Sutra Navigation: Sutrakrutang ( सूत्रकृतांग सूत्र )
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Mool File Details |
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Anuvad File Details |
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Sr No : | 1001647 | ||
Scripture Name( English ): | Sutrakrutang | Translated Scripture Name : | सूत्रकृतांग सूत्र |
Mool Language : | Ardha-Magadhi | Translated Language : | Hindi |
Chapter : |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Translated Chapter : |
श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ पुंडरीक |
Section : | Translated Section : | ||
Sutra Number : | 647 | Category : | Ang-02 |
Gatha or Sutra : | Sutra | Sutra Anuyog : | |
Author : | Deepratnasagar | Original Author : | Gandhar |
Century : | Sect : | Svetambara1 | |
Source : | |||
Mool Sutra : | [सूत्र] तत्थ खलु भगवया छज्जीवणिकाया हेऊ पण्णत्ता, तं जहा–पुढवीकाए आउकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए तसकाए। से जहानामए मम असायं दंडेन वा अट्ठीन वा मुट्ठीन वा लेलुणा वा कवालेन वा आउडिज्जमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा तज्जिज्जमाणस्स वा ताडिज्जमाणस्स वा परिताविज्जमाणस्स वा ‘किलामिज्जमाणस्स वा उद्दविज्जमाणस्स वा’ जाव लोमुक्खणणमा-यमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि– इच्चेवं जाण। सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता दंडेन वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेन वा आउडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा ताडिज्जमाणा वा परिताविज्जमाणा वा किलामिज्जमाणा वा उद्दविज्जमाणा वा जाव लोमुक्खणण-मायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेंति। एवं नच्चा सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा न अज्जावेय-व्वा न परिघेतव्वा न परितावेयव्वा न उद्दवेयव्वा। से बेमि–जे अईया, जे य पडुप्पण्णा, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो सव्वे ते एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति–सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा न अज्जावेयव्वा न परिघेतव्वा न परितावेयव्वा न उद्दवेयव्वा। एस धम्मे धुवे नितिए सासए समेच्च लोगं खेयण्णेहिं पवेइए। एवं से भिक्खू विरए पानाइवायाओ विरए मुसावायाओ विरए अदत्तादाणाओ विरए मेहुणाओ विरए परिग्गहाओ नो ‘दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा’, नो अंजणं, नो वमणं, नो विरेयणं, नो धूवणं, नो तं परियाविएज्जा। से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे अमाणे अमाए अलोहे उवसंते परिणिव्वुडे नो आसंसं पुरतो करेज्जा–इमेन मे दिट्ठेन वा सूएन वा मएन वा विण्णाएन वा, इमेन वा सुचरिय-तव-णियम-बंभचेरवासेणं, इमेन वा जायामायावुत्तिएणं धम्मेणं इतो चुते पेच्चा देवे सिया ‘कामभोगान वसवत्ती’, सिद्धे वा अदुक्खमसुहे। एत्थ वि सिया, एत्थ वि नो सिया। से भिक्खू ‘सद्देहिं अमुच्छिए रूवेहिं अमुच्छिए गंधेहिं अमुच्छिए रसेहिं अमुच्छिए फासेहिं’ अमुच्छिए, विरए–कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामो-साओ मिच्छादंसणसल्लाओ–इति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते। से भिक्खू–जे इमे तसथावरा पाणा भवंति–ते नो सयं समारंभइ, नो अन्नेहिं समारंभावेइ, अन्ने समारंभंते वि न समणुजाणइ–इति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते। से भिक्खू–जे इमे कामभोगा सचित्ता वा अचित्ता वा–ते नो सयं परिगिण्हइ, नो अन्नेणं’ परिगिण्हावेइ, अन्नं परिगिण्हंतंपि न समणुजाणइ–इति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते। से भिक्खू–जं पि य इमं संपराइयं कम्मं कज्जइ–नो तं सयं करेइ, ‘नो अन्नेणं’ कारवेइ, अन्नं पि करेंतं ‘न समणुजाणइ’–इति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते। से भिक्खू जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणसट्ठं