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Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

५. संसारचक्रसूत्र Hindi 45 View Detail
Mool Sutra: अध्रुवेऽशाश्वते, संसारे दुःखप्रचुरके। किं नाम भवेत् तत् कर्मकं, येनाहं दुर्गतिं न गच्छेयम्।।१।।

Translated Sutra: अध्रुव, अशाश्वत और दुःख-बहुल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

५. संसारचक्रसूत्र Hindi 46 View Detail
Mool Sutra: क्षणमात्रसौख्या बहुकालदुःखाः, प्रकामदुःखाः अनिकामसौख्याः। संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः, खानिरनर्थानां तु कामभोगाः।।२।।

Translated Sutra: ये काम-भोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुःख देनेवाले हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देनेवाले हैं, संसार-मुक्ति के विरोधी और अनर्थों की खान हैं।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

५. संसारचक्रसूत्र Hindi 50 View Detail
Mool Sutra: भोगामिषदोषविषण्णः, हितनिःश्रेयसबुद्धिविपर्यस्तः। बालश्च मन्दितः मूढः, वध्यते मक्षिकेव श्लेष्मणि।।६।।

Translated Sutra: आत्मा को दूषित करनेवाले भोगामिष (आसक्ति-जनक भोग) में निमग्न, हित और श्रेयस् में विपरीत बुद्धिवाला, अज्ञानी, मन्द और मूढ़ जीव उसी तरह (कर्मों से) बँध जाता है, जैसे श्लेष्म में मक्खी।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

५. संसारचक्रसूत्र Hindi 55 View Detail
Mool Sutra: जन्म दुःखं,जरा दुःखं रोगाश्च मरणानि च। अहो दुःखः खलु संसारः, यत्र क्लिश्यन्ति जन्तवः।।११।।

Translated Sutra: जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है, और मृत्यु दुःख है। अहो ! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

६. कर्मसूत्र Hindi 58 View Detail
Mool Sutra: कायेन वचसा मत्तः, वित्ते गृद्धश्च स्त्रीषु। द्विधा मलं संचिनोति, शिशुनाग इव मृत्तिकाम्।।३।।

Translated Sutra: (प्रमत्त मनुष्य) शरीर और वाणी से मत्त होता है तथा धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है। वह राग और द्वेष--दोनों से उसी प्रकार कर्म-मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग (अलस या केंचुआ) मुख और शरीर--दोनों से मिट्टी का संचय करता है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

६. कर्मसूत्र Hindi 59 View Detail
Mool Sutra: न तस्य विभजन्ते ज्ञातयः, न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः। एकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखं, कर्तारमेवानुयाति कर्म।।४।।

Translated Sutra: ज्ञाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बँटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है। क्योंकि कर्म कर्त्ता का अनुगमन करता है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

६. कर्मसूत्र Hindi 64 View Detail
Mool Sutra: ज्ञानस्यावरणीयं, दर्शनावरणं तथा। वेदनीयं तथा मोहम्, आयुःकर्म तथैव च।।९।।

Translated Sutra: ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय--ये संक्षेप में आठ कर्म हैं। संदर्भ ६४-६५
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

६. कर्मसूत्र Hindi 65 View Detail
Mool Sutra: नामकर्म च गोत्रं च, अन्तरायं तथैव च। एवमेतानि कर्माणि, अष्टैव तु समासतः।।१०।।

Translated Sutra: कृपया देखें ६४; संदर्भ ६४-६५
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

८. राग-परिहारसूत्र Hindi 71 View Detail
Mool Sutra: रागश्च द्वेषोऽपि च कर्मबीजं, कर्मं च मोहप्रभवं वदन्ति। कर्मं च जातिमरणस्य मूलम्, दुःखं च जातिमरणं वदन्ति।।१।।

Translated Sutra: राग और द्वेष कर्म के बीज (मूल कारण) हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

८. राग-परिहारसूत्र Hindi 76 View Detail
Mool Sutra: कामानुगृद्धिप्रभवं खलु दुःखं, सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य। यत् कायिकं मानसिकं च किञ्चित्, तस्यान्तकं गच्छति वीतरागः।।६।।

