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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१६ गाथा |
Hindi | 632 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहाह भगवं–एवं से दंते दविए वोसट्ठकाए त्ति वच्चे–माहणे त्ति वा, समणे त्ति वा, भिक्खू त्ति वा, निग्गंथे त्ति वा।
पडिआह–भंते! कहं दंते दविए वोसट्ठकाए त्ति वच्चे–माहणे त्ति वा? समणे त्ति वा? भिक्खू त्ति वा? निग्गंथे त्ति वा? तं ‘णो बूहि’ महामुनी!
इतिविरतसव्वपावकम्मे पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुण्ण-परपरिवाद-अरतिरति-मायामोस-‘मिच्छादंसणसल्ले विरते’ समिए सहिए सया जए, नो कुज्झे नो माणी ‘माहणे’ त्ति वच्चे।
एत्थ वि समणे अनिस्सिए अणिदाणे आदानं च अतिवायं च ‘मुसावायं च’ बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पेज्जं च दोसं च–इच्चेव ‘जतो-जतो’ आदाणाओ अप्पणो पद्दोसहेऊ ‘ततो-ततो’ Translated Sutra: भगवान ने कहा वह दान्त, शुद्ध चैतन्यवान् और देह का विसर्जन करने वाला पुरुष माहन, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ शब्द से सम्बोधित होता है। पूछा – भदन्त ! दान्त शुद्ध चैतन्यवान् आदि को निर्ग्रन्थ क्यों कहा जाता है? महामुने ! वह हमें कहें। जो सर्व पापकर्मों से विरत है, प्रेय द्वेष, कलह, आरोप, पैशुन्य, परपरिवाद, अरति | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 639 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] किट्टिए नाए समणाउसो! अट्ठे पुन से जाणितव्वे भवति।
भंतेति! ‘निग्गंथा य निग्गंथीओ य समणं भगवं महावीरं’ वंदंति णमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–किट्टिए नाए भगवया अट्ठं पुन से न जाणामो।
समणाउसोति! समणे भगवं महावीरे ते बहवे निग्गंथे य निग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी–हंता समणाउसो! आइक्खामि विभयामि किट्टेमि पवेदेमि सअट्ठं सहेउं सणिमित्तं भुज्जो भुज्जो उवदंसेमि। Translated Sutra: ‘‘आयुष्मन् श्रमणों ! तुम्हें मैंने यह दृष्टान्त कहा है; इसका अर्थ जानना चाहिए।’’ ‘हाँ, भदन्त !’ कहकर साधु और साध्वी श्रमण भगवान महावीर को वन्दना और नमस्कार करके भगवान महावीर से कहते हैं – ‘‘आयुष्मन् श्रमण भगवान ! आपने जो दृष्टान्त बताया उसका अर्थ हम नहीं जानते।’’ श्रमण भगवान महावीर ने उन बहुत – से निर्ग्रन्थों | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Hindi | 643 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे तच्चे पुरिसजाते ईसरकारणिए त्ति आहिज्जइ– इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति अनुपुव्वेणं लोगं उववण्णा, तं जहा–आरिया वेगे अनारिया वेगे, उच्चागोया वेगे नियागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं मणुयाणं एगे राया भवति– महाहिमवंत-मलय-मंदर-महिंदसारे जाव पसंतडिंबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरति।
तस्स णं रण्णो परिसा भवति– उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता, इक्खागा इक्खागपुत्ता, नागा नागपुत्ता, कोरव्वा कोरव्वपुत्ता, भट्टा भट्टपुत्ता, माहणा माहणपुत्ता, लेच्छई लेच्छइपुत्ता, Translated Sutra: तीसरा पुरुष ‘ईश्वरकारणिक’ कहलाता है। इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं मनुष्य होते हैं, जो क्रमशः इस लोक में उत्पन्न हैं। जैसे कि उनमें से कोई आर्य होते हैं, कोई अनार्य इत्यादि। उनमें कोई एक श्रेष्ठ पुरुष महान राजा होता है, इत्यादि पूर्ववत्। इन पुरुषों में से कोई एक धर्मश्रद्धालु होता है। उस धर्मश्रद्धालु | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 648 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–इह खलु किरियाठाणे नामज्झयणे पन्नत्ते। तस्स णं अयमट्ठे, इह खलु संजूहेणं दुवे ठाणा एवमाहिज्जंति, तं जहा–धम्मे चेव अधम्मे चेव, उवसंते चेव अणुवसंते चेव।
तत्थ णं जे से पढमठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे, तस्स णं अयमट्ठे, इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–आरिया वेगे अनारिया वेगे, उच्चागोया वेगे नियागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्स-मंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं इमं एयारूवं दंडसमादानं संपेहाए, तं जहा–णेरइएसु तिरिक्खजोणिएसु माणुसेसु देवेसु जे यावण्णे तहप्पगारा Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! मैंने सूना है, उन आयुष्मन् श्रमण भगवान महावीर ने इस प्रकार कहा था – निर्ग्रन्थ प्रवचन में ‘क्रियास्थान’ अध्ययन है, उसका अर्थ यह है – इस लोक में सामान्य रूप से दो स्थान बताये जाते हैं, एक धर्म – स्थान और दूसरा अधर्मस्थान, अथवा एक उपशान्त स्थान और दूसरा अनुपशान्त स्थान। इन दोनों स्थानों में से प्रथम | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Hindi | 671 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ–इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू, एगच्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जाव-ज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ मुसावायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ अदिण्णादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। Translated Sutra: इसके पश्चात् तृतीय स्थान, जो मिश्रपक्ष है, उसका विभंग इस प्रकार है – इस मनुष्यलोक में पूर्व आदि दिशाओं में कईं मनुष्य होते हैं, जैसे कि – वे अल्प ईच्छा वाले, अल्पारम्भी और अल्पपरिग्रही होते हैं। वे धर्माचरण करते हैं, धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं, यहाँ तक कि धर्मपूर्वक अपनी जीविका चलाते हुए जीवनयापन करते | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-३ आहार परिज्ञा |
Hindi | 675 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–इह खलु आहारपरिण्णा नामज्झयणे। तस्स णं अयमट्ठे, इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा सव्वओ सव्वावंति च णं लोगंसि ‘चत्तारि बीयकाया एवमाहिज्जंति, तं जहा–अग्गबीया मूलबीया पोरबीया खंधबीया’।
तेसिं च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इहेगइया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा पुढविवक्कमा, ‘तज्जोणिया तस्सं-भवा तव्वक्कमा’, कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा नानाविहजोणियासु पुढवीसु रुक्खत्ताए विउट्टंति।
ते जीवा तासिं नानाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेंति–ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वाउसरीरं वणस्सइसरीरं [तसपाणसरीरं?] Translated Sutra: आयुष्मन् ! मैंने सूना है, उन भगवान श्री महावीर स्वामी ने कहा था – इस निर्ग्रन्थ – प्रवचन में आहारपरिज्ञा अध्ययन है, जिसका अर्थ यह है – इस समग्र लोक में पूर्व आदि दिशाओं तथा ऊर्ध्व आदि विदिशाओं में सर्वत्र चार प्रकार के बीजकाय वाले जीव होते हैं, अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज एवं स्कन्धबीज। उन बीजकायिक जीवों में जो | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-४ प्रत्याख्यान |
