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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ सामायिक |
Hindi | 1 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] Translated Sutra: अरिहंत को नमस्कार हो, सिद्ध को नमस्कार हो, आचार्य को नमस्कार हो, उपाध्याय को नमस्कार हो, लोक में रहे सर्व साधु को नमस्कार हो, इस पाँच (परमेष्ठि) को किया गया नमस्कार सर्व पाप का नाशक है। सर्व मंगल में प्रथम (उत्कृष्ट) मंगल है। अरिहंत शब्द के लिए तीन पाठ हैं। अरहंत, अरिहंत और अरूहंत। यहाँ अरहंत शब्द का अर्थ है – जो | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१ सामायिक |
Hindi | 2 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] करेमि भंते सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि
जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि
तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। Translated Sutra: हे भगवंत ! (हे पूज्य !) में (आपकी साक्षी में) सामायिक का स्वीकार करता हूँ यानि समभाव की साधना करता हूँ। जिन्दा हूँ तब तक सर्व सावद्य (पाप) योग का प्रत्याख्यान करता हूँ। यानि मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति न करने का नियम करता हूँ। (जावज्जीव के लिए) मन से, वचन से, काया से (उस तरह से तीन योग से पाप व्यापार) मैं खुद न करूँ, | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Hindi | 4 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उसभमजियं च वंदे संभवमभिणंदणं च सुमइं च ।
पउमप्पहं सुपासं जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ Translated Sutra: ऋषभ और अजीत को, संभव अभिनन्दन और सुमति को, पद्मप्रभु, सुपार्श्व (और) चन्द्रप्रभु सभी जिन को मैं वंदन करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Hindi | 5 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुविहिं च पुप्फदंतं सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं च ।
विमलमणंतं च जिणं धम्मं संतिं च वंदामि ॥ Translated Sutra: सुविधि या पुष्पदंत को, शीतल श्रेयांस और वासुपूज्य को, विमल और अनन्त (एवं) धर्म और शान्ति जिन को वंदन करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Hindi | 6 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] कुंथुं अरं च मल्लिं वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च ।
वंदामि रिट्ठनेमिं पासं तह वद्धमाणं च ॥ Translated Sutra: कुंथु, अर और मल्लि, मुनिसुव्रत और नमि को, अरिष्टनेमि पार्श्व और वर्धमान (उन सभी) जिन को मैं वंदन करता हूँ। (इस तरह से ४ – ५ – ६ तीन गाथा द्वारा ऋषभ आदि चौबीस जिन की वंदना की गई है।) | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२ चतुर्विंशतिस्तव |
Hindi | 7 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एवं मए अभिथुआ विहुय-रयमला पहीण-जरमरणा ।
चउवीसंपि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ Translated Sutra: इस प्रकार मेरे द्वारा स्तवना किये हुए कर्मरूपी कूड़े से मुक्त और विशेष तरह से जिनके जन्म – मरण नष्ट हुए हैं यानि फिर से अवतार न लेनेवाले चौबीस एवं अन्य जिनवर – तीर्थंकर मुझ पर कृपा करे। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 31 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अनुत्तरं केवलियं पडिपुन्नं नेआउयं संसुद्धं सल्लगत्तणं
सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं इत्थं ठिया जीवा
सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति। Translated Sutra: यह निर्ग्रन्थ प्रवचन (जिन आगम या श्रुत) सज्जन को हितकारक, श्रेष्ठ, अद्वितीय, परिपूर्ण, न्याययुक्त, सर्वथा शुद्ध, शल्य को काट डालनेवाला सिद्धि के मार्ग समान, मोक्ष के मुक्तात्माओं के स्थान के और सकल कर्मक्षय समान, निर्वाण के मार्ग समान हैं। सत्य है, पूजायुक्त है, नाशरहित यानि शाश्वत, सर्व दुःख सर्वथा क्षीण हुए | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 35 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खामेमि सव्वजीवे सव्वे जीवा खमंतु मे ।
भित्ती मे सव्वभूएसु वेरं मज्झ न केणई ॥ Translated Sutra: सभी जीव को मैं खमाता हूँ। सर्व जीव मुझे क्षमा करो और सर्व जीव के साथ मेरी मैत्री है। मुझे किसी के साथ वैर नहीं है। उस अनुसार मैंने अतिचार की निन्दा की है आत्मसाक्षी से उस पाप पर्याय की निंदा – गर्हा की है, उस पाप प्रवृत्ति की दुगंछा की है, इस प्रकार से किए गए – हुए पाप व्यापार को सम्यक्, मन, वचन, काया से प्रतिक्रमता | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 51 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिद्ध भो पयओ नमो जिणमए नंदी सया संजमे ।
