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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-९ | Hindi | 386 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे अन्नतरं भोयण-जायं पडिगाहेत्ता सुब्भिं-सुब्भिं भोच्चा दुब्भिं-दुब्भिं परिट्ठवेइ। माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेज्जा।
सुब्भिं वा दुब्भिं वा, सव्वं भुंजे न छड्डए। Translated Sutra: गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए जाने पर वहाँ से भोजन लेकर जो साधु सुगन्धित आहार स्वयं खा लेता है और दुर्गन्धित आहार बाहर फेंक देता है, वह माया – स्थान का स्पर्श करता है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। जैसा भी आहार प्राप्त हो, साधु उसका समभावपूर्वक उपभोग करे, उसमें से किंचित् भी फेंके नहीं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-९ | Hindi | 387 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे अन्नतरं वा पाणग-जायं पडिगाहेत्ता पुप्फं-पुप्फं आविइत्ता कसायं-कसायं परिट्ठवेइ। माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेज्जा। पुप्फं पुप्फेति वा, कसायं कसाए त्ति वा सव्वमेयं भुंजेज्जा, नो किंचि वि परिट्ठवेज्जा। Translated Sutra: गृहस्थ के यहाँ पानी के लिए प्रविष्ट जो साधु – साध्वी वहाँ से यथाप्राप्त जल लेकर वर्ण – गन्ध – युक्त पानी को पी जाते हैं और कसैला पानी फेंक देते हैं, वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए। जैसा भी जल प्राप्त हुआ हो, उसे समभाव से पी लेना चाहिए, उसमें से जरा – सा भी बाहर नहीं डालना चाहिए। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-९ | Hindi | 388 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुपरियावण्णं भोयण-जायं पडिगाहेत्ता साहम्मिया तत्थ वसति संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया। तेसिं अणालोइया अनामं तिया परिट्ठवेइ। माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेज्जा। से त्तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छेत्ता से पुव्वामेव आलोएज्जा–आउसंतो! समणा! इमे मे असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइमे वा बहुपरियावण्णे, तं भुंजह णं।
से सेवं वयंतं परो वएज्जा–आउसंतो! समणा! आहारमेयं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा जावइयं-जावइयं परिसडइ, तावइयं-तावइयं भोक्खामो वा, पाहामो वा। सव्वमेयं परिसडइ, सव्वमेयं भोक्खामो वा, पाहामो वा। Translated Sutra: भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु – साध्वी उसके यहाँ से बहुत – सा नाना प्रकार का भोजन ले आए तब वहाँ जो साधर्मिक, सांभोगिक, समनोज्ञ तथा अपरिहारिक साधु – साध्वी निकटवर्ती रहते हों, उन्हें पूछे बिना एवं निमंत्रित किये बिना जो साधु – साध्वी उस आहार को परठ देते हैं, वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं।वह साधु | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-९ | Hindi | 389 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परं समुद्दिस्स बहिया नीहडं, जं परेहिं असमणुण्णायं अनिसिट्ठं –अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
जं परेहिं समणुण्णायं सम्मं णिसिट्ठं–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जए। Translated Sutra: साधु या साध्वी यदि जाने कि दूसरे के उद्देश्य से बनाया गया आहार देने के लिए नीकाला गया है, यावत् अप्रासुक एवं अनैषणीय जानकर स्वीकार न करे। यदि गृहस्वामी आदि ने उक्त आहार ले जाने की भलीभाँति अनुमति दे दी है। उन्होंने वह आहार उन्हें अच्छी तरह से सौंप दिया है यावत् तुम जिसे चाहे दे सकते हो तो उसे यावत् प्रासुक | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१० | Hindi | 390 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से एगइओ साहारणं वा पिंडवायं पडिगाहेत्ता, ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स-जस्स इच्छइ तस्स-तस्स खद्धं-खद्धं दलाति। माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेज्जा। से त्तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छेत्ता वएज्जा–आउसंतो! समणा! संति मम पुरे -संथुया वा, पच्छा-संथुया वा, तं जहा–आयरिए वा, उवज्झाए वा, पवत्ती वा, थेरे वा, गणी वा, गणहरे वा, गनावच्छेइए वा। अवियाइं एएसिं खद्धं-खद्धं दाहामि।
‘से णेवं’ वयंतं परो वएज्जा–कामं खलु आउसो! अहापज्जत्तं णिसिराहि। जावइयं-जावइयं परो वयइ, तावइयं-तावइयं निसिरेज्जा। सव्वमेयं परो वयइ, सव्वमेयं निसिरेज्जा। Translated Sutra: कोई भिक्षु साधारण आहार लेकर आता है और उन साधर्मिक साधुओं से बिना पूछे ही जिसे चाहता है, उसे बहुत दे देता है, तो ऐसा करके वह माया – स्थान का स्पर्श करता है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। असाधारण आहार प्राप्त होने पर भी आहार को लेकर गुरुजनादि के पास जाए, कहे – ‘‘आयुष्मन् श्रमणों ! यहाँ मेरे पूर्व – परिचित तथा पश्चात् | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१० | Hindi | 391 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से एगइओ मणुण्णं भोयण-जायं पडिगाहेत्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएति मामेयं दाइयं संतं, दट्ठूणं सयमायए। आयरिए वा, उवज्झाए वा, पवत्ती वा, थेरे वा, गणी वा, गणहरे वा गनावच्छेइए वा। नो खलु मे कस्सइ किंचि वि दायव्वं सिया। माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेज्जा। से त्तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छेत्ता पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गहं कट्टु– ‘इमं खलु’ इमं खलु त्ति आलोएज्जा, नो किंचि वि निगूहेज्जा। से एगइओ अन्नतरं भोयण-जायं पडिगाहेत्ता भद्दयं-भद्दयं भोच्चा, विवन्नं विरसमाहरइ। माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेज्जा। Translated Sutra: यदि कोई भिक्षु भिक्षा में सरस स्वादिष्ट आहार प्राप्त करके उसे नीरस तुच्छ आहार से ढँक कर छिपा देता है, ताकि आचार्य, उपाध्याय, यावत् गणावच्छेदक आदि मेरे प्रिय व श्रेष्ठ आहार को देखकर स्वयं न ले ले, मुझे इसमें से किसी को कुछ भी नहीं देना है। ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है। साधु को ऐसा नहीं करना | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१० | Hindi | 392 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–अंतरुच्छुयं वा, उच्छु-गंडियं वा, उच्छु-चोयगं वा, उच्छु-मेरुगं वा, उच्छु-सालगं वा, उच्छु-डगलं वा, सिंबलिं वा, सिंबलि-थालगं वा। अस्सिं खलु पडिग्गहियंसि, अप्पे सिया भोयणजाए, बहुउज्झियधम्मिए। तहप्पगारं अंतरुच्छुयं वा जाव सिंबलि-थालगं वा– अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–बहु- अट्ठियं वा मंसं, मच्छं वा बहु कंटगं। अस्सिं खलु पडिग्गहियंसि, अप्पेसिया भोयणजाए, बहु-उज्झियधम्मिए। Translated Sutra: साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ ईक्ष के पर्व का मध्य भाग है, पर्वसहित इक्षुखण्ड है, पेरे हुए ईख के छिलके हैं, छिला हुआ अग्रभाग है, ईख की बड़ी शाखाएं हैं, छोटी डालियाँ हैं, मूँग आदि की तोड़ी हुई फली तथा चौले की फलियाँ पकी हुई हैं, परन्तु इनके ग्रहण करने पर इनमें खाने योग्य भाग बहुत थोड़ा और फेंकने योग्य भाग बहुत अधिक | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१० | Hindi | 393 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सिया से परो अभिहट्टु अंतोपडिग्गहए बिलं वा लोणं, उब्भियं वा लोणं परिभाएत्ता नीहट्टु दलएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा, परपायंसि वा–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से आहच्च पडिग्गाहिए सिया, तं च नाइदूरगए जाणेज्जा, से त्तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छेत्ता पुव्वामेव आलोएज्जा–आउसो! त्ति वा भइणि! त्ति वा ‘इमं ते किं जाणया दिन्नं? उदाहु अजाणया’?
सो य भणेज्जा– नो खलु मे जाणया दिन्नं, अजाणया। कामं खलु आउसो! इदाणिं णिसिरामि। तं भुंजह च णं परिभाएह च णं। तं परेहिं समणुण्णायं Translated Sutra: साधु या साध्वी को यदि गृहस्थ बीमार साधु के लिए खांड आदि की याचना करने पर अपने घर के भीतर रखे हुए बर्तन में से बिड़ – लवण या उद्भिज – लवण को विभक्त करके उसमें से कुछ अंश नीकालकर, देने लगे तो वैसे लवण को जब वह गृहस्थ के पात्र में या हाथ में हो तभी उसे अप्रासुक, अनैषणीय समझकर लेने से मना कर दे। कदाचित् सहसा उस नमक को | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-११ | Hindi | 394 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु समाणे वा, वसमाणे वा, गामाणुगामं ‘वा दूइज्जमाणे’ मणुण्णं भोयण-जायं लभित्ता ‘से भिक्खू गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह। से य भिक्खू णोभुंजेज्जा। तुमं चेव णं भुंजेज्जासि।’
से एगइओ भोक्खामित्ति कट्टु पलिउंचिय-पलिउंचिय आलोएज्जा, तं जहा– इमे पिंडे, इमे लोए, इमे तित्तए, इमे कडुयए, इमे कसाए, इमे अंबिले, इमे महुरे, नो खलु एत्तो किंचि गिलाणस्स सयति त्ति। माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेज्जा। तहाठियं आलो-एज्जा, जहाठियं गिलाणस्स सदति–तं तित्तयं तित्तएत्ति वा, कडुयं कडुएत्ति वा, कसायं कसाएत्ति वा, अंबिलं अंबिलेत्ति वा, महुरं महुरेत्ति वा। Translated Sutra: स्थिरवासी सम – समाचारी वाले साधु अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करनेवाले साधु भिक्षामें मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर कहते हैं – जो भिक्षु ग्लान है, उसके लिए तुम यह मनोज्ञ आहार ले लो और उसे दे दो। अगर वह रोगी भिक्षु न खाए तो तुम खा लेना। उस भिक्षुने उनसे वह आहार को अच्छी तरह छिपाकर रोगी भिक्षु को दूसरा आहार दिखलाते | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-११ | Hindi | 395 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु समाणे वा, वसमाणे वा, गामाणुगामं दूइज्जमाणे मणुण्णं भोयण-जायं लभित्ता ‘से भिक्खू गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह। से य भिक्खू णोभुंजेज्जा। आहरेज्जासि णं।’
नो खलु मे अंतराए आहरिस्सामि। इच्चेयाइं आयतणाइं उवाइकम्म। Translated Sutra: यदि समनोज्ञ स्थिरवासी साधु अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले साधुओं को मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर यों कहे कि ‘जो भिक्षु रोगी है, उसके लिए यह मनोज्ञ आहार ले जाओ, अगर वह रोगी भिक्षु इसे न खाए तो यह आहार वापस हमारे पास ले आना, क्योंकि हमारे यहाँ भी रोगी साधु है। इस पर आहार लेने वाला वह साधु उनसे कहे कि यदि मुझे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-११ | Hindi | 396 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भिक्खू जाणेज्जा सत्त पिंडेसणाओ, सत्त पाणेसणाओ।
तत्थ खलु इमा पढमा पिंडेसणा–असंसट्ठे हत्थे असंसट्ठे मत्ते–तहप्पगारेण असंसट्ठेण हत्थेण वा, मत्तेण वा असणं वा [पाणं वा] खाइमं वा साइमं वा सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा– फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–पढमा पिंडेसणा।
अहावरा दोच्चा पिंडेसणा–संसट्ठे हत्थे संसट्ठे मत्ते–तहप्पगारेण संसट्ठेण हत्थेण वा, मत्तेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–दोच्चा पिंडेसणा।
अहावरा तच्चा पिंडेसणा–इह खलु पाईणं वा, पडीणं Translated Sutra: अब संयमशील साधु को सात पिण्डैषणाएं और सात पानैषणाएं जान लेनी चाहिए। (१) पहली पिण्डैषणा – असंसृष्ट हाथ और असंसृष्ट पात्र। हाथ और बर्तन (सचित्त) वस्तु से असंसृष्ट हो तो उनसे अशनादि आहार की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले। यह पहली पिण्डैषणा है। (२) दूसरी पिण्डैषणा है – संसृष्ट हाथ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-११ | Hindi | 397 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: इच्चेयासिं सत्तण्हं पिंडेसणाणं, सत्तण्हं पाणेसणाणं अन्नतरं पडिमं पडिवज्जमाणे नो एवं वएज्जा–मिच्छा पडिवन्ना खलु एते भयंतारो, अहमेगे सम्मं पडिवन्ने।
