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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1305 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव गंधम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार जो गन्ध के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर दुःख की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1306 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गंधे विरत्तो मनुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ Translated Sutra: गन्ध में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे – जलाशय में कमल का पत्ता जल से। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1307 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जिहाए रसं गहणं वयंति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ Translated Sutra: जिह्वा का विषय रस है। जो रस राग में कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो रस द्वेष का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। जिह्वा रस की ग्राहक है। रस जिह्वा का ग्राह्य है। जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र – १३०७, १३०८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1308 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसस्स जिब्भं गहणं वयंति जिब्भाए रसं गहणं वयंति ।
रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३०७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1309 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे बडिसविभिन्नकाए मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ रसों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे मांस खाने में आसक्त रागातुर मत्स्य काँटे से बींधा जाता है। जो अमनोज्ञ रस के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इस में रस का कोई अपराध नहीं है। सूत्र – १३०९, १३१० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1310 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ।
दुद्दंतदोसेण सएण जंतू रसं न किंचि अवरज्झई से ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३०९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1311 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगंतरत्ते रुइरे रसम्मि अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुनी विरागो ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ रस में एकान्त आसक्त होता है और अमनोज्ञ रस में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1312 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसानुगासानुगए य जीवे चराचरे हिंसइनेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेई अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ Translated Sutra: रस की आशा का अनुगामी अनेक रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य माननेवाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1313 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: रस में अनुरक्ति और ममत्त्व के कारण रस के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग – काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। वह संतोष को प्राप्त नहीं होता। असन्तोष के दोष से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल दूसरों की वस्तुऍं चुराता है। रस और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से पराजित | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1314 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठिं ।
अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३१३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1315 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो रसे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३१३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1316 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो रसे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप है। इस प्रकार रस में अतृप्त होकर चोरी करने वाला वह दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1317 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसानुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? ।
तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कए न दुक्खं? ॥ Translated Sutra: इस प्रकार रस में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब, कितना सुख होगा ? जिसे पाने के लिए व्यक्ति दुःख उठाता है, उस के उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1318 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव रसम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार जो रस के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर दुःख की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1319 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] रसे विरत्तो मनुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ Translated Sutra: रस में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे – जलाशय में कमल का पत्ता जल से। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1320 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कायस्स फासं गहणं वयंति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ Translated Sutra: काय का विषय स्पर्श है। जो स्पर्श राग में कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं। जो स्पर्श द्वेष का कारण होता है उसे अमनोज्ञ कहते हैं। काय स्पर्श का ग्राहक है, स्पर्श काय का ग्राह्य है। जो राग का कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र – १३२०, १३२१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1321 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासस्स कायं गहणं वयंति कायस्स फासं गहणं वयंति ।
रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३२० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1322 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे सीयजलावसन्ने गाहग्गहीए महिसे वरन्ने ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ स्पर्श में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे – वन में जलाशय के शीतल स्पर्श में आसक्त रागातुर भेंसा मगर के द्वारा पकड़ा जाता है। जो अमनोज्ञ स्पर्श के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह जीव उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें स्पर्श का कोई अपराध नहीं | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1323 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ।
दुद्दंतदोसेण सएण जंतू न किंचि फासं अवरज्झई से ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३२२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1324 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगंतरत्ते रुइरंसि फासे अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुनी विरागो ॥ Translated Sutra: जो मनोहर स्पर्श में अत्यधिक आसक्त होता है और अमनोहर स्पर्श में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1325 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासानुगासानुगए य जीवे चराचरे हिंसइनेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ Translated Sutra: स्पर्श की आशा का अनुगामी अनेकरूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य माननेवाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। स्पर्श में अनुरक्ति और ममत्व के कारण स्पर्श के उत्पादन में, संरक्षण में, संनियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1326 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३२५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1327 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेई तुट्ठिं ।
अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ Translated Sutra: स्पर्श में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता है। वह असंतोष के दोष से दुःखी और लोभ से व्याकुल होकर दूसरों की वस्तुऍं चुराता है। दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है। कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता। सूत्र – १३२७, १३२८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1328 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो फासे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३२७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1329 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो फासे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय में भी वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःख रूप है। इस प्रकार रूप में अतृप्त होकर वह चोरी करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1330 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासानुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? ।
तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ Translated Sutra: इस प्रकार स्पर्श में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब, कितना सुख होगा ? जिसे पाने के लिए दुःख उठाये जाता है, उसके उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1331 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव फासंमि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठिचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार जो स्पर्श के प्रति द्वेष करता है, वह भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1332 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] फासे विरत्तो मनुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ Translated Sutra: स्पर्श में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है। जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल से। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1333 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मनस्स भावं गहणं वयंति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ Translated Sutra: मन का विषय भाव है। जो भाव राग में कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो भाव द्वेष का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। मन भाव का ग्राहक है। भाव मन का ग्राह्य है। जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र – १३३३, १३३४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1334 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावस्स मनं गहणं वयंति मणस्स भावं गहणं वयंति ।
रागस्स हेउं समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३३३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1335 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विनासं ।
रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे करेणुमग्गावहिए व नागे ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ भावों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में विनाश को प्राप्त होता है। जैसे हथिनी के प्रति आकृष्ट, काम गुणों में आसक्त रागातुर हाथी विनाश को प्राप्त होता है। जो अमनोज्ञ भाव के प्रति तीव्ररूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें भाव का कोई अपराध नहीं है। सूत्र – | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1336 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ।
दुद्दंतदोसेण सएण जंतू न किंचि भावं अवरज्झई से ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३३५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1337 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एगंतरत्ते रुइरंसि भावे अतालिसे से कुणइ पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुनी विरागो ॥ Translated Sutra: जो मनोज्ञ भाव में एकान्त आसक्त होता है, और अमनोज्ञ में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1338 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावानुगासानुगए य जीवे चराचरे हिंसइनेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ Translated Sutra: भाव की आशा का अनुगामी व्यक्ति अनेक रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला क्लिष्ट अज्ञानी जीव विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। भाव में अनुरक्त और ममत्व के कारण भाव के उत्पादन में, संरक्षण में, सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ? उसे | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1339 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावानुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३३८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1340 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठिं ।
अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ Translated Sutra: भाव में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता। वह असंतोष के दोष से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल होकर दूसरों की वस्तु चुराता है। दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ाता है। कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता है। सूत्र – १३४०, १३४१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1341 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो भावे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३४० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1342 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते ।
एवं अदत्तानि समाययंतो भावे अतित्तो दुहिओ अनिस्सो ॥ Translated Sutra: झूठ बोलने के पहले, उसके बाद, और बोलने के समय वह दुःखी होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप है। इस प्रकार भाव में अतृप्त होकर वह चोरी करता है, दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1343 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावानुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? ।
तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ Translated Sutra: इस प्रकार भाव में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब और कितना सुख होगा ? जिसे पाने के लिए दुःख उठाता है। उसके उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1344 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एमेव भावम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ।
पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ Translated Sutra: इसी प्रकार जो भाव के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष – युक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1345 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भावे विरत्तो मनुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ Translated Sutra: भाव में विरक्त मनुष्य शोक – रहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल से। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1346 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एविंदियत्था य मनस्स अत्था दुक्खस्स हेउं मनुयस्स रागिणो ।
ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं न वीयरागस्स करेंति किंचि ॥ Translated Sutra: इस प्रकार रागी मनुष्य के लिए इन्द्रिय और मन के जो विषय दुःख के हेतु हैं, वे ही वीतराग के लिए कभी भी किंचित् मात्र भी दुःख के कारण नहीं होते हैं। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1347 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] न कामभोगा समयं उवेंति न यावि भोगा विगइं उवेंति ।
जे तप्पओसी य परिग्गही य सो तेसु मोहा विगइं उवेइ ॥ Translated Sutra: काम – भोग न समता – समभाव लाते हैं, और न विकृति लाते हैं। जो उनके प्रति द्वेष और ममत्व रखता है, वह उनमें मोह के कारण विकृति को प्राप्त होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३२ प्रमादस्थान |
Hindi | 1348 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कोहं च मानं च तहेव मायं लोहं दुगुंछं अरइं रइं च ।
हासं भयं सोगपुमित्थिवेयं नपुंसवेयं विविहे य भावे ॥ Translated Sutra: क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद तथा हर्ष विषाद आदि विविध भावों को – अनेक प्रकार के विकारों को, उनसे उत्पन्न अन्य अनेक कुपरिणामों को वह प्राप्त होता है, जो कामगुणों में आसक्त है। और वह करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय भी होता है। सूत्र – १३४८, १३४९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1359 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणस्सावरणिज्जं दंसणावरणं तहा ।
वेयणिज्जं तहा मोहं आउकम्मं तहेव य ॥ Translated Sutra: ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोह, आयुकर्म – नाम – कर्म, गोत्र और अन्तराय संक्षेप से ये आठ कर्म हैं। सूत्र – १३५९, १३६० | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1360 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नामकम्मं च गोयं च अंतरायं तहेव य ।
एवमेयाइ कम्माइं अट्ठेव उ समासओ ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३५९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1361 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नाणावरणं पंचविहं सुयं आभिणिबोहियं ।
ओहिनाणं तइयं मणनाणं च केवलं ॥ Translated Sutra: ज्ञानावरण कर्म पाँच प्रकार का है – श्रुत – ज्ञानावरण, आभिनिबोधिक – ज्ञानावरण, अवधि – ज्ञानावरण, मनो – ज्ञानावरण और केवल – ज्ञानावरण। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1362 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] निद्दा तहेव पयला निद्दानिद्दा य पयलपयला य ।
तत्तो य थीणगिद्धी उ पंचमा होइ नायव्वा ॥ Translated Sutra: निद्रा, प्रचला, निद्रा – निद्रा, प्रचला – प्रचला और पाँचवीं स्त्यानगृद्धि। चक्षु – दर्शनावरण, अचक्षु – दर्शनावरण, अवधि – दर्शनावरण और केवल – दर्शनावरण ये नौ दर्शनावरण कर्म के विकल्प – भेद हैं। सूत्र – १३६२, १३६३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1363 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चक्खुमचक्खुओहिस्स दंसणे केवले य आवरणे ।
एवं तु नवविगप्पं नायव्वं दंसणावरणं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र १३६२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३३ कर्मप्रकृति |
Hindi | 1364 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वेयणीयं पि य दुविहं सायमसायं च आहियं ।
सायस्स उ बहू भेया एमेव असायस्स वि ॥ Translated Sutra: वेदनीय कर्म के दो भेद हैं – सातावेदनीय और असाता वेदनीय। साता और असातावेदनीय के अनेक भेद हैं |