Hindi | 700 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं– इह खलु पच्चक्खाणकिरियानामज्झयणे। तस्स णं अयमट्ठे–आया अपच्चक्खाणी यावि भवइ। आया अकिरियाकुसले यावि भवइ। आया मिच्छासंठिए यावि भवइ। आया एगंतदंडे यावि भवइ। आया एगंतबाले यावि भवइ। आया एगंतसुत्ते यावि भवइ। आया अवियार-मण-वयण-काय-वक्के यावि भवइ। आया अप्पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे यावि भवइ।
एस खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खाय-पावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते से बाले अवियार-मण-वयण-काय-वक्के सुविणमवि न पस्सइ, पावे य से कम्मे कज्जइ। Translated Sutra: आयुष्मन् ! उन तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने ऐसा कहा था, इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रत्याख्यानक्रिया अध्ययन है। उसका यह अर्थ बताया है कि आत्मा अप्रत्याख्यानी भी होता है; आत्मा अक्रियाकुशल भी होता है; आत्मा मिथ्यात्व में संस्थित भी होता है; आत्मा एकान्तरूप से दूसरे प्राणियों को दण्ड देने वाला भी होता है; | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 778 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भूयाभिसंकाए दुगुंछमाणा सव्वेसि पाणान णिहाय दंडं ।
तम्हा न भुंजंति तहप्पगारं एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं ॥ Translated Sutra: प्राणीयों के उपमर्दन को आशंका से, सावद्य अनुष्ठान से विरक्त रहने वाले निर्ग्रन्थ श्रमण समस्त प्राणीयों को दण्ड देने का त्याग करते हैं, इसलिए वे (दोषयुक्त) आहारादि का उपभोग नहीं करते। संयमी साधकों का यही परम्परागत धर्म है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Hindi | 779 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ‘णिग्गंथधम्मम्मि इमा समाही’ अस्सिं सुठिच्चा अणिहे चरेज्जा ।
बुद्धे मुनी सीलगुणोववेए ‘इहच्चणं पाउणई सिलोगं’ ॥ Translated Sutra: इस निर्ग्रन्थधर्म में इस समाधि में सम्यक् प्रकार से स्थित होकर मायारहित होकर इस निर्ग्रन्थ धर्म में जो विचरण करता है, वह प्रबुद्ध मुनि शील और गुणों से युक्त होकर अत्यन्त पूजा – प्रशंसा प्राप्त करता है। | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 794 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नामं गाहावई होत्था–अड्ढे ‘दित्ते वित्ते’ विच्छिण्ण-विपुल-भवण-सयणासण-जाणवाहनाइण्णे बहुधण-बहुजायरूवरजए आओग-पओग-संपउत्ते विच्छड्डिय-पउर-भत्तपाणे बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्प-भूए बहुजणस्स अपरिभूए यावि होत्था।
से णं लेवे नामं गाहावई समणोवासए यावि होत्था–अभिगयजीवाजीवे उवलद्धपुण्णपावे आसव-संवर-वेयण-णिज्जर-किरिय-अहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसले असहेज्जे देवासुर-नाग-सुवण्ण -जक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोर-गाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणतिक्कमणिज्जे, इणमो निग्गंथिए पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए निव्वितिगिच्छे लद्धट्ठे Translated Sutra: उस नालन्दा नामक बाहिरिका में लेप नामक एक गाथापति रहता था, वह बड़ा ही धनाढ्य, दीप्त और प्रसिद्ध था। वह विस्तीर्ण विपुल भवनों, शयन, आसन, यान एवं वाहनों से परिपूर्ण था। उसके पास प्रचुर धन सम्पत्ति व बहुत – सा सोना एवं चाँदी थी। वह धनार्जन के उपायों का ज्ञाता और अनेक प्रयोगों में कुशल था। उसके यहाँ से बहुत – सा आहार | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 796 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्सिं च णं गिहपदेसंसि भगवं गोयमे विहरइ, भगवं च णं अहे आरामंसि।
अहे णं उदए पेढालपुत्ते भगवं पासावच्चिज्जे नियंठे मेदज्जे गोत्तेणं जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी–
आउसंतो! गोयमा! अत्थि खलु मे केइ पदेसे पुच्छियव्वे, तं च मे आउसो! अहासुयं अहादरिसियमेव वियागरेहि।
सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी–अवियाइ आउसो! सोच्चा निसम्म जाणिस्सामो।
सवायं उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी– Translated Sutra: उसी वनखण्ड के गृहप्रवेश में भगवान गौतम गणधर ने निवास किया। (एक दिन) भगवान गौतम उस वनखण्ड के अधोभाग में स्थित आराम में विराजमान थे। इसी अवसर में मेदार्यगोत्रीय एवं भगवान पार्श्वनाथ स्वामी का शिष्य – संतान निर्ग्रन्थ उदक पेढ़ालपुत्र जहाँ भगवान गौतम विराजमान थे, वहाँ उनके समीप आए। उन्होंने भगवान गौतमस्वामी | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 797 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: आउसंतो! गोयमा! अत्थि खलु कम्मारपुत्तिया नाम समणा निग्गंथा तुम्हागं पवयणं पवयमाणा गाहावइं समणोवासगं उवसंपण्ण एवं पच्चक्खावेंति– ‘ननत्थ अभिजोगेणं, गाहावइ-चोर-ग्गहण-विमोक्खणाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दंडं।’
एवं ण्हं पच्चक्खंताणं दुप्पच्चक्खायं भवइ। एवं ण्हं पच्चक्खावेमानाणं दुपच्चक्खावियं भवइ। एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा अइयरंति सयं पइण्णं।
कस्स णं तं हेउं।
संसारिया खलु पाणा–थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति। तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति। थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उववज्जंति। तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जंति। तेसिं च णं थावरकायंसि उववण्णाणं Translated Sutra: सद्वचनपूर्वक उदक पेढ़ालपुत्र ने भगवान गौतम स्वामी से कहा – ‘‘आयुष्मन् गौतम ! कुमारपुत्र नामके श्रमण निर्ग्रन्थ हैं, जो आपके प्रवचन का उपदेश करते हैं। जब कोई गृहस्थ श्रमणोपासक उनके समीप प्रत्याख्यान ग्रहण करने के लिए पहुँचता है तो वे उसे इस प्रकार प्रत्याख्यान कराते हैं – ‘राजा आदि के अभियोग के सिवाय गाथापति | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 799 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी–आउसंतो! उदगा! नो खलु अम्हं एयं एवं रोयइ। जेते समणा वा माहणा वा एवमाइक्खंति, एवं भासेंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति नो खलु ते समणा वा निग्गंथा वा भासं भासंति, अणु-तावियं खलु ते भासं भासंति, अब्भाइक्खंति खलु ते समणे समणोवासए वा। जेहिं वि अन्नेहिं पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमयंति ताणि वि ते अब्भाइक्खंति।
कस्स णं तं हेउं?