जे एते भयंतारो एयाओ पडिमाओ पडिवज्जित्ताणं विहरंति, जो य अहमंसि एयं पडिमं पडिवज्जित्ताणं विहरामि, सव्वे वे ते उ जिणाणाए उवट्ठिया, अन्नोन्नसमाहीए एवं च णं विहरंति।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जए। Translated Sutra: इन सात पिण्डैषणाओं तथा सात पानैषणाओं में से किसी एक प्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधु इस प्रकार न कहे कि ‘इन सब साधु – भदन्तों ने मिथ्यारूप से प्रतिमाएं स्वीकार की हैं, एकमात्र मैंने ही प्रतिमाओं को सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया है।’ (अपितु कहे) जो यह साधु – भगवंत इन प्रतिमाओं को स्वीकार करके विचरण करते हैं, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 398 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा उवस्सयं एसित्तए, अणुपविसित्ता गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, निगमं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, रायहाणिं वा, सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणयं। तहप्पगारे उवस्सए नो ‘ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा’।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं। तहप्पगारे उवस्सए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता तओ संजयामेव ठाणं Translated Sutra: साधु या साध्वी उपाश्रय की गवेषणा करना चाहे तो ग्राम या नगर यावत् राजधानी में प्रवेश करके साधु के योग्य उपाश्रय का अन्वेषण करते हुए यदि यह जाने कि वह उपाश्रय अंडों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो वैसे उपाश्रय में वह साधु या साध्वी स्थान, शय्या और निषीधिका न करे। वह साधु या साध्वी जिस उपाश्रय को अंडों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 399 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–अस्संजए भिक्खु-पडियाए खुड्डियाओ दुवारियाओ महल्लियाओ कुज्जा, महल्लियाओ दुवारियाओ खुड्डियाओ कुज्जा, समाओ सिज्जाओ विसमाओ कुज्जा, विसमाओ सिज्जाओ समाओ कुज्जा, पवायाओ सिज्जाओ णिवायाओ कुज्जा, णिवायाओ सिज्जाओ पवायाओ कुज्जा, अंतो वा बहिं वा उवस्सयस्स हरियाणि छिंदिय-छिंदिय, दालिय-दालिय, संथारगं संथारेज्जा, बहिया वा णिण्णक्खु, तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे, अणत्तट्ठिए, अपरिभुत्ते, अनासेविते नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा।
अह पुणेवं जाणेज्जा–पुरिसंतरकडे, अत्तट्ठिए, परिभुत्ते, आसेविए पडिलेहित्ता Translated Sutra: वह साधु या साध्वी ऐसा उपाश्रय जाने कि असंयत गृहस्थ ने साधुओं के लिए जिसके छोटे द्वार को बड़ा बनाया है, जैसे पिण्डैषणा अध्ययन में बताया गया है, यहाँ तक कि उपाश्रय के अन्दर और बाहर ही हरियाली ऊखाड़ – ऊखाड़ कर, काट – काट कर वहाँ संस्तारक बिछाया गया है, अथवा कोई पदार्थ उसमें से बाहर नीकाले गए हैं, वैसा उपाश्रय यदि अपुरुषान्तरकृत | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 406 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] गाहावई नामेगे सुइ-समायारा भवंति, भिक्खू य असिनाणए मोयसमायारे, ‘से तग्गंधे’ दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवइ।
जं पुव्वकम्मं तं पच्छाकम्मं, जं पच्छाकम्मं तं पुव्वकम्मं। तं भिक्खु-पडियाए वट्टमाणे करेज्जा वा, नो ‘वा करेज्जा’।
अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा एस पइण्णा, एस हेऊ, एस कारणं, एस उवएसो, जं तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: कोई गृहस्थ शौचाचार – परायण होते हैं और भिक्षुओं के स्नान न करने के कारण तथा मोकाचारी होने के कारण उनके मोकलिप्त शरीर और वस्त्रों से आने वाली वह दुर्गन्ध उस गृहस्थ के लिए प्रतिकूल और अप्रिय भी हो सकती है। इसके अतिरिक्त वे गृहस्थ जो कार्य पहले करते थे, अब भिक्षुओं की अपेक्षा से बाद में करेंगे और जो कार्य बाद में | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 407 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयाणमेयं भिक्खूस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स–इह खलु गाहावइस्स अप्पनो सअट्ठाए विरू-वरूवे भोयण-जाए उवक्खडिए सिया, अह पच्छा भिक्खु-पडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडेज्ज वा, उवकरेज्ज वा, तं च भिक्खू अभिकंखेज्जा भोत्तए वा, पायए वा, वियट्टित्तए वा।
अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा एस पइण्णा, एस हेऊ, एस कारणं, एस उवएसो, जं तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: गृहस्थों के साथ में निवास करने वाले साधु के लिए वह कर्मबन्ध का कारण हो सकता है, क्योंकि वहाँ गृहस्थ ने अपने लिए नाना प्रकार के भोजन तैयार किये होंगे, उसके पश्चात् वह साधुओं के लिए अशनादि चतुर्विध आहार तैयार करेगा। उस आहार को साधु भी खाना या पीना चाहेगा या उस आहार में आसक्त होकर वहीं रहना चाहेगा। इसलिए भिक्षुओं | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 408 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइणा सद्धिं संवसमाणस्स–इह खलु गाहावइस्स अप्पनो सयट्ठाए विरूवरूवाइं दारुयाइं भिन्न-पुव्वाइं भवंति, अह पच्छा भिक्खु-पडियाए विरूवरूवाइं दारुयाइं भिंदेज्ज वा, किणेज्ज वा, पामिच्चेज्ज वा, दारुणा वा दारुपरिणामं कट्टु अगणिकायं उज्जालेज्ज वा, पज्जालेज्ज वा। तत्थ भिक्खू अभिकंखेज्जा आयावेत्तए वा, पयावेत्तए वा, वियट्टित्तए वा।
अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा एस पइण्णा, एस हेऊ, एस कारणं, एस उवएसो, जं तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: गृहस्थ के साथ ठहरने वाले साधु के लिए वह कर्मबन्ध का कारण हो सकता है, क्योंकि वहीं गृहस्थ अपने स्वयं के लिए पहले नाना प्रकार के काष्ठ – ईंधन को काटेगा, उसके पश्चात् वह साधु के लिए भी विभिन्न प्रकार के ईंधन को काटेगा, खरीदेगा या किसी से उधार लेगा और काष्ठ से काष्ठ का घर्षण करके अग्निकाय को उज्ज्वलित एवं प्रज्वलित | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 409 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उच्चार-पासवणेणं उव्वाहिज्जमाणे राओ वा विआले वा गाहावइ-कुलस्स दुवारवाहं अवंगुणेज्जा, तेणे य तस्संधिचारी अणुपविसेज्जा। तस्स भिक्खुस्स णोकप्पइ एवं वदत्तिए–अयं तेण पविसइ वा णोवा पविसइ, उवल्लियइ वा नो वा उवल्लियइ, अइपतति वा नो वा अइपतति, वदति वा नो वा वदति, तेण हडं अन्नेण हडं, तस्स हडं अन्नस्स हडं, अयं तेणे अयं उवचरए, अयं हंता अयं एत्थमकासी तं तवस्सिं भिक्खुं अतेणं तेणं ति संकति।
अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा एस पइण्णा, एस हेऊ, एस कारणं, एस उवएसो, जं तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी रात में या विकाल में मल – मूत्रादि की बाधा होने पर गृहस्थ के घर का द्वारभाग खोलेगा, उस समय कोई चोर या उसका सहचर घर में प्रविष्ट हो जाएगा, तो उस समय साधु को मौन रखना होगा। ऐसी स्थिति में साधु के लिए ऐसा कहना कल्पनीय नहीं है कि यह चोर प्रवेश कर रहा है, या प्रवेश नहीं कर रहा है, यह छिप रहा है या नहीं | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 410 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–तण-पुंजेसु वा, पलाल-पुंजेसु वा, सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सउसं सउदए सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा सताणए, तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–तण-पुंजेसु वा, पलाल-पुंजेसु वा, अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पुदए अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणए,
तहप्पगारे उवस्सए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता तओ संजयामेव ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: जो साधु या साध्वी उपाश्रय के सम्बन्ध में यह जाने कि उसमें घास के ढ़ेर या पुआल के ढ़ेर, अंडे, बीज, हरियाली, ओस, सचित्त जल, कीड़ीनगर, काई, लीलण – फूलण, गीली मिट्टी या मकड़े के जालों से युक्त हैं, तो इस प्रकार के उपाश्रय में वह स्थान, शयन आदि कार्य न करें। यदि वह साधु या साध्वी ऐसा उपाश्रय जाने कि उसमें घास के ढ़ेर या पुआल का | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 411 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइ-कुलेसु वा, परियावसहेसु वा अभिक्खणं-अभिक्खणं साहम्मिएहिं ओवयमाणेहिं नो वएज्जा। Translated Sutra: पथिकशालाओं में, उद्यान में निर्मित विश्रामगृहों में, गृहस्थ के घरों में, या तापसों के मठों आदि में जहाँ ( – अन्य सम्प्रदाय के) साधु बार – बार आते – जाते हों, वहाँ निर्ग्रन्थ साधुओं को मासकल्प आदि नहीं करना चाहिए। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 412 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइ-कुलेसु वा, परियावसहेसु वा, जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावित्ता तत्थेव भुज्जो सवसंति, अयमाउसो! कालाइक्कंत-किरिया वि भवइ। Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! जिन पथिकशाला आदिमें साधु भगवंतोंने ऋतुबद्ध मासकल्प या वर्षावास कल्प बीताया है, उन्हीं स्थानोंमें अगर वे बिना कारण पुनः पुनः निवास करते हैं, तो उनकी वह शय्या कालातिक्रान्त दोषयुक्त होती है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 413 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइ-कुलेसु वा, परियावसहेसु वा, जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावित्ता तं दुगुणा तिगुणेण अपरिहरित्ता तत्थेव भुज्जो संवसंति, अयमाउसो! उवट्ठाण-किरिया वि भवइ। Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! जिन पथिकशालाओं आदि में, जिन साधु भगवंतों ने ऋतुबद्ध कल्प या वर्षावास कल्प बीताया है, उससे दूगुना – दूगुना काल अन्यत्र बीताये बिना पुनः उन्हीं में आकर ठहर जाते हैं तो उनकी वह शय्या उपस्थान दोषयुक्त हो जाती है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 414 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईण वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा, गाहावइणीओ वा, गाहावइ-पुत्ता वा, गाहावइ-धूयाओ वा, गाहावइ-सुण्हाओ वा, धाईओ वा, दासा वा, दासीओ वा, कम्मकरा वा, कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयारे-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा, आयतणाणि वा, देवकुलाणि वा, सहाओ वा पवाओ वा, पणिय-गिहाणि वा, पणिय-सालाओ वा, जाण-गिहाणि वा, जाण-सालाओ वा, सुहाकम्मंताणि वा, दब्भ-कम्मंताणि वा, बद्ध-कम्मंताणि वा, वक्क-कम्मंताणि वा, Translated Sutra: आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अथवा उत्तर दिशा में कईं श्रद्धालु हैं जैसे कि गृहस्वामी, गृह – पत्नी, उसकी पुत्र – पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, धायमाताएं, दास – दासियाँ या नौकर – नौकरानियाँ आदि; उन्होंने निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार – व्यवहार के विषय में तो सम्यक्तया नहीं सूना है, किन्तु उन्होंने यह सून | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 415 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्म-करीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किविण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिआइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा।
जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा तेहिं अणोवयमाणेहिं ओवयंति, अयमाउसो! अनभिक्कंत-किरिया वि भवति। Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में अनेक श्रद्धालु होते हैं, जैसे कि गृहपति यावत् नौकरानियाँ। निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार से अनभिज्ञ इन लोगों ने श्रद्धा, प्रतीति और अभिरुचि से प्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण आदि के उद्देश्य से विशाल मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह। ऐसे लोहकारशाला | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 416 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ–जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलमंता वयमंता गुणमंता संजया संवुडा बंभचारी उवरया मेहु-णाओ धम्माओ, नो खलु एएसिं भयंताराणं कप्पइ आहाकम्मिए उवस्सए वत्थए।
सेज्जाणिमाणि अम्हं अप्पनो सअट्ठाए चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा। सव्वाणि ताणि समणाणं णिसिरामो, अवियाइं वयं पच्छा अप्पनो सअट्ठाए चेतिस्सामो, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा।
एयप्पगारं निग्घोसं सोच्चा निसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा उवागच्छंति, Translated Sutra: इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कईं श्रद्धा भक्ति से युक्त जन हैं, जैसे कि गृहपति यावत् उसकी नौकरानियाँ। उन्हें पहले से ही यह ज्ञात होता है कि ये श्रमण भगवंत शीलवान् यावत् मैथुनसेवन से उपरत होते हैं, इन भगवंतों के लिए आधाकर्मदोष से युक्त उपाश्रय में निवास करना कल्पनीय नहीं है। अतः हमने अपने प्रयोजन के | |||||||||
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श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 417 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए पगणिय-पगणिय समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा भवनगिहाणि वा। जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इतरेतरेहिं पाहुडेहिं वट्टंति, अयमाउसो! महावज्ज-किरिया वि भवइ। Translated Sutra: इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कईं श्रद्धालुजन होते हैं, जैसे कि गृहपति, यावत् दासियाँ आदि। वे उनके आचार – व्यवहार से तो अनभिज्ञ होते हैं, लेकिन वे श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण यावत् भिक्षाचरों को गिन – गिन कर उनके उद्देश्य से जहाँ – तहाँ लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि | |||||||||
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श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 418 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिआइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा। जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भव-णगिहाणि वा उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इतरेतरेहिं पाहुडेहिं वट्टंति, अयमाउसो! सावज्ज-किरिया वि भवइ। Translated Sutra: इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कईं श्रद्धालु व्यक्ति होते हैं, जैसे कि – गृहपति, उसकी पत्नी यावत् नौकरानियाँ आदि। वे उनके आचार – व्यवहार से तो अज्ञात होते हैं, लेकिन श्रमणों के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से युक्त होकर सब प्रकार के श्रमणों के उद्देश्य से लोहकारशाला यावत् भूमिगृह बनवाते हैं। सभी श्रमणों | |||||||||
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श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 419 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं एगं समणजायं समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा। महया पुढविकाय-समारंभेणं, महया आउकाय-समारंभेणं, महया तेउकाय-समारंभेणं, महया वाउकाय-समारंभेणं, महया वणस्सइकाय-समारंभेणं, महया तसकाय-समारंभेणं, महया संरंभेणं, महया समारंभेणं महया आरंभेणं, महया विरूवरूवेहिं पावकम्म-किच्चेहिं, तं जहा–छायणओ लेवनओ संथार-दुवार-पिहणओ। सीतोदए Translated Sutra: इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में गृहपति, उनकी पत्नी, पुत्री, पुत्रवधू आदि कईं श्रद्धा – भक्ति से ओतप्रोत व्यक्ति हैं उन्होंने साधुओं के आचार – व्यवहार के सम्बन्ध में तो जाना – सूना नहीं है, किन्तु उनके प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित होकर उन्होंने किसी एक ही प्रकार के निर्ग्रन्थ श्रमण वर्ग के उद्देश्य | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 420 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्म-करीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं अप्पनो सअट्ठाए तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा। महया पुढविकाय-समारंभेणं महया आउकाय-समारंभेणं, महया तेउकाय-समारंभेणं, महया वाउकाय-समारंभेणं, महया वणस्सइकाय-समारंभेणं, महया तसकाय-समारंभेणं, महया संरंभेणं, महया समारंभेणं, महया आरंभेणं, महया विरूवरूवेहिं पावकम्म-किच्चेहिं, तं जहा–छायणओ लेवनओ संथार-दुवार-पिहणओ। सीतोदए वा परिट्ठवियपुव्वे Translated Sutra: इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कतिपय गृहपति यावत् नौकरानियाँ श्रद्धालु व्यक्ति हैं। वे साधुओं के आचार – व्यवहार के विषय में सून चूके हैं, वे साधुओं के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित भी हैं, किन्तु उन्होंने अपने निजी प्रयोजन के लिए यत्र – तत्र मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 421 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सिय नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे, णोय खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहिं, तं जहा–छायणओ, लेवनओ, संथार-दुवार-पिहणओ, पिंडवाएसणाओ।
से भिक्खू चरिया-रए, ठाण-रए, निसीहिया-रए, सेज्जा-संथार-पिंडवाएसणा-रए। संति भिक्खुणी एवमक्खाइनो उज्जुया णियाग-पडिवन्ना अमायं कुव्वमाणा वियाहिया।
संतेगइया पाहुडिया उक्खित्तपुव्वा भवइ, एवं णिक्खित्तपुव्वा भवइ, परिभाइय-पुव्वा भवइ, परिभुत्त-पुव्वा भवइ, परिट्ठविय-पुव्वा भवइ, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरेति?
