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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Gujarati | 129 | Gatha | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] होल वसुल गोल नाह दइत पिय रमण कंत सामिय निग्घिण नित्थक्क ।
थिण्ण निक्किव अकयण्णुय सिढिलभाव निल्लज्ज लुक्ख
अकलुण जिनरक्खिय मज्झं हिययरक्खगा ॥ Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૩ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Gujarati | 134 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जिनरक्खिए चलमणे तेणेव भूसणरवेणं कण्णसुहमणहरेणं तेहि य सप्पणय-सरल-महुर-भणिएहिं संजाय-विउणराए रयणदीवस्स देवयाए तीसे सुंदरथण-जहण-वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण-रूव-जोवण्णसिरिं च दिव्वं सरभस-उवगूहियाइं विब्बोय-विलसियाणि य विहसिय-सकडक्खदिट्ठि-निस्ससिय-मलिय-उवललिय-थिय-गमण-पणयखिज्जिय-पसाइयाणि य सरमाणे रागमोहियमती अवसे कम्मवसगए अवयक्खइ मग्गतो सविलियं।
तए णं जिनरक्खियं समुप्पन्नकलुणभावं मच्चु-गलत्थल्लणोल्लियमइं अवयक्खंतं तहेव जक्खे उ सेलए जाणिऊण सणियं-सणियं उव्विहइ नियगपट्ठाहि विगयसद्धे।
तए णं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुणं जिनरक्खियं सकलुसा सेलगपट्ठाहि Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૩ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Gujarati | 135 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अण गारियं पव्वइए समाणे पुनरवि मानुस्सए कामभोगे आसयइ पत्थयइ पीहेइ अभिलसइ, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावयाण य हीलणिज्जे जाव चाउरंतं संसारकंतारं भुज्जो-भुज्जो अनुपरियट्टिस्सइ–जहा व से जिनरक्खिए। Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૩ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Gujarati | 138 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा रयणदीवदेवया जेणेव जिनपालिए तेणेव उवागच्छइ, बहूहिं अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खरएहि य मउएहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहिं जाहे नो संचाएइ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे संता तंता परितंता निव्विण्णा समाणा जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया।
तए णं से सेलए जक्खे जिनपालिएण सद्धिं लवणसमुद्दं मज्झंमज्झेणं वीईवयइ, वीईवइत्ता जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चंपाए नयरीए अग्गुज्जाणंसि जिनपालियं पट्ठाओ ओयारेइ, ओयारेत्ता एवं वयासी–एस णं देवानुप्पिया! चंपा नयरी दीसइ त्ति कट्टु जिनपालियं पुच्छइ, जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૩ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Gujarati | 139 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जिनपालिए चंपं नयरिं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे तिप्पमाणे विलवमाणे जिनरक्खियं-वावत्तिं निवेदेइ।
तए णं जिनपालिए अम्मापियरो मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि परियणेणं सद्धिं रोयमाणा कंदमाणा सोयमाणा तिप्पमाणा विलवमाणा बहूइं लोइयाइं मयकिच्चाइं करेंति, करेत्ता कालेणं विगयसोया जाया।
तए णं जिनपालियं अन्नया कयाइं सुहासणवरगयं अम्मापियरो एवं वयासी–कहण्णं पुत्ता! जिनरक्खिए कालगए?