संसारिया खलु पाणा–तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति। थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति। तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जंति। थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उववज्जंति। तेसिं च Translated Sutra: भगवान गौतम ने उदक पेढ़ालपुत्र निर्ग्रन्थ से सद्भावयुक्त वचन, या वाद सहित इस प्रकार कहा – ‘आयुष्मन् उदक ! हमें आपका इस प्रकार का यह मन्तव्य अच्छा नहीं लगता। जो श्रमण या माहन इस प्रकार कहते हैं, उपदेश देते हैं या प्ररूपणा करते हैं, वे श्रमण या निर्ग्रन्थ यथार्थ भाषा नहीं बोलते, अपितु वे अनुतापिनी भाषा बोलते | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 803 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियव्वा–आउसंतो! नियंठा! इह खलु संतेगइया मणुस्सा भवंति। तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ–जे इमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्ता, एएसिं णं आमरणंताए दंडे निक्खित्ते। जे इमे अगारमावसंति, एएसिं णं आमरणंताए दंडे नो निक्खित्ते।
‘केई च णं समणे’ जाव वासाइं चउपंचमाइं छद्दसमाइं अप्पयरो वा भुज्जयरो वा देसं दूइज्जित्ता ‘अगारं वएज्जा’?
हंता वएज्जा।
तस्स णं तमगारत्थं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे भग्गे भवइ?
णेति।
एवमेव समणोवासगस्स वि तसेहिं पाणेहिं दंडे निक्खित्ते, थावरेहिं पाणेहिं दंडे नो निक्खित्ते। तस्स णं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे Translated Sutra: भगवान गौतम कहते हैं कि मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है – आयुष्मन् निर्ग्रन्थों ! इस जगत में कईं मनुष्य ऐसे होते हैं; वे इस प्रकार वचनबद्ध होते हैं कि ‘ये जो मुण्डित हो कर, गृह त्याग कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हैं, इनको आमरणान्त दण्ड देने का मैं त्याग करता हूँ; परन्तु जो ये लोग गृहवास करते हैं, उनको मरणपर्यन्त | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 804 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियव्वा–आउसंतो! नियंठा! इह खलु परिव्वायया वा परिव्वाइयाओ
वा अन्नयरेहिंतो तित्थायतणेहिंतो आगम्म धम्मस्सवणवत्तियं उवसंकमेज्जा?
हंता उवसंकमेज्जा।
‘किं तेसिं’ तहप्पगाराणं धम्मे आइक्खियव्वे?
हंता आइक्खियव्वे।
किं ते तहप्पगारं धम्मं सोच्चा निसम्म एवं वएज्जा–इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अनुत्तरंकेवलियं पडिपुण्णं णेयाउयं संसुद्धं सल्लकत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहं असंदिद्धं सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं। एत्थ ठिया जीवा सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। इमाणाए Translated Sutra: भगवान श्री गौतमस्वामी ने (पुनः) कहा – मुझे निर्ग्रन्थों से पूछना है – आयुष्मन् निर्ग्रन्थो ! इस लोक में परिव्राजक अथवा परिव्राजिकाएं किन्हीं दूसरे तीर्थस्थानों से चलकर धर्मश्रवण के लिए क्या निर्ग्रन्थ साधुओं के पास आ सकती हैं ? निर्ग्रन्थ – हाँ, आ सकती हैं। श्री गौतमस्वामी – क्या उन व्यक्तियों को धर्मोपदेश | |||||||||
Sutrakrutang | सूत्रकृतांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Hindi | 806 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भगवं च णं उदाहु–आउसंतो! उदगा! जे खलु समणं वा माहणं वा परिभासइ मित्ति मण्णइ आगमित्ता नाणं, आगमित्ता दंसणं, आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए [उट्ठिए?], से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिट्ठइ।
जे खलु समणं वा माहणं वा नो परिभासइ मित्ति मण्णइ आगमित्ता पाणं, आगमित्ता दंसणं, आगमित्ता चरित्तं पावाणं कम्माणं अकरणयाए [उट्ठिए?], से खलु परलोगविसुद्धीए चिट्ठइ।
तए णं से उदए पेढालपुत्ते भगवं गोयमं अणाढायमाणे जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पहारेत्थ गमणाए।
भगवं च णं उदाहु–आउसंतो! उदगा! जे खलु तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा णिसम्म अप्पणो Translated Sutra: भगवान गौतम स्वामी ने उनसे कहा – ‘आयुष्मन् उदक ! जो व्यक्ति श्रमण अथवा माहन की निन्दा करता है वह साधुओं के प्रति मैत्री रखता हुआ भी, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को प्राप्त करके भी, हिंसादि पापों तथा तज्जनित पापकर्मों को न करने के लिए उद्यत वह अपने परलोक के विघात के लिए उद्यत है। जो व्यक्ति श्रमण या माहन की निन्दा | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Gujarati | 643 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे तच्चे पुरिसजाते ईसरकारणिए त्ति आहिज्जइ– इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति अनुपुव्वेणं लोगं उववण्णा, तं जहा–आरिया वेगे अनारिया वेगे, उच्चागोया वेगे नियागोया वेगे, कायमंता वेगे हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे दुरूवा वेगे। तेसिं च णं मणुयाणं एगे राया भवति– महाहिमवंत-मलय-मंदर-महिंदसारे जाव पसंतडिंबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरति।
