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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ काचबो |
Hindi | 62 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं तच्चस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, चउत्थस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी होत्था–वण्णओ।
तीसे णं वाणारसीए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए गंगाए महानईए मयंगतीरद्दहे नामं दहे होत्था–अनुपुव्वसुजाय-वप्प-गंभीरसीयलजले अच्छ-विमल-सलिल-पलिच्छण्णे संछण्ण-पत्त-पुप्फ -पलासे बहुउप्पल-पउम-कुमुय-नलिण-सुभग-सोगं-धिय-पुंडरीय-महापुंडरीय-सयपत्त-सहस्सपत्त केसरपुप्फोवचिए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे।
तत्थ णं बहूणं मच्छाण य कच्छभाण य गाहाण य मगराण य सुंसुमाराण य सयाणि Translated Sutra: ‘भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात अंग के चौथे ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ?’ हे जम्बू! उस काल और उस समय में वाराणसी नामक नगरी थी। उस वाराणसी नगरी के बाहर गंगा नामक महानदी के ईशान कोण में मृतगंगातीर द्रह नामक एक द्रह था। उसके अनुक्रम से सुन्दर सुशोभित तट थे। जल गहरा और शीतल था। स्वच्छ एवं निर्मल जल | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 66 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सेलगपुरे नामं नगरे होत्था। सुभूमिभागे उज्जाणे। सेलए राया। पउमावई देवी। मंडुए कुमारे जुवराया।
तस्स णं सेलगस्स पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया होत्था–उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मियाए पारिणामियाए उववेया रज्जधुरं चिंतयंति।
थावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे। राया निग्गए।
तए णं से सेलए राया थावच्चापुत्तस्स अनगारस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमानंदिए पीइमणे परम-सोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता थावच्चा-पुत्तं अनगारं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
सद्दहामि Translated Sutra: उस काल और उस समय में शैलकपुर नगर था। उसके बाहर सुभूमिभाग उद्यान था। शैलक राजा था। पद्मावती रानी थी। मंडुक कुमार था। वह युवराज था। उस शैलक राजा के पंथक आदि पाँच सौ मंत्री थे। वे औत्पत्तिकी वैनयिकी पारिणामिकी और कार्मिकी इस प्रकार चारों तरह की बुद्धियों से सम्पन्न थे और राज्य की धुरा के चिन्तक भी थे – शासन | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 72 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवामेव समणाउसो! जे निग्गंथे वा निग्गंथी वा ओसन्ने ओसन्नविहारी, पासत्थे पासत्थविहारी कुसीले कुसील-विहारी पमत्ते पमत्तविहारी संसत्ते संसत्तविहारी उउबद्ध-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ते विहरइ, से णं इहलोए चेव बहूणं सम-णाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिंसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे,
परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य अनादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसार कंतारं भुज्जो-भुज्जो अनुपरियट्टिस्सइ।
तए णं ते पंथगवज्जा पंच अनगारसया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी –एवं खलु देवानुप्पिया! Translated Sutra: हे आयुष्मन् श्रमणों ! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी आलसी होकर, संस्तारक आदि के विषय में प्रमादी होकर रहता है, वह इसी लोक में बहुत – से श्रमणों, बहुत – सी श्रमणियों, बहुत – से श्रावकों और बहुत – सी श्राविकाओं की हीलना का पात्र होता है। यावत् वह चिरकाल पर्यन्त संसार – भ्रमण करता है। तत्पश्चात् पंथक को छोड़कर पाँच | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ शेलक |
Hindi | 73 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सेलए रायरिसी पंथगपामोक्खा पंच अनगारसया जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवाग-च्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहंति, दुरुहित्ता मेघघनसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहंति, पडिलेहित्ता जाव संलेहणा-ज्झूसणा-ज्झूसिया भत्तपाण-पडियाइक्खिया पाओवगमणंणुवन्ना।
तए णं से सेलए रायरिसी पंथगपामोक्खा पंच अनगारसया बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं ज्झूसित्ता, सट्ठिं भत्ताइं अनसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धा बुद्धा मुत्ता अंतगडा परिनिव्वुडा सव्व-दुक्खप्पहीणा।
एवामेव Translated Sutra: इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो साधु या साध्वी इस तरह विचरेगा वह इस लोक में बहुसंख्यक साधुओं, साध्वीयों, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमनीय, पूजनीय, सत्कारणीय और सम्माननीय होगा। कल्याण, मंगल, देव और चैत्य स्वरूप होगा। विनयपूर्वक उपासनीय होगा। परलोक में उसे हाथ, कान एवं नासिका के | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-७ रोहिणी |
