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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 193 | View Detail | ||
Mool Sutra: दर्शनज्ञानचारित्राणि, मोक्षमार्ग इति सेवितव्यानि।
साधुभिरिदं भणितं, तैस्तु बन्धो वा मोक्षो वा।।२।। Translated Sutra: जिनेन्द्रदेव ने कहा है कि (सम्यक्) दर्शन, ज्ञान, चारित्र मोक्ष का मार्ग है। साधुओं को इनका आचरण करना चाहिए। यदि वे स्वाश्रित होते हैं तो इनसे मोक्ष होता है और पराश्रित होने से बन्ध होता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
१६. मोक्षमार्गसूत्र | Hindi | 195 | View Detail | ||
Mool Sutra: व्रतसमितिगुप्तीः शीलतपः जिनवरैः प्रज्ञप्तम्।
कुर्वन् अपि अभव्यः अज्ञानी मिथ्यादृष्टिस्तु।।४।। Translated Sutra: जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप का आचरण करते हुए भी अभव्य जीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२२. द्विविध धर्मसूत्र | Hindi | 296 | View Detail | ||
Mool Sutra: द्वौ चैव जिनवरेन्द्रैः, जातिजरामरणविप्रमुक्तैः।
लोके पथौ भणितौ, सुश्रमणः सुश्रावकः चापि।।१।। Translated Sutra: जन्म-जरा-मरण से मुक्त जिनेन्द्रदेव ने इस लोक में दो ही मार्ग बतलाये हैं--एक है उत्तम श्रमणों का और दूसरा है उत्तम श्रावकों का। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२२. द्विविध धर्मसूत्र | Hindi | 299 | View Detail | ||
Mool Sutra: नो खल्वहं तथा संशक्नोमि मुण्डो यावत् प्रव्रजितुम्।
अहं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तिके पञ्चानुव्रतिकम् सप्तशिक्षाव्रतिकंद्वादशविधम् गृहिधर्मं प्रतिपत्स्ये।।४।। Translated Sutra: मैं मुण्डित (प्रव्रजित) होकर अनगारधर्म स्वीकार करने में असमर्थ हूँ, अतः मैं जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित द्वादशव्रतयुक्त श्रावकधर्म कों अंगीकार करुुंगा। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२७. आवश्यकसूत्र | Hindi | 434 | View Detail | ||
Mool Sutra: दैवसिकनियमादिषु, यथोक्तमानेन उक्तकाले।
जिनगुणचिन्तनयुक्तः, कायोत्सर्गस्तनुविसर्गः।।१८।। Translated Sutra: दिन, रात, पक्ष, मास, चातुर्मास आदि में किये जानेवाले प्रतिक्रमण आदि शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार सत्ताईस श्वासोच्छ्वास तक अथवा उपयुक्त काल तक जिनेन्द्रभगवान् के गुणों का चिन्तवन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना कायोत्सर्ग नामक आवश्यक है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
२८. तपसूत्र | Hindi | 465 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः पश्यत्यात्मानं, समभावे संस्थाप्य परिणामम्।
आलोचनमिति जानीत, परमजिनेन्द्रस्योपदेशम्।।२७।। Translated Sutra: अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है। ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 546 | View Detail | ||
Mool Sutra: यैस्तु लक्ष्यन्ते, उदयादिषु सम्भवैर्भावैः।
जीवास्ते गुणसंज्ञा, निर्दिष्टाः सर्वदर्शिभिः।।१।। Translated Sutra: मोहनीय आदि कर्मों के उदय आदि (उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि) से होनेवाले जिन परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते हैं, उनको सर्वदर्शी जिनेन्द्रदेव ने `गुण' या `गुणस्थान' संज्ञा दी है। अर्थात् सम्यक्त्व आदि की अपेक्षा जीवों की अवस्थाएँ श्रेणियाँ-भूमिकाएँ गुणस्थान कहलाती हैं। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 552 | View Detail | ||
Mool Sutra: नो इन्द्रियेषु विरतो, नो जीवे स्थावरे त्रसे चापि।
यः श्रद्दधाति जिनोक्तं, सम्यग्दृष्टिरविरतः सः।।७।। Translated Sutra: जो न तो इन्द्रिय-विषयों से विरत है और न त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत है, लेकिन केवल जिनेन्द्र-प्ररूपित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है, वह व्यक्ति अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है। | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग |
३२. आत्मविकाससूत्र (गुणस्थान) | Hindi | 557 | View Detail | ||
Mool Sutra: तादृशपरिणामस्थितजीवाः, हि जिनैर्गलिततिमिरैः।
मोहस्यापूर्वकरणाः, क्षपणोपशमनोद्यताः भणिताः।।१२।। Translated Sutra: अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले (ज्ञानसूर्य) जिनेन्द्रदेव ने उन अपूर्व-परिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने में तत्पर कहा है। (मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम तो नौवें और दसवें गुण-स्थानों में होता है, किन्तु उसकी तैयारी इस अष्टम गुणस्थान में ही शुरू हो जाती है।) | |||||||||
Saman Suttam | समणसुत्तं | Sanskrit |
तृतीय खण्ड - तत्त्व-दर्शन |
३५. द्रव्यसूत्र | Hindi | 635 | View Detail | ||
Mool Sutra: चेतनारहितममूर्त्तं, अवगाहनलक्षणं च सर्वगतम्।
लोकालोकद्विभेदं, तद् नभोद्रव्यं जिनोद्दिष्टम्।।१२।। Translated Sutra: जिनेन्द्रदेव ने आकाश-द्रव्य को अचेतन, अमूर्त्त, व्यापक और अवगाह लक्षणवाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय-३० |
Hindi | 86 | Gatha | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहेवाणंतणाणीणं, जिणाणं वरदंसिणं ।
तेसिं अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ Translated Sutra: जो अज्ञानी पुरुष अनन्तज्ञानी अनन्तदर्शी जिनेन्द्रों का अवर्णवाद करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 215 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] दुवालसंगे गणिपिडगे पन्नत्ते, तं जहा–आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विआहपन्नत्ती नायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अनुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणाइं विवागसुए दिट्ठिवाए।
से किं तं आयारे?
आयारे णं समणाणं निग्गंगाणं आयार-गोयर-विनय-वेनइय-ट्ठाण-गमन-चंकमण-पमाण-जोगजुंजण-भासा-समिति-गुत्ती-सेज्जोवहि-भत्तपाण-उग्गम-उप्पायणएसणाविसोहि-सुद्धासुद्धग्ग-हण-वय-नियम-तवोवहाण-सुप्पसत्थमाहिज्जइ।
से समासओ पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा–नाणायारे दंसणायारे चरित्तायारे तवायारे वीरियायारे।
आयारस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अनुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा Translated Sutra: गणिपिटक द्वादश अंग स्वरूप है। वे अंग इस प्रकार हैं – आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृत्दशा, अनुत्तरोपपातिक दशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। यह आचारांग क्या है ? इसमें क्या वर्णन किया गया है ? आचारांग में श्रमण निर्ग्रन्थों के आचार, गौचरी, विनय, | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 216 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं सूयगडे?
सूयगडे णं ससमया सूइज्जंति परसमया सूइज्जंति ससमयपरसमया सूइज्जंति जीवा सूइज्जंति अजीवा सूइज्जंति जीवाजीवा सूइ ज्जंति लोगे सूइज्जति अलोगे सूइज्जति लोगालोगे सूइज्जति।
सूयगडे णं जीवाजीव-पुण्ण-पावासव-संवर-निज्जर-बंध-मोक्खावसाणा पयत्था सूइज्जंति, समणाणं अचिरकालपव्वइयाणं कुसमय-मोह-मोह-मइमोहियाणं संदेहजाय-सहजबुद्धि-परिणाम-संसइयाणं पावकर-मइलमइ-गुण-विसोहणत्थं आसीतस्स किरिया वादिसतस्स चउरासीए वेनइय-वाईणं–तिण्हं तेसट्ठाणं अकिरियवाईणं, सत्तट्ठीए अन्नाणियवाईणं, बत्तीसाए वेनइयवाईणं–तिण्हं तेसट्ठाणं अन्नदिट्ठियसयाणं वूहं किच्चा ससमए ठाविज्जति। Translated Sutra: सूत्रकृत क्या है – उसमें क्या वर्णन है ? सूत्रकृत के द्वारा स्वसमय सूचित किये जाते हैं, पर – समय सूचित किये जाते हैं, स्वसमय और परसमय सूचित किये जाते हैं, जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किये जाते हैं, जीव और अजीव सूचित किये जाते हैं, लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोकअलोक सूचित किया जाता है। सूत्रकृत | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 221 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं वियाहे?