तस्स णं रण्णो परिसा भवति– उग्गा उग्गपुत्ता, भोगा भोगपुत्ता, इक्खागा इक्खागपुत्ता, नागा नागपुत्ता, कोरव्वा कोरव्वपुत्ता, भट्टा भट्टपुत्ता, माहणा माहणपुत्ता, लेच्छई लेच्छइपुत्ता, Translated Sutra: હવે ત્રીજો પુરુષ ઇશ્વરકારણવાદી કહેવાય છે, તેનું વર્ણન કરે છે – આ લોકમાં પૂર્વાદિ દિશામાં અનુક્રમે કેટલાય મનુષ્યો ઉત્પન્ન થાય છે. તેમાં કોઈ આર્ય હોય છે યાવત્ તેમાંનો કોઈ રાજા થાય છે. યાવત્ તેમાં કોઈ એક ધર્મશ્રદ્ધાળુ હોય છે. કોઈ શ્રમણ કે બ્રાહ્મણ તેની પાસે જવા નિશ્ચય કરે છે. યાવત્ મારો આ ધર્મ સુઆખ્યાત, સુપ્રજ્ઞપ્ત | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Gujarati | 795 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तस्स णं लेवस्स गाहावइस्स नालंदाए बाहिरियाए उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए, एत्थ णं सेसदविया नाम उदगसाला होत्था–अणेगखंभसयसण्णिविट्ठा पासादीया दरिसनिया अभिरूवा पडिरूवा।
तीसे णं सेसदवियाए उदगसालाए उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए, एत्थ णं हत्थिजामे नामं वनसंडे होत्था–किण्हे वण्णओ वणसंडस्स। Translated Sutra: તે લેપ ગાથાપતિને નાલંદા બાહિરિકાના ઇશાન ખૂણામાં શેષદ્રવ્યા નામક ઉદકશાળા હતી. તે અનેક શત સ્તંભો પર રહેલી હતી. પ્રાસાદીય યાવત્ પ્રતિરૂપ હતી. તે શેષદ્રવ્યા ઉદકશાળાના ઇશાન ખૂણામાં હસ્તિયામ નામે એક વનખંડ હતું. તે વનખંડ કૃષ્ણવર્ણીય હતું. તે વનખંડના ગૃહપ્રવેશમાં ભગવંત ગૌતમ વિચરતા હતા. તેઓ ત્યાં નીચે બગીચામાં | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Gujarati | 797 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: आउसंतो! गोयमा! अत्थि खलु कम्मारपुत्तिया नाम समणा निग्गंथा तुम्हागं पवयणं पवयमाणा गाहावइं समणोवासगं उवसंपण्ण एवं पच्चक्खावेंति– ‘ननत्थ अभिजोगेणं, गाहावइ-चोर-ग्गहण-विमोक्खणाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दंडं।’
एवं ण्हं पच्चक्खंताणं दुप्पच्चक्खायं भवइ। एवं ण्हं पच्चक्खावेमानाणं दुपच्चक्खावियं भवइ। एवं ते परं पच्चक्खावेमाणा अइयरंति सयं पइण्णं।
कस्स णं तं हेउं।
संसारिया खलु पाणा–थावरा वि पाणा तसत्ताए पच्चायंति। तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति। थावरकायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उववज्जंति। तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जंति। तेसिं च णं थावरकायंसि उववण्णाणं Translated Sutra: સૂત્ર– ૭૯૭. હે આયુષ્યમાન્ ગૌતમ! કુમારપુત્ર નામે શ્રમણ નિર્ગ્રન્થ છે, જે પ્રવચનની પ્રરૂપણા કરે છે. તેઓ કોઈ ગૃહસ્થ શ્રમણોપાસક આવે તો આ પ્રમાણે પચ્ચક્ખાણ કરાવે છે – અભિયોગ સિવાય ગાથાપતિ ચોર – ગ્રહણ વિમોક્ષણ ન્યાયે ત્રસ પ્રાણીની હિંસાનો ત્યાગ છે. આ રીતે પચ્ચક્ખાણ દુષ્પ્રત્યાખ્યાન થાય છે. આવું પચ્ચક્ખાણ કરાવવું | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Gujarati | 803 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] भगवं च णं उदाहु नियंठा खलु पुच्छियव्वा–आउसंतो! नियंठा! इह खलु संतेगइया मणुस्सा भवंति। तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ–जे इमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्ता, एएसिं णं आमरणंताए दंडे निक्खित्ते। जे इमे अगारमावसंति, एएसिं णं आमरणंताए दंडे नो निक्खित्ते।
‘केई च णं समणे’ जाव वासाइं चउपंचमाइं छद्दसमाइं अप्पयरो वा भुज्जयरो वा देसं दूइज्जित्ता ‘अगारं वएज्जा’?
हंता वएज्जा।
तस्स णं तमगारत्थं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे भग्गे भवइ?
णेति।
एवमेव समणोवासगस्स वि तसेहिं पाणेहिं दंडे निक्खित्ते, थावरेहिं पाणेहिं दंडे नो निक्खित्ते। तस्स णं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे Translated Sutra: ભગવાન ગૌતમ કહે છે કે મારે નિર્ગ્રન્થોને પૂછવું છે કે – હે આયુષ્યમાન્ નિર્ગ્રન્થો ! આ જગતમાં એવા કેટલાક મનુષ્યો છે, જેઓ આવી પ્રતિજ્ઞા કરે છે કે – જેઓ આ મુંડ થઈને, ઘર છોડી અનગારિક પ્રવ્રજ્યા લે છે, તેમને આમરણ દંડ દેવાનો હું ત્યાગ કરું છું. જે આ ગૃહવાસે રહ્યા છે, તેમને આમરણ દંડ દેવાનો હું ત્યાગ કરતો નથી. હું પૂછું | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-९ धर्म |
Gujarati | 457 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आसंदी पलियंके य निसिज्जं च गिहंतरे ।
संपुच्छणं सरणं वा तं विज्जं! परिजणिया ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૫૭. સાધુ માંચી, પલંગ કે ગૃહસ્થના ઘર મધ્યે બેસે કે સૂવે નહીં, ગૃહસ્થના સમાચાર ન પૂછે, પૂર્વક્રીડા સ્મરણ ન કરે પણ આ બધું સંસાર – ભ્રમણનું કારણ સમજીને તેનોત્યાગ કરે. સૂત્ર– ૪૫૮. યશ, કીર્તિ, શ્લાઘા, વંદન, પૂજન તથા સમસ્ત લોક સંબંધી જે કામભોગ, તેને જાણીને ત્યાગ કરે. સૂત્ર– ૪૫૯. જેનાથી નિર્વાહ થાય તેવા અન્ન – પાણી | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-९ धर्म |
Gujarati | 461 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भासमाणो न भासेज्जा ‘नो य’ वम्फेज्ज मम्मयं ।
‘माइट्ठाणं विवज्जेज्जा’ ‘अणुवीइ वियागरे’ ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૪૬૧. મુનિ બોલતો છતાં મૌન રહે, મર્મવેધી વચન ન બોલે, માયાસ્થાનનું વર્જન કરે, વિચારીને બોલે. ... સૂત્ર– ૪૬૨. ચાર પ્રકારની ભાષામાં ત્રીજી ભાષા ન બોલે, જે બોલ્યા પછી પ્રાયશ્ચિત્ત કરવું પડે તેવું વચન ન બોલે ન બોલવા યોગ્ય ભાષા ન બોલે એવી નિર્ગ્રન્થની આજ્ઞા છે. ... સૂત્ર– ૪૬૩. મુનિ હલકા વચન, સખી વચન કે ગોત્રવચન ન બોલે, | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन-१६ गाथा |
Gujarati | 632 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहाह भगवं–एवं से दंते दविए वोसट्ठकाए त्ति वच्चे–माहणे त्ति वा, समणे त्ति वा, भिक्खू त्ति वा, निग्गंथे त्ति वा।
पडिआह–भंते! कहं दंते दविए वोसट्ठकाए त्ति वच्चे–माहणे त्ति वा? समणे त्ति वा? भिक्खू त्ति वा? निग्गंथे त्ति वा? तं ‘णो बूहि’ महामुनी!