अभिहडं आहट्टुद्देसियं, तं चेतियं सिया, तं नो सयं भुंजइ नो अन्नेणं भुंजावेइ, अन्नं पि भुंजंतं न समणुजाणइ–इति से महतो आदाणाओ उवसंते उवट्ठिए पडिविरते। से भिक्खू अह पुण एव जाणेज्जा–तं विज्जइ तेसिं परक्कमे। जस्सट्ठाए चेतियं सिया, तं जहा–अप्पणो पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं धातीणं पातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाणं पुढो पहेणाए सामासाए पातरासाए सण्णिहि-सण्णिचओ कज्जति, इइ एएसिं माणवाणं भोयणाए। तत्थ भिक्खू परकड-परणिट्ठितं उग्गमुप्पायणेसणासुद्धं सत्थातीतं सत्थपरिणामितं अविहिसितं एसितं वेसितं सामुदाणियं पण्ण मसणं कारणट्ठा पमाणजुत्तं अक्खोवंजण-वणलेवणभूयं, संजमजायामायावुत्तियं बिलमिव पण्णगभूतेणं अप्पाणेणं आहारं आहारे-ज्जा–अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले वत्थं वत्थकाले लेणं लेणकाले सयणं सयणकाले। से भिक्खू मायण्णे अन्नयरिं दिसं वा अणुदिसं वा पडिवण्णे धम्मं आइक्खे विभए किट्टे, उवट्ठिएसु वा अणुवट्ठि-एसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए– ‘संतिं विरतिं’ उवसमं निव्वाणं सोयवियं अज्जवियं मद्दवियं लाघवियं अणतिवातियं। सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अणुवीइ किट्टए धम्मं। से भिक्खू धम्मं किट्टेमाणे–नो अन्नस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। नो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। नो वत्थस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। नो लेणस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। नो सयणस्स हेउं धम्ममा-इक्खेज्जा। नो अन्नेसिं विरूवरूवाणं कामभोगाणं हेउं धम्ममाइक्खेज्जा। अगिलाए धम्ममाइ-क्खेज्जा। ननत्थ कम्मनिज्जरट्ठयाए धम्ममाइक्खेज्जा। इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म सम्मं उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सिं धम्मे समुट्ठिया। जे तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म सम्मं उट्ठाणेणं उट्ठाय वीरा अस्सिं धम्मे समुट्ठिया, ते एवं सव्वोवगता, ते एवं सव्वोवरता, ते एवं सव्वोवसंता, ते एवं सव्वत्ताए परिणिव्वुड त्ति बेमि। एवं से भिक्खू धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवण्णे, से जहेयं बुइयं, अदुवा पत्ते पउमवरपोंडरीयं, अदुवा अपत्ते पउमवरपोंडरीयं। एवं से भिक्खू परिण्णायकम्मे परिण्णायसंगे परिण्णायगेहवासे उवसंते समिए सहिए सया जए। से एयवयणिज्जे तं जहा–समणे ति वा माहणे ति वा खंते ति वा दंते ति वा गुत्ते ति वा मुत्ते ति वा इसी ति वा मुनी ति वा कती ति वा विदू ति वा भिक्खू ति वा लूहे ति वा तीरट्ठी ति वा चरणकरणपारविउ। | ||
Sutra Meaning : | सर्वज्ञ भगवान तीर्थंकर देव ने षट्जीवनिकायों को कर्मबन्ध के हेतु बताए हैं। जैसे कि – पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक। जैसे कोई व्यक्ति मुझे डंडे से, हड्डी से, मुक्के से, ढेले या पथ्थर से, अथवा घड़े के फूटे हुए ठीकरे आदि से मारता है, अथवा चाबुक आदि से पीटता है, अथवा अंगुली दिखाकर धमकाता है, या डाँटता है, अथवा ताड़न करता है, या सताता है, अथवा क्लेश, उद्विग्न, या उपद्रव करता है, या डराता है, तो मुझे दुःख होता है, यहाँ तक कि मेरा एक रोम भी उखाड़ता है तो मुझे मारने जैसा दुःख और भय का अनुभव होता है। इसी तरह सभी जीव, सभी भूत, समस्त प्राणी और सर्व सत्व, डंडे, मुक्के, हड्डी, चाबुक यावत् उद्विग्न किये जाने से, यहाँ तक कि एक रोम मात्र के उखाड़े जाने से वे मृत्यु का – सा कष्ट एवं भय महसूस करते हैं। ऐसा जानकर समस्त प्राण, भूत, जीव और सत्व कि हिंसा नहीं करनी चाहिए, उन्हें बलात् अपनी आज्ञा का पालन नहीं कराना चाहिए, न उन्हें बलात् पकड़कर या दास – दासी आदि के रूप में खरीद कर रखना चाहिए, न ही किसी प्रकार का संताप देना चाहिए और न उन्हें उद्विग्न करना चाहिए। इसलिए मैं कहता हूँ – भूतकाल में जो भी अर्हन्त हो चूके, वर्तमान में जो भी तीर्थंकर हैं, तथा जो भी भविष्य में होंगे; वे सभी अर्हन्त भगवान ऐसा ही उपदेश देते हैं; ऐसा