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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
8. मोक्ष तत्त्व (स्वतन्त्रता) | Hindi | 341 | View Detail | ||
Mool Sutra: चक्किकुरुफणिसुरिंद-देवहमिंदे जं सुहं तिकालभवं।
ततो अणंतगुणिदं, सिद्धाणं खणसुहं होदि ।। Translated Sutra: (अतीन्द्रिय होने के कारण यद्यपि सिद्धों के अद्वितीय सुख की व्याख्या नहीं की जा सकती, तथापि उत्प्रेक्षा द्वारा उसका कुछ अनुमान कराया जाता है।) चक्रवर्ती, भोगभूमिया-मनुष्य, धरणेन्द्र, देवेन्द्र व अहमिन्द्र इन सबका सुख पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा अनन्त अनन्त गुना माना गया है। इन सबके त्रिकालवर्ती सुख को यदि कदाचित् | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
9. परमात्म तत्त्व | Hindi | 342 | View Detail | ||
Mool Sutra: यः परमात्मा स एवाऽहं, योऽहं स परमस्ततः।
अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।। Translated Sutra: (कर्म आदि की उपाधियों से अतीत त्रिकाल शुद्ध आत्मा को ग्रहण करने वाली शुद्ध तात्त्विक दृष्टि से देखने पर) जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्मा है। इस तरह मैं ही स्वयं अपना उपास्य हूँ। अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है। ऐसी तात्त्विक स्थिति है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
9. परमात्म तत्त्व | Hindi | 343 | View Detail | ||
Mool Sutra: देहदेवलि जो वसइ, देउ अणाइ अणंतु।
केवलणाणफुरंततणु, सो परमम्पु णिभंतु ।। Translated Sutra: जो व्यवहार दृष्टि से देह रूपी देवालय में बसता है, और परमार्थतः देह से भिन्न है, वह मेरा उपास्य देव अनाद्यनन्त अर्थात् त्रिकाल शाश्वत है। वह केवलज्ञान-स्वभावी है। निस्सन्देह वही अचलित स्वरूप कारण-परमात्मा है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
9. परमात्म तत्त्व | Hindi | 344 | View Detail | ||
Mool Sutra: उपास्यात्मानमेवात्मा, जायते परमोऽथवा।
मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव, जायतेऽग्निर्यथा तरुः ।। Translated Sutra: कारण परमात्मा स्वरूप इस परम तत्त्व की उपासना करने से यह कर्मोपाधियुक्त जीवात्मा भी परमात्मा हो जाता है, जिस प्रकार बांस का वृक्ष अपने को अपने से रगड़ कर स्वयं अग्नि रूप हो जाता है। (मोक्ष प्राप्त वह सिद्धात्मा कार्य परमात्मा है) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
13. तत्त्वार्थ अधिकार |
9. परमात्म तत्त्व | Hindi | 345 | View Detail | ||
Mool Sutra: ज्ञानं केवलसंज्ञं, योगनिरोधः समग्रकर्म्महतिः।
सिद्धिनिवासश्च यदा, परमात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ।। Translated Sutra: उस जीवात्मा को जब केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है, योगनिरोध के द्वारा समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं और वह जब लोक-शिखर पर सिद्धालय में जा बसता है, तब उसमें ही वह कारण-परमात्मा व्यक्त हो जाता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
1. स्वभाव कारणवाद (सत्कार्यवाद) | Hindi | 346 | View Detail | ||
Mool Sutra: भावस्स णत्थि णासो, णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो।
