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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
11. आत्मा का एकत्व व अनन्यत्व | Hindi | 105 | View Detail | ||
Mool Sutra: एको मे शाश्वतः आत्मा, ज्ञानदर्शनसंयुतः।
शेषा मे बाह्या भावाः, सर्वे संयोगलक्षणाः ।। Translated Sutra: ज्ञान दर्शन युक्त अकेली यह शाश्वत आत्मा ही मेरी है, जगत् के अन्य सर्व बाह्याभ्यन्तर पदार्थ व भाव संयोगज हैं और इसलिए मेरे स्वरूप से बाह्य हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
11. आत्मा का एकत्व व अनन्यत्व | Hindi | 106 | View Detail | ||
Mool Sutra: संयोगमूला जीवेन, प्राप्ता दुःखपरम्परा।
तस्मात्संयोगसम्बन्धं, सर्वभावेन व्युत्सृजामि ।। Translated Sutra: आत्मस्वरूप से बाह्य संयोगमूलक ये सभी बाह्याभ्यन्तर पदार्थ, जीव के द्वारा प्राप्त कर लिये जाने पर क्योंकि उसके लिए दुःख परम्परा के हेतु हो जाते हैं, इसलिए सभी प्रकार के शारीरिक व मानसिक संयोग-सम्बन्धों को मैं मन वचन काय से छोड़ता हूँ। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
11. आत्मा का एकत्व व अनन्यत्व | Hindi | 107 | View Detail | ||
Mool Sutra: अन्यदिदं शरीरं अन्यो जीव इति निश्चितमतिकः।
दुःखपरिक्लेशकरं छिन्द्धि ममत्वं शरीरात् ।। Translated Sutra: `यह जीव अन्य है और शरीर इससे अन्य है', इस प्रकार की निश्चित बुद्धिवाला व्यक्ति, शरीर को दुःख तथा क्लेश का कारण जानकर उस का ममत्व छोड़ देता है। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
12. देह-दोष दर्शन | Hindi | 108 | View Detail | ||
Mool Sutra: यावत्किंचिद्दुक्खं शारीरं मानसं च संसारे।
प्राप्तोऽनन्तकृत्वः कायस्य ममत्वदोषेण ।। Translated Sutra: इस संसार में शारीरिक व मानसिक जितने भी दुःख हैं, वे सब शरीर-ममत्वरूपी दोष के कारण ही प्राप्त होते हैं। (इसलिए मैं इस ममत्व का त्याग करता हूँ।) | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
12. देह-दोष दर्शन | Hindi | 109 | View Detail | ||
Mool Sutra: मांसास्थिसंघाते मूत्रपुरीषभृते नवच्छिद्रे।
अशुचिं परिस्रवति शुभं शरीरे किमस्ति ।। Translated Sutra: मांस व अस्थि के पिण्डभूत, तथा मूत्र-पूरीष के भण्डार अशुचि इस शरीर में शुभ है ही क्या, जिसमें कि नव द्वारों से सदा मल झरता रहता है। (अतः मैं इसके ममत्व का त्याग करता हूँ।) | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
13. आस्रव, संवर व निर्जरा भावना | Hindi | 109 | View Detail | ||
Mool Sutra: आस्रव, संवर व निर्जरा भावना (Just Text w/o Gatha under this section) Translated Sutra: १. राग द्वेष व इन्द्रियों के वश होकर यह जीव सदा मन, वचन व काय से कर्म संचय करता रहता है। व्यक्ति की क्रियाएँ नहीं बल्कि मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद व कषाय आदि भाव ही वे द्वार हैं, जिनके द्वारा कर्मों का आस्रव या आगमन होता है। अनित्य व दुःखमय जानकर मैं इनसे निवृत्त होता हूँ। २. समिति गुप्ति आदि के सेवन से इस आस्रव का | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
14. लोक-स्वरूप चिन्तन | Hindi | 110 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवादिपदार्थानां, समवायः स निरुच्यते लोकः।