ही कहते हैं, ऐसा ही बताते हैं, और ऐसी ही प्ररूपणा करते हैं कि – किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्व की हिंसा नहीं करनी चाहिए, न ही बलात् उनसे आज्ञा पालन कराना चाहिए, न उन्हें बलात् दास – दासी आदि के रूप में पकड़कर या खरीदकर रखना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए और न उन्हें उद्विग्न करना चाहिए। यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। समस्त लोक को केवल – ज्ञान के प्रकाश में जानकर जीवों के खेद को या क्षेत्र को जानने वाले श्री तीर्थंकरों ने इस धर्म का प्रतिपादन किया है। इस प्रकार वह भिक्षु प्राणातिपात से लेकर परिग्रह – पर्यन्त पाँचों आश्रवों से विरत हो, दाँतों को साफ न करे, आँखों में अंजन न लगाए, वमन न करे, तथा अपने वस्त्रों या आवासस्थान को सुगन्धित न करे और धूम्रपान न करे। वह भिक्षु सावद्य क्रियाओं से रहित, जीवों का अहिंसक, क्रोधरहित, निर्मानी, अमायी, निर्लोभी, उपशान्त एवं परिनिर्वृत्त होकर रहे। वह अपनी क्रिया से इहलोक – परलोक में काम – भोगों की प्राप्ति की आकांक्षा न करे, (जैसे कि) – यह जो ज्ञान मैंने जाना – देखा है, सूना है अथवा मनन किया है, एवं विशिष्ट रूप से अभ्यस्त किया है, तथा यह जो मैने तप, नियम, ब्रह्मचर्य आदि चारित्र का सम्यक् आचरण किया है, एवं मोक्षयात्रा का तथा शरीर – निर्वाह के लिए अल्प मात्रा में शुद्ध आहार ग्रहणरूप धर्म का पालन किया है, इन सब सुकार्यों के फलस्वरूप यहाँ से शरीर छोड़ने के पश्चात् परलोक में मैं देव हो जाऊं, समस्त कामभोग मेरे अधीन हो जाएं, मैं अणिमा आदि सिद्धियों से युक्त हो जाऊं, एवं सब दुःखों तथा अशुभकर्मों से रहित हो जाऊं; क्योंकि विशिष्ट तपश्चर्या आदि के होते हुए भी कभी अणिमादि सिद्धि प्राप्त हो जाती है, कभी नहीं भी होती। जो भिक्षु मनोज्ञ शब्दों, रूपों, गन्धों, रसों, एवं कोमल स्पर्शों से अमूर्च्छित रहता है, तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, संयम में अरति, असंयम में रति, मायामृषा एवं मिथ्या – दर्शन रूप शल्य से विरत रहता है; इस कारण से वह भिक्षु महान कर्मों के आदान से रहित हो जाता है, वह सुसंयम में उद्यत हो जाता है, तथा पापों से विरत हो जाता है। जो ये त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनका वह भिक्षु स्वयं समारम्भ नहीं करता, न वह दूसरों से समारम्भ कराता है, और न ही समारम्भ करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करता है। इस कारण से वह साधु महान कर्मों के आदान से मुक्त हो जाता है, शुद्ध संयम में उद्यत रहता है तथा पापकर्मों से निवृत्त हो जाता है। जो ये सचित्त या अचित्त कामभोग हैं, वह भिक्षु स्वयं उनका परिग्रह नहीं करता, न दूसरों से परिग्रह कराता है, और न ही उनका परिग्रह करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन करता है। इस कारण से वह भिक्षु महान कर्मों के आदान से मुक्त हो जाता है यावत् पापकर्मों से विरत हो जाता है। जो यह साम्परायिक कर्म – बन्ध किया जाता है, उसे भी वह भिक्षु स्वयं नहीं करता, न दूसरों से कराता है, और न ही साम्परायिक कर्म – बन्धन करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करता है। इस कारण वह भिक्षु महान कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है, वह शुद्ध संयम में रत और पापों से विरत रहता है। यदि वह भिक्षु यह जान जाए कि अमुक श्रावक ने किसी निष्परिग्रह साधर्मिक साधु को दान देने के उद्देश्य से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का आरम्भ करके आहार बनाया है, खरीदा है, उधार लिया है, बलात् छीन कर लिया है, स्वामी से पूछे बिना ही ले लिया है, साधु के सम्मुख लाया हुआ है, साधु के निमित्त से बनाया हुआ है, तो ऐसा सदोष आहार वह न ले। कदाचित् भूल से ऐसा सदोष आहार ले लिया हो तो स्वयं उसका सेवन न करे, दूसरे साधुओं को भी वह आहार न खिलाए, और न ऐसा सदोष आहार – सेवन करने वाले को अच्छा समझे। इस प्रकार के सदोष आहारत्याग से वह भिक्षु महान कर्मों के बन्धन से दूर रहता है यावत् पापकर्मों से