रेणिक राजा के पास से नीकलता है। नीकल कर जहाँ अपना भवन है, वहाँ आता है। आकर वह सिंहासन पर बैठ गया। तत्पश्चात् अभयकुमार को इस प्रकार यह आध्यात्मिक विचार, चिन्तन, प्रार्थित या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ – दिव्य अर्थात् दैवी संबंधी उपाय | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 22 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवण्णे दसद्धवण्णाइं सखिंखिणियाइं पवर वत्थाइं परिहिए अभयं कुमारं एवं वयासी–अहं णं देवानुप्पिया! पुव्वसंगइए सोहम्मकप्पवासी महिड्ढीए जं णं तुमं पोसहसालाए अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता णं ममं मनसीकरेमाणे-मनसीकरेमाणे चिट्ठसि, तं एस णं देवानुप्पिया! अहं इहं हव्वमागए। संदिसाहि णं देवानुप्पिया! किं करेमि? किं दल-यामि? किं पयच्छामि? किं वा ते हियइच्छियं?
तए णं से अभए कुमारे तं पुव्वसंगइयं देवं अंतलिक्खपडिवण्णं पासित्ता हट्ठतुट्ठे पोसहं पारेइ, पारेत्ता करयल परि-ग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! मम चुल्ल-माउयाए Translated Sutra: तत्पश्चात् दस के आधे अर्थात् पाँच वर्ण वाले तथा घूँघरू वाले उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए वह देव आकाश में स्थित होकर बोला – ‘हे देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारा पूर्वभव का मित्र सौधर्मकल्पवासी महान् ऋद्धि का धारक देव हूँ।’ क्योंकि तुम पौषधशाला में अष्टमभक्त तप ग्रहण करके मुझे मन में रखकर स्थित हो अर्थात् | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 23 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से अभए कुमारे जेणामेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुव्वसंगइयं देवं सक्कारेइ सम्मानेइ, सक्कारेत्ता सम्मानेत्ता पडिविसज्जेइ।
तए णं से देवे सगज्जियं सविज्जुयं सफुसियं? पंचवण्णमेहोवसोहियं दिव्वं पाउससिरिं पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। Translated Sutra: | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 24 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसि सम्मानियदोहला तस्स गब्भस्स अणुकंपणट्ठाए जयं चिट्ठइ जयं आसयइ जयं सुवइ, आहारं पि य णं आहारेमाणी–नाइतित्तं नाइकडुयं नाइकसायं नाइअंबिलं नाइमहुरं, जं तस्स गब्भस्स हियं मियं पत्थयं देसे य काले य आहारं आहारेमाणी, नाइचित्तं नाइसोयं नाइमोहं नाइभयं नाइपरित्तासं ववगयचिंता-सोय-मोह-भय-परित्तासा उदुभज्जमाण-सुहेहिं भोयण-च्छायण-गंध-मल्लालंकारेहिं तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहइ। Translated Sutra: तत्पश्चात् धारिणी देवी ने अपने उस अकाल दोहद के पूर्ण होने पर दोहद को सम्मानित किया। वह उस गर्भ की अनुकम्पा के लिए, गर्भ को बाधा न पहुँचे इस प्रकार यतना – सावधानी से खड़ी होती, यतना से बैठती और यतना से शयन करती। आहार करती तो ऐसा आहार करती जो अधिक तीखा न हो, अधिक कटुक न हो, अधिक कसैला न हो, अधिक खट्टा न हो और अधिक मीठा | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 25 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाण य राइंदियाणं वीइक्कंताणं अद्धरत्तकालसमयंसि सुकुमालपाणिपायं जाव सव्वंगसुंदरं दारगं पयाया।
तए णं ताओ अंगपडियारियाओ धारिणिं देविं नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सव्वंगसुंदरं दारगं पयायं पासंति, पासित्ता सिग्घं तुरियं चवलं वेइयं जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी–एवं खलु देवानुप्पिया! धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सव्वंगसुंदरं दारगं पयाया। तं णं अम्हे Translated Sutra: तत्पश्चात् धारिणी देवी ने नौ मास परिपूर्ण होने पर और साढ़े सात रात्रि – दिवस बीत जाने पर, अर्धरात्रि के समय, अत्यन्त कोमल हाथ – पैर वाले यावत् परिपूर्ण इन्द्रियों से युक्त शरीर वाले, लक्षणों और व्यंजनों से सम्पन्न, मान – उन्मान – प्रमाण से युक्त एवं सर्वांगसुन्दर शिशु का प्रसव किया। तत्पश्चात् दासियों ने | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 26 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरिं कलाओ सुत्तओ य अत्थओ य करणओ य सेहावेइ सिक्खावेइ, सेहावेत्ता सिक्खावेत्ता अम्मापिऊणं उवनेइ।