हंता भवइ। Translated Sutra: वह प्रासुक, उंछ और एषणीय उपाश्रय सुलभ नहीं है। और न ही इन सावद्यकर्मों के कारण उपाश्रय शुद्ध मिलता है, जैसे कि कहीं साधु के निमित्त उपाश्रय का छप्पर छाने से या छत डालने से, कहीं उसे लीपने – पोतने से, कहीं संस्तारकभूमि सम करने से, कहीं उसे बन्द करने के लिए द्वार लगाने से, कहीं शय्यातर गृहस्थ द्वारा साधु के लिए आहार | |||||||||
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श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 422 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–खुड्डियाओ, खुड्ड-दुवारियाओ, निइयाओ संनिरुद्धाओ भवंति। तहप्पगारे उवस्सए राओ वा, विआले वा निक्खममाणे वा, पविसमाणे वा, पुरा हत्थेण पच्छा पाएण तओ संजयामेव निक्खमेज्ज वा, पविसेज्ज वा।
केवली बूया आयाणमेयं–जे तत्थ समनाण वा, माहनाण वा, छत्तए वा, मत्तए वा, दंडए वा, लट्ठिया वा, भिसिया वा, ‘नालिया वा, चेलं वा’, चिलिमिली वा, चम्मए वा, चम्मकोसए वा, चम्म-छेदणए वा–दुब्बद्धे दुन्निक्खित्ते अनिकंपे चलाचले–भिक्खू य राओ वा वियाले वा निक्खममाणे वा, पविसमाणे वा पयलेज्ज वा, पवडेज्ज वा।
से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा हत्थं वा, पायं वा, Translated Sutra: वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो छोटा है, या छोटे द्वारों वाला है, तथा नीचा है, या नित्य जिसके द्वार बंध रहते हैं, तथा चरक आदि परिव्राजकों से भरा हुआ है। इस प्रकार के उपाश्रय में वह रात्रि में या विकाल में भीतर से बाहर नीकलता हुआ या भीतर प्रवेश करता हुआ पहले हाथ से टटोल ले, फिर पैर से संयम पूर्वक नीकले | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 423 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइ-कुलेसु वा, परियावसहेसु वा अणुवीइ उवस्सयं जाएज्जा, जे तत्थ ईसरे, जे तत्थ समहिट्ठाए, ते उवस्सयं अणुण्णवेज्जा– कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरिण्णातं वसिस्सामो जाव आउसंतो, जाव आउसंतस्स उवस्सए, जाव साहम्मिया एत्ता, ताव उवस्सयं गिण्हिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो। Translated Sutra: वह साधु पथिकशालाओं, आरामगृहों, गृहपति के घरों, परिव्राजकों के मठों आदि को देख – जान कर और विचार करके कि यह उपाश्रय कैसा है ? इसका स्वामी कौन है ? फिर उपाश्रय की याचना करे। जैसे कि वहाँ पर या उस उपाश्रय का स्वामी है, समधिष्ठाता है, उससे आज्ञा माँगे और कहे – ‘आयुष्मन् ! आपकी ईच्छानुसार जितने काल तक और जितना भाग आप | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 424 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जस्सुवस्सए संवसेज्जा, तस्स पुव्वामेव नाम-गोयं जाणेज्जा। तओ पच्छा तस्स गिहे निमंतेमाणास्स अनिमंतेमाणास्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा। Translated Sutra: साधु या साध्वी जिस गृहस्थ के उपाश्रय में निवास करें, उसका नाम और गोत्र पहले से जान ले। उसके पश्चात् उसके घर में निमंत्रित करने या न करने पर भी उसके घर या अशनादि चतुर्विध आहार अप्रासुक – अनैषणीय जानकर ग्रहण न करें। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 425 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–ससागारियं सागणियं सउदयं, नो पण्णस्स निक्खमण-पवेसाए, नो पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेह-धम्माणुओग-चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो गृहस्थों से संसक्त हो, अग्नि से युक्त हो, सचित्त जल से युक्त हो, तो उसमें प्राज्ञ साधु – साध्वी को निर्गमन – प्रवेश करना उचित नहीं है और न ही ऐसा उपाश्रय वाचना, यावत् चिन्तन के लिए उपयुक्त है। ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 426 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–गाहावइ-कुलस्स मज्झंमज्झेणं गंतुं पंथं पडिबद्धं वा, नो पण्णस्स निक्खमण-पवेसाए, नो पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेह-धम्मा-णुओगचिंताए, तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जिसमें निवास के लिए गृहस्थ के घर में से होकर जाना पड़ता हो, अथवा जो उपाश्रय गृहस्थ के घर से प्रतिबद्ध है, वहाँ प्राज्ञ साधु का आना – जाना उचित नहीं है और न ही ऐसा उपाश्रय वाचनादि स्वाध्याय के लिए उपयुक्त है। ऐसे उपाश्रय में साधु स्थानादि कार्य न करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 427 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–इह खलु गाहावई वा, गाहावइणीओ वा, गाहावइ-पुत्ता वा, गाहावइ-धूयाओ वा, गाहावइ-सुण्हाओ वा, धाईओ वा, दासा वा, दासीओ वा, कम्मकरा वा, कम्मकरीओ वा अन्नमन्नमक्कोसंति वा, बंधंति वा, रुंभंति वा, उद्दवेंति वा, नो पण्णस्स निक्खमण-पवेसाए, नो पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेह-धम्माणुओगचिंताए। सेवं नच्चा तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: यदि साधु या साध्वी ऐसे उपाश्रय को जाने कि इस उपाश्रय – बस्ती में गृह – स्वामी, उसकी पत्नी, पुत्र – पुत्रियाँ पुत्रवधूएं, दास – दासियाँ आदि परस्पर एक दूसरे को कोसती हैं – झिड़कती हैं, मारती – पीटती, यावत् उपद्रव करती हैं, प्रज्ञावान साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में न तो निर्गमन – प्रवेश ही करना योग्य है, और न ही वाचनादि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 428 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अन्नमन्न-स्स गायं तेल्लेण वा, घएण वा, नवनीएण वा, वसाए वा, अब्भंगे ति वा, मक्खे ति वा, नो पण्णस्स निक्खमण-पवेसाए, नो पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेह-धम्माणुओग चिंताए। तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, णिसी-हियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: साधु या साध्वी अगर जाने कि इस उपाश्रय में गृहस्थ, उसकी पत्नी, पुत्री यावत् नौकरानियाँ एक – दूसरे के शरीर पर तेल, घी, नवनीत या वसा से मर्दन करती हैं या चुपड़ती हैं, तो प्राज्ञ साधु का वहाँ जाना – आना ठीक नहीं है और न ही वहाँ वाचनादि स्वाध्याय करना। साधु इस प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि कार्य न करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 429 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा, अन्नमन्नस्स गायं सिनाणेण वा, कक्केण वा, लोद्धेण वा, वण्णेण वा, चुण्णेण वा, पउमेण वा,