इतिविरतसव्वपावकम्मे पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुण्ण-परपरिवाद-अरतिरति-मायामोस-‘मिच्छादंसणसल्ले विरते’ समिए सहिए सया जए, नो कुज्झे नो माणी ‘माहणे’ त्ति वच्चे।
एत्थ वि समणे अनिस्सिए अणिदाणे आदानं च अतिवायं च ‘मुसावायं च’ बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पेज्जं च दोसं च–इच्चेव ‘जतो-जतो’ आदाणाओ अप्पणो पद्दोसहेऊ ‘ततो-ततो’ Translated Sutra: ભગવંતે કહ્યું – પૂર્વોક્ત ૧૫ અધ્યયનોમાં કહેલ ગુણોથી યુક્ત સાધુ ઈન્દ્રિયોનું દમન કરનાર, મુક્ત થવા યોગ્ય હોવાથી દ્રવ્ય હોય, કાયાને વોસિરાવનાર હોય, તેને માહન, શ્રમણ, ભિક્ષુ, નિર્ગ્રન્થ કહેવાય છે. હે ભગવંત ! દાંત, દ્રવ્ય અને વ્યુત્સૃષ્ટકાયને નિર્ગ્રન્થ, બ્રાહ્મણ, ભિક્ષુ કેમ કહે છે ? તે મને બતાવો. જે સર્વ પાપકર્મોથી | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-२ क्रियास्थान |
Gujarati | 671 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ–इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा–अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू, एगच्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जाव-ज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ मुसावायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ अदिण्णादाणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। एगच्चाओ मेहुणाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। Translated Sutra: હવે ત્રીજા મિત્રપક્ષ સ્થાનનો વિભાગ કહે છે. આ મનુષ્યલોકમાં પૂર્વાદિ દિશામાં કેટલાક મનુષ્યો રહે છે. જેવા કે – અલ્પેચ્છાવાળા, અલ્પારંભી, અલ્પ પરિગ્રહી, ધાર્મિક, ધર્માનુગ યાવત્ ધર્મ વડે જ જીવન ગુજારનારા હોય છે. તેઓ સુશીલ, સુવ્રતી, સુપ્રત્યાનંદી, સાધુ હોય છે. એક તરફ તેઓ જાવજ્જીવ પ્રાણાતિપાતથી વિરત, બીજી તરફ અવિરત | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-६ आर्द्रकीय |
Gujarati | 774 | Gatha | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] थूलं उरब्भं इह मारियाणं उद्दिट्ठभत्तं च पगप्पएत्ता ।
तं लोणतेल्लेन उवक्खडेत्ता सपिप्पलीयं पगरंति मंसं ॥ Translated Sutra: સૂત્ર– ૭૭૪. બુદ્ધ મતાનુયાયી પુરુષ મોટા સ્થૂળ ઘેટાને મારીને બૌદ્ધ ભિક્ષુઓના ભોજનના ઉદ્દેશ્યથી વિચારીને તેને મીઠુ અને તેલ સાથે પકાવે, પછી પીપળ આદિ મસાલાથી વઘારે છે. ... સૂત્ર– ૭૭૫. અનાર્ય, અજ્ઞાની, રસગૃદ્ધ બૌદ્ધભિક્ષુ ઘણુ માંસ ખાવા છતાં કહે છે કે અમે પાપકર્મથી લેપાતા નથી. સૂત્ર– ૭૭૬. જેઓ આ રીતે માંસનું સેવન કરે | |||||||||
Sutrakrutang | સૂત્રકૃતાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-७ नालंदीय |
Gujarati | 793 | Sutra | Ang-02 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं णयरे होत्था–रिद्धत्थिमियसमिद्धे जाव पडिरूवे।
तस्स णं रायगिहस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं नालंदा नामं बाहिरिया होत्था–अणेगभवण-सयसण्णिविट्ठा पासादीया दरिसनिया अभिरूवा पडिरूवा। Translated Sutra: વર્ણન સૂત્ર સંદર્ભ: (અપૂર્ણ) તે કાળે તે સમયે રાજગૃહ નામે નગર હતું. તે ઋદ્ધ – સ્તિમિત – સમૃદ્ધ – યાવત્ – પ્રતિરૂપ હતું. તે રાજગૃહ નગરની બહાર ઈશાન ખૂણામાં નાલંદા નામની બાહિરિકા – ઉપનગરી હતી. તે અનેકશત ભવનોથી રચાયેલી યાવત્ પ્રતિરૂપ હતી. તે નાલંદા બાહિરિકામાં લેપ નામે ગાથાપતિ હતો. તે ધનીક, દિપ્ત, પ્રસિદ્ધ હતો. વિસ્તીર્ણ | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 7 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–
सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, अब्भुट्ठेमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्ध मेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते! जहेयं तुब्भे वदह।
जहा णं देवानुप्पियाणं Translated Sutra: तब आनन्द गाथापति श्रमण भगवान महावीर से धर्म का श्रवण कर हर्षित व परितुष्ट होता हुआ यों बोला – भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है, विश्वास है। निर्ग्रन्थ – प्रवचन मुझे रुचिकर है। वह ऐसा ही है, तथ्य है, सत्य है, इच्छित है, प्रतीच्छित है, इच्छित – प्रतिच्छित है। यह वैसा ही है, जैसा आपने कहा। देवानुप्रिय | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 10 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं–दुवालसविहं सावयधम्मं पडिवज्जति, पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–नो खलु मे भंते! कप्पइ अज्जप्पभिइं अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थिय-देवयाणि वा अन्नउत्थिय-परिग्गहियाणि वा अरहंतचेइयाइं वंदित्तए वा नमंसित्तए वा, पुव्विं अणालत्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा पानं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अनुप्पदाउं वा, नन्नत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकंतारेणं।
कप्पइ मे समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं Translated Sutra: फिर आनन्द गाथापति ने श्रमण भगवान महावीर के पास पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रतरूप बारह प्रकार का श्रावक – धर्म स्वीकार किया। भगवान महावीर को वन्दना – नमस्कार कर वह भगवान से यों बोला – भगवन् आज से अन्य यूथिक – उनके देव, उन द्वारा परिगृहीत – चैत्य – उन्हें वन्दना करना, नमस्कार करना, उनके पहले बोले बिना उनसे | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Hindi | 13 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे समणोवासए जाए–अभिगयजीवाजीवे उवलद्धपुण्णपावे आसव-संवर-निज्जर-किरिया-अहिगरण-बंधमोक्खकुसले असहेज्जे, देवासुर-नाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किन्नर-किंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्खंखिए निव्वितिगिच्छे लद्धट्ठे गहियट्ठे पुच्छियट्ठे अभिगयट्ठे विनिच्छियट्ठे अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो! निग्गंथे पावयणे अट्ठे अयं परमट्ठे सेसे अणट्ठे ऊसियफलिहे अवंगुयदुवारे चिय-तंतेउर-परघरदार-प्पवेसे चाउद्दसट्ठमुद्दट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अनुपालेत्ता समणे निग्गंथे Translated Sutra: तब आनन्द श्रमणोपासक हो गया। जीव – अजीव का ज्ञाता हो गया यावत् श्रमणनिर्ग्रन्थों का अशन आदि से सत्कार करता हुआ विचरण करने लगा। उसकी भार्या शिवानंदा भी श्रमणोपासिका होकर श्रमणनिर्ग्रन्थों का सत्कार करती हुई विचरण करने लगी। | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Hindi | 23 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दिव्वे पिसायरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं अतत्थं अणुव्विग्ग अखुभियं अचलियं असंभंतं तुसिणीयं धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे संते तंते परितंते सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख-मित्ता दिव्वं पिसायरूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं हत्थिरूवं विउव्वइ–सत्तंगपइट्ठियं सम्मं