Translated Sutra: सब जीवों का, और क्या देवताओं का भी जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख है, वह काम-भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतरागी उस दुःख का अन्त पा जाता है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

८. राग-परिहारसूत्र Hindi 78 View Detail
Mool Sutra: एवं स्वसंकल्पविकल्पनासु, संजायते समतोपस्थितस्य। अर्थांश्च संकल्पयतस्तस्य, प्रहीयते कामगुणेषु तृष्णा।।८।।

Translated Sutra: अपने राग-द्वेषात्मक संकल्प-विकल्प ही सब दोषों के मूल हैं--जो इस प्रकार के चिन्तन में उद्यत होता है तथा इन्द्रिय-विषय दोषों के मूल नहीं हैं--इस प्रकार का संकल्प करता है, उसके मन में समता उत्पन्न होती है। उससे उसकी काम-गुणों में होनेवाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

८. राग-परिहारसूत्र Hindi 81 View Detail
Mool Sutra: भावे विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुःखौघपरम्परया। न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम्।।११।।

Translated Sutra: भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी अनेक दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

९. धर्मसूत्र Hindi 93 View Detail
Mool Sutra: मृषावाक्यस्य पश्चाच्च पुरस्ताच्च, प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः। एवमदत्तानि समाददानः, रूपेऽतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः।।१२।।

Translated Sutra: असत्य भाषण के पश्चात् मनुष्य यह सोचकर दुःखी होता है कि वह झूठ बोलकर भी सफल नहीं हो सका। असत्य भाषण से पूर्व इसलिए व्याकुल रहता है कि वह दूसरे को ठगने का संकल्प करता है। वह इसलिए भी दुःखी रहता है कि कहीं कोई उसके असत्य को जान न ले। इस प्रकार असत्य-व्यवहार का अन्त दुःखदायी ही होता है। इसी तरह विषयों में अतृप्त होकर
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

९. धर्मसूत्र Hindi 97 View Detail
Mool Sutra: यथा लाभस्तथा लोभः, लाभाल्लोभः प्रवर्धते। द्विमाषकृतं कार्यं, कोट्याऽपि न निष्ठितम्।।१६।।

Translated Sutra: जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ होता है। लाभ से लोभ बढ़ता जाता है। दो माषा (उदड) सोने से निष्पन्न (पूरा) होनेवाला कार्य करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं से भी पूरा नहीं होता। (यह निष्कर्ष कपिल नामक व्यक्ति की तृष्णा के उतार-चढ़ाव के परिणाम को सूचित करता है।)
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

९. धर्मसूत्र Hindi 98 View Detail
Mool Sutra: सुवर्णरूप्यस्य च पर्वता भवेयुः स्यात् खलु कैलाससमा असंख्यकाः। नरस्य लुब्धस्य न तैः किञ्चित्, इच्छा खलु आकाशसमा अनन्तिका।।१७।।

Translated Sutra: कदाचित् सोने और चाँदी के कैलास के समान असंख्य पर्वत हो जायँ, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता (तृप्ति नहीं होती), क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

९. धर्मसूत्र Hindi 109 View Detail
Mool Sutra: यथा पद्मं जले जातं, नोपलिप्यते वारिणा। एवमलिप्तं कामैः, तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम्।।२८।।

Translated Sutra: जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार काम-भोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

९. धर्मसूत्र Hindi 110 View Detail
Mool Sutra: दुःखं हतं यस्य न भवति मोहः, मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा। तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः, लोभो हतो यस्य न किञ्चन।।२९।।

Translated Sutra: जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया (और) जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का (ही) नाश कर दिया।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

९. धर्मसूत्र Hindi 118 View Detail
Mool Sutra: या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते। अधर्मं कुर्वाणस्य, अफलाः यान्ति रात्रयः।।३७।।

