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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-४ | Hindi | 244 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिन्नि सया चउद्दसपुव्वीणं अजिणाणं जिनसंकासाणं सव्वक्खर-सन्निवातीणं जिणाणं इव अवितहं वागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुव्विसंपया हुत्था। Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ने जिन नहीं किन्तु जिन के समान, सर्वाक्षरसन्निपाती ‘सब भाषाओं के वेत्ता’ और जिन के समान यथातथ्य कहने वाले चौदह पूर्वधर मुनियों की उत्कृष्ट सम्पदा ‘संख्या’ तीन सौ थी। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Hindi | 259 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने नेरइए निरयलोगंसि इच्छेज्जा मानुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए–
१. अहुणोववन्ने नेरइए निरयलोगंसि समुब्भूयं वेयणं वेयमाने इच्छेज्जा मानुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए।
२. अहुणोववन्ने नेरइए निरयलोगंसि निरयपालेहिं भुज्जो-भुज्जो अहिट्ठिज्जमाने इच्छेज्जा मानुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए।
३. अहुणोववन्ने नेरइए निरयवेयणिज्जंसि कम्मंसि अक्खीणंसि अवेइयंसि अनिज्जिण्णंसि इच्छेज्जा मानुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए।
४. Translated Sutra: चार कारणों से नरक में नवीन उत्पन्न नैरयिक मनुष्य लोक में शीघ्र आने की ईच्छा करता है परन्तु आने में समर्थ नहीं होता है, यथा – नरकलोक में नवीन उत्पन्न हुआ नैरयिक वहाँ होने वाली प्रबल वेदना का अनुभव करता हुआ मनुष्यलोक शीघ्र आने की ईच्छा करता है किन्तु शीघ्र आने में समर्थ नहीं होता है, नरकपालों के द्वारा पुनः पुनः | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Hindi | 282 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पढमसमयजिणस्स णं चत्तारि कम्मंसा खीणा भवंति, तं जहा– नाणावरणिज्जं, दंसणावरणिज्जं, मोहणिज्जं, अंतराइयं।
[सूत्र] उप्पन्ननाणदंसणधरे णं अरहा जिने केवली चत्तारि कम्मंसे वेदेति, तं जहा–वेदणिज्जं, आउयं, नामं, गोतं।
[सूत्र] पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिज्जंति, तं जहा– वेयणिज्जं, आउयं, नामं, गोतं। Translated Sutra: प्रथम समय जिन के चार कर्म – प्रकृतियाँ क्षीण होती हैं, यथा – ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय। केवल ज्ञान – दर्शन जिन्हें उत्पन्न हुआ है, ऐसे अर्हन्, जिन केवल चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं, यथा – वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र। प्रथम समय सिद्ध के चार कर्मप्रकृतियाँ एक साथ क्षीण होती हैं, यथा – | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-२ | Hindi | 311 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–संपागडपडिसेवी नाममेगे, पच्छन्नपडिसेवी नाममेगे, पडुप्पन्नणंदी नाममेगे, णिस्सरणणंदी नाममेगे।
चत्तारि सेणाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–जइत्ता नाममेगा नो पराजिणित्ता, पराजिणित्ता नाममेगा नो जइत्ता, एगा जइत्तावि पराजिणित्तावि, एगा नो जइत्ता नो पराजिणित्ता।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–जइत्ता नाममेगे नो पराजिणित्ता, पराजिणित्ता नाममेगे नो जइत्ता, एगे जइत्तावि पराजिणित्तावि, एगे नो जइत्ता नो पराजिणित्ता।
चत्तारि सेणाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–जइत्ता नाममेगा जयइ, जइत्ता नाममेगा पराजिणति, पराजिणित्ता नाममेगा जयइ, पराजिणित्ता Translated Sutra: पुरुष चार प्रकार के हैं। यथा – संप्रगट प्रतिसेवी – साधु समुदाय में रहने वाला एक साधु अगीतार्थ के समक्ष दोष सेवन करते हैं। प्रच्छन्नप्रतिसेवी – एक साधु प्रच्छन्न दोष सेवन करता है। प्रत्युत्पन्न नंदी – एक साधु वस्त्र या शिष्य के लाभ से आनन्द मनाता है। निःसरण नंदी – एक साधु गच्छ में से स्वयं के या शिष्य के नीकलने | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-२ | Hindi | 327 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवाल-विक्खंभस्स बहुमज्झदेसभागे चउद्दिसिं चत्तारि अंजनगपव्वता पन्नत्ता, तं जहा– पुरत्थिमिल्ले अंजनगपव्वते, दाहिणिल्ले अंजनगपव्वते, पच्चत्थिमिल्ले अंजनगपव्वते, उत्तरिल्ले अंजनगपव्वते। ते णं अंजनगपव्वता चउरासीति जोयणसहस्साइं उड्ढं उच्चत्तेणं, एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, मूले दसजोयणसहस्सं उव्वेहेणं, मूले दस-जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, तदणंतरं च णं मायाए-मायाए परिहायमाणा-परिहायमाणा उवरिमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं पन्नत्ता मूले इक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, उवरिं तिन्नि-तिन्नि जोयणसहस्साइं एगं च बावट्ठं Translated Sutra: वलयाकार विष्कम्भ वाले नन्दीश्वर द्वीप के मध्य चारों दिशाओं में चार अंजनक पर्वत हैं। यथा – पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में। वे अंजनक पर्वत ८४,००० योजन ऊंचे हैं और एक हजार योजन भूमि में गहरे हैं। उन पर्वतों के मूल का विष्कम्भ दस हजार योजन का है। फिर क्रमशः कम होते होते ऊपर का विष्कम्भ एक हजार योजन | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Hindi | 415 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अरहतो णं अरिट्ठणेमिस्स चत्तारि सया चोद्दसपुव्वीणमजिणाणं जिनसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवाईणं जिणाणं इव अवितथं वागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुव्विसंपया हुत्था। Translated Sutra: अर्हन्त अरिष्टनेमि – (नेमिनाथ) के चार सौ चौदह पूर्वधारी श्रमणों की उत्कृष्ट सम्पदा थी। वे जिन न होते हुए भी जिनसदृश थे। जिन की तरह पूर्ण यथार्थ वक्ता थे और सर्व अक्षर संयोगों के पूर्ण ज्ञाता थे। | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-५ |