Hindi | 75 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं छट्ठस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, सत्तमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था। सुभूमिभागे उज्जाणे।
तत्थ णं रायगिहे नयरे धने नामं सत्थवाहे परिवसइ–अड्ढे जाव अपरिभूए। भद्दा भारिया–अहीनपंचिंदियसरीरा जाव सुरूवा।
तस्स णं धनस्स सत्थवाहस्स पुत्ता भद्दाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्थवाहदारगा होत्था, तं जहा–धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरक्खिए।
तस्स णं धनस्स सत्थवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुण्हाओ होत्था, तं जहा–उज्झिया भोगवइया रक्खिया रोहिणिया।
तए Translated Sutra: भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने छठे ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो भगवन् ! सातवें ज्ञात – अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। राजगृह नगर के बाहर ईशानकोण में सुभूमिभाग उद्यान था। उस राजगृह नगर में धन्य नामक | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 87 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगनामं जनवए होत्था। तत्थ णं चंपा नामं नयरी होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति–अड्ढा जाव बहुजनस्स अपरिभूया।
तए णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्था–अहिगयजीवाजीवे वण्णओ।
तए णं तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्ता-नावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो-कहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था–सेयं खलु अम्हं गणियं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुद्दं पोयवहणेणं ओगाहित्तए ति कट्टु अन्नमन्नस्स एयमट्ठं पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता Translated Sutra: उस काल और उस समय में अंग नामक जनपद था। चम्पा नगरी थी। चन्द्रच्छाय अंगराज – अंग देश का राजा था। उस चम्पा नगरी में अर्हन्नक प्रभृति बहुत – से सांयात्रिक नौवणिक रहते थे। वे ऋद्धिसम्पन्न थे और किसी से पराभूत होने वाले नहीं थे। उनके अर्हन्नक श्रमणोपासक भी था, वह जीव – अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था। वे अर्हन्नक | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ मल्ली |
Hindi | 109 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वदेवाणं आसणाइं चलेंति, समोसढा धम्मं सुणेंति, सुणेत्ता जेणेव नंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अट्ठाहियं महिमं करेंति, करेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। कुंभए वि निग्गच्छइ।
तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेट्ठपुत्ते रज्जे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयाओ सीयाओ दुरूढा समाणा सव्विड्ढीए जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति जाव पज्जुवासंति।
तए णं मल्ली अरहा तीसे महइमहालियाए परिसाए, कुंभगस्स रन्नो, तेसिं च जियसत्तु-पामोक्खाणं छण्हं राईणं धम्मं परिकहेइ। परिसा जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया। Translated Sutra: उस काल और उस समय में सब देवों के आसन चलायमान हुए। तब वे सब देव वहाँ आए, सबने धर्मोपदेश श्रवण किया। नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निका महोत्सव किया। फिर जिस दिशा में प्रकट हुए थे, उसी दिशा में लौट गए। कुम्भ राजा भी वन्दना करने के लिए नीकला। तत्पश्चात् वे जितशत्रु वगैरह छहों राजा अपने – अपने ज्येष्ठ पुत्रों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Hindi | 135 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अण गारियं पव्वइए समाणे पुनरवि मानुस्सए कामभोगे आसयइ पत्थयइ पीहेइ अभिलसइ, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावयाण य हीलणिज्जे जाव चाउरंतं संसारकंतारं भुज्जो-भुज्जो अनुपरियट्टिस्सइ–जहा व से जिनरक्खिए। Translated Sutra: इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य – उपाध्याय के समीप प्रव्रजित होकर, फिर से मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आश्रय लेता है, याचना करता है, स्पृहा करता है, या दृष्ट अथवा अदृष्ट शब्दादिक के भोग की ईच्छा करता है, वह मनुष्य इसी भव में बहुत – से साधुओं, बहुत – सी साध्वीयों, बहुत – से | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-११ दावद्रव |
Hindi | 142 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, एक्कारसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गोयमो एवं वयासी–कहण्णं भंते! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति?