Translated Sutra: जो-जो रात बीत रही है वह लौटकर नहीं आती। अधर्म करनेवाले की रात्रियाँ निष्फल चली जाती हैं।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

९. धर्मसूत्र Hindi 119 View Detail
Mool Sutra: यथा च त्रयो वणिजः, मूलं गृहीत्वा निर्गताः। एकोऽत्र लभते लाभम्, एको मूलेन आगतः।।३८।।

Translated Sutra: जैसे तीन वणिक् मूल पूँजी को लेकर निकले। उनमें से एक लाभ उठाता है, एक मूल लेकर लौटता है, और एक मूल को भी गँवाकर वापस आता है। यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में जानना चाहिए। संदर्भ ११९-१२०
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

९. धर्मसूत्र Hindi 120 View Detail
Mool Sutra: एकः मूलम् अपि हारयित्वा, आगतस्तत्र वाणिजः। व्यवहारे उपमा एषा, एवं धर्मे विजानीत।।३९।।

Translated Sutra: कृपया देखें ११९; संदर्भ ११९-१२०
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१०. संयमसूत्र Hindi 122 View Detail
Mool Sutra: आत्मा नदी वैतरणी, आत्मा मे कूटशाल्मली। आत्मा कामदुधा धेनुः, आत्मा मे नन्दनं वनम्।।१।।

Translated Sutra: (मेरी) आत्मा ही वैतरणी नदी है। आत्मा ही कूटशाल्मली वृक्ष है। आत्मा ही कामदुहा धेनु है और आत्मा ही नन्दनवन है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१०. संयमसूत्र Hindi 123 View Detail
Mool Sutra: आत्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च। आत्मा मित्रममित्रम् च, दुष्प्रस्थितः सुप्रस्थितः।।२।।

Translated Sutra: आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता (भोक्ता) है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१०. संयमसूत्र Hindi 124 View Detail
Mool Sutra: एक आत्माऽजितः शत्रुः,कषाया इन्द्रियाणि च। तान् जित्वा यथान्यायं, विहराम्यहं मुने !।।३।।

Translated Sutra: अविजित एक अपना आत्मा ही शत्रु है। अविजित कषाय और इन्द्रियाँ ही शत्रु हैं। हे मुने ! मैं उन्हें जीतकर यथान्याय (धर्मानुसार) विचरण करता हूँ।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१०. संयमसूत्र Hindi 125 View Detail
Mool Sutra: यः सहस्रं सहस्राणां, सङ्ग्रामे दुर्जये जयेत्। एकं जयेदात्मानम्, एष तस्य परमो जयः।।४।।

Translated Sutra: जो दुर्जेय संग्राम में हजारों-हजार योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है उसकी विजय ही परमविजय है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१०. संयमसूत्र Hindi 126 View Detail
Mool Sutra: आत्मानमेव योधयस्व, किं ते युद्धेन बाह्यतः। आत्मानमेव आत्मानं, जित्वा सुखमेधते।।५।।

Translated Sutra: बाहरी युद्धों से क्या ? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। अपने से अपने को जीतकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१०. संयमसूत्र Hindi 127 View Detail
Mool Sutra: आत्मा चैव दमितव्यः, आत्मा एव खलु दुर्दमः। आत्मा दान्तः सुखी भवति, अस्मिंल्लोके परत्र च।।६।।

Translated Sutra: स्वयं पर ही विजय प्राप्त करना चाहिए। अपने पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है। आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१०. संयमसूत्र Hindi 128 View Detail
Mool Sutra: वरं मयात्मा दान्तः, संयमेन तपसा च। माऽहं परैर्दम्यमानः, बन्धनैर्वधैश्च।।७।।

Translated Sutra: उचित यही है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपने पर विजय प्राप्त करूँ। बन्धन और वध के द्वारा दूसरों से मैं दमित (प्रताड़ित) किया जाऊँ, यह ठीक नहीं है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१०. संयमसूत्र Hindi 129 View Detail
Mool Sutra: एकतो विरतिं कुर्यात्, एकतश्च प्रवर्तनम्। असंयमान्निवृत्तिं च, संयमे च प्रवर्तनम्।।८।।