त्रिविधः भवेत् लोकः, अधोमध्यमोर्ध्वभेदेन ।। Translated Sutra: जीवादि छह द्रव्यों के समुदाय को लोक कहते हैं। यह त्रिधा विभक्त है-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक। (अधोलोक में नारकीयों का वास है, मध्यलोक में मनुष्य व तिर्योंचों का और ऊर्ध्वलोक में देवों का।) | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
14. लोक-स्वरूप चिन्तन | Hindi | 111 | View Detail | ||
Mool Sutra: अशुभेन निरयतिर्यंचं, शुभोपयोगेन दिविज-नर-सौख्यम्।
शुद्धेन लभते सिद्धिं एवं लोक विचिन्तनीयः ।। Translated Sutra: अशुभ उपयोग से नरक व तिर्यंच लोक की प्राप्ति होती है, शुभोपयोग से देवों व मनुष्यों के सुख मिलते हैं, और शुद्धोपयोग से मोक्षलाभ होता है। इस प्रकार लोक-भावना का चिन्तवन करना चाहिए। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
15. बोधि-दुर्लभ भावना | Hindi | 112 | View Detail | ||
Mool Sutra: मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रुतिर्धर्मस्य दुर्लभा।
यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिम् अहिंस्रताम् ।। Translated Sutra: (चतुर्गति रूप इस संसार में भ्रमण करते हुए प्राणी को मनुष्य तन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है) सौभाग्यवश मनुष्य जन्म पाकर भी श्रुत चारित्र रूप धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसको सुनकर प्राणी तप, कषाय-विजय व अहिंसादि युक्त संयम को प्राप्त कर लेते हैं। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
15. बोधि-दुर्लभ भावना | Hindi | 113 | View Detail | ||
Mool Sutra: कदाचित् श्रवणं लब्ध्वा, श्रद्धा परमदुर्लभा।
श्रुत्वा नैयायिकं मार्गं, बहवः परिभ्रश्यन्ति ।। Translated Sutra: कदाचित् धर्म-श्रवण का लाभ हो जाय तो भी धर्म में श्रद्धा होना दुर्लभ है, क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि रूप इस न्याय-मार्ग को सुनकर भी अनेक व्यक्ति (श्रद्धायुक्त चारित्र अंगीकार करने के बजाय ज्ञानाभिमानवश स्वच्छन्द व) पथ-भ्रष्ट होते देखे जाते हैं। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
15. बोधि-दुर्लभ भावना | Hindi | 114 | View Detail | ||
Mool Sutra: श्रुतिं च लब्ध्वा श्रद्धां च, वीर्यं पुनर्दुर्लभम्।
बहवः रोचमानाऽपि, नो च तत् प्रतिपद्यन्ते ।। Translated Sutra: और यदि बड़े भाग्य से सुनकर श्रद्धा हो जाय तो भी चारित्र पालने के लिए वीर्योल्लास का होना दुर्लभ है। क्योंकि अनेक व्यक्ति सद्धर्म का ज्ञान व रुचि होते हुए भी उसका आचरण करने में समर्थ नहीं होते हैं। | |||||||||
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5. सम्यग्ज्ञान अधिकार - (सांख्य योग) |
16. धर्म ही सुख | Hindi | 115 | View Detail | ||
Mool Sutra: धर्मेण विना जिनदेशितेन, नान्यत्रास्ति किंचित्सुखम्।
स्थानं वा कार्यं वा, सदेवमनुजासुरे लोके ।। Translated Sutra: जिनोपदिष्ट धर्म के बिना देवलोक में, मनुष्यलोक में या असुरलोक में कहीं भी किंचिन्मात्र सुख नहीं है, न तो कोई सुख का स्थान ही है और न कोई सुख का साधन ही। | |||||||||
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग) |
1. निश्चय-चारित्र (समत्व) | Hindi | 116 | View Detail | ||