देवं नाग सुवण्णकिन्नरगण स्सब्भूअ भावच्चिए ॥
लोगो जत्थ पइट्ठिओ जगमिणं तेलुक्कमच्चासुरं ।
धम्मो वड्ढउ सासओ विजयओ धम्मुत्तरं वड्ढउ ॥ Translated Sutra: हे मानव ! सिद्ध ऐसे जिनमत को मैं पुनः नमस्कार करता हूँ कि जो देव – नागकुमार – सुवर्णकुमार – किन्नर के समूह से सच्चे भाव से पूजनीय हैं। जिसमें तीन लोक के मानव सुर और असुरादिक स्वरूप के सहारे के समान संसार का वर्णन किया गया है ऐसे संयम पोषक और ज्ञान समृद्ध दर्शन के द्वारा प्रवृत्त होनेवाला शाश्वत धर्म की वृद्धि | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 54 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो देवाण वि देवो जं देवा पंजली नमंसंति ।
तं देवदेवमहियं सिरसा वंदे महावीरं ॥ Translated Sutra: जो देवों के भी देव हैं, जिनको देव अंजलिपूर्वक नमस्कार करते हैं। और जो इन्द्र से भी पूजे गए हैं ऐसे श्री महावीर प्रभु को मैं सिर झुकाकर वंदन करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 55 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इक्कोवि नमुक्कारो जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स ।
संसार सागराओ तारेइ नरं व नारिं वा ॥ Translated Sutra: जिनेश्वर में उत्तम ऐसे श्री महावीर प्रभु को (सर्व सामर्थ्य से) किया गया एक नमस्कार भी नर या नारी को संसार समुद्र से बचाते हैं। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 56 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] उज्जिंतसेल सिहरे दिक्खा नाणं निसीहिआ जस्स ।
तं धम्मचक्कवट्टीं अरिट्ठनेमिं नमंसामि ॥ Translated Sutra: जिनके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण (वो तीनों कल्याणक) उज्जयंत पर्वत के शिखर पर हुए हैं वो धर्म चक्रवर्ती श्री अरिष्टनेमि को मैं – नमस्कार करता हूँ। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 57 | Gatha | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] चत्तारि अट्ठदस दो य वंदिआ जिणवरा चउव्वीसं ।
परमट्ठ निट्ठिअट्ठा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥
[इति सुयथय-सिद्धथव गाहाओ] Translated Sutra: चार, आँठ, दश और दो ऐसे वंदन किए गए चौबीस तीर्थंकर और जिन्होंने परमार्थ (मोक्ष) को सम्पूर्ण सिद्ध किया है वैसे सिद्ध मुझे सिद्धि दो। | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-५ कायोत्सर्ग |
Hindi | 60 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्छामि खमासमणो
पुव्विं चेइयाइं वंदित्ता नमंसित्ता
तुब्भण्हं पायमूलं विहरमाणेणं
जे केई बहु देवसिया साहुणो दिट्ठा समाणा वा वसमाणा वा गामाणुगामं दूइज्जमाणा वा राइणिया संपुच्छंति ओमराइणिया वंदंति अज्जया वंदंति अज्जियाओ वंदंति सावया वंदंति सावियाओ वंदंति
अहंपि निसल्लो निक्कसाओत्ति-कट्टु
सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि
–अहमवि वंदावेमि चेइयाइं। Translated Sutra: हे क्षमाश्रमण (पूज्य) ! मैं (आपको चैत्यवंदना एवं साधुवंदना) करवाने की ईच्छा रखता हूँ। विहार करने से पहले आपके साथ था तब मैं यह चैत्यवंदना – साधु वंदना श्रीसंघ के बदले में करता हूँ ऐसे अध्यवसाय के साथ श्री जिन प्रतिमा को वंदन नमस्कार करके और अन्यत्र विचरण करते हुए, दूसरे क्षेत्र में जो कोई काफी दिन के पर्यायवाले | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-७ वायुकाय | Hindi | 58 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह संतिगया दविया, नावकंखंति वीजिउं Translated Sutra: इस (जिन शासन में) जो शान्ति प्राप्त – (कषाय जिनके उपशान्त हो गए हैं) और दयार्द्रहृदय वाले मुनि हैं, वे जीव – हिंसा करके जीना नहीं चाहते। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Hindi | 65 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जेहिं वा सद्धिं संवसति ‘ते वा णं’ एगया नियगा तं पुव्विं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवएज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमं पि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा।
से न हस्साए, न किड्डाए, न रतीए, न विभूसाए। Translated Sutra: वह जिनके साथ रहता है, वे स्वजन उसका तिरस्कार करने लगते हैं, उसे कटु व अपमानजनक वचन बोलते हैं। बाद में वह भी उन स्वजनों की निंदा करने लगता है। हे पुरुष ! वे स्वजन तेरी रक्षा करने में या तुझे शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तू भी उन्हें त्राण, या शरण देने में समर्थ नहीं है। वह वृद्ध पुरुष, न हँसी – विनोद के योग्य रहता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Hindi | 67 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीविए इह जे पमत्ता।