संठियं सुजातं पुरतो उदग्गं पिट्ठतो वराहं अयाकुच्छिं अलंबकुच्छिं पलंब-लंबोदराधरकरं अब्भुग्गय- मउल- मल्लिया- विमल- धवलदंतं Translated Sutra: जब पिशाच रूपधारी उस देव ने श्रमणोपासक को निर्भय भाव से उपासना – रत देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, उसके ललाट में त्रिबलिक – चढ़ी भृकुटि तन गई। उसने तलवार से कामदेव पर वार किया और उसके टुकड़े – टुकड़े कर डाले। श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र तथा दुःसह वेदना को सहनशीलता पूर्वक झेला। जब पिशाच रूपधारी देव ने देखा, श्रमणोपासक | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Hindi | 24 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दिव्वे हत्थिरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं अतत्थं अणुव्विग्गं अखुभियं अचलियं असंभंतं तुसिणीयं धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे संते तंते परितंते सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडि-निक्खमित्ता दिव्वं हत्थिरूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं सप्परूवं विउव्वइ–उग्गविसं चंडविसं घोरविसं महाकायं मसी-मूसाकालगं नयणविसरोसपुण्णं अंजणपुंज-निगरप्पगासं रत्तच्छं लोहियलोयणं जमलजुयल-चंचलचलंतजीहं धरणीयलवेणिभूयं Translated Sutra: हस्तीरूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत देखा, तो उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर श्रमणोपासक कामदेव को वैसा ही कहा, जैसा पहले कहा था। पर, श्रमणोपासक कामदेव पूर्ववत् निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत रहा। हस्ती रूपधारी उस देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से उपासना | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Hindi | 25 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दिव्वे सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं अतत्थं अणुव्विग्गं अखुभियं अचलियं असंभंतं तुसिणीयं धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभि त्तए वा विपरिणामेत्तए वा, ताहे संते तंते परितंते सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि-क्खमित्ता दिव्वं सप्परूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं देवरूवं विउव्वइ–हार-विराइय-वच्छं कडग-तुडिय-थंभियभुयं अंगय-कुंडल-मट्ठ-गंड-कण्णपीढधारिं विचित्तहत्थाभरणं विचित्त-माला-मउलि-मउडं कल्लाणग-पवरवत्थपरिहियं कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणं Translated Sutra: सर्प रूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भय देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर सर्राटे के साथ उसके शरीर पर चढ़ गया। पीछले भाग से उसके गले में तीन लपेट लगा दिए। लपेट लगाकर अपने तीखे, झहरीले दाँतों से उसकी छाती पर डंक मारा। श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र वेदना को सहनशीलता के साथ झेला। सर्प रूपधारी देव ने जब | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Hindi | 27 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कामदेवाइ! समणे भगवं महावीरे कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी–से नूनं कामदेवा! तुब्भं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउब्भूए। तए णं से देवे एगं महं दिव्वं पिसायरूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता आसुरत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसीयमाणे एगं महं नीलुप्पल-गवल-गुलिय-अयसि-कुसुमप्पगासं खुरधारं, असिं गहाय तुमं एवं वयासी–हंभो! कामदेवा! समणोवासया! जाव जइ णं तुमं अज्ज सीलाइं वयाइं वेरमणाइं पच्चक्खाणाइं पोसहोववासाइं न छड्डेसि न भंजेसि, तो तं अज्ज अहं इमेणं नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासेण खुरधारेण असिणा खंडाखंडिं करेमि, जहा णं तुमं देवानुप्पिया! अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ने कामदेव से कहा – कामदेव ! आधी रात के समय एक देव तुम्हारे सामने प्रकट हुआ था। उस देव ने एक विकराल पिशाच का रूप धारण किया। वैसा कर, अत्यन्त क्रुद्ध हो, उसने तलवार नीकालकर तुमसे कहा – कामदेव ! यदि तुम अपने शील आदि व्रत भग्न नहीं करोगे तो जीवन से पृथक् कर दिए जाओगे। उस देव द्वारा यों कहे जाने पर | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ कुंडकोलिक |
Hindi | 37 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पंचमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, छट्ठस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं कंपिल्लपुरे नयरे। सहस्संबवणे उज्जाणे। जियसत्तू राया।
तत्थ णं कंपिल्लपुरे नयरे कुंडकोलिए नामं गाहावई परिवसइ–अट्ठे जाव बहुजनस्स अपरिभूए।
तस्स णं कुंडकोलियस्स गाहावइस्स छ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ हिरण्णकोडीओ वड्ढिपउत्ताओ, छ हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, छव्वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था।
से णं कुंडकोलिए गाहावई बहूणं जाव आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, सयस्स Translated Sutra: जम्बू ! उस काल – उस समय – काम्पिल्यपुर नगर था। सहस्राम्रवन उद्यान था। जितशत्रु राजा था। कुंड – कोलिक गाथापति था। उसकी पत्नी पूषा थी। छह करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में, छह करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं व्यापार में, छह करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं – धन, धान्य में लगी थीं। छह गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ कुंडकोलिक |
Hindi | 39 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कुंडकोलियाइ! समणे भगवं महावीरे कुंडकोलियं समणोवासयं एवं वयासी–से नूणं कुंडकोलिया! कल्लं तुब्भं पच्चावरण्हकालसमयंसि असोगवणियाए एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था।
तए णं से देवे नाममुद्दगं च उत्तरिज्जगं च पुढविसिलापट्टयाओ गेण्हइ, गेण्हित्ता अंतलिक्ख-पडिवण्णे सखिंखिणियाइं पंचवण्णाइं वत्थाइं पवर परिहिए तुमं एवं वयासी–हंभो! कुंडकोलिया! समणोवासया! सुंदरी णं देवानुप्पिया! गोसालस्स मंखलिपु-त्तस्स धम्मपन्नत्ती–नत्थि उट्ठाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कार-परक्कमे इ वा नियता सव्वभावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपन्नत्ती–अत्थि उट्ठाणे इ Translated Sutra: भगवान महावीर ने श्रमणोपासक कुंडकोलिक से कहा – कुंडकोलिक ! कल दोपहर के समय अशोक – वाटिका में एक देव तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ। वह तुम्हारी नामांकित अंगूठी और दुपट्टा लेकर आकाश में चला गया। यावत् हे कुंडकोलिक ! क्या यह ठीक है ? भगवन् ! ऐसा ही हुआ। तब भगवान ने जैसा कामदेव से कहा था, उसी प्रकार उससे कहा – कुंडकोलिक | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ सद्दालपुत्र |