Mool Sutra: समता तथा माध्यस्थ्यं, शुद्धो भावश्च वीतरागत्वम्।
तथा चारित्रं धर्मः स्वभावाराधना भणिता ।। Translated Sutra: समता, माध्यस्थता, शुद्धोपयोग, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभाव की आराधना ये सब शब्द एकार्थवाची हैं। | |||||||||
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग) |
1. निश्चय-चारित्र (समत्व) | Hindi | 117 | View Detail | ||
Mool Sutra: चारित्रं खलु धर्मो, धर्मो यस्तत्साम्यमिति निर्द्दिष्टम्।
मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनो हि साम्यम् ।। Translated Sutra: परमार्थतः चारित्र ही धर्म (आत्म-स्वभाव) है। धर्म साम्यस्वरूप कहा गया है, और आत्मा का मोह क्षोभ-विहीन परिणाम ही साम्य है, ऐसा शास्त्रों का निर्देश है। [यह निश्चय-चारित्र का अधिकार है। इसके साधनभूत व्यवहार-चारित्र का कथन संयम अधिकार (८) में किया गया है।] | |||||||||
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6. निश्चय-चारित्र अधिकार - (बुद्धि-योग) |
3. रागद्वेष का प्रतिकार | Hindi | 121 | View Detail | ||
Mool Sutra: सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुटंतौ,
ज्ञानज्योतिर्ज्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्च्चिः ।। Translated Sutra: तात्त्विक दृष्टि से देखने पर राग और द्वेष स्वतंत्र सत्ताधारी कुछ भी नहीं है। ज्ञान का अज्ञानरूपेण परिणमन हो जाना ही उनका स्वरूप है। अतः सम्यग्दृष्टि तत्त्वदृष्टि के द्वारा इन्हें नष्ट कर दे, जिससे पूर्ण प्रकाशस्वरूप तथा अचल दीप्तिवाली सहज ज्ञान-ज्योति जागृत हो जाये। १. (चारों कषाय, तीन गौरव, पाँच इन्द्रिय | |||||||||
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
1. व्यवहार-चारित्र निर्देश | Hindi | 139 | View Detail | ||
Mool Sutra: अशुभात् विनिवृत्तिः, शुभे प्रवृत्तिः च जानीहि चारित्रम्।
व्रतसमितिगुप्तिरूपं, व्यवहारनयात् तु जिनभणितम् ।। Translated Sutra: अशुभ कार्यों से निवृत्ति तथा शुभ कार्यों में प्रवृत्ति, यह व्यवहार नय से चारित्र का लक्षण है। वह पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति, ऐसे तेरह प्रकार का है। | |||||||||
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
5. अप्रमाद-सूत्र | Hindi | 151 | View Detail | ||
Mool Sutra: कथं चरेत् कथं तिष्ठेत्, कथमासीत् कथं शयीत्।
कथं भुंजानो भाषमाणः पापकर्मं न बध्नाति ।। Translated Sutra: (`अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति' यह साधनागत व्यवहार चारित्र का लक्षण कहा गया है। इसके विषय में ही शिष्य प्रश्न करता है) - कैसे चलें, कैसे बैठें, कैसे खड़े हों, कैसे सोवें, कैसे खावें और कैसे बोलें कि पापकर्म न बँधे। (गुरु उत्तर देते हैं) - यत्न से चलो, यत्न से खड़े हो, यत्न से बैठो, यत्न से सोओ, यत्न से खाओ और यत्न | |||||||||
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7. व्यवहार-चारित्र अधिकार - (साधना अधिकार) [कर्म-योग] |
5. अप्रमाद-सूत्र | Hindi | 152 | View Detail | ||
Mool Sutra: यतं चरेत् यतं तिष्ठेत् यतमासीत् यतं शयीत्।
यतं भुंजानो भाषमाणः, पापकर्मं न बध्नाति ।। Translated Sutra: कृपया देखें १५१; संदर्भ १५१-१५२ | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