उद्देशक-१ | Hindi | 430 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंचहिं ठाणेहिं पुरिम-पच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवति, तं जहा– दुआइक्खं, दुव्विभज्जं, दुपस्सं, दुतितिक्खं, दुरणुचरं।
पंचहिं ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुग्गमं भवति, तं जहा–सुआइक्खं, सुविभज्जं, सुपस्सं, सुतितिक्खं, सुरनुचरं।
पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणंनिच्चं वण्णिताइं निच्चं कित्तिताइं निच्चं बुइयाइं निच्चं पसत्थाइं निच्चमब्भणुण्णाताइं भवंति, तं जहा–खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे।
पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणंनिच्चं वण्णिताइं निच्चं कित्तिताइं निच्चं बुइयाइं निच्चं पसत्थाइं निच्चं अब्भणुण्णाताइं Translated Sutra: पाँच कारणों से प्रथम और अन्तिम जिन का उपदेश उनके शिष्यों को उन्हें समझने में कठिनाई होती है। दुराख्येय – आयास साध्य व्याख्या युक्त। दुर्विभजन – विभाग करने में कष्ट होता है। दुर्दर्श – कठिनाई से समझ में आता है। दुःसह – परीषह सहन करने में कठिनाई होती है। दुरनुचर – जिनाज्ञानुसार आचरण करने में कठिनाई होती है। पाँच | |||||||||
Sthanang | स्थानांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
स्थान-९ |
Hindi | 875 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे भविस्सइ, से य पडिबंधे चउव्विहे पन्नत्ता तं जहा- अंडएइ वा पोयएइ वा उग्गहेइ वा पग्गहिएइ वा, जं णं जं णं दिसं इच्छइ तं णं तं णं दिसं अपडिबद्धे सुचिभूए लहुभूए अणप्पगंथे संजमेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरिस्सइ,
तस्स णं भगवंतस्स अनुत्तरेणं नाणेणं अनुत्तरेणं दंसणेणं अनुत्तरेणं चरित्तेणं एवं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं खंत्तीए मुत्तीए गुत्तीए सच्च संजम तव गुण सुचरिय सोय चिय फल-परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अनंते अनुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पजिहिति Translated Sutra: उन विमलवाहन भगावन का किसी में प्रतिबंध (ममत्व) नहीं होगा। प्रतिबंध चार प्रकार के हैं, यथा – अण्डज, पोतज, अवग्रहिक, प्रग्रहिक। ये अण्डज – हंस आदि मेरे हैं, ये पोतज – हाथी आदि मेरे हैं, ये अवग्रहिक – मकान, पाट, फलक आदि मेरे हैं। ये प्रग्रहिक – पात्र आदि मेरे हैं। ऐसा ममत्वभाव नहीं होगा। वे विमलवाहन भगवान जिस – जिस | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-२ | Gujarati | 172 | Gatha | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सुतित्ता असुतित्ता जुज्झित्ता खलु तहा अजुज्झित्ता ।
जयित्ता अजयित्ता य पराजिणिता चेव नो चेव ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૬૮ | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-२ | Gujarati | 173 | Gatha | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सद्दा रूवा गंधा रसा य फ़ासा तहेव ठाणा य ।
निसिलस्स गरहिता पसत्त्थ पुण सीलवंतस्स ॥
[सूत्र] तओ पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–आगंता नामेगे सुमणे भवति, आगंता नामेगे दुम्मणे भवति, आगंता नामेगे नोसुमणे-नोदुम्मणे भवति।
तओ पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–एमीतेगे सुमणे भवति, एमीतेगे दुम्मणे भवति, एमीतेगे नोसुमणे-नोदुम्मणे भवति।
तओ पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–एस्सामीतेगे सुमणे भवति, एस्सामीतेगे दुम्मणे भवति, एस्सामीतेगे नोसुमणे-नोदुम्मणेभवति।
तओ पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–अनागंता नामेगे सुमणे भवति, अनागंता नामेगे दुम्मणे भवति, अनागंता नामेगे नोसुमणे-नोदुम्मणे भवति।
तओ पुरिसजाया Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૬૮ | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-४ | Gujarati | 220 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: तिविधा कप्पठिती पन्नत्ता, तं जहा– सामाइयकप्पठिती, छेदोवट्ठावणियकप्पठिती, नीव्विसमाण-कप्पठिती।
अहवा–तिविहा कप्पट्ठिती पन्नत्ता, तं जहा– नीव्विट्ठकप्पट्ठिती, जिणकप्पट्ठिती, थेरकप्पट्ठिती। Translated Sutra: કલ્પસ્થિતિ(સાધુની આચારમર્યાદા) ત્રણ પ્રકારે છે – સામાયિક કલ્પસ્થિતિ, છેદોપસ્થાપનીય કલ્પસ્થિતિ, નિર્વિશમાનકલ્પસ્થિતિ. અથવા કલ્પસ્થિતિ ત્રણ પ્રકારે – નિર્વિષ્ટકલ્પસ્થિતિ, જિનકલ્પસ્થિતિ, સ્થવિરકલ્પ સ્થિતિ | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-४ | Gujarati | 234 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ जिणा पन्नत्ता, तं जहा–ओहिनाणजिने, मनपज्जवनाणजिने, केवलनाणजिने।