Translated Sutra: एक ओर से निवृत्ति और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करना चाहिए-असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१०. संयमसूत्र Hindi 130 View Detail
Mool Sutra: रागो द्वेषः च द्वौ पापौ, पापकर्मप्रवर्तकौ। यो भिक्षुः रुणद्धि नित्यं, स न आस्ते मण्डले।।९।।

Translated Sutra: पापकर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष ये दो पाप हैं। जो भिक्षु इनका सदा निरोध करता है वह मंडल (संसार) में नहीं रुकता-मुक्त हो जाता है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१०. संयमसूत्र Hindi 139 View Detail
Mool Sutra: धर्मारामे चरेद् भिक्षुः, धृतिमान् धर्मसारथिः। धर्मारामरतो दान्तः, ब्रह्मचर्यसमाहितः।।१८।।

Translated Sutra: धैर्यवान्, धर्म के रथ को चलानेवाला, धर्म के आराम में रत, दान्त और ब्रह्मचर्य में चित्त का समाधान पानेवाला भिक्षु धर्म के आराम में विचरण करे।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१३. अप्रमादसूत्र Hindi 160 View Detail
Mool Sutra: इदं च मेऽस्ति इदं च नास्ति, इदं च मे कृत्यमिदमकृत्यम्। तमेवमेवं लालप्यमानं, हरा हरन्तीति कथं प्रमादः?।।१।।

Translated Sutra: यह मेरे पास है और यह नहीं है, वह मुझे करना है और यह नहीं करना है -- इस प्रकार वृथा बकवास करते हुए पुरुष को उठानेवाला (काल) उठा लेता है। इस स्थिति में प्रमाद कैसे किया जाय ?
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१३. अप्रमादसूत्र Hindi 163 View Detail
Mool Sutra: सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी, न विश्वसेत् पण्डित आशुप्रज्ञः। घोराः मुहूर्त्ता अबलं शरीरम्, भारण्डपक्षीव चरेद् अप्रमत्तः।।४।।

Translated Sutra: आशुप्रज्ञ पंडित सोये हुए व्यक्तियों के बीच भी जागृत रहे, प्रमाद में विश्वास न करे। मुहूर्त बड़े घोर (निर्दयी) होते हैं, शरीर दुर्बल है, इसलिए वह भारण्ड पक्षी की भाँति अप्रमत्त होकर विचरण करे।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१४. शिक्षासूत्र Hindi 171 View Detail
Mool Sutra: अथ पञ्चभिः स्थानैः, यैः शिक्षा न लभ्यते। स्तम्भात् क्रोधात् प्रमादेन, रोगेणालस्यकेन च।।२।।

Translated Sutra: इन पाँच स्थानों या कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती : १. अभिमान, २. क्रोध, ३. प्रमाद, ४. रोग और ५. आलस्य।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१४. शिक्षासूत्र Hindi 172 View Detail
Mool Sutra: अथाष्टभिः स्थानैः, शिक्षाशील इत्युच्यते। अहसनशीलः सदा दान्तः, न च मर्म उदाहरेत्।।३।।

Translated Sutra: इन आठ स्थितियों या कारणों से मनुष्य शिक्षाशील कहा जाता है : १. हँसी-मजाक नहीं करना, २. सदा इन्द्रिय और मन का दमन करना, ३. किसीका रहस्योद्घाटन न करना, ४. अशील (सर्वथा आचारविहीन) न होना, ५. विशील (दोषों से कलंकित) न होना, ६. अति रसलोलुप न होना, ७. अक्रोधी रहना तथा ८. सत्यरत होना। संदर्भ १७२-१७३
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१४. शिक्षासूत्र Hindi 173 View Detail
Mool Sutra: नाशीलो न विशीलः, न स्यादतिलोलुपः। अक्रोधनः सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते।।४।।