गुणपज्जयेसु भावा, उप्पादवए पकुव्वंति ।। Translated Sutra: सत् का नाश और असत् का उत्पाद किसी काल में भी सम्भव नहीं। सत्ताभूत पूर्वोक्त जीवादि षट् विध पदार्थ अपने गुणों व पर्यायों में स्वयं उत्पन्न होते रहते हैं और विनष्ट होते रहते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
1. स्वभाव कारणवाद (सत्कार्यवाद) | Hindi | 347 | View Detail | ||
Mool Sutra: अण्णोण्णं पविसंता, दिंता ओगासमण्णमण्णस्स।
मेलंता वि य णिच्चं, सगं सभावं ण विजहंति ।। Translated Sutra: ये छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करके स्थित हैं, अपने भीतर एक दूसरे को अवकाश देते हैं। क्षीर-नीरवत् परस्पर में मिल कर एकमेक हो जाते हैं। इतना होने पर भी ये कभी अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
1. स्वभाव कारणवाद (सत्कार्यवाद) | Hindi | 348 | View Detail | ||
Mool Sutra: उप्पज्जंतो कज्जं, कारणमप्पा णियं तु जणयंतो।
तम्हा इह ण विरुद्धं, एगस्स वि कारणं कज्जं ।। Translated Sutra: प्रत्येक द्रव्य में उत्पद्यमान उसकी पर्याय तो कार्य है और उसे उत्पन्न करने वाला वह द्रव्य उसका कारण है। इस प्रकार एक ही पदार्थ का कार्यरूप व कारणरूप होना विरोध को प्राप्त नहीं होता। (जिससे उसे अपनी सृष्टि के लिए किसी अन्य कारण का अन्वेषण करना पड़े।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
2. पुद्गल कर्तृत्ववाद (आरम्भवाद) | Hindi | 349 | View Detail | ||
Mool Sutra: एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं।
परिणामादो भणिदं जाव अणंतत्तमणुभवदि ।। Translated Sutra: [जैन-दर्शन-मान्य स्वभाववाद की इस प्रक्रिया में पुद्गल (जड़) तत्त्व भी बिना किसी चेतन की सहायता के स्वयं ही पृथिवी आदि महाभूतों के रूप में परिणमन कर जाता है। सो कैसे, वही प्रक्रिया इन गाथाओं द्वारा बतायी गयी है।] परमाणु के स्पर्श-गुण की दो प्रधान शक्तियाँ हैं - स्निग्धत्व व रूक्षत्व अर्थात् (Attractive force and Repulsive force)। ये दोनों | |||||||||
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14. सृष्टि-व्यवस्था |
2. पुद्गल कर्तृत्ववाद (आरम्भवाद) | Hindi | 350 | View Detail | ||
Mool Sutra: णिद्धा वा लुक्खावा अणुपरिणामा समा वा विसमा वा।
समदो दुराधिगा जदि बज्झंति हि आदिपरिहीणा ।। Translated Sutra: कृपया देखें ३४९; संदर्भ ३४९-३५१ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
2. पुद्गल कर्तृत्ववाद (आरम्भवाद) | Hindi | 351 | View Detail | ||
Mool Sutra: दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा ससंठाणा।
पुढ़विजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते ।। Translated Sutra: कृपया देखें ३४९; संदर्भ ३४९-३५१ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 352 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवहँ कम्मु अणाइ जिय-जणिय उ कम्मु ण तेण।
कम्मे जीउ वि जणिउ णवि, दोहिं वि आइ ण जेण ।। Translated Sutra: हे आत्मन्! जीवों के कर्म अनादि काल से हैं। न तो जीव ने कर्म उत्पन्न किये हैं और न ही कर्मों ने जीव को उत्पन्न किया है। क्योंकि जीव व कर्म दोनों की ही कोई आदि नहीं है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 353 | View Detail | ||
Mool Sutra: जीवपरिणामहेदुं, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति।
