This is BETA page under development.

Welcome to the Jain Elibrary: Worlds largest Free Library of JAIN Books, Manuscript, Scriptures, Aagam, Literature, Seminar, Memorabilia, Dictionary, Magazines & Articles

Global Search for JAIN Aagam & Scriptures

Search Results (43581)

Show Export Result
Note: For quick details Click on Scripture Name
Scripture Name Translated Name Mool Language Chapter Section Translation Sutra # Type Category Action
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन)

3. नयवाद की सार्वभौमिकता Hindi 391 View Detail
Mool Sutra: णिययवयणिज्जसच्चा, सव्वनया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ, विभयइ सच्चे व अलिए वा ।।

Translated Sutra: सभी नय अपने अपने वक्तव्य में सच्चे हैं, परन्तु वे ही जब दूसरे के वक्तव्यों का निराकरण करने लगते हैं तो मिथ्या हो जाते हैं। अनेकान्तस्वरूप वस्तु के ज्ञाता उन नयों में `यह कुछ नय तो सच्चे हैं और यह कुछ झूठे' ऐसा विभाग नहीं करते हैं।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन)

4. नय की हेयोपादेयता Hindi 392 View Detail
Mool Sutra: सम्सद्दंसणणाणं, एदं लहदि त्ति णवरि ववदेसं। सव्वणयपक्पखरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो ।।

Translated Sutra: आत्मा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान को प्राप्त होता है, ऐसा व्यवहार केवल कथन मात्र है। वस्तुतः वह शुद्धात्म-तत्त्व सभी नयपक्षों से अतीत कहा गया है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन)

4. नय की हेयोपादेयता Hindi 393 View Detail
Mool Sutra: अत्थं जो न समिक्खइ, निक्खेव-नय-प्पमाणओविहिणा। तस्साजुत्तं जुत्तं, जुत्तमजुत्तं व पडिहाइ ।।

Translated Sutra: जो मनुष्य पदार्थ के स्वरूप की प्रमाण नय व निक्षेप से सम्यक् प्रकार समीक्षा नहीं करता है, उसे कदाचित् अयुक्त भी युक्त प्रतिभासित होता है और युक्त भी अयुक्त। (इसलिए नयातीत उस तत्त्व का निर्णय करने के लिए नयज्ञान प्रयोजनीय है।)
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन)

4. नय की हेयोपादेयता Hindi 394 View Detail
Mool Sutra: तच्चाणेसणकाले, समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण। णो आराहणसमये, पच्चक्खो अणुहओ जम्हा ।।

Translated Sutra: परन्तु तत्त्वान्वेषण के काल में ही मुक्ति मार्ग से तत्त्व को जानना योग्य है, आराधना के काल में नहीं, क्योंकि उस समय तो वह स्वयं प्रत्यक्ष ही होता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन)

5. नय-योजना-विधि Hindi 395 View Detail
Mool Sutra: तित्थयरवयणसंगह, विसेसपत्थारमूलवागरणी। दव्वट्ठिओ य पज्जवणओ, य सेसा वियप्पा सिं ।।

Translated Sutra: तीर्थंकरों के वचन प्रायः दो प्रकार के होते हैं-सामान्यांश प्रतिपादक और विशेषांश प्रतिपादक। इसलिए उनके ग्राहक नय भी दो प्रकार के हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। शेष सर्व नय इन दोनों के ही भेद-प्रभेद हैं।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन)

5. नय-योजना-विधि Hindi 396 View Detail
Mool Sutra: पज्जउ गउणं किज्जा, दव्वं पि य जोहु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ, विवरीओ पज्जेयत्थिओ ।।

Translated Sutra: पर्याय को गौण करके जो द्रव्य को मुख्यतः ग्रहण करता है, वह द्रव्यार्थिक नय है। उससे विपरीत पर्यायार्थिक नय है। अर्थात् द्रव्य को गौण करके जो पर्याय का मुख्यतः ग्रहण है, वह पर्यायार्थिक नय है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन)

5. नय-योजना-विधि Hindi 397 View Detail
Mool Sutra: दव्वट्ठियवत्तव्वं अवत्थु, णियमेण पज्जवणयस्स ।। तह पज्जववत्थु, अवत्थुमेव दव्वट्ठियमणयस्स ।।