से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्दवित्ता उत्तासइत्ता।
अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ‘ते वा णं’ एगया नियगा तं पुव्विं पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसेज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा। Translated Sutra: जो इस जीवन के प्रति प्रमत्त है, वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, ग्रामघात, उपद्रव और उत्त्रास आदि प्रवृत्तियों में लगा रहता है। ‘अकृत काम मैं करूँगा’ इस प्रकार मनोरथ करता रहता है। जिन स्वजन आदि के साथ वह रहता है, वे पहले कभी उसका पोषण करते हैं। वह भी बाद में उन स्वजनों का पोषण करता है। इतना स्नेह – सम्बन्ध होने पर भी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Hindi | 68 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उवाइय-सेसेण वा सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ, इहमेगेसिं असंजयाणं भोयणाए।
तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया नियगा तं पुव्विं परिहरंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरेज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा। Translated Sutra: (मनुष्य) उपभोग में आने के बाद बचे हुए धन से, तथा जो स्वर्ण एवं भोगोपभोग की सामग्री अर्जित – संचित करके रखी है उसको सुरक्षित रखता है। उसे वह कुछ गृहस्थों के भोग के लिए उपयोग में लेता है। (प्रभूत भोगोपभोग के कारण फिर) कभी उसके शरीर में रोग की पीड़ा उत्पन्न होने लगती है। जिन स्वजन – स्नेहीयों के साथ वह रहता आया है, वे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 84 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया णियया पुव्विं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवएज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा।
जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं।
भोगामेव अणुसोयंति। इहमेगेसिं माणवाणं। Translated Sutra: तब कभी एक समय ऐसा आता है, जब उस अर्थ – संग्रही मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार के रोग – उत्पात उत्पन्न हो जाते हैं। वह जिनके साथ रहता है, वे ही स्व – जन एकदा उसका तिरस्कार व निंदा करने लगते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार व निंदा करने लगता है। हे पुरुष ! स्वजनादि तुझे त्राण देने में, शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तू | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-३ अनवद्यतप | Hindi | 147 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उवेह एणं बहिया य लोयं, से सव्वलोगंसि जे केइ विण्णू ।
अणुवीइ पास निक्खित्तदंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति ॥
नरा मुयच्चा धम्मविदु त्ति अंजू।
आरंभजं दुक्खमिणंति नच्चा, एवमाहु समत्तदंसिणो।
ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति।
इति कम्म परिण्णाय सव्वसो। Translated Sutra: इस (पूर्वोक्त अहिंसादि धर्म से) विमुख जो लोग हैं, उनकी उपेक्षा कर ! जो ऐसा करता है, वह समस्त मनुष्य लोक में अग्रणी विज्ञ है। तू अनुचिन्तन करके देख – जिन्होंने दण्ड का त्याग किया है, (वे ही श्रेष्ठ विद्वान होते हैं।) जो सत्त्वशील मनुष्य धर्म के सम्यक् विशेषज्ञ होते हैं, वे ही कर्म का क्षय करते हैं। ऐसे मनुष्य धर्मवेत्ता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-५ ह्रद उपमा | Hindi | 176 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: सड्ढिस्स णं समणुण्णस्स संपव्वयमाणस्स–समियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ। समियंति मण्णमा-णस्स एगया असमिया होइ। असमियंति मण्णमाणस्स एगया समिया होइ। असमियंति मण्णमाणस्स एगया असमिया होइ। समियंति मण्णमाणस्स समिया वा, असमिया वा, समिया होइ उवेहाए। असमियंति मण्णमाणस्स समिया वा, असमिया वा, असमिया होइ उवेहाए।
उवेहमानो अणुवेहमाणं बूया उवेहाहि समियाए।
इच्चेवं तत्थ संधी झोसितो भवति।
उट्ठियस्स ठियस्स गतिं समणुपासह। एत्थवि बालभावे अप्पाणं णोउवदंसेज्जा। Translated Sutra: श्रद्धावान् सम्यक् प्रकार से अनुज्ञा शील एवं प्रव्रज्या को सम्यक् स्वीकार करने या पालने वाला (१) कोई मुनि जिनोक्त तत्त्व को सम्यक् मानता है और उस समय (उत्तरकाल में) भी सम्यक् (मानता) रहता है। (२) कोई प्रव्रज्याकाल में सम्यक् मानता है, किन्तु बाद में किसी समय उसका व्यवहार असम्यक् हो जाता है। (३) कोई मुनि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-६ उन्मार्गवर्जन | Hindi | 182 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: उड्ढं सोता अहे सोता, तिरियं सोता वियाहिया, एते सोया वियक्खाया, जेहिं संगंति पासहा। Translated Sutra: ऊपर नीचे, और मध्य में स्रोत हैं। ये स्रोत कर्मों के आस्रवद्वार हैं, जिनके द्वारा समस्त प्राणियों को आसक्ति पैदा होती है, ऐसा तुम देखो। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Hindi | 186 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ से नरे।