तए णं से जिनपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवाय-संमुच्छणं च पोयवहण-विवत्तिं Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૩ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ माकंदी |
Gujarati | 140 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे। जिनपालिए धम्मं सोच्चा पव्वइए। एगारसंगवी। मासियाए संलेहणाए अप्पाणं ज्झोसेत्ता, सट्ठिं भत्ताइं अनसणाए छेएत्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने। दो सागरोवमाइं ठिई। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ।
एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अण गारियं पव्वइए समाणे मानुस्सए कामभोगे नो पुनरवि आसयइ पत्थयइ पीहेइ, सेणं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावयाण य अच्चणिज्जे जाव चाउरंतं संसारकंतारं वीईवइस्सइ–जहा Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૨૩ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१२ उदक |
Gujarati | 144 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं से जियसत्तू राया अन्नया कयाइ ण्हाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहूहिं ईसर जाव सत्थवाहपभिईहिं सद्धिं भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए सुहासणवरगए विउलं असनं पानं खाइमं साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे एवं च णं विहरइ। जिमिय-भुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयंते चोक्खे परम सुइभूए तंसि विपुलंसि असन-पान-खाइम-साइमंसि जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी–अहो णं देवानुप्पिया! इमे मणुण्णे असन-पान-खाइम-साइमे वण्णेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विसायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे Translated Sutra: ત્યારે તે જિતશત્રુ રાજા અન્ય કોઈ દિવસે સ્નાન કર્યુ, બલિકર્મ કર્યુ યાવત્ અલ્પ પણ મહાર્ઘ આભરણથી અલંકૃત શરીર, ઘણા રાજા, ઇશ્વર યાવત્ સાર્થવાહ આદિ સાથે ભોજન વેળાએ ઉત્તમ સુખાસને બેસી વિપુલ અશનાદિ ખાતા યાવત્ વિચરે છે. જમીને પછી યાવત્ શુચિભૂત થઈને તે વિપુલ અશનાદિ વિષયમાં યાવત્ વિસ્મય પામીને ઘણા ઇશ્વર યાવત્ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Gujarati | 162 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तत्थ णं चंपाए नयरीए जिनदत्ते नामं सत्थवाहे–अड्ढे।
तस्स णं जिनदत्तस्स भद्दा भारिया–सूमाला इट्ठा मानुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरइ।
तस्स णं जिनदत्तस्स पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सागरए नामं दारए–सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे।
तए णं से जिनदत्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइ सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ। इमं च णं सूमालिया दारिया ण्हाया चेडिया-चक्कवाल-संपरिवुडा उप्पिं आगासतलगंसि कनग-तिंदूसएणं कीलमाणी-कीलमाणी विहरइ।
तए णं से जिनदत्ते सत्थवाहे सुमालियं दारियं पासइ, पासित्ता सुमालियाए दारियाए रूवे य जोव्वणे Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૬૧ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Gujarati | 164 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पतिव्वया पइमनुरत्ता पइं पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उट्ठेइ, सागरस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गणं-गवेसणं करेमाणी-करेमाणी वासधरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी– गए णं से सागरए त्ति कट्टु ओहयमनसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया ज्झियायइ।
तए णं सा भद्दा सत्थवाही कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी–गच्छह णं तुमं देवानुप्पिए! बहूवरस्स मुहधोवणियं उवणेहिं।
तए णं सा दासचेडी भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ता समाणी एयमट्ठं Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૬૧ | |||||||||
Gyatadharmakatha | ધર્મકથાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१६ अवरकंका |