पुग्गलकम्मणिमित्तं, तहेव जीवो वि परिणमइ ।। Translated Sutra: जीव के राग-द्वेषादि आस्रवभूत परिणामों के निमित्त से पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमन करते हैं, और इसी प्रकार जीव भी पुद्गल या जड़ कर्मों के निमित्त से राग-द्वेषादि रूप परिणमन करता है। (ऐसा ही कोई स्वभाव है, जिसमें तर्क नहीं चलता है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 354 | View Detail | ||
Mool Sutra: चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं।
कम्मप्पबीयो अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा ।। Translated Sutra: सुन्दर या असुन्दर जन्म धारण करते समय, अपने पूर्व-संचित कर्मों को साथ लेकर, प्राणी अकेला ही प्रयाण करता है। अपने सुख के लिए बड़े परिश्रम से पाले गये दास दासी तथा गाय घोड़ा आदि सब यहीं छूट जाते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 355 | View Detail | ||
Mool Sutra: ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया, पुणो वि जीवस्स।
संजायंते देहा, देहंतरसंकमं पप्पा ।। Translated Sutra: वे कर्म रूप परिणत पुद्गल स्कन्ध भवान्तर की प्राप्ति होने पर उस जीव के नये शरीर का आयोजन कर देते हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 356 | View Detail | ||
Mool Sutra: जो खलु संसारत्थो जीवो, तत्तो दु होदि परिणामो।
परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदिसु गदी ।। Translated Sutra: संसार स्थित जीव को पूर्व-संस्कारवश स्वयं राग द्वेषादि परिणाम होते हैं। परिणामों के निमित्त से कर्म और कर्मों के निमित्त से चारों गतियों में गमन होना स्वाभाविक है। गति प्राप्त हो जाने पर देह, तथा देह के होने पर इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण, तथा उससे पुनः राग-द्वेष का होना स्वाभाविक | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 357 | View Detail | ||
Mool Sutra: गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायंते।
तेहिं दु विसयग्गहणं, ततो रागो व दोसो वा ।। Translated Sutra: कृपया देखें ३५६; संदर्भ ३५६-३५८ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 358 | View Detail | ||
Mool Sutra: जायदि जीवस्सेवं, भावो संसारचक्कवालम्मि।
इदि जिणवरेहिं भणिदो, अणादिणिधणो सणिधणो वा ।। Translated Sutra: कृपया देखें ३५६; संदर्भ ३५६-३५८ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 359 | View Detail | ||
Mool Sutra: विधि सृष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम्।
ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेया कर्मवेधसः ।। Translated Sutra: विधि, सृष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत, कर्म और ईश्वर, ये सब उसी कर्म के पर्यायवाची नाम हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
14. सृष्टि-व्यवस्था |
3. कर्म-कारणवाद | Hindi | 360 | View Detail | ||
Mool Sutra: तनुकरणभुवनादौ निमित्तकारणत्वादीश्वरस्य।
न चैतदसिद्धम् ।। Translated Sutra: अब तक कहे गये सर्व प्रकरण पर से यह भली भाँति सिद्ध हो जाता है कि स्वभाव व कर्म इन दो शक्तियों के अतिरिक्त शरीर, इन्द्रिय व जगत् के कारण रूप में, ईश्वर नामक किसी अन्य सत्ता की कल्पना करना व्यर्थ है। | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
1. द्रव्य-स्वरूप | Hindi | 361 | View Detail | ||