जस्सिमाओ जाईओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, अक्खाइ से नाणमणेलिसं।
से किट्टति तेसिं समुट्ठियाणं णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पण्णाणमंताणं इह मुत्तिमग्गं।
एवं पेगे महावीरा विप्परक्कमंति।
पासह एगेवसीयमाणे अणत्तपण्णे।
से बेमि–से जहा वि कुम्मे हरए विनिविट्ठचित्ते, पच्छन्न-पलासे, उम्मग्गं से णोलहइ।
भंजगा इव सन्निवेसं णोचयंति, एवं पेगे – ‘अनेगरूवेहिं कुलेहिं’ जाया, ‘रूवेहिं सत्ता’ कलुणं थणंति, नियाणाओ ते न लभंति मोक्खं।
अह पास ‘तेहिं-तेहिं’ कुलेहिं आयत्ताए जाया– Translated Sutra: इस मर्त्यलोक में मनुष्यों के बीच में ज्ञाता वह पुरुष आख्यान करता है। जिसे ये जीव – जातियाँ सब प्रकार से भली – भाँति ज्ञात होती हैं, वही विशिष्ट ज्ञान का सम्यग् आख्यान करता है। वह (सम्बुद्ध पुरुष) इस लोक में उनके लिए मुक्ति – मार्ग का निरूपण करता है, जो (धर्माचरण के लिए) सम्यक् उद्यत है, मन, वाणी और काया से जिन्होंने | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-५ उपसर्ग सन्मान विधूनन | Hindi | 208 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: भिक्षु विवेकपूर्वक धर्म का व्याख्यान करता हुआ अपने आपको बाधा न पहुँचाए, न दूसरे को बाधा पहुँचाए और न ही अन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को बाधा पहुँचाए। किसी भी प्राणी को बाधा न पहुँचाने वाला तथा जिससे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व का वध हो, तथा आहारादि की प्राप्ति के निमित्त भी (धर्मोपदेश न करने वाला) वह महामुनि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-४ वेहासनादि मरण | Hindi | 225 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह पुण एवं जाणेज्जा–उवाइक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेज्जा, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेत्ता–
अदुवा संतरुत्तरे।
अदुवा एगसाडे।
अदुवा अचेले। Translated Sutra: जब भिक्षु यह जान ले कि ‘हेमन्त ऋतु’ बीत गई है, ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह जिन – जिन वस्त्रों को जीर्ण समझे, उनका परित्याग कर दे। उन यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके या तो एक अन्तर (सूती) वस्त्र और उत्तर (ऊनी) वस्त्र साथ में रखे; अथवा वह एकशाटक वाला होकर रहे। अथवा वह अचेलक हो जाए। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 281 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अइवातियं अणाउट्टे, सयमण्णेसिं अकरणयाए ।
जस्सित्थिओ परिण्णाया, सव्वकम्मावहाओ से अदक्खू ॥ Translated Sutra: भगवान ने स्वयं पाप – दोष रहित निर्दोष अनाकुट्टि का आश्रय लेकर दूसरों को हिंसा न करने की (प्रेरणा दी)। जिन्हें स्त्रियाँ परिज्ञात हैं, उन भगवान महावीर ने देख लिया था कि ’ कामभोग समस्त पापकर्मों के उपादान कारण हैं’ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 288 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] चरियासणाइं सेज्जाओ, एगतियाओ जाओ बुइयाओ ।
आइक्ख ताइं सयणासणाइं, जाइं सेवित्था से महावीरो ॥ Translated Sutra: ‘भन्ते ! चर्या के साथ – साथ आपने कुछ आसन और वासस्थान बताए थे, अतः मुझे आप उन शयनासन को बताएं, जिनका सेवन भगवान ने किया था।’ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 336 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जाओ पुण ओसहीओ जाणेज्जा–कसिणाओ, सासिआओ, अविदल-कडाओ, अतिरिच्छच्छिन्नाओ, अव्वोच्छि-न्नाओ, तरुणियं वा छिवाडिं अणभिक्कंता-भज्जियं पेहाए – अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा। Translated Sutra: गृहस्थ के घर में भिक्षा प्राप्त होने की आशा से प्रविष्ट हुआ भिक्षु या भिक्षुणी यदि इन औषधियों को जाने कि वे अखण्डित हैं, अविनष्ट योनि हैं, जिनके दो या दो से अधिक टुकड़े नहीं हुए हो, जिनका तिरछा छेदन नहीं हुआ है, जीव रहित नहीं है, अभी अधपकी फली है, जो अभी सचित्त या अभग्न है या अग्नि में भुँजी हुई नहीं है, तो उन्हें देखकर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 343 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविसितुकामे, सेज्जाइं पुण कुलाइं जाणेज्जा–इमेसु खलु कुलेसु नितिए पिंडे दिज्जइ, नितिए अग्ग-पिंडे दिज्जइ, नितिए भाए दिज्जइ, नितिए अवड्ढभाए दिज्जइ–तहप्पगाराइं कुलाइं नितियाइं नितिउमाणाइं, नो भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज्ज वा निक्खमेज्ज वा।