Gujarati | 171 | Sutra | Ang-06 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तए णं सा दोवई रायवरकन्ना कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिनयरे तेयसा जलंते जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता ण्हाया कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाइं मंगल्लाइं वत्थाइं पवर परिहिया मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जिनघरं अनुपविसइ, अनुपविसित्ता जिनपडिमाणं अच्चणं करेइ, करेत्ता जिनघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ। Translated Sutra: જુઓ સૂત્ર ૧૬૮ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
4. यह कैसी भ्रान्ति | Hindi | 8 | View Detail | ||
Mool Sutra: जेसिं विसयेसु रदी, तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं।
जइ तं ण हि सब्भावं, वावारो णत्थि विसयत्थं ।। Translated Sutra: जिन जीवों की विषयों में रति होती है, दुःख ही उनका स्वभाव है, ऐसा जानना चाहिए। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो वे विषयभोग के प्रति व्यापार ही क्यों करते? | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
14. आस्तिक्य भाव | Hindi | 74 | View Detail | ||
Mool Sutra: अर्थोऽयमपरोऽनर्थ, इति निर्द्धारणं हृदि।
आस्तिक्यं परमं चिह्नं, सम्यक्त्वस्य जगुर्जिनाः ।। Translated Sutra: `यह अर्थ है और यह अनर्थ है', हृदय में इस प्रकार दृढ़ निर्धारण करना, सम्यग्दर्शन का आस्तिक्य नामक परम चिह्न है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
2. निश्चय ज्ञान (अध्यात्म शासन) | Hindi | 81 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं।
अपदेससुत्तमज्झं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।। Translated Sutra: जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य व अविशेष देखता है, वह शास्त्र-ज्ञान के रूप में अथवा भाव-ज्ञान के रूप में सकल जिन-शासन को देखता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
8. अध्यात्मज्ञान के लिंग | Hindi | 96 | View Detail | ||
Mool Sutra: जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि।
जेण मेत्ती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ।। Translated Sutra: जिसके द्वारा व्यक्ति राग से विरक्त हो, जिसके द्वारा वह श्रेयमार्ग में रत हो, जिसके द्वारा सर्व प्राणियों में मैत्री वर्ते, वही जिनमत में ज्ञान कहा गया है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका | Hindi | 98 | View Detail | ||
Mool Sutra: दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ, शक्तितस्त्यागतपसी
साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिर्आवश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।। Translated Sutra: सम्यग्दर्शन की विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता, अहिंसा आदि व्रतों का तथा उनके रक्षक शीलों का निरतिचार पालन, सतत ज्ञान-ध्यान में लीन रहना, धार्मिक कर्मों में उत्साह व हर्ष, यथाशक्ति त्याग व तप करते रहना, साधु-समाधि अर्थात् अन्त समय समतापूर्वक देह का त्याग करना, गुरुजनों की सेवा, अर्हन्त आचार्य उपाध्याय व शास्त्र की | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
10. अनित्य व अशरण संसार | Hindi | 103 | View Detail | ||
Mool Sutra: जम्मजरामरणभए अभिद्दुए, विविहवाहिसंतत्ते।
लोगम्मि नत्थि सरणं, जिणिंदवरसासणं मुत्तुं ।। Translated Sutra: जन्म, जरा व मरण के भय से पूर्ण तथा विविध व्याधियों से संतप्त इस लोक में जिनशासन को छोड़कर (अथवा आत्मा को छोड़कर) अन्य कोई शरण नहीं है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
13. आस्रव, संवर व निर्जरा भावना | Hindi | 109 | View Detail | ||
Mool Sutra: आस्रव, संवर व निर्जरा भावना (Just Text w/o Gatha under this section) Translated Sutra: १. राग द्वेष व इन्द्रियों के वश होकर यह जीव सदा मन, वचन व काय से कर्म संचय करता रहता है। व्यक्ति की क्रियाएँ नहीं बल्कि मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद व कषाय आदि भाव ही वे द्वार हैं, जिनके द्वारा कर्मों का आस्रव या आगमन होता है। अनित्य व दुःखमय जानकर मैं इनसे निवृत्त होता हूँ। २. समिति गुप्ति आदि के सेवन से इस आस्रव का | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
16. धर्म ही सुख | Hindi | 115 | View Detail | ||
Mool Sutra: धम्मेण विणा जिणदेसिएण, नन्नत्थ अत्थि किंचि सुहं।