Translated Sutra: द्रव्यार्थिक का वक्तव्य पर्यायार्थिक की दृष्टि में अवस्तु है और इसी प्रकार पर्यायार्थिक का वक्तव्य द्रव्यार्थिक की दृष्टि में अवस्तु है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन)

5. नय-योजना-विधि Hindi 398 View Detail
Mool Sutra: उप्पज्जंति वियंति य, भावा णियमेण पज्जवणयस्स। दव्वट्ठियस्स सव्वं, सया अणुप्पन्नमविणट्ठं ।।

Translated Sutra: पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सभी पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सभी वस्तुएँ सर्वदा के लिए न उत्पन्न होती हैं, न नष्ट।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव)

1. सर्वधर्म-समभाव Hindi 399 View Detail
Mool Sutra: जं पुण समत्तपज्जाय, वत्थुगमग त्ति समुदिया तेणं। सम्मत्तं चक्खुमओ, सव्वगयावयवगहणे व्व ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार नेत्रवान् पुरुष सांगोपांग हाथी को ही हाथी के रूप में ग्रहण करता है, उसके किसी एक अंग को नहीं; उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि व्यक्ति समस्त पर्यायों या विशेषों से विशिष्ट समुदित वस्तु को ही तत्त्वरूपेण ग्रहण करता है, उसके किसी एक धर्म या विशेष को नहीं।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव)

1. सर्वधर्म-समभाव Hindi 400 View Detail
Mool Sutra: उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयिनाथ दृष्ट्यः। न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्वोदधिः ।।

Translated Sutra: हे नाथ! जिस प्रकार सभी नदियाँ समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार सभी दृष्टियाँ अर्थात् धर्म, आपकी स्याद्वादी दृष्टि में आकर मिल जाते हैं। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न नदियों में सागर नहीं रहता, उसी प्रकार विभिन्न एकान्तवादी पक्षों में आप अर्थात् स्याद्वाद नहीं रहता।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव)

1. सर्वधर्म-समभाव Hindi 401 View Detail
Mool Sutra: हेउविसओवणीअं, जय वयणिज्जं वरो नियत्तेइ। जइ तं तहा पुरिल्लो, दाइंतो केण जिव्वंतो ।।

Translated Sutra: वादी यदि साध्य को ही हेतु के रूप में प्रयोग करता है तो प्रतिवादी उसे असिद्ध साधन दोष देकर हरा देता है। परन्तु यदि वादी उस साध्य को पहले से स्वीकार कर चुका हो, तब वह किससे पराजित होगा।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव)

2. स्याद्वाद-न्याय Hindi 402 View Detail
Mool Sutra: वाक्येष्वनेकान्तद्योतिगम्यं-प्रतिविशेषणम्। स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्-तत्केवलिनामपि ।।

Translated Sutra: `स्यात्' यह निपात या अव्यय अनेकान्त का द्योतक है और पदार्थ अनेकान्त का द्योत्य है। इस प्रकार अर्थयोगी होने के कारण यह शब्द केवलियों के भी वाक्यों में अनेकान्त के विशेषण रूप में प्रयुक्त होता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव)

2. स्याद्वाद-न्याय Hindi 403 View Detail
Mool Sutra: सिद्धयंत्रो यथा लोके, एकोऽनेकार्थदायकः। स्याच्छब्दोऽपि तथा ज्ञेय, एकोऽनेकार्थसाधकः ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार लोक में सिद्ध किया गया मंत्र एक व अनेक इच्छित पदार्थों को देने वाला होता है, उसी प्रकार `स्यात्' यह शब्द एक तथा अनेक अभिप्रेत अर्थों का साधक है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव)

2. स्याद्वाद-न्याय Hindi 404 View Detail
Mool Sutra: अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं, वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या। आकांक्षिणः स्यदिति वै निपातो, गुणाऽनपेक्षे नियमेऽपवादः ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार `वृक्षाः' यह पद अनेक वृक्षों का वाचक होते हुए भी स्वभाव से ही पृथक्-पृथक् एक वृक्ष का भी द्योतन करता है, इसी प्रकार प्रत्येक पद का वाच्य एक तथा अनेक दोनों होते हैं। एक धर्म का कथन करते समय सहवर्ती दूसरे धर्म का लोप होने न पावे इस अभिप्राय से स्याद्वादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात्कार का प्रयोग
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव)