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जए। Translated Sutra: गृहस्थ घरमें आहार – प्राप्ति की अपेक्षा से प्रवेश करने के ईच्छुक साधु साध्वी ऐसे कुलों को जान लें कि इन कुलों में नित्यपिण्ड दिया जाता है, नित्य अग्रपिण्ड दिया जाता है, प्रतिदिन भाग या उपार्द्ध भाग दिया जाता है; इस प्रकार के कुल, जो नित्य दान देते हैं, जिनमें प्रतिदिन भिक्षाचरों का प्रवेश होता है, ऐसे कुलों में | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 345 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जाइं पुण कुलाइं जाणेज्जा, तं जहा–उग्ग-कुलाणि वा, ‘भोग-कुलाणि’ वा, राइण्ण-कुलाणि वा, खत्तिय-कुलाणि वा, इक्खाग-कुलाणि वा, हरिवंस-कुलाणि वा, एसिय-कुलाणि वा, वेसिय-कुलाणि वा, गंडाग-कुलाणि वा, कोट्टाग-कुलाणि वा, गामरक्खकुलाणि वा, पोक्कसालिय-कुलाणि वा–अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु कुलेसु अदुगुंछिएसु अगरहिएसु, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा। Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार प्राप्ति के लिए प्रविष्ट होने पर जिन कुलों को जाने वे इस प्रकार हैं – उग्रकुल, भोगकुल, राज्यकुल, क्षत्रियकुल, इक्ष्वाकुकुल, हरिवंशकुल, गोपालादिकुल, वैश्यकुल, नापित – कुल, बढ़ई – कुल, ग्रामरक्षककुल या तन्तुवायकुल, ये और इसी प्रकार के और भी कुल, जो अनिन्दित और अगर्हित हों, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 346 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा समवाएसु वा, पिंड-नियरेसु वा, इंद-महेसु वा, खंद-महेसु वा, रुद्द-महेसु वा, मुगुंद-महेसु वा, भूय -महेसु वा, जक्ख-महेसु वा, नाग-महेसु वा, थूभ-महेसु वा, चेतिय-महेसु वा, रुक्ख-महेसु वा, गिरि-महेसु वा, दरि-महेसु वा, अगड-महेसु वा, तडाग-महेसु वा, दह-महेसु वा, णई-महेसु वा, सर-महेसु वा, सागर-महेसु वा, आगर-महेसु वा–अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरूवेसु महामहेसु वट्टमाणेसु......
बहवे समण-माहण-अतिहि-किविण-वणीमए एगाओ उक्खाओ परिएसिज्जमाणे पेहाए, दोहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते समय वह जाने कि यहाँ मेला, पितृपिण्ड के निमित्त भोज तथा इन्द्र – महोत्सव, स्कन्ध, रुद्र, मुकुन्द, भूत, यक्ष, नाग – महोत्सव तथा स्तूप, चैत्य, वृक्ष, पर्वत, गुफा, कूप, तालाब, हृद, नदी, सरोवर, सागर या आकार सम्बन्धी महोत्सव एवं अन्य इसी प्रकार के विभिन्न | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-५ | Hindi | 362 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलस्स दुवार-बाहं कंटक-बोंदियाए परिपिहियं पेहाए, तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुण्णविय अपडिलेहिय अपमज्जिय णोअवंगुणिज्ज वा, पविसेज्ज वा, निक्खमेज्ज वा।
तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणुण्णविय, पडिलेहिय-पडिलेहिय, पमज्जिय-पमज्जिय तओ संजयामेव अवंगुणिज्जे वा, पविसेज्ज वा, निक्खमेज्ज वा। Translated Sutra: साधु या साध्वी गृहस्थ के घर का द्वार भाग काँटों की शाखा से ढँका हुआ देखकर जिनका वह घर, उनसे पहले अवग्रह माँगे बिना, उसे अपनी आँखों से देखे बिना और प्रमार्जित किये बिना न खोले, न प्रवेश करे और न उसमें से नीकले; किन्तु जिनका घर है, उनसे पहले अवग्रह माँग कर अपनी आँखों से देखकर और प्रमार्जित करके उसे खोले, उसमें प्रवेश | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-११ | Hindi | 396 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह भिक्खू जाणेज्जा सत्त पिंडेसणाओ, सत्त पाणेसणाओ।
तत्थ खलु इमा पढमा पिंडेसणा–असंसट्ठे हत्थे असंसट्ठे मत्ते–तहप्पगारेण असंसट्ठेण हत्थेण वा, मत्तेण वा असणं वा [पाणं वा] खाइमं वा साइमं वा सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा– फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–पढमा पिंडेसणा।
अहावरा दोच्चा पिंडेसणा–संसट्ठे हत्थे संसट्ठे मत्ते–तहप्पगारेण संसट्ठेण हत्थेण वा, मत्तेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–दोच्चा पिंडेसणा।
अहावरा तच्चा पिंडेसणा–इह खलु पाईणं वा, पडीणं Translated Sutra: अब संयमशील साधु को सात पिण्डैषणाएं और सात पानैषणाएं जान लेनी चाहिए। (१) पहली पिण्डैषणा – असंसृष्ट हाथ और असंसृष्ट पात्र। हाथ और बर्तन (सचित्त) वस्तु से असंसृष्ट हो तो उनसे अशनादि आहार की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले। यह पहली पिण्डैषणा है। (२) दूसरी पिण्डैषणा है – संसृष्ट हाथ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-११ | Hindi | 397 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: इच्चेयासिं सत्तण्हं पिंडेसणाणं, सत्तण्हं पाणेसणाणं अन्नतरं पडिमं पडिवज्जमाणे नो एवं वएज्जा–मिच्छा पडिवन्ना खलु एते भयंतारो, अहमेगे सम्मं पडिवन्ने।