Mool Sutra: तं परियाणहिं दव्वु तुहुं, जं गुणपज्जयजुत्तु।
सहभुव जाणहि ताहँ गुण, कमभुय पज्जउ वुत्तु ।। Translated Sutra: जो गुण और पर्यायों से युक्त होता है, उसे तू द्रव्य जान। जो द्रव्य के साथ सदा काल रहें वे गुण होते हैं। (जैसे जीव का ज्ञान गुण)। तथा द्रव्य व गुण के वे भाव पर्याय कहलाते हैं जो उनमें एक के पश्चात् एक क्रम से उत्पन्न हों (जैसे ज्ञान के विविध विकल्प)। (तात्पर्य यह कि द्रव्य में गुण तो नित्य होते हैं और पर्याय अनित्य | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
1. द्रव्य-स्वरूप | Hindi | 362 | View Detail | ||
Mool Sutra: गुणाणामासओ दव्वं, एगदव्वासिया गुणा।
लक्खणं पज्जवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ।। Translated Sutra: द्रव्य गुणों का आश्रय होता है। प्रत्येक द्रव्य के आश्रित अनेक गुण रहते हैं, जैसे कि एक आम्रफल में रूप रसादि अनेक गुण पाये जाते हैं। (द्रव्य से पृथक् गुण पाये नहीं जाते हैं।) पर्यायों का लक्षण उभयाश्रित है। | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
1. द्रव्य-स्वरूप | Hindi | 363 | View Detail | ||
Mool Sutra: ववदेसा संठाणा संखा, विसया य होंति ते बहुगा।
ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जंते ।। Translated Sutra: द्रव्य, गुण व पर्याय इन तीनों में भले ही संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन, संस्थान आदि की अपेक्षा भेद रहे, परन्तु प्रदेश भेद न होने के कारण ये वस्तुतः अनन्य हैं। | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
1. द्रव्य-स्वरूप | Hindi | 364 | View Detail | ||
Mool Sutra: एगदवियम्मि जे अत्थपज्जया, वयणपज्जया वा वि।
तीयाणागयभूया, तावइयं तं हवइ दव्वं ।। Translated Sutra: एक द्रव्य में जो अतीत वर्तमान व भावी ऐसी त्रिकालवर्ती गुण पर्याय तथा द्रव्य पर्याय होती हैं, उतना मात्र ही वह द्रव्य होता है। | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
1. द्रव्य-स्वरूप | Hindi | 365 | View Detail | ||
Mool Sutra: दव्वं पज्जवविउयं, दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि।
उप्पायट्ठिदिभंगा, हंदि दवियलक्खणं इयं ।। Translated Sutra: उत्पन्नध्वंसी पर्यायों से विहीन द्रव्य तथा त्रिकाल ध्रुवद्रव्य से विहीन पर्याय कभी नहीं होती। इसलिए उत्पाद व्यय व ध्रौव्य इन तीनों का समुदित रूप ही द्रव्य या सत् का लक्षण है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
2. विरोध में अविरोध | Hindi | 366 | View Detail | ||
Mool Sutra: न सामान्यात्मनोदेति, न व्येति व्यक्तमन्वयात्।
व्यत्युदेति विशेषात्ते, सहैक्त्रोयादि सत् ।। Translated Sutra: [यहाँ यह शंका हो सकती है कि एक ही द्रव्य में एक साथ उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य ये तीन विरोधी बातें कैसे सम्भव हैं? इसका उत्तर देते हैं कि]- अन्वय रूप से सर्वदा अवस्थित रहने वाला सामान्य द्रव्य तो न उत्पन्न होता है न नष्ट, परन्तु पर्यायरूप पूर्वोत्तरवर्ती विशेषों की अपेक्षा वही नष्ट भी होता है और उत्पन्न भी। इस हेतु | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
2. विरोध में अविरोध | Hindi | 367 | View Detail | ||
Mool Sutra: जह कंचणस्स कंचण-भावेण अवट्ठियस्स कडगाई।