1. संयम-सूत्र | Hindi | 162 | View Detail | ||
Mool Sutra: व्रतसमितिकषायाणां, दण्डानां इन्द्रियाणां पंचानाम्।
धारण-पालन-निग्रह-त्याग-जयः संयमः भणितः ।। Translated Sutra: पंच व्रतों का धारण, पाँच समितियों का पालन, चार कषायों का निग्रह, मन वचन व काय इन तीन दण्डों का त्याग और पाँच इन्द्रियों का जीतना, यह सब संयम कहा गया है। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
8. सागार (श्रावक) व्रत-सूत्र | Hindi | 179 | View Detail | ||
Mool Sutra: पंचैवाणुव्रतानि गुणव्रतानि च भवंति त्रीण्येव।
शिक्षाव्रताति चत्वारि श्रावकधर्मो द्वादशविधा ।। Translated Sutra: [अनगार (साधुओं) के पाँच महाव्रतों का निर्देश कर दिया गया] सागार या गृहस्थ श्रावकों का धर्म १२ प्रकार का है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 191 | View Detail | ||
Mool Sutra: ईर्याभाषैणाऽऽदाने उच्चारे समितिः इति।
मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः कायगुप्तिश्च अष्टमी ।। Translated Sutra: (चलने बोलने खाने आदि में यत्नाचार पूर्वक बरतना समिति कहलाती है।) वह पाँच प्रकार की है-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उच्चार प्रतिष्ठापन। मन वचन व काय को वश में रखना ये तीन गुप्तियाँ हैं। पंच समितियाँ तो चारित्र के क्षेत्र में प्रवृत्ति परक हैं और गुप्तियाँ समस्त अशुभ व्यापारों के प्रति निवृत्तिपरक हैं। संदर्भ | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 192 | View Detail | ||
Mool Sutra: एताः पंचसमितयः चरणस्य च प्रवर्त्तने।
गुप्तयः निवर्तने प्रोक्ताः अशुभार्थेषु सर्वशः ।। Translated Sutra: कृपया देखें १९१; संदर्भ १९१-१९२ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 193 | View Detail | ||
Mool Sutra: प्रासुकमार्गेण दिवा युगन्तरप्रेक्षिणा सकार्येण।
जन्तून परिहरता ईर्यासमितिः भवेद् गमनम् ।। Translated Sutra: जिसमें जीव-जन्तुओं का आना-जाना प्रारम्भ हो गया है, ऐसे प्रासुक मार्ग से, दिन के समय अर्थात् सूर्य के प्रकाश में, चार हाथ परिमाण भूमि को आगे देखते हुए चलना, ईर्या समिति कहलाता है। (कोई क्षुद्र जीव पाँव के नीचे आकर मर न जाये ऐसा प्रयत्न रखना ईर्या समिति है)। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 194 | View Detail | ||
Mool Sutra: पैशून्यहास्यकर्कश-परनिन्दाऽऽत्मप्रशंसाविकथादीन्।
वर्जयित्वा स्वपरहितं भाषासमितिः भवेत् कथनम् ।। Translated Sutra: (किसीको मेरे वचन से कोई पीड़ा न पहुँचे, इस उद्देश्य से साधु)- पैशून्य, उपहास, कर्कश, पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा, राग-द्वेष-वर्धक चर्चाएँ, आदि स्व-पर अनिष्टकारी जितने भी वचन हो सकते हैं, उन सबका त्याग करके, प्रयत्नपूर्वक स्व-पर हितकारी ही वचन बोलता है। यही उसकी भाषा समिति है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 195 | View Detail | ||
Mool Sutra: औद्देशिकं क्रीतकृतं पूतिकर्म च आहृतम्।