आघंसंति वा, पघंसंति वा, उव्वलेंति वा, उव्वट्टेंति वा, नो पण्णस्स निक्खमण-पवेसाए, नो पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेह-धम्माणुओग-चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा, चेतेज्जा। Translated Sutra: साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, कि इस उपाश्रय में गृहस्वामी यावत् नौकरानियाँ परस्पर एक दूसरे के शरीर को स्नान करने योग्य पानी से, कर्क से, लोघ्र से, वर्णद्रव्य से, चूर्ण से, पक्ष से मलती हैं, रगड़ती हैं, मैल उतारती हैं, उबटन करती हैं; वहाँ प्राज्ञ साधु का नीकलना या प्रवेश करना उचित नहीं है और न ही वह स्थान | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 430 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अन्नमन्नस्स गायं सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेंति वा, पधोवेंति वा, सिंचंति वा, सिणावेंति वा, नो पण्णस्स निक्खमण-पवेसाए, नो पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेहधम्मा- णुओग चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि जाने कि इस उपाश्रय में गृहस्वामी, यावत् नौकरानियाँ परस्पर एक दूसरे के शरीर पर प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से छींटे मारती हैं, धोती हैं, सींचती हैं, या स्नान कराती हैं, ऐसा स्थान प्राज्ञ के जाने – आने या स्वाध्याय के लिए उपयुक्त नहीं है। इस प्रकार के उपाश्रय में साधु स्थानादि क्रिया | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 431 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा निगिणा ठिआ, निगिणा उवल्लीणा मेहुणधम्मं विन्नवेति, रहस्सियं वा मंतं मंतेंति, नो पण्णस्स निक्खमण-पवेसाए नो पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेह-धम्माणुओग चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: साधु या साध्वी ऐसे उपाश्रय को जाने, जिसकी बस्ती में गृहपति, उसकी पत्नी, पुत्र – पुत्रियाँ यावत् नौकरा – नियाँ आदि नग्न खड़ी रहती हैं या नग्न बैठी रहती हैं, और नग्न होकर गुप्त रूप से मैथुन – धर्म विषयक परस्पर वार्तालाप करती हैं, अथवा किसी रहस्यमय अकार्य के सम्बन्ध में गुप्त – मंत्रणा करती हैं; तो वहाँ प्राज्ञ – | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 432 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–आइण्णसंलेक्खं, नो पण्णस्स निक्खमण-पवेसाए नो पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेह-धम्माणुओग चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा। Translated Sutra: वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने जो गृहस्थ स्त्री – पुरुषों आदि के चित्रों से सुसज्जित है, तो ऐसे उपाश्रय में प्राज्ञ साधु को निर्गमन – प्रवेश करना या वाचना आदि करना उचित नहीं है। इस प्रकार के उपाश्रय में साधु स्थानादि कार्य न करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 433 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा संथारगं एसित्तए। सेज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा–सअंडं सबीअं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं, तहप्पगारं संथारगं-अफासुयं अनेसणिज्जं त्ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पाणं अप्पबीअं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं, गरुयं, तहप्पगारं संथारगं–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीअं अप्पहरियं Translated Sutra: कोई साधु या साध्वी संस्तारक की गवेषणा करना चाहे और वह जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो ऐसे संस्तारक को मिलने पर भी ग्रहण न करे। जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से तो रहित है, किन्तु भारी है, वैसे संस्तारक को भी मिलने पर ग्रहण न करे। वह साधु या साध्वी, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 434 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्चेयाइं आयतणाइं उवाइक्कम्म अह भिक्खू जाणेज्जा, इमाहिं चउहिं पडिमाहिं संथारगं एसित्तए।
तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा–से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उद्दिसिय-उद्दिसिय संथारगं जाएज्जा, तं जहा–इक्कडं वा, कढिणं वा, जंतुयं वा, परगं वा, मोरगं वा, तणं वा, कुसं वा, कुच्चगं वा, पिप्पलगं वा, पलालगं वा। से पुव्वामेव आलोएज्जा–आउसो! त्ति वा भगिनि! त्ति वा दाहिसि मे एत्तो अन्नयरं संथारगं? तहप्पगारं सयं वा णं जाएज्जा परो वा से देज्जा– फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–पढमा पडिमा। Translated Sutra: इन दोषों के आयतनों को छोड़कर साधु इन चार प्रतिमाओं से संस्तारक की एषणा करना जान ले – पहली प्रतिमा यह है – साधु – साध्वी अपने संस्तरण के लिए आवश्यक और योग्य वस्तुओं का नामोल्लेख कर – कर के संस्तारक की याचना करे, जैसे इक्कड, कढिणक, जंतुक, परक, सभी प्रकार का तृण, कुश, कूर्चक, वर्वक नामक तृण विशेष, या पराल आदि। साधु पहले | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 435 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरा दोच्चा पडिमा–से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पेहाए संथारगं जाएज्जा, तं जहा–गाहावइं वा, गाहावइ-भारियं वा, गाहावइ-भगिनिं वा, गाहावइ-पुत्तं वा, गाहावइ-धूयं वा, सुण्हं वा, धाइं वा, दासं वा, दासिं वा, कम्मकरं वा, कम्मकरिं वा। से पुव्वामेव आलोएज्जा–आउसो! त्ति वा भगिनि! त्ति वा दाहिसि मे एत्तो अन्नयरं संथारगं? तहप्पगारं संथारगं सयं वा णं जाएज्जा परो वा से देज्जा–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा– दोच्चा पडिमा।