तए णं मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो तं कलायरियं महुरेहिं वयणेहिं विउलेण य वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेंति सम्माणेंति, सक्कारेत्ता सम्मानेत्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति, दलइत्ता पडिविसज्जेंति। Translated Sutra: तत्पश्चात् वह कलाचार्य, मेघकुमार को गणित – प्रधान, लेखन से लेकर शकुनिरुत पर्यन्त बहत्तर कलाएं सूत्र से, अर्थ से और प्रयोग से सिद्ध कराता है तथा सिखलाता है। माता – पिता के पास वापिस ले जाता है। तब मेघ – कुमार के माता – पिता ने कलाचार्य का मधुर वचनों से तथा विपुल वस्त्र, गंध, माला और अलंकारों से सत्कार दिया, सन्मान | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 27 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से मेहे कुमारे बावत्तरि-कलापंडिए नवंगसुत्तपडिबोहिए अट्ठारस-विहिप्पगार-देसीभासाविसारए गीयरई गंधव्वनट्टकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलंभोगसमत्थे साहसिए वियालचारी जाए यावि होत्था।
तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं बावत्तरि-कलापंडियं जाव वियालचारिं जायं पासंति, पासित्ता अट्ठ पासायवडिंसए कारेंति–अब्भुग्गयमूसिय पहसिए विव मणि-कनग-रयण-भत्तिचित्ते वाउद्धुय-विजय-वेजयंती-पडाग-छत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमभिलंघमाण-सिहरे जालंतर-रयण पंजरुम्मिलिए व्व मणिकनगथूभियाए वियसिय-सयवत्त-पुंडरीए तिलय-रयणद्धचंदच्चिए नानामणिमयदामालंकिए Translated Sutra: तब मेघकुमार बहत्तर कलाओं में पंडित हो गया। उसके नौ अंग – जागृत से हो गए। अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में कुशल हो गया। वह गीति में प्रीति वाला, गीत और नृत्य में कुशल हो गया। वह अश्वयुद्ध रथयुद्ध और बाहुयुद्ध करने वाला बन गया। अपनी बाहुओं से विपक्षी का मर्दन करने में समर्थ हो गया। भोग भोगने का सामर्थ्य उसमें | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 28 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुहुत्तंसि सरिसियाणं सरिव्वयाणं सरित्तयाणं सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वण-गुणोववेयाणं सरिसएहिंतो राय-कुलेहिंतो आणिल्लियाणं पसाहणट्ठंग-अविहववहु-ओवयण-मंगलसुजंपिएहिं अट्ठहिं रायवरकन्नाहिं सद्धिं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हाविंसु।
तए णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं पीइदाणं दलयंति–अट्ठ हिरण्णकोडीओ अट्ठ सुवण्णकोडीओ गाहानुसारेण भाणियव्वं जाव पेसणकारियाओ, अन्नं च विपुलं धन-कनग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-संत-सार-सावएज्जं अलाहिं जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं Translated Sutra: तत्पश्चात् मेघकुमार के माता – पिता ने मेघकुमार का शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त्त में शरीरपरिमाण से सदृश, समान उम्र वाली, समान त्वचा वाली, समान लावण्य वाली, समान रूप वाली, समान यौवन और गुणों वाली तथा अपने कुल के समान राजकुलों से लाई हुई आठ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ, एक ही दिन – एक ही साथ, आठों अंगों में अलंकार | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 29 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहर-माणे जेणामेव रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से चलते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए, सुखे – सुखे विहार करते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील नामक चैत्य था, यावत् ठहरे। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 30 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं रायगिहे नयरे सिंघाडग-तग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु-महया जणसद्दे इ वा जाव बहवे उग्गा भोगा० रायगिहस्स नगरस्स मज्झंमज्झेणं एगदिसिं एगाभिमुहा निग्गच्छंति। इमं च णं मेहे कुमारे उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं जाव मानुस्सए कामभोगे भुंजमाणे रायमग्गं च ओलोएमाणे-ओलोएमाणे एवं च णं विहरइ।