तओ केवली पन्नत्ता, तं जहा–ओहिनाणकेवली, मनपज्जवनाणकेवली, केवलनाणकेवली।
तओ अरहा पन्नत्ता, तं जहा–ओहिनाणअरहा, मनपज्जवनाणाअरहा, केवलनाणअरहा। Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૩૨ | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-३ |
उद्देशक-४ | Gujarati | 244 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिन्नि सया चउद्दसपुव्वीणं अजिणाणं जिनसंकासाणं सव्वक्खर-सन्निवातीणं जिणाणं इव अवितहं वागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुव्विसंपया हुत्था। Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૪૦ | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Gujarati | 259 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चउहिं ठाणेहिं अहुणोववन्ने नेरइए निरयलोगंसि इच्छेज्जा मानुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए–
१. अहुणोववन्ने नेरइए निरयलोगंसि समुब्भूयं वेयणं वेयमाने इच्छेज्जा मानुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए।
२. अहुणोववन्ने नेरइए निरयलोगंसि निरयपालेहिं भुज्जो-भुज्जो अहिट्ठिज्जमाने इच्छेज्जा मानुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए।
३. अहुणोववन्ने नेरइए निरयवेयणिज्जंसि कम्मंसि अक्खीणंसि अवेइयंसि अनिज्जिण्णंसि इच्छेज्जा मानुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, नो चेव णं संचाएति हव्वमागच्छित्तए।
४. Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૫૮ | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-१ | Gujarati | 282 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पढमसमयजिणस्स णं चत्तारि कम्मंसा खीणा भवंति, तं जहा– नाणावरणिज्जं, दंसणावरणिज्जं, मोहणिज्जं, अंतराइयं।
[सूत्र] उप्पन्ननाणदंसणधरे णं अरहा जिने केवली चत्तारि कम्मंसे वेदेति, तं जहा–वेदणिज्जं, आउयं, नामं, गोतं।
[सूत्र] पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिज्जंति, तं जहा– वेयणिज्जं, आउयं, नामं, गोतं। Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૨૮૧ | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-२ | Gujarati | 311 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–संपागडपडिसेवी नाममेगे, पच्छन्नपडिसेवी नाममेगे, पडुप्पन्नणंदी नाममेगे, णिस्सरणणंदी नाममेगे।
चत्तारि सेणाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–जइत्ता नाममेगा नो पराजिणित्ता, पराजिणित्ता नाममेगा नो जइत्ता, एगा जइत्तावि पराजिणित्तावि, एगा नो जइत्ता नो पराजिणित्ता।
एवामेव चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा–जइत्ता नाममेगे नो पराजिणित्ता, पराजिणित्ता नाममेगे नो जइत्ता, एगे जइत्तावि पराजिणित्तावि, एगे नो जइत्ता नो पराजिणित्ता।
चत्तारि सेणाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–जइत्ता नाममेगा जयइ, जइत्ता नाममेगा पराजिणति, पराजिणित्ता नाममेगा जयइ, पराजिणित्ता Translated Sutra: ૧. ચાર ભેદે પુરુષો કહ્યા – સંપ્રકટ પ્રતિસેવી – (પ્રગટ રૂપે દોષનું સેવન કરનાર), પ્રચ્છન્ન પ્રતિસેવી – ગુપ્ત રૂપે દોષનું સેવન કરનાર),, પ્રત્યુત્પન્ન નંદી – (વર્તમાનમાં ઇષ્ટ વસ્તુની પ્રાપ્તિમાં આનંદ માનનાર), નિસ્સરણનંદી. ૨. સેના ચાર ભેદે છે – જીતનારી પણ પરાજિત ન થનાર, પરાજિત થનાર પણ ન જીતનાર, જીતનારી અને પરાજય પામનારી, | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-२ | Gujarati | 327 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवाल-विक्खंभस्स बहुमज्झदेसभागे चउद्दिसिं चत्तारि अंजनगपव्वता पन्नत्ता, तं जहा– पुरत्थिमिल्ले अंजनगपव्वते, दाहिणिल्ले अंजनगपव्वते, पच्चत्थिमिल्ले अंजनगपव्वते, उत्तरिल्ले अंजनगपव्वते। ते णं अंजनगपव्वता चउरासीति जोयणसहस्साइं उड्ढं उच्चत्तेणं, एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, मूले दसजोयणसहस्सं उव्वेहेणं, मूले दस-जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं, तदणंतरं च णं मायाए-मायाए परिहायमाणा-परिहायमाणा उवरिमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं पन्नत्ता मूले इक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, उवरिं तिन्नि-तिन्नि जोयणसहस्साइं एगं च बावट्ठं Translated Sutra: સૂત્ર– ૩૨૭. ચક્રવાલ વિષ્કમ્ભવાળા નંદીશ્વરદ્વીપના મધ્યમાં ચારે દિશામાં ચાર અંજનક પર્વત છે – પૂર્વમાં – દક્ષિણમાં – પશ્ચિમ – ઉત્તરનો અંજનક પર્વત. તે અંજનકપર્વત ૮૪,૦૦૦ યોજન ઊંચો છે, ૧૦૦૦ યોજન ભૂમિમાં છે. વિષ્કમ્ભ પણ ૧૦,૦૦૦ યોજન છે. પછી ક્રમશઃ ઘટતા – ઘટતા ઉપર તેનો વિષ્કમ્ભ ૧૦૦૦ યોજનનો છે. તે પર્વતોની પરિધિ મૂલમાં | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-४ |
उद्देशक-४ | Gujarati | 415 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अरहतो णं अरिट्ठणेमिस्स चत्तारि सया चोद्दसपुव्वीणमजिणाणं जिनसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवाईणं जिणाणं इव अवितथं वागरमाणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुव्विसंपया हुत्था। Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૪૧૨ | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-५ |