Hindi | 45 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ चित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, अब्भुट्ठेमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितह-मेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते! से जहेयं तुब्भे वदह। जहा णं देवानुप्पियाणं Translated Sutra: आजीविकोपासक सकडालपुत्र श्रमण भगवान महावीर से धर्म सूनकर अत्यन्त प्रसन्न एवं संतुष्ट हुआ और उसने आनन्द की तरह श्रावक – धर्म स्वीकार किया। विशेष यह कि सकडालपुत्र के परिग्रह के रूप में एक करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थी, एक करोड़ स्वर्ण – मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा एक करोड़ | |||||||||
Upasakdashang | उपासक दशांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ सद्दालपुत्र |
Hindi | 46 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए जाए–अभिगयजीवाजीवे जाव समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणे विहरइ।
तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणोवासिया जाया–अभिगयजीवाजीवा जाव समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणी विहरइ।
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे–एवं खलु सद्दालपुत्ते आजीवियसमयं वमित्ता समणाणं निग्गंथाणं दिट्ठिं पवण्णे, तं Translated Sutra: तत्पश्चात् सकडालपुत्र जीव – अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया। धार्मिक जीवन जीने लगा। कुछ समय बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने यह सूना कि सकडालपुत्र आजीविक – सिद्धान्त को छोड़कर श्रमण – निर्ग्रन्थों की दृष्टि – स्वीकार कर चूका है, तब उसने विचार किया कि मैं सकडालपुत्र के पास जाऊं और श्रमण निर्ग्रन्थों | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Gujarati | 5 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नयरे होत्था–वण्णओ।
तस्स वाणियगामस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं दूइपलासए नामं चेइए।
तत्थ णं वाणियगामे नयरे जियसत्तू राया होत्था–वण्णओ।
तत्थ णं वाणियगामे नयरे आनंदे नामं गाहावई परिवसइ–अड्ढे दित्ते वित्ते विच्छिन्न-विउलभवन-सयनासन-जाण-वाहने बहुधन-जायरूव-रयए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डियपउर-भत्तपाणे बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूए बहुजनस्स अपरिभूए।
तस्स णं आनंदस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ वड्ढिपउत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, चत्तारि Translated Sutra: સૂત્ર– ૫. હે જંબૂ ! તે કાળે, તે સમયે વાણિજ્યગ્રામ નામે નગર હતું, તેની બહાર ઈશાન ખૂણામાં દૂતિપલાશક ચૈત્ય હતું, તે વાણિજ્યગ્રામ નગરમાં જિતશત્રુ રાજા હતો. તે ગામે આનંદ નામે ધનાઢ્ય યાવત્ અપરિભૂત ગાથાપતિ રહેતો હતો. તે આનંદનું ચાર કરોડ હિરણ્ય નિધાનમાં, ચાર કરોડ હિરણ્ય વ્યાપારમાં, ચાર કરોડ હિરણ્ય ધન – ધાન્યાદિમાં | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ आनंद |
Gujarati | 10 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से आनंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं–दुवालसविहं सावयधम्मं पडिवज्जति, पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–नो खलु मे भंते! कप्पइ अज्जप्पभिइं अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थिय-देवयाणि वा अन्नउत्थिय-परिग्गहियाणि वा अरहंतचेइयाइं वंदित्तए वा नमंसित्तए वा, पुव्विं अणालत्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा पानं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अनुप्पदाउं वा, नन्नत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकंतारेणं।
कप्पइ मे समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं Translated Sutra: ત્યારપછી આનંદ ગાથાપતિએ ભગવંત મહાવીર પાસે પાંચ અણુવ્રત, સાત શિક્ષાવ્રતાદિ બાર ભેદે શ્રાવક ધર્મ સ્વીકારીને ભગવંતને વાંદી – નમીને, તેમને કહ્યું – ભગવન્ ! આજથી મારે અન્યતીર્થિક, અન્યતીર્થિકદેવ, અન્યતીર્થિક પરિગૃહીત અરહંત ચૈત્યને વાંદવુ – નમવું ન કલ્પે. તેઓના બોલાવ્યા સિવાય તેઓની સાથે આલાપ – સંલાપ કરવો ન કલ્પે, | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Gujarati | 23 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दिव्वे पिसायरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं अतत्थं अणुव्विग्ग अखुभियं अचलियं असंभंतं तुसिणीयं धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे संते तंते परितंते सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख-मित्ता दिव्वं पिसायरूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं हत्थिरूवं विउव्वइ–सत्तंगपइट्ठियं सम्मं संठियं सुजातं पुरतो उदग्गं पिट्ठतो वराहं अयाकुच्छिं अलंबकुच्छिं पलंब-लंबोदराधरकरं अब्भुग्गय- मउल- मल्लिया- विमल- धवलदंतं Translated Sutra: ત્યારે તે પિશાચરૂપ દેવે, કામદેવ શ્રાવકને નિર્ભય યાવત્ ઉપાસનારત વિચરતો જોઈને, જ્યારે તેને નિર્ગ્રન્થ પ્રવચનથી ચલિત – ક્ષોભિત – વિપરિણામિત કરવા સમર્થ ન થયો ત્યારે શ્રાંત, તાંત, પરિત્રાંત થઈને ધીમે – ધીમે પાછો ખસ્યો, ખસીને પૌષધશાળાથી બહાર નીકળ્યો, પછી દિવ્ય પિશાચરૂપ ત્યજીને એક મોટા દિવ્ય હાથીનું રૂપ વિકુર્વ્યુ. | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Gujarati | 25 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से दिव्वे सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं अतत्थं अणुव्विग्गं अखुभियं अचलियं असंभंतं तुसिणीयं धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभि त्तए वा विपरिणामेत्तए वा, ताहे संते तंते परितंते सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि-क्खमित्ता दिव्वं सप्परूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं देवरूवं विउव्वइ–हार-विराइय-वच्छं कडग-तुडिय-थंभियभुयं अंगय-कुंडल-मट्ठ-गंड-कण्णपीढधारिं विचित्तहत्थाभरणं विचित्त-माला-मउलि-मउडं कल्लाणग-पवरवत्थपरिहियं कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणं Translated Sutra: ત્યારે તે સર્પરૂપ દેવે, કામદેવ શ્રાવકને નિર્ભય જોઈને, જ્યારે કામદેવને નિર્ગ્રન્થ પ્રવચનને ચલિત – ક્ષુભિત – વિપરિણામિત કરવા સમર્થ ન થયો, ત્યારે શ્રાંત થઈને ધીમે ધીમે પાછો ખસ્યો, ખસીને પૌષધશાળાથી નીકળ્યો, નીકળીને દિવ્ય સર્પરૂપ છોડીને એક મહાન દિવ્ય દેવરૂપ વિકુર્વ્યુ, હાર વડે વિરાજિત વક્ષઃસ્થળ યાવત્ દશે | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ कामदेव |