जे एते भयंतारो एयाओ पडिमाओ पडिवज्जित्ताणं विहरंति, जो य अहमंसि एयं पडिमं पडिवज्जित्ताणं विहरामि, सव्वे वे ते उ जिणाणाए उवट्ठिया, अन्नोन्नसमाहीए एवं च णं विहरंति।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जए। Translated Sutra: इन सात पिण्डैषणाओं तथा सात पानैषणाओं में से किसी एक प्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधु इस प्रकार न कहे कि ‘इन सब साधु – भदन्तों ने मिथ्यारूप से प्रतिमाएं स्वीकार की हैं, एकमात्र मैंने ही प्रतिमाओं को सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया है।’ (अपितु कहे) जो यह साधु – भगवंत इन प्रतिमाओं को स्वीकार करके विचरण करते हैं, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 412 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइ-कुलेसु वा, परियावसहेसु वा, जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावित्ता तत्थेव भुज्जो सवसंति, अयमाउसो! कालाइक्कंत-किरिया वि भवइ। Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! जिन पथिकशाला आदिमें साधु भगवंतोंने ऋतुबद्ध मासकल्प या वर्षावास कल्प बीताया है, उन्हीं स्थानोंमें अगर वे बिना कारण पुनः पुनः निवास करते हैं, तो उनकी वह शय्या कालातिक्रान्त दोषयुक्त होती है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 413 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइ-कुलेसु वा, परियावसहेसु वा, जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवातिणावित्ता तं दुगुणा तिगुणेण अपरिहरित्ता तत्थेव भुज्जो संवसंति, अयमाउसो! उवट्ठाण-किरिया वि भवइ। Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! जिन पथिकशालाओं आदि में, जिन साधु भगवंतों ने ऋतुबद्ध कल्प या वर्षावास कल्प बीताया है, उससे दूगुना – दूगुना काल अन्यत्र बीताये बिना पुनः उन्हीं में आकर ठहर जाते हैं तो उनकी वह शय्या उपस्थान दोषयुक्त हो जाती है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-३ | Hindi | 437 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्चेयाणं चउण्हं पडिमाणं अन्नयरं पडिमं पडिवज्जमाणे नो एवं वएज्जा मिच्छा पडिवन्ना खलु एते भयंतारो, अहमेगे सम्मं पडिवन्ने।
जे एते भयंतारो एयाओ पडिमाओ पडिवज्जित्ताणं विहरंति, जो य अहमंसि एयं पडिमं पडिवज्जित्ताणं विहरामि, सव्वे वे ते उ जिणाणाए उवट्ठिया, अन्नोन्नसमाहीए एवं च णं विहरंति। Translated Sutra: इन चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करके विचरण करने वाला साधु, अन्य प्रतिमाधारी साधुओं की निन्दा या अवहेलना करता हुआ यों न कहे – ये सब साधु मिथ्या रूप से प्रतिमा धारण किये हुए हैं, मैं ही अकेला सम्यक् रूप से प्रतिमा स्वीकार किए हुए हूँ। ये जो साधु भगवान इन चार प्रतिमाओं में से किसी एक को स्वीकार | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-३ इर्या |
उद्देशक-१ | Hindi | 449 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विरूवरूवाणि पच्चंतिकाणि दस्सुगाय-तणाणि मिलक्खूणि अनारियाणि दुस्सन्नप्पाणि दुप्पण्णवणिज्जाणि अकालपडिबोहीणि अकालपरि-भोईणि, सति लाढे विहाराए, संथरमाणेहिं जणवएहिं, नो विहार-वत्तियाए पवज्जेज्जा गमणाए।
केवली बूया आयाणमेवं–ते णं बाला ‘अयं तेणे’ ‘अयं उवचरए’ ‘अयं तओ आगए’ त्ति कट्टु तं भिक्खुं अक्कोसेज्ज वा, बंधेज्ज वा, रुंभेज्ज वा, उद्दवेज्ज वा। वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं ‘अच्छिंदेज्ज वा’, अवहरेज्ज वा, परिभवेज्ज वा।
अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा एस पइण्णा, एस हेऊ, एस कारणं, एस उवएसो, जं णोतहप्पगाराणि विरूवरूवाणि Translated Sutra: ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी को मार्ग में विभिन्न देशों की सीमा पर रहने वाले दस्युओं के, म्लेच्छों के या अनार्यों के स्थान मिले तथा जिन्हें बड़ी कठिनता से आर्यों का आचार समझाया जा सकता है, जिन्हें दुःख से, धर्मबोध देकर अनार्यकर्मों से हटाया जा सकता है, ऐसे अकाल में जागने वाले, कुसमय में खाने – | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-१ वस्त्र ग्रहण विधि | Hindi | 479 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जाइं पुण वत्थाइं जाणेज्जा विरूवरूवाइं महद्धणमोल्लाइं तं जहा–आजिणगाणि वा, सहिणाणि वा, सहिण-कल्लाणाणि वा, आयकाणि वा, कायकाणि वा, खोमयाणि वा, दुगुल्लाणि वा, मलयाणि