उद्देशक-१ | Gujarati | 430 | Sutra | Ang-03 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंचहिं ठाणेहिं पुरिम-पच्छिमगाणं जिणाणं दुग्गमं भवति, तं जहा– दुआइक्खं, दुव्विभज्जं, दुपस्सं, दुतितिक्खं, दुरणुचरं।
पंचहिं ठाणेहिं मज्झिमगाणं जिणाणं सुग्गमं भवति, तं जहा–सुआइक्खं, सुविभज्जं, सुपस्सं, सुतितिक्खं, सुरनुचरं।
पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणंनिच्चं वण्णिताइं निच्चं कित्तिताइं निच्चं बुइयाइं निच्चं पसत्थाइं निच्चमब्भणुण्णाताइं भवंति, तं जहा–खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे।
पंच ठाणाइं समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणंनिच्चं वण्णिताइं निच्चं कित्तिताइं निच्चं बुइयाइं निच्चं पसत्थाइं निच्चं अब्भणुण्णाताइं Translated Sutra: પહેલા – છેલ્લા તીર્થંકરોના શિષ્યોને પાંચ સ્થાન કઠીન છે. તે આ – દુરાખ્યેય – (ધર્મતત્ત્વનું આખ્યાન કરવું), દુર્વિભાજ્ય – (ભેદ પ્રભેદ સહવસ્તુતત્ત્વનો ઉપદેશ આપવો), દુર્દર્શ – (તત્ત્વોનું યુક્તિપૂર્વક નિદર્શન), દુરતિતિક્ષ – (પરિષહ ઉપસર્ગ આદિ સહન કરવા), દુરનુચર – (સંયમનું પાલન કરવું). પાંચ સ્થાને મધ્યના ૨૨ – તીર્થંકરોના | |||||||||
Sthanang | સ્થાનાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
स्थान-९ |
Gujarati | 875 | Sutra | Ang-03 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे भविस्सइ, से य पडिबंधे चउव्विहे पन्नत्ता तं जहा- अंडएइ वा पोयएइ वा उग्गहेइ वा पग्गहिएइ वा, जं णं जं णं दिसं इच्छइ तं णं तं णं दिसं अपडिबद्धे सुचिभूए लहुभूए अणप्पगंथे संजमेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरिस्सइ,
तस्स णं भगवंतस्स अनुत्तरेणं नाणेणं अनुत्तरेणं दंसणेणं अनुत्तरेणं चरित्तेणं एवं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं खंत्तीए मुत्तीए गुत्तीए सच्च संजम तव गुण सुचरिय सोय चिय फल-परिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अनंते अनुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पजिहिति Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૮૭૨ | |||||||||
Suryapragnapti | सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१८ |
Hindi | 126 | Sutra | Upang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ता चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो कति अगमहिसीओ पन्नत्ताओ? ता चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–चंदप्पभा दोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि-चत्तारि देवीसाहस्सी परिवारो पन्नत्तो। पभू णं ताओ एगमेगा देवी अन्नाइं चत्तारि-चत्तारि देवीसहस्साइं परिवारं विउव्वित्तए। एवामेव सपुव्वावरेणं सोलस देवीसहस्सा। सेत्तं तुडिए।
ता पभू णं चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंदवडिंसए विमाने सभाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए? नो इणट्ठे समट्ठे।
ता कहं ते नो पभू चंदे जोतिसिंदे जोतिसिया चंदवडिंसए विमाने सभाए सुधम्माए Translated Sutra: ज्योतिष्केन्द्र चंद्र की चार अग्रमहिषीयाँ हैं – चंद्रप्रभा, ज्योत्सनाभा, अर्चिमालिनी एवं प्रभंकरा; एक एक पट्टराणी का चार – चार हजार देवी का परिवार है, वह एक – एक देवी अपने अपने चार हजार रूपों की विकुर्वणा करती हैं इस तरह १६००० देवियों की एक त्रुटीक होती है। वह चंद्र चंद्रावतंसक विमान में सुधर्मासभा में उन | |||||||||
Suryapragnapti | સૂર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
प्राभृत-१८ |
Gujarati | 126 | Sutra | Upang-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] ता चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो कति अगमहिसीओ पन्नत्ताओ? ता चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा–चंदप्पभा दोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि-चत्तारि देवीसाहस्सी परिवारो पन्नत्तो। पभू णं ताओ एगमेगा देवी अन्नाइं चत्तारि-चत्तारि देवीसहस्साइं परिवारं विउव्वित्तए। एवामेव सपुव्वावरेणं सोलस देवीसहस्सा। सेत्तं तुडिए।
ता पभू णं चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंदवडिंसए विमाने सभाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए? नो इणट्ठे समट्ठे।
ता कहं ते नो पभू चंदे जोतिसिंदे जोतिसिया चंदवडिंसए विमाने सभाए सुधम्माए Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૫ | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-१ | Hindi | 27 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उच्चावयाणि गच्छंता गब्भमेस्संतणंतसो ।
नायपुत्ते महावीरे एवमाह जिणोत्तमे ॥ Translated Sutra: वे ऊंच और नीच गतियों में भटकते हुए अनन्त बार गर्भ में आएंगे। – ऐसा जिनेश्वर ज्ञातपुत्र महावीर ने कहा है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-५ नरक विभक्ति |
उद्देशक-२ | Hindi | 349 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं तमेव आगच्छइ संपराए ।