गोयमा! से जहानामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नामं रुक्खा पन्नत्ता–किण्हा जाव निउरंबभूया पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठंति।
जया णं दीविच्चगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव Translated Sutra: ‘भगवन् ! ग्यारहवे अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था। उसके बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत् गुणशील नामक उद्यान में समवसृत हुए। | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१२ उदक |
Hindi | 144 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जियसत्तू राया अन्नया कयाइ ण्हाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहूहिं ईसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए सुहासणवरगए विउलं असनं पानं खाइमं साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे एवं च णं विहरइ। जिमिय-भुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परम सुइभूए तंसि विपुलंसि असन-पान-खाइम-साइमंसि जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी–अहो णं देवानुप्पिया! इमे मणुण्णे असन-पान-खाइम-साइमे वण्णेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विसायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे Translated Sutra: वह जितशत्रु राजा एक बार – किसी समय स्नान करके, बलिकर्म करके, यावत् अल्प किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समय पर सुखद आसन पर बैठ कर, विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन जीम रहा था। यावत् जीमने के अनन्तर, हाथ – मुँह धोकर, परम शुचि होकर उस विपुल अशन, | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१३ मंडुक |
Hindi | 147 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से नंदे मणियारसेट्ठी सोलसहिं रोयायंकेहिं अभिभूए समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुब्भे देवानुप्पिया! रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयह–एवं खलु देवानुप्पिया! नंदस्स मणियारस्स सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउब्भूया। [तं जहा–सासे जाव कोढे] । तं जो णं इच्छइ देवानुप्पिया! विज्जो वा विज्जपुत्तो वा जाणओ वा जाणुयपुत्तो वा कुसलो वा कुसलपुत्तो वा नंदस्स मणियारस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, तस्स णं नंदे मणियारसेट्ठी विउलं अत्थसंपयाणं Translated Sutra: नन्द मणिकार इन सोलह रोगांतकों से पीड़ित हुआ। तब उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा – देवानुप्रियो ! तुम जाओ और राजगृह नगर में शृंगाटक यावत् छोटे – छोटे मार्गों में ऊंची आवाज से घोषणा करते हुए कहो – ‘हे देवानुप्रियो ! नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीरमें सोलह रोगांतक उत्पन्न हुए हैं, यथा – श्वास से कोढ़। तो हे | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र |
Hindi | 151 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नामं अज्जाओ इरियासमियाओ भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवणासमियाओ उच्चार-पासवण-खेल-सिंधाण-जल्ल-पारिट्ठावणियासमियाओ मणसमियाओ वइसमियाओ काय-समियाओ मणगुत्ताओ वइगुत्ताओ कायगुत्ताओ गुत्ताओ गुत्तिंदियाओ गुत्तबंभचारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुव्विं चरमाणीओ जेणामेव तेयलिपुरे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरंति।
तए णं तासिं सुव्वयाणं अज्जाणं एगे संघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाणं ज्झियाइ, तइयाए Translated Sutra: उस काल और उस समय में ईर्या – समिति से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत, बहुत परिवार वाली सुव्रता नामक आर्या अनुक्रम से विहार करती – करती तेतलिपुर नगर में आई। आकर यथोचित उपाश्रय ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। तत्पश्चात् उन सुव्रता आर्या के एक संघाड़े ने प्रथम प्रहर में | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१४ तेतलीपुत्र |
Hindi | 156 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तेयलिपुरे नयरे अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं देवीहिं य देवदुंदुहीओ समाहयाओ, दसद्धवण्णे कुसुमे निवाइए, चेलुक्खेवे दिव्वे गीयगंधव्वनिनाए कए यावि होत्था।
तए णं से कनगज्झए राया इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे एवं वयासी–एवं खलु तेयलिपुत्ते मए अवज्झाए मुंडे भवित्ता पव्वइए। तं गच्छामि णं तेयलिपुत्तं अनगारं वंदामि नमंसामि, वंदित्ता नमंसित्ता एयमट्ठं विनएणं भुज्जो-भुज्जो खामेमि–एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता ण्हाए चाउरंगिणीए सेनाए सद्धिं जेणेव पमयवणे उज्जाणे जेणेव तेयलिपुत्ते अनगारे तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छित्ता तेयलिपुत्तं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता Translated Sutra: उस समय तेतलिपुर नगर के निकट रहते हुए वाणव्यन्तर देवों और देवियों ने देवदुंदुभियाँ बजाईं। पाँच वर्ण के फूलों की वर्षा की और दिव्य गीत – गन्धर्व का निनाद किया। तत्पश्चात् कनकध्वज राजा इस कथा का अर्थ जानता हुआ बोला – निस्सन्देह मेरे द्वारा अपमानित होकर तेतलिपुत्र ने मुण्डित होकर दीक्षा अंगीकार की है। अत | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१५ नंदीफळ |
Hindi | 157 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं चोद्दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, पन्नरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया।
तत्थ णं चंपाए नयरीए धने नामं सत्थवाहे होत्था–अड्ढे जाव अपरिभूए।
तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नामं नयरी होत्था–रिद्धत्थिमिय-समिद्धा वण्णओ।
तत्थ णं अहिच्छत्ताए नयरीए कनगकेऊ नामं राया होत्था–महया वण्णओ।
तए णं तस्स धनस्स सत्थवाहस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे Translated Sutra: ‘भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने चौदहवें ज्ञात – अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो पन्द्रहवें ज्ञात – अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?’ उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था। जितशत्रु राजा था। धन्य सार्थवाह था, जो सम्पन्न था यावत् किसी से पराभूत होनेवाला नहीं था। उस | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 185 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ते संजत्ता-नावावाणियगे एवं वयासी–तुब्भे णं देवानुप्पिया! गामागर-नगर-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंब-पट्टण-आसम-निगम-संबाह-सण्णिवेसाइं० आहिंडह, लवणसमुद्दं च अभिक्खणं-अभिक्खणं पोयवहणेणं ओगाहेह। तं अत्थियाइं च केइ भे कहिंचि अच्छेरए दिट्ठपुव्वे?
तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा कनगकेऊ एवं वयासी–एवं खलु अम्हे देवानुप्पिया! इहेव हत्थिसीसे नयरे परिवसामो तं चेव जाव कालियदीवंतेणं संछूढा। तत्थ णं बहवे हिरन्नागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरागरे य, बहवे तत्थ आसे पासामो।
किं ते? हरिरेणु जाव अम्हं गंधं आघायंति, आघाइत्ता भीया तत्था उव्विग्गा उव्विग्गमणा तओ अनेगाइं जोयणाइं उब्भमंति। Translated Sutra: फिर राजा ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों से कहा – ‘देवानुप्रिय ! तुम लोग ग्रामों में यावत् आकरों में घूमते हो और बार – बार पोतवहन द्वारा लवणसमुद्र में अवगाहन करते हो, तुमने कहीं कोई आश्चर्यजनक – अद्भुत – अनोखी वस्तु देखी है ?’ तब सांयात्रिक नौकावणिकों ने राजा कनककेतु से कहा – ‘देवानुप्रिय ! हम लोग इसी हस्तिशीर्ष | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१७ अश्व |
Hindi | 186 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं अत्थेगइया आसा जेणेव उक्किट्ठा सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा तेणेव उवागच्छंति। तेसु उक्किट्ठेसु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु मुच्छिया गढिया गिद्धा अज्झोववण्णा पयत्ता यावि होत्था।
तए णं ते आसा ते उक्किट्ठे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे आसेवमाणा तेहिं बहूहिं कूडेहि य पासेहि य गलएसु य पाएसु य बज्झंति।
तए णं ते कोडुंबियपुरिसा ते आसे गिण्हंति, गिण्हित्ता एगट्ठियाहिं पोयवहणे संचारेंति, कट्ठस्स य तणस्स य पाणियस्स य तंदुलाण य समियस्स य गोरसस्स य जाव अन्नेसिं च बहूणं पोयवहण-पाउग्गाणं पोयवहणं भरेंति।
तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव Translated Sutra: उन घोड़ों में से कितनेक घोड़े जहाँ वे उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध थे, वहाँ पहुँचे। वे उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूर्च्छित हुए, अति आसक्त हो गए और उनका सेवन करने में प्रवृत्त हो गए। उस उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का सेवन करने वाले वे अश्व कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बहुत से कूट पाशों | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१८ सुंसमा |
Hindi | 211 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से धने सत्थवाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबहुं धन-कनगं सुंसुमं च दारियं अवहरियं जाणित्ता महत्थं महग्घं महरिहं पाहुडं गहाय जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं महत्थं महग्घं महरिहं पाहुडं उवनेइ, उवनेत्ताएवं वयासी–
एवं खलु देवानुप्पिया! चिलाए चोरसेनावई सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इहं हव्वमागम्म पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं मम गिहं धाएत्ता सुबहुं धन-कनगं सुंसुमं च दारियं गहाय रायगिहाओ पडि-निक्खमित्ता जेणेव सीहगुहा तेणेव पडिगए। तं इच्छामो णं देवानुप्पिया! सुंसुमाए दारियाए कूवं गमित्तए। तुब्भं णं देवानुप्पिया! से विपुले धनकनगे, ममं Translated Sutra: चोरों के चले जाने के पश्चात् धन्य सार्थवाह अपने घर आया। आकर उसने जाना कि मेरा बहुत – सा धन कनक और सुंसुमा लड़की का अपहरण कर लिया गया है। यह जानकर वह बहुमूल्य भेंट लेकर के रक्षकों के पास गया और उनसे कहा – ‘देवानुप्रियो ! चिलात नामक चोरसेनापति सिंहगुफा नामक चोरपल्ली से यहाँ आकर, पाँच सौ चोरों के साथ, मेरा घर लूटकर | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१८ सुंसमा |
Hindi | 212 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए समोसढे।
तए णं धने सत्थवाहे सुपुत्ते धम्मं सोच्चा पव्वइए। एक्कारसंगवी। मासियाए संलेहणाए सोहम्मे कप्पे उववन्ने। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ।
जहा वि य णं जंबू! धनेणं सत्थवाहेणं नो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेउं वा नो विसयहेउं वा सुंसुमाए दारियाए मंससोणिए आहारिए, नन्नत्थ एगाए रायगिह-संपावणट्ठयाए।
एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स खेलासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासवस्स Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारे। उस समय धन्य सार्थवाह वन्दना करने के लिए भगवान के निकट पहुँचा। धर्मोपदेश सूनकर दीक्षित हो गया। क्रमशः ग्यारह अंगों का वेत्ता मुनि हो गया। अन्तिम समय आने पर एक मास की संलेखना करके सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवन करके महाविदेह | |||||||||
Gyatadharmakatha | धर्मकथांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१९ पुंडरीक |
Hindi | 218 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से पुंडरीए अनगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चंपि चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए ज्झाण ज्झियाइ, तइयाए पोरिसीए जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदानस्स भिक्खायरियं अडमाणे सीयलुक्ख पाण भोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहेत्ता अहापज्जत्तमिति कट्टु पडिनियत्तेइ, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपानं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववण्णे बिलमिव पन्नगभूएणं Translated Sutra: पुंडरिकीणी नगरी से रवाना होने के पश्चात् पुंडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान थे। उन्होंने स्थविर भगवान को वन्दना की, नमस्कार किया। स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया), तीसरे प्रहर में यावत् | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका | Hindi | 99 | View Detail | ||
Mool Sutra: समणेण सावएण य, जाओ णिच्चंपि भावणिज्जाओ।
दढसंवेगकरीओ, विसेसओ उत्तमट्ठम्मि ।। Translated Sutra: श्रमण को या श्रावक को संवेग व वैराग्य के दृढ़ीकरणार्थ नित्य ही, विशेषतः सल्लेखना के काल में इन १२ भावनाओं का चिन्तवन करते रहना चाहिए। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
5. अस्तेय (अचौर्य)-सूत्र | Hindi | 172 | View Detail | ||
Mool Sutra: वज्जिज्जा तेनाहडतक्करजोगं विरुद्ध रज्जं च।
कूडतुल-कूडमाणं, तप्पडिरूवं च ववहारं ।। Translated Sutra: [महाव्रती साधु को तो इन बातों से कोई सम्बन्ध नहीं होता, परन्तु अस्तेय अणुव्रत के धारी श्रावक के लिए ये पाँच बातें अस्तेय व्रत के अतिचार या दोषरूप बतायी गयी हैं-] चोरी का माल लेना, स्वयं व्यापार में छिपने-छिपाने रूप जैसे तस्कर प्रयोग करना, राज्याज्ञा का उल्लंघन करना (घूसखोरी ब्लैक मार्केट, स्मग्लिंग, टैक्स व रेलवे | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 179 | View Detail | ||
Mool Sutra: पंचेव अणुव्वयाइं, गुणव्वयाइं च हुंति तिन्नेव।
सिक्खावयाइं चउरो, सावगधम्मो दुवालसविधं ।। Translated Sutra: [अनगार (साधुओं) के पाँच महाव्रतों का निर्देश कर दिया गया] सागार या गृहस्थ श्रावकों का धर्म १२ प्रकार का है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 180 | View Detail | ||
Mool Sutra: पंच उ अणुव्वयाइं, थूलगपाणवह विरमणाईणि।
तत्थ पढमं इमं खलु, पन्नत्तं वीयरागेहिं ।। Translated Sutra: प्रथम पंचाणुव्रत का स्वरूप वीतराग भगवान् ने इस प्रकार कहा है-स्थूल प्राणिवध आदि से विरत हो जाना पाँच अणुव्रत हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 181 | View Detail | ||
Mool Sutra: दिसिविदिसिमाण पढमं, अणत्थदण्डस्स वज्जणं विदियं।
भोगोवभोग परिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि ।। Translated Sutra: दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं। (आगे ३ गाथाओं में इन तीनों का क्रमशः कथन किया गया है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 182 | View Detail | ||
Mool Sutra: उड्ढमहो तिरियं पि य दिसासु, परिमाणकरणमिह पढमं।
भणियं गुणव्वयं खलु, सावगधम्मम्मि वीरेण ।। Translated Sutra: अपनी इच्छाओं को सीमित करने के लिए व्रती श्रावक ऊपर नीचे व तिर्यक् सभी दिशाओं का परिमाण कर लेता है, कि इतने क्षेत्र के बाहर किसी प्रकार का भी व्यवसाय न करूँगा। यही उसका दिग्व्रत नामक प्रथम गुणव्रत है। (सीमा से बाहर वाले क्षेत्र की अपेक्षा वह महाव्रती हो जाता है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 183 | View Detail | ||