Translated Sutra: कृपया देखें १७२; संदर्भ १७२-१७३
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१४. शिक्षासूत्र Hindi 175 View Detail
Mool Sutra: वसेद् गुरुकुले नित्यं, योगवानुपधानवान्। प्रियंकरः प्रियंवादी, स शिक्षां लब्धुमर्हति।।६।।

Translated Sutra: जो सदा गुरुकुल में वास करता है, जो समाधियुक्त होता है, जो उपधान (श्रुत-अध्ययन के समय) तप करता है, जो प्रिय करता है, जो प्रिय बोलता है, वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

प्रथम खण्ड – ज्योतिर्मुख

१४. शिक्षासूत्र Hindi 176 View Detail
Mool Sutra: यथा दीपात् दीपशतं, प्रदीप्यते स च दीप्यते दीपः। दीपसमा आचार्याः, दीप्यन्ते परं च दीपयन्ति।।७।।

Translated Sutra: जैसे एक दीप से सैकड़ों दीप जल उठते हैं और वह स्वयं भी दीप्त रहता है, वैसे ही आचार्य दीपक के समान होते हैं। वे स्वयं प्रकाशवान् रहते हैं, और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

१६. मोक्षमार्गसूत्र Hindi 205 View Detail
Mool Sutra: तत्र स्थित्वा यथास्थानं, यक्षा आयुःक्षये च्युताः। उपयान्ति मानुषीं योनिम्, स दशाङ्गोऽभिजायते।।१४।।

Translated Sutra: (पुण्य के प्रताप से) देवलोक में यथास्थान रहकर आयुक्षय होने पर देवगण वहाँ से लौटकर मनुष्य-योनि में जन्म लेते हैं। वहाँ वे दशांग भोग-सामग्री से युक्त होते हैं।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

१६. मोक्षमार्गसूत्र Hindi 206 View Detail
Mool Sutra: भुक्त्वा मानुष्कान् भोगान्, अप्रतिरूपान् यथायुष्कम्। पूर्वं विशुद्धसद्धर्मा, केवलां बोधिं बुद्ध्वा।।१५।।

Translated Sutra: जीवनपर्यन्त अनुपम मानवीय भोगों को भोगकर पूर्वजन्म में विशुद्ध समीचीन धर्माराधन के कारण निर्मल बोधि का अनुभव करते हैं और चार अंगों (मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा तथा वीर्य) को दुर्लभ जानकर वे संयम-धर्म स्वीकार करते हैं और फिर तपश्चर्या से कर्मों का नाश करके शाश्वत सिद्धपद को प्राप्त होते हैं। संदर्भ २०६-२०७
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

१६. मोक्षमार्गसूत्र Hindi 207 View Detail
Mool Sutra: चतुरङ्गं दुर्लभं ज्ञात्वा, संयमं प्रतिपद्य। तपसा घूतकर्मांशः, सिद्धो भवति शाश्वतः।।१६।।

Translated Sutra: कृपया देखें २०६; संदर्भ २०६-२०७
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

१७. रत्नत्रयसूत्र Hindi 209 View Detail
Mool Sutra: ज्ञानेन जानाति भावान्, दर्शनेन च श्रद्धत्ते। चारित्रेण निगृह्णाति, तपसा परिशुध्यति।।२।।

Translated Sutra: (मनुष्य) ज्ञान से जीवादि पदार्थों को जानता है, दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से (कर्मास्रव का) निरोध करता है और तप से विशुद्ध होता है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

१७. रत्नत्रयसूत्र Hindi 211 View Detail
Mool Sutra: नादर्शनिनो ज्ञानं, ज्ञानेन विना न भवन्ति चरणगुणाः। अगुणिनो नास्ति मोक्षः, नास्त्यमोक्षस्य निर्वाणम्।।४।।

Translated Sutra: सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चारित्रगुण नहीं होता। चारित्रगुण के बिना मोक्ष (कर्मक्षय) नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण (अनंतआनंद) नहीं होता।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