विरत रहता है। यदि साधु यह जान जाए कि गृहस्थ ने जिनके लिए आहार बनाया है वे साधु नहीं, अपितु दूसरे हैं; जैसे कि गृहस्थ ने अपने पुत्रों के लिए अथवा पुत्रियों, पुत्रवधूओं के लिए, धाय के लिए, ज्ञातिजनों के लिए, राजन्यों, दास, दासी, कर्मकर, कर्मकरी तथा अतिथि के लिए, या किसी दूसरे स्थान पर भेजने के लिए या रात्रि में खाने के लिए अथवा प्रातः नाश्ते के लिए आहार बनाया है, अथवा इस लोक में जो दूसरे मनुष्य हैं, उनको भोजन देने के लिए उसने आहार का अपने पास संचय किया है; ऐसी स्थिति में साधु दूसरे के द्वारा दूसरों के लिए बनाये हुए तथा उद्गम, उत्पाद और एषणा दोष से रहित शुद्ध एवं अग्नि आदि शस्त्र द्वारा परिणत होने से प्रासुक बने हुए एवं अग्नि आदि शस्त्रों द्वारा निर्जीव किये हुए अहिंसक तथा एषणा से प्राप्त, तथा साधु के वेषमात्र से प्राप्त, सामुदायिक भिक्षा से प्राप्त, गीतार्थ के द्वारा ग्राह्य कारण से साधु के लिए ग्राह्य प्रमाणोपेत, एवं गाड़ी को चलाने के लिए उसकी धूरी में दिये जाने वाले तेल तथा घाव पर लगाये गए लेप के समान केवल संयमयात्रा के निर्वाहार्थ ग्राह्य आहार का बिल में प्रवेश करते हुए साँप के समान स्वाद लिये बिना ही सेवन करे। जैसे कि वह भिक्षु अन्नकाल में अन्न का, पानकाल में पान का, वस्त्रकाल में वस्त्र का, मकान समय में मकान का, शयनकाल में शय्या का ग्रहण एवं सेवन करता है। वह भिक्षु मात्रा एवं विधि का ज्ञाता होकर किसी दिशा या अनुदिशा में पहुँचकर, धर्म का व्याख्यान करे, विभाग करके प्रतिपादन करे, धर्म के फल का कीर्तन करे। साधु उपस्थित अथवा अनुपस्थित श्रोताओं को धर्म का प्रतिपादन करे। साधु के लिए विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, आर्जव, मार्दव, लाघव तथा समस्त प्राणी, भूत, जीव और सत्व के प्रति अहिंसा आदि धर्मों के अनुरूप विशिष्ट चिन्तन करके धर्मोपदेश दे। धर्मोपदेश करता हुआ साधु अन्न के लिए, पान के लिए, सुन्दर वस्त्र – प्राप्ति के लिए, सुन्दर आवासस्थान के लिए, विशिष्ट शयनीय पदार्थों की प्राप्ति के लिए धर्मोपदेश न करे, तथा दूसरे विविध प्रकार के कामभोगों की प्राप्ति के लिए धर्म कथा न करे। प्रसन्नता से धर्मोपदेश करे। कर्मों की निर्जरा के उद्देश्य के सिवाय अन्य किसी भी फलाकांक्षा से धर्मोपदेश न करे इस जगत में उस भिक्षु से धर्म को सूनकर, उस पर विचार करके सम्यक् रूप से उत्थित वीर पुरुष ही इस आर्हत धर्म में उपस्थित होते हैं। जो वीर साधक उस भिक्षु से धर्म को सून – समझ कर सम्यक् प्रकार से मुनिधर्म का आचरण करने के लिए उद्यत होते हुए इस धर्म में दीक्षित होते हैं, वे सर्वोपगत हो जाते हैं, वे सर्वोपरत हो जाते हैं, वे सर्वोपशान्त हो जाते हैं, एवं वे समस्त कर्मक्षय करके परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं। यह मैं कहता हूँ। इस प्रकार वह भिक्षु धर्मार्थी धर्म का ज्ञाता और नियाग को प्राप्त होता है। ऐसा भिक्षु, जैसा कि पहले कहा गया था, पूर्वोक्त पुरुषों में से पाँचवा पुरुष है। वह श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल के समान निर्वाण को प्राप्त कर सके अथवा उस श्रेष्ठ पुण्डरीक कमल को (मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्याय ज्ञान तक ही प्राप्त होने से) प्राप्त न कर सके। इस प्रकार का भिक्षु कर्म का परिज्ञाता, संग का परिज्ञाता, तथा गृहवास का परिज्ञाता हो जाता है। वह उपशान्त, समित, सहित एवं सदैव यतनाशील होता है। उस साधक को इस प्रकार कहा जा सकता है, जैसे कि – वह श्रमण है, या माहन है, अथवा वह क्षान्त, दान्त, गुप्त, मुक्त, तथा महर्षि है, अथवा मुनि, कृती तथा विद्वान है, अथवा भिक्षु, रूक्ष, तीरार्थी चरण – करण के रहस्य का पारगामी है। – ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन – १ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन – २ – क्रियास्थान | ||