उप्पज्जंति विणस्संति, चेव भावा अणेगविहा ।। Translated Sutra: जिस प्रकार स्वर्ण स्वर्णरूपेण अवस्थित रहते हुए भी उसमें कड़ा कुण्डल आदि अनेकविध भाव उत्पन्न व नष्ट होते रहते हैं, उसी प्रकार द्रव्य व पर्यायों को प्राप्त जीव द्रव्य का नित्यत्व व अनित्यत्व भी न्याय-सिद्ध है। संदर्भ ३६७-३६८ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
2. विरोध में अविरोध | Hindi | 368 | View Detail | ||
Mool Sutra: एवं च जीवदव्वस्स, दव्वपज्जवविसेसभइयस्स।
निच्चत्तमणिच्चत्तं, च होइ णाओवलभंतं ।। Translated Sutra: कृपया देखें ३६७; संदर्भ ३६७-३६८ | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
3. वस्तु की जटिलता | Hindi | 369 | View Detail | ||
Mool Sutra: पुरिसम्मि पुरिससद्दो, जम्माई मरणकालपज्जंतो।
तस्स उ बालाइया, पज्जवजोया बहुवियप्पा ।। Translated Sutra: जन्म से लेकर मरणकाल पर्यन्त पुरुष में `पुरुष' ऐसा व्यपदेश होता है। बाल युवा आदि उसीकी अनेक विध पर्यायें या विशेष हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
3. वस्तु की जटिलता | Hindi | 370 | View Detail | ||
Mool Sutra: तम्हा वत्थूणं चिय, जो सरिसो पज्जवो स सामन्नं।
जो विसरिसो विसेसो, स मओऽणत्थंतरं तत्तो ।। Translated Sutra: प्रत्येक वस्तु में दो अंश होते हैं। सदृश रूप से सदा अनुगत रहनेवाला गुण तो सामान्य अंश है और एक-दूसरे से विसदृश ऐसी बाल-वृद्धादि पर्यायें विशेष अंश हैं। दोनों एक-दूसरे से पृथक् कुछ नहीं हैं। (इसलिए वस्तु सामान्यविशेषात्मक है।) | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
3. वस्तु की जटिलता | Hindi | 371 | View Detail | ||
Mool Sutra: वृद्धैः प्रोक्तमतः सूत्रे, तत्त्वं वागतिशायि यत्।
द्वादशांगबाह्यं वा, श्रुतं स्थूलार्थगोचरम् ।। Translated Sutra: तत्त्व वास्तव में वचनातीत है। द्वादशांग वाणी अथवा अंगबाह्य रूप विशाल आगम केवल स्थूल व व्यावहारिक पदार्थों को ही विषय करता है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
4. अनेकान्त-निर्देश | Hindi | 372 | View Detail | ||
Mool Sutra: न पश्यामः क्वचित् किंचित्, सामान्यं वा स्वलक्षणम्।
जात्यन्तरं तु पश्यामः, ततोऽनेकान्त हेतवः ।। Translated Sutra: (सामान्य व विशेष आदि रूप ये सब विकल्प वास्तव में विश्लेषण कृत हैं) वस्तु में देखने पर न तो वहाँ कभी कुछ सामान्य ही दिखाई देता है और न कुछ विशेष ही। वहाँ तो इन सब विकल्पों का एक रसात्मक अखण्ड जात्यन्तर भाव ही दृष्टिगोचर होता है, और वही अनेकान्त का हेतु है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
4. अनेकान्त-निर्देश | Hindi | 373 | View Detail | ||
Mool Sutra: यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यम्।
इत्येकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ।। Translated Sutra: जो अखण्ड तत्त्व स्वयं तत् स्वरूप है, वही अतत् स्वरूप है। जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है। इस प्रकार वस्तु में वस्तुत्व का दर्शन करानेवाली परस्पर विरुद्ध अनेक शक्तियुगलों का प्रकाशित करना ही अनेकान्त का लक्षण है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
5. अनेकान्त की सार्वभौमिकता | Hindi | 374 | View Detail | ||
Mool Sutra: यत्सूक्ष्मं च महच्च शून्यमपि यन्नो शून्यमुत्पद्यते,