अध्यवपूरकं प्रामित्यं मिश्रजातं विवर्जयेत् ।। Translated Sutra: (दातार पर किसी प्रकार का भार न पड़े इस उद्देश्य से) साधु जन निम्न प्रकार के आहार अथवा वसतिका आदि का ग्रहण नहीं करते हैं-जो गृहस्थ ने साधु के उद्देश्य से तैयार किये हों, अथवा उसके उद्देश्य से ही मोल या उधार लिये गये हों, अथवा निर्दोष आहारादि में कुछ भाग उपरोक्त दोष युक्त मिला दिया गया हो, अथवा साधु के निमित्त उसके | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 196 | View Detail | ||
Mool Sutra: चक्षुषा प्रतिलेख्य, प्रमार्जयेत् यतो यतिः।
आददाति निक्षिपेद् वा, द्विधाऽपि समितः सदा ।। Translated Sutra: साधु के पास अन्य तो कोई परिग्रह होता ही नहीं। संयम व शौच के उपकरणभूत रजोहरण, कमण्डलु, पुस्तक आदि मात्र होते हैं। उन्हें उठाते-धरते समय वह स्थान को भली प्रकार झाड़ लेता है, ताकि उनके नीचे दबकर कोई क्षुद्र जीव मर न जाय। उसकी यह यतना ही आदान निक्षेपण समिति कहलाती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
10. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) | Hindi | 197 | View Detail | ||
Mool Sutra: एकान्ते अचित्ते दूरे गूढे विशाले अविरोधे।
उच्चारादित्यागः प्रतिष्ठापनिका भवेत्समितिः ।। Translated Sutra: [पास-पड़ोस के किसी भी व्यक्ति को अथवा भूमि में रहने वाले क्षुद्र जीवों को कोई कष्ट न हो तथा गाँव में गन्दगी न फैले, इस उद्देश्य से] साधु अपने मल-मूत्रादि का क्षेपण किसी ऐसे स्थान में करता है, जो एकान्त में हो, जिस पर या जिसमें क्षुद्र जीव न घूम-फिर या रह रहे हों, जो दूसरों की दृष्टि से ओझल हो, विशाल हो और जहाँ कोई मना | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
11. गुप्ति (आत्म-गोपन सूत्र) | Hindi | 198 | View Detail | ||
Mool Sutra: या रागादिनिवृत्तिर्मनसो जानीहिं तां मनोगुप्तिं।
अलीकादिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वचोगुप्तिः ।। Translated Sutra: मन का राग-द्वेष से निवृत्त होकर (समताभाव में स्थित हो जाना) मनोगुप्ति है। असत्य व अनिष्टकारी वचनों की निवृत्ति अथवा मौन वचन-गुप्ति है। | |||||||||
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8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
11. गुप्ति (आत्म-गोपन सूत्र) | Hindi | 199 | View Detail | ||
Mool Sutra: कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः।
हिंसादिनिवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिर्भवति एषा ।। Translated Sutra: समस्त कायिकी क्रियाओं की निवृत्ति अथवा कायोत्सर्ग निश्चय काय-गुप्ति है और हिंसा-असत्य आदि पाप-क्रियाओं की निवृत्ति व्यवहार काय-गुप्ति है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
12. मनो मौन | Hindi | 200 | View Detail | ||
Mool Sutra: सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि।
पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगीनां मौनमुत्तमम् ।। Translated Sutra: वचन को रोक लेना बहुत सुलभ है। ऐसा मौन तो एकेन्द्रियादिकों को (वृक्षादिकों को) भी होता है। देहादि अनात्मभूत पदार्थों में मन की प्रवृत्ति का न होना ही योगियों का उत्तम मौन है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
12. मनो मौन | Hindi | 201 | View Detail | ||
Mool Sutra: यत् मया दृश्यते रूपं, तत् न जानाति सर्वथा।