Mool Sutra Transliteration : | [sutra] tattha khalu bhagavaya chhajjivanikaya heu pannatta, tam jaha–pudhavikae aukae teukae vaukae vanassaikae tasakae. Se jahanamae mama asayam damdena va atthina va mutthina va leluna va kavalena va audijjamanassa va hammamanassa va tajjijjamanassa va tadijjamanassa va paritavijjamanassa va ‘kilamijjamanassa va uddavijjamanassa va’ java lomukkhananama-yamavi himsakaragam dukkham bhayam padisamvedemi– ichchevam jana. Savve pana savve bhuya savve jiva savve satta damdena va atthina va mutthina va leluna va kavalena va audijjamana va hammamana va tajjijjamana va tadijjamana va paritavijjamana va kilamijjamana va uddavijjamana va java lomukkhanana-mayamavi himsakaragam dukkham bhayam padisamvedemti. Evam nachcha savve pana savve bhuya savve jiva savve satta na hamtavva na ajjaveya-vva na parighetavva na paritaveyavva na uddaveyavva. Se bemi–je aiya, je ya paduppanna, je ya agamessa arahamta bhagavamto savve te evamaikkhamti, evam bhasamti, evam pannavemti, evam paruvemti–savve pana savve bhuya savve jiva savve satta na hamtavva na ajjaveyavva na parighetavva na paritaveyavva na uddaveyavva. Esa dhamme dhuve nitie sasae samechcha logam kheyannehim paveie. Evam se bhikkhu virae panaivayao virae musavayao virae adattadanao virae mehunao virae pariggahao no ‘damtapakkhalanenam damte pakkhalejja’, no amjanam, no vamanam, no vireyanam, no dhuvanam, no tam pariyaviejja. Se bhikkhu akirie alusae akohe amane amae alohe uvasamte parinivvude no asamsam purato karejja–imena me ditthena va suena va maena va vinnaena va, imena va suchariya-tava-niyama-bambhacheravasenam, imena va jayamayavuttienam dhammenam ito chute pechcha deve siya ‘kamabhogana vasavatti’, siddhe va adukkhamasuhe. Ettha vi siya, ettha vi no siya. Se bhikkhu ‘saddehim amuchchhie ruvehim amuchchhie gamdhehim amuchchhie rasehim amuchchhie phasehim’ amuchchhie, virae–kohao manao mayao lobhao pejjao dosao kalahao abbhakkhanao pesunnao paraparivayao arairaio mayamo-sao michchhadamsanasallao–iti se mahato adanao uvasamte uvatthie padivirate. Se bhikkhu–je ime tasathavara pana bhavamti–te no sayam samarambhai, no annehim samarambhavei, anne samarambhamte vi na samanujanai–iti se mahato adanao uvasamte uvatthie padivirate. Se bhikkhu–je ime kamabhoga sachitta va achitta va–te no sayam pariginhai, no annenam’ pariginhavei, annam pariginhamtampi na samanujanai–iti se mahato adanao uvasamte uvatthie padivirate. Se bhikkhu–jam pi ya imam samparaiyam kammam kajjai–no tam sayam karei, ‘no annenam’ karavei, annam pi karemtam ‘na samanujanai’–iti se mahato adanao uvasamte uvatthie padivirate. Se bhikkhu janejja–asanam va panam va khaimam va saimam va assimpadiyae egam sahammiyam samuddissa panaim bhuyaim jivaim sattaim samarabbha samuddissa kiyam pamichcham achchhejjam anasattham abhihadam ahattuddesiyam, tam chetiyam siya, tam no sayam bhumjai no annenam bhumjavei, annam pi bhumjamtam na samanujanai–iti se mahato adanao uvasamte uvatthie padivirate. Se bhikkhu aha puna eva janejja–tam vijjai tesim parakkame. Jassatthae chetiyam siya, tam jaha–appano puttanam dhuyanam sunhanam dhatinam patinam rainam dasanam dasinam kammakaranam kammakarinam aesanam pudho pahenae samasae patarasae sannihi-sannichao kajjati, ii eesim manavanam bhoyanae. Tattha bhikkhu parakada-paranitthitam uggamuppayanesanasuddham satthatitam satthaparinamitam avihisitam esitam vesitam samudaniyam panna masanam karanattha pamanajuttam akkhovamjana-vanalevanabhuyam, samjamajayamayavuttiyam bilamiva pannagabhutenam appanenam aharam ahare-jja–annam annakale panam panakale vattham vatthakale lenam lenakale