2. स्याद्वाद-न्याय Hindi 405 View Detail
Mool Sutra: वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये। कर्त्तव्यमन्यथाऽनुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् ।। सर्वथा तत्प्रयोगेऽपि सत्वादिप्राप्तिर्विच्छेदे। स्यात्कारः संप्रयुज्येतानेकान्तद्योतकत्वतः ।।

Translated Sutra: अनिष्टार्थ की निवृत्ति के लिए वाक्य में एवकार का प्रयोग अवश्य करना चाहिए, अन्यथा कहीं कहीं कहा हुआ भी वह वाक्य न कहे हुए के समान हो जाता है। परन्तु यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि यदि उसके प्रयोग से सत्वादि किसी भी धर्म का सर्वथा विच्छेद होता हो तो उसके साथ-साथ स्यात्कार का भी प्रयोग अवश्य करना चाहिए, क्योंकि यह
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव)

2. स्याद्वाद-न्याय Hindi 406 View Detail
Mool Sutra: सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञैः, सर्वत्रार्थात्प्रतीयते। यथैवकारेऽयोगादि, व्यवच्छेदप्रयोजनः ।।

Translated Sutra: (निःसन्देह सर्वत्र व सर्वदा इस प्रकार बोलना व्यवहार विरुद्ध है, इसीलिए आचार्य कहते हैं कि) जिस प्रकार एवकार का प्रयोग न होने पर भी विज्ञजन केवल प्रकरण पर से अयोग व्यवच्छेद, अन्ययोग व्यवच्छेद और अत्यन्तायोग व्यवच्छेद के आशय को ग्रहण कर लेते हैं, उसी प्रकार स्यात्कार का प्रयोग न होने पर भी स्याद्वादीजन प्रकरणवशात्
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

17. स्याद्वाद अधिकार - (सर्वधर्म-समभाव)

3. स्याद्वाद-योजना-विधि Hindi 407 View Detail
Mool Sutra: जीवे णं भन्ते गब्भं वक्कममाणे किं सेयंदिए वक्कमइ अणिंदिए वक्कमइ? गोयमा! सिय सेइंदिए वक्कमइ, सिय अणिंदिए वक्कमइ। से केणट्ठेणं भंते? गोयमा! दव्विंदियाइं पडुच्च अणिंदिए वक्कमइ, भाविंदियाइ पडुच्च सेइंदिए वक्कमइ। से तेणट्ठेणं गोयमा।

Translated Sutra: प्रश्न :- हे भगवन्, यह जीव जब गर्भ में आता है तब इन्द्रियों सहित आता है, अथवा इन्द्रियों रहित आता है? उत्तर :- हे गौतम! कथंचित् इन्द्रियों सहित आता है, और कथंचित् इन्द्रियों रहित आता है। प्रश्न :- सो कैसे भगवन्? उत्तर :- हे गौतम! द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा इन्द्रियों रहित आता है और भावेन्द्रियों की अपेक्षा इन्द्रियों
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 408 View Detail
Mool Sutra: जंबूद्दीवे भरहेरावएसु वासेसु, एगसमए एगजुगे दो। अरहंतवंसा उप्पज्जिंसु वा, उप्पज्जिंति वा उप्पज्जिस्संति वा ।।

Translated Sutra: इस जम्बूद्वीप के भरत और ऐरावत इन दो वर्षों या क्षेत्रों में एक साथ अर्हंत या तीर्थंकर वंशों की उत्पत्ति अतीत में हुई है, वर्तमान में हो रही है और भविष्य में भी इसी प्रकार होती रहेगी। (वर्तमान युग के तीर्थंकरों में ऋषभदेव प्रथम हैं, अरिष्टनेमि २२ वें, पार्श्वनाथ २३ वें और भगवान् महावीर अन्तिम अर्थात् २४ वें
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 409 View Detail
Mool Sutra: तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति, भास्करो यथा लोकम्। तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्त्तते, तीर्थंकरः एवम् ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार सूर्य स्वभाव से ही लोक को प्रकाशित करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसी प्रकार ये सभी तीर्थंकर स्वभाव से ही तीर्थवर्त्तना के लिए प्रवृत्त होते हैं।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 410 View Detail
Mool Sutra: अभविंसु पुरा वि भिक्खवो, आएसा वि भवंति सव्वया। एयाइँ गुणाइँ आहु ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ।।