ठाणं वा कज्जं वा, सदेवमणुयासुरे लोए ।। Translated Sutra: जिनोपदिष्ट धर्म के बिना देवलोक में, मनुष्यलोक में या असुरलोक में कहीं भी किंचिन्मात्र सुख नहीं है, न तो कोई सुख का स्थान ही है और न कोई सुख का साधन ही। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
6. शल्योद्धार | Hindi | 159 | View Detail | ||
Mool Sutra: णिसल्लस्सेव पुणो, महव्वदाइं हवंति सव्वाइं।
वदमुवहम्मदि तीहिंदु, णिदाणमिच्छत्तमायाहिं ।। Translated Sutra: शल्योंके अभाव में ही `व्रत' व्रत संज्ञा को प्राप्त होते हैं, क्योंकि शल्यों से रहित यति के सम्पूर्ण महाव्रतों का संरक्षण होता है। जिन्होंने शल्यों का आश्रय लिया, उन दम्भाचारियों के व्रत माया मिथ्या व निदान से नष्ट हो जाते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
3. अहिंसा-सूत्र | Hindi | 166 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्तं त्ति देसिदं समये।
तेसिं चेदुप्पत्ती, हिंसेत्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठा ।। Translated Sutra: रागद्वेषादि परिणामों का मन में उत्पन्न न होना ही शास्त्र में `अहिंसा' कहा गया है। और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। [प्रश्न-यदि ऐसा है तो बड़े से बड़ा हिंसक भी अपने को रागद्वेष-विहीन कह कर छुट्टी पा लेगा?] | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
9. ध्यान-समाधि सूत्र | Hindi | 227 | View Detail | ||
Mool Sutra: चिंतंतो ससरूवं जिणबिंबं, अहव अक्खरं परमं।
झायदि कम्मविवायं, तस्स वयं होदि सामाइयं ।। Translated Sutra: जो व्यक्ति स्वस्वरूपका व जिनबिम्ब का चिन्तवन, अथवा परम अक्षर ॐकार का जप व ध्यान करता है, अथवा कर्मों के विपाक का ध्यान करता है, उसको `सामायिक' नामक व्रत होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 256 | View Detail | ||
Mool Sutra: एया वि सा समत्था, जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेण।
पुण्णाणि य पूरेदुं, आसिद्धिपरंपरसुहाणं ।। Translated Sutra: अकेली जिन-भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है। जब तक साधक को मोक्ष नहीं होता तब तक इसके प्रभाव से वह इन्द्र चक्रवर्ती व तीर्थंकर आदि पदों का उत्तमोत्तम सुख भोगता रहता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 257 | View Detail | ||
Mool Sutra: आह गुरु पूयाए, कामवहो होइ जइ वि हु जिणाणं।
तह वि तइ कायव्वा, परिणामविसुद्धिहेऊओ ।। Translated Sutra: यद्यपि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने में कुछ न कुछ हिंसा अवश्य होती है, तथापि परिणाम-विशुद्धि का हेतु होने के कारण वह अवश्य करनी चाहिए, ऐसा गुरु का आदेश है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
1. लोक सूत्र | Hindi | 287 | View Detail | ||
Mool Sutra: धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गलजंतवो।
एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।। Translated Sutra: धर्म, अधर्म आकाश, काल, अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव, ये छह प्रकार के स्वतः सिद्ध द्रव्य हैं। उत्तम दृष्टि सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने इनके समुदाय को ही लोक कहा है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
18. आम्नाय अधिकार |
4. श्वेताम्बर सूत्र | Hindi | 422 | View Detail | ||
Mool Sutra: इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य णवुंसगा।
सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य ।। Translated Sutra: (सभी लिंगों से मोक्ष प्राप्त हो सकता है, क्योंकि सिद्ध कई प्रकार के कहे गये हैं) यथा-स्त्रीलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध, पुरुषलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध, नपुंसक-लिंग से मुक्त होनेवाले सिद्ध, जिन-लिंग से मुक्त होनेवाले सिद्ध, आजीवक आदि अन्य लिंगों से मुक्त होने वाले सिद्ध, और गृहस्थलिंग से मुक्त होने वाले | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
18. आम्नाय अधिकार |
4. श्वेताम्बर सूत्र | Hindi | 424 | View Detail | ||
Mool Sutra: जिणकप्पा वि दुविहा, पाणिपाया पडिग्गहधरा य।