sayanam sayanakale. Se bhikkhu mayanne annayarim disam va anudisam va padivanne dhammam aikkhe vibhae kitte, uvatthiesu va anuvatthi-esu va sussusamanesu pavedae– ‘samtim viratim’ uvasamam nivvanam soyaviyam ajjaviyam maddaviyam laghaviyam anativatiyam. Savvesim pananam savvesim bhuyanam savvesim jivanam savvesim sattanam anuvii kittae dhammam. Se bhikkhu dhammam kittemane–no annassa heum dhammamaikkhejja. No panassa heum dhammamaikkhejja. No vatthassa heum dhammamaikkhejja. No lenassa heum dhammamaikkhejja. No sayanassa heum dhammama-ikkhejja. No annesim viruvaruvanam kamabhoganam heum dhammamaikkhejja. Agilae dhammamai-kkhejja. Nanattha kammanijjaratthayae dhammamaikkhejja. Iha khalu tassa bhikkhussa amtie dhammam sochcha nisamma sammam utthanenam utthaya vira assim dhamme samutthiya. Je tassa bhikkhussa amtie dhammam sochcha nisamma sammam utthanenam utthaya vira assim dhamme samutthiya, te evam savvovagata, te evam savvovarata, te evam savvovasamta, te evam savvattae parinivvuda tti bemi. Evam se bhikkhu dhammatthi dhammaviu niyagapadivanne, se jaheyam buiyam, aduva patte paumavarapomdariyam, aduva apatte paumavarapomdariyam. Evam se bhikkhu parinnayakamme parinnayasamge parinnayagehavase uvasamte samie sahie saya jae. Se eyavayanijje tam jaha–samane ti va mahane ti va khamte ti va damte ti va gutte ti va mutte ti va isi ti va muni ti va kati ti va vidu ti va bhikkhu ti va luhe ti va tiratthi ti va charanakaranaparaviu. | ||
Sutra Meaning Transliteration : | Sarvajnya bhagavana tirthamkara deva ne shatjivanikayom ko karmabandha ke hetu batae haim. Jaise ki – prithvikaya se lekara trasakaya taka. Jaise koi vyakti mujhe damde se, haddi se, mukke se, dhele ya paththara se, athava ghare ke phute hue thikare adi se marata hai, athava chabuka adi se pitata hai, athava amguli dikhakara dhamakata hai, ya damtata hai, athava tarana karata hai, ya satata hai, athava klesha, udvigna, ya upadrava karata hai, ya darata hai, to mujhe duhkha hota hai, yaham taka ki mera eka roma bhi ukharata hai to mujhe marane jaisa duhkha aura bhaya ka anubhava hota hai. Isi taraha sabhi jiva, sabhi bhuta, samasta prani aura sarva satva, damde, mukke, haddi, chabuka yavat udvigna kiye jane se, yaham taka ki eka roma matra ke ukhare jane se ve mrityu ka – sa kashta evam bhaya mahasusa karate haim. Aisa janakara samasta prana, bhuta, jiva aura satva ki himsa nahim karani chahie, unhem balat apani ajnya ka palana nahim karana chahie, na unhem balat pakarakara ya dasa – dasi adi ke rupa mem kharida kara rakhana chahie, na hi kisi prakara ka samtapa dena chahie aura na unhem udvigna karana chahie. Isalie maim kahata hum – bhutakala mem jo bhi arhanta ho chuke, vartamana mem jo bhi tirthamkara haim, tatha jo bhi bhavishya mem homge; ve sabhi arhanta bhagavana aisa hi upadesha dete haim; aisa hi kahate haim, aisa hi batate haim, aura aisi hi prarupana karate haim ki – kisi bhi prani, bhuta, jiva aura satva ki himsa nahim karani chahie, na hi balat unase ajnya palana karana chahie, na unhem balat dasa – dasi adi ke rupa mem pakarakara ya kharidakara rakhana chahie, na unhem paritapa dena chahie aura na unhem udvigna karana chahie. Yahi dharma dhruva hai, nitya hai, shashvata hai. Samasta loka ko kevala – jnyana ke prakasha mem janakara jivom ke kheda ko ya kshetra ko janane vale shri tirthamkarom ne isa dharma ka pratipadana kiya hai. Isa prakara vaha bhikshu pranatipata se lekara parigraha – paryanta