वा, पत्तुण्णाणि वा, अंसुयाणि वा, चीणंसुयाणि वा, देसरागाणि वा, अमिलाणि वा, गज्जलाणि वा, फालियाणि वा, कोयहाणि वा, कंबलगाणि वा, पावाराणि वा–अन्नयराणि वा तहप्पगाराइं वत्थाइं महद्धणमोल्लाइं–अफासुयाइं अणेसणिज्जाइं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण आईणपाउरणाणि वत्थाणि जाणेज्जा, तं जहा–उद्दाणि वा, पेसाणि वा, पेसलेसाणि वा, किण्हमिगाईणगाणि वा, णीलमिगाईणगाणि Translated Sutra: साधु – साध्वी यदि ऐसे नाना प्रकार के वस्त्रों को जाने, जो कि महाधन से प्राप्त होने वाले वस्त्र हैं, जैसे कि – आजिनक, श्लक्ष्ण, श्लक्ष्ण कल्याण, आजक, कायक, क्षौमिक दुकूल, पट्टरेशम के वस्त्र, मलयज के सूते से बने वस्त्र, वल्कल तन्तुओं से निर्मित वस्त्र, अंशक, चीनांशुक, देशराग, अमिल, गर्जल, स्फटिक तथा अन्य इसी प्रकार | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-६ पात्रैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 486 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा पायं एसित्तए, सेज्जं पुण पाय जाणेज्जा, तं जहा–अलाउपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा– तहप्पगारं पायं–
जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं पायं धारेज्जा, नो बीयं।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा परं अद्धजोयण-मेराए पाय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण पायं जाणेज्जा– अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएति। तं तहप्पगारं पायं पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया नीहडं Translated Sutra: संयमशील साधु या साध्वी यदि पात्र ग्रहण करना चाहे तो जिन पात्रों को जाने वे इस प्रकार हैं – तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र। इन तीनों प्रकार के पात्रों को साधु ग्रहण कर सकता है। जो निर्ग्रन्थ तरुण बलिष्ठ स्वस्थ और स्थिर – सहन वाला है, वह इस प्रकार का एक ही पात्र रखे, दूसरा नहीं। वह साधु, साध्वी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-७ अवग्रह प्रतिमा |
उद्देशक-१ | Hindi | 489 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] समणे भविस्सामि अनगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसू परदत्तभोई पावं कम्मं नो करिस्सामि त्ति समुट्ठाए सव्वं भंते! अदिन्नादानं पच्चक्खामि।
से अणुपविसित्ता गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, कव्वडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, निगमं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, रायहाणिं वा–नेव सयं अदिन्नं गिण्हेज्जा, नेवन्नेणं अदिन्नं गिण्हावेज्जा, नेवण्णं अदिन्नं गिण्हंतं पि समणुजाणेज्जा।
जेहिं वि सद्धिं संपव्वइए, तेसिं पि याइं भिक्खू छत्तयं वा, मत्तयं वा, दंडगं वा, लट्ठियं वा, भिसियं वा, नालियं वा, चेलं वा, चिलमिलिं वा, चम्मयं वा, चम्मकोसयं वा, चम्मछेदणगं वा– तेसिं पुव्वामेव ओग्गहं अणणुण्णविय Translated Sutra: मुनिदीक्षा लेते समय साधु प्रतिज्ञा करता है – ‘‘अब मैं श्रमण बन जाऊंगा। अनगार, अकिंचन, अपुत्र, अपशु, एवं परदत्तभोजी होकर मैं अब कोई भी हिंसादि पापकर्म नहीं करूँगा।’’ इस प्रकार संयम पालन के लिए उत्थित होकर (कहता है – ) ‘भन्ते ! मैं आज समस्त प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ।’ वह साधु ग्राम यावत् राजधानी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-७ अवग्रह प्रतिमा |
उद्देशक-२ | Hindi | 496 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! ते णं भगवया एवमक्खायं–इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं पंचविहे ओग्गहे पण्णत्ते, तंजहा–देविंदोग्गहे, रायोग्गहे, गाहावइ-ओग्गहे, सागारिय-ओग्गहे, साहम्मिय-ओग्गहे।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जएज्जासि। Translated Sutra: हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने उन भगवान से इस प्रकार कहते हुए सूना है कि इस जिन प्रवचन में स्थविर भगवंतों ने पाँच प्रकार का अवग्रह बताया है, देवेन्द्र – अवग्रह, राजावग्रह, गृहपति – अवग्रह, सागारिक – अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह। यही उस भिक्षु या भिक्षुणी का समग्र आचार है, जिसके लिए वह अपने सभी ज्ञानादि आचारों एवं समितियों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-१२ [५] रुप विषयक |