पाउरजमया उरणा, एक्केक्का ते भवे दुविहा ।। Translated Sutra: जिनकल्पी साधु भी दो प्रकार के होते हैं और उनमें से भी प्रत्येक दो दो प्रकार के हैं। अर्थात् चार प्रकार के होते हैं - सवस्त्र परन्तु पाणिपात्राहारी, अवस्त्र पाणिपात्राहारी, सवस्त्र पात्रधारी और अवस्त्र पात्रधारी। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
18. आम्नाय अधिकार |
4. श्वेताम्बर सूत्र | Hindi | 425 | View Detail | ||
Mool Sutra: य एतान् वर्जयेद्दोषान्, धर्मोपकरणादृते।
तस्य त्वग्रहणं युक्तं, यः स्याज्जिन इव प्रभुः ।। Translated Sutra: जो साधु आचार विषयक दोषों को जिनेन्द्र भगवान् की भाँति बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए इनका न ग्रहण करना ही युक्त है (परन्तु जो ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं वे अपनी सामर्थ्य व शक्ति के अनुसार हीनाधिक वस्त्र पात्र आदि उपकरण ग्रहण करते हैं।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
18. आम्नाय अधिकार |
4. श्वेताम्बर सूत्र | Hindi | 428 | View Detail | ||
Mool Sutra: सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्खण-परिग्गहे।
अवि अप्पणो वि देहम्मि, नाऽऽयरन्ति ममाइयं ।। Translated Sutra: समता-भोगी जिन वीतरागियों को अपनी देह के प्रति भी कोई ममत्व नहीं रह गया है, वे इन वस्त्र पात्र आदि के प्रति ममत्व रखते होंगे, यह आशंका कैसे की जा सकती है? | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग) |
4. यह कैसी भ्रान्ति | Hindi | 8 | View Detail | ||
Mool Sutra: येषां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि स्वाभावम्।
यदि तन्न हि स्वभावो, व्यापारो नास्ति विषयार्थम् ।। Translated Sutra: जिन जीवों की विषयों में रति होती है, दुःख ही उनका स्वभाव है, ऐसा जानना चाहिए। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो वे विषयभोग के प्रति व्यापार ही क्यों करते? | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
2. रत्नत्रय अधिकार - (विवेक योग) |
1. सम्यक् योग-रत्नत्रय | Hindi | 19 | View Detail | ||
Mool Sutra: मनसा वचसा कायेन, वापि युक्तस्य वीर्य-परिणामः।
जीवस्य प्रणियोगः, योग इति जिनैर्निर्दिष्टः ।। Translated Sutra: मन वचन व काय से युक्त जीव का वीर्य-परिणाम रूप प्रणियोग, `योग' कहलाता है। (अर्थात् जीव का मानसिक, वाचिक व कायिक हर प्रकार का प्रयत्न या पुरुषार्थ योग शब्द का वाच्य है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
3. श्रद्धा-सूत्र | Hindi | 48 | View Detail | ||
Mool Sutra: यं शक्नोति तं क्रियते, यच्च न शक्नुयात् तस्य च श्रद्धानम्।
केवलिजिनैः भणितं, श्रद्धावानस्य सम्यक्त्वम् ।। Translated Sutra: यदि समर्थ हो तो संयम तप आदि का पालन करो, और यदि समर्थ न हो तो केवल तत्त्वों की श्रद्धा ही करो, क्योंकि श्रद्धावान् को सम्यक्त्व होता है, ऐसा केवली भगवान् ने कहा है। | |||||||||
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4. सम्यग्दर्शन अधिकार - (जागृति योग) |
14. आस्तिक्य भाव | Hindi | 74 | View Detail | ||
Mool Sutra: अर्थोऽयमपरोऽनर्थ, इति निर्द्धारणं हृदि।
आस्तिक्यं परमं चिह्नं, सम्यक्त्वस्य जगुर्जिनाः ।। Translated Sutra: `यह अर्थ है और यह अनर्थ है', हृदय में इस प्रकार दृढ़ निर्धारण करना, सम्यग्दर्शन का आस्तिक्य नामक परम चिह्न है। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
2. निश्चय ज्ञान (अध्यात्म शासन) | Hindi | 81 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः पश्यति आत्मानं, अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषं।
अपदेशसूत्रमध्यं, पश्यति जिनशासनं सर्वम् ।। Translated Sutra: जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य व अविशेष देखता है, वह शास्त्र-ज्ञान के रूप में अथवा भाव-ज्ञान के रूप में सकल जिन-शासन को देखता है। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
8. अध्यात्मज्ञान के लिंग | Hindi | 96 | View Detail | ||
Mool Sutra: येन रागाद्विरज्यते येन श्रेयसि रज्यते।
येन मैत्री प्रभावयेत् तज्ज्ञानं जिनशासने ।। Translated Sutra: जिसके द्वारा व्यक्ति राग से विरक्त हो, जिसके द्वारा वह श्रेयमार्ग में रत हो, जिसके द्वारा सर्व प्राणियों में मैत्री वर्ते, वही जिनमत में ज्ञान कहा गया है। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