एगंतदुक्खं भवमज्जिणित्ता ‘वेदेंति दुक्खी तमणंतदुक्खं’ । Translated Sutra: पूर्व में जैसा कर्म किया है वही सम्पराय (परभव) में आता है। एकान्त दुःख के भव का अर्जन कर वे दुःखी अनन्त दुःख का वेदन करते हैं। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-३ | Hindi | 161 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इणमेव खणं वियाणिया नो सुलभं ‘बोहिं च’ आहियं ।
एवं सहिएऽहिपासए आह जिणे इणमेव सेसगा ॥ Translated Sutra: इस क्षण को जाने। बोधि और आत्महित सुलभ नहीं है, ऐसा इन जिनेन्द्र ने और शेष जिनेन्द्रों ने भी कहा है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-५ नरक विभक्ति |
उद्देशक-१ | Hindi | 326 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] समज्जिणित्ता कलुसं अणज्जा इट्ठेहि कंतेहि य विप्पहूणा ।
ते दुब्भिगंधे कसिणे य फासे कम्मोवगा कुणिमे आवसंति ॥ Translated Sutra: इष्ट – कांत विषयों से विहीन अनार्य कलुषता उपार्जित कर एवं कर्मवशवर्ती होकर कृष्ण – स्पर्शी और दुर्गंधित अपवित्र स्थान में निवास करते हैं। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-६ वीरस्तुति |
Hindi | 358 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं नेता मुनी कासवे आसुपण्णे ।
इंदे व देवान महानुभावे सहस्सणेता ‘दिवि णं’ विसिट्ठे ॥ Translated Sutra: यह जिनधर्म अनुत्तर है आशुप्रज्ञ काश्यप मुनि इसके नेता हैं। जैसे स्वर्ग में महानुभाव इन्द्र विशिष्ट प्रभाव शाली एवं हजारों देवों में नेता होता है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-९ धर्म |
Hindi | 442 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयमट्ठं सपेहाए परमट्ठाणुगामियं ।
निम्ममो निरहंकारो चरे भिक्खू जिणाहियं ॥ (युग्मम्) Translated Sutra: परमार्थानुगामी भिक्षु इस अर्थ को समझकर निर्मम और निरहंकार होकर निजोक्त धर्म का आचरण करे। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 650 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ–
से जहानामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति, ते नो अच्चाए नो अजिणाए नो मंसाए नो सोणियाए नो हिययाए नो पित्ताए नो वसाए नो पिच्छाए नो पुच्छाए नो बालाए नो सिंगाए नो विसाणाए ‘नो दंताए नो दाढाए’ नो णहाए नो ण्हारुणिए नो अट्ठीए नो अट्ठिमिंजाए,
‘नो हिंसिंसु मे त्ति, नो हिंसंति मे त्ति, नो हिंसिस्संति’ मे त्ति,
नो पुत्तपोसणाए नो पसुपोसणाए नो अगारपरिवूहणयाए नो समणमाहणवत्तणाहेउं नो तस्स सरीरगस्स ‘किंचि विपरिया-इत्ता’ भवति।
से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता ओदवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति–अणट्ठादंडे।
से Translated Sutra: इसके पश्चात् दूसरा दण्डसमादानरूप क्रियास्थान अनर्थदण्ड प्रत्ययिक कहलाता है। जैसे कोई पुरुष ऐसा होता है, जो इन त्रसप्राणियों को न तो अपने शरीर की अर्चा के लिए मारता है, न चमड़े के लिए, न ही माँस के लिए और न रक्त के लिए मारता है। एवं हृदय के लिए, पित्त के लिए, चर्बी के लिए, पिच्छ पूंछ, बाल, सींग, विषाण, दाँत, दाढ़, नख, | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 661 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे तेरसमे किरियट्ठाणे इरियावहिए त्ति आहिज्जइ–इह खलु अत्तत्ताए संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स भासासमियस्स एसणासमियस्स आयाणभंड-ऽमत्त-णिक्खेवणासमियस्स उच्चार-खेल-‘सिंघाण-जल्ल’–पारिट्ठावणियासमियस्स मणसमियस्स वइसमियस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वइगुत्तस्स कायगुत्तस्स गुत्तिंदियस्स गुत्तबंभया आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं णिसीयमाणस्स आउत्तं तुयट्टमाणस्स ‘आउत्तं भुंजमाणस्स आउत्तं भासमाणस्स’ आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गिण्हमाणस्स वा णिक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हणिवायमवि, अत्थि विमाया सुहुमा किरिया इरियावहिया नाम Translated Sutra: पश्चात् तेरहवा क्रियास्थान ऐर्यापथिक है। इस जगत में या आर्हतप्रवचन में जो व्यक्ति अपने आत्मार्थ के लिए उपस्थित एवं समस्त परभावों या पापों से संवृत्त है तथा घरबार आदि छोड़कर अनगार हो गया है, जो ईर्या – समिति से युक्त है, जो भाषासमिति से युक्त है, जो एषणासमिति का पालन करता है, जो पात्र, उपकरण आदि के ग्रहण करने | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-५ आचार श्रुत |
Hindi | 737 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इच्चेएहिं ठाणेहिं जिणे दिट्ठेहिं संजए ।
धारयंते उ अप्पाणं आमोक्खाए परिव्वएज्जासि ॥
Translated Sutra: इस प्रकार इस अध्ययन में जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट या उपलब्ध स्थानों के द्वारा अपने आपको संयम में स्थापित करता हुआ साधु मोक्ष प्राप्त होने तक (पंचाचार पालन में) प्रगति करे। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१ समय |
उद्देशक-१ | Gujarati | 27 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उच्चावयाणि गच्छंता गब्भमेस्संतणंतसो ।