Translated Sutra: हे मुनियो! भूतकाल में जितने भी तीर्थंकर हुए हैं और भविष्यत् में होंग, वे सभी व्रती, संयमी तथा महापुरुष होते हैं। इनका उपदेश नया नहीं होता, बल्कि काश्यप अर्थात् ऋषभदेव के धर्म का ही अनुसरण करने वाला होता है। (तीर्थंकर किसी नये धर्म के प्रवर्तक नहीं होते, बल्कि पूर्ववर्त्ती धर्म के अनुवर्तक होते हैं।)
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

1. जैनधर्म की शाश्वतता Hindi 411 View Detail
Mool Sutra: सव्वण्हुमुहविणिग्गय, पुव्वावरदोसरहिदपरिसुद्धं। अक्खयमणाहिणिहणं, सुदणाणपमाणं णिद्दिट्ठं ।।

Translated Sutra: (यही कारण है कि) सर्वज्ञ भगवान् तीर्थङ्कर के मुख से निकला हुआ, पूर्वापर विरोध-रहित तथा विशुद्ध यह द्वादशांग श्रुत अर्थात् जैनागम अक्षय तथा अनादि-निधन कहा गया है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 412 View Detail
Mool Sutra: एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं? धम्मे दुविहे मेहावि, कहं विप्पच्चओ न ते?

Translated Sutra: (भगवान् महावीर ने पंचव्रतों का उपदेश किया और उनके पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्व ने चार व्रतों का। इस विषय में केशी ऋषि गौतम गणधर से शंका करते हैं, कि) हे मेधाविन्! एक ही कार्य में प्रवृत्त होने वाले दो तीर्थंकरों के धर्मों में यह विशेष भेद होने का कारण क्या है? तथा धर्म के दो भेद हो जाने पर भी आपको संशय क्यों नहीं होता
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 413 View Detail
Mool Sutra: पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोज्झो सुपालओ ।।

Translated Sutra: यहाँ गौतम उत्तर देते हैं कि प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में युग का आदि होने के कारण व्यक्तियों की प्रकृति सरल परन्तु बुद्धि जड़ होती है, इसलिए उन्हें धर्म समझाना कठिन पड़ता है। चरम तीर्थ में प्रकृति वक्र हो जाने के कारण धर्म को समझ कर भी उसका पालन कठिन होता है। मध्यवर्ती तीर्थों में समझना व पालना दोनों सरल होते ह
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 414 View Detail
Mool Sutra: चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ बद्धमाणेणं, पासेण य महामुणी ।।

Translated Sutra: यही कारण है कि भगवान् पार्श्व के आम्नाय में जो चातुर्याम मार्ग प्रचलित था, उसी को भगवान् महावीर ने पंचशिक्षा रूप कर दिया।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

2. देश-कालानुसार जैनधर्म में परिवर्तन Hindi 415 View Detail
Mool Sutra: बावीसं तित्थयरा, सामाइयसंजमं उवदिसंति। छेदुवट्ठावणियं पुण, भयवं उसहो महावीरो ।।

Translated Sutra: दिगम्बर आम्नाय के अनुसार मध्यवर्ती २२ तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश दिया है। परन्तु प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर ऋषभ व महावीर ने छेदोपस्थापना संयम पर जोर दिया है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

3. दिगम्बर-सूत्र Hindi 416 View Detail
Mool Sutra: ण वि सिज्झइ वत्थधरो, जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो, सेसा उम्मगया सव्वे ।।

Translated Sutra: भले ही तीर्थंकर क्यों न हो, वस्त्रधारी मुक्त नहीं हो सकता। एकमात्र नग्न या अचेल लिंग ही मोक्षमार्ग है, अन्य सर्व लिंग उन्मार्ग हैं।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