वियाहे णं ससमया वियाहिज्जंति परसमया वियाहिज्जंति ससमयपरसमया वियाहिज्जंति जीवा वियाहिज्जंति अजीवा वियाहि-ज्जंति जीवाजीवा वियाहिज्जंति लोगे वियाहिज्जइ अलोगे वियाहिज्जइ लोगालोगे वियाहिज्जइ। वियाहे णं नाणाविह-सुर-नरिंद-राय-रिसि-विविहसंसइय-पुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं दव्व-गुण-खेत्त-काल-पज्जव-पदेस-परिणाम-जहत्थिभाव-अणुगम-निक्खेव-नय-प्पमाण-सुनिउणोवक्कम-विविहप्पगार-पागड-पयंसियाणं लोगालोग-पगा-सियाणं संसारसमुद्द-रुंद-उत्तरण-समत्थाणं सुरपति-संपूजियाणं भविय-जणपय-हिययाभिनंदियाणं तमरय-विद्धंसणाणं सुदिट्ठं दीवभूय-ईहा-मतिबुद्धि-वद्धणाणं Translated Sutra: व्याख्याप्रज्ञप्ति क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वारा स्वसमय का व्याख्यान किया जाता है, परसमय का व्याख्यान किया जाता है तथा स्वसमय – परसमय का व्याख्यान किया जाता है। जीव व्याख्यात किये जाते हैं, अजीव व्याख्यात किये जाते हैं तथा जीव और अजीव व्याख्यात किये जाते हैं। लोक व्याख्यात | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 227 | Sutra | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से किं तं विवागसुए?
विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविज्जति।
ते समासओ दुविहे पन्नत्ते, तं जहा– दुहविवागे चेव, सुहविवागे चेव।
तत्थ णं दह दुहविवागाणि दह सुहविवागाणि।
से किं तं दुहविवागाणि?
दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ नगरगमणाइं संसारपबंधे दुहपरंपराओ य आघविज्जति।
सेत्तं दुहविवागाणि।
से किं तं सुहविवागाणि?
सुहविवागेसु सुहविवागाणं नगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं वणसंडाइं रायाणो अम्मापियरो समोसरणाइं धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइय-परलोइया इड्ढिविसेसा भोगपरिच्चाया Translated Sutra: विपाकसूत्र क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? विपाकसूत्र में सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) कर्मों का विपाक कहा गया है। यह विपाक संक्षेप से दो प्रकार का है – दुःख विपाक और सुख – विपाक। इनमें दुःख – विपाक में दश अध्ययन हैं और सुख – विपाक में भी दश अध्ययन हैं। यह दुःख विपाक क्या है – इसमें क्या वर्णन है ? दुःख – विपाक में | |||||||||
Samavayang | समवयांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
समवाय प्रकीर्णक |
Hindi | 282 | Gatha | Ang-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चलचवलकुंडलधरा, सच्छंदविउव्वियाभरणधारी ।
सुरअसुरवंदियाणं, वहंति सीयं जिणिंदाणं ॥ Translated Sutra: चंचल चपल कुण्डलों के धारक और अपनी ईच्छानुसार विक्रियामय आभूषणों को धारण करने वाले वे देवगण सुर – असुरों से वन्दित जिनेन्द्रों की शिबिकाओं को वहन करते हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-३ | Hindi | 161 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इणमेव खणं वियाणिया नो सुलभं ‘बोहिं च’ आहियं ।
एवं सहिएऽहिपासए आह जिणे इणमेव सेसगा ॥ Translated Sutra: इस क्षण को जाने। बोधि और आत्महित सुलभ नहीं है, ऐसा इन जिनेन्द्र ने और शेष जिनेन्द्रों ने भी कहा है। | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
जीवस्यदशदशा |
Hindi | 11 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कोसायारं जोणी संपत्ता सुक्कमीसिया जइया ।