Mool Sutra: उवभोगपरिभोगे बीयं, परिमाणकरणमो णेयं।
अणियमियवाविदोसा, न भवंति कायम्मि गुणभावो ।। Translated Sutra: काम-वासना को घटाने के लिए ताम्बूल, गन्ध, पुष्प व शृंगार आदि की वस्तुओं का परिमाण करना द्वितीय भोगोपभोग परिमाण व्रत है। इसके प्रभाव से परिमाण-बाह्य अनन्त वस्तुओं के प्रति आसक्तिभाव सर्वथा छूट जाता है। यही इसका गुणाकार करनेवाला गुणभाव है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 184 | View Detail | ||
Mool Sutra: अट्ठेण तं ण बंधइ, जमणट्ठेणं तु थोवबहुभावा।
अट्ठे कालाइया, नियामगा न उ अणट्ठाए ।। Translated Sutra: जीव को सप्रयोजन कर्म करने से उतना बन्ध नहीं होता जितना कि निष्प्रयोजन से होता है। क्योंकि सप्रयोजन कार्य में जिस प्रकार देश काल भाव आदि नियामक होते हैं, उस प्रकार निष्प्रयोजन में नहीं होते। श्रावक ऐसे अनर्थदण्ड का त्याग करता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 185 | View Detail | ||
Mool Sutra: सामाइयं च पढमं, विदियं च तहेव पोसहं भणियं।
तइयं च अतिहिपुज्जं, चउत्थं सल्लेहणा अंते ।। Translated Sutra: सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथि पूजा, और सल्लेखना (समाधि मरण) ये चार शिक्षाव्रत कहे गये हैं। (क्योंकि इनसे श्रावक को अभ्यास आदि के द्वारा साधु-व्रत की शिक्षा मिलती है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 186 | View Detail | ||
Mool Sutra: आहारपोसहो खलु, सरीरसक्कारपोसहो चेव।
बंभव्वावारेसु य, तइयं सिक्खावयं नाम ।। Translated Sutra: (अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में उपवास धारण करके सारा दिन धर्मध्यान पूर्वक मन्दिर आदि में बिताना प्रोषध व्रत कहलाता है।) वह चार प्रकार का है-आहार का त्याग, शरीर-संस्कार व स्नान आदि का त्याग, ब्रह्मचर्य, तथा व्यापार-धन्धे का त्याग। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
9. सामायिक-सूत्र | Hindi | 190 | View Detail | ||
Mool Sutra: सामाइयं उ कए, समणो इव सावहो हवइ जम्हा।
एएण कारणेण बहुसो सामाइयं कुज्जा ।। Translated Sutra: सामायिक के समय श्रावक श्रमण के तुल्य हो जाता है। इसलिए सामायिक दिन में अनेक बार करनी चाहिए। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
2. सागार (श्रावक) सूत्र | Hindi | 248 | View Detail | ||
Mool Sutra: नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए।
अहं ण देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त
सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिसामि ।। Translated Sutra: जो व्यक्ति मुण्डित यावत् प्रव्रजित होकर अपने को अनगार धर्म के लिए समर्थ नहीं समझता है, वह पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ऐसे द्वादश व्रतों वाले गृहस्थधर्म को अंगीकार करता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 255 | View Detail | ||
Mool Sutra: सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो।
तस्स दु णिव्वुदि भत्ती, होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ।। Translated Sutra: जो श्रावक (गृहस्थ) अथवा श्रमण (साधु) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की भक्ति करता है, अर्थात् हृदय में इन गुणों के प्रति अत्यन्त बहुमान धारण करता है, उस ही परमार्थतः निर्वाण या मोक्ष की भक्ति होती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
5. गुरु-उपासना | Hindi | 260 | View Detail | ||
Mool Sutra: जे केइ वि उवएसा, इह परलोए सुहावहा संति।
विणएण गुरुजणाणं सव्वे पाउणइ ते पुरिसा ।। Translated Sutra: इस लोक में अथवा परलोक में जीवों को जो कोई भी सुखकारी उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सब गुरुजनों की विनय से ही होते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
7. दान-सूत्र | Hindi | 265 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो मुणिभुत्तवसेसं, भुंजइ सो भुंजए जिणुवदिट्ठं।