नश्यत्येव न नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव च। Translated Sutra: सिद्ध ज्योति अर्थात् शुद्धात्मा सूक्ष्म भी है और स्थूल भी, शून्य भी है और परिपूर्ण भी, उत्पन्नध्वंसी भी है और नित्य भी, सत् भी है और असत् भी, तथा एक भी है और अनेक भी। दृढ़ प्रतीति को प्राप्त वह किसी बिरले ही योगी के द्वारा देखी जाती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
5. अनेकान्त की सार्वभौमिकता | Hindi | 375 | View Detail | ||
Mool Sutra: अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्।
शून्यं चाशून्यं च। अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। Translated Sutra: मैं ब्रह्मस्वरूपिणी हूँ। मुझसे ही प्रकृति पुरुषात्मक यह सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है। मैं आनन्दरूपा हूँ और अनानन्दरूपा भी। मैं विज्ञानरूपा हूँ और अविज्ञानरूपा भी। मैं जानने योग्य ब्रह्मस्वरूपा हूँ और अब्रह्मस्वरूपा भी। पंच महाभूत भी मैं हूँ और अपंच महाभूत भी। यह सारा दृश्य जगत् मैं ही हूँ। वेद | |||||||||
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15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
6. सापेक्षतावाद | Hindi | 376 | View Detail | ||
Mool Sutra: यथैकशः कारकमर्थसिद्धये,
समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम्।
तथैव सामान्यविशेषमातृका,
नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पिताः ।। Translated Sutra: जैसे व्याकरण में एक-एक कारक शेष कारकों को सहायक बनाकर ही अर्थ की सिद्धि में समर्थ होता हैं, वैसे ही वस्तु के सामान्यांश और विशेषांश को ग्रहण करने वाले जो प्रधान नय या दृष्टियाँ हैं, वे मुख्य और गौण की कल्पना से ही इष्ट हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
6. सापेक्षतावाद | Hindi | 377 | View Detail | ||
Mool Sutra: यत्रानर्पितमादधाति गुणतां, मुख्यं तु वस्त्वर्पितं।
तात्पर्यावलम्बनेन तु भवेद्, बोधः स्फुटं लौकिकः ।। Translated Sutra: (यद्यपि वस्तु का कोई भी अंश मुख्य या गौण नहीं होता, परन्तु प्रतिपादन करते समय वक्ता प्रयोजनवश वस्तु के कभी किसी एक अंश को मुख्य करके कहता है और कभी दूसरे को) जिस समय कोई एक अंश अपेक्षित हो जाने से मुख्य होता है, उस समय दूसरा अंश अनपेक्षित होकर गौण हो जाता है, परंतु निषिद्ध नहीं होता है। लोक में भी वक्ता के अभिप्राय | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
15. अनेकान्त-अधिकार - (द्वैताद्वैत) |
6. सापेक्षतावाद | Hindi | 378 | View Detail | ||
Mool Sutra: भिन्नापेक्षा यथैकत्र, पितृपुत्रादिकल्पना।
नित्यानित्याद्यनेकान्त-स्तथैव न विरोत्स्यते ।। Translated Sutra: जिस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से देखने पर एक ही व्यक्ति में पितृत्व व पुत्रत्व आदि की कल्पना विरोध को प्राप्त नहीं होती है, उसी प्रकार अनेकान्तस्वरूप एक ही वस्तु में अपेक्षावश नित्यत्व व अनित्यत्व आदि की कल्पनाएँ विरोध को प्राप्त नहीं होती हैं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
1. नयवाद | Hindi | 379 | View Detail | ||
Mool Sutra: णाणाधम्मजुदं पि य, एयं धम्मं पि वुच्चदे अत्थं।
तस्सेव विवक्खादो, णत्थि विवक्खा हु सेसाणं ।। Translated Sutra: नाना धर्मों से युक्त पदार्थ के किसी एक धर्म को ही मुख्यरूपेण कहने वाला (वक्ता का अभिप्राय विशेष) नय कहलाता हैं, क्योंकि उस समय उसी एक धर्म की विवक्षा होती है, शेष की नहीं। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