तइया जीवुववाए जोग्गा भणिया जिनिंदेहिं ॥ Translated Sutra: उसे योनि के भीतर में आम की पेशी जैसी मांसपिंड़ होती है वो ऋतुकाल में फूटकर लहू के कण छोड़ती है। उलटे किए हुए कमल के आकार की वो योनि जब शुक्र मिश्रित होती है, तब वो जीव उत्पन्न करने लायक होती है। ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
धर्मोपदेश एवं फलं |
Hindi | 59 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] किं पुण सपच्चवाए जो नरो निच्चदुक्खिओ? ।
सुट्ठुयरं तेण कायव्वो धम्मो य जिनदेसिओ ॥ Translated Sutra: जो हंमेशा दुःखी और कष्टदायक हालात में ही जीवन जीता है उन के लिए क्या उत्तम ? उस के लिए जिनेन्द्र द्वारा उपदेशित श्रेष्ठतर धर्म का पालन करना ही कर्तव्य है। | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
अनित्य, अशुचित्वादि |
Hindi | 99 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] घुट्ठम्मि सयं मोहे जिणेहिं वरधम्मतित्थमग्गस्स ।
अत्ताणं च न याणह इह जाया कम्मभूमीए ॥ Translated Sutra: इस कर्मभूमि में उत्पन्न होकर भी किसी मानव मोह से वश होकर जिनेन्द्र के द्वारा प्रतिपादित धर्मतीर्थ समान श्रेष्ठ मार्ग और आत्मस्वरूप को नहीं जानता। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 443 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सकम्मसेसेण पुराकएणं कुलेसु दग्गेसु य ते पसूया ।
निव्विण्णसंसारभया जहाय जिनिंदमग्गं सरणं पवन्ना ॥ Translated Sutra: पूर्वभव में कृत अपने अवशिष्ट कर्मों के कारण वे जीव उच्चकुलों में उत्पन्न हुए और संसारभय से उद्विग्न होकर कामभोगों का परित्याग कर जिनेन्द्रमार्ग की शरण ली। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२४ प्रवचनमाता |
Hindi | 936 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अट्ठ पवयणमायाओ समिई गुत्ती तहेव य ।
पंचेव य समिईओ तओ गुत्तीओ आहिया ॥ Translated Sutra: समिति और गुप्ति – रूप आठ प्रवचनमाताऍं हैं। समितियाँ पाँच हैं। गुप्तियाँ तीन हैं। ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान समिति और उच्चार समिति। मनो – गुप्ति, वचन गुप्ति और आठवीं प्रवचन माता काय – गुप्ति है। ये आठ समितियाँ संक्षेप में कही गई हैं इनमें जिनेन्द्र – कथित द्वादशांग – रूप समग्र प्रवचन अन्तर्भूत | |||||||||
Virastava | Ardha-Magadhi | Hindi | 2 | Gatha | Painna-10B | View Detail | |||
Mool Sutra: [गाथा] अरुह! १ अरिहंत! २ अरहंत! ३ देव! ४ जिन! ५ वीर! ६ परमकारुणिय! ७ ।
सव्वण्णु! ८ सव्वदरिसी! ९ पारय! १० तिक्कालविउ! ११ नाह! १२ ॥ Translated Sutra: अरुह, अरिहंत, अरहंत, देव, जिन, वीर, परम करुणालु, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, समर्थ, त्रिलोक के नाथ वीतराग केवली, त्रिभुवनगुरु, सर्व त्रिभुवन वरिष्ठ भगवन् तीर्थंकर, शक्र द्वारा नमस्कार किए गए, जिनेन्द्र तुम जय पाओ। सूत्र – २, ३ | |||||||||
Virastava | Ardha-Magadhi | Hindi | 37 | Gatha | Painna-10B | View Detail | |||
Mool Sutra: [गाथा] मनपज्जवोहि-उवसंत-खीणमोहा जिन त्ति भन्नंति ।
ताणं चिय तं इंदो परमिस्सरिया ‘जिणिंदो’ त्ति ॥ दारं २१ । Translated Sutra: मनःपर्यव, अवधि, उपशान्त और क्षय मोह इन तीनों को जिन कहते हैं। उसमें तुम परम ऐश्वर्यवाले इन्द्र समान हो इसलिए तुम्हें जिनेन्द्र कहा है। |