9. अध्यात्मज्ञान-चिन्तनिका | Hindi | 98 | View Detail | ||
Mool Sutra: दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ, शक्तितस्त्यागतपसी
साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिर्आवश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।। Translated Sutra: सम्यग्दर्शन की विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता, अहिंसा आदि व्रतों का तथा उनके रक्षक शीलों का निरतिचार पालन, सतत ज्ञान-ध्यान में लीन रहना, धार्मिक कर्मों में उत्साह व हर्ष, यथाशक्ति त्याग व तप करते रहना, साधु-समाधि अर्थात् अन्त समय समतापूर्वक देह का त्याग करना, गुरुजनों की सेवा, अर्हन्त आचार्य उपाध्याय व शास्त्र की | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
10. अनित्य व अशरण संसार | Hindi | 103 | View Detail | ||
Mool Sutra: जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते, विविधव्याधिसंतप्ते।
लोके नास्ति शरणं जिनेन्द्रवरशासनं मुक्त्वा ।। Translated Sutra: जन्म, जरा व मरण के भय से पूर्ण तथा विविध व्याधियों से संतप्त इस लोक में जिनशासन को छोड़कर (अथवा आत्मा को छोड़कर) अन्य कोई शरण नहीं है। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
13. आस्रव, संवर व निर्जरा भावना | Hindi | 109 | View Detail | ||
Mool Sutra: आस्रव, संवर व निर्जरा भावना (Just Text w/o Gatha under this section) Translated Sutra: १. राग द्वेष व इन्द्रियों के वश होकर यह जीव सदा मन, वचन व काय से कर्म संचय करता रहता है। व्यक्ति की क्रियाएँ नहीं बल्कि मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद व कषाय आदि भाव ही वे द्वार हैं, जिनके द्वारा कर्मों का आस्रव या आगमन होता है। अनित्य व दुःखमय जानकर मैं इनसे निवृत्त होता हूँ। २. समिति गुप्ति आदि के सेवन से इस आस्रव का | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
16. धर्म ही सुख | Hindi | 115 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मेण विना जिनदेशितेन, नान्यत्रास्ति किंचित्सुखम्।
स्थानं वा कार्यं वा, सदेवमनुजासुरे लोके ।। Translated Sutra: जिनोपदिष्ट धर्म के बिना देवलोक में, मनुष्यलोक में या असुरलोक में कहीं भी किंचिन्मात्र सुख नहीं है, न तो कोई सुख का स्थान ही है और न कोई सुख का साधन ही। | |||||||||
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
1. व्यवहार-चारित्र निर्देश | Hindi | 139 | View Detail | ||
Mool Sutra: अशुभात् विनिवृत्तिः, शुभे प्रवृत्तिः च जानीहि चारित्रम्।
व्रतसमितिगुप्तिरूपं, व्यवहारनयात् तु जिनभणितम् ।। Translated Sutra: अशुभ कार्यों से निवृत्ति तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति, यह व्यवहार नय से चारित्र का लक्षण है। वह पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति, ऐसे तेरह प्रकार का है। | |||||||||
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
6. शल्योद्धार | Hindi | 159 | View Detail | ||
Mool Sutra: निःशल्यस्येव पुनः, महाव्रतानि भवन्ति सर्वाणि।
व्रतमुपहन्यते तिसृभिस्तु, निदान-मिथ्यात्व-मायाभिः ।। Translated Sutra: शल्योंके अभाव में ही `व्रत' व्रत संज्ञा को प्राप्त होते हैं, क्योंकि शल्यों से रहित यति के सम्पूर्ण महाव्रतों का संरक्षण होता है। जिन्होंने शल्यों का आश्रय लिया, उन दम्भाचारियों के व्रत माया मिथ्या व निदान से नष्ट हो जाते हैं। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
3. अहिंसा-सूत्र | Hindi | 166 | View Detail | ||
Mool Sutra: रागादीनामनुत्पादः अहिंसकत्वमिति देशितं समये।
तेषां चैवोत्पत्तिः हिंसेति जिनेन निर्दिष्टा ।। Translated Sutra: रागद्वेषादि परिणामों का मन में उत्पन्न न होना ही शास्त्र में `अहिंसा' कहा गया है। और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। [प्रश्न-यदि ऐसा है तो बड़े से बड़ा हिंसक भी अपने को रागद्वेष-विहीन कह कर छुट्टी पा लेगा?] | |||||||||
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
8. स्वाध्याय तप | Hindi | 222 | View Detail | ||
Mool Sutra: पूजादिषु निरपेक्षः, जिनशास्त्रं यः पठति भक्तया।
कर्ममलशोधनार्थं, श्रुतलाभः सुखकरः तस्य ।। Translated Sutra: पूजा-प्रतिष्ठा आदि की चाह से निरपेक्ष, जो योगी बहुमान व भक्ति-भाव से अथवा केवल कर्ममल का शोधन करने की भावना से शास्त्रों का पठन व मनन आदि करता है, उसके लिए श्रुत या ज्ञान का लाभ अत्यन्त सुलभ हो जाता है। | |||||||||