1. नयवाद | Hindi | 380 | View Detail | ||
Mool Sutra: अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः, प्रमाणनयसाधनः।
अनेकान्तः प्रमाणान्ते, तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ।। Translated Sutra: अनेकान्त भी वास्तव में प्रमाण और नय, इन दो साधनों के कारण अनेकान्तस्वरूप है। सकलार्थग्राही होने के कारण प्रमाण दृष्टि से अनेकान्त की सिद्धि होती है, जबकि किसी एक विवक्षित धर्म को विषय करने वाले विकलार्थग्राही नय से एकान्त की सिद्धि होती है। | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
1. नयवाद | Hindi | 381 | View Detail | ||
Mool Sutra: जावंतो वयणपहा, तावंतो वा नया विसद्दाओ।
ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदया सव्वे ।। Translated Sutra: जगत् में जो कुछ भी बोलने में आता है वह सब वास्तव में किसी न किसी नय में गर्भित है। पृथक् पृथक् रहे हुए ये सभी पर-समय अर्थात् मिथ्यादृष्टि हैं, और परस्पर में समुदित हो जाने पर सभी सम्यग्दृष्टि हैं। (कारण अगली गाथा में बताया गया है।) | |||||||||
Jain Dharma Sar | जैन धर्म सार | Prakrit |
16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
2. पक्षपात-निरसन | Hindi | 382 | View Detail | ||
Mool Sutra: न समेन्ति न च समेया, सम्मत्तं णेव वत्थुणो गमगा।
वत्थुविघाताय नया, विरोहओ वेरिणो चेव ।। Translated Sutra: परस्पर विरोधी होने के कारण ये नय या पक्ष क्योंकि एक-दूसरे के साथ मैत्रीभाव से मेल नहीं करते हैं और पृथक्-पृथक् अपने-अपने पक्ष का ही राग अलापते रहते हैं, इसलिए न तो सम्यक्भाव को प्राप्त हो पाते हैं, और न अनेकान्तस्वरूप वस्तु के ज्ञापक ही हो पाते हैं, बल्कि वैरियों की भाँति एक-दूसरे के साथ विवाद करते रहने के कारण | |||||||||
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
2. पक्षपात-निरसन | Hindi | 383 | View Detail | ||
Mool Sutra: सव्वे समयंति सम्मं, चेगवसाओ नया विरुद्धा वि।
भिच्च-ववहारिणो इव, राओदासीणवसवत्ती ।। Translated Sutra: किसी एक स्याद्वादी के वशवर्ती हो जाने पर, परस्पर विरुद्ध भी ये सभी नयवाद समुदित होकर उसी प्रकार सम्यक्त्वभाव को प्राप्त हो जाते हैं, जिस प्रकार राजा के वशवर्ती हो जाने पर अनेक अभिप्रायों को रखने वाला भृत्य-समूह एक हो जाता है। अथवा किसी व्यवहारकुशल निष्पक्ष व्यक्ति को प्राप्त हो जाने पर, धन-धान्यादि के अर्थ | |||||||||
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
2. पक्षपात-निरसन | Hindi | 384 | View Detail | ||
Mool Sutra: अवरोप्परसावेक्खं, णयविसयं अह पमाणविसयं वा।
तं सावेक्खं तत्तं, णिरवेक्खं ताण विवरीयं ।। Translated Sutra: प्रमाण व नय के विषय एक-दूसरे की अपेक्षा से वर्तते हैं। प्रमाण का विषय अर्थात् अनेकान्तात्मक जात्यन्तरभूत वस्तु तो नय के विषय की अर्थात् उसके किसी एक धर्म की अपेक्षा करती है, और नय का विषयभूत एक धर्म तत्सहवर्ती दूसरे नय के विषयभूत अन्य धर्म की अपेक्षा करता है। यही तत्त्व की या नय की सापेक्षता है। इससे विपरीत | |||||||||
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
2. पक्षपात-निरसन | Hindi | 385 | View Detail | ||