तए णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे भोगे जाव एगदिसाभिमुहे निग्गच्छमाणे पासइ, पासित्ता कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–किण्णं भो देवानुप्पिया! अज्ज रायगिहे नगरे इंदमहे इ वा खंदमहे इ वा एवं–रुद्द-सिव-वेसमण-नाग-जक्ख-भूय-तलाय-रुक्ख-चेइय-पव्वयमहे Translated Sutra: तत्पश्चात् राजगृह नगर में शृंगाटक – सिंघाड़े के आकार के मार्ग, तिराहे, चौराहे, चत्वर, चतुर्मुख पथ, महापथ आदि में बहुत से लोगों का शोर होने लगा। यावत् बहुतेरे उग्रकुल के, भोगकुल के तथा अन्य सभी लोग यावत् राजगृहनगर के मध्यभागमें होकर एक ही दिशामें, एक ही ओर मुख कर नीकलने लगे उस समय मेघकुमार अपने प्रासाद पर था। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 31 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-
सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं।
पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं।
रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं।
अब्भुट्ठेमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं।
एयमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते! से जहेयं तुब्भे वयहं। नवरि देवानुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि। तओ पच्छा मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अनगारियं पव्वइस्सामि।
अहासुहं देवानुप्पिया! Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के पास मेघकुमारने धर्म श्रवण करके, उसे हृदयमें धारण करके, हृष्ट – तुष्ट होकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दन – नमस्कार किया। इस प्रकार कहा – भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, उसे सर्वोत्तम स्वीकार | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 32 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तुमं सि णं जाया! अम्हं एगे पुत्ते इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अनुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीविय-उस्सासिए हियय-णंदि-जणणे उंबरपुप्फं व दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए? नो खलु जाया! अम्हे इच्छामो खणमवि विप्पओगं संहित्तए। तं भुंजाहि ताव जाया! विपुले मानुस्सए कामभोगे जाव ताव वयं जीवामो। तओ पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं परिणयवए वड्ढिय-कुलवंसतंतु-कज्जम्मि निरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइस्ससि।
तए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरो एवं वयासी–तहेव णं तं अम्मो! जहेव णं Translated Sutra: हे पुत्र ! तू हमारा इकलौता बेटा है। तू हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मणाम है तथा धैर्य और विश्राम का स्थान है। कार्य करने में सम्मत है, बहुत कार्य करने में बहुत माना हुआ है और कार्य करने के पश्चात् भी अनुमत है। आभूषणों की पेटी के समान है। मनुष्यजाति में उत्तम होने के कारण रत्न है। रत्न रूप है। जीवने | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ उत्क्षिप्तज्ञान |
Hindi | 33 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति मेहं कुमारं बहूहिं विसयानुलोमाहिं आघवणाहिं य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विन्नवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभउव्वेयकारियाहिं पन्नवणाहिं पन्नवेमाणा एवं वयासी–एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अनुत्तरे केवलिए पडिपुण्णे नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, अहीव एगंतदिट्ठिए, खुरो इव गंतधाराए, लोहमया इव जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव निरस्साए, गंगा इव महानई पडिसोयगमणाए, महासमुद्दो Translated Sutra: मेघकुमार के माता – पिता जब मेघकुमार को विषयों के अनुकूल आख्यापना से, प्रज्ञापना से, संज्ञापना से, विज्ञापना से समझाने, बुझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हुए, तब विषयों के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाली प्रज्ञापना से कहने लगे – हे पुत्र ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, अनुत्तर |