3. दिगम्बर-सूत्र Hindi 417 View Detail
Mool Sutra: धम्मम्मि निप्पवासो, दोसावासो य उच्छुफुल्लसमो। निप्फलनिग्गुणयारो, नडसवणो नग्गरूवेण ।।

Translated Sutra: (इसका यह अर्थ नहीं कि नग्न हो जाना मात्र मोक्षमार्ग है, क्योंकि) जिसका चित्त धर्म में नहीं बसता, जिसमें दोषों का आवास है, तथा जो ईख के फूल के समान निष्फल व निर्गुण है, वह व्यक्ति तो नग्नवेश में नट-श्रमण मात्र है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

3. दिगम्बर-सूत्र Hindi 418 View Detail
Mool Sutra: णिच्छयदो इथीत्णं सिद्धी, ण हि तेण जम्मणा दिट्ठा। तम्हा तप्पडिरूवं, वियप्पियं लिंगमित्थी णं ।।

Translated Sutra: निश्चय से स्त्रियों को इसी जन्म से सिद्धि होती नहीं देखी गयी है, क्योंकि सावरण होने के कारण, उन्हें निर्ग्रन्थ का अचेल लिंग सम्भव नहीं।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 419 View Detail
Mool Sutra: अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। देसिओ बद्धमाणेणं, पासेण य महाजसा ।।

Translated Sutra: हे गौतम! यद्यपि भगवान् महावीर ने तो अचेलक धर्म का ही उपदेश दिया है, परन्तु उनके पूर्ववर्ती भगवान् पार्श्व का मार्ग सचेल भी है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 420 View Detail
Mool Sutra: एवमेव महापउम्मो वि, अरहा समणाणं निग्गंथाणं। पंचमहव्वयाइं जाव, अचेलगं धम्मं पण्णविहिउ ।।

Translated Sutra: इसी प्रकार आगामी तीर्थंकर भगवान् महापद्म भी पंच महाव्रतों से युक्त अचेलक धर्म का ही प्ररूपण करेंगे।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 421 View Detail
Mool Sutra: पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणविहविगप्पणं। जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगप्पओयणं ।।

Translated Sutra: इतना होने पर भी लोक-प्रतीति के अर्थ, हेमन्त व वर्षा आदि ऋतुओं में सुविधापूर्वक संयम का निर्वाह करने के लिए, तथा सम्यक्त्व व ज्ञानादि को ग्रहण व धारण करने के लिए लोक में बाह्य लिंग का भी अपना स्थान अवश्य है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 422 View Detail
Mool Sutra: इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य णवुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य ।।

Translated Sutra: (सभी लिंगों से मोक्ष प्राप्त हो सकता है, क्योंकि सिद्ध कई प्रकार के कहे गये हैं) यथा-स्त्रीलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध, पुरुषलिंग से मुक्त होने वाले सिद्ध, नपुंसक-लिंग से मुक्त होनेवाले सिद्ध, जिन-लिंग से मुक्त होनेवाले सिद्ध, आजीवक आदि अन्य लिंगों से मुक्त होने वाले सिद्ध, और गृहस्थलिंग से मुक्त होने वाले
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 423 View Detail
Mool Sutra: निग्गंथ सक्क तावस, गेरुय आजीव पंचहा समणा ।।

Translated Sutra: श्रमण लिंग पाँच प्रकार का होता है-निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीवक।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 424 View Detail
Mool Sutra: जिणकप्पा वि दुविहा, पाणिपाया पडिग्गहधरा य। पाउरजमया उरणा, एक्केक्का ते भवे दुविहा ।।

Translated Sutra: जिनकल्पी साधु भी दो प्रकार के होते हैं और उनमें से भी प्रत्येक दो दो प्रकार के हैं। अर्थात् चार प्रकार के होते हैं - सवस्त्र परन्तु पाणिपात्राहारी, अवस्त्र पाणिपात्राहारी, सवस्त्र पात्रधारी और अवस्त्र पात्रधारी।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 425 View Detail
Mool Sutra: य एतान् वर्जयेद्दोषान्, धर्मोपकरणादृते। तस्य त्वग्रहणं युक्तं, यः स्याज्जिन इव प्रभुः ।।