pamchom ashravom se virata ho, damtom ko sapha na kare, amkhom mem amjana na lagae, vamana na kare, tatha apane vastrom ya avasasthana ko sugandhita na kare aura dhumrapana na kare. Vaha bhikshu savadya kriyaom se rahita, jivom ka ahimsaka, krodharahita, nirmani, amayi, nirlobhi, upashanta evam parinirvritta hokara rahe. Vaha apani kriya se ihaloka – paraloka mem kama – bhogom ki prapti ki akamksha na kare, (jaise ki) – yaha jo jnyana maimne jana – dekha hai, suna hai athava manana kiya hai, evam vishishta rupa se abhyasta kiya hai, tatha yaha jo maine tapa, niyama, brahmacharya adi charitra ka samyak acharana kiya hai, evam mokshayatra ka tatha sharira – nirvaha ke lie alpa matra mem shuddha ahara grahanarupa dharma ka palana kiya hai, ina saba sukaryom ke phalasvarupa yaham se sharira chhorane ke pashchat paraloka mem maim deva ho jaum, samasta kamabhoga mere adhina ho jaem, maim anima adi siddhiyom se yukta ho jaum, evam saba duhkhom tatha ashubhakarmom se rahita ho jaum; kyomki vishishta tapashcharya adi ke hote hue bhi kabhi animadi siddhi prapta ho jati hai, kabhi nahim bhi hoti. Jo bhikshu manojnya shabdom, rupom, gandhom, rasom, evam komala sparshom se amurchchhita rahata hai, tatha krodha, mana, maya, lobha, raga, dvesha, kalaha, abhyakhyana, paishunya, paraparivada, samyama mem arati, asamyama mem rati, mayamrisha evam mithya – darshana rupa shalya se virata rahata hai; isa karana se vaha bhikshu mahana karmom ke adana se rahita ho jata hai, vaha susamyama mem udyata ho jata hai, tatha papom se virata ho jata hai. Jo ye trasa aura sthavara prani haim, unaka vaha bhikshu svayam samarambha nahim karata, na vaha dusarom se samarambha karata hai, aura na hi samarambha karate hue vyakti ka anumodana karata hai. Isa karana se vaha sadhu mahana karmom ke adana se mukta ho jata hai, shuddha samyama mem udyata rahata hai tatha papakarmom se nivritta ho jata hai. Jo ye sachitta ya achitta kamabhoga haim, vaha bhikshu svayam unaka parigraha nahim karata, na dusarom se parigraha karata hai, aura na hi unaka parigraha karane vale vyakti ka anumodana karata hai. Isa karana se vaha bhikshu mahana karmom ke adana se mukta ho jata hai yavat papakarmom se virata ho jata hai. Jo yaha samparayika karma – bandha kiya jata hai, use bhi vaha bhikshu svayam nahim karata, na dusarom se karata hai, aura na hi samparayika karma – bandhana karate hue vyakti ka anumodana karata hai. Isa karana vaha bhikshu mahana karmom ke bandhana se mukta ho jata hai, vaha shuddha samyama mem rata aura papom se virata rahata hai. Yadi vaha bhikshu yaha jana jae ki amuka shravaka ne kisi nishparigraha sadharmika sadhu ko dana dene ke uddeshya se pranom, bhutom, jivom aura sattvom ka arambha karake ahara banaya hai, kharida hai, udhara liya hai, balat chhina kara liya hai, svami se puchhe bina hi le liya hai, sadhu ke sammukha laya hua hai, sadhu ke nimitta se banaya hua hai, to aisa sadosha ahara vaha na le. Kadachit bhula se aisa sadosha ahara le liya ho to svayam usaka sevana na kare, dusare sadhuom ko bhi vaha ahara na khilae, aura na aisa sadosha ahara – sevana karane vale ko achchha samajhe. Isa prakara ke sadosha aharatyaga se vaha bhikshu mahana karmom ke bandhana se dura rahata hai yavat papakarmom se virata rahata hai. Yadi sadhu yaha jana jae ki grihastha ne jinake lie ahara banaya hai ve sadhu nahim, apitu dusare haim; jaise ki grihastha ne apane putrom ke lie athava putriyom, putravadhuom ke