नायपुत्ते महावीरे एवमाह जिणोत्तमे ॥ Translated Sutra: જ્ઞાતપુત્ર જિનોત્તમ મહાવીરે કહ્યું છે કે પૂર્વોક્ત નાસ્તિક આદિ અન્યતીર્થિકો ઊંચી – નીચી ગતિઓમાં ભ્રમણ કરશે અને અનંત ગર્ભ પ્રાપ્ત કરશે – મેં જે તીર્થંકરો પાસે સાંભળેલ છે, તેમ હું તમને કહું છું. | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-२ वैतालिक |
उद्देशक-३ | Gujarati | 161 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] इणमेव खणं वियाणिया नो सुलभं ‘बोहिं च’ आहियं ।
एवं सहिएऽहिपासए आह जिणे इणमेव सेसगा ॥ Translated Sutra: બુદ્ધિમાન પુરુષ આ અવસરને ઓળખે, બોધિ – ધર્મની પ્રાપ્તિ સુલભ નથી, એ પ્રમાણે જ્ઞાની પુરુષ વિચારે. એ પ્રમાણે ભગવંત ઋષભદેવ અને અન્ય તીર્થંકરોએ પણ કહ્યું છે. હે ભિક્ષુઓ ! જે તીર્થંકરો પૂર્વે થઈ ગયા અને હવે થશે, તે બધા સુવ્રત પુરુષોએ તથા ભગવંત ઋષભના અનુયાયીઓએ પણ આ ગુણોને મોક્ષનું સાધન બતાવેલ છે. સૂત્ર સંદર્ભ– ૧૬૧, | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-५ नरक विभक्ति |
उद्देशक-१ | Gujarati | 326 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] समज्जिणित्ता कलुसं अणज्जा इट्ठेहि कंतेहि य विप्पहूणा ।
ते दुब्भिगंधे कसिणे य फासे कम्मोवगा कुणिमे आवसंति ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૩૨૫ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-५ नरक विभक्ति |
उद्देशक-२ | Gujarati | 349 | Gatha | Ang-02 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं तमेव आगच्छइ संपराए ।
एगंतदुक्खं भवमज्जिणित्ता ‘वेदेंति दुक्खी तमणंतदुक्खं’ । Translated Sutra: સૂત્ર– ૩૪૯. જે જીવે પૂર્વભવે જેવું કર્મ કર્યું છે, તેવું જ આગામી ભવે ભોગવવું પડે છે. જેણે એકાંત દુઃખરૂપ નરક ભવોનું અર્જન કર્યું, તે દુઃખી અનંત દુઃખરૂપ નરકને વેદે છે. સૂત્ર– ૩૫૦. ધીરપુરુષ આ નરકનું કથન સાંભળીને સર્વ લોકમાં કોઈપણ પ્રાણીની હિંસા ન કરે. જીવાદિ તત્ત્વો પર અટલ વિશ્વાસ રાખે. અપરિગ્રહી થઈ લોકના સ્વરૂપને | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-६ वीरस्तुति |
Gujarati | 358 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं नेता मुनी कासवे आसुपण्णे ।
इंदे व देवान महानुभावे सहस्सणेता ‘दिवि णं’ विसिट्ठे ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૩૫૮. આશુપ્રજ્ઞ કાશ્યપગોત્રીય મહાવીર, જિનેશ્વરોના આ અનુત્તર ધર્મના નાયક હતા, જેમ સ્વર્ગમાં ઇન્દ્ર મહાપ્રભાવશાળી અને રૂપ – બળ – વર્ણ આદિમાં સર્વથી વિશિષ્ટ છે, તેવી રીતે ભગવાન પણ ધર્મના નાયક, સર્વથી અધિક પ્રભાવશાળી અને સર્વથી વિશિષ્ટ હતા. સૂત્ર– ૩૫૯. તેઓ સમુદ્ર સમાન અક્ષય પ્રજ્ઞાવાન, મહોદધિ સમાન અપાર | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-९ धर्म |
Gujarati | 442 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एयमट्ठं सपेहाए परमट्ठाणुगामियं ।
निम्ममो निरहंकारो चरे भिक्खू जिणाहियं ॥ (युग्मम्) Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૪૪૧ | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Gujarati | 650 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ–
से जहानामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति, ते नो अच्चाए नो अजिणाए नो मंसाए नो सोणियाए नो हिययाए नो पित्ताए नो वसाए नो पिच्छाए नो पुच्छाए नो बालाए नो सिंगाए नो विसाणाए ‘नो दंताए नो दाढाए’ नो णहाए नो ण्हारुणिए नो अट्ठीए नो अट्ठिमिंजाए,
‘नो हिंसिंसु मे त्ति, नो हिंसंति मे त्ति, नो हिंसिस्संति’ मे त्ति,
नो पुत्तपोसणाए नो पसुपोसणाए नो अगारपरिवूहणयाए नो समणमाहणवत्तणाहेउं नो तस्स सरीरगस्स ‘किंचि विपरिया-इत्ता’ भवति।
से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता ओदवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति–अणट्ठादंडे।
से Translated Sutra: હવે બીજા દંડ સમાદાન રૂપ અનર્થદંડ પ્રત્યયિક કહે છે. જેમ કોઈ પુરુષ જો આ ત્રસ પ્રાણી છે, તેને ન તો પોતાના શરીરની અર્ચાને માટે મારે છે, ન ચામડાને માટે, ન માંસ માટે, ન લોહી માટે, તેમજ હૃદય – પિત્ત – ચરબી – પીછા – પૂંછ – વાળ – સીંગ – વિષાણ – દાંત – દાઢ – નખ – નાડી – હાડકા – મજ્જાને માટે મારતા નથી. મને માર્યો છે – મારે છે કે મારશે | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Gujarati | 661 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे तेरसमे किरियट्ठाणे इरियावहिए त्ति आहिज्जइ–इह खलु अत्तत्ताए संवुडस्स अणगारस्स इरियासमियस्स भासासमियस्स एसणासमियस्स आयाणभंड-ऽमत्त-णिक्खेवणासमियस्स उच्चार-खेल-‘सिंघाण-जल्ल’–पारिट्ठावणियासमियस्स मणसमियस्स वइसमियस्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वइगुत्तस्स कायगुत्तस्स गुत्तिंदियस्स गुत्तबंभया आउत्तं गच्छमाणस्स आउत्तं चिट्ठमाणस्स आउत्तं णिसीयमाणस्स आउत्तं तुयट्टमाणस्स ‘आउत्तं भुंजमाणस्स आउत्तं भासमाणस्स’ आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गिण्हमाणस्स वा णिक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हणिवायमवि, अत्थि विमाया सुहुमा किरिया इरियावहिया नाम Translated Sutra: હવે તેરમું ઇર્યાપથિક ક્રિયાસ્થાન કહે છે. આ લોકમાં જે આત્માના કલ્યાણને માટે સંવૃત્ત અને અણગાર છે, જે ઇર્યાસમિતિ, ભાષાસમિતિ, એષણાસમિતિ, આદાનભાંડ માત્ર નિક્ષેપણા સમિતિ, ઉચ્ચાર પાસવણ ખેલ સિંધાણ જલ્લ પારિષ્ઠાપનિકા સમિતિ, મનસમિતિ, વચનસમિતિ, કાય સમિતિથી યુક્ત છે, જે મનગુપ્ત, વચનગુપ્ત, કાયગુપ્ત છે, ગુપ્તેન્દ્રિય, | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-५ आचार श्रुत |