Gujarati | 27 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कामदेवाइ! समणे भगवं महावीरे कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी–से नूनं कामदेवा! तुब्भं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउब्भूए। तए णं से देवे एगं महं दिव्वं पिसायरूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता आसुरत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसीयमाणे एगं महं नीलुप्पल-गवल-गुलिय-अयसि-कुसुमप्पगासं खुरधारं, असिं गहाय तुमं एवं वयासी–हंभो! कामदेवा! समणोवासया! जाव जइ णं तुमं अज्ज सीलाइं वयाइं वेरमणाइं पच्चक्खाणाइं पोसहोववासाइं न छड्डेसि न भंजेसि, तो तं अज्ज अहं इमेणं नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासेण खुरधारेण असिणा खंडाखंडिं करेमि, जहा णं तुमं देवानुप्पिया! अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे Translated Sutra: કામદેવને આમંત્રીને શ્રમણ ભગવંત મહાવીરે કામદેવ શ્રાવકને આમ કહ્યું – હે કામદેવ ! મધ્યરાત્રિ સમયે તારી પાસે એક દેવ આવ્યો, તે દેવે એક મોટા દિવ્ય પિશાચરૂપને વિકુર્વ્યુ યાવત્ તને એમ કહ્યું કે – ઓ કામદેવ ! જો તું આ ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ નહી છોડે તો તું જીવિતથી રહિત થઈ જઈશ, ત્યારે તું નિર્ભય થઈ યાવત્ વિચર્યો. આ પ્રમાણે | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-६ कुंडकोलिक |
Gujarati | 39 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] कुंडकोलियाइ! समणे भगवं महावीरे कुंडकोलियं समणोवासयं एवं वयासी–से नूणं कुंडकोलिया! कल्लं तुब्भं पच्चावरण्हकालसमयंसि असोगवणियाए एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था।
तए णं से देवे नाममुद्दगं च उत्तरिज्जगं च पुढविसिलापट्टयाओ गेण्हइ, गेण्हित्ता अंतलिक्ख-पडिवण्णे सखिंखिणियाइं पंचवण्णाइं वत्थाइं पवर परिहिए तुमं एवं वयासी–हंभो! कुंडकोलिया! समणोवासया! सुंदरी णं देवानुप्पिया! गोसालस्स मंखलिपु-त्तस्स धम्मपन्नत्ती–नत्थि उट्ठाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कार-परक्कमे इ वा नियता सव्वभावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपन्नत्ती–अत्थि उट्ठाणे इ Translated Sutra: સૂત્ર– ૩૯. ભગવંત મહાવીરે કુંડકોલિક શ્રાવકને કહ્યું – હે કુંડકોલિક ! કાલે મધ્યાહ્ને અશોકવાટિકામાં એક દેવ તારી પાસે આવ્યો ઇત્યાદિ૦ શું આ અર્થ યોગ્ય છે ? હા, ભગવંત તે યોગ્ય છે. હે કુંડકોલિક! તું ધન્ય છે, આદિ કામદેવવત્ કહેવું. ભગવંતે સાધુ – સાધ્વીને આમંત્રીને કહ્યું – હે આર્યો ! જો ઘરમધ્યે વસતો ગૃહસ્થ અર્થ, હેતુ, | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ सद्दालपुत्र |
Gujarati | 45 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ चित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी–सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, अब्भुट्ठेमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितह-मेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते! से जहेयं तुब्भे वदह। जहा णं देवानुप्पियाणं Translated Sutra: ત્યારે તે આજીવિકોપાસક સદ્દાલપુત્રે, શ્રમણ ભગવંત મહાવીર પાસે ધર્મ સાંભળી, સમજી હર્ષિત – સંતુષ્ટ યાવત્ હૃદયી થઈ આનંદ માફક ગૃહીધર્મ સ્વીકાર્યો. વિશેષ એ કે – એક હિરણ્ય કોડી નિધાનમાં – એક હિરણ્ય કોડી વ્યાજમાં – એક હિરણ્ય કોડી પથરાયેલ તથા એક ગોકુળ, યાવત્ શ્રમણ ભગવંત મહાવીરને વાંદી – નમીને જ્યાં પોલાસપુર નગર | |||||||||
Upasakdashang | ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-७ सद्दालपुत्र |
Gujarati | 46 | Sutra | Ang-07 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए जाए–अभिगयजीवाजीवे जाव समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणे विहरइ।
तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणोवासिया जाया–अभिगयजीवाजीवा जाव समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असन-पान-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणी विहरइ।
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे–एवं खलु सद्दालपुत्ते आजीवियसमयं वमित्ता समणाणं निग्गंथाणं दिट्ठिं पवण्णे, तं Translated Sutra: ત્યારપછી તે સદ્દાલપુત્ર, શ્રમણોપાસક થયો, જીવાજીવનો જ્ઞાતા થઈ યાવત્ વિચરે છે. ત્યારે ગોશાલક મંખલિપુત્રએ આ વાતને જાણી કે – સદ્દાલપુત્રે આજીવિક સિદ્ધાંતને છોડીને શ્રમણ નિર્ગ્રન્થોની દૃષ્ટિ સ્વીકારી છે. તો આજે હું જઉં અને સદ્દાલપુત્રને નિર્ગ્રન્થોની દૃષ્ટિ છોડાવી ફરી આજીવિક દૃષ્ટિનો સ્વીકાર કરાવું. આ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 539 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जे के इमे पव्वइए नियंठे धम्म सुणित्ता विनओववन्ने ।
सुदुल्लहं लहिउं बोहिलाभं विहरेज्ज पच्छा य जहासुहं तु ॥ Translated Sutra: जो कोई धर्म को सुनकर, अत्यन्त दुर्लभ बोधिलाभ को प्राप्त करके पहले तो विनय संपन्न हो जाता है, निर्ग्रन्थरूप में प्रव्रजित हो जाता है, किन्तु बाद में सुख – स्पृहा के कारण स्वच्छन्द – विहारी हो जाता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 375 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अज्झावयाणं पडिकूलभासी पभाससे किं तु सगासि अम्हं ।
अवि एयं विणस्सउ अन्नपाणं न य णं दाहामु तुमं नियंठा! ॥ Translated Sutra: रुद्रदेव – ‘‘हमारे सामने अध्यापकों के प्रति प्रतिकूल बोलने वाले निर्ग्रन्थ ! क्या बकवास कर रहा है ? यह अन्न जल भले ही सड़ कर नष्ट हो जाय, पर, हम तुझे नहीं देंगे।’’ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 377 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] के एत्थ खत्ता उवजोइया वा अज्झावया वा सह खंडिएहिं ।
एयं दंडेण फलेण हंता कंठम्मि घेत्तूण खेलज्ज जो णं? ॥ Translated Sutra: रुद्रदेव – यहाँ कोई है क्षत्रिय, उपज्योतिष – रसोइये, अध्यापक और छात्र, जो इस निर्ग्रन्थ को डण्डे से, फलक से पीट कर और कण्ठ पकड़ कर निकाल दें। यह सुनकर बहुत से कुमार दौड़ते हुए आए और दण्डों से, बेंतो से, चाबुकों से ऋषि को पीटने लगे। राजा कौशलिक की अनिन्द्य सुंदरी कन्या भद्रा ने मुनि को पीटते देखकर क्रुद्ध कुमारों | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१५ सभिक्षुक |
Hindi | 505 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सयनासनपानभोयणं विविहं खाइमसाइमं परेसिं ।
अदए पडिसेहिए नियंठे जे तत्थ न पउस्सई स भिक्खू ॥ Translated Sutra: शयन, आसन, पान, भोजन और विविध प्रकार के खाद्य एवं खाद्य कोई स्वयं न दे अथवा माँगने पर भी इन्कार कर दे तो जो निर्ग्रन्थ उनके प्रति द्वेष नहीं रखता है, वह भिक्षु है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१६ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान |
Hindi | 511 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं–
इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिंदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमत्ते विहरेज्जा। Translated Sutra: आयुष्मन् ! भगवान् ने ऐसा कहा है। स्थविर भगवन्तों ने निर्ग्रन्थ प्रवचन में दस ब्रह्मचर्य – समाधि – स्थान बतलाए हैं – जिन्हें सुन कर, जिनके अर्थ का निर्णय कर भिक्षु संयम, संवर तथा समाधि से अधिकाधिक सम्पन्न हो – गुप्त हो, इन्द्रियों को वश में रखे – ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखे और सदा अप्रमत्त होकर विहार करे। |