ज्ञायकं दृश्यते न तत्, तस्मात् जल्पामि केन अहम् ।। Translated Sutra: जिस रूप को (देह को) मैं अपने समक्ष देखता हूँ, वह जड़ होने के कारण कुछ भी जानता नहीं है। और इसमें जो ज्ञायक आत्मा है, वह दिखाई नहीं देता। तब मैं किसके साथ बोलूँ? | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
8. आत्मसंयम अधिकार - (विकर्म योग) |
13. युक्ताहार विहार | Hindi | 202 | View Detail | ||
Mool Sutra: इहलोकनिरपेक्षः अप्रतिबद्धः परस्मिन् लोके।
युक्ताहारविहारो रहितकषायो भवेत् श्रमणः ।। Translated Sutra: जो योगी इस लोक के सुख व ख्याति प्रतिष्ठा आदि से निरपेक्ष है, और परलोक विषयक सुख-दुःख आदि की कामना से रहित (अप्रतिबद्ध) है, रागद्वेषादि कषायों से रहित है और युक्ताहार विहारी है, वह श्रमण है। | |||||||||
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9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
1. तपोग्नि-सूत्र | Hindi | 203 | View Detail | ||
Mool Sutra: विषयकषायविनिग्रहभावं, कृत्वा ध्यानस्वाध्यायै।
यः भावयति आत्मानं, तस्य तपः भवति नियमेन ।। Translated Sutra: पाँचों इन्द्रियों को विषयों से रोककर और चारों कषायों का निग्रह करके, ध्यान व स्वाध्याय के द्वारा जो निजात्मा की भावना करता है, उसको नियम से तप होता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
1. तपोग्नि-सूत्र | Hindi | 204 | View Detail | ||
Mool Sutra: अध्यवसानविशुद्ध्या, वर्जिता ये तपः उत्कृष्टमपि।
कुर्वन्ति बहिर्लेश्याः, न भवति सा केवला शुद्धिः ।। Translated Sutra: परिणामों की शुद्धि से रहित तथा पूजा और सत्कार आदि में अनुरक्त जो (साधु) उत्कृष्ट भी तप करते हैं, उनके निर्दोष शुद्धि नहीं पायी जाती। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
1. तपोग्नि-सूत्र | Hindi | 205 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञानमयवातसहितं, शीलोज्ज्वलं तपो मतोऽग्निः।
संसारकरणबीजं, दहति दवाग्निरिव तृणराशिम् ।। Translated Sutra: ज्ञानमयी वायु से सहित शील द्वारा प्रज्वलित की गयी तप रूपी अग्नि संसार के कारण व बीजभूत कर्म-राशि को इस प्रकार भस्म कर देती है, जिस प्रकार वायु के वेग से प्रचण्ड दावाग्नि तृणराशि को भस्म कर देती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
1. तपोग्नि-सूत्र | Hindi | 206 | View Detail | ||
Mool Sutra: यं अज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः।
तज्ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः, क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण ।। Translated Sutra: [परन्तु अज्ञानी व ज्ञानी के तप में आकाश-पाताल का अन्तर है] अज्ञानी जितने कर्म अनेक कोटि वर्षों में खपाता है, उतने कर्म ज्ञानी मन वचन काय के गोपन द्वारा एक उच्छ्वास मात्र में खपा देता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
1. तपोग्नि-सूत्र | Hindi | 207 | View Detail | ||
Mool Sutra: तस्माद्वीर्य समुद्रेकादिच्छारोधस्तपो विदुः।
बाह्य वाक्कायसम्भूतमान्तरं मानसं स्मृतम् ।। Translated Sutra: आत्म-बल का उद्रेक हो जाने के कारण योगी की समस्त इच्छाएँ निरुद्ध हो जाती हैं। उसे ही परमार्थतः तप जानना चाहिए। वह दो प्रकार का होता है- बाह्य व आभ्यन्तर। कायिक व वाचसिक तप बाह्य है और मानसिक आभ्यन्तर। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