Gujarati | 737 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इच्चेएहिं ठाणेहिं जिणे दिट्ठेहिं संजए ।
धारयंते उ अप्पाणं आमोक्खाए परिव्वएज्जासि ॥
Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૭૩૬ | |||||||||
Tandulvaicharika | तंदुल वैचारिक | Ardha-Magadhi |
अनित्य, अशुचित्वादि |
Hindi | 99 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] घुट्ठम्मि सयं मोहे जिणेहिं वरधम्मतित्थमग्गस्स ।
अत्ताणं च न याणह इह जाया कम्मभूमीए ॥ Translated Sutra: इस कर्मभूमि में उत्पन्न होकर भी किसी मानव मोह से वश होकर जिनेन्द्र के द्वारा प्रतिपादित धर्मतीर्थ समान श्रेष्ठ मार्ग और आत्मस्वरूप को नहीं जानता। | |||||||||
Tandulvaicharika | તંદુલ વૈચારિક | Ardha-Magadhi |
अनित्य, अशुचित्वादि |
Gujarati | 99 | Gatha | Painna-05 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] घुट्ठम्मि सयं मोहे जिणेहिं वरधम्मतित्थमग्गस्स ।
अत्ताणं च न याणह इह जाया कम्मभूमीए ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૭૪ | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 16 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे समणोवासए इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए।
तए णं तस्स आनंदस्स समणोवासगस्स अन्नदा कदाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्म-जागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–
एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे धम्मणिसंतए जाए।
तं अत्थि ता मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे सद्धा-धिइ-संवेगे, तं जावता Translated Sutra: श्रमणोपासक आनन्द ने तत्पश्चात् दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवी, छठी, सातवी, आठवी, नौवी, दसवी तथा ग्यारहवीं प्रतिमा की आराधना की। इस प्रकार श्रावक – प्रतिमा आदि के रूप में स्वीकृत उत्कृष्ट, विपुल प्रयत्न तथा तपश्चरण से श्रमणोपासक आनन्द का शरीर सूख गया, शरीर की यावत् उसके नाड़ियाँ दीखने लगीं। एक दिन आधी रात के बाद | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Hindi | 28 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से कामदेवे समणोवासए पढमं उवासगपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ।
तए णं से कामदेवे समणोवासए पढमं उवासगपडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं काएणं फासेइ पालेइ सोहेइ तीरेइ कित्तेइ आराहेइ।
तए णं से कामदेवे समणोवासए दोच्चं उवासगपडिमं, एवं तच्चं, चउत्थं, पंचमं, छट्ठं, सत्तमं, अट्ठमं, नवमं, दसमं, एक्कारसमं उवासगपडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं काएणं फासेइ पालेइ सोहेइ तीरेइ कित्तेइ आराहेइ।
तए णं से कामदेवे समणोवासए इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए Translated Sutra: तत्पश्चात् श्रमणोपासक कामदेव ने पहली उपासकप्रतिमा की आराधना स्वीकार की। श्रमणोपासक कामदेव ने अणुव्रत द्वारा आत्मा को भावित किया। बीस वर्ष तक श्रमणोपासकपर्याय – पालन किया। ग्यारह उपासक – प्रतिमाओं का भली – भाँति अनुसरण किया। एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर आलोचना, प्रतिक्रमण कर मरण – काल | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ सुरादेव |
Hindi | 33 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स सुरादेवस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था।
तए णं से देवे एगं महं नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासं खुरधारं असिं गहाय सुरादेवं समणोवासयं एवं वयासी–
हंभो! सुरादेवा! समणोवासया! अपत्थियपत्थिया! दुरंत-पंत-लक्खणा! हीनपुण्ण-चाउद्दसिया! सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति-परिवज्जिया! धम्मकामया! पुण्णकामया! सग्गकामया! मोक्खकामया! धम्मकंखिया! पुण्णकंखिया! सग्गकंखिया! मोक्खकंखिया! धम्मपिवासिया! पुण्णपिवासिया! सग्गपिवासिया! मोक्खपिवासिया! नो खलु कप्पइ तव देवानुप्पिया! सीलाइं वयाइं वेरमणाइं पच्चक्खाणाइं पोसहोववासाइं चालित्तए Translated Sutra: उस देव द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक सुरादेव के मन में ऐसा विचार आया, यह अधम पुरुष यावत् अनार्यकृत्य करता है। मेरे शरीर में सोलह भयानक रोग उत्पन्न कर देना चाहता है। अतः मेरे लिए यही श्रेयस्कर है, मैं इस पुरुष को पकड़ लूँ। यों सोचकर वह पकड़ने के लिए उठा। इतने में वह देव आकाश में उड़ गया। | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ चुल्लशतक |
Hindi | 36 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से वि य आगासे उप्पइए, तेण य खंभे आसाइए, महया-महया सद्देणं कोलाहले कए।
तए णं सा बहुला भारिया तं कोलाहलसद्दं सोच्चा निसम्म जेणेव चुल्लसयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चुल्लसयगं समणोवासयं एवं वयासी–किण्णं देवानुप्पिया! तुब्भे णं महया-महया सद्देणं कोलाहले कए?