१८. सम्यग्दर्शनसूत्र Hindi 231 View Detail
Mool Sutra: निःशंकितं निःकाङ्क्षितं, निर्विचिकित्सा अमूढदृष्टिश्च। उपबृंहा स्थिरीकरणे, वात्सल्य प्रभावनाऽष्टौ।।१३।।

Translated Sutra: सम्यग्दर्शन के ये आठ अंग हैं : निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

१८. सम्यग्दर्शनसूत्र Hindi 234 View Detail
Mool Sutra: न सत्कृतिमिच्छति न पूजां, नोऽपि च वन्दनकं कुतः प्रशंसाम्। स संयतः सुव्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषकः स भिक्षुः।।१६।।

Translated Sutra: जो सत्कार, पूजा और वन्दना तक नहीं चाहता, वह किसीसे प्रशंसा की अपेक्षा कैसे करेगा ? (वास्तव में) जो संयत है, सुव्रती है, तपस्वी है और आत्मगवेषी है, वही भिक्षु है।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

१८. सम्यग्दर्शनसूत्र Hindi 238 View Detail
Mool Sutra: ज्ञानेन दर्शनेन च, चारित्रेण तथैव च। क्षान्त्या मुक्त्या, वर्धमानो भव च।।२०।।

Translated Sutra: ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, शान्ति (क्षमा) एवं मुक्ति (निर्लोभता) के द्वारा आगे बढ़ना चाहिए--जीवन को वर्धमान बनाना चाहिए।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

१८. सम्यग्दर्शनसूत्र Hindi 241 View Detail
Mool Sutra: तीर्णः खलु असि अर्णवं महान्तं, किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः। अभित्वरस्व पारं गन्तुं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः।।२३।।

Translated Sutra: तूं महासागर को तो पार कर गया है, अब तट के निकट पहुँचकर क्यों खड़ा है ? उसे पार करने में शीघ्रता कर। हे गौतम ! क्षणभर का भी प्रमाद मत कर।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२०. सम्यक्‌चारित्रसूत्र Hindi 273 View Detail
Mool Sutra: मासे मासे तु यो बालः, कुशाग्रेण तु भुङ्क्ते। न स स्वाख्यातधर्मस्य, कलामर्घति षोडशीम्।।१२।।

Translated Sutra: जो बाल (परमार्थशून्य अज्ञानी) महीने-महीने के तप करता है और (पारणा में) कुश के अग्रभाव जितना (नाममात्र का) भोजन करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकता।
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२०. सम्यक्‌चारित्रसूत्र Hindi 286 View Detail
Mool Sutra: श्रद्धां नगरं कृत्वा, तपःसंवरमर्गलाम्। क्षान्तिं निपुणप्राकारं, त्रिगुप्तं दुष्प्रधर्षकम्।।२५।।

Translated Sutra: श्रद्धा को नगर, तप और संवर को अर्गला, क्षमा को (बुर्ज, खाई और शतघ्नीस्वरूप) त्रिगुप्ति (मन-वचन-काय) से सुरक्षित तथा अजेय सुदृढ़ प्राकार बनाकर तपरूप वाणी से युक्त धनुष से कर्म-कवच को भेदकर (आंतरिक) संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है। संदर्भ २८६-२८७
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२०. सम्यक्‌चारित्रसूत्र Hindi 287 View Detail
Mool Sutra: तपोनाराचयुक्तेन, भित्वा कर्मकञ्चुकम्। मुनिर्विगतसंग्रामः, भवात् परिमुच्यते।।२६।।

Translated Sutra: कृपया देखें २८६; संदर्भ २८६-२८७
Saman Suttam समणसुत्तं Sanskrit

द्वितीय खण्ड - मोक्ष-मार्ग

२१. साधनासूत्र Hindi 289 View Detail
Mool Sutra: ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया, अज्ञानमोहस्य विवर्जनया। रागस्य द्वेषस्य च संक्षयेण, एकान्तसौख्यं समुपैति मोक्षम्।।२।।

Translated Sutra: सम्पूर्णज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह के परिहार से तथा राग-द्वेष के पूर्णक्षय से जीव एकान्त सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता है।
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