Translated Sutra: जो साधु आचार विषयक दोषों को जिनेन्द्र भगवान् की भाँति बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए इनका न ग्रहण करना ही युक्त है (परन्तु जो ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं वे अपनी सामर्थ्य व शक्ति के अनुसार हीनाधिक वस्त्र पात्र आदि उपकरण ग्रहण करते हैं।)
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 426 View Detail
Mool Sutra: जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं। तं पि संजमलज्जट्ठा, धारंति परिहरंति य ।।

Translated Sutra: साधुजन ये जो वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पादप्रोंछन आदि उपकरण धारण करते हैं, वे केवल संयम व लज्जा की रक्षा करने के लिए, अनासक्ति भाव से ही इनका उपयोग करते हैं, और किसी प्रयोजन से नहीं। समय आने पर अर्थात् हेमन्त आदि के बीत जाने पर इनका यथाशक्ति पूर्ण या एकदेश त्याग भी कर देते हैं।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 427 View Detail
Mool Sutra: न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इय वुत्तं महेसिणा ।।

Translated Sutra: परन्तु इतने मात्र से साधु परिग्रहवान् नहीं हो जाते हैं, क्योंकि ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने पदार्थों की मूर्च्छा या आसक्ति भाव को परिग्रह कहा है, पदार्थों या उपकरणों को नहीं। यही बात महर्षि सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्यों से कही है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Prakrit

18. आम्नाय अधिकार

4. श्वेताम्बर सूत्र Hindi 428 View Detail
Mool Sutra: सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्खण-परिग्गहे। अवि अप्पणो वि देहम्मि, नाऽऽयरन्ति ममाइयं ।।

Translated Sutra: समता-भोगी जिन वीतरागियों को अपनी देह के प्रति भी कोई ममत्व नहीं रह गया है, वे इन वस्त्र पात्र आदि के प्रति ममत्व रखते होंगे, यह आशंका कैसे की जा सकती है?
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

2. मंगल प्रतिज्ञा Hindi 3 View Detail
Mool Sutra: श्रुतपरिचितानुभूता, सर्वस्यापि कामभोगबन्धकथा। एकत्वस्योपलम्भः, केवलं न सुलभो विभक्तस्य ।।

Translated Sutra: काम भोग व बन्ध की कथा तो इस लोक में सबकी सुनी हुई है, परिचित है और अनुभव में आयी हुई है। परन्तु निज स्वरूप में एक तथा अन्य सर्व पदार्थों से पृथक् ऐसे आत्म-तत्त्व की कथा ही यहाँ सुलभ नहीं है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

2. मंगल प्रतिज्ञा Hindi 4 View Detail
Mool Sutra: तमेकत्वविभक्तं, दर्शयेहमात्मनः स्वविभवेन। यदि दर्शयेयं प्रमाणं, स्खलेयं छलं न गृहीतव्यं ।।

Translated Sutra: उस एकत्व तथा विभक्तस्वरूप पूर्वोक्त आत्म-तत्त्व को मैं अपने निज वैभव या अनुभव से दर्शाऊँगा। उसे सुनकर प्रमाण करना। तथा कहने में कहीं कुछ भूल जाऊँ तो छल ग्रहण न करना। (क्योंकि उस अनन्त को पूरा कहने में कौन समर्थ है?)
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

3. एक गम्भीर पहेली Hindi 5 View Detail
Mool Sutra: सर्वे प्राणिनः प्रियायुषः, सुखास्वादाः दुःखप्रतिकूलाः। अप्रियवधाः प्रियजीविनः, जीवितुकामाः ।।

Translated Sutra: सभी प्राणियों को अपनी आयु प्रिय है। सभी सुख चाहते हैं तथा दुःख से घबराते हैं। सभी को वध अप्रिय है और जीवन प्रिय। सभी जीना चाहते हैं। (परन्तु)
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

3. एक गम्भीर पहेली Hindi 6 View Detail
Mool Sutra: हा! यथा मोहितमतिना, सुगति-मार्गमजानता। भीमे भवकान्तारे, सुचिरं भ्रान्तं भयङ्करे ।।

Translated Sutra: हा! मोक्षमार्ग अर्थात् धर्म को नहीं जानता हुआ, यह मोहितमति जीव अनादिकाल से इस भयंकर तथा भीम भव-वन में भटक रहा है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