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
9. ध्यान-समाधि सूत्र | Hindi | 227 | View Detail | ||
Mool Sutra: चिन्तयन् स्वस्वरूपं जिनबिम्बं, अथवा अक्षरं परमम्।
ध्यायति कर्मविपाकं, तस्य व्रतं भवति सामायिकं ।। Translated Sutra: जो व्यक्ति स्वस्वरूपका व जिनबिम्ब का चिन्तवन, अथवा परम अक्षर ॐकार का जप व ध्यान करता है, अथवा कर्मों के विपाक का ध्यान करता है, उसको `सामायिक' नामक व्रत होता है। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 255 | View Detail | ||
Mool Sutra: सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु, यो भक्तिं करोति श्रावकः श्रमणः।
तस्य तु निर्वृत्तिर्भक्तिर्भवतीति जिनैः प्रज्ञप्तम् ।। Translated Sutra: जो श्रावक (गृहस्थ) अथवा श्रमण (साधु) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र की भक्ति करता है, अर्थात् हृदय में इन गुणों के प्रति अत्यन्त बहुमान धारण करता है, उस ही परमार्थतः निर्वाण या मोक्ष की भक्ति होती है। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 256 | View Detail | ||
Mool Sutra: एकापि सा समर्था, जिनभक्तिः दुर्गतिं निवारयितुम्।
पुण्यान्यपि पूरयितुं, आसिद्धिः परम्परासुखानाम् ।। Translated Sutra: अकेली जिन-भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है। इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है। जब तक साधक को मोक्ष नहीं होता तब तक इसके प्रभाव से वह इन्द्र चक्रवर्ती व तीर्थंकर आदि पदों का उत्तमोत्तम सुख भोगता रहता है। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
4. पूजा-भक्ति सूत्र | Hindi | 257 | View Detail | ||
Mool Sutra: आह गुरु पूजायां, कायवधः भवत्येव यद्यपि जिनानाम्।
तथापि सा कर्तव्या, परिणामविशुद्धिहेतुत्वात् ।। Translated Sutra: यद्यपि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करने में कुछ न कुछ हिंसा अवश्य होती है, तथापि परिणाम-विशुद्धि का हेतु होने के कारण वह अवश्य करनी चाहिए, ऐसा गुरु का आदेश है। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
7. दान-सूत्र | Hindi | 265 | View Detail | ||
Mool Sutra: यो मुनिः भुक्तावशेषं भुंजति सो भुंजते जिनोपदिष्टम्।
संसारसारसौख्यं, क्रमशः निर्वाणवरसौख्यम् ।। Translated Sutra: जो श्रावक साधु-जनों को खिलाने के पश्चात् शेष बचे अन्न को खाता है वही वास्तव में खाता है। वह संसार के सारभूत देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि के उत्तम सुखों को भोगकर क्रम से निर्वाण-सुख को प्राप्त कर लेता है। | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
13. उत्तम त्याग | Hindi | 281 | View Detail | ||
Mool Sutra: निर्वेगत्रिकं भावयति, मोहं त्यक्त्वा सर्वद्रव्येषु।
यः तस्य भवेत् त्यागः, इति कथितं जिनवरेन्द्रैः ।। Translated Sutra: जो जीव पर-द्रव्यों के प्रति ममत्व छोड़कर संसार देह और भोगों से उदासीन हो जाता है, उसको त्यागधर्म होता है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
1. लोक सूत्र | Hindi | 287 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मः अधर्मः आकाशः, कालः पुद्गलाः जन्तवः।
एष लोक इति प्रज्ञप्तो, जिनैर्वरदर्शिभिः ।। Translated Sutra: धर्म, अधर्म आकाश, काल, अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव, ये छह प्रकार के स्वतः सिद्ध द्रव्य हैं। उत्तम दृष्टि सम्पन्न जिनेन्द्र भगवान ने इनके समुदाय को ही लोक कहा है। | |||||||||
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12. द्रव्याधिकार - (विश्व-दर्शन योग) |
2. जीव द्रव्य (आत्मा) | Hindi | 289 | View Detail | ||
Mool Sutra: कर्ता, भोक्ता अमूर्त्तः, शरीरमात्रः अनादिनिधनः च।
दर्शनज्ञानोपयोगः, जीवः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रैः ।। Translated Sutra: जीव या आत्मा आकाशवत् अमूर्तीक है और (देह में रहता हुआ) देह-प्रमाण है। यह अनादि निधन अर्थात् स्वतः सिद्ध है। ज्ञान व दर्शन रूप उपयोग ही उसका प्रधान लक्षण है। (देहधारी) वह अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है तथा उनके सुख-दुःख आदि फलों का भोक्ता भी है। |