Hindi | 505 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं रूवाइं पासइ, तं जहा–गंथिमाणि वा, वेढिमाणि वा, पूरिमाणि वा, संघाइमाणि वा, कट्ठकम्माणि वा, पोत्थकम्माणि वा, चित्तकम्माणि वा, मणिकम्माणि वा, दंतकम्माणि वा, पत्तच्छेज्जकम्माणि वा, ‘विहाणि वा, वेहिमाणि वा’, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं [रूवाइं?] चक्खुदंसण-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं रूवाइं पासाइ, तं जहा–वप्पाणि वा, फलिहाणि वा, उप्पलाणि वा, पल्ललाणि वा, उज्झराणि वा, निज्झराणि वा, वावीणि वा, पोक्खराणि वा, दीहियाणि वा, गुंजालियाणि वा, सराणि वा, सागराणि वा, सरपंतियाणि वा, सरसरपंतियाणि वा, Translated Sutra: साधु या साध्वी अनेक प्रकार के रूपों को देखते हैं, जैसे – गूँथे हुए पुष्पों से निष्पन्न, वस्त्रादि से वेष्टित या निष्पन्न पुतली आदि को, जिनके अन्दर कुछ पदार्थ भरने से आकृति बन जाती हो, उन्हें, संघात से निर्मित चोलका – दिकों, काष्ठ कर्म से निर्मित, पुस्तकर्म से निर्मित, चित्रकर्म से निर्मित, विविध मणिकर्म से निर्मित, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 514 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] संवच्छरेण होहिति, अभिणिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स ।
तो अत्थ-संपदाणं, पव्वत्तई पुव्वसूराओ ॥ Translated Sutra: श्री जिनवरेन्द्र तीर्थंकर भगवान का अभिनिष्क्रमण एक वर्ष पूर्ण होते ही होगा, अतः वे दीक्षा लेने से एक वर्ष पहले सांवत्सरिक – वर्षी दान प्रारम्भ कर देते हैं। प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक प्रहर दिन चढ़ने तक उनके द्वारा अर्थ का दान होता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 519 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एए देवणिकाया, भगवं बोहिंति जिणवरं वीरं ।
सव्वजगजीवहियं, अरहं तित्थं पव्वत्तेहि ॥ Translated Sutra: ये सब देव निकाय (आकर) भगवान वीर – जिनेश्वर को बोधित (विज्ञप्त) करते हैं – हे अर्हन् देव ! सर्व जगत के लिए हितकर धर्म – तीर्थ का प्रवर्तन करें। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 521 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सीया उवणीया, जिणवरस्स जरमरणविप्पमुक्कस्स ।
ओसत्तमल्लदामा, जलथलयदिव्वकुसुमेहिं ॥ Translated Sutra: जरा – मरण से विमुक्त जिनवर महावीर के लिए शिबिका लाई गई, जो जल और स्थल पर उत्पन्न होने वाले दिव्यपुष्पों और देव निर्मित पुष्पमालाओं से युक्त थी। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 522 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिवियाए मज्झयारे, दिव्वं वररयणरूवचेवइयं ।
सीहासणं महरिहं, सपादपीढं जिणवरस्स ॥ Translated Sutra: उस शिबिका के मध्य में दिव्य तथा जिनवर के लिए श्रेष्ठ रत्नों की रूपराशि से चर्चित तथा पादपीठ से युक्त महामूल्यवान् सिंहासन बनाया गया था। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 524 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] छट्ठेण उ भत्तेणं, अज्झवसाणेण सोहणेण जिनो ।
लेसाहिं विसुज्झंतो, आरुहइ उत्तमं सीयं ॥ Translated Sutra: उस समय प्रशस्त अध्यवसाय से, षष्ठ भक्त प्रत्याख्यान की तपश्चर्या से युक्त शुभ लेश्याओं से विशुद्ध भगवान उत्तम शिबिका में बिराजमान हुए। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 526 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुव्विं उक्खित्ता, माणुसेहिं साहट्ठरोमपुलएहिं ।
पच्छा वहंति देवा, सुरअसुरगरुलणागिंदा ॥ Translated Sutra: पहले उन मनुष्यों ने उल्लासवश वह शिबिका उठाई, जिनके रोमकूप हर्ष से विकसित हो रहे थे। तत्पश्चात् सूर, असुर, गरुड़ और नागेन्द्र आदि देव उसे उठाकर ले चले। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 535 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरित्तं पडिवन्नस्स मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पन्ने–अड्ढाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं सण्णीणं पंचेंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाइं जाणेइ।
तओ णं समणे भगवं महावीरे पव्वइते समाणे मित्त-नाति-सयण-संबंधिवग्गं पडिविसज्जेति, पडिविसज्जेत्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ– ‘बारसवासाइं वोसट्ठकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा–दिव्वा वा, माणुसा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे ‘अनाइले अव्वहिते अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते’ सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर को क्षायोपशमिक सामायिकचारित्र ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ; वे अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रिय, व्यक्त मन वाले जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे। उधर श्रमण भगवान महावीर ने प्रव्रजित होते ही अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन – सम्बन्धी वर्ग |