7. वैयावृत्त्य तप (सेवा योग) | Hindi | 219 | View Detail | ||
Mool Sutra: शय्यावकाशनिषद्योपधि-प्रतिलेखनोपग्रहः।
आहारौषध बाचनाकिंचनोद्वर्तनादिषु ।। Translated Sutra: (इन दो गाथाओं में गुरु-सेवा के विविध लिंगों का कथन है।) वृद्ध व ग्लान गुरु या अन्य साधुओं के लिए सोने व बैठने का स्थान ठीक करना, उनके उपकरणों का शोधन करना, निर्दोष आहार व औषध आदि देकर उनका उपकार करना, उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें शास्त्र पढ़कर सुनाना, अशक्त हों तो उनका मैला उठाना, उन्हें करवट दिलाना, सहारा देकर बैठाना | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
9. तप व ध्यान अधिकार - (राज योग) |
7. वैयावृत्त्य तप (सेवा योग) | Hindi | 220 | View Detail | ||
Mool Sutra: अध्वानस्तेन-श्वापद-राज-नदी रोधकाशिवे दुर्भिक्षे।
वैय्यावृत्त्ययुक्तं संग्रहणारक्षणोपेतम् ।। Translated Sutra: कृपया देखें २१९; संदर्भ २१९-२२० | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
1. आदर्श मरण | Hindi | 232 | View Detail | ||
Mool Sutra: धीरेणापि मर्त्तव्यं, कापुरुषेणाप्यवश्य मर्त्तव्यं।
तस्मादवश्यमरणे वरं खलु धीरत्वेन मर्त्तुम्। Translated Sutra: क्या धीर और क्या कापुरुष, सबको ही अवश्य मरना है। इसलिए धीर-मरण ही क्यों न मरा जाये। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Sanskrit |
10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
1. आदर्श मरण | Hindi | 233 | View Detail | ||
Mool Sutra: एकं पण्डितमरणं, प्रतिपद्यते सुपुरुषः असंभ्रान्तः।
क्षिप्रं सः मरणानां, करोत्यन्तमनन्तानाम् ।। Translated Sutra: सम्यग्दृष्टि पुरुष एकमात्र पण्डित-मरण का ही प्रतिपादन करते हैं, क्योंकि वह शीघ्र ही अनन्त मरणों का अन्त कर देता है। | |||||||||
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
1. आदर्श मरण | Hindi | 234 | View Detail | ||
Mool Sutra: चरेत् पदानि परिशंकमानः, यत्किंचित्पाशं इह मन्यमानः।
लाभान्तरे जीवितं बृंहयिता, पश्चात् परिज्ञाय मलावध्वंसी ।। Translated Sutra: योगी को चाहिए कि वह चारित्र में दोष लगने के प्रति सतत् शंकित रहे, और लोक के थोड़े से भी परिचय को बन्धन मानकर स्वतंत्र विचरे। जब तक रत्नत्रय के लाभ की किंचिन्मात्र भी सम्भावना हो तब तक जीने की बुद्धि रखे अर्थात् शरीर की सावधानी से रक्षा करे, और जब ऐसी आशा न रह जाय, तब इस शरीर को ज्ञान व विवेकपूर्वक त्याग दे। | |||||||||
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
1. आदर्श मरण | Hindi | 235 | View Detail | ||
Mool Sutra: तस्य न कल्पते भक्तप्रतिज्ञा-मनुपस्थिते भये पुरतः।
सो मरणं प्रेक्षमाणः, भवति हि श्रामण्यान्निर्विण्णः ।। Translated Sutra: परन्तु यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति संयममार्ग में कोई भय न होने पर भी मरने की इच्छा करता है, तो उसे वास्तव में संयम से विरक्त हुआ ही समझो। | |||||||||
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
2. देह-त्याग | Hindi | 236 | View Detail | ||
Mool Sutra: सल्लेखना च द्विविधा, अभ्यन्तरा च बाह्या चैव।