Mool Sutra: णिरवेक्खे एयन्ते, संकरआदीहि ईसिया भावा।
णो णिजकज्जे अरिहा, विवरीए ते वि खलु अरिहा ।। Translated Sutra: नय को निरपेक्ष एकान्तस्वरूप मान लेने पर, अभिप्रेत भी भाव संकर आदि दोषों के द्वारा अपना कार्य करने को समर्थ नहीं हो सकते हैं, और उसे सापेक्ष मान लेने पर वे ही समर्थ हो जाते हैं। | |||||||||
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
2. पक्षपात-निरसन | Hindi | 386 | View Detail | ||
Mool Sutra: सापेक्षा नयाः सिद्धा, दुर्नयाऽपि लोकतः।
स्याद्वादिनां व्यवहारात्, कुक्कुटग्रामवासितम् ।। Translated Sutra: इसीलिए लोक में प्रयुक्त पक्षपातपूर्ण प्रायः सभी नय या अभिप्राय दुर्नय हैं। वे ही स्याद्वाद की शरण को प्राप्त होने पर सुनय बन जाती हैं, जिस प्रकार ग्राम या गृहवासी परस्पर मैत्रीपूर्वक रहने के कारण प्रशंसा को प्राप्त होते हैं। | |||||||||
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
2. पक्षपात-निरसन | Hindi | 387 | View Detail | ||
Mool Sutra: कालो सहाव णियई, पुव्वकयं पुरिस कारणेगंता।
मिच्छत्तं ते चेवा, समासओ होंति सम्मत्तं ।। Translated Sutra: काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत अर्थात् कर्म दैव या अदृष्ट, और पुरुषार्थ ये पाँचों ही कारण हर कार्य के प्रति लागू होते हैं। अन्य कारणों का निषेध करके पृथक् पृथक् एक एक का पक्ष पकड़ने पर ये पाँचों ही मिथ्या हैं और सापेक्षरूप से परस्पर मिल जाने पर ये पाँचों ही सम्यक् हैं। | |||||||||
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
3. नयवाद की सार्वभौमिकता | Hindi | 388 | View Detail | ||
Mool Sutra: बोद्धानामृजुसूत्रतो मतमभूद्वेदान्तिनां संग्रहात्,
सांख्यानां तत् एव नैगमनयाद्, योगश्च वैशेषिकः। Translated Sutra: (जितने भी दर्शन हैं या होंगे, वे सभी अपने अपने किसी विशेष दृष्टिकोण से ही तत्त्व का निरूपण करते हैं। इसलिए सभी किसी न किसी नय का अनुसरण करते हैं।) यथा-अनित्यत्ववादी बौद्ध-दर्शन `ऋजुसूत्र' नय का अनुसरण करता है, अद्वैत व अभेदवादी वेदान्त व सांख्य-दर्शन `संग्रह' नय का, भेदवादी योग व वैशेषिक-दर्शन `नैगम' नय का, और शब्दाद्वैतवादी | |||||||||
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
3. नयवाद की सार्वभौमिकता | Hindi | 389 | View Detail | ||
Mool Sutra: जमणेगधम्मणो वत्थुणो, तदंसे च सव्वपडिवत्ती।
अन्धव्व गयावयवे, तो मिच्छद्दिट्ठिणो वीसु ।। Translated Sutra: जिस प्रकार हाथी को टटोल-टटोल कर देखने वाले जन्मान्ध पुरुष उसके एक एक अंग को ही पूरा हाथी मान बैठते हैं, उसी प्रकार अनेक धर्मात्मक वस्तु के विषय में अपनी अपनी अटकल दौड़ानेवाले मिथ्यादृष्टि मनुष्य वस्तु के किसी एक एक अंश को ही सम्पूर्ण वस्तु मान बैठते हैं। | |||||||||
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16. एकान्त व नय अधिकार - (पक्षपात-निरसन) |
3. नयवाद की सार्वभौमिकता | Hindi | 390 | View Detail | ||
Mool Sutra: परसयएगनयमयं, तप्पडिवक्खनयओ निवत्तेज्जा।
समए व परिग्गहियं, परेण जं दोसबुद्धीए ।। Translated Sutra: एकान्त पक्षपाती वे पर-समय या मिथ्यादृष्टि स्वाभिप्रेत एक नय को मान कर उसके प्रतिपक्षभूत अन्य नयों या मतों का निराकरण करने लगते हैं। अथवा दूसरों के धर्म या मत में जो बात ग्रहण की गयी हो, उसमें दोष देखने लगते हैं। |