3. एक गम्भीर पहेली Hindi 7 View Detail
Mool Sutra: सः नास्तीहावकाशो, लोके बालाग्रकोटिमात्रोऽपि। जन्ममरणाबाधा, अनेकशो यत्र न च प्राप्ता ।।

Translated Sutra: इस लोक में बाल के अग्रभाग जितना भी कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहाँ मैंने जन्म-मरण आदि अनेक बाधाएँ न उठायी हों।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

4. यह कैसी भ्रान्ति Hindi 8 View Detail
Mool Sutra: येषां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि स्वाभावम्। यदि तन्न हि स्वभावो, व्यापारो नास्ति विषयार्थम् ।।

Translated Sutra: जिन जीवों की विषयों में रति होती है, दुःख ही उनका स्वभाव है, ऐसा जानना चाहिए। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो वे विषयभोग के प्रति व्यापार ही क्यों करते?
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

4. यह कैसी भ्रान्ति Hindi 9 View Detail
Mool Sutra: यथा निम्बद्रुमोत्पन्नः, कीटः कटुकमपि मन्यते मधुरम्। तथा परोक्षमोक्षसुखाः, संसार-दुःखं सुखं ब्रुवते ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार नीम के वृक्ष में उत्पन्न कीड़ा उसके कडुवे स्वाद को भी मधुर मानता है, उसी प्रकार मोक्ष गत परमार्थ सुख से अनभिज्ञ प्राणी इस संसार-दुःख को ही सुख कहता है।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

5. एक महान् आश्चर्य Hindi 10 View Detail
Mool Sutra: (क) दवाग्निना यथाऽरण्ये, दह्यमानेषु जन्तुषु। अन्ये सत्त्वाः प्रमोदन्ते, रागद्वेषवशंगताः ।।

Translated Sutra: जिस प्रकार वन में अग्नि लग जाने पर उसमें जलते हुए जीवों को देखकर दूसरे जीव रागद्वेषवश प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार काम-भोगों में मूर्च्छित हम सब मूर्ख जन यह नहीं समझते कि (हम सहित) यह सारा संसार ही राग-द्वेषरूपी अग्नि में नित्य जला जा रहा है। संदर्भ १०-१०
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

5. एक महान् आश्चर्य Hindi 10 View Detail
Mool Sutra: (ख) एवमेव वयं मूढाः, कामभोगेषु मूर्च्छिताः। दह्यमानं न बुध्यामो, रागद्वेषाग्निना जगत् ।।

Translated Sutra: संदर्भ १०-१०
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

6. दुःख-हेतु-कर्म Hindi 11 View Detail
Mool Sutra: यदिदं जगति पृथक् जनाः, कर्मभिर्लुप्यन्ते प्राणिनः। स्वयमेव कृतैर्गाहन्ते, नो तस्य मुच्येतास्पृष्टः ।।

Translated Sutra: इस संसार के समस्त प्राणी अपने ही कर्मों के द्वारा दुःखी हो रहे हैं। अन्य कोई भी सुख या दुःख देनेवाला नहीं है। कर्मों का फल भोगे बिना इनसे छुटकारा सम्भव नहीं।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

7. अपना शत्रु-मित्र स्वयं Hindi 12 View Detail
Mool Sutra: आत्मा नदी वैतरणी, आत्मा मे कूटशाल्मली। आत्मा कामदुधाधेनुः, आत्मा मे नन्दनं वनम् ।।

Translated Sutra: आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही शाल्मली वृक्ष। आत्मा ही कामधेनु है और आत्मा ही नन्दन-वन।
Jain Dharma Sar जैन धर्म सार Sanskrit

1. मिथ्यात्व-अधिकार - (अविद्या योग)

7. अपना शत्रु-मित्र स्वयं Hindi 13 View Detail
Mool Sutra: आत्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च। आत्मा मित्रममित्रञ्च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थितः ।।

Translated Sutra: आत्मा ही अपने सुख व दुःख को सामान्य तथा विशेष रूप से करनेवाला है, और इसलिए वही अपना मित्र अथवा शत्रु है। सुकृत्यों में स्थित वह अपना मित्र है और दुष्कृत्यों में स्थित अपना शत्रु।
Showing 9401 to 9450 of 43581 Results