संसारसारसोक्खं, कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ।। Translated Sutra: जो श्रावक साधु-जनों को खिलाने के पश्चात् शेष बचे अन्न को खाता है वही वास्तव में खाता है। वह संसार के सारभूत देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि के उत्तम सुखों को भोगकर क्रम से निर्वाण-सुख को प्राप्त कर लेता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका | Hindi | 99 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रमणेन श्रावकेन च, या नित्यमपि भावनीयाः।
दृढसंवेगकारिण्यो, विशेषतः उत्तमार्थे ।। Translated Sutra: श्रमण को या श्रावक को संवेग व वैराग्य के दृढ़ीकरणार्थ नित्य ही, विशेषतः सल्लेखना के काल में इन १२ भावनाओं का चिन्तवन करते रहना चाहिए। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
5. अस्तेय (अचौर्य)-सूत्र | Hindi | 172 | View Detail | ||
Mool Sutra: वर्जयेत् स्तेनाहृतं, तस्करप्रयोगं विरुद्धराज्यं च।
कूटतुला कूटमाने, तत्प्रतिरूपं च व्यवहारम् ।। Translated Sutra: [महाव्रती साधु को तो इन बातों से कोई सम्बन्ध नहीं होता, परन्तु अस्तेय अणुव्रत के धारी श्रावक के लिए ये पाँच बातें अस्तेय व्रत के अतिचार या दोषरूप बतायी गयी हैं-] चोरी का माल लेना, स्वयं व्यापार में छिपने-छिपाने रूप जैसे तस्कर प्रयोग करना, राज्याज्ञा का उल्लंघन करना (घूसखोरी ब्लैक मार्केट, स्मग्लिंग, टैक्स व रेलवे | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 179 | View Detail | ||
Mool Sutra: पंचैवाणुव्रतानि गुणव्रतानि च भवंति त्रीण्येव।
शिक्षाव्रताति चत्वारि श्रावकधर्मो द्वादशविधा ।। Translated Sutra: [अनगार (साधुओं) के पाँच महाव्रतों का निर्देश कर दिया गया] सागार या गृहस्थ श्रावकों का धर्म १२ प्रकार का है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 180 | View Detail | ||
Mool Sutra: पंचत्वणुव्रतानि स्थूलप्राणिवधविरमणादीनि।
तत्र प्रथमं इदं खलु प्रज्ञप्तं वीतरागैः ।। Translated Sutra: प्रथम पंचाणुव्रत का स्वरूप वीतराग भगवान् ने इस प्रकार कहा है-स्थूल प्राणिवध आदि से विरत हो जाना पाँच अणुव्रत हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 181 | View Detail | ||
Mool Sutra: दिग्विदिग्माणं प्रथमं अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीम्।
भोगोपभोगपरिमाणं इदमेव गुणव्रतानि त्रीणि ।। Translated Sutra: दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं। (आगे ३ गाथाओं में इन तीनों का क्रमशः कथन किया गया है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 182 | View Detail | ||
Mool Sutra: ऊर्ध्वमधस्तिर्यगपि च दिक्षु परिमाणकरणमिह प्रथमम्।
भणितं गुणव्रतं खलु श्रावकधर्मे वीरेण ।। Translated Sutra: अपनी इच्छाओं को सीमित करने के लिए व्रती श्रावक ऊपर नीचे व तिर्यक् सभी दिशाओं का परिमाण कर लेता है, कि इतने क्षेत्र के बाहर किसी प्रकार का भी व्यवसाय न करूँगा। यही उसका दिग्व्रत नामक प्रथम गुणव्रत है। (सीमा से बाहर वाले क्षेत्र की अपेक्षा वह महाव्रती हो जाता है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 183 | View Detail | ||
Mool Sutra: उपभोगपरिभोगयोः द्वितीयं परिमाणकरणं विज्ञेयम्।
अनियमितव्याप्तिदोषाः न भवन्ति कृते गुणभावः ।। Translated Sutra: काम-वासना को घटाने के लिए ताम्बूल, गन्ध, पुष्प व शृंगार आदि की वस्तुओं का परिमाण करना द्वितीय भोगोपभोग परिमाण व्रत है। इसके प्रभाव से परिमाण-बाह्य अनन्त वस्तुओं के प्रति आसक्तिभाव सर्वथा छूट जाता है। यही इसका गुणाकार करनेवाला गुणभाव है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 184 | View Detail | ||
Mool Sutra: अर्थेन तन्न बध्नाति यदनर्थेन स्तोकबहुभावात्।
अर्थे कालादयो नियामकाः न त्वनर्थे ।। Translated Sutra: जीव को सप्रयोजन कर्म करने से उतना बन्ध नहीं होता जितना कि निष्प्रयोजन से होता है। क्योंकि सप्रयोजन कार्य में जिस प्रकार देश काल भाव आदि नियामक होते हैं, उस प्रकार निष्प्रयोजन में नहीं होते। श्रावक ऐसे अनर्थदण्ड का त्याग करता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 185 | View Detail | ||
Mool Sutra: सामायिकं च प्रथमं द्वितीयं च तथैव प्रोषधो भणितः।