lie, dhaya ke lie, jnyatijanom ke lie, rajanyom, dasa, dasi, karmakara, karmakari tatha atithi ke lie, ya kisi dusare sthana para bhejane ke lie ya ratri mem khane ke lie athava pratah nashte ke lie ahara banaya hai, athava isa loka mem jo dusare manushya haim, unako bhojana dene ke lie usane ahara ka apane pasa samchaya kiya hai; aisi sthiti mem sadhu dusare ke dvara dusarom ke lie banaye hue tatha udgama, utpada aura eshana dosha se rahita shuddha evam agni adi shastra dvara parinata hone se prasuka bane hue evam agni adi shastrom dvara nirjiva kiye hue ahimsaka tatha eshana se prapta, tatha sadhu ke veshamatra se prapta, samudayika bhiksha se prapta, gitartha ke dvara grahya karana se sadhu ke lie grahya pramanopeta, evam gari ko chalane ke lie usaki dhuri mem diye jane vale tela tatha ghava para lagaye gae lepa ke samana kevala samyamayatra ke nirvahartha grahya ahara ka bila mem pravesha karate hue sampa ke samana svada liye bina hi sevana kare. Jaise ki vaha bhikshu annakala mem anna ka, panakala mem pana ka, vastrakala mem vastra ka, makana samaya mem makana ka, shayanakala mem shayya ka grahana evam sevana karata hai. Vaha bhikshu matra evam vidhi ka jnyata hokara kisi disha ya anudisha mem pahumchakara, dharma ka vyakhyana kare, vibhaga karake pratipadana kare, dharma ke phala ka kirtana kare. Sadhu upasthita athava anupasthita shrotaom ko dharma ka pratipadana kare. Sadhu ke lie virati, upashama, nirvana, shaucha, arjava, mardava, laghava tatha samasta prani, bhuta, jiva aura satva ke prati ahimsa adi dharmom ke anurupa vishishta chintana karake dharmopadesha de. Dharmopadesha karata hua sadhu anna ke lie, pana ke lie, sundara vastra – prapti ke lie, sundara avasasthana ke lie, vishishta shayaniya padarthom ki prapti ke lie dharmopadesha na kare, tatha dusare vividha prakara ke kamabhogom ki prapti ke lie dharma katha na kare. Prasannata se dharmopadesha kare. Karmom ki nirjara ke uddeshya ke sivaya anya kisi bhi phalakamksha se dharmopadesha na kare isa jagata mem usa bhikshu se dharma ko sunakara, usa para vichara karake samyak rupa se utthita vira purusha hi isa arhata dharma mem upasthita hote haim. Jo vira sadhaka usa bhikshu se dharma ko suna – samajha kara samyak prakara se munidharma ka acharana karane ke lie udyata hote hue isa dharma mem dikshita hote haim, ve sarvopagata ho jate haim, ve sarvoparata ho jate haim, ve sarvopashanta ho jate haim, evam ve samasta karmakshaya karake parinirvana ko prapta hote haim. Yaha maim kahata hum. Isa prakara vaha bhikshu dharmarthi dharma ka jnyata aura niyaga ko prapta hota hai. Aisa bhikshu, jaisa ki pahale kaha gaya tha, purvokta purushom mem se pamchava purusha hai. Vaha shreshtha pundarika kamala ke samana nirvana ko prapta kara sake athava usa shreshtha pundarika kamala ko (mati, shruta, avadhi evam manahparyaya jnyana taka hi prapta hone se) prapta na kara sake. Isa prakara ka bhikshu karma ka parijnyata, samga ka parijnyata, tatha grihavasa ka parijnyata ho jata hai. Vaha upashanta, samita, sahita evam sadaiva yatanashila hota hai. Usa sadhaka ko isa prakara kaha ja sakata hai, jaise ki – vaha shramana hai, ya mahana hai, athava vaha kshanta, danta, gupta, mukta, tatha maharshi hai, athava muni, kriti tatha vidvana hai, athava bhikshu, ruksha, tirarthi charana – karana ke rahasya ka paragami hai. – aisa maim kahata hum. Adhyayana – 1 ka muni diparatnasagara krit hindi anuvada purna Adhyayana – 2 – kriyasthana |