तए णं से चुल्लसयए समणोवासए बहुलं भारियं एवं वयासी–एवं खलु बहुले! न याणामि के वि पुरिसे आसुरत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसीयमाणे एगं महं नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासं खुरधारं असिं गहाय ममं एवं वयासी–हंभो! चुल्लसयगा! समणोवासया! जाव जइ णं तुमं अज्ज सीलाइं वयाइं वेरमणाइं पच्चक्खाणाइं पोसहोववासाइं Translated Sutra: MISSING_TEXT_IN_ORIGINAL | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ कुंडकोलिक |
Hindi | 40 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं तस्स कुंडकोलियस्स समणोवासयस्स बहूहिं सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छराइं वीइक्कंताइं। पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अन्नदा कदाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था–एवं खलु अहं कंपिल्लपुरे नगरे बहूणं जाव आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, सयस्स वि य णं कुडुंबस्स मेढी जाव सव्वकज्जवड्ढावए, तं एतेणं वक्खेवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपन्नत्ति उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।
तए णं से कुंडकोलिए समणोवासए Translated Sutra: तदनन्तर श्रमणोपासक कुंडकोलिक को व्रतों की उपासना द्वारा आत्म – भावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। जब पन्द्रहवा वर्ष आधा व्यतीत हो चूका था, एक दिन आधी रात के समय उसके मन में विचार आया, जैसा कामदेव के मन में आया था। उसी की तरह अपने बड़े पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त कर वह भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म – प्रज्ञप्ति | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ सद्दालपुत्र |
Hindi | 42 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नदा कदाइ पच्चावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोग-वणिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियं धम्मपन्नत्तिं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ।
तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एक्के देवे अंतियं पाउब्भवित्था।
तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवण्णे सखिंखिणियाइं पंचवण्णाइं वत्थाइं पवर परिहिए सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी– एहिइ णं देवानुप्पिया! कल्लं इहं महामाहणे उप्पन्न-नाणदंसणधरे तीयप्पडुपन्नाणागयजाणए अरहा जिणे केवली सव्वण्णू सव्वदरिसी तेलोक्कचहिय-महिय-पूइए सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स अच्चणिज्जे पूयणिज्जे Translated Sutra: एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र दोपहर के समय अशोकवाटिका में गया, मंखलिपुत्र गोशालक के पास अंगीकृत धर्म – प्रज्ञप्ति – के अनुरूप वहाँ उपासना – रत हुआ। आजीविकोपासक सकडालपुत्र के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। छोटी – छोटी घंटियों से युक्त उत्तम वस्त्र पहने हुए आकाश में अवस्थित उस देव ने आजीविको – पासक सकडालपुत्र से | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ सद्दालपुत्र |
Hindi | 43 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि अह पंडुरे पहाए रत्तासोग-प्पगास-किंसुय-सुयमुह-गुंजद्धरागसरिसे कमलागरसंडबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते समणे भगवं महावीरे जाव जेणेव पोलासपुरे नयरे जेणेव सहस्संबवने उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
परिसा निग्गया। कूणिए राया जहा, तहा जियसत्तू निग्गच्छइ जाव पज्जुवासइ।
तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे–एवं खलु समणे भगवं महावीरे पुव्वाणु-पुव्विं चरमाणे गामाणुगामं Translated Sutra: तत्पश्चात् अगले दिन प्रातः काल भगवान महावीर पधारे। परीषद् जुड़ी, भगवान की पर्युपासना की। आजीविकोपासक सकडालपुत्र ने यह सूना कि भगवान महावीर पोलासपुर नगर में पधारे हैं। उसने सोचा – मैं जाकर भगवान की वन्दना, यावत् पर्युपासना करूँ। यों सोचकर उसने स्नान किया, शुद्ध, सभायोग्य वस्त्र पहने। थोड़े से बहुमूल्य | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ सद्दालपुत्र |
Hindi | 46 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए जाए–अभिगयजीवाजीवे जाव समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणे विहरइ।
तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणोवासिया जाया–अभिगयजीवाजीवा जाव समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणी विहरइ।
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे–एवं खलु सद्दालपुत्ते आजीवियसमयं वमित्ता समणाणं निग्गंथाणं दिट्ठिं पवण्णे, तं Translated Sutra: तत्पश्चात् सकडालपुत्र जीव – अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया। धार्मिक जीवन जीने लगा। कुछ समय बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने यह सूना कि सकडालपुत्र आजीविक – सिद्धान्त को छोड़कर श्रमण – निर्ग्रन्थों की दृष्टि – स्वीकार कर चूका है, तब उसने विचार किया कि मैं सकडालपुत्र के पास जाऊं और श्रमण निर्ग्रन्थों |