तृतीयं चातिथिपूजा चतुर्थं सल्लेखना अंते ।। Translated Sutra: सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथि पूजा, और सल्लेखना (समाधि मरण) ये चार शिक्षाव्रत कहे गये हैं। (क्योंकि इनसे श्रावक को अभ्यास आदि के द्वारा साधु-व्रत की शिक्षा मिलती है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 186 | View Detail | ||
Mool Sutra: आहारप्रोषधः खलु, शरीरसत्कार प्रौषधश्चैव।
ब्रह्माव्यापारयोश्च तृतीयं शिक्षाव्रतं नाम ।। Translated Sutra: (अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में उपवास धारण करके सारा दिन धर्मध्यान पूर्वक मन्दिर आदि में बिताना प्रोषध व्रत कहलाता है।) वह चार प्रकार का है-आहार का त्याग, शरीर-संस्कार व स्नान आदि का त्याग, ब्रह्मचर्य, तथा व्यापार-धन्धे का त्याग। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
9. सामायिक-सूत्र | Hindi | 190 | View Detail | ||
Mool Sutra: सामायिके तु कृते श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात्।
एतेन कारणेन बहुशः सामायिकं कुर्यात् ।। Translated Sutra: सामायिक के समय श्रावक श्रमण के तुल्य हो जाता है। इसलिए सामायिक दिन में अनेक बार करनी चाहिए। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
2. सागार (श्रावक) सूत्र | Hindi | 248 | View Detail | ||
Mool Sutra: नो खलु अहं तथा शक्नोमि मुण्डो यावत् प्रव्रजितुम्। अहं खलु देवानुप्रियाणामन्तिके पंचाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाव्रतिकं द्वादशविधं गृहिधर्मं प्रतिपत्स्ये। Translated Sutra: जो व्यक्ति मुण्डित यावत् प्रव्रजित होकर अपने को अनगार धर्म के लिए समर्थ नहीं समझता है, वह पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत ऐसे द्वादश व्रतों वाले गृहस्थधर्म को अंगीकार करता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 255 | View Detail | ||
Mool Sutra: सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु, यो भक्तिं करोति श्रावकः श्रमणः।
तस्य तु निर्वृत्तिर्भक्तिर्भवतीति जिनैः प्रज्ञप्तम् ।। Translated Sutra: जो श्रावक (गृहस्थ) अथवा श्रमण (साधु) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की भक्ति करता है, अर्थात् हृदय में इन गुणों के प्रति अत्यन्त बहुमान धारण करता है, उस ही परमार्थतः निर्वाण या मोक्ष की भक्ति होती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
5. गुरु-उपासना | Hindi | 260 | View Detail | ||
Mool Sutra: ये केचिदपि उपदेशाः, इह-परलोके सुखावहाः सन्ति।
विनयेन गुरुजनेभ्यः, सर्वान् प्राप्नुवन्ति ते पुरुषाः ।। Translated Sutra: इस लोक में अथवा परलोक में जीवों को जो कोई भी सुखकारी उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सब गुरुजनों की विनय से ही होते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
7. दान-सूत्र | Hindi | 265 | View Detail | ||
Mool Sutra: यो मुनिः भुक्तावशेषं भुंजति सो भुंजते जिनोपदिष्टम्।
संसारसारसौख्यं, क्रमशः निर्वाणवरसौख्यम् ।। Translated Sutra: जो श्रावक साधु-जनों को खिलाने के पश्चात् शेष बचे अन्न को खाता है वही वास्तव में खाता है। वह संसार के सारभूत देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि के उत्तम सुखों को भोगकर क्रम से निर्वाण-सुख को प्राप्त कर लेता है। | |||||||||
Jambudwippragnapati | जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
वक्षस्कार ७ ज्योतिष्क |
Hindi | 365 | Sutra | Upang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं समणे भगवं महावीरे मिहिलाए नयरीए माणिभद्दे चेइए बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं देवाणं बहूणं देवीणं मज्झगए एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ जंबूदीवपन्नत्ती नाम अज्जो! अज्झयणे अट्ठं च हेउं च पसिणं च कारणं च वागरणं च भुज्जो-भुज्जो उवदंसेइ Translated Sutra: आर्य जम्बू ! मिथिला नगरी में मणिभद्र चैत्य में बहुत – से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों, श्राविकाओं, देवों, देवियों की परिषद् के बीच श्रमण भगवान् महावीर ने शस्त्रपरिज्ञादि को ज्यों श्रुतस्कन्धादि में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का आख्यान किया – भाषण किया, निरूपण किया, प्ररूपण किया। विस्मरणशील श्रोतृवृन्द पर |