अहावरा तच्चा पडिमा–से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जस्सुवस्सए संवसेज्जा, ते तत्थ अहासमण्णागए, तं जहा–इक्कडे वा कढिणे वा, जंतुए वा, परगे वा, मोरगे वा, तणे Translated Sutra: दूसरी प्रतिमा यह है साधु या साध्वी गृहस्थ के मकान में रखे हुए संस्तारक को देखकर उनकी याचना करे कि क्या तुम मुझे इन संस्तारकों में से किसी एक संस्तारक को दोगे ? इस प्रकार के निर्दोष एवं प्रासुक संस्तारक की स्वयं याचना करे, यदि दाता बिना याचना किए ही दे तो प्रासुक एवं एषणीय जानकर उसे ग्रहण करे। इसके अनन्तर तीसरी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 436 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरा चउत्था पडिमा– से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहासंथडमेव संथारगं जाएज्जा, तं जहा–पुढविसिलं वा, कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव। तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुए वा, णेसज्जिए वा विहरेज्जा–चउत्था पडिमा। Translated Sutra: चौथी प्रतिमा यह है – वह साधु या साध्वी उपाश्रय में पहले से ही संस्तारक बिछा हुआ हो, जैसे कि वहाँ तृणशय्या, पथ्थर की शिला या लकड़ी का तख्त, तो उस संस्तारक की गृहस्वामी से याचना करे, उसके प्राप्त होने पर वह उस पर शयन आदि क्रिया कर सकता है। यदि वहाँ कोई भी संस्तारक बिछा हुआ न मिले तो वह उत्कटुक आसन तथा पद्मासन आदि आसनों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 437 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्चेयाणं चउण्हं पडिमाणं अन्नयरं पडिमं पडिवज्जमाणे नो एवं वएज्जा मिच्छा पडिवन्ना खलु एते भयंतारो, अहमेगे सम्मं पडिवन्ने।
जे एते भयंतारो एयाओ पडिमाओ पडिवज्जित्ताणं विहरंति, जो य अहमंसि एयं पडिमं पडिवज्जित्ताणं विहरामि, सव्वे वे ते उ जिणाणाए उवट्ठिया, अन्नोन्नसमाहीए एवं च णं विहरंति। Translated Sutra: इन चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करके विचरण करने वाला साधु, अन्य प्रतिमाधारी साधुओं की निन्दा या अवहेलना करता हुआ यों न कहे – ये सब साधु मिथ्या रूप से प्रतिमा धारण किये हुए हैं, मैं ही अकेला सम्यक् रूप से प्रतिमा स्वीकार किए हुए हूँ। ये जो साधु भगवान इन चार प्रतिमाओं में से किसी एक को स्वीकार | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 438 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा संथारगं पच्चप्पिणित्तिए। सेज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीअं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं, तहप्पगारं संथारगं नो पच्चप्पिणेज्जा। Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि संस्तारक वापस लौटाना चाहे, उस समय यदि उस संस्तारक को अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त जाने तो इस प्रकार का संस्तारक (उस समय) वापस न लौटाए। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 439 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा संथारगं पच्चप्पिणित्तए। सेज्जं पुण संथारगं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीअं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं, तहप्पगारं संथारगं पडिलेहिय-पडिलेहिय, पमज्जिय-पमज्जिय, आयाविय-आयाविय, विणिद्धणिय-विणिद्धणिय तओ संजयामेव पच्चप्पिणेज्जा। Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि संस्तारक वापस सौंपना चाहे, उस समय उस संस्तारक को अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित जाने तो, उस प्रकार के संस्तारक को बार – बार प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके, सूर्य की धूप देकर एवं यतनापूर्वक झाड़कर गृहस्थ को संयत्नपूर्वक वापस सौंपे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 440 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा समाणे वा, वसमाणे वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे वा पुव्वामेव णं पण्णस्स उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेज्जा।
केवली बूया आयाणमेवं–अपडिलेहियाए उच्चारपासवणभूमीए, भिक्खू वा भिक्खुणी वा राओ वा विआले वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेमाणे पयलेज्ज वा पवडेज्ज वा। से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा हत्थं वा पायं वा बाहुं वा, ऊरुं वा, उदरं वा, सीसं वा अन्नयरं वा कायंसि इंदिय-जायं लूसेज्ज वा पाणाणि वा भूयाणि वा जीवाणि वा सत्ताणि वा अभिहणेज्ज वा, वत्तेज्ज वा, लेसेज्ज वा, संघंसेज्ज वा, संघट्टेज्ज वा, परियावेज्ज वा, किलामेज्ज वा, ठाणाओ ठाणं संकामेज्ज वा, जीविआओ वव-रोवेज्ज वा।
अह Translated Sutra: जो साधु या साध्वी स्थिरवास कर रहा हो, या उपाश्रय में रहा हुआ हो, अथवा ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ आकर ठहरा हो, उस प्रज्ञावान, साधु को चाहिए कि वह पहले ही उसके परिपार्श्व में उच्चार – प्रस्रवण – विसर्जन भूमि को अच्छी तरह देख ले। केवली भगवान ने कहा है – यह अप्रतिलेखित उच्चार – प्रस्रवण – भूमि कर्मबन्ध का कारण है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 441 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा सेज्जा-संथारग-भूमिं पडिलेहित्तए, नन्नत्थ आयरिएण वा, उवज्झाएण वा, पवत्तीए वा, थेरेण वा, गणिणा वा, गणहरेण वा, गनावच्छेइएण वा, बालेण वा, बुड्ढेण वा, सेहेण वा, गिलाणेण वा, आएसेण वा, अंतेण वा, मज्झेण वा, समेण वा, विसमेण वा, पवाएण वा, णिवाएण वा ‘तओ संजयामेव’ पडिलेहिय-पडिलेहिय पमज्जिय-पमज्जिय बहु-फासुयं सेज्जा-संथारगं संथरेज्जा। Translated Sutra: साधु या साध्वी शय्या – संस्तारकभूमि की प्रतिलेखना करना चाहे, वह आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर, गणावच्छेदक, बालक, वृद्ध, शैक्ष, ग्लान एवं अतिथि साधु के द्वारा स्वीकृत भूमि को छोड़कर उपाश्रय के अन्दर, मध्य स्थान में या सम और विषम स्थान में, अथवा वातयुक्त और निर्वातस्थान में भूमि का बार – बार प्रतिलेखन |