अभ्यन्तरा कषाये, बाह्या भवति च शरीरे ।। Translated Sutra: सल्लेखना अर्थात् पण्डितमरण दो प्रकार का होता है-आभ्यन्तर व बाह्य। कषायों को कृश करना आभ्यन्तर सल्लेखना है और शरीर को कृश करना बाह्य। | |||||||||
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
2. देह-त्याग | Hindi | 237 | View Detail | ||
Mool Sutra: नैव कारणं तृणमयः संस्तारकः, नैव च प्रासुका भूमिः।
आत्मैव संस्तारको भवति, विशुद्धं मनो यस्य ।। Translated Sutra: न तो तृणमय संस्तर ही सल्लेखना-मरण का कारण है और न ही प्रासुक भूमि। जिसका मन शुद्ध है ऐसा आत्मा ही वास्तव में संस्तारक है। | |||||||||
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
2. देह-त्याग | Hindi | 238 | View Detail | ||
Mool Sutra: कषायानु प्रतनून् कृत्वा, अल्पाहारान् तितिक्षते।
अथ भिक्षुर्ग्लायेत्, आहारस्येव अन्तिकम् ।। Translated Sutra: सल्लेखनाधारी क्षपक को चाहिए कि वह कषायों को पतला करे और आहार को धीरे-धीरे घटाता जाय। क्षमाशील रहे तथा कष्ट को सहन करे। क्रमशः आहार घटाने से जब शरीर अति कृश हो जाय तो उसका सर्वथा त्याग करके अनशन धारण कर ले। | |||||||||
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
3. अन्त मति सो गति | Hindi | 239 | View Detail | ||
Mool Sutra: यो यया परिनिमित्तात्, लेश्यया संयुक्तः करोति कालम्।
तल्लेश्यः उपजायते, तल्लेश्ये चैव सः स्वर्गे ।। Translated Sutra: जो व्यक्ति जिस लेश्या या परिणाम से युक्त होकर मरण को प्राप्त होता है, वह अगले भव में उस लेश्या के साथ उसी लेश्यावाले स्वर्ग में उत्पन्न होता है। | |||||||||
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
4. सातत्य योग | Hindi | 240 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथा राजकुलप्रसूतो योग्यं नित्यमपि करोति परिकर्म्म।
ततः जितकरणो युद्धे कर्मसमर्थो भविष्यति हि ।। Translated Sutra: जिस प्रकार कोई राजपुत्र शस्त्र-विद्या की साधनभूत सामग्री का नित्य अभ्यास करते रहने से शस्त्र-विद्या में निपुण होकर, युद्ध के समय शत्रु को परास्त करने में समर्थ हो जाता है। उसी प्रकार साधु भी जीवन पर्यन्त नित्य ही संयम व तप आदि का अभ्यास करते रहने से समता-मार्ग में निपुण होकर, मरण के समय ध्याननिष्ट होने के योग्य | |||||||||
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10. सत्लेखना-मरण-अधिकार - (सातत्य योग) |
4. सातत्य योग | Hindi | 241 | View Detail | ||
Mool Sutra: एवं श्रामण्यं साधुरपि करोति नित्यमपि योगपरिकर्म्म।
ततः जितकरणः मरणे ध्याने समर्थो भविष्यतीति ।। Translated Sutra: कृपया देखें २४०; संदर्भ २४०-२४१ | |||||||||
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11. धर्म अधिकार - (मोक्ष संन्यास योग) |
1. धर्मसूत्र | Hindi | 242 | View Detail | ||
Mool Sutra: (क) धर्मः वस्तुस्वभावः, क्षमादिभावः च दशविधः धर्मः।
रत्नत्रयं च धर्मः, जीवानां रक्षणं धर्मः ।। Translated Sutra: वस्तु का स्वभाव धर्म है। (प्रकृत में समता आत्मा का स्वभाव होने से वह उसका धर्म है।) उत्तम क्षमा आदि दश, सम्यग्दर्शनादि तीन तथा जीवों की रक्षा (उपलक्षण से अहिंसा आदि पाँच तथा अन्य भी पूर्वोक्त संयम के अंग) ये सब धर्म हैं अर्थात् उस समतामयी स्वभाव के विविध अंग या लिंग हैं। |